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शूरसेनपुर
( ३५६ )
शेषनाग
वीरोंके साथ कृपाचार्य, कृतवर्मा और शकुनिने युद्ध किया यह सब धातुओंसे सम्पन्न एवं विचित्र शोभाधारण करनेवाला था (कर्ण. ४७ । १६-१८)। (३) एक राजा, जो है। यहाँ सिद्ध और चारण निवास करते हैं (भीष्म कौरवपक्षका सहायक था । यह भीष्मनिर्मित क्रौञ्चव्यूहके ६ । ५)। धृतराष्ट्र के प्रति संजयद्वारा इसका विशेष ग्रीवाभागमें दुर्योधनके साथ खड़ा था (भीष्म०७५। १०)। वर्णन (भीष्म.८।८-९) । सायं-प्रातःस्मरणीय शूरसेनपुर-इसीको ही मथुरा कहते हैं (सभा०३८ । २९
पर्वतोंमें भी इसका नाम है (अनु. १६५। १२)। के बाद दा० पाठ)। ( विशेष देखिये-मथुरा)
(२) एक प्राचीन ऋषि, जो गालबके पुत्र थे। इन्होंने
शर्तके साथ वृद्धकन्याका पाणिग्रहण किया था (शल्य. शूरसेनी-राजा पूरुके पुत्र प्रवीरकी पत्नी, जिसके गर्भसे
५२ । १५-10)। एक रात इनके साथ निवास करके मनस्यु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (आदि०१४।६)।
वृद्धकन्याके चले जानेपर ये उसके रूपका चिन्तन करते शूर्पणखा-रावणको बहिन, श्रीरामने लक्ष्मणके द्वारा इसकी
हुए अत्यन्त दुखो हो गये और शरीर त्यागकर इन्होंने नाक कटवा दी थी ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा०
भी उसीके पथका अनुसरण किया (शल्य. ५२ । १९पाठ, पृष्ठ ७९४, कालम २)। यह विश्रवाके द्वारा राका
२४)। के गर्भसे उत्पन्न हुई थी। इसका सहोदर भाई खर था (वन० २७५।८)। खर और शुर्पणखा ये दोनों शृङ्गवेर-कोर व्यकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके भाई-बहन तपस्यामें लगे हुए रावण आदि भाइयोंकी सर्पसत्रमै भस्म हो गया (आदि०५७।१३)। प्रसन्न मनसे परिचर्या एवं रक्षा करते थे (वन० २७५। शृङ्गवेरपुर-एक तीर्थ, जहाँ पूर्वकालमें वनवासके समय १९)। इसकी नाक कटवानेके कारण जनस्थाननिवासी दशरथनन्दन श्रीरामने गङ्गाजीको पार किया था । उस खरका श्रीरामसे वैर हो गया था (वन० २७७ । ४२)। तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है खर आदि राक्षसोंके मारे जानेपर यह लंकामें अपने भाई (वन.८५। ६५-६६)। ( यहीं निषादराज गुहकी राजा रावणके पास गयी और उसके चरणों में गिर पड़ी राजधानी थी। सम्भवतः प्रतापगढ़ जिलेका सिंगरौरा (वन० २७७ । ४५-४६) । इसने रावणसे राक्षस संहारका नामक गाँव ही प्राचीन शृङ्गवेरपुर है।) सारा वृत्तान्त कहा (वन० २७७ । ५२)।
शृङ्गी-शमीक ऋषिका तरुण पुत्र, जो महान् तपस्वी, दुःसह शूर्पारक-एक पश्चिमभारतीय जनपद, जिसे दक्षिण-दिग्विजय- तेजसे सम्पन्न और महान् व्रतधारी था। उसमें क्रोधकी के अवसरपर सहदेवने जीता था (सभा० ३१ । ६५)। मात्रा बहुत थी ( आदि० ४० । २५-२६) । आचार्ययहाँ परशुरामसेवित भूरिक तीर्थ है, उसमें जाकर राम- की सेवासे लौटते समय अपने मित्र कृशके द्वारा राजा तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यको प्रचुर सुवर्ण-राशिकी प्राप्ति परीक्षित्के अपराधका समाचार सुनकर इसके द्वारा उन्हें होती है (वन० ८५ । ४३) । इस शूर्पारक क्षेत्रमें तक्षकके डसनेसे मरनेका शाप (आदि. ४० । २९ से महात्मा जमदग्निकी वेदी है, वहीं रमणीय पाषाणतीर्थ और आदि. ४१ । १४ तक; आदि. ५०। ४-११)। पुनश्चन्द्रा नामक तीर्थविशेष हैं (वन० ८८ । १२)। परीक्षित्को शाप देने के कारण पिताद्वारा इसकी भर्त्सना युधिष्ठिरने इस पुण्यमय तीर्थका दर्शन किया (धन तथा राजाकी महत्ता एवं आवश्यकताका प्रतिपादन ११८।८)। समुद्रने परशुरामजीके लिये जगह खाली (आदि०४१।२०-३३ ) । व्यासजीके आवाहन करके शूर्पारक देशका निर्माण किया था, जिसे अपरान्त- करनेपर स्वर्गसे परीक्षित्के साथ शृङ्गी और इसके पिता शमीक भूमि भी कहते हैं (शान्ति० ४९ । ६६-६७)। शूरिक- भी जनमेजयके यज्ञमें आये थे (आश्रम ३५।८)। क्षेत्रके जलमें स्नान करके एक पक्षतक निराहार रहनेवाला :
शेषनाग-नागराज अनन्त, (ये साक्षात् भगवान् नारायणके मनुष्य दूसरे जन्ममें राजकुमार होता है ( अनु० २५ ।
स्वरूप हैं और उनके लिये शय्यारूप होकर उन्हें धारण ५०)।
करते हैं। ) इनके द्वारा मन्दराचलका उखाड़ा जाना शृगाल-स्त्रीराज्यके स्वामी, जो कलिंगराज चित्राङ्गदकी
( आदि. १८1८) नागोंमें सर्वप्रथम ये ही प्रकट हुए कन्याके स्वयंवरमें पधारे थे (शान्ति० ४ । ७)।
थे (आदि० ३५ । २-५)। नागोंके पारस्परिक द्वेषसे शृङ्ग-शंकरजीका वाद्यविशेष ( वन० ८८ । ८)। ऊबकर इनका पुष्कर आदि क्षेत्रोंमें तपस्या करना शृङ्गचान-(१) हिरण्यकवर्षका एक पर्वत, यहाँ उत्तर- (आदि० ३६ ॥३-५)। धर्ममें अटल निष्ठा रहने के लिये दिग्विजयके समय अर्जुन गये थे और इसे लाँधकर उत्तर- ब्रह्माजीसे इनकी वर-याचना (आदि. ३६ । १७) । कुरुवर्षमें चले गये थे (सभा० २८ । ६ के बाद दा० ब्रह्माजीके द्वारा इनको वरदान एवं पृथ्वी धारण करनेकी पाठ, पृष्ठ ७५०)। इसकी गणना छः वर्षपर्वतोंमें है। आज्ञा (भादि०३६ । १८-१९)। पृथ्वीको स्थिरभावसे
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