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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २९५ ) वत्स ( वत्सभूमि) सुवर्णष्ठीवीको मार डाला था ( शान्ति० ३१ । ९९) । वहाँ अग्निके लिये दिया हुआ चरु एक लाख २५-३३)। धाताने दधीचकी हड्डियोंका संग्रह करके गोदान, सौ राजसूय और एक हजार अश्वमेध यशसे भी उनके द्वारा वज्रका निर्माण किया था (शान्ति० ३४२ । अधिक कल्याणकारी है (वन० ८२ । ९९-१००)। ४०-४१)। (२) विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पोंमेंसे वडवा नदीको अग्निका उत्पत्ति-स्थान कहा गया है एक ( अनु० ४।५२ )।( ३ ) श्रीकृष्णपौत्र (वन० २२२ । २४-२५)। अनिरुद्धका पुत्र, जो यादवोंका मौसल-युद्ध में संहार हो वडवाग्नि-समुद्रके भीतर रहनेवाली एक अग्नि, जिसे वडवाजानेपर अर्जुनद्वारा इन्द्रप्रस्थमें शेष यदुवंशियोंका राजा मुख भी कहते हैं, इस अग्निके मुखमें समुद्र अपने जलबनाया गया था (मौसल.७ । ७२) । महाप्रस्थानके रूपी हविष्यकी आहुति देता रहता है ( आदि० २१ । समय युधिष्ठिरका सुभद्रासे राजा वज्रकी रक्षाके लिये १६)। जब महर्षि और्वने रोषपूर्वक समस्त लोकोंके कहना (महाप्र. १।८-९)। विनाशका संकल्प कर लिया, तब उनके पितरोने आकर उन्हें समझाया और उन्हें अपनी क्रोधाग्निको समुद्र में वज्रदत्त-प्राग्ज्योतिषपुरका राजा, जो भगदत्तका पुत्र और डाल देनेके लिये कहा । पितरोंके आदेशसे उन्होंने अपनी युद्ध में बड़ा ही कठोर था (भाश्व०७५।)। इसका अर्जुनके साथ युद्ध के लिये उद्यत होकर नगरसे क्रोधाग्निको समुद्रमें डाल दिया । वही आज भी घोड़ीके निकलना और अश्वमेधीय अश्वको पकड़कर नगरकी मुखकी-सी आकृति बनाकर महासागरका जल पीती रहती ओर चल देना (आश्व० ७५। २-३ )। इसका है । वडवा (घोड़ी) के समान मुखाकृति होनेके कारण अर्जुनके साथ युद्ध और पराजय (भाश्व० ७५ । ५ से ही इसे वडवाग्नि कहते हैं ( आदि. १७९ । २१-२२)। ७६ । २० तक)। वडवानल और उदानकी एकता (वन० २१९ । २०)। वज्रनाभ-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य०४५। ६३)। भगवान् शिवका क्रोध ही वडवानल बनकर समुद्रके जलको सोखता रहता है (सौप्तिक. १८ । २१)। वज्रबाहु-एक वानर, जो कुम्भकर्णके मुखका ग्रास बन गया था (वन० २८७।६)। वडवामुख-नारायणके अवतारभूत एक प्राचीन ऋषि, वज्रविष्कम्भ-गरुड़की प्रमुख संतानोमेंसे एक (उद्योग. जिन्होंने समुद्र के जलको खारा कर दिया था (शान्ति. १०१।१०)। २४२। ६.)। वज्रवेग-दूषणका छोटा भाई, जो रावणकी प्रेरणासे विशाल वत्स (बत्सभूमि)-(१) एक भारतीय जनपद, जिसे सेनाके साथ कुम्भकर्णका अनुगामी हुआ था। इसके । भीमसेनने पूर्व-दिग्विजयके समय जीता था (समा. एक भाईका नाम प्रमाथी था (वन० २८६ । २७)। ३० । १०)। कर्णने भी इसपर विजय पायी थी (वन. हनुमान्द्वारा इसका वध ( वन० २८७ । २६)। २५४ । ९-१० ) । वत्सदेशीय पराक्रमी भूमिपाल पाण्डवोंके सहायक थे और उनकी विजय चाहते थे वज्रशीर्ष-प्रजापति भृगुके सात व्यापक पुत्रों से एक । ( उद्योग. ५३ । १-२)। वत्सभूमि सिद्धों और इनके छः भाइयोंके नाम हैं-च्यवन, शुचि, और्व, शुक्र, चारणोंद्वारा सेवित है। वहाँ पुण्यात्माओंके आश्रम हैं, वरेण्य और सवन । ये सभी भृगुके समान गुणवान् थे उनमें काशिराजकी कन्या अम्बाने विचरण किया था (अनु० ८५ । १२७ -१२९) । (उद्योग० १८६ । २४)। अम्बा वत्सदेशकी भूमिमें वज्री-एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३३)। 'अम्बा' नामकी नदी बनकर प्रवाहित हुई, जो केवल बरसातमें ही जलसे भरी रहती है ( उद्योग० १०६ । वट-अंशद्वारा स्कन्दको दिये गये पाँच अनुचरोंमेंसे एक । ४०)। वत्सदेशीय योद्धा धृष्टद्युम्नद्वारा निर्मित क्रौञ्चारणउन चारके नाम हैं-परिघ, भीम, दहति और दहन व्यूहके वामपक्षमें खड़े हुए थे (भीष्म० ५०। ५५)। (शल्य० ४५ । ३४)। कर्णद्वारा इस देशके जीते जाने की चर्चा ( कर्ण. वडवा-एक त्रिभुवनविख्यात तीर्थ एवं नदी, जहाँ सायं- ।२०)।(२) काशिराज प्रतर्दनका पुत्र, जिसे संध्याके समय विधिपूर्वक स्नान और आचमन करके गोशालामें वत्सों (बछड़ों) ने पाला था । इसीलिये इसका अग्निदेवको चरु निवेदन करनेका विधान है । वहाँ नाम वत्स हुआ (शान्ति० ४९ । ७९) । (३) पितरोंको दिया हुआ दान अक्षय होता है । इसका शर्यातिवंशी नरेश । हैहय और तालजंघके पिता (भनु. 'सप्तचरु' नाम पड़नेका कारण (वन० ८२ । ९२-- ३०। । For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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