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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पयातिपतन ( २६६ ) याज्ञवल्क्य - -- अर्जुन और कृपाचार्यका युद्ध देखनेके लिये इन्द्रके साथ नन्दिनीने योनि-देशसे यवनोंको प्रकट किया तथा उसके उन्हींके विमानमें बैठकर आये थे ( विराट. ५६ । ९- पार्श्वभागसे भी यवन जातिकी उत्पत्ति हुई (आदि. १.)। गरुड और गालवका राजा ययातिके यहाँ जाकर १७४ । ३६-३७)। सहदेवने दिग्विजयके समय इनके गुरुको देने के लिये आठ सौ श्यामकर्ण घोड़ोंकी याचना नगरको जीता था (समा० ३१ । ७३)। नकुलने भी करना (उद्योग. ११४ अध्याय)। ये सहस्रों यज्ञोंका यवनोंको परास्त किया था (सभा० ३२ । १७)। अनुष्ठान करनेवाले, दाता, दानपतिः प्रभावशाली, कलियुगमें इनके इस देशके राजा होनेकी भविष्यवाणी राजोचित तेजसे प्रकाशित होनेवाले तथा सम्पूर्ण नरेशोंके (वन० १८८ । ३५)। कर्णने दिग्विजयके समय स्वामी ( सम्राट ) थे ( उद्योग० ११५।२)। इनका पश्चिममें यवनोंको जीता था (वन० २५४ । १८)। गालवको गुरुदक्षिणाके हेतु धनकी प्राप्तिके लिये अपनी काम्बोजराज सुदक्षिण यवनोंके साथ एक अक्षौहिणी सेना कन्या माधवीको समर्पित करना (उद्योग० ११५।५- लिये दुर्योधनके पास आया ( उद्योग० १९ । २१.२२)। १४)। इनके द्वारा अभिमानवश स्वर्गमें देवताओं, यवन एक भारतीय जनपद है (भीष्म० ९ । ६५)। मनुष्यों और महर्षियोंकी अवहेलना (उद्योग० १२०।। यवन पहले क्षत्रिय थे; परंतु ब्राह्मणोंसे द्वेष रखनेके १५.१६)। इनका स्वर्गलोकसे पतन (उद्योग० १२१ । कारण शूद्रभावको प्राप्त हो गये ( अनु.३५ । १८)। ११)। दौहित्रोंके पुण्यदानसे इनका पुनः स्वर्गारोहण यशखिनी-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य०४६ । (उद्योग० १२२ । १५)। इनका ब्रह्मासे अपने अधःपतनका कारण पूछना (उद्योग. १२३ । १२-१३)। यशोदा-नन्द गोपकी पत्नी, जिनकी गोद में बालकृष्ण पल सुञ्जयको समझाते हुए नारदजीद्वारा इनके दान-यज्ञ रहे थे। एक दिन मैया यशोदा शिशु श्रीकृष्णको एक आदि सत्कर्मोका वर्णन (द्रोण. ६३ अध्याय) । इनके छकड़ेके नीचे सुलाकर यमुनाजीके तटपर चली गयीं। यज्ञ-वैभवका वर्णन ( शल्य. ४१ । ३३-३९ )। उसी समय श्रीकृष्णके पैरोंसे छू जानेके कारण छकड़ा श्रीकृष्णद्वारा नारद-सृञ्जय-संवादके रूपमें इनके यज्ञका उलट गया ( सभा०३८ । २९ के बाद, पृष्ठ ७९८)। वर्णन (शान्ति. २९ । ९४--९९)। इन्हे नहुषस यशोधर-(१) पाण्डव-पक्षीय दुर्मुखका पुत्र (द्रोण. खगकी प्राप्ति हुई और इन्होंने पूरुको वह खङ्ग प्रदान १८४ । ५) । (२) श्रीकृष्णके रुक्मिणी देवीके गर्भसे किया (शान्ति० १६६ । ७४) । बोध्य ऋषिसे शान्तिके उत्पन्न पुत्र (अनु. १४ । ३३)। विषयमें इनका प्रश्न (शान्ति. १७८ । ५)। यशोधरा-त्रिगर्तगजकी पुत्री, जो पुरुवंशी महाराज हस्तीकी अगस्त्यजीके कमलोकी चोरी होनेपर इनका शपथ खाना पत्नी और विकुण्ठनकी माता थीं ( आदि० ९५ । ३५)। ( अनु. ९४ । २७)। इनके द्वारा मांस-भक्षणका निषेध ( अनु० ११५ । ५८-६१ )। याज-काश्यप गोत्रोत्पन्न एक ब्रह्मर्षि, जो यमुना-तटपर । निवास करते थे। इनके छोटे भाईका नाम उपयाज था। ययातिपतन-एक तीर्थ, जहाँ जानेसे तीर्थयात्रीको अश्वमेध ये वैदिक-संहिताके अध्ययनमें सदा संलग्न रहनेवाले, यज्ञका फल मिलता है (वन० ८२ । १८)। सूर्यभक्त, सुयोग्य और श्रेष्ठ ऋषि थे ( आदि. १६६ । यवक्रीत-(१) भरद्वाजके पुत्र । वेदोंका ज्ञान प्राप्त करनेके ८)। उपयाजके द्वारा इनकी हीन मनोवृत्तिका वर्णन लिये इनकी घोर तपस्या (वन० १३५ । १६) । इन्द्रद्वारा (आदि० १६६ । १६)। द्रोणनाशक पुत्रकी प्राप्तिके इनका तपस्यासे निवारण (वन० १३५ । ३८) । रेभ्य लिये इनसे द्रुपदकी प्रार्थना (भादि. १६६ । २२मुनिके प्रकट किये हुए राक्षसद्वारा इनकी मृत्यु (वन. ३.)। द्रोण-विनाशक पुत्रेष्टि यज्ञमें सहयोग देनेके लिये १३६ । १९) । अर्वावसुके प्रयत्नसे इनका पुनरुज्जीवन इनकी उपयाज' को प्रेरणा (आदि. १६६ । ३२)। (वन० १३८ । २२)। ये शरशय्यापर पड़े हुए भीष्म- द्रपदके अभीष्ट पुत्रके लिये यज्ञमें इनका आहति देना जीको देखनेके लिये गये थे ( अनु० २६ । ६ )। ( आदि० २६६ । ३९) । इनकी आहुतिद्वारा यज्ञ(२) ये अङ्गिराके पुत्र हैं और पूर्व दिशाका आश्रय कुण्डसे धृष्टद्युम्न एवं द्रौपदीका प्राकट्य ( आदि० १६६ । लेकर रहते हैं (शान्ति० २०८ । २६)। ३९--४४)। यवक्षा-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँके याज्ञवल्क्य-एक श्रेष्ठ ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजनिवासी पीते हैं (भीष्म०९।३०)। मान होते थे (सभा०४।१२)। ये इन्द्रकी सभामें यवन-भारतवर्षकी एक जाति और जनपद-तुर्वसुकी संतान भी बैठा करते हैं (सभा० ।। १२)। ये युधिष्ठिरके . 'यवन' (या तुर्क) कहलायी ( आदि० ८५ । ३४)। राजसूय यज्ञमें अध्वर्य थे ( समा० ३३ । ३५ ) । For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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