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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माद्रेयजाङ्गल ( २५२ ) मान्धाता पालनकी इच्छा प्रकट करना, अन्यथा प्राणत्यागका निश्चय होना ( उद्योग० १२० । २५) । (२) स्कन्दकी बताना (आदि. ११८।१-३०)। पुत्र प्राप्तिके हेतु अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६ । ७)। मुझपर भी कुन्तीदेवी अनुग्रह करें-इस प्रकार इनकी मानवर्जक-एक भारतीय जनपद ( भीष्म० १।५०)। पाण्डुसे प्रार्थना (आदि० १२३ । १-६) । अश्विनी-' . मानवी-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँके कुमारोदारा इनके गर्भसे नकुल तथा सहदेवका जन्म निवासी पीते हैं (भीष्म० ९ । ३२)। (आदि० १२३ । १६) । पाण्डुके निधनपर इनका विलाप ( आदि. १२४ । १७ के बाद दा० पाठ )। मानस-(१) वासुकिकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके सर्पसत्रमें दग्ध हो गया ( आदि. ५७ । पाण्डुके साथ सती होनेके लिये अपनेको आज्ञा प्रदानके निमित्त इनकी कुन्तीसे प्रार्थना (आदि. १२४ । २५ ५) । (२) धृतराष्ट्रकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो २८ दा. पाठसहित)। शतशृङ्गनिवासी ऋषियोद्वारा सर्पसत्रमें भस्म हो गया ( आदि. ५७ । १६)। इनको आश्वासन तथा सती न होनेके लिये अनुरोध (३) हिमालयपर स्थित एक प्राचीन सरोवर, जहाँ (आदि० १२४ । २८ के बाद)। अपने अन्तिम समय उत्तर-दिग्विजयके अवसरपर अर्जुन पधारे थे (सभा० २८ । ४) । मानससरोवरके आस-पास निवास करनेवाले में इनके द्वारा पाण्डवोंको शिक्षा (आदि. १२४ । २८ के बाद दा. पाठ)। कुन्तीसे आज्ञा लेकर इनका साधकको युगके अन्तमें पार्षदों तथा पार्वतीसहित इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले भगवान् शङ्करका प्रत्यक्ष चितारोहण (आदि० १२४ । ३१)। धृतराष्ट्रकी आज्ञासे दर्शन होता है। इस सरोवरके तटपर चैत्र मासमें कल्याणविदुर आदिद्वारा पाण्डु और माद्रीकी अस्थियोंका राजोचित ढंगसे दाह-संस्कार तथा भाई-बन्धुओदारा इनके लिये कामी याजक अनेक प्रकारके यज्ञोंद्वारा परिवारसहित पिनाकधारी भगवान् शिवकी आराधना करते हैं। इस जलाञ्जलि-दान (आदि. १२६ अध्याय)। माद्रीका अपने पतिके साथ महेन्द्रभवनमें निवास (स्वर्गा. ४ । सरोवर में श्रद्धापूर्वक स्नान और आचमन करके पाप२०, स्वर्गा० ५। १५)। मुक्त हुआ जितेन्द्रिय पुरुष शुभ लोकोंमें जाता है । इस सरोवरका दूसरा नाम उजानक है। यहाँ भगवान् स्कन्द माद्रेयजाङ्गल-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ३९)। तथा अरुन्धतीसहित महर्षि वसिष्ठने साधना करके सिद्धि माधव-मौन, ध्यान और योगसे श्रीकृष्णका बोध अथवा और शान्ति प्राप्त की है ( वन० १३० । १४-१७)। साक्षात्कार होता है, इसलिये उन्हें 'माधव' कहते हैं यहाँके हंसरूपधारी महर्षि शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मजी(उद्योग०७०।४)। को देखनेके लिये आये थे ( भीष्म० ११९ । ९८ ९९)। यह सरोवर एक पवित्र तीर्थ है (शान्ति. माधवी-(१) राजा ययातिकी पुत्री, जो तपस्विनी और १५२ । १२-१३)। उपश्रुति देवीने शचीको इसी मृगचर्मसमावृत होकर मृगव्रतका पालन कर रही थी। सरोवरपर कमलनालमें छिपे हुए इन्द्रका दर्शन कराया इसका अष्टक आदि पुत्रोंको ययातिका परिचय देना, था । देवताओंने वसिष्ठजीकी शरण ले इस सरोवरके तटपर अपने पुण्योंद्वारा स्वर्ग जानेके लिये इसका ययातिको किसी समय यज्ञ आरम्भ किया था ( अनु० १५५ । आश्वासन (आदि० ९३ । १३ के बाद, पृष्ठ २८२)। ययातिका गालवको अपनी कन्या माधवी सौंपना (उद्योग मानसद्वार-मानसरोवरके पासका एक पर्वत जो उसका द्वार ११५। १२)। माधवीका गालवसे अपने मनकी बात माना जाता है। इसके मध्यभागमें परशुरामजीने अपना कहना ( उद्योग० ११६ । १०-१३)। इसके गर्भसे आश्रम बनाया था (वन० १३० । १२)। अयोध्यानरेश हर्यश्वद्वारा वसुमान् ( वसुमना) की उत्पत्ति (उद्योग० ११६ । १६) । काशिराज दिवोदासके द्वारा मानुषतीर्थ-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक लोकविख्यात तीर्थ, जहाँ व्याधोंके बाणोंसे घायल हुए मृग उस सरोवरमें इसके गर्भसे प्रतर्दनका जन्म (उद्योग०११७।१८)। उशीनरके द्वारा शिबि नामक पुत्रकी उत्पत्ति ( उद्योग गोते लगाकर मानव-शरीर पा गये थे; इसीलिये उसका ११८।२०)। विश्वामित्रके द्वारा इसके गर्भसे अष्टकका नाम मानुषतीर्थ हुआ । वहाँ ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक एकाग्र चित्त हो स्नान करनेवाला मानव पापमुक्त हो स्वर्गजन्म (उद्योग. ११९।१८)। इसके स्वयंवरका वर्णन लोकमें प्रतिष्ठित होता है (वन० ८३ । ६५-६६)। (उद्योग. १२०१-५)। इसका स्वयंवरमें तपोवनका वरण करके मृगीरूपसे तप करना (उद्योग. मान्धाता-इक्ष्वाकुवंधीय महाराज युवनाश्वके पुत्र (वन. १२.। ५--11)। स्वर्गलोकसे गिरे हुए पिता ययातिके १२ । ४१)। युवनाश्वके पेटसे इनका जन्म (व लिये इसका अपने तपके आधे पुण्यको देनेके लिये उद्यत १२६ । २७-२८)। मान्धाता' नाम पड़नेका कारण For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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