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देवस्थान
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हुआ था ( वन० २२३ । ७ - १५ ) । इसका अपना और अपनी बहिनका परिचय देना तथा इन्द्रके प्रति अपने भावी पति के लक्षणों का वर्णन करना १ – ९ ) । इसका स्कन्द के साथ विवाह ( वन० २२९ । ४८ )।
वन० २२४ ।
देवस्थान - एक प्राचीन ऋषि, जो युद्ध के बाद युधिष्ठिर के पास आये थे ( शान्ति० १ ४ ) । इन्होंने युधिष्ठिरको यज्ञानुष्ठान के लिये प्रेरित किया (शान्ति० २० । २–१४)। इन्होंने युधिष्ठिरको उत्तम धर्म और यज्ञानुष्ठानका उपदेश दिया ( शान्ति० २१ अध्याय ) । इनके तथा अन्य मुनियों के समझानेसे युधिष्ठिरने मानसिक दुःखको त्याग दिया ( शान्ति० ३७ । २७ ) । शरशय्यापर पड़े हुए भीष्म के पास ये भी गये थे ( शान्ति० ४७ । ५ ) । भीष्मका राजधर्मविषयक भाषण सुनकर इन्हें प्रसन्नता हुई ( शान्ति० ५८ । २५ ) । इनके समझाने-बुझानेसे राजर्षि युधिष्ठिरका मन शान्त हुआ और उन्होंने मानसिक शोकजनित दुःख त्याग दिया ( आश्व० १४ । २ ) । देवहव्य- एक प्राचीन ऋषि, जो इन्द्रकी सभा में रहकर देवेन्द्रकी उपासना करते हैं ( सभा० ७ । १८ के बाद दा० पाठ ) ।
देवहोत्र - एक ऋषि, जो उपरिचरके यज्ञके सदस्य बनाये गये थे (शान्ति ३३६ । ९ ) ।
देवद - कालञ्जर पर्वतपर स्थित एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है ( वन० ८५ । ५६ ) । यहाँके स्नानका विशेष फल ( अनु० २५ । ४०)।
देवातिथि - पूरुवंशीय राजा अक्रोधनके द्वारा कलिङ्गदेशकी राजकुमारी करम्भाके गर्भ से उत्पन्न (आदि० ९५ | २२ ) । इनकी पत्नीका नाम मर्यादा था, जो विदेहराजकी पुत्री थीं। इनके पुत्र का नाम अरिह था ( आदि० ९५ । २३)।
देवाधिप - एक क्षत्रिय राजा, जो अजेय दैत्य निकुम्भके
अंशसे उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६७ । २६-२७ ) । देवापि - (१) महाराज प्रतीप के प्रथम पुत्रः शान्तनुके अग्रज,
ये धर्माचरणद्वारा कल्याण-प्राप्तिकी इच्छासे वनको चले गये थे । अतः शान्तनु एवं बाह्लीकने ही राज्य प्राप्त किया था ( आदि० ९४ । ६१-६२ ) । धर्मपूर्वक पृथ्वीका शासन करनेवाले महाराज प्रतीपके तीन देवोपम पुत्र हुए देवापि, बाहीक और शान्तनु । देवापि सबसे बड़े थे | ये महान तेजस्वी, धार्मिक, सत्यवादी, पिताकी सेवामें तत्पर साधु पुरुषोंद्वारा सम्मानित तथा नगर एवं जनपद-निवासियों के लिये आदरणीय थे । देवापिने
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देवीतीर्थं
बालकोंसे लेकर बूढ़ोंतक सभीके हृदयमें स्थान बना लिया था । ये अपने दोनों छोटे भाइयों को बहुत प्रिय थे । उन तीनों बन्धुओंमें अच्छे भाईका सा स्नेहपूर्ण बर्ताव था । देवापि उदार, सत्यप्रतिज्ञ और समस्त प्राणियोंके हितैषी थे; परंतु चर्मरोग से पीड़ित रहा करते थे । पिता प्रतीपने उनके राज्याभिषेककी तैयारी करायी, परंतु नगर और जनपदके लोगों एवं ब्राह्मणोंने आकर रोक दिया । हीनाङ्ग राजाका देवता अभिनन्दन नहीं करते । इसलिये चर्मरोग के दोष से ही वे राज्यके अनधिकारी बताये गये । इससे पिता के नेत्रों में आँसू भर आया । वे देवापिके लिये दुखी हो गये । देवापि चुपचाप वनमें चले गये । बाह्लीक मामाके घर जाकर रहने लगे । अतः बाह्रीककी अनुमतिसे वह राज्य शान्तनुके अधिकारमें आया ( उद्योग० १४९ । १५-२८ ) । देवापि कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत पृथूदक तीर्थमें तपस्या करके ब्राह्मणको प्राप्त हुए थे (शल्य० ३९ । ३७) । ( २ ) पाण्डव पक्षका एक चेदिदेशीय योद्धा, जो कर्णद्वारा निहत हुआ था ( कर्ण० ५६ । ४८ ) । देवारण्य - एक तीर्थ, जहाँ काशिराजकी कन्या अम्बाने कठोर व्रतका आश्रय ले तप किया था ( उद्योग ० १८६ । २७ ) ।
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arga - (१) कौरव-पक्षके एक महारथी योद्धा ( कर्ण० ८५ । ३) । (२) एक प्राचीन नरेश, जिन्होंने सोनेका छत्र दान करके अपने देशके प्रजाके साथ स्वर्गलोक प्राप्त किया था ( शान्ति० २३४ । २१; अनु० १३७ । ७)।
देवा - एक प्राचीन नरेश ( आदि० १ । २३५ ) । देविका - ( १ ) शिचिनरेश गोवासनकी पुत्री, जिसे
युधिष्ठिरने स्वयंवर में प्राप्त किया था। इसके गर्भ से उन्होंने यौधेय नामक पुत्र उत्पन्न किया ( आदि० ९५ । ७६ ) । ( २ ) एक तीर्थ, जहाँ ब्राह्मणों की उत्पत्ति सुनी जाती है। देविका में स्नान करके भगवान् महेश्वरका पूजन और उन्हें यथाशक्ति चरु निवेदन करके यज्ञके फलकी प्राप्ति होती है ( वन० ८२ । १०२ ) । यहाँके स्नानका विशेष फल ( अनु० २५ । ९ ) ।
देवी - ( १ ) वरुण की ज्येष्ठ पत्नी, जिसने बल नामक पुत्र और सुरा नामक कन्याको जन्म दिया था ( आदि० ६६ । ५२) । ( २ ) एक स्वर्गीय अप्सरा, जो अर्जुनके जन्ममहोत्सव नृत्य करने आयी थी (आदि० १२२ । ६२) । देवीतीर्थ कुरुक्षेत्र की सीमा में इस नामके तीन तीर्थ हैं । पहला शंखिनी तीर्थके भीतर है। उसमें स्नान करनेसे उत्तम रूपकी प्राप्ति होती है ( वन० ८३ । ५१ ) ।
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