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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलिङ्ग कल्माषपाद ३०-३८ )। कलियुगका सर्वश्रेष्ठ तीर्थ गङ्गा (वन० आगे करके कलिङ्गवासियों ने भीमसे लडाई की और उनके ८५। ८९-९१)। कलियुगका मान (वन० १८८। द्वारा वे मारे गये थे (भीष्म० ५४ । ३-४२)। (शेष २६-२७ )। कलियुगके अन्तिम भागमें संसारकी स्थिति देखिये श्रतायु-)। (३) स्कन्दका एक सैनिक (वन० १८८ । ३९-६४)। कलियुग एवं युगान्तमें (शल्य० ४५ । ६४)। जगत्की परिस्थिति ( वन० १९०। ११-८८ ); कल्कि-भगवान् विष्णुके भावी दशम अवतार, जो कलियुगकलिके मनुष्योंकी आयु ( शान्ति०२३१ । २५)। के अन्तमें धमेके शिथिल हो जानेपर प्रकट होंगे, इनका कलिके युगधर्मका वर्णन ( वन० १४९ । ३३-३८% शान्ति०६९।९१-९७, शान्तिपर्वके २३१, २३२, २३८ नाम होगा कल्कि विष्णुयशा ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ ७९६, कालम २, वन० १९०। और ३४० आध्यायोंमें भी कलिधर्मका वर्णन आया ९३-९४ ) । कल्किके स्वरूप और कार्यका वर्णन ( वन. है )। मार्कण्डेयजीद्वारा उसके प्रभावका वर्णन ( वन० १९० । ९३-९७ )। इनके द्वारा कलियुगके बाद १८८ । २५-८५, वन० १९०। ७-९२) । इस कलियुग कृतयुगकी स्थापना (वन० १९३ । १-१४)। भगवान् का अंश ही कुरुकुलकलङ्क राजा दुर्योधनके रूपसे उत्पन्न नारायणका नारदजीसे कल्किको अपना अवतार बताना हुआ था ( आदि. ६७ । ८७ आश्रम० ३१ । १०)। (शान्ति० ३३९ । १०४)। (३) भगवान् सूर्यका एक नाम (वन० ३ । २०)। कल्माष-(१) एक प्रमुख नाग (आदि० ३५ । ७)। (४) भगवान् शिवका एक नाम ( अनु० १७ । ७९)। कलिङ्ग (कालिङ्ग)-(१) दक्षिण भारतका एक (२) एक उत्तम अश्व, जिसका रंग चितकबरा था। प्राचीन देश । तीर्थयात्राके अवसरपर यहाँ अर्जुनका यह अश्व अर्जुनने दिग्विजयके समय हाटकदेशके निकटआगमन ( आदि. २१४ । ९, भीष्म. ९। ४६, वर्ती गन्धर्वनगरसे प्राप्त किया था (सभा० २८ । ६)। ६९)। सहदेवने दक्षिण-विजयके समय इसे जीता था कल्माषपाद-एक इक्ष्वाकुवंशी राजा, जो ऋतुपर्णके पौत्र (सभा० ३१ । ७१)। इस देशके निवासी युधिष्ठिरके एवं सुदासके पुत्र थे । इनका दूसरा नाम मित्रसह था । राजसूय यज्ञमें भेंट लेकर आये थे ( सभा० ५२। सुदासपुत्र होनेसे ये सौदास भी कहलाते थे। इस भूतलपर ये १८)। तीर्थयात्राके समय युधिष्ठिर यहाँ गये थे (वन० असाधारण तेजसे सम्पन्न थे ( आदि० १७५।१; ११४।४)। कर्णने दिग्विजयके समय इसे जीता था अनु. ७८ । १-२)। इनका नगरसे निकलकर वनमें (वन० २५४ । ८)। सहदेवने दन्तकूरमें कलिङ्गोंको मृगयाके लिये जाना, वहाँ इनके द्वारा हिंसक पशुओंका परास्त किया था ( उद्योग. २३ । २४) । दन्तकूरमें वध (आदि० १७५। २)। वहाँसे थककर इनका श्रीकृष्णने कलिङ्गोका संहार किया था ( उद्योग. ४८। नगरकी ओर लौटना और एक तंग रास्तेपर इनकी ७६ ) । सहदेवने इसे जीता था इसकी चर्चा (उद्योग० शक्ति मुनिसे भेंट (आदि० १७५ । ६-७)। वहाँ ५० । ३१) । कर्णने इस देशको पहले जीता था (द्रोण. ४ । ८) । द्रोणनिर्मित गरुडव्यूहकी ग्रीवा और पीठके । मुनिका तिरस्कार (आदि०७५। ८-११)। शक्तिद्वारा स्थानपर कलिङ्गदेशीय योद्धा स्थित थे (द्रोण. २०। इन्हें राक्षस होनेका शाप (आदि. १७५। १३-१४)। ६-१०)। परशुरामजीके द्वारा इस देशके निवासी विश्वामित्रकी प्रेरणासे इनके शरीरमें किङ्कर' नामक परास्त हुए थे (द्रोण. ७० । १२ )। कलिङ्गदेशीय राक्षसका आवेश (आदि० १७५ । २१)। इनके द्वारा योद्धा सात्यकिके साथ लड़े हैं (द्रोण. १४१ । १०- रसोइयेको एक तपस्वी ब्राह्मणके भोजनके लिये मनुष्यका ११)। परशुरामजीके डरसे भगे हुए कुछ क्षत्रिय शूद्र मांस देनेकी प्रेरणा (आदि. १७५ । ३१)। ब्राह्मणहो गये थे. उन्हींमें कलिङ्गोंकी भी गणना है (अनु० द्वारा इन्हें राक्षसस्वभावसे युक्त होनेका शाप ( आदि. ३३ । २२)। (२) कलिङ्ग देशका राजा (सभा० १७५ । ३५-३६)। इनके द्वारा महर्षि शक्तिका भक्षण ५१ । ७ के बाद दा० पाठ )। इसका नाम श्रुतायु था (आदि० १७५ । ४०)। विश्वामित्रकी प्रेरणासे इनके (भीष्म० ५१ । ६८-६९)। यह द्रौपदीके स्वयंवरमें द्वारा वशिष्ठके समस्त पुत्रोंका संहार (आदि०१७५/४२)। गया था (आदि. १८५। १३)। द्रोणनिर्मित व्यूहके वशिष्ठपर इनका आक्रमण (आदि. १७६ । १८)। दाहिने अङ्गमें स्थित था (द्रोण०७।११)। जयद्रथ- मन्त्रपूत जलसे अभिषिक्त करके वशिष्ठद्वारा इनका उद्धार की रक्षा संलग्न था (द्रोण० ७४ । १७)। भीमसेन- (आदि० १७६ । २६)। वसिष्ठद्वारा इनको कभी भी के साथ कलिङ्ग-राजकुमारका युद्ध और उनके द्वारा इसका ब्राह्मणका अपमान न करनेका आदेश (आदि. १७६ । वध (द्रोण० १५५ । २१-२४) । कलिङ्गराज श्रुतायुको ३१)। वशिष्ठसे पुत्र प्राप्त करनेके लिये इनकी For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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