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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चन्द्रक ( १११ ) चन्द्रमा चन्द्रक-बिडालोपाख्यानमें वर्णित उल्लूका नाम (शान्ति. (भीष्म० १२ । ४२-४३)। इनकी सभी पलियाँ अनु१३८ । ३३)। पम रूपवती थी; परंतु रोहिणीका सौन्दर्य उन सबसे चन्द्रकुण्ड-(चन्द्रहृद)-एक ह्रद या कुण्ड, जिसमें बढ़कर था, अतः वे अन्य पत्नियोंकी उपेक्षा करके मेरुपर्वतसे भागीरथी गङ्गा गिरती हैं (भीष्म० ६ । सदा रोहिणीके पास रहने लगे। यह देख दूसरी २९)। स्त्रियोंने पिता दक्षसे उनकी शिकायत की । दक्षने चन्द्रकेतु-कौरवपक्षका एक योद्धा, अभिमन्युद्वारा इसका __समझाते हुए कहा-'तुम्हें सबपर समान भाव रखना वध (द्रोण.४८ । १५.१६)। चाहिये ।' उनके इस आदेशकी अवहेलना करके सोम पूर्ववत् रोहिणीमें ही आसक्त रहने लगे । इससे कुपित चन्द्रतीर्थ-एक प्राचीन तीर्थ, जिसकी बहुत-से ऋषिलोग हो दक्षने उनके लिये राजयक्ष्माकी सृष्टि की और वह उपासना करते हैं। यहाँ वालखिल्य नामक वैखानस मुनि रोग उनके शरीरमें समा गया। सोम क्षीण हो चले । निवास करते हैं। यहाँ तीन पवित्र शिखर और तीन उनके क्षीण होनेसे ओषधियों और प्रजाका भी क्षय झरने हैं (वन० १२५ । १७)। होने लगा। तब देवताओंके अनुरोधसे दक्षने उनके चन्द्रवर) त्रिगतराज सुशमाका भाइ । अजुनद्वारा रोगकी निवृत्तिका उपाय बताते हुए कहा- सोम अपने वध (कर्ण० २७ । ३-१३) । (२) पाण्डवपक्षका सब स्त्रियोंके प्रति समान बर्ताव करें और पश्चिम समुद्र में, पाञ्चालयोद्धा । युधिष्ठिरका चक्ररक्षक । कर्णद्वारा इसका जहाँ सरस्वती नदीका संगम हआ है, वहाँ जाकर स्नान वध (कर्ण० ४९ । २७)। करें । उस तीर्थमें महादेवजीकी आराधनासे इन्हें इनकी चन्द्रप्रमर्दन-दक्षकन्या सिंहिकाका पुत्र । पिताका नाम । पूर्व कान्ति प्राप्त हो जायगी। ये पंद्रह दिन क्षीण होंगे कश्यप (आदि० ६५ । ३१)। और पंद्रह दिन सदाबढ़ते रहेंगे।' सोमने अमावास्याको उस चन्द्रभ-स्कन्दका एक सैनिक या पार्षद, जो ब्राह्मणोंका तीर्थमें गोता लगाया। इससे उन्हें उनकी शीतल किरणे प्राप्त प्रेमी है (शल्य० ४५ । ७५)। हो गयीं और वे सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करने लगे । वे प्रत्येक अमावास्याको वहाँ स्नान करते हैं(शल्य. चन्द्रभागा-पञ्चनद प्रदेश (पंजाब ) की एक नदी, जिसे ३५ । ४५-४६)। इनके द्वारा स्कन्दको मणि और आजकल चिनाब' कहते हैं ( सभा० ९।१९)। सुमणि नामक पार्षदोंका दान (शल्य. ४५ । ३२)। इसमें सात दिन स्नान करनेसे मनुष्य मुनिके समान शम्बरासुरके प्रति ब्राह्मणोंकी महिमाका वर्णन (अनु. निर्मल हो जाता है (अनु. २५। ७)। ३६ । १३-१७ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। इनका चन्द्रमा-(१) शीतल किरणोंवाले सोम, जो क्षीरसागर- कार्तिकेयको भेंडा देना (अनु० ८६ । २३)। अजीर्ण का मन्थन होते समय उससे प्रकट हुए थे (आदि. निवारणके लिये पितरों और देवताओंको ब्रह्माजीकी १८ । ३४)। ये अत्रिपुत्र और बुधके पिता हैं (द्रोण. शरणमें जानेकी सलाह देना (अनु० ९२ । ६)। पूर्ण१४४ । ४)। इन्हें प्रजापति दक्षने अपनी सत्ताईस मासी तिथिको चन्द्रोदयके समय ताँबेके बर्तन में मधुकन्याएँ पत्नीरूपमें प्रदान की थीं (आदि०६६। मिश्रित पकवान लेकर जो चन्द्रमाके लिये बलि अर्पण करता १३, आदि० ७५ । ९; शल्य. ३५ । ४५)। सोमके है, उसकी दी हुई उस बलिको साध्य, रुद्र, आदित्य, सत्ताईस पत्नियाँ हैं, जो सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात है। विश्वेदेव, अश्विनीकुमार, मरुद्गण और वसुदेवता भी पवित्र व्रतका पालन करनेवाली वे सोम-पत्नियाँ काल- ग्रहण करते हैं तथा उससे चन्द्रमा और समुद्रकी भी विभागका ज्ञापन करने में नियुक्त हैं। लोक-व्यवहारका वृद्धि होती है ( अनु० १३४ । ३-६)। (२) ये निर्वाह करने के लिये वे सब-की-सब नक्षत्रवाचक नामोंसे सोम या चन्द्रमा आठ वसुओंमेंसे एक हैं । वसुरूपमें युक्त हैं ( आदि० ६६ । १६-१७)। ये नक्षत्रोंके साथ ये धर्मपत्नी मनस्विनीके पुत्र हैं। उनकी मनोहरा नामक मेरु पर्वतकी परिक्रमा करते और पर्वसंधिके पत्नीसे चार पुत्र उत्पन्न हुए हैं-वर्चा, शिशिर, प्राण समय विभिन्न मासोंका विभाग करते रहते हैं। और रमण · ( आदि० ६६ ॥ १८-२२)। सोमने अपने इस प्रकार महामेरुका उल्लङ्घन करके समस्त प्राणियोंका पुत्र वर्चाको कुछ शतोंके साथ केवल सोलह वर्षोंके पोषण करते हुए वे पुनः मन्दराचलको चले जाते हैं लिये देवकार्यकी सिद्धि के निमित्त भूतलपर भेजा था, जो (वन० १६३ । ३२-३३) । चन्द्रमण्डलका व्यास 'अभिमन्यु' रूपसे अवतीर्ण हुआ था (आदि० ६७ । ग्यारह हजार योजन, उनकी परिधिका विस्तार तैतीस १३-१२४)। (३) भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, हजार योजन और उनकी मोटाई उनसठ सौ योजन है जिसका जल भारतीय प्रजा पीती है (भीष्म०९। २९)। For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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