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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra स्वर्गतीर्थ www.kobatirth.org ( ४०१ ) नन्दन आदि पवित्र उद्यान तथा पुण्यात्मा पुरुषोंके विहारस्थल हैं। वहाँ किसीको भूख-प्यास नहीं लगती, मनमें कभी ग्लानि नहीं होती, गर्मी और जाड़ेका कष्ट भी नहीं होता और न कोई भय ही होता है । वहाँ कोई वस्तु ऐसी नहीं है, जो घृणा करनेयोग्य एवं अशुभ हो । वहाँ सब ओर मनोरम सुगन्ध, सुखदायक स्पर्श तथा कानों और मनको प्रिय लगनेवाले मधुर शब्द सुननेमें आते हैं। स्वर्गलोक में न शोक होता है, न बुढ़ापा । वहाँ थकावट तथा करुणाजनक विलाप भी श्रवणगोचर नहीं होते । स्वर्गलोक ऐसा ही है। अपने सत्कर्मों के फलरूप ही उसकी प्राप्ति होती है । मनुष्य वहाँ अपने किये हुए पुण्यकर्मोंसे ही रह पाते हैं। स्वर्गवासियोंके शरीर में तैजस तत्वकी प्रधानता होती है । वे शरीर पुण्यकर्मोंसे ही उपलब्ध होते हैं। माता-पिता के रजोवीर्यं से उनकी उत्पत्ति नहीं होती है। उन शरीरोंमें कभी पसीना नहीं निकलता, दुर्गन्ध नहीं आती तथा मल-मूत्रका भी अभाव होता है । उनके कपड़ोंमें कभी मैल नहीं बैठती है । स्वर्गवासियोंकी जो दिव्य ( दिव्य कुसुमकी ) मालाएँ होती हैं, वे कभी कुम्हलाती नहीं हैं। उनसे निरन्तर दिव्य सुगन्ध फैलती रहती है तथा वे देखने में भी बड़ी मनोरम होती हैं। स्वर्गके सभी निवासी ऐसे ही विमानोंसे सम्पन्न होते हैं । जो अपने सत्कमद्वारा स्वर्गलोकपर विजय पा चुके हैं, वे वहाँ बड़े सुख से जीवन बिताते हैं । उनमें किसी के प्रति ईर्ष्या नहीं होती, वे कभी शोक तथा थकावटका अनुभव नहीं करते एवं मोह तथा मात्सर्य ( द्वेषभाव ) से सदा दूर रहते हैं। अपने किये हुए सत्कर्मों का जो फल होता है, वही स्वर्ग में भोगा जाता है। वहाँ कोई नवीन कर्म नहीं किया जाता । अपना पुण्यरूप मूलधन गँवानेसे ही वहाँके भोग प्राप्त होते हैं ( वन० २६१ । २ - १६२८ ) । युधिष्ठिरके द्वारा स्वर्गलोकका दर्शन (स्वर्गा० ४ अध्याय) । स्वर्गतीर्थ - एक तीर्थ, जो नैमिषारण्य में है । यहाँ एक मासतक पितरोंको जलाञ्जलि देनेसे पुरुषमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है (अनु० २५ । ३३)। स्वर्गद्वार-कुरुक्षेत्र की सीमामें स्थित एक प्राचीन तीर्थ, जिसके सेवन से मनुष्य स्वर्गलोक पाता और ब्रह्मलोक में जाता है ( वन० ८३ | १६७ ) । स्वर्गमार्गतीर्थ - एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोक में जाता है (अनु० २५ । ६१ ) । स्वर्गारोहणपर्व - महाभारतका एक प्रमुख पर्व । स्वर्णग्रीव - स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ७५ ) । स्वर्णविन्दु - एक तीर्थ, जिसमें स्नान करनेसे मनुष्य स्वर्ग में • जाता है ( अनु० २५ । ९)। स्वर्भानवी स्वर्भानु की पुत्री, पुरूरवाके पुत्र आयुकी पत्नी । नहुष आदि पाँच पुत्रों की माता (आदि० ७५ | २६ स्वर्भानु-एक विख्यात दानक, जो दनुके गर्भ से कश्यपद्वारा उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६५ | २४ ) | यह महान् म० ना० ५१ स्विष्टकृत् अमर उग्रसेन के रूप में पृथ्वीपर उत्पन्न हुआ था (आदि ० ६७ । १२-१३ ) । यह प्राचीनकालमें पृथ्वीका शासक था; परंतु कालवश इसे छोड़कर चल बसा ( शान्ति० २२७ । ५० ) । स्वस्तिक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ गिरिव्रजनिवासी एक नाग ( सभा० २१ । ९ ) । यह वरुण सभामें रहकर उनकी उपासना करता है ( सभा० ९ । ९ ) | ( २ ) स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ | ६५ ) । स्वस्तिपुर तीर्थ कुरुक्षेत्र की सीमा में स्थित एक प्राचीन तीर्थ, जिसकी परिक्रमा करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है ( वन० ८३ | १७४ )। स्वस्तिमती - स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य ०४६ । १२ ) । स्वस्त्यात्रेय - एक प्राचीन महर्षि, जो इन्द्रकी सभा में विराजते हैं ( सभा० ७ । १० के बाद दा० पाठ ) । ये दक्षिण दिशामें निवास करनेवाले ऋषि हैं (शान्ति० २०८ | २८ ) । स्वाती सत्ताईस नक्षत्रोंमेंसे एक, जो इस नक्षत्रमें अपनी अधिक-से-अधिक प्रिय वस्तुका दान करता है, वह मनुष्य शुभलोकोंमें जाता है तथा महान् यशका भागी होता है ( अनु० ६४ । १८ ) । इस नक्षत्र के योग में पितरोंकी पूजा करनेवाला वाणिज्य से जीवन निर्वाह करता है ( अनु० ८९ । ७ ) । चान्द्रव्रतमें स्वाती नक्षत्र में चन्द्रमाके दाँतोंकी भावना करके उनकी पूजा करनेका विधान है ( अनु० ११० । ७ ) । स्वायम्भुवमनु - इनके द्वारा ऋषियोंको धर्मका उपदेश ( शान्ति० ३६ अध्याय ) । प्रजाओंका इन्हें राजा स्वीकार करना ( शान्ति० ६८ । २३ – २९ ) । इनका राजा होकर शत्रुओंका दमन करना ( शान्ति० ६८ । ३१-३२ ) । स्वारोचिष - एक मनु, जिन्हें ब्रह्माजीने सात्वत-धर्मका उपदेश दिया था । इन्होंने अपने पुत्र शङ्खपदको इस धर्मकी शिक्षा दी थी ( शान्ति० ३४८ । ३६-३७ ) । स्वाहा - ( १ ) अग्निकी पत्नी ( आदि० १९८ । ५ ) । ये ब्रह्माजी की सभा में उनकी सेवा के लिये उपस्थित होती हैं ( सभा० ११ । ४२ ) । इनका मुनि-पत्नियोंके रूपमें अग्निके साथ समागम ( वन० २२५ । ७ ) । गरुडीरूप धारण करना ( वन० २२५ । ९ ) । इनका छः बार समागम करके अग्निके वीर्यको सरकंडों में गिराना ( वन० २२५ | १५ ) । इनका अग्निदेवके साथ सदा रहने के लिये स्कन्दके सम्मुख अपना अभिप्राय प्रकट करना ( वन० २३१ । ३-४ ) । स्कन्दके अभिषेकके समय स्वाहा देवी भी उपस्थित थीं ( शल्य० ४५ । १३ ) । ( २ ) बृहस्पतिकी पुत्री, जो अधिक क्रोधवाली है । यह सम्पूर्ण भूर्तों में निवास करती है । इसका पुत्र 'काम' नामक अग्नि है ( बन० २१९ । २२-२३ ) । स्विष्टकृत् - ( १ ) प्रत्येक गृह्य कर्म में अग्निके लिये सदा घीकी ऐसी धारा दी जाती है, जिसका प्रवाह उत्तराभि For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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