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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विभावसु ( ३१५) विभीषण % A तब वह वेश्या उनके पुत्रको लुभाकर अपने साथ ले गयी और राजा लोमपादने उन्हें अपने अन्तःपुरमें ठहराया। आश्रमपर लौटनेपर अपने पुत्रको न देखकर विभाण्डक मुनि अत्यन्त कुपित हो उठे। इन्हें राजा लोमपादपर संदेह हुआ। तब वे चम्पा नगरीकी ओर चल दिये। मार्गेमें इनका बड़ा सत्कार हुआ। अङ्गदेशका सारा वैभव इनके पुत्र ऋष्यशृङ्गका ही बताया गया । राजाके यहाँ पहुँचकर इन्होंने वहाँ अपने पुत्र और पुत्रवधूको देखा । इससे इनका क्रोध शान्त हो गया और इन्होंने राजा लोमपादपर बड़ी कृपा की। शान्ताके गर्भसे पुत्र उत्पन्न हो जानेके बाद ऋष्यशृङ्गको वनमें ही आ जानेकी आशा देकर ये आश्रमको लौट गये (वन. ११३ । ६-२७)। अदृश्य देवतासे इनका प्रश्न करना (शान्ति०२२२अ० दा. पाठ, पृष्ठ ४९९९, कालम 1)। सनत्कुमारजीसे प्रश्न (शान्ति० २२२ दा० पाठ, पृष्ठ ४९९९ कालम २)। विभावसु-(१) विवस्वान् अथवा सूर्य ( आदि. १।। ४२)। (२) एक क्रोधी महर्षि, जो अपने भाई सुप्रतीक मुनिके शापसे कछुआ हो गये थे (आदि. ३९ । १५ -२३)। (३) एक ऋषि, जो युधिष्ठिरका विशेष आदर करते थे (वन० २६ । २४)। विभीषण-(१) एक यक्ष, जो कुबेरकी सभामे उपस्थित होकर उनकी सेवा करते हैं (सभा० १० । १७)। (२)राक्षसराज लङ्कापति विभीषण, जो कुबेरकी सभामें रहकर अपने भाई धनाध्यक्ष कुबेरकी उपासना करते हैं (सभा० १० । ३१)। ये विश्रवा मुनिके पुत्र, रावण और कुम्भकर्णके भाई थे। इनकी माताका नाम मालिनी था। इनके द्वारा युधिष्ठिरको अनेक प्रकारकी बहुमूल्य वस्तुओंकी भेंट(सभा० ३१ । ७२ के बाद दा. पाठ)। सहदेवने इनके पास घटोत्कचको अपना दूत बनाकर भेजा था (समा० ३१ । ७२ के बाद दा० पाठ और ७३ वा श्लोक, पृष्ठ ७५९)। इनकी आशासे घटोत्कचका इनके दरबारमें उपस्थित होना (सभा० ३१ । ७३ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ ७६०)। राक्षसराज विभीषणका महल अपनी उज्ज्वल आभासे कैलासके समान जान पड़ता था। उसका फाटक तपाये हुए सोनेसे तैयार किया गया था । चहारदीवारीसे घिरा हुआ वह राजमन्दिर अनेक गोपुरोंसे सुशोभित था। उसमें बहुतसी अट्टालिकाएँ तथा महल बने हुए थे। भाँति-भाँतिके रत्न उस भवनकी शोभा बढ़ाते थे। सोने, चाँदी और स्फटिक मणिके खम्भे नेत्र और मनको बरबस अपनी ओर खींच लेते थे । उन खम्भोंमें हीरे और वैदर्य जडे हुए थे। सुनहले रंगकी विविध ध्वजा-पताकाओंसे उस भव्य भवनकी विचित्र शोभा होती थी । विचित्र मालाओं से अलंकृत तथा विशुद्ध स्वर्णमय वेदिकाओंसे विभूषित वह राजभवन बड़ा रमणीय दिखायी देता था । वहाँ कानों में मृदङ्गकी मधुर ध्वनि सुनायी पड़ती थी। वीणाके तार शंकृत हो रहे थे और उसकी लयपर गीत गाया जा रहा था । सैकड़ों वाद्योंके साथ दिव्य दुन्दुभियोंका मधुर घोष गूंज रहा था । महात्मा विभीषण सोनेके सिंहासनपर बैठे थे। वह सिंहासन सूर्यके समान प्रकाशित हो रहा था। उसमें मोती तथा मणि आदि रत्न जड़े हुए थे। दिव्य आभूषणोंसे राक्षसराज विभीषणकी विचित्र शोभा हो रही थी। उनका रूप दिव्य था। वे दिव्य माला, दिव्य वस्त्र और दिव्य गन्धसे विभूषित थे। उनके समीप अनेक सचिव बैठे थे । बहुत-से सुन्दर यक्ष अपनी स्त्रियोंके साथ मङ्गलयुक्त वाणीद्वारा राजा विभीषणका विधिपूर्वक पूजन करते थे । दो सुन्दरी नारियों उन्हें चवर और व्यजन डुला रही थीं। राक्षसराज विभीषण कुबेर और वरुणके समान राजलक्ष्मीसे सम्पन्न एवं अद्भुत दिखायी देते थे । इनके अङ्गोसे दिव्य प्रभा छिटक रही थी। वे धर्मनिष्ठ थे और मन-ही-मन इक्ष्वाकु वंशशिरोमणि भगवान् श्रीरामचन्द्रका स्मरण करते थे। घटोत्कचने दोनों हाथ जोड़कर इन्हें प्रणाम किया ( सभा० ३१ । ७३ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७६१)। घटोत्कचके मुखसे युधिष्ठिर आदिका पूर्ण परिचय सुनकर विभीषणने प्रसन्नतापूर्वक सहदेवके लिये हाथीकी पीठपर बिछाने योग्य विचित्र कालीन, हाथीदाँत और सुवर्णके बने हुए पलंग, बहुमूल्य आभूषण, सुन्दर मूंगे, भाँतिभाँतिके मणि, रत्न, सोने के बर्तन, कलश, घड़े, विचित्र कड़ाहे, हजारों जलपात्र, चाँदीके बर्तन, चौदह सुवर्णमय ताड़, सुवर्णमय कमलपुष्प, मणिजटित शिबिकाएँ, बहुमूल्य मुकुट, सुनहले कुण्डल, सोनेके बने हुए पुष्प, हार, चन्द्रमाके समान उज्ज्वल शतावर्त शज, श्रेष्ठ चन्दन तथा और भी भाँति-भाँतिके बहुमूल्य पदार्थ भेंट किये (सभा० ३।। ७३ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७६२--७६४)। ये राक्षसराज रावणके छोटे भाई थे (वन. १३८ । १३)। इनके पिता महर्षि विश्रवा थे और माताका नाम मालिनी था (वन० २७५ । ८)। इनका श्रीरामकी शरणमें जाना (वन० २८३ । ४६)। श्रीरामने इन्हें लङ्काका राजा, लक्ष्मणका सखा और अपना सचिव बनाया (वन० २८३ । ४९)। इनका प्रहस्तके साथ युद्ध (वन० २८५ । १४)। इनके द्वारा प्रहस्तका वध (वन० २८६ । ४)। इनका कुबेरका भेजा हुआ जल श्रीरामको देना (वन० २८९।९-११)। श्रीरामद्वारा लङ्काका राज्य पाना (वन० २९१ । ५)। अयोध्याके राज्यपर अभिषिक्त होने के बाद श्रीरामचन्द्रजीने For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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