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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुकी ( ३५३ ) शुक्राचार्य पिताके आदेशसे मोक्षतत्त्वके उपदेशके लिये इनका गुरुके शुक्र-एक राक्षस ( अनु० १४ । २१४)। पास जाना (शान्ति० ३२१ । ९४) । अरणि काष्ठसे शुक्राचार्य-महर्षि भृगुके पुत्र, जो असुरोंके उपाध्याय थे, व्यासजीके वीर्यद्वारा इनकी उत्पत्तिकी चर्चा ( शान्ति० इनका दूसरा नाम उशना था । इनके चार पुत्र हुए, ३२४ । ९-१०) शिवजीद्वारा इनका उपनयन संस्कार जो दैत्योंके पुरोहित थे (आदि० ६५। ३६ )। (शान्ति. ३२४ । १९)। पिताकी आज्ञासे मिथिलामें (कहीं-कहीं इन्हें भृगुका पौत्र भी कहा गया है। ) ये जाना और वहाँ स्वागत-सत्कारके बाद इनका ध्यानस्थित महर्षि भृगुके पौत्र और कविके पुत्र थे । ये ही ग्रह होना (शान्ति० ३२५ अध्याय)। राजा जनकद्वारा। होकर तीनों लोकोंके जीवनकी रक्षाके लिये वृष्टि, अनाइनका पूजन (शान्ति० ३२६ । ३-५)। इनकाराजाको वृष्टि, भय एवं अभय उत्पन्न करते हैं । ब्रह्माजीकी अपने आगमनका कारण बताना ( शान्ति० ३२६ ।। प्रेरणासे समस्त लोकोंका चक्कर लगाते रहते हैं। महा. १०-१३)। राजा जनकसे ज्ञान-विज्ञानविषयक प्रश्न बुद्धिमान् शुक्र ही योगके आचार्य तथा दैत्योंके गुरु ( शान्ति० ३२६ । २०-२१)। मिथिलासे लौटकर हुए । ये ही बृहस्पतिके रूपमें प्रकट हो देवताओंके भी इनका पिताके पास आना (शान्ति० ३२७ । ३१)। गुरु हुए (आदि. ६६ । ४२-४३)। दैत्योंके द्वारा व्यासजीका इन्हें अनध्यायका कारण बताते हुए प्रवह इनका पुरोहितके पदपर वरण तथा बृहस्पतिके साथ आदि सात वायुओंका परिचय देना (शान्ति. इनकी स्पधों ( आदि. ७६ । ६-७)। इनके द्वारा ३२८ । २८-५६)। इनका नारदजीसे कल्याण-प्रामि- मृतसंजीवनी विद्याके बलसे मरे हुए दानवोका जीवित का उपाय पूछना (शान्ति० ३२९।४)। सूर्यलोकमें जाने- होना (आदि० ७६ । ८) । इनकी पुत्रीका नाम का निश्चय करके नारदजी और व्यासजीसे आज्ञा माँगना देवयानी था (आदि. ७६ । १५)। कचका दानव(मान्ति० ३३१ । १९-६२) । इनकी ऊर्धगतिका राज वृषपर्वाके नगरमें जाकर शुक्राचार्यसे अपनेको शिष्यवर्णन (कान्ति० १३२ अध्याय)। इनकी परम पद- रूपसे ग्रहण करनेके लिये प्रार्थना करना और इनकी प्राप्ति (शान्ति. ३३३ । १-१८)। अपने पिता व्यास- सेवामें रहकर एक सहस्र वर्षतक ब्रह्मचर्यपालनके जीसे इनका विविध प्रश्न करना (अनु०८१। ८- लिये अनुमति माँगना तथा इनका कचको स्वागतपूर्वक ११)। ग्रहण करना (आदि. ७६ । १८-१९)। इनका कचके महाभारतमें आये हुए शुकदेवजीके नाम-आरणेय, लिये चिन्तित हुई देवयानीको आश्वासन देकर संजीवनीअरणीसुत) द्वैपायनात्मज) वैयासकि, व्यासात्मज आदि । विद्याका प्रयोग करके कचको पुकारना और उस विद्या के बलसे कचका कुत्तोंके शरीरको विदीर्ण करके निकल शुकी-ताम्राकी पुत्री । इसने शुकों (तोतों) को उत्पन्न आना ( आदि० ७६ । ३१-३४ )। इनके द्वारा किया (आदि० ६६ । ५६, ५९)। कचको दोबारा जीवनदान (आदि०७६ । ४१-४२)। शुक्तिमती-(१) एक नदी, जो राजा उपरिचरवसुकी तीसरी बार दानवोंने कचको मारकर आगमें जलाया राजधानीके समीप बहती थी। कोलाहलपर्वतने काम- और उनकी जली हुई लाशका चूर्ण बनाकर मदिरामें वश इस दिव्यरूपधारिणी नदीका अवरोध कर लिया था। मिला दिया, फिर वही मदिरा उन्होंने ब्राह्मण शुक्रापरंतु राजा उपरिचरवसुके पादप्रहारसे पर्वतमें दरार पड़ चार्यको पिला दी (आदि० ७६ । ४३)। देवयानीका गयी और उसी मार्गसे यह नदी पुनः बहने लगी। इसके पुनः कचको जीवित करनेके लिये इनसे अनुरोध, गर्भसे कोलाहलपर्वतद्वारा जुड़वीं संतान उत्पन्न हुई, शुक्राचार्यका कचको जिलानेसे विरत होना तथा देवजिन्हें शुक्तिमतीने राजा उपरिचरवसुको समर्पित कर दिया। यानीके प्राणत्याग करने के लिये उद्यत होनेपर इनका राजाने पुत्रको अपना सेनापति बनाया और पुत्रीको, असुरोंपर क्रोध करके संजीवनी विद्याके द्वारा कचको जिसका नाम गिरिका था, अपनी पत्नी बना लिया (आदि. पुकारना, कचका अपनेको इनके उदरमें स्थित बताना ६३ । ३४-४१)। इसकी गणना भारतकी प्रमुख और इनके पूछनेपर मदिराके साथ इनके पेट में पहुँचनेनदियोंमें है (भीष्म० ५। ३५)। (२) एक नगरी, का वृत्तान्त निवेदन करना । इनका कचको जीवित जो चेदिनरेश धृष्टकेतुकी राजधानी थी ( वन० २२ । करनेसे अपने वधकी आशंका बताना । देवयानीका पिता ५०)। और कच दोनों से किसीके भी नाशसे अपनी मृत्यु शक्तिमान्-एक पर्वत, जिसे पूर्व-दिग्विजयके अवसरपर बताना । तब इनका कचको सिद्ध बताकर उन्हें भीमसेनने जीता था (सभा. ३० । ५)। यह भारत- संजीवनी विद्याका उपदेश करना । कचका इनके पेटसे पर्षके सात कुलपर्वतोमसे एक है (भीम. )। निकलकर विधाके पलसे पुनः इन जोषित कर देना म. ना.४५ For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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