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दुर्योधन
( १४८ )
दुर्वासा
ललकारनेपर इसका जलसे बाहर निकलना (शल्य०३२। अपनी पुत्री सुदर्शनाको अग्निदेवके हाथों सौपना (अनु० ३३--३९)। कवच आदिसे सुसजित होकर इसका २।३४)। किसी एक पाण्डवके साथ युद्ध के लिये उद्यत होना दर्वारण-काम्बोज सैनिकोंका नाम । सात्यकिद्वारा इनका (शल्य० ३२ । ६६-७१)। भीमसेनके साथ गदा- वर्णन (द्रोण० ११२ । ४२-४३)। युद्ध के लिये उद्यत होना (शल्य. ३३ । ५२-५५)। दर्वासा-कठोर व्रतका पालन करनेवाले तथा धर्मके विषयमे भीमसेनके साथ गदायुद्धके लिये उद्यत होनेपर अपशुकन अपने निश्चयको सदा गुप्त रखनेवाले एक ब्राह्मण महर्षि (शल्य० ५६ । ८-१४)। भीमसेनके कटु वचनोंका
जो बड़े ही उग्र स्वभावके थे ( आदि. ११०। ४-५)। उत्तर (शल्य. ५६ । ३८--४१)। भीमसेनके साथ
कुन्तीद्वारा इनकी परिचर्या (आदि. ११०।४)। भयङ्कर गदा-युद्ध (शल्य० ५७ अध्याय)। भीमसेनकी इनके द्वारा कुन्तीको देवताओंके वशीकरण-मन्त्रका गदाकी चोटसे जाँघ टूट जानेपर इसका पृथ्वीपर गिरना उपदेश (आदि० ११० । ६)। ये भगवान् शङ्करके (शल्य०५८। ४७-४८)। श्रीकृष्णद्वारा किये गये
अंशभूत श्रेष्ठ द्विज हैं (आदि० २२२ । ५२)। राजा आक्षेपोंका उत्तर देना (शल्य०६१ । २७-३९)। श्वेतकिके शतवर्षीय यज्ञका सम्पादन करने के लिये इनको अपने कार्यपर संतोष प्रकट करना (शल्य०६१ । ५०- भगवान् शङ्करका आदेश और इनका उस आदेशको ५४)। संजयके सामने विलाप करना (शल्य०६४। शिरोधार्य करना (आदि० २२२ । ५५-५८) । इनके ७--२९)। संदेशवाहकोंको संदेश देना (शल्य० ६४ । द्वारा श्वेतकिके यज्ञका सम्पादन (आदि० २२२ । ५९)। ३०--४०)। अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्माके ये इन्द्रकी सभामें विराजमान होते हैं (सभा० ७ । सामने अपने कार्यपर संतोष प्रकट करना (शल्य. ६५। ११)। ब्रह्माजीकी सभामें रहकर उनकी उपासना करते २३-३.)। अश्वत्थामाको सेनापति बनाना (शल्य० हैं (सभा० १५ । २३)। इन्होंने जहाँ भगवान् ६५। ४१)। अश्वत्थामाके कर्मकी प्रशंसा करके प्राण- श्रीकृष्णको वरदान दिया था, वह स्थान वरदानतीर्थके त्याग करना ( सौप्तिक० ९ । ५६-५७ )। कर्णकी नामसे प्रसिद्ध हुआ (वन० ८२ । ६३-६४)। इनके सहायतासे इसके द्वारा कलिङ्गराजकी कन्याके अपहरणकी द्वारा महर्षि मुद्गलके दान-धर्म आदिकी छः बार परीक्षा चर्चा (शान्ति०४ । १३)। राजा दुर्योधनका सजा- (वन० २६० । १२-२१)। इनके द्वारा दुर्योधनको सजाया भवन वीरवर भीमसेनको रहनेके लिये दिया गया
वर प्रदान (वन० २६२ । २३)। इनका पाण्डवोंके (शान्ति० ४४ । ६-७ ) धृतराष्ट्रसे शीलके सम्बन्धमें आश्रमपर जाना (वन० २६३ । १-२)। स्नानके लिये इसके प्रश्नकी चर्चा (शान्ति० १२४ । १८--६४)। गये हुए इनका पूर्ण तृप्तिका अनुभव करनेके कारण व्यासजीके आवाहन करनेपर गङ्गाजलसे भाइयोसहित प्रकट पाण्डवोंके यहाँ न जाकर शिष्योसहित वहींसे पलायन होकर इसका धृतराष्ट्र आदि स्वजनोंसे मिलना (आश्रम ( वन० २६३ । २९)। राजा कुन्तिभोजके यहाँ ३२ । ९)। स्वर्गमें राजा दुर्योधन सूर्यके समान तेजस्वी आगमन और शर्तके साथ निवास (वन० ३०३ । ७-८)।
और वीरोचित शोभासे सम्पन्न हो पुण्यकर्मा देवताओंके इनके द्वारा कुन्तीको अथर्ववेदीय उपनिषदोंमें प्रसिद्ध साथ बैठा था, जिसे युधिष्ठिरने प्रत्यक्ष देखा ( स्वर्गा० मन्त्रका दान ( वन० ३०५ । २०)। पत्नीसहित
श्रीकृष्णद्वारा दुर्वासाको आराधना और इनका उन्हें वर महाभारतमें आये हुए दुर्योधनके नाम-आजमीढ, देना (द्रोण० ११।९)। इनका श्रीकृष्णका आतिथ्य
भारत, भरतशाल, भरतश्रेष्ठ, भारताग्रय, भरतर्षभ, स्वीकार करके उनके क्रोकी परीक्षा करना (अनु. भरतसत्तम, भारतसत्तम, धार्तराष्ट्र, धृतराष्ट्रज, धृतराष्ट्रपुत्रः १५९ । १८-३६)। श्रीकृष्णकी सेवासे प्रसन्न होकर धृतराष्ट्रसूनु, धृतराष्ट्रसुत, धृतराष्ट्रात्मज, गान्धारि, रुक्मिणीसहित उन्हें वर देना तथा श्रीकृष्णने जो इनकी गान्धारीपुत्र, कौरव, कौरवश्रेष्ठ, कौरवनन्दन, कौरवात्मज, जूटनको अपने पैर में नहीं लगाया था, उसे अप्रिय कार्य कौरवेन्द्र, कौरव्य, कौरवेय, कुरु, कुरुश्रेष्ठ, कुरूद्वह, बताना ( अनु० १५९ । ३७-४८)। महापराक्रमी कुरुकुलश्रेष्ठ, कुरुकुलाधम कुरुमुख्य, कुरुनन्दन, कुरुपति, भगवान् शिव ही दुर्वासा नामक ब्राहाण बनकर द्वारकापुरीमें कुरुप्रवीर, कुरुपुङ्गव, कुरुराज, कुरुसत्तमः कुरुसिंह। श्रीकृष्णभवनमें टिके रहे (अनु० १६० । ३७)। कुरूत्तम, कुरुवर्धन, सुयोधन आदि ।
कुन्तीद्वारा क्रोधी एवं तपस्वी दुर्वासाकी आराधना और (२) मनुवंशी सुवीरकुमार दुर्जयके पुत्र (अनु० २ । उनके द्वारा कुन्तीको वरकी प्राप्तिके प्रसंगकी चर्चा
१३)। उनके द्वारा नर्मदानदीके गर्भसे परम सुन्दरी (आश्रम ३० । २-६)। मौसलकाण्डमें यदुवंशसुदर्शनानामक कन्याका जन्म ( अनु० २ । १९)। इनका विनाशके पश्चात् एक जगह बैठे हुए श्रीकृष्णने दुर्वासाके
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