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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्यवती ( ३६७ ) सत्यवान् सत्य एवं सद्गुणसे सम्पन्न होनेके कारण वह 'सत्यवती' नामसे पाण्डुके शोकसे व्याकुल हुई माता सत्यवतीको आश्वासन प्रसिद्ध हई, मछेरोंके आश्रयमें रहने और मछलीकी सी देना तथा आनेवाले भयंकर समयका परिणाम बतलाकर गन्ध होनेके कारण वह कुछ काल मत्स्यगन्धा' कहलायी। तपोवनमें तपस्याके लिये जानेकी सम्मति प्रदान करना यह पिताकी सेवाके लिये यमुनाजीमें नाव चलाया करती (आदि. १२७ । ५-८)। अपने दोनों पुत्रवधुओं थी (आदि० ६३ । ५०-६९)। यह अतिशय रूप- (अम्बिका एवं अम्बालिका ) के साथ इसका तपोवनमें सौन्दर्यसे सुशोभित थी । एक दिन पराशर मुनिने इसे जाना और तपस्याद्वारा परमपद प्राप्त करना ( आदि. देखा और इसके साथ समागमकी इच्छा प्रकट की । इस- १२७ । १३)। की इच्छाके अनुसार अन्धकारके लिये उन्होंने कुहरेकी महाभारतमें आये हुए सत्यवतीके नाम-दाशेयी, सृष्टि कर दी। इसके कन्यात्वके अक्षुण्ण रहने और शरीर- गन्धकाली, गन्धवती, काली, सत्या, बासवी तथा योजनसे उत्तम सुगन्ध प्रकट होनेका भी महर्षिने इसे वर दे गन्धा आदि। दिया। फिर इसने महर्षिके साथ समागम किया । शरीरसे ( २ ) केकयकुलकी कन्या, इक्ष्वाकुवंशी महाराज उत्तम गन्ध निकलनेसे इसका गन्धवती' नाम प्रसिद्ध हुआ। त्रिशङ्ककी पत्नी और राजा हरिश्चन्द्रकी माता (सभा. इस पृथ्वीपर एक योजन दूरके मनुष्य भी इसकी सुगन्ध १२।१० के बाद दा० पाठ) । (३) महाराज का अनुभव करते थे, इस कारण इसका दूसरा नाम गाधिकी पुत्री, जिसका विवाह राजाने एक हजार योजनगन्धा' हो गया ( आदि० ६३ । ७०-८३)। श्यामकर्ण घोड़े लेकर ऋचीक मुनिके साथ किया था सत्यवतीने पराशरजीके सम्पर्कसे तत्काल ही एक शिशुको (वन० ११५ । २६-२९ )। (४) नारदजीकी जन्म दिया। यमुनाजीके द्वीपमें अत्यन्त शक्तिशाली परा भार्या ( उद्योग० ११७ । १५)। शरनन्दन व्यास प्रकट हुए । उन्होंने मातासे कहा-'आवश्यकता पड़नेपर तुम मेरा स्मरण करना, मैं अवश्य दर्शन सत्यवर्मा-त्रिगर्तराज सुशर्माका भाई ( संशप्तकयोद्धा ), जिसने अर्जनको मारनेके लिये प्रतिज्ञा की थी (द्रोण. दूंगा।' इतना कहकर उन्होंने माताकी आज्ञासे तपस्या ही मन लगाया (आदि. ६३ । ८४-८५)। पिताके १०। १७-१८)। पूछनेपर इसका अपने शरीरकी उत्तम गन्धमें महर्षि परा- सत्यवाक्-एक देवगन्धर्व, जो कश्यपकी पत्नी मुनि'का पुत्र शरकी कृपाको कारण बताना ( आदि. ६३ । ८६ के था (भादि० ६५ । ४३)। बाद दा. पाठ)। इसका एक नाम 'गन्धकाली' भी था। सत्यवान्-(१) शाल्वनरेश घुमत्सेनके पुत्र, जो नगरमें इसका शान्तनुके साथ विवाह और उनके द्वारा इसके जन्म लेकर भी तपोवनमें पालित, पोषित और संवर्धित गर्भसे चित्राङ्गद और विचित्रवीर्यका जन्म हुआ(आदि०९५।। हुए थे (वन० २९४ । १०)। मद्रराज अश्वपतिकी ४४-५०; आदि. १०१।३)। वंशकी रक्षाके लिये कन्या सावित्रीके साथ इनका विवाह (वन० २९५ । १५)। विवाह करने तथा अम्बिका आदिके गर्भसे पुत्रोत्पादनके __इनका समिधाके लिये वनमें जानेको उद्यत होना । लिये इसका भीष्मसे अनुरोध ( आदि. १०३ । १०- सावित्रीका इनसे अपनेको भी साथ ले चलनेका अनुरोध । १)। भीष्मके प्रति इसका अपने गर्भसे व्यासजीके इनका उसे माता-पिताकी आज्ञा लेकर चलनेके लिये स्वीकृति जन्मका वृत्तान्त सुनाना (आदि० १०४ । ५-१४)। देना (वन. २९६ । १४-२३)। इनका वनमें फल विचित्रवीर्यकी स्त्रियोंसे संतानोत्पादनके हेतु व्यासजीको बुलाने- चुनकर टोकरीमें रखना, फिर लकड़ी चीरना, श्रमसे इनके के सम्बन्धमें इसका भीष्मसे परामर्श ( आदि. १०४ । सिरमें दर्द होना, सावित्रीसे अपनी अस्वस्थता और १८-१९)। भीष्मकी अनुमति प्राप्त होनेपर कुरुवंशकी असमर्थताका वर्णन करना, यमराजका सावित्रीसे रक्षाके लिये इसके द्वारा व्यानजीका स्मरण (आदि. सत्यवान्की आयुके समाप्त होने और इन्हें बाँधकर ले १०४ । २३-२४) विचित्रवीर्यकी पत्नियोंसे पुत्रोत्पादन- जानेके लिये अपने आगमनकी बात बताना तथा सत्यवान्के के लिये इसके द्वारा व्यासको आदेश (आदि० १०४ । शरीरमें पाशमें बँधे हुए अङ्गुष्ठमात्र परिमाणवाले जीवको ३५-३८)। इसका रानी अम्बिकाको समझा-बुझाकर बलपूर्वक खींचकर निकालना (वन० २९६ । १-१७)। अनुकूल करके पुत्रोत्पादनके निमित्त व्यासकी प्रतीक्षा इनका पुनः जीवित होना और सावित्रीसे वार्तालाप करना, करनेके लिये आज्ञा देना (आदि. १०४ । ४९ से माता-पिताके दर्शनके लिये इनकी चिन्ता (बन० २९७ । आदि० १०५।२ तक)। इसका अम्बालिकाको तैयार ६४-१०२)। सावित्रीके साथ इनका आश्रमकी ओर करना और उसके गर्भसे पुत्रोत्पादनके लिये ब्यासजीको प्रस्थान (वन० २९७ । १०७-११)। इनका पत्नीके बुलाना ( आदि. १०५ । १३-१४ ) । व्यासजीका साथ आश्रममें पहुँचना ( वन० २९८ । २१)। For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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