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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गवायन ( १०१ ) गान्धारी एक छोटा भाई,जिसने अन्य भाइयों के साथ रहकर पाण्डव- ऋचीक मुनिको अपनी कन्या सत्यवतीका दान ( वन सेनाके दुर्जय व्यूहमें प्रवेश किया था (भीष्म ९० । ११५ । २८ शान्ति. ४९ । ७)। तीर्थयात्राके २७-३०) । इरावानद्वारा इसका वध (भीष्म० प्रसङ्गसे इनका ऋचीकके आश्रमपर जाना (शान्ति. ९० । ४५-४६)। ४९ । १३)। कुशिकपुत्र गाधि दीर्घकालतक संतानगवायन-एक यज्ञका नाम (वन०८४ । १०२)। हीन थे अतः संतानकी इच्छासे पुण्य कर्म करनेके लिये गविष्ठ-दस विख्यात दानवोंमेंसे एक ( आदि. ६५ । वे वनमें रहने लगे। वहाँ सोमयाग करनेसे उन्हें एक कन्या हुई, जिसका नाम सत्यवती था । इसे ऋचीक ३०)। यही राजा द्रुमसेनके रूपमें प्रकट हुआ था (आदि. ६७ । ३४-३५)। मुनिने माँगा । तब गाधिने शुल्क लेकर कन्या देनेकी इच्छा प्रकट की और चन्द्रमाके समान कान्तिमान् तथा गाङ्गेय-(१) गङ्गानन्दन देववत भीष्म ( आदि० ९९ । श्यामवर्णके एक कर्णवाले एक हजार घोड़े लेकर उन्होंने ४७)। गङ्गानन्दन देवव्रत भीष्म (अनु० २६ । २)। अपनी कन्या उन ब्रह्मर्षिको दे दी ( अनु० ४।६(२) गङ्गापुत्र भगवान् स्कन्द (शल्य.४४ । १६)। २०)। ये अपने पुत्र विश्वामित्रको राज्यसिंहासनपर (३) गङ्गाजीका जल (वन० ३ । ३५)। बिठाकर स्वर्गलोकको चले गये (शल्य० ४० । १६)। गाण्डीव-वरुणदेवका एक दिव्य धनुष, जो अग्निदेवके द्वारा गान्धर्व-एक प्रकारका विवाह (आदि० ७३ । ९) । वर अर्जुनको दो अक्षय तरकोंके साथ प्राप्त हुआ (आदि. ६।। ४७-४८. उद्योग. १५८ । ६) । अग्निका और वधू दोनों एक-दूसरेको स्वेच्छासे स्वीकार कर लें। यह गान्धर्व विवाह है । यह विवाह क्षत्रियोंके लिये वरुणसे अर्जुनके लिये गाण्डीव धनुष, दो अक्षय तरकस और कपिध्वज रथ माँगना तथा वरुणका उनकी माँग धर्मानुकूल है (आदि० ७३ । १३)। स्वीकार करके वे सब वस्तुएँ प्रस्तुत करना ( आदि० गान्धार-एक प्राचीन देश, आधुनिक मतके अनुसार २२४ । ३-१७ ) । अर्जुनद्वारा गाण्डीव-ग्रहण इसमें सिन्धु और कुनर नदीसे लेकर काबुल नदीतकका (आदि० २२४ । २०)। गाण्डीव धनुष शत्रुओंकी प्रदेश और पेशावर तथा मुल्तान सम्मिलित हैं। गान्धारीके सेनाके लिये कालरूप है । यह सब आयुधोंसे विशाल है। पिता सुबल यहींके राजा थे (आदि० १०९।११)। यह अकेला ही एक लाख धनुर्षोंके समान है। देवताओं, गान्धारी-(१) पूरुवंशीय महाराज अजमीढ़की द्वितीय दानवों और गन्धर्वोने इसका बहुत वर्षोंतक पूजन किया पत्नी (आदि. ९५ । ३७)। (२) गान्धारराज है। इसमें कभी कहीं कोई चोटका चिह्न नहीं आया है। सुबलकी पुत्री (आदि. १०९।९)। ये मतिके अंशसे पूर्वकालमें ब्रह्माजीने इसे एक हजार वर्षांतक धारण किया उत्पन्न हुई थीं (आदि० ६७ । १६०)। इन्होंने था। तदनन्तर प्रजापतिने पाँच सौ तीन वर्षोंतक इसे भगवान् शङ्करकी आराधना करके उनसे अपने लिये सौ अपने पास रक्खा । फिर इन्द्रने पचासी वर्षांतक, सोमने पुत्र प्राप्त होने का वरदान पा लिया था (आदि. १०९। पाँच सौ वर्षोंतक तथा राजा वरुणने सौ वर्षोंतक इसे धारण १०)। पिताद्वारा इनका धृतराष्ट्र के लिये वाग्दान (आदि. किया था (विराट० ४३ । १०६) । वज्रकी गाँठको १०९ । १२)। गान्धारी पतिव्रत-परायणा थी। उन्होंने जब 'गाण्डीव' कहा गया है । यह धनुष इसीका बना हुआ सुना कि मेरे भावी पति अंधे हैं और माता-पिता मेरा विवाह है । इसलिये 'गाण्डीव' कहलाता है । जगत्का संहार उन्हींके साथ करना चाहते हैं, तब रेशमी वस्त्र करनेके लिये इसका निर्माण हुआ है । देवतालोग सदा लेकर उसके कई तह करके उसीसे अपनी आँखें बाँध ली। इसकी रक्षा करते हैं (उद्योग० ९८ । १९)। गाण्डीव उन्होंने निश्चय कर लिया था कि मैं सदा पतिके अनुकूल दूसरेको दे दो' ऐसा कहनेवालेका सिर काट लेना यह रहूँगी । उनके दोष नहीं देखूगी ( आदि. १०९ । अर्जुनका उपांशु व्रत था (कर्ण० ६९ । ९-१०)। १३-१५) । शकुनिद्वारा इनके विवाह संस्कारका अग्निदेवके कहनेपर वरुणको वापस देनेके लिये अर्जुनने सम्पादन ( आदि. १०९ । १५-१७ ) । सुन्दरी गाण्डीव धनुष और अक्षय तरकसोको जलमें डाल दिया गान्धारीने अपने उत्तम स्वभाव, सदाचार तथा सद्व्यवहारोंथा (महाप्रस्था० ।। ३६-४२)। से समस्त कौरवोंको प्रसन्न कर लिया । अपने सुन्दर गाधि-विश्वामित्रके पिता । गाधिके पिताका नाम 'कुशनाभ बतोवसे समस्त गुरुजनोका प्रसन्नता प्राप्त करके उत्तम - था (आदि०७४ । ६९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। व्रतका पालन करनेवाली पतिपरायणा गान्धारीने कभी ये कुशिक (या कुशनाभ) के पुत्र तथा कान्यकुब्ज देशके दसरे पुरुषोंका नामतक नहीं लिया (आदि० १०९ । .. अधिपति थे (आदि. १७४ । ३) । इनके द्वारा १८-१९)। इनके द्वारा व्यासका सत्कार और उनसे For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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