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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra माहेश्वरीधारा www.kobatirth.org ( २५६ ) माहेश्वरीधारा-एक तीर्थ, इसकी यात्रा करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है और कुलका उद्धार हो जाता है ( वन० ८४ । ११७ )। मित्र - बारह आदित्यों में से एक। इनकी माताका नाम अदिति और पिताका कश्यप था ( आदि० ६५ । १५ ) । ये अन्य आदित्योंके साथ पाण्डुनन्दन अर्जुनके जन्म - कालमें उनका महत्व बढ़ाते हुए आकाशमें खड़े थे ( आदि० १२२ । ६६-६७ ) । खाण्डववन- दाहके समय इन्द्रकी ओरसे श्रीकृष्ण और अर्जुनपर आक्रमण करनेके लिये ये भी पधारे थे और जिसके किनारोंपर छुरे लगे हुए थे, ऐसा चक्र लेकर खड़े थे ( आदि० २२६ । ३६ ) । मित्र देवता देवराज इन्द्रकी समामें विराजमान होते हैं ( सभा० ७ । २१ ) । इन्होंने स्कन्दको सुव्रत और सत्यसंघ नामक दो पार्षद प्रदान किये ( शल्य० ४५ । ४१-४२ ) । मित्र - पाञ्चजन्य नामक अग्निके पुत्र । पाँच देवविनायकों मेंसे एक ( वन० २२० | १२ ) । मित्रदेव - त्रिगर्तराज सुशर्माका भाई, जो अर्जुनद्वारा मारा गया ( कर्ण० २७ । ३ --२५)। मित्रधर्मा - पाञ्चजन्य नामक अग्निके पुत्र । पाँच देव विनायकोंमेंसे एक ( वन० २२० । १२ ) । मित्रवर्धन - पाञ्चजन्य नामक अग्निके पुत्र । पाँच देव - विनायकोंमेंसे एक ( वन० २२० । १२ ) । मित्रवर्मा - त्रिगर्तराज सुशर्माका भाई, जो अर्जुनद्वारा मारा गया ( कर्ण० २७ । ३–२३)। 1 मित्रवान् पाञ्चजन्य नामक अग्निके पुत्र । पाँच देवविनायकों से एक ( वन० २२० | १२ ) । मित्रविन्द - एक देवता; रथन्तर नामक अग्निको दी हुई हवि इनका ही भाग है ( वन० २२० | १९ ) । मित्रविन्दा - ( अवन्ती- नरेशकी पुत्री तथा विन्द-अनुविन्द की बहिन ) भगवान् श्रीकृष्णकी आठ पटरानियोंमेंसे एक । द्वारकामें इनका महल वैदूर्यमणिके समान कान्तिमान् एवं हरे रंगका था । उसे देखकर यही अनुभव होता था कि ये साक्षात् श्रीहरि ही सुशोभित होते हैं। उस प्रासाद की देवगण भी सराहना करते थे । श्रीकृष्णमद्दिषी मित्र विन्दा - का वह महल अन्य सब महलों का आभूषण-सा जान पड़ता था ( सभा० ३८ | २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८१५ ) । मित्रसह - ( देखिये कल्माषपाद ) । मित्रा - उमादेवीकी अनुगामिनी सखी (वन० २३१ । ४८) । मित्रावरुण - सदा साथ रहनेवाले मित्र और वरुण देवता ( शस्य० ५४ । १४ ) | ( महर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ ये दोनों मित्रावरुणके पुत्र हैं । ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only मिश्रकेशी मिथिला - पूर्वोत्तर भारतका एक प्राचीन जनपद, जहाँ विदेहवंशी क्षत्रियोंका राज्य था। राजा पाण्डुने इस देशपर आक्रमण करके यहाँके क्षत्रिय वीरोंको परास्त किया था ( आदि० ११२ । २८ ) । ( आधुनिक तिरहुतका ही प्राचीन नाम मिथिला एवं विदेह है। मिथिला शब्द उस जनपद की राजधानी के लिये भी प्रयुक्त हुआ है; वेदोंके ब्राह्मण-ग्रन्थों और उपनिषदों में भी मिथिला एवं विदेहका सादर उल्लेख हुआ है। ) श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेन -- इन्द्रप्रस्थसे मगधको जाते समय मिथिलामें भी गये थे ( सभा० २० | २८ ) । मिथिलामें ही सुविख्यात, माता-पिता के भक्त धर्मव्याध रहते थे; जिनके पास कौशिक ब्राह्मणको कर्तव्यकी शिक्षा लेनेके लिये एक सतीने भेजा था ( वन० २०६ । ४४ से वन० २१६ । ३२ तक ) । कर्णने दिग्विजय के समय मिथिलाको जीता था वन० २५४ । ८ ) । जगजननी सीता मिथिला या विदेह देशके राजा जनककी पुत्री थीं। उन्हें विधाताने भगवान् श्रीरामकी प्यारी पत्नी होनेके लिये रचा था ( वन० २७४ । (९) । मिथिलाकी कन्या होनेके कारण ही यशस्विनी सीता 'मैथिली' कहलाती थीं ( वन० २७७ । २ ) । प्राचीन कालमें मिथिलापुरीके एक राजा धर्मध्वज नामसे प्रसिद्ध थे । उनके ब्रह्मज्ञानकी चर्चा सुनकर संन्यासिनी सुलभाके मनमें उनके दर्शनकी इच्छा हुई। उसने प्रचुर जनसमुदायसे भरी हुई रमणीय मिथिलामें पहुँचकर भिक्षा लेने के बहाने मिथिला नरेशका दर्शन किया था शान्ति० ३२० । ४—१२ ) । पिताकी आशा से शुकदेवजी मिथिला के राजा जनकसे धर्मकी निष्ठा और मोक्षका परम आश्रय पूछने के लिये मिथिलापुरीको गये थे ( शान्ति ० ३२५ । ६-७ ) । मिञ्जिकामिञ्जिक- शिवजीके वीर्यसे उत्पन्न एक जोड़ा ( बन० २३१ । १० ) । मिश्रक - ( १ ) का एक दल ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ पृष्ठ ८०३) । (२) द्वारकापुरीकी शोभा बढ़ानेवाला एक दिव्य वन ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८१२, कालम २) । ( ३ ) कुरुक्षेत्रकी सीमा अन्तर्गत स्थित एक उत्तम तीर्थ, जिसमें किया हुआ स्नान सभी तीर्थों में किये गये स्नान के समान फल देनेवाला है ( वन० ८३ । ९१-९२ ) । मिश्रकेशी - एक अप्सरा, जो कश्यपकी प्राधा नामवाली पत्नी से उत्पन्न हुई थी ( आदि० ६५ । ४९ ) । इसके गर्भ से पूरुपुत्र रौद्राश्वके द्वारा अन्वग्भानु आदि दस महाधनुर्धरों की उत्पत्ति हुई थी ( आदि० ९४ । ८ इसने अर्जुनके स्वागतमें नृत्य किया था ( वन० ४३ । २९)।
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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