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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org युधिष्ठिर काला पड़ना ( स्त्री० १५ । ३० ) । धृतराष्ट्रसे मारे गये लोगोंकी संख्या और गतिका वर्णन ( स्त्री० २६ । ९ १०, १२ - १७ ) । मरे हुए लोगों के दाह-संस्कार के लिये आज्ञा देना ( स्त्री० २६ । २४२६) । कुन्तीके मुख से कर्णको अपना भाई सुनकर उसके लिये विलाप करना ( स्त्री० २७।१५ - २५ ) । स्त्रियोंके मनमें रहस्यकी बात न छिपनेका शाप देना ( स्त्री० २७ । २९ ) । नारदजी से कर्ण के विषयमें शोक प्रकट करते हुए उसे शाप मिलनेक' वृत्तान्त पूछना ( शान्ति ० १ १३ -- ४४ ) । इनका चिन्तित होना ( शान्ति ० ६ । २ ) । स्त्रियोंको मनमें गुप्त बात न छिपा सकनेका शाप देना ( शान्ति० ६ ११ ) । अपना आन्तरिक खेद प्रकट करते हुए राज्य छोड़कर वनवास के लिये अर्जुन से कहना ( शान्ति ० ७ अध्याय राज्य छोड़कर वानप्रस्थ अथवा संन्यास ग्रहण करनेका निश्चय बताना ( शान्ति ० ९ अध्याय ) । भीमसेन की बातका विरोध करते हुए इनका मुनिवृत्तिकी प्रशंसा करना ( शान्ति ० १७ अध्याय ) । इनके द्वारा अपने मतकी यथार्थताका ही प्रतिपादन ( शान्ति० १९ अध्याय ) | व्यासजीसे राजर्षि सुद्युम्नके चरित्रके विषय में जिज्ञासा ( शान्ति० २३ । १७ ) । व्यासजीसे अपने शोककी प्रबलता प्रकट करना (शान्ति० २५ । २-३ ) । धनके त्यागकी महिमाका प्रतिपादन करना ( शान्ति, २६ अध्याय ) । शोकका कारण बताते हुए शरीर त्यागने के लिये उद्यत होना ( शान्ति० २७ । १–२६)। श्रीकृष्ण से सुञ्जयपुत्र सुवर्णष्ठीवी के विषयमें पूछना ( शान्ति० ३० । १- ३ ) । नारदजीसे सुञ्जयपुत्र सुवर्णष्ठीवीका वृत्तान्त पूछना ( शान्ति० ३१ । १ ) । व्यासजी से अपने पापका प्रायश्चित्त पूछना ( शान्ति ० ३३ । १ – १२ ) । व्यासजी और श्रीकृष्णके समझानेसे इनका हस्तिनापुरको प्रस्थान और नगर प्रवेश ( शान्ति० ३७ । ३० - - ४९ ) । नगर- प्रवेशके समय पुरवासियों और ब्राह्मणोंद्वारा इनका सत्कार ( शान्ति० ३८ | १-२१ ) । इनका राज्याभिषेक ( शान्ति० ४० । १२(१६) । स्वयं घृत के अधीन रहकर इनके द्वारा भाइयों आदिकी पृथक्-पृथक् कार्यों पर नियुक्ति ( शान्ति० ४ १ अध्याय ) । इनके द्वारा सुहृदों और सगे-सम्बन्धियों का श्राद्ध ( शान्ति० ४२ । ३–८ ) । इनके द्वारा श्रीकृष्णकी स्तुति ( शान्ति० ४३ । २–१६ ) । इनके द्वारा भाइयोंके लिये महलोंका विभाजन ( शान्ति ० ४४ अध्याय ) । ब्राह्मणों और आश्रितोंको सत्कारपूर्वक दान देना (शान्ति ० ४५ । ४–११ - ११ ) | श्रीकृष्ण के पास जाकर इनका कृतज्ञता-प्रकाशन. ( शान्ति० ४५ । १७ ( २७६ ) युद्ध में करना Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir युधिष्ठिर १९ ) | श्रीकृष्णको ध्यानमग्न देखकर उनके ध्यानका कारण पूछना ( शान्ति० ४६ । १ - १० ) । श्रीकृष्ण के आशानुसार भीष्मजी के पास चलनेको उद्यत होना ( शान्ति० ४६ । २५-३० ) | परशुरामजीद्वारा किये गये क्षत्रियसंहारके विषय में इनकी जिज्ञासा ( शान्ति० ४८ । १० - (१५) | सात्यकिद्वारा श्रीकृष्णका संदेश पाकर अर्जुनको रथ तैयार करने का आदेश देना ( शान्ति० ५३ । १४१७) । भाइयों और श्रीकृष्ण आदिके साथ भीष्म के पास जाना ( शान्ति ० ५३ । १४ – २८ ) । श्रीकृष्णको ही प्रथमतः भीष्म जी से वार्तालाप करने को कहना ( शान्ति ० ५४ । १२-१४ ) । भीष्मजीसे आश्वासन पाकर उनके निकट जाना ( शान्ति० ५५ । २०-२१ ) । इनके प्रश्न और उन प्रश्नोंके अनुसार भीष्मजीका इनके समक्ष राजधर्म, आपद्धर्म और मोक्षधर्मके रहस्यका विविध दृष्टान्तद्वारा विशद विवेचन करना ( शान्तिपर्व अध्याय ५७ से (३६५ तक ) । भीष्मद्वारा युधिष्ठिरको इनके प्रश्नोंके अनुसार विविध उपदेश देना ( अनु० अध्याय १ से १६५ तक ) । भीष्म जी की आज्ञासे परिवारसहित हस्तिना पुरको प्रस्थान ( अनु० १६६ । १५-१७ ) । भीष्मके अन्त्येष्टि संस्कारकी सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदिका उनके पास जाना (अनु० १६७ । ६ - २३ ) । भीष्मका इनको कर्तव्यका उपदेश देना ( अनु० १६७ । ४९-५२ ) । भीष्मीको जलाञ्जलि देने के बाद शोकसे व्याकुल होकर इनका गङ्गाजीके तटपर गिरना ( आश्व० १ । ३ ) । इनको इस दशा में देखकर श्रीकृष्णका इनसे अधीर न होनेके लिये कहना और धृतराष्ट्रका इन्हें समझाना ( आइव ० १ अध्याय | श्रीकृष्णका इन्हें समझाना ( आश्व० २ । २ - ८ ) । शोकसे व्यथित होकर वनमें जानेके लिये श्रीकृष्णसे आज्ञा माँगना ( आश्व० २ । ११-१२ ) । व्यासजीका इन्हें समझाना (आश्व० २ । १५-२० ) । व्यासजीका इन्हें समझाते हुए अश्वमेध यज्ञ करनेके लिये आशा देना और युधिष्ठिर के धनाभाव के कारण असमर्थता प्रकट करनेपर इन्हें हिमालयसे राजा मरुत्तके रखे हुए धनको लानेका सलाह देना ( आश्व० ३ । १ -- २१ ) | युधिष्ठिरके पूछनेपर व्यासजीका इन्हें राजा मरुत्तका उपाख्यान सुनाना | आश्व० ३ । २२ से १० । ३६ तक ) | श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको उपदेश देकर इन्हें यज्ञके लिये प्रेरित करना ( आश्व० अध्याय ११ से १३ तक ) । इनके राज्यशासनकी श्रेष्ठताका वर्णन ( आश्व० १४ । १७ के बाद दाक्षिणात्य पाठ पृष्ठ ६१२९ - ६१३१ ) | श्रीकृष्णको द्वारका जानेके लिये आशा देना ( आश्व० ५२ । ४४-५० ) । मरुत्तके छोड़े हुए धनके लानेके विषयमें भाइयोंसे सलाह करना ( अश्व० ६३ । ४९) । भाइयोसहित धन For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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