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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्रौपदी ( १६० ) द्रौपदी अनुरोध ( वन० १६० । १२-२४)। सत्यभामासे जाते समय पतियोंको पुकारना ( विराट. २३ । १२ १४)। बृहन्नलारूपधारी अर्जुनसे मिलना (विराट २३३ । १० से २३४ अध्यायतक ) । दुर्वासाके २४ । २१)। महलसे निकल जानेके लिये कहनेपर आतिथ्यके लिये चिन्तित होकर श्रीकृष्णकी स्तुति करना तेरह दिन और रहनेके लिये रानी सुदेष्णासे प्रार्थना (वन० २६३। ८-१६)। द्रौपदीपर संकट जानकर करना (विराट. २४ । २९ )। उत्तरसे बृहन्नलाभक्तवत्सल भगवान्का आना और द्रौपदीका उनसे रूपधारी अर्जुनको सारथि बनानेका प्रस्ताव करना दुर्वासाके आगमन आदिका वृत्तान्त निवेदन करना (विराट. ३६ । १६-१९)। शान्तिदत बनकर (वन० २६३। १७-१९)। श्रीकृष्णका अपनेको जानेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णसे केशाकर्षणकी याद भूखा बताकर द्रौपदीसे भोजन माँगना तथा द्रौपदीका दिलाते हुए अपमा दुःख सुनाना और युद्ध की ही सम्मति लज्जित होकर यह बताना कि खानेके लिये कुछ नहीं देना (उद्योग०८२। ४-४१)। विलाप करती हुई बचा है (वन० २६३ । २०-२१)। 'कृष्णे! परिहासन सुभद्रा और उत्तराके पास आना तथा शोकसे मूच्छित कर । मुझे बटलोई लाकर दिखा' श्रीकृष्णके इस प्रकार होना (द्रोण. ७८ । ३६-३७)। पुत्रोंके वधका आग्रह करनेपर द्रौपदीका बटलोई लाकर उन्हें देना और समाचार सुनकर विलाप करना और अश्वत्थामाके वधके उसके कण्ठमें लगे हुए तनिकसे शाकको खाकर श्रीकृष्णका लिये आग्रह करना ( सौप्तिक. ११।१०-१५)। द्रौपदीसे यह कहना कि इस शाकसे सम्पूर्ण विश्वके आत्मा भीमसेनको अश्वत्थामाके वधके लिये प्रेरित करना यज्ञभोक्ता सर्वेश्वर भगवान् श्रीहरि तृप्त एवं संतुष्ट हो' (सौप्तिक० ११।२२-२७ )। भीमसेनके वचनोंसे (वन० २६३ । २२-२५)। जयद्रथद्वारा भेजे हुए शान्त होकर युधिष्ठिरको अश्वत्थामाकी मणि धारण करनेकोटिकास्यको उत्तर देना (वन० २६६ अध्याय)। को देना (सौप्तिक. १६ । २४ )। कुन्तीके पास जयद्रथको फटकारना (वन० २६७ । १९, २६८१२- पहुँचकर विलाप करना (स्त्री०१५। ३७-३८)। राजदण्ड ९)। जयद्रथके सामने पाण्डवोंके पराक्रमका वर्णन धारण करने के लिये युधिष्ठिरको समझाना (शान्ति० १४ . (वन० २७० अध्याय )। युधिष्ठिरके पूछनेपर विराट- अध्याय)। पाण्डवोंके नगरमें प्रवेश करते समय हस्तिनानगरमें खयं सैरन्ध्रीरूपमें रहनेकी बात बताना (विराट. पुरकी स्त्रियोंद्वारा पाञ्चालीके पतिसेवन, अमोघ पुण्य-कर्म ३।१८)। सैरन्ध्रीवेषमें इनका विराटपत्नी सुदेष्णासे तथा सकल व्रतचर्याकी प्रशंसा (शान्ति० ३८ । ५-६)। अपनेको महलमें रखनेका अनुरोध (विराट. ९। सुभद्रा और बलदेवके साथ हस्तिनापुरमें पधारे हुए ८)। कीचकको धर्मकी बातें कहकर समझाना श्रीकृष्णका द्रौपदी आदिसे मिलना ( आश्व० ६७ । (विराट. १४ । ३४-३७)। कीचकको फटकारना ४-५)। श्रीकृष्णके सूतिकागृहमें प्रवेश करते समय (विराट. १४ । ४७-५२)। कीचकके घर सुदेष्णा- द्रौपदीका उत्तराके पास जाकर उसे सूचित करना कि के भेजनेसे सुरा लानेके लिये जाना (विराट. १५। तुम्हारे श्वशुर भगवान् मधुसूदन पधार रहे है ( आश्व. १७)। कीचकके भरी सभामें लात मारनेपर इनका राजा ६८। ९)। श्रीकृष्णके द्वारा अर्जुनकी पिंडलियाँ मोटी विराटको उलाहना देना और फटकारना (विराट. १६ । बतायी जानेके कारण द्रौपदीने भगवान् श्रीकृष्णकी ओर १८-१२ के बाद दा० पाठविराट०१६ । २१ के बाद दा० तिरछी चितवनसे ईर्ष्यापूर्वक देखा और श्रीकृष्णने द्रौपदीके पाठ)। सुदेष्णाके पूछनेपर रोनेका कारण बताना उस प्रेमपूर्ण उपालम्भको सानन्द ग्रहण किया ( आश्व० (विराट. १६ । ४९)। रातमें भीमसेनके पास जाना ८७ । ११)। चित्राङ्गदा और उलूपीका द्रौपदीके चरण ( विराट. १७ । ७-८)। भीमसेनसे अपना दुःख छूना और द्रौपदीका अपनी ओरसे उन्हें नाना प्रकारके बताना और कीचकको मार डालनेके लिये आग्रह करना उपहार देना ( आश्व० ८८ । २-४)। श्रीकृष्णका (विराट. १८ अध्याय )। पाण्डवोंके दुःखसे दुखी ___ द्रौपदी आदिसे मिलकर द्वारका जानेके लिये रथपर आरूढ़ होकर भीमसेनके सम्मुख विलाप करना (विराट. १९ होना ( आश्व० ९२ । वैष्णवधर्म, पृष्ठ ६३८१ )। अध्याय )। भीमसेनसे अपना दुःख निवेदन करना द्रौपदीके द्वारा कुन्ती और गान्धारीकी सेवा ( आश्रम (विराट० २० अध्याय)। कीचकद्वारा अपनेपर बीती। १।९)। वनमें जाते हुए धृतराष्ट्र, गान्धारी और हुई घटनाका भीमसेनसे वर्णन करना और कीचकके वध- कुन्तीके पीछे द्रुपदकुमारी कृष्णा आदिका जाना और के लिये आग्रह करना (विराट० २१ । १८-४८)। विलाप करना ( आश्रम० १५ । १०-११)। कुन्तीका कीचकको नृत्यशालामें मिलने के लिये संकेत देना (विराट. युधिष्ठिरको बहू द्रोपदीका सदा प्रिय करते रहनेके लिये २२ । १६-१७)। उपकीचकोंद्वारा श्मशानमें ले जाये आदेश देना ( आश्रम० १६ । १५)। रोती हुई For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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