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सिन्धुद्वीप
( ३८२ )
सुकन्या
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था, यह द्रौपदीके स्वयंवरमें आया था (भादि. १८५। रावणद्वारा अपहरण (वन० २७८ । ४३)। अशोक२१)। एक बार सिन्धुदेशका राजा जयद्रथ शाल्व वाटिकामें त्रिजटाद्वारा इन्हें आश्वासन (वन० २८० । देशमें विवाहकी इच्छासे जाते समय काम्यक वनमें ५५-७२)। इनका रावणके साथ संवाद (वन० २८१ पाण्डवोंके आश्रमके पास जा पहुँचा था (वन०२६४ । अध्याय) । इनका हनुमान्जीको पहिचानके लिये ६-७ वन० २६७ । १७-१९)। १७-१९)।
चूड़ामणि देना (वन० २८२ । ६८-६९)। रावणसिन्धुद्वीप-एक प्राचीन राजर्षि, जिन्होंने पृथूदक तीर्थमें वधके पश्चात् अविन्ध्य और विभीषणने सीताजीको श्रीरामके तपस्या करके ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था (शल्य. ३९ ।
पास ले आकर समर्पित किया। श्रीरामने इनके चरित्र३७)। ये राजा जह्नके पुत्र थे, इनके पुत्रका नाम
पर संदेह करके इन्हें त्याग दिया। सीताको इससे बड़ी वलाकाश्व था (अनु० ४।४)।
व्यथा हुई। इन्होंने अपनी शुद्धिके लिये शपथ खायी
और देवताओंद्वारा भी इनकी शुद्धिका समर्थन किया सिन्धुपुलिंद एक भारतीय जनपद (भीष्म० १ । ४०)।
गया है। इससे श्रीरामचन्द्रजी प्रसन्नतापूर्वक साताजीसे सिन्धुप्रभव-एक तीर्थ, जो सिन्धुनदका उद्गमस्थान है।
मिले। सीताको आगे करके पुष्पक विमानपर आरूढ़ यह सिद्धों और गन्धर्वोद्वारा सेवित है। यहाँ जाकर
हो ऊपर-ही ऊपर समुद्र के पार गये। सीताको वनकी पाँच रात उपवास करनेसे प्रचुर सुवर्णराशिकी प्राप्ति होती
शोभा दिखाते और किष्किन्धा होते हुए अयोध्यापुरीमें है (वन०८४ । १६)।
गये। इनका दर्शन करके भरत-शत्रुघ्नको बड़ा हर्ष प्राप्त सिन्धुसौवीर-पश्चिमोत्तर भारतका एक जनपद ( भीष्म.
हुआ (वन. २९ । ३९-६५)। इनके पातिव्रत्यकी ९।५३)। सिन्धुसौवीरदेशके लोग धर्मको नहीं जानते
प्रशंसा (विराट. २१।१२-१३) । (२) एक हैं (क...। १२-१३)।
नदी, जिसे मार्कण्डेयजीने भगवान् बालमुकुन्दके सिन्धूतम-वसुधारामें एक प्रसिद्ध तीर्थ, जो तब पापोंका उदरमें देखा था (वन. १८८।१.२)। यह गङ्गानाश करनेवाला है। इसमें स्नान करनेसे प्रचुर सुवर्णराशि
की सात धाराओंमेंसे एक है (भीष्म० ६ । ४७-४८)। की प्राप्ति होती है (वन.४३।.)।
इसमें प्रायः नाव भी डूब जाती है (शान्ति• ८२ । ४५)। सीतवन-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत एक वन, जहाँ
सुकक्ष-द्वारकाके पश्चिम भागमें विद्यमान एक रजतमय महान् तीर्थ है । एक बार यहाँ जाने या उसका दर्शन
पर्वत (सभा० ३८॥ २९ के बाद दा. पाठ पृष्ठ, ८१३, करनेमात्रसे ही यह तीर्थ पवित्र कर देता है। वहाँ
कालम)। केशोंको धो लेनेमात्रसे मनुष्य पवित्र हो जाता है (घन. ८३ । ५९-६.)।
सुकन्दक-एक भारतीय जनाद ( भीम. ९।५३)। सीता-(१) महाराज जनककी पुत्री। राजा जनकके यहाँ सुकन्या-(१) राजा शर्यातिकी सुन्दरी पुत्री (धन. धनुषयज्ञमें शिवजीके धनुषको तोड़नेपर श्रीरामजीके साथ १२२।६)। इसका वनमें एकान्तभ्रमण । च्यवनको श्रीसीताका ग्विाह हुआ। इनको साथ लेकर श्रीराम इसके दर्शनसे प्रसन्नता। इसके द्वारा बाँचीके देरमें छिपे अयोध्यापुरीमें गये और वहाँ आनन्दपूर्वक रहने लगे। हुए मुनिवर च्यवनकी आँखोंका फोड़ा जाना (वन. श्रीरामके वनवासके समय परम रूपवती धर्मपत्नी सीता १२२॥६-१४)। मुनिके कोपसे सेना और पिताको भी उनके साथ गयी थी। अवतारके पूर्व विष्णुरूपमें पीड़ित देख इसका अपनेद्वारा दो चमकीली वस्तुओंके रहते समय उनके साथ जो लक्ष्मी रहा करती हैं, वे ही बेधे जानेकी बात बताना (वन० १२२ । २०.२१)। अवतारकालमें सीताके रूपमें अवतीर्ण हो पतिदेवका मुनिके माँगनेपर पिताद्वारा इसका उन्हें समर्पण (वन. भनुसरण करती थीं। रावणद्वारा इनका हरण होनेपर १२२ । २४-२६)। इसके द्वारा पतिकी परिचर्या एवं भीरामने रावणको मारकर इन्हें प्राप्त किया और इनके आराधना (वन० १२२ । २८.२९ )। मोहित साथ अयोध्यामें आकर धर्मपूर्वक राज्यका पालन करने अश्विनीकुमारोंकी बातोंका इसके द्वारा विरोध (बन. लगे ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७९४- १२३ । २-१४)। इसका पतिसे सलाह लेकर अश्विनी७९५)। ( वनपवमें पनः इनकी कथा आयी है यथा-) कमारोंसे उन्हें रूपयौवनसम्पन्न बनानेकी प्रार्थना करना जनकनन्दिनी सीताका रामके साथ वनगमन (वन. (वन० १२३।१४-१६)। इसका अश्विनीकुमारों के २७७ । २९)। इनका श्रीरामको कपटमृग वधके लिये बीच अपने पतिको पहचानकर इन्हें ही स्वीकार करना कहना (वन० २७८ । १८)। इनका लक्ष्मणके प्रति (वन० १२३ । २१)। हमके पातिव्रत्यकी प्रशंसा संदेहपूर्ण कोर पवन (म. २४८ ॥१७-२९)। (विराट० २।।.)। (२) मालरिचाकी पनी
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