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धृतराष्ट्री
धृष्टद्युम्न
४ । १५)। (४) भरतवंशी महाराज कुरुके पौत्र एवं जनमेजयके प्रथम पुत्र (आदि. ९४ । ५६)। इनके कुण्डिक आदि बारह पुत्र थे (आदि० ९४ । ५८- ६०)। धृतराष्ट्री-ताम्राकी पुत्री, इसने सभी प्रकारके हंसों, कलहंसों तथा चक्रवाकोंको जन्म दिया था ( उद्योग० ८३ । ५६,
५८)। धृतवती ( या घृतवती)-एक प्रमुख नदी, जिसका जल
भारतीय प्रजा पीती है ( भीष्म० ९ । २३, ३१)। धृतवर्मा-त्रिगर्तराज सूर्यवर्मा और केतुवर्माका भाई, जिसने सूर्यवर्माके पराजित होने और केतुवर्माके मारे जानेपर स्वयं ही आगे बढ़कर अश्वमेधीय अश्वकी रक्षाके लिये आये हुए अर्जुनके साथ लोहा लिया था। इसके द्वारा अर्जुनपर बाणवर्षा । बाण चलाने में उसके हाथोंकी फुर्ती देखकर अर्जुनद्वारा मन-ही-मन उसकी प्रशंसा, उसके तेजस्वी बाणसे अर्जुनके हायमें गहरी चोट लगनेके कारण गाण्डीव धनुषका गिर जाना; इससे धृतवर्माका अट्टहास करना, तब रोषमे भरे हुए अर्जुनका बाणोंकी वर्षा करना, धृतवर्माको बचाने के लिये त्रिगर्त योद्धाओंका अर्जुनपर धावा बोलना और अर्जुनद्वारा अठारह त्रैगर्त वीरोंके मारे जानेपर धृतवर्मा आदि सभी त्रिगौका दास बनकर अर्जुनकी शरणमें आना ( आश्व०७४ । १६-३३)। धृतसेन-कौरवपक्षका एक राजा (शल्य० ६ । ३)।। धृति-(१) दक्ष प्रजापतिकी एक पुत्री, जो धर्मकी पत्नी
थीं (आदि०६६ । १४)। नकुल तथा सहदेवकी माता माद्री इन्हींका अवतार मानो जाती हैं ( आदि.६७। १६०)। (२) एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ११॥ ३०)। धृतिमान् -कुशदीपका पाँचवाँ वर्ष ( खण्ड ) (भीष्म०
१२।१३)। धृतिमान् ( अङ्गिरा)-एक अग्नि, जिनके लिये दर्श तथा पौर्णमास यागोंमें हविष्य-समर्पणका विधान पाया जाता है, उन अग्निदेवका नाम विष्णु है। वे अङ्गिरा-गोत्रीय माने गये हैं और भानुके तीसरे पुत्र हैं (वन० २२१ । १२)। धृष्टकेतु-चेदिराज शिशुपालका पुत्र, जो हिरण्यकशिपुके पुत्र
अनुहादके अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । ७)। शिशुपालके मारे जानेपर उसके पुत्र धृष्टकेतुको चेदिदेशके राजसिंहासनपर अभिषिक्त किया गया ( सभा० ५५ । ३६) । इसका वनमें पाण्डवोंसे मिलनेके लिये आना (वन १२ । २)। इसका अपनी बहिन करेणुमतीको लेकर अपनी नगरीको प्रस्थान ( वन० २२ । ५०)।
म० ना० २२
इसका पुनः वनमें पाण्डवोंसे भेंट करना (वन० ५१ । १७)। पाण्डवोंकी ओरसे इसे रण-निमन्त्रण दिया गया ( उद्योग०४।८ उद्योग. ४ । २०)। यह एक अक्षौहिणी सेनाके साथ पाण्डवोंके पास आया ( उद्योग० १९।७)। संजयद्वारा इसकी वीरताका वर्णन (उद्योग० ५०। ४४)। युधिष्ठिरकी सेनाके सात सेनापतियों से एकके पदपर इसका अभिषेक किया गया था ( उद्योग. १५७ । ११-१३।। प्रथम दिनके संग्राममें बाहीकके साथ इसका युद्ध (भीष्म० ४५ । ३८-४१)। भूरिश्रवाके साथ इसका युद्ध और पराजय ( भीष्म. ८४ । ३९)। पौरवके साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ११६ । १३-२४) । धृतराष्ट्रद्वारा इसकी वीरताका वर्णन (द्रोण. १०।४३)। कृपाचार्यके साथ युद्ध (द्रोण. १४ । ३३-३४ )। इसके रथके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण. २३ । २३-२४)। अम्बष्ठके साथ युद्ध (द्रोण. २५ । ४९-५०)। इसका वीरधन्वाके साथ युद्ध ( द्रोण. १०६ । १०)। इसके द्वारा वीरधन्वाका वध (द्रोण. १०७ । १७)। इसका द्रोणाचार्यके साथ युद्ध और उनके द्वारा पुत्रसहित इसका वध (द्रोण० १२५ । २३-११)। व्यासजीके आवाहन करनेपर परलोकवासी कौरव-पाण्डव वीरोंके साथ यह भी गङ्गाजलसे प्रकट हुआ था (आश्रम ३२/१५)। स्वर्गलोकमें जाकर यह विश्वेदेवों में मिल गया था (स्वर्गा० ५। १५-१८)। महाभारतमें आये हुए धृष्टकेतुके नाम-चैध चेदिज)
चेदिप, चेदिपति, चेदिपुङ्गव, चेदिराट , चेदिराज, औडाणलि. शिपालमत. शिशलात्मज आदि ।
धृष्टद्युम्न-पाञ्चालराज दुपदके अग्नितुल्य तेजस्वी पुत्र । यज्ञ. कर्मका अनुष्ठान होते समय प्रज्वलित अग्निसे धृष्टद्युम्नका प्रादुर्भाव हुआ। ये द्रोणाचार्यका विनाश करने के लिये धनुष लेकर प्रकट हुए थे। फिर उसी वेदीसे द्रौपदी प्रकट हुई थी; अतः इन्हें उसका अग्रज बन्धु' कहा जाता है (आदि. ६३ । १०४-११०)। ये अग्निके अंशसे उत्पन्न हुए थे (आदि०६७ । १२६) । याजने दुपदकी रानीको यज्ञका हविष्य ग्रहण करनेके लिये बुलाया । महारानीने शुद्ध होकर आनेकी इच्छा प्रकट की और थोड़ी देरतक महर्षिको प्रतीक्षाके लिये कहा। परंतु याजने कहा- 'रानी ! इस हविष्यको याजने तैयार किया और उपयाजने इसका संस्कार किया है। फिर इससे संतानकी उत्पत्तिरूप अभीष्टकी सिद्धि कैसे नहीं होगी ? तुम इसे लेने आओ या न आओ।' इतना कहकर ज्यों ही याजने उस संस्कारयुक्त हविष्यकी अग्निमें आहति दी, त्यों ही उस प्रज्वलित अग्निसे ये एक तेजस्वी कुमार
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