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पवन-ग्राहक
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विषय-सूची १ श्रीवीर-स्तवन-[भ० अमरकीर्ति ... २) ८ अहारक्षेत्रके प्राचीन-मूर्तिलेख-[१० गोविन्द२ अनेकान्त-रस-लहरी-[पं० जुगलकिशोर ३ दास न्यायतीर्थ
.... २४ ३ युक्तिका परिप्रह-[डा० वासुदेवशरण
- |
भगवान महावीर, जैनधर्म और भारत
-श्रीलोकपाल .... .... २९ ४ श्रीपण्डितप्रवर दौलतरामजी और उनकी
| १० वीर-शासन-जयन्ती-[ला०जिनेश्वरप्रसाद ३४ साहित्यिक-रचनाएँ-[पं० परमानन्द जैन ।
११ प्राप्तकी श्रद्धाका फल-[श्री १०५ क्षुल्लक ५ कवि पद्मसुन्दर और दि० श्रावक रायमल्ल
गणेशप्रसादजी वर्णी .... -[श्रीअगरचन्द नाहटा ..."
१६ | १२ साहित्य-परिचय और समालोचन ६ किसके विषयमें मैं क्या जानता हूँ?
-परमानन्द जैन शास्त्री
" ३८ -[ला० जुगलकिशोर कागजी " २० | १३ सम्पादकीय .... .." ७ कल्पसूत्रकी एक प्राचीन लेखक-प्रशस्ति १४ दिल्ली में वीर-शासन-जयन्तीका अपूर्व समारोह । -[डा० वासुदेवशरण अग्रवाल .... २२ । -[परमानन्द शास्त्री टा० पृ० ३
ग्राहकोंको अावश्यक-सूचना अनेकान्तके प्रेमी ग्राहकोंमे निवेदन है कि अनेकान्तकी पहली किरण वी० पी० से नहीं भेजी जारही है। अत: किरण पहुँचते ही अपना वार्षिक मूल्य पाँच रुपया मनीआडरसे निम्न पतेपर भेजनेकी कृपा करें । जो सजन मनीआर्डरसे पेशगी मूल्य नहीं भेजेगे उनके पास अनेकान्तकी अगली किरण पाँच रुपया चारपानेकी वी० पी० से भेजी जावेगी। वी०पी० पहचते ही छडानकी कृपा करें। निवेदक :
मनजर 'यनकान्त' ठि० गयमाहव उल्फतराय बिल्डिंग,
७.३३ दरियागज, देहली वीरसेवामन्दिरको प्राप्त महायता अनेकान्तकी गत ११-१२ वी किरणमें प्रकाशित । ५०१) बा० अनन्तप्रसाद जी जैन, इन्जीनियर, पटना सहायताके बाद वीरसेवामन्दिरको जो सहायता | २५) श्री वीरचन्द कोदरजी गांधी, फल्टण (मतारा) प्राप्त हुई वह निम्न प्रकार है और उसके लिये ११) हकीम फलचन्दजी, रुड़की जि. सहारनपुर दातार महोदय धन्यवादके पात्र हैं :
(चि० राजेन्द्रकुमारके विवाहोपलक्षमे) २००) बा० सिद्धकरण निहालकरणजी सेठी, आगरा, । १०) बा० वसन्तीलालजी जैन, जयपुर । (लायब्रेरीकी सहायतार्थ)
-अधिष्ठाना 'वीरसेवामन्दिर' अनेकान्तके विज्ञापन-रेट एक वर्षका छह महीनेका एकबारका | एक वर्षका छह महीनेका एकवारका पूरे पेजका १५०) ८०) १५) चौथाई पेजका ५०) ३०) ६) श्राधे पेजका ८०) ५०) १०) ।
स० सम्पादक : दरबारीलाल कोटिया, न्यायाचाय
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ॐ अहम
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धस्ततत्त्व-सघातक
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विश्व तत्त्व-प्रकाशक
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* वार्षिक मूल्य ५)*
* एक किरणका मृल्य ।।) *
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नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकःसम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
वर्ष १० ।
जुलाई
वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम ), ७/३३ दरियागंज, देहली
श्रावण, वीर निर्वाण-मवत १७५, विक्रम संवत् २००६
१६४६
श्रीकीर-स्तवन
[यमकाएक म्तोत्र] [यह स्तोत्र अभी हालमें १६ जूनको पंचायतीमन्दिर दहलाक शास्त्र-भंडारको देखते हुए उपलब्ध हुआ है । इसमें यमकालकारको लिय हुग वीर भगवान के नवन-संबंधी पाठ पद्य है । श्रन्तक दो पद्य प्रशस्त्यात्मक है
और उनमें स्तोत्रकार अमरकीनि अपना श्रीर अपनी इस रचनाफा संक्षिप्त परिचय दिया है, जिसमे मालूम होता है कि 'इम स्तोत्रके रचयिता भट्टारक श्रमरकोनि विद्यानन्दक शिष्य थे, परशीलवादियों अथवा परमनवादियोंक मदका खण्डन करनेवाले थे, उन्होंने परमागमका अध्ययन किया था, शब्दशास्त्र और युति (न्याय ) शाम्यको- अधिगत किया था और विद्वानोक लिये दवागमाऽलंकृति नामक ग्रन्थकी रचना की थी। उनका यह वीररूप अर्हत्परमेश्वरका यमकाष्टक स्तोत्र मंगलमय है, जो भव्यजन सदा (भाषपूर्वक) इस स्तोत्रका पाट करना है वह भारतीमुम्बका दर्पण बन • जाता है-सरस्वती देवी सदा ही उसमें अपना मुग्व देवा करती है अथवा यों कहिये कि सरस्वती का मुख उसमें प्रति
बिम्बित हुआ करता है। यह रचना बडी सुन्दर गम्भीर नथा पढनम अतिप्रिय मालम होती है। अष्टक पद्योंक प्रत्यक । चरणमें एक एक शब्द एकसे अधिकधार प्रयुक्र हुअा है और वह भिन्न भिन्न अर्थको लिये हुए है इतना ही नहीं बल्कि एक ही पद में अनेक अर्थोकी भी लिये हुए है, जिन्हें साथमें लगी हुई टीका-द्वारा स्पष्ट कियागया है और जो प्रायः स्वोपज्ञ जान पडती है, यही इस यमकरूप काव्यालंकारकी विशेषता है, जिसे इस स्तोत्र में बड़ी खूबीक माथ चित्रित किया गया है । प्रत्येक अष्टक पद्यका चौथा चरण 'वीरं स्तुवे विश्वहितं हितं हितम्' रूपको लिये हुए है, जिसमे टीकानुसार यह बतलाया है कि 'मैं उस वीरका स्तवन करता हूँ जो विश्वक लिये हिन रूप है, विश्वजनोंका वृद्ध है या सारे विश्व अथवा विश्व के सब पदार्थ जिसके लिये हितरूप-पथ्यरूप हैं-कोई विरोधी नहीं-अथवाद्रव्य-गुण-पर्यायरूप, चेतन अचेतनरुप, मूर्त-अमूर्तरूप और देश-कालादिक अन्तरितरूप जो सर्ववस्तुसमूह है वह विश्व, उसे युगपत्
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अनेकान्त
[वर्ष १०
साक्षात् जानता है (हितोऽभिगच्छति) और हित जो मोक्ष तथा मोक्षका कारण क्रियाकलाप उमे प्राप्त (हितं गतम्) हुआ है अथवा हितकारी जो इन्द्रभून्यादि गणधर उनके प्रति भी हितरूप है-हितप्रद है। साथ ही 'वीर' शब्दक अर्थमें युक्तिमे वृषभादि अन्य तीर्थङ्करोंका भी समावेश किया है और इस तरह वीर भगवानक इसस्तवनमें अन्य जैन तीथङ्करोंक स्तवनको भी मम्मिलित किया है।
अमरकीर्ति नामके अनेक विद्वान् श्राचार्य तथा भट्टारकादि होगये हैं। जैसे एक अमरकीर्ति वे जिन्हें वि० संवत् १२४७ में बनकर समाप्त हुए षटकर्मोपदेश नामक अपभ्रंश ग्रन्थों 'महाकवि' लिग्वा है। दूसरे अमरकीर्ति वे जिनके शिन्य माधनन्दी व्रती और प्रशिव्य भोगराज (मौदागर) थे। भोगराजने शक संवत् १२७७ (वि० सं० १४१२) में शान्तिनाथकी प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी। तीसरे अमरकीर्ति वे जो कलिकालपर्वज्ञ भट्टारक धर्मभूषणक शिष्य थे और जिनका उल्लेग्ब शक सं० १२१५ में लिखे गये श्रवणबेलगोलक शिलालेख न० ११५ (२७४) में पाया है । चौथे अमरकीनि वे जो वादी विद्यानन्दके शिष्य थे और जिनका उल्लेख नगरवालुका शिलालेख नं. ४६ मे पाया है (E.C Part II)। ये विद्यानन्द के शिष्य चाथ अमरकीर्ति ही इस स्तोत्रक कता जान पड़ते हैं और इसलिये इनका तथा इस स्तोत्रकी रचनाका समय विक्रमकी १६वीं शताब्दी समझना चाहिए। हम स्तोत्रमे स्तोत्रकारने अपनी जिम 'देवागमालंकृति' नामकी रचनाका उल्लेख किया है वह अभी तक अपने दग्वनमें नहीं आई, उसकी खोज होनी चाहिये। वह बहुधा बड़े विद्यानन्दस्वामीकी 'श्राप्तमीमांसालंकृति नामक अष्टमसी ग्रन्थको सामने रखकर कुछ विशेषरूपमें लिग्वी गई होगी।
[जगती]
-सम्पादक] विद्याऽऽम्पदाऽऽहन्त्य-पदं पदं पदं प्रत्यग्र-मत्पद्म-परं परं परम । हेयेतराकार-बुधं बुधं बुधं वीरं तु विश्व-हितं हितं हितम् ॥११॥ दिव्यं वचो यम्य मभा सभामभा निपीय पीयपमितं मितं मितम । बभूव तृप्ता ममुगऽसुरा मुरा वीरं स्तुवे विश्वहितं हिनं हितमा शत्र-प्रमाऽन्यैरजिना जिता जिता गुग्णावली येन धृताऽधृता धृता । संवादिन तीथकर कर कर वीरं स्तुवे विश्वहितं हितं हितम ॥१॥ मयूग्व-मालेव महा महा महा-लोकोपकार मविताऽविनाऽविता। विभाति यो गन्धकुटी कुटीकुटी वारं स्तुव विश्वहितं हित हितम ।।। साऽराग-संस्तुत्य-गुग्ण गुणं गुणं ममायिष्णु मशिव शिवं शिवम । लक्ष्मीवतां पृज्यतमं तमं तम वीरं स्तुवं विश्वहितं हितं हितम ।।५।। सिद्धाथ-सन्नन्दनमाऽऽनमाऽऽनमाऽऽनंदाद्ववर्षे यमदाऽऽमदा मदा। यस्योपरिष्ट्रात कुसुम सुमं मुमं वीरं म्नुव विश्वहितं हितं हितम् ॥६॥ प्रत्यक्षमध्यदचितं चितं चितं यो मेयमर्थ मकलं कलंकलम । व्यपेत-दोपाऽऽवरणं रणं ग्णं वी स्तुवे विश्वहितं हितं हितमा युकत्याऽऽगमाऽबाधिगिरं गिरं गिरं चित्रीयिताख्येयभर भर भरम ।
मंख्यावतां चित्तहरं हरं हरं वीरं स्तुव विश्वहिनं हितं हितम ।।८।। अध्येयाऽऽगममध्यगीष्ट परमं शब्दं च युक्ति विदां चक्रे यः पर-शील-वादि-मद-
भिवागमाऽलंकृतिम । विमानन्द-भवाऽमरादियशसा तेनाऽमुना निर्मितं वीराऽऽहत्परमेश्वरम्य यमक-स्त्रोत्राऽएक मंगलम ||६|| भटारकैः कृतं स्तोत्रं यः पठेद्यमकाउटकम। सर्वदा स भवद्भव्यो भारती-मुख-दर्पणः ॥१०॥
इति भट्रारक-श्रीअमरकीति-कृतं यमकाऽएक स्त्रोत्रं समाप्तमः ॥श्रीः।।
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अनेकान्त-रस- लहरी
[2] बड़ा और छोटा दानी
[ इस स्तम्भके नीचे लेख लिखनेके लिये सभी विद्वानोंको सादर श्रामन्त्रण है । लैग्योंका लक्ष्य वही होना चाहिये जो इस स्तम्भका प्रारम्भ करते हुए व्यक्र किया गया था अधात् लेखों में अनेकान्त जैसे गम्भीर विषयको ऐम मनोरंजक ढंगसे सरल शब्दों में समझाया जाय जिससे बच्चे तक भी उसके मर्मको आसानीसे जान सके, वह कठिन दुर्बोध एवं नीरस विपय न रहकर सुगम - सुखबोध तथा रसीला विषय बन जाय - बानकी बात में समझा जासके— और जनसाधारण सहजमें ही उसका रसास्वादन करते हुए उसे हृदयकम करने, अपनाने और उसके आधार पर तत्वज्ञानमें प्रगति करने, प्राप्त ज्ञानमें समीचीनता लाने, विरोधको मिटाने तथा लोक व्यवहारमें सुधार करने के साथसाथ अनेकान्तको जीवनका प्रधान श्रङ्ग बनाकर सुख-शान्तिका अनुभव करने में समर्थ हो सके । सम्पादक ] उससे आपका यह दस हजारका दानी बड़ा दानी । इस तरह १० हजारका दानी एककी अपेक्षासे बड़ा दानी और दूसरेकी अपेक्षा छोटा दानी है, तदनुसार पाँच लाखका दानी भी एककी अपेक्षासे बड़ा और दूसरे की अपेक्षा छोटा दानी है ।
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अध्यापक- हमारा मतलब यह नहीं जैसा कि तुम समझ गये हो, दूसरोंकी अपेक्षाका यहाँ काई प्रयोजन नहीं | हमारा पृछनेका अभिप्राय सिर्फ इतना ही है कि क्या किसी तरह इन दोनों दानियोंमेसे पाँच लाखका दानी दस हज़ार के दानीसे छोटा और दस हजारका दानी पाँच लाखके दानीसे बड़ा दानी हो सकता है ? और तुम उसे स्पष्ट करके चला सकते हो ?
-:०४०:
उसी दिन अध्यापक वीरभद्रने दूसरी कक्षा में जाकर उस कक्षा के विद्याथियोंकी भी इस विषय में जॉच करनी चाही कि वे बडे और छोटेके तत्त्वको, जो कई दिनसे उन्हें समझाया जारहा है, ठीक समझ गये है या कि नहीं अथवा कहाँ तक हृदयगम कर मके है, और इसलिये उन्होंने कक्षाके एक सबसे अधिक चतुर विद्यार्थीको पासमें बुलाकर पूछा
एक मनुष्यने पाँच लाखका दान किया है और दूसरने दस हजारका, बतलाओ, इन दोनों बड़ा दानी कौन है ?
विद्यार्थीने चटसे उत्तर दिया- 'जिसने पॉच लाखका दान किया है वह बड़ा दानी है ।" इसपर अध्यापक महोदय एक गंभीर प्रश्न किया
'क्या तुम पाँच लाख के दानीको छोटा दानी और दस हजार के दानीको बड़ा दानी कर सकते हो ?
विद्यार्थी - हाँ, कर सकता हूँ । अध्यापक – कैसे ? करके बतलाओ ?
विद्यार्थी - मुझे सुखानन्द नामके एक सेठका हाल मालूम है जिसने अभी दस लाखका दान दिया है, उससे आपका यह पाँच लाखका दानी छोटा दानी है । और एक ऐसे दातारको भी मैं जानता हूँ जिसने पाँच हजारका ही दान दिया है,
विद्यार्थी - यह कैसे होसकता है ? यह तो उसी तरह असंभव है जिस तरह पत्थरकी शिला अथवा लोहेका पानीपर तेरना ।
अध्यापक - पत्थरकी शिलाको लकड़ीकी स्लीपर या मोटे तख्तेपर फिट करके अगाध जलमे तिराया जासकता है और लोहेकी लुटिया, नौका अथवा कनस्टर बनाकर उसे भी तिगया जासकता है । जब युक्तिसे पत्थर और लोहा भी पानीपर तैर सकते है और इसलिये उनका पानीपर तैरना सर्वथा असंभव नहीं कहा जासकता, तब क्या तुम युक्तिसे दस हजारके दानीको पाँचलाखके दानीसे बड़ा सिद्ध नहीं कर सकते ?
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अनेकान्त
विष १०
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___ यह सुनकर विद्यार्थी कुछ गहरी सोच में पड़ गया वेशी होती है । ऐनी स्थितिमें यह ठीक है कि दानका और उससे शीघ्र ही कुछ उत्तर न बन सका । इम- छोटा-बड़ापन केवल दानद्रव्यकी संख्यापर निर्भर पर अध्यापक महोदयन दमर विद्यार्थियोंसे पूछा- नहीं होता, उसके लिये दमरी कितनी ही बातोंको 'क्या तुममेंसे कोई ऐसा कर सकता है? वे भी देखनेकी जरूरत होती है, जिन्हें ध्यानमें रखते हुए सोचते-से रह गये। और उनसे भी शीघ्र कुछ उत्तर द्रव्यकी अधिक संख्यावाले दानको छोटा और अल्प बन न पड़ा। तब अध्यापकजी कुछ कड़ककर बोले- संख्यावाले दानको खशीसे बड़ा कहा जा सकता _ 'क्या तुन्हे तत्वार्थसूत्रके दान-प्रकरणका म्मरण है । अतः अब आप कृपाकर अपने दोनों दानियोंका नहीं है ? क्या तुम्हे नहीं मालूम कि दानका क्या कुछाव
कुछ विशेष परिचय दीजिये जिससे उनके छोटेलक्षण है और उस लक्षणसे गिरकर दान दान नहीं बड़ेपनके विषयमें कोई बात ठीक कही जा मके। रहता? क्या तुम्हे उन विशेषताओका ध्यान नहीं ,
अध्यापक हमें पाँच पाँच लाखके दानी चार है जिनसे दानके फलमें विशेषता–कमी-वंशी आती
सेठोंका हाल मालूम है जिनमेस (१) एक सेठ है और जिनके कारण दानका मूल्य कमोबेश हो
डालचन्द है, जिनके यहाँ लाखोंका व्यापार होता जाता अथवा छोटा-बड़ा बन जाता है ? और क्या
है और प्रतिदिन हजारों रुपये धर्मादाके जमा होने तुम नहीं समझते कि जिस दानका मूल्य बड़ा-फल
है, उसी धर्मादाकी रकममेम उन्होंने पाँच लाख रुपये बड़ा वह दान बड़ा है, उसका दानी वड़ा दानी है. एक मामाजिक विद्या-संस्थाको दान दिये है और
और जिस दानका मूल्य कम-फल कम वह दान उनके इम दानमे यह प्रधान-दृष्टि रही है कि उस छोटा है, उसका दानी छोटा दानी है-दानद्रव्यकी
ममाजकं प्रेमपात्र तथा विश्वासपात्र बने और लोकसंख्यापर ही दानका छोटा-बड़ापन निर्भर नहीं
मे प्रतिष्टा तथा उदारतावरी धाक जमाकर अपने
व्यापारको उन्नत करें । () दुमर मेठ ताराचन्द ___ इन शब्दोंके आघातसे विद्यार्थि हृदयकं कुछ
है, जिन्होंने ब्लैक मार्कटद्वाग बहुत धन संचय किया कपाट खुल गये, उसकी स्मृति काम करने लगी
है और जो सरकारकं कोप-भाजन बने हुए थेऔर वह जरा चमककर कहने लगा
सरकार उनपर मुकदमा चलाना चाहती थी। उन्होंने 'हाँ, तत्वार्थसूत्रके सातवें अध्यायमें दानका
एक उच्चाधिकारीक परामर्शस पाँचलाख रुपये लक्षण दिया है और उन विशेषताओंका भी उल्लेख
'गाधी मीमोरियल फंड' को दान दिय है और इसमें किया है जिनके कारण दानके फलमें विशंपना
उनकी सारी आपत्ति टल गई है। (३) तीमरे सेठ आती है और उस विशेषताकी दृष्टिम दानमे भंद
रामानन्द है, जा एक बड़ी मिलक मालिक है जिसमें
'वनस्पति-घी' भी प्रचुर परिमाणमे तय्यार होता है। उत्पन्न होता है अर्थात् किसी दानको उत्तम-मध्यमजघन्य अथवा बड़ा-छोटा आदि कहा जा सकता
उन्होंने एक उच्चाधिकारीको गुप्तदानके रूपमें पॉच है। उसमें बतलाया है कि 'अनुग्रहके लिये-स्व-पर
लाख रुपये इसलिय भेट किये है कि वनस्पतिघीका उपकारके वास्ते-जो अपने धनादिकका त्याग किया
चलन बन्द न किया जाय और न उसमे किसी जाता है उसे 'दान' कहते है और उम दानमें विधि,
रंगके मिलानेका आयोजन ही किया जाय । (४)
चौथे सेट विनोदीराम है, जिन्हें 'रायबहादुर' तथा द्रव्य, दाता तथा पात्रके विशेषसे विशेपना पानी है-दानके ढंग, दानमे दिये जानवाले पदार्थ.दातार- 'श्रानगरी मजिस्ट्रेट' बननेकी प्रबल इच्छा थी । की तत्कालीन स्थिति और उमके परिणाम तथा अनुग्रहार्थ स्वस्याऽनिसर्गो दानम् ॥ ३८॥ पानेवाले गुणसंयोगके भेदसे दानके फलमें कमी- विधि-द्रव्य दातृ-पात्र-विशेषात्तद्विशेषः ॥ ३६॥
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किरण १]
अनेकान्त-रम-लहरी
उन्होंने जिलाधीश ( कलक्टर ) में मिलकर उन पहुँचाई जाती है । इममे कितने ही कुटुम्बोंको आकुजिलाधीशके नामपर एक हस्पताल (चिकित्सालय) लता मिटकर उन्हें अभयदान मिल रहा है। (१) ग्बोलनेके लिये पाँच लाग्वका दान किया है और वे चौथे सज्जन गवर्नमेंटके पंशनर बाबू मेवाराम है, जिलाधीशकी मफारिश पर रायबहादुर तथा प्रॉन- जिन्होंने गवर्नमेटके साथ अपनी पेशनका दम रेरी मजिस्ट्रेट बना दिये गये है।
हजार नकदमे ममझौता कर लिया है और उस इसी तरह हमें चार प्रेम दानी माजनांका भी सारी रकमको उन ममाजसेवकांकी भोजनव्यवस्थाके हाल मालूम है जिन्होंने दम दम हजारका दान लिये दान कर दिया है जो नि.स्वार्थभावस समाजकिया है । उनमेम (१) एक तो है मेठ दयाचन्द, सेवाके लिये अपनेको अर्पित कर देना चाहते है जिन्होंने नगरमे याग्य चिकित्मा तथा दवाईका कोई परन्तु इतने माधन-सम्पन्न नहीं है कि उम दशामें ममुचित प्रबन्ध न देखकर और माधारण गरीब भोजनादिकका ग्वचे स्वयं उठा मकै । इममे समाजजनताको उनके प्रभावमं दग्वित एवं पीडित पाकर म निःस्वार्थ सवकोंकी वृद्ध हागी और उनम कितना अपनी निजकी कमाईमम दम हजार रुपये दानमे ही मेवा एवं लोकहितका कार्य महज सम्पन्न हो निकाले है और उस दान की रकमम एक धर्मार्थ भकेगा । बाबृ संवागमजीन म्वयं अपनको भी शुद्ध औपधालय स्थापित किया है जिमम गरीव ममाजसेवा लिये अर्पित कर दिया है और अपने रोगियोंकी संवा-शुश्रुपापर विशंप ध्यान दिया जाता दानद्रव्यके मदुपयोगकी व्यवस्थामे लगे हुए है। है और उन्हें दवाई मुफ्त दी जाती है। मंठ माहव अब बतलाओं दस-दस हजार इन चारों औषधालयकी सुव्यवस्थापर पूरा ध्यान रखते है दानियोंमस क्या कोई दानी मा है जिमं तुम और अक्मर म्वयं भी संवाद लिय औपधालयम पाँच-पाँच लाखक उक्त चारों दानियोमम किमीम पहुँच जाया करत है। () दुसरे मंठ ज्ञानानन्द भी बड़ा कह मको? यदि है तो कौन-मा है और है, जिन्हें सम्यगज्ञान-वर्धक माधनोंक प्रचार और वह किमम बड़ा है। प्रसारमें बड़ा आनन्द आया करता है । उन्होंने विद्यार्थी-मुभनी यह दम-दम हजारकं चारों अपनी गाढ़ी कमाईमेसे दस हजार रुपये प्राचीन ही दानी उन पाँच-पाँच लाग्वक प्रत्येक दानीम बड़ जैनमिद्धांत-ग्रन्थाक उद्धारार्थ प्रदान किये है और दानी मालूम होत है। उम द्रव्यकी गमी व्यवस्था की है जिमम उत्तम अध्यापक-कैम ? जरा समझाकर बतलाओ। मिद्धांत-ग्रन्थ बराबर प्रकाशित होकर लोकका हिन विद्यार्थी-पाँच लाखक प्रथम दानी मंठ डालकर रहे है। (३) तीमरे मज्जन लाला विवेकचन्द है, चन्दन जो द्रव्य दान किया है वह उनका अपना जिन्हें अपने समाजक बेरोजगार (श्राजीविकारहिन) द्रव्य नहीं है, वह वह द्रव्य है जो ग्राहकोमं मुनाफक व्यक्तियोंको कष्टमे देखकर बड़ा कष्ट होता था और अतिरिक्त धर्मदाक रूपमै लिया गया है, इसलिये उन्होंने उनकं दुबमोचनार्थ अपनी शद्ध न कि वह द्रव्य जो अपने मुनाफेमस कमाईमेंसे दम हजार रुपये दान किये है। इम दानके लिये निकाला गया हो । और इम. द्रव्यमे बरोजगारोंको उनके योग्य रोजगारमे लगाया लिए उममे मैकड़ों व्यक्तियांका दानद्रव्य शामिल जाता है-दुकान खुलवाई जाती है, शिल्पके माधन है। अत दानकं लक्षणानुमार मठ डालचन्द उस जुटाये जात है, नौकरियाँ दिलवाई जाती है और द्रव्यकं दानी नहीं कह जामकते - दानद्रव्य व्यवजब तक आजीविकाका कोई ममुचित प्रबन्ध नही स्थापक होमकत हैं। व्यवस्थामें भी उनकी पि बैठता तबतक उनके भोजनादिकमें कुछ सहायता अपने व्यापारकी रही है और इसलिये उनके उम
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अनेकान्त
[वर्ष १०
दानका कोई विशेष मूल्य नही है-वह दानके घटित नहीं है ता और इमलिय वह दानकी कोटिमें ठीक फलोंको नहीं फल सकता । पाँच लाखके दानी ही नही आता-गुपदान कैसा? वह तो स्पष्ट रिश्वत शेप तीन सेठ तो दानके व्यापारीमात्र है-दानकी अथवा घूम है, जो एक उच्चाधिकारीको लोभमें कोई स्पिरिट, भावना और आत्मोपकार तथा परोप- डालकर उनके अधिकारोंका दुरुपयोग कराने और कारको लिये हुए अनुग्रह दृष्टि उनमें नहीं पाई जाती अपना बहुत बड़ा लोकिक स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये
और इसलिए उनके दानको वारूवमे दान कहना दी गई है और उस स्वार्थमिद्धिकी उत्कट भावनामें ही न चाहिये । सेठ ताराचन्दन तो ब्लैंकमार्केट इस बातको बिल्कुल ही मुला दिया गया है कि द्वारा बहुतोंको सताकर कमाये हुए उम अन्याय- वनस्पतिघीके प्रचारस लोकमे कितनी हानि होरही हैद्रव्यको दान करके उसका बदला भी अपने ऊपर जनताका स्वास्थ्य किनना गिर गया तथा गिरता चलनेवाले एक मुकदमेको टलानके रुपमे चुका लिया जाता है और वह नित्य नई कितनी व कितने प्रकारहै और मठ विनोदीगमने बदलमे 'गयवहादर' की बीमारियोंकी शिकार होती जाती है, जिन सबके तथा 'आनरेरी मजिस्ट्रेट' के पद प्राप्त कर लिय है कारण उसका जीवन भाररूप होरहा है । उम संठने अतः णग्मार्थिक दृष्टिमे उनके उम दानका कोई मुल्य सबके दुख-कठोंकी ओरम अपनी आँग्वे बन्द करली नहीं है। प्रत्युत इमके, दम-दम हजारके उन चारों है-उसकी तरफम वृद्धा मरो चाहे जवान उसे अपनी दानियोंके दान दानकी ठीक स्पिरिट, भावना तथा
हत्यामं काम ! फिर दानके अंगस्वरूप किमीके स्व-परकी अनुग्रहबुद्धि आदिको लिय हए है और अनुग्रह-उपकारकी बात तो उमक पाम कहाँ फटक इसलिये दानके ठाक फलको फलने वाले सम्यक मकनी है ? वह नो उममे कोमो डर है। महात्मादान कहे जानेके योग्य है। इमीभ मै उनके दानी गान्धी जैसे सन्तपुरुप वनम्पतिघीक विरोधमें जो मेठ दयाचन्द, मेट ज्ञानानन्द, ला. विवेकचन्द कुछ कह गये है उसे भी उसने ठुकरा दिया है और
और बाबू सवागमजीको पाँच-पाँच लाग्बके दानी उस अधिकारीको भी टुकराने के लिय गजी कर लिया उन चागे येठों डालचन्द, ताराचन्द, गमानन्द हैं जा बात-व
है जो बात-वातमे गांधीजीक अनुयायी होनेका दम और विनोदीराममं बड़े दानी समझता है। इनके भग करता है और दृमगेको भी गांधीजीके आदेशादानका फल हर हालतमै उन नथाकथिन दानियांक नुमार चलनेकी प्रेरणा किया करता है । ऐसा ढ़ोंगी, दान-फलम बड़ा है और इलिय उन दस-दस दर्भ', बगुला-भगत उच्चाधिकारी जो तुच्छ लोभमें हजारक दानियोमम प्रत्येक दानी उन पांच-पाँच पडकर अपने कर्तव्यस च्युत, पथ भ्रष्ट और लाम्बके दानियोंम बड़ा दानी है।
अपने अधिकारका दुरुपयोग करनके लिये उतारू ___ यह सुनकर अध्यापक वीरभद्रजी अपनी प्रम- होजाता है वह दानका पात्र भी नही है। इमतरह नता व्यक्त करते हुए बोले-'परन्तु मेठ गमानन्द- परमार्थिक दृष्टिम मंट रामानन्दका दान कोई दान जीने तो दान देकर अपना नाम भी नहीं चाहा, नहीं है । और न लोकम ही मे दानको दान कहा उन्होंने गुप्तदान दिया है और गुप्तदानका महत्व जाता है। यदि द्रव्यको अपनेस पृथक करके अधिक कहा जाता है, फिर तुमने उन्हें छोटा दानी किमीको द देने मात्रक कारण ही उसे दान कहा कैसे कह दिया ? जग उनके विषयको भी कछ जाय तो वह सबसे निकृष्ट दान है, उसका उद्देश्य स्पष्ट करके बतलाओ।
बुरा एवं लोकहितमे बाधक होनेसे वह भविष्यमें विद्यार्थी-मंठ रामानन्दका दान तो वास्तवमे घोर दु.ग्वों तथा आपदाओंके रूपमे फलेगा। और कोई दान ही नहीं है-उसपर दानका कोई लक्षण इसलिये पॉच-पाँच लाम्बके उक्त चारों दानियोंमें सेठ
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किरण १]
अनेकान्त-रस-लहरी
गमानन्दको सबसे अधिक निकृष्ट, नीचे दरजेका और न समान फलके अभोक्ता होनेसे ही उन्हें तथा अधम दानी ममझना चाहिये।
बड़ा-छोटा कहा जा सकता है। इस दृष्टिमे उक्त अध्यापक-शाबास ! मालूम होता
दस-दम हजारके चारों दानियोंमेंसे किसीके बड़े और छोटेके तत्त्वको बहुत कुछ समझ गये हो। विषयम भा यह कहना महज नहीं है कि उनमें हॉ, इतना और बतलाओ कि जिन चार दानियोंको कौन बड़ा और कौन छोटा दानी है। चारोंके अलगनमने पाँच-पाँच लाखके दानियोंम बडे दानी बत- अलग दानका विषय बहुत उपयोगी है और उन लाया है वे क्या दम-दस हजारकी समान रकम
मवका अपने अपने दान-विपयमें पूरी दिलचस्पी के दानसे परस्परमे ममानदानी है. समान पाई जाती है।' फलके भोक्ता होंगे और उनमें कोई परस्परमें बड़ा- अध्यापक वीरभद्रजीकी व्याख्या चल ही रही छोटा दानी नहीं है ?
थी, कि इतनम घटा बज गया और वे यह कहते विद्यार्थी उत्तरकी खोजमें मन-ही-मन कुछ हुए उठ ग्य हा कि 'दान और दानीके बड़े-छोटेमोचन लगा, इननम अव्यापकजी बोल उठं- पनक विषयमें आज बहुत कुछ विवेचन दमरी 'इममे अधिक मोचनकी बात नहीं, इतना तो स्पष्ट
कक्षाम किया जा चुका है। उम तुम मोहनलाल ही है कि जब अधिक दव्य दानी भी अल्प दव्य- विद्यार्थीम मलूम कर लेना, उसमे रही-मही कचाई के दानीम छोटे होजाते है और दानद्रव्यकी संख्या- दृर हा कर तुम्हाग इम विपयका ज्ञान और भी पर ही दान तथा दानाका वडा-छोटापन निभर पारपुष्ट हा जायगा और तुम एकान्ताऽभिनेवेशके नहीं है नब ममान द्रव्यक दानी परम्परमं म्मान
चक्करम न पड़ मकोगे ।' अध्यापकजीको उठते और एक ही दर्जेक होगमा कोई नियम नही हो
देवका मव विद्यार्थी बड़े हो गये और बड़े विनीतमकना-ममान भी हो सकता है और असमान भी। भावन कहन लगे कि 'आज आपने हमाग बहत इस तरह उनम भी बड़-छांटेका भेद मंभव है और बड़ा अज्ञानभाव दूर किया है। अभी तक हम बडे वह भंद तभी स्पष्ट हो सकता है जबकि मारी परि- छाटक तत्वको पूरी तरहमे नहीं ममझे थे. स्थिति मामन हो अथात् यह पूरी तौरमं मालूम हो
लाइनोंद्वारा-सूत्ररूपमे ही कुछ थोड़ा-मा जान पाये कि दानके ममय दातारकी कौटुम्बिक तथा
थे, अब आपन व्यवहारशास्त्रको सामने रखकर
हम उसके ठीक मार्गपर लगाया है, जिससे अनेक भूलें आथिक आदि स्थिति कैमी थी, किन भावोंकी
दूर होंगी और कितनी ही उलझने मुलझंगी। इस भारी प्रणाम दान किया गया है, किस उद्देश्यको लेकर
उपकारके लिये हम आपका आभार किन शब्दांमें तथा किम विधि-व्यवस्थाके माथ दिया गया है औ
व्यक्त करें वह कुछ भी समझमें नहीं आता। हम जिन्हे लक्ष्य करके दिया गया है वे मब पात्र है, कुपात्र है या अपात्र अथवा उस दानकी कितनी आपक आग मदा नतमस्तक रहेंगे। उपयोगिता है। इन सबकी तर-तमतापर ही दान वोरमेवामन्दिर कैम्प, । तथा उसके फलकी तर-तमता निर्भर है और देहली उमीके आधार पर किसी प्रशस्त दानका प्रशस्ततर ता० १५-६-१६४६ । या प्रशस्ततम अथवा छोटा-बड़ा कहा जा सकता है। जिनके दानोंका विषय ही एक-दूसरसे भिन्न होता देखो, लेख नं.३ 'बडा दानी कौन' 'अनेकान्त वर्ष है उनके दानी प्रायः समान फलके भोक्ता नहीं होते ६, कि० ४ ।
| जुगलकिशोर मुख्तार
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युक्तिका परिग्रह (श्रीवासुदेवशरण अग्रवाल )
पक्षपातो न मे चीरे न द्वेषः कपिलादिषु। है। सभी एक मातृभूमिके विचार-नन्तुओंमे रम
ग्रहण करके पल्लवित हुए है। जैन माहित्यका यस्य स्याद् युक्तिमद्वाक्यं तम्य कार्यः परिग्रहः ॥
भंडार अभी हाल में खुलने लगा है । उसमे संस्कृतिश्रीहरिभद्रसरिका यह वाक्य हमारे नये मानम- की जो अपरिमित मामग्री मिलती है उममं भारतीय जगत्का तोरणवाक्य बनाया जासकता है। 'मुझ
इतिहासका ही गौरव बढ़ना है। मच तो यह है कि महावीरकी बातका पक्षपात नहीं, कपिलक साथ भारतभूमि अनेक धर्माका धात्री है । विचागेकी वैर नहीं। जिसके वाक्यमे युक्ति है, उमीका ग्रहण स्वतन्त्रता यहांकी विशंपना है । इम्लाम धमकं करना मुझे इष्ट है।'
लिये भी भारतकी यही दन है। अन्य देशोंमे राष्ट्रीअनेकान्त' के दमवें वर्षके नव प्रकाशनके ममय य मंस्कृतिका सर्वापहारी लोप करके इस्लाम फैला, मेरी हार्दिक अभिलापा है कि जैन-ममाज अपने पूर्वजों- किन्तु भारतभूममं उसके नाम्वनी पंजे धिम गय की हृदयमम्बन्धी उदारताको पूरी तरह अपनाव। यह और उमन अन्य धमाकं माथ मिल-जुलकर रहनका यग कंवल उदार व्यक्ति के लिये है। मंकीर्णताका समझौता किया। इसमें उम धमका भी कल्यागा लेकर जीनवाले समानका अन्त हो चुका है। अपन हुआ और अन्ततोगत्वा भारतभूमिकं साथ उसका धर्म और समाजके विपयमें जानकारी प्राम करो एक ममन्वयात्मक पहलू मामने आया । इमी मानम
और दमरोंके प्रति सहिष्णगुना, महृदयता, उदारता, पृष्ठभूमिम पिछले कई-पी वर्ग तक हिन्दधर्म और समवाय और मम्मानका भाव रकम्बो-यही वन- इस्लाम मंस्कृतिक क्षेत्रमे आगे बढ़ते रहे । दृमर धर्म मान कालके सभ्य मुमस्कृत व्यक्तिका लक्षण है, तो हिन्दृधमके माथ अनायाम ही प्रीत-बधनमे यही एक सज्जन नागरिकका आदर्श होना चाहिय। बंध मकं । आज भारतकी गप्टीय आत्मा धमांक
प्रायः हम कछवकी तरह अंगांको समेटकर समन्वयकी ग्राहक है । हमें धर्म और संस्कृतिक संकीर्ण बन जाते है। दूसरे धर्माकी प्रशंमा सुनकर प्रति उदासीन होनेकी जरूरत नहीं है। बल्कि धर्म हमारे मनकी पखुड़ी नहीं खिलती। अपनी मुनि मदाचारपरायण मार्गमे जीवनका ममन्वय ओर सुनकर हम हर्षित होते है और यही सोचते है कि ऐक्य प्राप्त करना आवश्यक है । यही दृष्टिकोग्ग दूसरोंसे हम अपने धर्म लिये ही श्लाघा शब्द भविष्य के लिये सुर्राक्षत है। जैन, बौद्ध, हिन्द, ईसाई मिलते रहे । यह स्थिति अच्छी नहीं। इम ममय और मुमलमान जो अपनको ममन्वय और उदामनुष्यको बहुश्रुत होनेकी आवश्यक्ता है । जैनधर्म, रताके मॉचमे नहीं ढाल सकते उनके लिये यश और बौद्धधर्म, हिन्दधर्म, सभी भारतीय संस्कृतिक अङ्ग जीवनके वरदान अत्यन्त परिमित है।
न्यू देहली, ना०२३-६-१९४८
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गांवगाथा
श्री पंडितमवर दौलतरामजी
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न्दी साहित्यिके जेन विद्वानांम पं० दौलतरामजीका नाम भी उल्लेखनीय है । आप १८ वी शताब्दीकं उत्तरार्ध और हवी शताब्दी के प्रारम्भकं प्रतिभा सम्पन्न विद्वान थे । संस्कृत भाषापर आपका अच्छा अधिकार था। खासकर जैन पुराण ग्रन्थोंके विशिष्ट अभ्यासी और टीकाकार थे। इनके पिताका नाम आनन्दराम था। और यह जयपुर स्टेटके वसवा' नामक ग्रामक रहने वाले थे। इनकी जाति खंडेलवाल और गोत्र काशलीवाल था । पंडिन जीके मकानके सामने जिन मन्दिर था और आम पास प्राय: जैनियोंका ही निवास था । और वे जिन पूजन, शास्त्रस्वाध्याय, सामायिक तथा तत्त्वचर्चादि धार्मिक कार्यमं संलग्न रहते थे । परन्तु रामचन्द्र मुमुक्षके संस्कृत 'पुण्यात्र कथाकोप की टीका प्रशम्ति के अनुसार पं० दौलतरामजीको अपनी प्रारम्भिक अवस्था जैनधर्मका विशेष परिज्ञान न था और न उस समय उनकी विशेष रुचि ही जैनधर्म के प्रति श्री किन्तु उस समय उनका झुकाव मिध्यात्वकी ओर हो रहा था। इसी बीच उनका कारणवश आगरा
और उनकी साहित्यिक रचनाएँ
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[ लेखक - पण्डित परमानन्द जैन शास्त्री ]
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१ बसवा जयपर स्टेट का एक कम्बा है जो आज भी उसी नाममे प्रसिद्ध है। यह देहली में अहमदाबाद जाने बाली बी० बी० एण्ड सी० आई० आर० रेलवेका स्टेशन है । यहाँ एक बडा शास्त्र भण्डार भी है जो देखने योग्य है।
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जाना हुआ। आगरा में उस समय आध्यात्मिक विद्वान पं भूवरदासजीकी, जिन्हें पः दौलतरामजी aaree नाम सम्बोधित किया है अध्यात्मशैलीका प्रचार था। पंः भूधरामजी आगग स्याहगंज में रहते थे। और श्रावकोचित पटक मि प्रवीण थे । तथा स्याहगंजके मन्दिर ही वे शास्त्र
इनका अधिक प्रचलित नाम पडित भृधरदास था. शताब्दीक प्रतिभा सम्पन्न कवि थे । इन्होंने सम्वत् १७८ में जिनशतक और म० १७८६ में पावपुराण की रचना की है। इन दोनो रचना ग्राफ अतिरि अन्यात्मिक पदसंग्रह भी इन्हीका बनाया हुआ है जो प्रकाशित हो चुका है। ये ही कृतियां बढी सुन्दर और सरल है। इनकी कविता भाव सरल तथा मनमोहक है । इनक सिवाय 'कलियुगचरित' नामक ग्रन्थका और भी चला है जो म० १७५७ मेश्रालमगीर औरतजब ) क राज्य में लिया गया है। जैसा कि उस पुस्तकक निम्न पद्य में प्रकट है.
सम्वत सत्तरह सत्तावन जेठ मास उजियारा | fafe are aणाम प्रथम ही वारजु मगलवारा ॥
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ही कथा अधर सुकवि आलमगीरक राज । नगर मुलकपर पर बसे दया धर्म काज ॥
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पर इस समय उस ग्रन्थकी प्रति सामने न होनेसे यह farar करना कठिन है कि उम्र ग्रन्थ इन्ही प० भ्रधरदास की कृति है या अन्य किसी दूसरे भुवरदासकी।
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१. ]
अनकान्त
प्रवचन किया करते थे। आध्यात्म ग्रन्थों की मरम ममाग्न हुई । इसके बाद किमी समय पण्डित चर्चाम उन्हें विशेष रम आता था। उस समय दौलतरामजी उदयपुर गए । उदयपुरम पण्डितर्ज अगामे माची भाइयोंकी एक शैली थी जिम जयपुरकं तत्कालीन गजा सवाई जयसिंह और उनके आध्यात्म शैलीक नामम उल्लेग्यित किया जाता था। पुत्र माधमिजार वकील अथवा मन्त्री थे और और जो मुमुक्षु जीवोंको तत्त्वचाढि मत्कार्योमे उनके मंरक्षणका काय भी आप ही किया करते थे। अपना प्रग योग देती थी। यह आयात्मशैली वहां उम ममय उदयपुरम गणा जगतमिह जी का राज्य विक्रमकी १७वीं शताब्दीम बगबर चली आरही थी था, उनकी पण्डितजी पर विशेष कृपादृष्टि रहनी उमीकी वजहम आगरावामी लोक-हृदयाम जैनवम थी। और व उन्हें अपन पाम ही में रग्बत थे। जैमा का प्रभाव अङ्कित होरहा था। उस समय इम शेली कि उनकी मं1585 मंचित 'अध्यात्म बारहखड़ी' में हमराज, महानन्द, अमरपाल, बिहारीलाल, की प्रशाम्त के निम्न पद्यों से प्रकट है:फतचन्द, चतुर्भुज और ऋपभदामक नाम वनवा का वासी यह अनुचर जय को जानि । वामनोरम उन्ले बनाय है। उनमें से अपभदामजीके उपदेशम पडिन दौलनरामजीको जनधम
मंत्री जयमुन का मही जानि महाजन जानि ।। की प्रतीनि हुई थी और वह मिथ्यात्वम हटकर
जय को गर्व गण पं रहे उदयपुर मांहि । मम्यक्त्वम्पमं परिणत हो गई थी। इमाम पडित जगतामह कृपा करे गग्वै अपने पाहि ॥ जीने भगवान ऋपभदेवका जयगान करते हुए उनके उसके अनिग्नि म० १६६५ में गंचन क्रियाकोप' दामको मुम्बी होनकी कामना व्यक्त की है। जैमा की प्रशस्तिमं भी वे अपने को जयमुनका मन्त्री और कि उनक. पुण्याम्रवकथाकोपटीका प्रशस्निगत "
जयका अनचर व्यक्त करते है। चूकि राणा निम्न दो पद्योम म्पष्ट है -
.पान मत्रहमा विदया। नापरि धरि मरि अरु मान । ऋपभदास के उपदेशमा हमें मई पग्नीन ।
भादर मान कृष्ण पग्य जानि तिथि पाच जाना परवानि ।।
विमुनका पहला दिन जोय, अरु मुरुगर के पीछ होय । मिथ्या मनको न्यागकै लगी धम्म मां प्रीत ॥ बार है गनि लीज्या मही, ना दिन ग्रन्थ ममापन मही॥२॥ ऋषभदेव जयवंत जग मुवी हाह नमुदाम ।। -पन १७ (वि.२० १७८६) में जयपर नरेश
सवाई जयन्मिहजी माधोमिह और उनकी माता चन्द्वक वरि जिन हमको जिनमन वि किया महा जुगदाम ॥ को लेकर उदयपुर गये हैं और उनक लिय 'गमपुग' का पंडित दौलनगमजीको आगग्मे गमचन्द्र मुमुन् प
परगना दिलाया गया है।—दम्वा राजपूनानका इनिहाय के पुण्याम्रव कथाकोप' नामके कथा ग्रन्थ को सुननका .
चतुर्थ वाइ।
इसमें मालूम होना है कि सवाई जयसिहजीने इमा अवसर मिला था और जिम मुनकर उन्हें अन्यत
ममय सन १७२६ (वि० सं०1७८६ ) मे पं.दालतगममुख हुआ, नथा उसकी भाषा टीका बनाइ। उक्त जीका भी उदयपुर रखा होगा, इससे पूर्व व जयपुर या कथाकोषकी यह भाषा टीका वि. मं. १७७७ में।
१० मा १७७७ म अन्यत्र रहकर राज्य कार्य करते होगे।
४-"पानन्द मुत जयमुनको मन्त्री, देखो पण्यानव-टीका-प्रशस्ति ।
जयको अनुचर जाहि कई ।"
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श्री पंडिनप्रवर दौलतगमजी और उनकी माहित्यिक रचना
जगतसिंहजी द्वितीयका राज्य संबन १० मे १८०८ ओंका विस्तृत वर्णन दिया हुआ है। और दृमग तक रहा है। अतः पण्डितजीका मं० १७६८मे जगत- ग्रन्थ 'अध्यात्म वारहखड़ी है जिसे उन्होंने मंचन सिंहजीकी कृपा का उल्लेख करना ममुचित ही है। १७६८ में समाप्त किया था। इस ग्रन्थ की प्रशाम्न क्योंकि वे वहां म. १७६५ में पूर्व पहाच चुक थ। में उम ममयके उदयपर निवामी किनने ही मावमी
पण्डितजीन वहां गजकार्याका विधिवन मंचा- मजनोंका नामोल्लेख किया गया है जिसम पगि हुन लन करत हा जैन ग्रन्थों का अच्छा अन्याम किया जीकं प्रयत्न तत्कालीन उदयपुरम माधर्मी मजन
और अपने दैनिक नेमनिक कार्योक माथ गृहस्था- गोठी और तत्त्वचर्चादिका अच्छा समागम पत्र चिन देवपूजा और गुरु उपासनादि पटकमौका भी प्रभाव होगया था। अ-यात्मबारहखड़ी की प्रशाम्न भनीभॉनि पालन किया। माथ ही वहांक निगाम में दियह माधर्मी मजनोंक नाम इस प्रकार है - धामिक मम्कागेकी दृढ़ना लानक लिय शास्त्र म्वा- पृथ्वीगज, ननुज, मनोहरदाम, दरिदाम, वग्वना ध्याय और पठन-पाठनका कार्य भी किया। जिसमे वरदाम, करणदाम और पण्डित चीमा इन सबकी उस ममय वहांक म्त्री पापोंम धमका ग्वामा प्रचार प्रेग्गा व अनरोधयं उक्त ग्रन्थकी रचना की गई है हो गया था । और व अपन अावश्यक कनव्यांक जमाफि ग्रन्थप्रशस्निगन निम्न पास मालूम होता माथ म्वाध्याय, तत्त्वचितन और मार्मायकादि कार्यो हैका उन्मादकं माथ विधिवन अनाठान करते थे । इसकं अनिरिक उन्होंने वहां रहने हा आचार्य उदियापुर म मचिग कयक जीव मजीव । वमनन्दीके उपासका प्रयन ( व मुनन्दीश्रावकाचार) पृथ्वीराज चतुभुजा श्रद्धा भहि अतीय ॥५॥ को एक टब्बा टीकाका निर्माण भी किया था जिम्
दाम मनोहर अर हर्ग है वग्वनावर कर्ण । उन्होंने वहांक निवासी गंठ बल जीव. प्रनरोग दृगा किया था।
कंका केवल रूपको, गम्ब एकहि मर्ग ।।६।। यह (टब्बा टवा दीका कब बनी, यह टांक मालूम
चामा परि डन आदि ले, मनमें परिउ विचार । नहीं हो सका । पर जान पड़ना है कि इमकः निमांगा बारहम्बना हा मानमय, ज्ञानरूप अविकार॥७॥ भी म० १८०८ में पव ही हुआ है, क्योंकि उनके भाषा छन्दनि माहि जा, अक्षर मात्रा लेय । बाद उनका उदयपुर रहना निश्चित नही है। प्रभवं नाम वग्वानिय, गम वः न मनय ॥८॥
इसके सिवाय ऊपर उल्लिम्बित उन दोनो ग्रन्या का भी प्रगायन किया जिनमे क्रियाकोप' स.१७५
इह विचार कर मत्र जना, उर धर प्रम की भकि। की रचना है और उसमें जैन श्रावकाकी ५३ क्रिया- बाल दोलनगम मा करि मनह ग्म व्यनि ॥६॥
i-दग्या रायमल्लका परिचय वाग्वागी २ ।
-उदयापुरमे किया वग्वान, दौलनगम अानन्द मुन जान। बांच्यो श्रावक वृत्त विचार, बमनन्दी गाशा अधिकार ॥ बाले मंट बैलजी नाम, मन नप मत्री दाल राम । ट्या होय जो गाथा गनी, पुण्य पजे त्रियको धनी ॥ मुनिक दौलत बन मुनन, मन भरि गाय माग्ग जैन ।
-टवा टीका प्रगति
३-पवन सत्रहमा अट्टागाव, फागनमाम प्रमिन्द्रा । शुक्ल पान दुनिया उजयाग, भायो जगपनि मिद्धा ॥३०॥ जब उत्तराभाद्र नतत्रा, शुवलजोग शुभकारी । बालब नाम करण नब बग्न, गायो ज्ञान बिहारी ॥३॥ एक महर दिन जब चढियां मीन लगन ब सिद्धा। भतिमाल त्रिभुवन गजाको, भंट करी पविदा ॥३॥
-प्रयान बारहवी
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अनेकान्त
बारहखड़ी करिये भया, भक्ति प्ररूप अस्प। का उनगधिकार प्राप्त हुआ। इनकं सत्तारूढ़ हो अध्यानमग्मकी भरी, चर्चा रूप मुरुप ॥१०॥
जान पर मम्भवत. मम्बन १८०८ या १८०६ में प०
दौलतरामजी उदयपुरम जयपुर श्रागा होग, क्योंकि इस तरह पण्डित बोलतरामजीका अधिकाश उनका वहाका कार्यक्रम प्रायः ममाप्त हो गया था। ममय धर्म ध्यानपूर्वक मजन गोष्ठीम या ग्रन्थक और जिनके वे मन्त्री थे वे भी अब जयपुराधीश थे. अध्ययन, मनन, ग्रन्थ निमारण या टीकादिकार्यमे तव मन्त्रीका उदयपुरम रहना किमी तरह भी व्यतीन होता था। पण्डिाका दृदय उदार और मम्भव प्रतीत नहीं होता। अतः प० दौलतरामजी दयालु था, उनका रहन महन सादा था, उनकी उदयपुरम जयपुग्म आकर ही रहने और कार्य करने पवित्र भावना जैनधर्मकं अमर तत्त्वाकी श्रद्धा एवं लग होंगे। मम्बन १८०१ की ब्र० गयमल्लजीकी
आम्थासं मराबोर थी। इस तरह राज्यादिकार्योक पत्रिकास ज्ञात होता है कि उम ममय उमम पद्मनियमिन ममयम बचा हुआ शंप ममय प्रायः नवो- पुराण की ० हजार श्लोक प्रमाण टीकाके बनजाने चितन और मामायिकादि कार्याक अनष्ठानमं व्यतीत की सूचना दी हुई है, इतनी बड़ी टीकाके निर्माण होता था। पंडितजीका ग्वाम गुण यह था कि व में कमम कम चार-पांच वर्षका ममय लग जाना कुछ अपन उत्तरदायित्वका पूग पूरा ध्यान रखते थे और अधिक नहीं है। टीकाका शेप भाग बादमे लिखा कार्यको निर्विघ्न मम्पन्न करने अपना पग योग गया है, और इस तरह वह टीका वि० सम्बन देत थे । इमीम राजकार्यम उनका महत्त्वपूर्ण स्थान १८०३ में समाप्त हुई है। यह टीका जयपुरम ही था, और राज्य-कार्यकर्ताओंके माथ मैत्री-मम्बन्ध ब्रह्मचारी रायमल्ल की प्रेरणा एवं अनुरोध से बनाई भी था। उम ममय जयपुरके राजकीय क्षत्रम अधि- गई है, उसीम टीकाकारने ब्रह्मचारी रायमल्लका काँश जैन उंच उंच पदोंपर प्रतिष्ठित थे और राज्य निम्न शब्दाम उल्लेख किया है को मर्वप्रकारमे मम्पन्न बनानम अपना मौभाग्य गयमल्ल माधी एक, जाके घटमे म्ब-पर-विवेक। मानने थे । इस तरह उदयपुग्मं कार्य करते हुए उन्हें , काफी ममय हो चुका था, उदयपुरम व कब जयपुर
दयावान गुणवन्तमुजान, पर उपगार्ग परमनिधान ।। आये । इम मम्बन्धम निश्चय पूर्वक ना कुछ नहीं इस पद्यम ब्रह्मचारी रायमल्लकं व्यक्तित्वका कहा जा मकता । पर इतना जरूर मालुम होता है स्निना ही परिचय मिल जाता है और उनकी विवककि वे मंवत १८०६ या ५८०८ तक ही उदयपरम शीलता, क्षमा और दया आदि गुग्णांका परिचय रहे है, क्योकि मवाई जयमिहक मपत्र माधवसिंह भी प्राप्त हो जाता है। 4. टोडरमलजीन उन्हें जीक बालक हो जानपर मंबन १८०६ या १८०७ में विवेकम धर्म का माधक बनलाया है। वे विवेकी जयपुर की गजगद्दीके उत्तराधिकारका विवाद छिड़ा क्षमावान, वालब्रह्मचारी, दयालु और अहिमक थे, तब जयपुर नरेश ईश्वरीमिहजीको विषपान द्वाग उनमे मानवता टपकती थी, वे जैनधमकं श्रद्धानी थे। दहोत्मग करना पड़ा था. क्योंकि ईश्वर्गमिहीम और उमक पवित्रतम प्रचारकी अभिलापा उनकी उम ममय इननी मामध्य नही थी कि मवाडा- रगरगर्म पाई जाती थी और व शक्तिभर उमक धीश राणा जगमिहजी और महाराष्ट्र नेता होल्कर प्रचारका प्रयत्न भी करते थे। प्राचान जनग्रन्थोक के ममक्ष विजय प्राप्त कर मकं । अतएव उन्हें मज- -रायमाल साधी रक, धर्म मधया सहित विवेक । बृर होकर आत्मघातक कायम प्रवृत्त होना पड़ा। मानाना विध प्रेरक भयो, नय यहु उत्तम कारज थयो । ईश्वरीमिहजीक बाद माधवसिहजीको जयपुर
--लटिधमार प्रशस्ति।
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श्री पण्डितप्रवर दौलतगमजी और उनकी माहित्यिक रचना
उद्वारके माथ उनकी हिन्दी टीकाओंके कगन तथा वांछित स्थान पहुंच जाता । अब अम्थानकसे उठा उन्हें अन्यत्र भिजवानका प्रयत्न भी करते थे। ममय- भी नहीं जाय है। तुम्हारे पिताक प्रमादार में मारादि अध्यात्मग्रन्थोंकी नत्त्वचर्चा में उन्हें बड़ा यह शरीर नानाप्रकार लड़ापा था मो अब कुमित्र रम आता था, और वे उममे आनन्दविभोर हो की न्याइ दुःख का कारण होय गया, पूर्वे मुझे उठत थे । मं० १८२१ की लिम्वी एक निमंत्रण पत्रिका वैरीनिक विदारने की शक्ति हुती मो अब लाठीके म उनकी कर्त्तव्यपगयणता और लगनका महज ही अवलम्बनकरि महाकटम फिर हूं। बलवान पुरुप
आभाम हो जाता है। व विद्वानोंको कार्यके लिये निकरि वींचा जो धनुष वा ममान वक्र मेरी पीठ हो म्वयं प्रेरित करने थे और दृमगेम भी प्रेरणा दिल- गई है अर मस्तक केश अथिममान श्वेत होय वान थे । उनकी प्रेरणाके फलस्वरूप जो मधुरफल गये है अर मेरे दान गिर गये, मानो शरीर का लंग उमम पाठक परिचित ही है।
आताप देख न सके । है गजन ! मेरा ममम्त
उत्माह विलय गया, ऐम शरीरकरि कोई दिन जीउँहूं पद्मपुराण टोका
मो बड़ा आश्चर्य है । जरासे अत्यंत जजर मेरा शरीर पुग्याम्रवकथाकोप, क्रियाकोप, अध्यात्म बारह मांझमकार विनश जायगा । मोहि मरी कायाको खड़ी और वसुनंदिके उपामकाध्ययनकी टव्या
सुध नाहीं तो और मुध कहां में होय । पके फल टीकाक अतिरिक्त पाँच या छह टीका ग्रंथ और है
ममान जो मंग नन ताहि काल शीघ्र ही भक्षण जो उक्त पंडित दौलतगमजीकी मधुर लेग्वनीक करंगा. मोहि मृत्यु का ऐमा भय नाहीं जैमा चाकरी प्रनिफल है । आज पंडितजी अपन भौतिक शरीग्में चकन का भय है, पर मर आपकी आज्ञा ही का इम भूतल पर नहीं है, परन्तु उनकी अमर कृनियाँ अवलंबन है और अवलम्बन नाहीं, शरीरकी जैनधर्मप्रचार की भावनाओंम ओन-प्रोत है, उनकी अनिता करि विलंब होय ताक कहा करू । हे भापा बड़ी ही मरल नथा मनमोहक है । इन टीका नाथ मेरा शरीर जराके अधीन जान कोप मत करो ग्रंथों की भाषा ढ ढाहड़ देश की तत्कालीन हिन्दी कृपा ही करो, म वचन बोजेके राजा दशरथ सुनगा है जो ब्रजभाषाकं प्रभावमे प्रभावित है, उमम कर वामा हाथ कपोलक लगाय चिन्तावान हाय कितना माधय और कितनी मरलता है यह उनके विचारता भया, अहो ! यह जल की बुदबुदा समान अनशीलनसे महज ही ज्ञान हो जाना है । उन्नीमवीं अमार शरीर क्षणभगर है अर यह यौवन बहुत शताब्दी की उनकी भापा कितनी परिमार्जित और विभ्रमको धरै मंध्याकं प्रकाश ममान अनित्य है महावदार है यह उमके निम्न उदाहरगण में स्पष्ट अर अज्ञान का कारण है, विजनीक चमत्कार
समान शरीर पर मम्पदा तिनकं अर्थ अत्यंत दःखके "हे दव । हे विज्ञानभूषण ! अत्यंत वृद्ध माधन कम यह प्राणी की है, उन्मत्त स्त्रीक कटाक्ष अवस्थाकारहीन शक्ति जो मै मो मेरा कहा अप- समान चंचल, मर्पक फण ममान विपके भरे, महागध ? मो पर आप क्रोध करो सो मै क्रोधका पात्र नापर्क ममूहकं कारण ये भोग ही जीवनको ठग है, नाहीं, प्रथम अवस्था विपै मरे भुज हाथीक मुड नानै महा ठग है, यह विपय विनाशीक, इनमे प्राप्त ममान हुने, उरस्थल प्रबल था अर जांघ गजबन्धन हुआ जो दु.ग्व मो मूढोंको सुग्वरूप भामं है, ये मृढ तुल्य हुती, अर शरीर दृढ़ हुता अब कनिके उदय- जीव विषयों की अभिलापा कर है अर इनको मनकरि शरीर अत्यंत शिथिल होय गया। पूर्व ऊँची वाछित विषय दुष्प्राप्य है, विपयोंके मुख देखन नीची धरती राजहंम की न्याई उलंघ जाता, मन- मात्र मनोज्ञ है, अर इनक फल अति कटुक है, य
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अनेकान्त
विषय इन्द्रायणके फल समान है, मंमारी जीव समाप्त हुई है अर्थात मं० १७७७ मे लेकर मं० १८२६ इनको चाहै है सो बड़ा आश्चर्य है, जे उत्तमजन तक ५२ वर्ष का अन्तराल इन दोनों टीका ग्रंथोंके बिषयों को विषतुल्य जानकरि तजै हैं अर तप करें मध्य का है। है ते धन्य हैं, अनेक विवकी जीव पुण्याधिकारी इस टीका ग्रंथ का मूल नाम 'पद्मचरित' है। महाउत्साहके धरणहारे जिन शामनके प्रमादमे उसमे सुप्रसिद्ध पौराणिक राम, लक्ष्मण और मीता प्रबोधकों प्रान भये है, मैं कब इन विषयों का त्याग के जीवन की झांकी का अनुपम चित्रण किया गया कर स्नेह रूप कीचसे निकस निवृत्ति का कारण है। इसके कर्ता आचार्य रविषण है जो विक्रम की जिनेन्द्रका मार्ग आचरूंगा। मैं पृथ्वीको बहुत आठयी शताब्दीकं द्वितीय चरणमे ( वि. मं. सुखसे प्रतिपालना करी, अर भोग भी मनवांछित ७३३ में) हुए है। यह ग्रंथ अपनी मानीका एक ही भोगे अर पुत्र भी मेरे महा-पराक्रमी उपजे | अब है। इस ग्रंथकी यह टीका श्री ब्रह्मचारी रायमल्लक भी मै वैराग्यमें विलम्ब करू तो यह बड़ा विपरीत अनुरोधस मंवत १८२३ मे समाप्त हुई है। यह है, हमारे वंश की यही रीति है कि पुत्र को राज- टीका जैनसमाजमे इतनी प्रसिद्ध है कि इसका पठन लक्ष्मी देकर वेराग्यको धारण कर महाधीर तप पाठन प्राय' भारतवर्षक विभिन्न नगरों और गावों करनेको वनमें प्रवेश करे। ऐमा चिन्तवन कर राजा में जहाँ जहाँ जैन वस्ती है वहांक चैत्यालयांम भोगनितै उदासचित्त कई एक दिन घरमें रहे।"
अपने घरोंमे होता है। इम ग्रन्थकी लोकप्रियता -पद्मपुराण टीका पृ. २६५-६ का इमसे बड़ा मुबृत और क्या हो सकता है कि
इमकी दश दश प्रतियाँ तक कई शास्त्रभंडारोंमे इसमें बतलाया गया है कि राजा दशरथनं देवी गई है। सबसे महत्वकी बात तो यह है कि किसी अत्यंत वृद्ध खोजेके हाथ कोई वस्तु गनी इस टीका को मनकर नथा पढ़कर अनेक मजना की केकई के पास भेजी थी जिसे वह शरीर की अस्थि- श्रद्धा जैनधममें मुदृढ़ हुई है और अनको की रतावश देरसे पहुंचा सका, जबकि वही वस्तु अन्य चलित श्रद्धा को दृढ़ना भी प्राप्त हुई है । ऐसे कितने रानियोंके पास पहले पहुंच चुकी थी। अतएव ही उदाहरण दिये जा सकते है जिन्होंने इम टीका केकई ने राजा दशरथसं शिकायत की, तव गजा ग्रन्थके अध्ययनसे अपने को जैनधर्मम आढ़ दशरथ उस खोजे पर अत्यंत क्रूद्ध हुए, तब उम किया है। उन सबमें स्व. पूज्य बाबा भागीरथजी खोजेने अपने शरीर की जर्जर अवस्थाका जो परि- वर्णी का नाम खामतौरमं उल्लेखनीय है जो अपनी चय दिया है उससे राजा दशरथको भी सोनारिक- आदर्श त्यागवृत्तिके द्वारा जैनसमाजम प्रमिद्धि को भोगोंसे उदासीनता हो गई, इस तरह इन कथा प्राप्त हो चुके है। आप अपनी बाल्यावस्थाम जैनपुराणादि साहित्यके अध्ययनमे आत्मा अपने स्व. धर्मके प्रबल विरोधी थे और उसके अनुयायियों रूप की ओर सन्मुग्व हो जाता है।
तक को गालियाँ भी देते थे, परन्तु दिल्लीम जमुना
स्नान को रोजाना जाते समय एक जैनमजन का ऊपरके उद्धरणसे जहाँ इस ग्रंथकी भापाका
मकान जैनमंदिरके ममीप ही था, वं प्रतिदिन प्रात.. सामान्य परिचय मिलता है वहाँ उसकी मधुरता एवं रोचकताका भी आभास हो जाता है। पंडित दिन आपने उसे खड़े होकर थोड़ी देर मुना और
काल पद्मपुराण का स्वाध्याय किया करते थे । एक दौलतरामजीने पांच छह ग्रंथोंकी टोका बनाई है। पर उन सबमें सबसे पहले पुण्यानवकथाकोषकी १ संवत् अष्टादश सतजान, नाऊपर नेईम बम्बान । और सबसे बादमें हरिवंशपराणकी टीका बनकर शुक्लपक्ष नौमी शनिवार, माघमाम रोहिणी रिखिसार ॥
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श्री पंडितप्रवर दौलतरामजी और उनकी माहित्यिक रचनाएँ
मनकर बड़ी प्रमन्नता हुई, और विचार किया कि ब्रह्मचारी रायमल्ल का नाम तो उल्लेखनीय है ही, • यह तो रामायण की ही कथा है मै इसे जरूर किन्तु उन्होंने अन्य मज्जनोंमे भी प्रेरणा कराई है।
मनूगा और पढ़ने का अभ्याम भी करूंगा, उम रतनचन्द मेघडिया, पंडित टोडरमलजीके हरिचन्द दिनमे व रोजाना उस मनन लग और थोड़ा थोड़ा और गुमानीराय नामके दोनों पुत्रों बालब्रह्मचारी पढ़न का अभ्यास भी करने लगे। यह मब कार्य देवीदामजी, जिन्होन आचार्य नरेन्द्रमनके सिद्धान्तउन्हीं मजनक पाम किया, अब आपकी रुचि पढ़ने सार ग्रन्थकी टीका मं० १३३८ में बनाकर समाप्त तथा जैनधमका परिचय प्राप्त करनेकी हुई और की है, और जयपुर राज्यके तत्कालीन सुयोग्य उमे जानकर जैनधर्ममे दीक्षित हा गए । वे कहते थे दीवान रतनचन्दजी इन सबके अनुरोधसे यह टीका कि मैने पद्मपुराणका अपने जीवन में कई बार सं० १८२४ मे समाप्त हुई है। म्वाध्याय किया है वह बड़ा महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। पं० टोडरमलजीके अममयमें दिवंगत होजाने इस तरह न मालम उक्त कथा ग्रन्थ और उमका इस मे 'पम्पार्थसिद्धयपायकी उनकी अधूरी टीकाको भी टीकास जैनधर्मका प्रभाव तथा लोगोंकी श्रद्धाका कितना मंरक्षण एवं स्थिरीकरण हुआ है । इमी।
रतनचन्दजी दीवानके अनुरोधसे सं० तरह पं० दौलतरामजी की अन्य आदिपराणहरि- १८२७ मे पूर्ण किया है और इसके बाद हरिवंशपुराण वंशपुगणकी टीकाएँ हैं जो कि उसी मधर एवं की टीका उक्त गयमल्लजीकी प्रेरणा तथा अन्य प्रांजल भापा को लिय हा है और जिनके अध्ययन माधी भाइयोंके अनुरोधसे सं०१८२६ में राजा म हृदय गदगद हो जाना है और श्रद्धास भर जाता पृथ्वामिहके राज्यकालमें समाप्त हुई है। इनके है। इसका प्रधान कारण टीकाकार की आन्तरिक
सिवाय परमात्म-प्रकाशकी टीका कब बनी यह भद्रता, निर्मलता, सुश्रद्धा और निष्काम माहित्य कुछ मालूम नहीं हो सका। बहुत मंभव है कि वह संवा है। पंडितजीक टीका ग्रन्थोंस नसमाजका इनसे पूर्व बनी हो। इन टीका ग्रन्थोंके अतिरिक्त बड़ा उपकार हुआ है, और उनसे जैनधर्मके प्रचार श्रीपालचरितकी टीका भी इनकी बनाई हुई बतलाई में सहायता भी मिली है।
जाती है परन्तु वह मेरे देखनमें अब तक नहीं आई, पद्मपुराणकी टीका एक वर्ष बाद आदि इमीमे यहाँ उम पर कोई विचार नहीं हो सका। पुगणकी टीका भी पूर्ण हुई जिस व पहलेमे कर रहे
वीर सेवा मन्दिर, सरमावा ध। इम टीकाके बनानका अनुरोध करने वालोंम
ता०१६-६-४८
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कवि पद्म सुंदर और दि० श्रावक रायमल्ल
[लेखक-श्री अगरचन्द नाहटा ]
- ::कवि पद्मसुन्दरका परिचय मैंने अनेकान्तके है। प्रेमीजी द्वारा प्रकाशित प्रशस्तिमें भट्टारक परवर्ष ४ अं०८ में दिया था। उसके पश्चात् अन- म्पराके कुछ नाम छूट गए है एवं कही२ पाठ भी कान्त वर्ष ७ अं०५-६ में श्रीयुत 40 नाथूरामजी अशुद्ध छपा है। उसका भी इम प्रशस्तिम मंशोधन प्रेमी का एक लेख "पं० पद्मसुन्दरके दो ग्रन्थ" शीर्षक हो जाता है एवं पार्श्वनाथचरित्रका रचना काल मी प्रकाशित हुआ' है । इस लेखमें आपने भविष्यदत्त जो अभी तक अज्ञान था, निश्चित हो जाता है। चरित्र और रायमल्लाभ्युदय ग्रन्थ का परिचय दनके लेखन प्रशस्तिसे एक और भी महत्वपूर्ण बातका माथ साथ इन ग्रन्थों का निमाण जिन उदार चरित्र पता चलता है वह यह है कि प्रेमीजीका प्रकाशित विद्याप्रेमी दि० श्रावक अग्रवाल-गोइलगोत्रीय पष्पिका लेग्य मं० १६१५ के फाल्गुन सुदी ७ बुधचौधरी रायमलके अनुरोधमे हुआ है उनक वंशका वारका है उसमें रायमल्लके ३ पुत्रोंका उल्लेख है भी परिचय, जो कि इन ग्रन्थों की प्रशस्तियोंमें पाया
और यह प्रशस्ति मं० १६१७ के चैत्र वदी १०की जाता है दिया है। पर प्रेमीजीको प्रात भविष्यदत्त
लिग्वित है उसमे आपकं ५ पुत्रोंका उल्लेख है चरित्रकी प्रतिका अंतिम पत्र नहीं मिलनेसे उक्त
__ अर्थात् इन २ वर्षामें उनके २ और पुत्र भी हो चुके वंशकी प्रशस्ति अधरी रह गई थी। कुछ दिन हुए थे। इन पत्रों में से प्रथम पुत्रकी पत्नीका ही इमम मुझे तीर्थयात्राके प्रवासमें पालणपुरके श्वेताम्बर उल्लेख है अतः अन्य पत्र अवस्थामे छाट थं, जान जैनभंडारके अवलोकन का मुअवसर प्राप्त हुआ था। पडता है। प्राप्त पप्पिका लेग्बकं अनुमार भट्टारक वहाँ पद्मसुन्दरकी पाश्वनाथ चरित्र की प्रति उप- परंपरा एवं रायमल्लकी वंशपरम्पराकी नालिका इम लब्ध हुई थी, जिसके अंतमें भी वही प्रशस्ति पूर्ण प्राप्त प्रकार जात होती है। हुई है। अतः इस लेखमें उमं प्रकाशित किया जारहा
काष्ठा संघ, माथुरान्वय पष्करगण -प्रस्तुत लेखमें आपने पद्मसुन्दरजीक दि. पांडे भट्टारक-उद्धरसन होनेको कल्पना की थी पर यह लिखते समय उन्हें मेरा
देवसेन लेख स्मरण नहीं रहा इमीलिय की थी। जब मैंने आपको अपने लेख पढने को सचित किया तो उत्तरमें आपन उसका विमलसेन
यशकीति संशोधन कर लिया।
धर्मसेन
मलयकीति २-इसका रचना काल अभीतक निश्चित नहीं था, fara itaat Indian Literature V.II.P. +9€ भावसेन
गुणभद्रमुरि में इसका समय १६२२ लिखा था पर मुझे इसकी १६१६
सहस्रकीति
भानुकीर्ति की लिखित प्रति उपलब्ध होनेसे मैंने इसका उल्लेख अपने पूर्व लेखमें किया था पर पालणपुरकी प्रतिसे वह स० १६१५
कुमारसेन निश्चित हो जाता है।
गुणकीर्ति
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किरण १]
कवि पद्ममुन्दर और दि० श्रावक रायमल्ल
चौधरी रायमल्लकी वंश परम्परा
अपोतान्वय-गोयलगोत्र
चौधरी छाजू
१ हाल्हा २ वढा ३ नरपालु ४ नरमिघु ५ भोजा
(पत्नी मदनाही)
१ नान २ ऋत्विचन्द
३ महणपालु (पत्नी ओढरही
(पत्नी गाल्हाही २ रामाही) १ मुखमलु २ पहाड़मलु ३ जममन्दु
(पत्नी पोग्बगही) १रायमल्ल
भवानीदाम
( पत्नी माणिकही) ( पत्नी १ ऊधाही २ मीनाही)
१ अमीचन्द २ उदैमिधु ३ मालिवाहा ४ धमदाम ५ अनन्तदास
(जेठमलही) मेरे पूर्व लेखके पश्चात पद्मसुन्दरजीका ‘अकबर तद्वत साहि शिरोमणीकबरमापालचूडामणेशाहि शृङ्गार दर्पण' प्रन्थ बीकानेर राजकी गगा ओरि- मान्याः पंडितपद्मसुन्दर इहाभुत् पंडित वातजित् ।। यन्टल सीरीजमे प्रकाशित हो चुका है उसमें आयेहुए कवि पद्मसुन्दरका अकबरसे कितना परम्परागत वर्णनके अनुसार इस ग्रन्थका रचना काल प्रायः म एवं घनिष्ट मम्बन्ध था कवि ऋषभदास हीरविजय १६१७ (अर्थात अकबरके राज्यारोहणक ममयके लग- यो मा भगका ही ) निश्चित होता है एवं मेरे विद्वान मित्र निम्नोक्त परिचय ( हीविजयमरिजी ) को दिलमि. डा० दशरथ शमाने ग्रन्थकी लेखन प्रशस्तिके वाताई.. निम्नोक्त श्लोक द्वारा पद्मसुन्दरसे अकबरका सम्बन्ध
कहि अकबर मा मयमी हेतो. पदममुन्दर तरुनाम । परम्परागन' सिद्ध किया है अर्थात अकबरका जैनधर्म
सार वजा धरनापोमारमें, पंडित अति अभिराम । के प्रति आकर्षण उसकी बाल्यावस्था में ही मिद्ध
ज्योतिष वंद्यक मां से पूरी, सिद्धान्तीपग्माण । होता है; क्योंकि पद्मसुन्दरके प्रगुरुकामम्बन्ध बाबर
अनेक ग्रन्थ नणि पात कीधा, जीती नहीं को जाण । और हुमायु के माथ पहले में चला आ रहा था।
कालि से पंडिन पण गुदयों, अकबर कहि दुख थाइ। वह श्लोक इस प्रकार है:
क्याकरि म चले कधु हमका, एतो बात बुदाह। "मालो बाबर भूभुजोऽवजयराटू तद्वत् हुमाऊं नृपी
अर्थान पद्ममन्दरके स्वर्गवामम अकबरको ऽत्यर्थं प्रतीमनाः सुमान्यमकरोदानन्दरामाभिध'
बड़ा दुःम्ब हुआ था और पद्मसुन्दरजी ज्योतिष 'आपके कथनानुसार तो भकबरके उदारता, दया, वैद्यक एवं सिद्धान्तके पूरे पण्डित थे उन्होंने अनकों पर्वधर्म समभाष आदिकर गणोंके विकाश में इस जैन- प्रन्थ बनाय और ध्वजायें उनके आश्रमपर विद्वत्ता विद्वानका परम्परागत सम्बन्ध भी कारण हो सकता है। सूचक फहरानी थीं।
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अनेकान्त
[वर्ष १०
आपकी विद्वत्ताका पता तो रायमल्लके लिये श्रावककी एवं श्वेताम्बर विद्वानके साथ दि० श्रावक चित उपयुक्त ग्रन्थसे भी लगता है आपके कितने की आदर भावनाका सन्दर आदर्श हमें राजमल्लके अच्छे एवं आशु कवि थे यह भी इनके रचनाकालके छंदोविद्या पद्मसुन्दरजीके ग्रन्थ त्रय उपस्थित करते निर्देशसे ही मिद्ध होता है। मं०१६१४ के कातिक है । आज तो इस आदर्शको अपनानेकी बड़ी सुदी५को आपने 'भविष्ठत्तकथा' की रचना की भारी आवश्यकता है।
और मं०१६१५ के जेठ मदी ५ को रायमल्लाभ्युदय अब पार्श्वनाथचरित्रकी रचना एवं लेखनकी प्रन्थ बना डाला और कुछ महीनोम ही मं० १६१५ प्रशस्ति दीजाती है। इसकी नकल पालणपुर भंडारसे के मार्गशीर्ष शुक्ला १४ को पाश्वनाथकालन भी करके भेजने की कृपा पूज्य बुद्धि मुनिजी महाराजने रचा गया अर्थात १ वर्ष भी पूरा नहीं हो पाया कि की है एतदर्थ मैं आपका आभारी हूँ। आपने ३ ग्रन्थों की रचना कर डाली । आपके अन्य
पार्श्वनाथ चरित्र ग्रन्थों का उल्लेग्व मैं अपने पूर्व लेग्वमें कर चुका हूँ,
श्रादि-विशुद्ध सिद्धांत मनंतदर्शनं, उमके पश्चात् “राजप्रश्नीय नाट्य पदभंजिका"
म्फुरच्चिदानंद महोदयोदितम् । नामक एक और ग्रन्थ बीकानेर स्टेटकी अनुप
विनिद्रचंद्रोज्ज्वलकेवलप्रभ, मंस्कृत लायब्र रीमें उपलब्ध हुआ है।
प्रणामि चंद्रप्रभतीर्थनायकम् ॥१॥ सम्राट अकबरसे इतना गहरा सम्बन्ध होने पर नमदमकिरीटज्योतिमद्यतेतिमाहिः भी उसकी विद्वन् सभाके मभामदोंकी मची में स्फुरदवगममग्नानंतसंवित्तिलक्ष्मीः । आपका नाम न होना अग्खर रहा है पर मेरे विद्वान
मन इव शुचिदेहं दहवन्सानमंस्तामित्र, डा० दशरथशमाने आइनअकबरी में दीगर
पकलसुखविभून्य चारुचंद्रप्रभोऽयम् ॥२॥ मचीको ध्यानसे पढ़कर इम शंकाका भी निवारण
उग्रायोतकवंशजः शुचिमतिस्तत्वार्थविद्यापटुकर दिया है उनके कथनानुमार आइनेअकबरी
र्यम्याभिज्ञमल्लिकाभिरनिशं गोष्ठी स्फुटं रोचते श्राइन ३० में ( Blockman537-647)२४०
मान्यो राजसभासु सजनसभाशंगारहारो भुवि, विद्वान सभासदांकी मची दीगई है उसमें ३३ हिन्दू
श्री जैनेंद्रपदहयार्थनिरतः श्रीरायमल्लोऽभवन ॥३॥ थे। उनमे ५ विभाग थे जिनमेस प्रथम विभागमें "परमिन्दर" नाम आ जाता है यह उर्दू लिपिकी
ननाभ्यर्थनयाऽतिथि सविनयं तेजाः पुरः स्थः सतां, विचित्रताके कारण पद्मसुन्दरका बिगड़ा हुआ
मान्यः संपदि पद्मसुन्दरकवि षतर्कसक्रांतधीः
काव्यं श्रीश्रु तपंचमीफलकथा संदर्भगर्भ मम, नाम ही प्रतीत होता है।
श्रत्यर्थ क्रियता सुकोमलमतस्तञ्च दमारभ्यते ॥४॥ ___ जैनइतिहासके लिये यह महत्वपूर्ण बात है कि मम्राट अकबरके पिता और प्रपिता हुमायु एवं
अंत-आनंदोहय पर्वतकतरणे रानंदमेरोगुरोः, बाबरसे भी पद्मसुन्दरजीके प्रगुरू श्रानंदराम सन्मा
शिष्यः पंडित मौलिमणि: श्रीपभमेनगरुः । (?) नित थे एवं आइनेअकबरीमें पद्मसुन्दरजीका नाम
तच्छिष्योत्तमपद्मसुन्दर कविः श्रीपार्श्वनाथाह्वयं,
काव्यंनव्यमिदं चकार सरसालंकार संदर्भितम ।। प्रथमश्रेणीके विद्वानों में पाया जाता है।
वंशऽप्रोतकनाम्निगोइलमहागोत्र पवित्रीकृती, पद्ममन्दरजीका चौधरी रायमल्लजीसे जो विख्यातो नरसिंहमाधुरभवत्सिहो नराणामिव । धर्म प्रेम पाया जाता है वह भी हमारे लिये अनु- श्रद्धालुर्जिनपादपंकजरतो राज्ञां सदस्सुस्तुतो, करणीय आदर्श है। दिविज्ञानके माथ श्वेताम्बर दानाज्ञातृशिरोमणिः सुकृतिनामग्रेसरः सम्मतः ।।४।।
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किरण १
कवि पद्मसुन्दर और दि. श्रावक रायमल्ल
तदीयपुत्रौ नयशीलशालिनी, सुधार्मिको ख्यात गुणा बभूवनः । जिनेंद्रगुर्वागमभकिबन्धुरो, क्रमेण नानु सहण समायौ ॥६६॥ तयोस्तु नान्वाग्व्य इति स्फुटोजसा, दिगंतविश्रान्तयशाः स्फुरद्गुणः । वदान्यमान्यो जिनपादपंकजद्वयार्चनकप्रघणो बभूव मः ॥६७।। तदंजोऽन्नून्नृपसंसदिस्तुतः, शशांक कुन्दद्य तिकीर्तिभासुरः । प्रसिद्धनामा जिनभक्रिनिर्भरी, बभार पात्र प्वतिदानशौंडताम् ॥६॥ विशुद्धसिद्धान्तसुधारसायने, सुनव्यकाव्ये रसिको महानभृत । जिगेशगर्वागमपूज्यपूजकः, म रायमल्लो विनयेन ये पटु ॥६६॥ अकारयद्यः सबलाहतां स्फुरचरिदृन्धं नवकाव्यमादितः। इदं च सालंकृतिक्रिसूचितं, स पार्श्वनाथाह्वयकाव्यमादिराः ॥७॥ यदजितं वित्तमिहासपात्रमायदीयश्चित्त किल धर्मतवमान । वची यदीयं स्फुटमास सत्यसन.
स रायमल्लो भुवि नन्दाचिरम् ॥७॥ महोदरम्म्य वांमवभावनसान.
कनीयान विनयेन बन्धुरः । अनन्यसमान्यगुणः स्फुरतरः
प्रकृष्टसौहार्द निधिः मनां मत ॥७२॥ तथाामीचन्द्रसुतेन साधुना
स रायमल्लो जयत्तायरिस्कृत। तुजोदयाख्येन च सालिवाहना
गजेन सानन्तसुतेन मन्ततम् ॥७३॥ अन्द विक्रमराज्यतः शर"
कला' भृनर्क भू' समिने, मार्गे मास्यसित चतुर्दशदिन
ससौम्य धारादित । काव्यं कारितवानतीव सरम
श्री पार्श्वनाथाह्वयम् , सोऽयं नन्दनु नन्दनः परिवृतः
श्रीरायमल्लः सदा ।।७४॥ इनि श्रीमत्परमेष्टिपदारविन्द
मकरन्दसुन्दररसास्वादमन्तपिन भव्यभव्ये पं. श्रीपद्ममेक
विनय पं. श्रीपन. मुन्दर विरचिने माधुनान्वान्मज
साधु श्रीरायमल्ल समभ्यथित श्रीपार्थनाथ महाकाव्ये श्रीपार्ष
निर्वाणमङ्गलं नाम सप्तमम्पर्ग. ॥७॥ नियर्छणय. मकलकर्मफलपट्स
मानन्दमुन्टरमुदारमनन्तसौप्यम् । निर्वाणमाप भगवान सच पार्श्वनाथः श्रीगयमल्लभविकस्य शिवाय भूयात ॥७६॥ प्रा घाटः ।।
लेखक प्रशस्ति मंवत १६१७ वर्षे चैत बदी १० मी अकबरराज्य प्रवर्त्तमान श्रीकाष्ठामङ्घ माथुरान्वये पुष्करगणे उभयभाषाप्रवीणतपनिधिः भट्टारक श्रीउद्धरमनदवा., तत्पदं मिद्धान्तजलसमुद्रविवेककलाकमलिनीविकामनैकदिनमणिः भट्टारक श्रीदेवमनदेवाः, कविविद्याप्रधान भट्टारक श्रीविमलसनदेवाः, तत्प? भट्टारक श्रीधर्मसंनदवाः, तत्पट्ट भट्टारक श्रीभावमनदेवाः,तत्पट्टे भट्टारक श्रीसहस्त्रकीतिदेवाः, तत्पट्ट भट्टारक श्री. गणकीत्तिदेवाः, तत्प? भट्टारक श्रीयश:कातिंदवाः, तत्पर्ट दयाद्रिचूडामणि भट्टारक श्रीमलयकीर्तिदेवा , तत्पदं वादीभकुभस्थलविदारनैक कसरी भव्याम्बुज विकासेनैकमार्तण्डद्र र्गमपञ्चमहाव्रतधारणकप्रचण्डः
चारु चारित्रोद्वहन धुराधीरः तपसा निर्जितैकवीरः भट्टारकः श्रीगुणभद्मृरिदेवाः, तत्पर्ट भट्टारक श्री
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अनेकान्त
[वर्ष १०
भानुकोतिदेवाः, तत् शिप्य मण्डलाचार्य श्रीकुमार- तृतीय पुत्र चिरंजीवी मालिवाहणु, चतुर्थ पुत्र चिरंजीमनदेवाः, तदाम्नामे अग्रोतकान्वय गोइलगोत्रे स्वदेश- वी धर्मदाम, पंचम पुत्रचिरंजीवी अनन्तदास । चौधरी परदेश विख्यातमानु चौधरीछाजू तयोः पुत्र (r:) नान दुतीय पुत्र चौधरीभवानीदास, तस्य भार्या साध्वी पंच मेरुवत्पंच ५, प्रथम पुत्रु अनेकदानदाइकु माणिकही। चौधरीनरसिंघ दुतीय पुत्र चौधरी कुलिचंदु । चौधरीहाल्हा १, द्वितीयपुत्र चौधरी बूढणु २, तृतीयपुत्र चौधरी नरसिंघ तृतीयःपुत्र चौधरी सहणपालु, तम्य भाचौधरी नरपाल ३, चतुर्थपुत्र चौधरी नरामघ, पचम- द्विी, प्रथम भायो माध्वी गाल्हाही, दुतीय भायो मापुत्र चौधरी भोजा ५ चौधरी नरसिंह भार्या शीलतोय
ध्वीसमाही, पुत्र त्रयं, प्रथम पुत्र चि.सुषमलु, तस्य भार्या तरंगिणी साध्वी मदनाही, तयोः पुत्रत्रयं, तत्र प्रथम ।
साध्वी पोल्हणही, दुतीय पुत्र चि० पहाड़मल, तृतीय पुत्र चौधरी नानू भार्या साध्वी प्रोढरही, तयो पुत्रद्वौ,
पुत्र चि० जसमलु । एतेषां मध्ये साधु नानृसुत चौधरी प्रथम पुत्र चौधरी अनेक दान दाइकु चौधरी रायमल्ल
रायमलु, तेन इदं पार्श्वनाथमहाकाव्यं कारितमिति तस्य भार्या साध्वीद्वौ, प्रथममायो माध्वी ऊधाही,
मंकोडीकरचरणं, उगगीवा अहोमुहादिट्ठी।
जं सुहापर्वलेहो, तं मुहपावेउय तुम्ह दुजणऊ? ||॥ पुत्र चिरंजीवी अमीचंदु, तस्य भार्या माध्वी जेटमलही, चौधरी रायमल दुतीय पुत्र चिरंजीवी उमिन्धु,
ममामिति । शुभंभवतु ।
किसके विषय में क्या जानता हूँ ?
[ ले श्री ला० जुगलकिशोर जी कागजी ]
- ::१. में पंचपरमेष्ठीक विषयमें क्या जानता हूँ? प्रवृनिमे स्वयं लगे हैं और अन्यको भी अपनी
श्रीअरहंत सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय तथा सर्व शान्तमुद्राद्वारा उमी मार्गका साक्षात संकेत कर माधु ये पंच परमेष्ठी हैं। ये पांचों ही परम इष्ट हैं। रहे है । इसी कारण दुःखोंसे बचनेका एक मात्र उपाय ये अज्ञानरूपी परिणतिको रोककर कर्मबंधनसे मुक्त पंचपरमष्ठीका ही अनुकरण है। उन्हींका दर्शन व होगए हैं तथा हो रहे हैं। पूर्णसुखी होगए है तथा ध्यान मुलभ है, साध्य है, इष्ट है, कर्मबन्धनसे पूर्णसुग्वी होनेके मन्मुख हैं। ये पांचों ही प्रत्येक रोकनेवाला है। अरहत व सिद्ध भगवान पूर्ण रीतिप्राणीको सुख प्राप्त करनेके लिये एक आदश-मार्ग में अपने विषयमे मब कुछ जानते हैं और परके दर्शानेवाले हैं। इनकी यथार्थ प्रवृत्ति होनेके कारण विषयमें भी सब कुछ जानते हैं। इसी कारण पूर्ण म्मरण, वन्दन, पूजन और दशन सभी प्राणियोंके मुग्वी हैं। उनके सुखका कभी विनाश नहीं होगा। लिये यथाथ प्रवृत्तिकी ओर ही आचरण कराता है। २. मैं अपने विषयमें क्या जानता हूँ? यथार्थ प्रवृत्तिही सत्य है, सुग्च है। अतएव ये मै हूँ। मैं जीवित हूँ। मैं जीवित ही रहूँगा । संसारके बंधनों व दुःखोंसे भयभीत होकर यथार्थकी मेरा मम्बन्ध इस शरीरसे कुछ समय पर्यन्त ही
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किसके विषय में क्या जानता हूँ
किरण १]
रहेगा | जब मैंने इम वतमान सम्बन्धी शरीरसे संयोग किया है । बाल-कालको छोड़कर बाकी समयके भीतर जो कुछ मैंने कर्म किये हैं वह सत्र मैं जानता हूँ । जो दुःख मैंने भोगे है उन्हें भी जानता हूँ । जिन्होंने मेरे साथ भलाई की है उस भलाईको भी जानता हूँ । जिन्होंने मेरे साथ बुराई की है उसको भी मैं जानता हूँ। जिसके साथ मैंने बुराई की उस बुराई को भी मैं जानता हूँ । जिसके साथ मैंने भलाई की है उसको भी मैं जानता हूँ । अपने योग्य विषयके भीतर अपनेको मैं भलीभाँति जानता हूँ | अपने विषयके ग्रहण करने में मैं अपने पूर्ण सम्पन्न देखता हूँ। मैं ज्ञानी हूँ, ज्ञानवान हूँ, अपना तथा अपने ज्ञानका विनाश कभी नहीं चाहता। सदा सुख ही चाहता हूँ । पाप के फलको भोगने से डरता हूँ, पुण्यके फलको भोगने नहीं डरता। इससे प्रतीत होता है कि मेरा स्वभाव सुख ही है। मैं जानता हूँ कि वास्तवमें मेरा स्वभाव सुख ही है । वह सुख मेरे ही अन्दर है, मेरी ही सम्पत्ति है । मैं ही उसका स्वामी हूँ,
Hatala कर सकता हूँ, मैं ही उसका कर्ता हूँ और मैं ही उसका भोगता हॅू। जिस समय मुझे दुःख भोगने पड़ते हैं उस समय मैं उलझनमें पड़जाता हूँ । यदि वह दुःख किसी चैतन्यके निमित्त प्रतिभासित होजाता है तब तो क्रोध उपस्थित होकर उससे वैर व बदला लेनेका निश्चयमा कर लेता हूँ। और यदि वह दुःख स्वयं शारीरिक विकारकं अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल भावके निमित्तसे होता हुआ जान पड़ता है तब अपने कर्मोंके दोषों को ही कारण जानकर क्षमा-प्रार्थी होजाता हूँ । एक दशामें तो क्रोध और दूसरीमें क्षमा कितना भारी अन्तर है । दुःख एक है, कार्य-कारणके वशसे दशा दो हो जाती हैं। यह मैं भली-भाँति जानता हूँ । अपने विषय मे अपनी क्रूरताको या अपने सौन्दर्यको जितना मैं जानता हूँ अन्य नहीं जानता । इसीलिये
२१
में अपने विषय में ज्ञानी हूँ, परन्तु अन्यके विषय में अज्ञानी ।
३. में अपने और पंच परमेष्ठी से भिन्न अन्य पदार्थों के विषय में क्या जानता हूं ?
अपने विषय में जितना मुझे निश्चय है उतना ही अन्यके विषयमें अनिश्चय है, धोखा है । जितनी सुध-बुध अपने विषय में करनेमें मैं स्वतंत्र हूँ उतना ही अन्यकी सुध-बुध रखने में परतंत्र हूं । मेरी जितनी भी प्रवृत्तियाँ अन्यमें और अन्य विषयोंकी जानकारीमें बढ़ती जा रही हैं उतना ही भय, चिन्ता, उसकी रक्षाका भार और स्वार्थ अधिकाधिक होता जारहा है । जितना-जितना अन्यको मैं अपनाता जारहा हूँ उतना उतना घमंड बढ़ता जाता है। स्वाभिमानको अभिमानके भारसे दबाता जाता हूँ। यहाँ तक कि अभिमानको ही स्वाभिमान समझ बैठा हूँ। ऐसा प्रतीत होता है कि बिना अभिमानकी सामग्री के मेरे जीवनका कुछ भी मूल्य नहीं है । और उसके मद में उन्मत्त होकर महान्स महान् पापोंमें भी फंस कर महान शारीरिक व मानसिक दुःखोंको निरन्तर भांगकर भी दुखोंको भूल रहा हॅू। दुःखोंकी प्राप्तिके साधनोंमें ऐसा मग्न होकर मिया श्रानन्दकी लहरोंमें बहा चला जारहा हॅू। अपनी बेहाल अव स्थाको ही अपना हाल, अपना गुण, अपना कर्तव्य निश्चत किये जाता हूँ । अपनेको पराया और परायेको अपना दोनोंका मेल ही दुःखोंसे रक्षाका उपाय मानकर संलग्न होरहा हॅू। इस प्रकार सुखोंके साधन मिलाते-मिलाते भी न मालूम यह दुःखोंके व क्रोधके बादल क्यों छाये रहते हैं । यहाँ ज्ञान असमर्थ हो कर इस प्रकार दुःखों के विषय में जानकारी करने में व उन दुःखांसे बचने के उपायोंको जाननेमें असमर्थ होरहा हूँ, अज्ञानी होरहा हॅू। अंशमात्र भी नहीं जान रहा हूँ, जिन विषयों में आनन्द मनाता हूँ वही विषयभोगके बाद दु:ख क्यों बन जाते हैं ? जिस
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२२]
अनकान्त
[वर्ष १०
विषयके भोगके लिये मैं व्याकुल होरहा था मेरी आज तक जाना ही क्या है और क्या जाननकी लालसा निरन्तर मुझे बेचैन कर रही थी उस विषयको इच्छा है और इससे क्या लाभ है यह सब प्रत्यक भोगनेके बाद भी मुझे तृप्त क्यों नहीं होती ? मेरी मनुष्य स्वयं विचार कर सकता है। स्वयं ज्ञानी लालसा अधिकाधिक क्यों बढ़ती रहती है ? इच्छा- होकर फिर क्यों अज्ञान दशामें पड़कर वृथा ही काल नुकूल भोग न मिले तो भी मैं दुःखी और भोगनेके गँवा रहा है । जिस विषयपर अपना अधिकार पश्चात् भी पुनः भोगकी इच्छासे दुःखी ? केवल नहीं उम विषयमें प्रवृत्ति करना क्या भूल नहीं, भूल भोगते समय सुखी । अतः ज्ञात होता है कि मैं बहुत क्या पाप नहीं, पाप क्या दुःख नहीं, दुःख क्या थोड़ा काल तो सुखी और अधिक काल दुःखी रहता असमर्थता नहीं, असमर्थता क्या चिन्ता नही, चिन्ता हूँ। क्या यही सुख है ? क्या मेरे ज्ञानका इतना ही क्या भय नहीं। तात्पर्य यह कि पदार्थके यथार्थ कर्तव्य है ? इच्छानुकूल भोग प्राप्त हों या न हों स्वरूपका भली-भांति मनन करके उसके सत्य-स्वइतना भी मेरे ज्ञानको इस समय निश्चय नहीं है। रूपकी पहिचान ही वास्तविक ज्ञान है । सुखके निमित्त स्त्री-पुत्र-पैसा आदिक मिलकर कब वस्तुओंके विषयमें स्वयं फँस जाना ज्ञान नहीं, बिगड़ जायें इतना भी पता नहीं। यह प्यारा शरीर अज्ञान है, दुःख है । अतः अपनेसे भिन्न या अपने जिसकी रक्षाके सैकड़ों उपाय करते हुए भी यह सदृशमे भिन्न वस्तुओंमें अपनेको अज्ञानी समझकर कब अपना नाता तोड़कर घोर-से-घोर संसाररूपी उनसे दूर रहना अथवा मौन (निर्विकल्प) रहना ही भंवरमे धक्का देकर विछुड़ जाय, यह भी मेरा ज्ञान मानों मंसारक भयंकर अन्धकार व दुःखोंसे स्वयंकी नहीं जानता फिर ज्ञान अन्यके विषयमें जानता ही रक्षा करना है। ज्ञानी व अज्ञानीका भेद भेट ही क्या है और जाननेकी चेष्टा ही क्यों करता है ? मुग्व व दुःग्य बन रहा है, अन्य और कुछ नही।
कल्पसूत्रकी एक प्राचीन लेखक-प्रशस्ति
[निम्नलिखित प्रशस्ति एक स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र पुस्तकके अन्तमें लिखी गयी थी। यह ग्रन्थ संवत १५१६ अथवा १४५६ ई० में लिखा गया था। इस समय कल्प पत्र की यह पूर्ण पुस्तक अप्राप्त है। केवल दोनों ओर लिखे हुए तीन पन्नं बचे है, जिनपर ५ से ३१ तकके श्लोक लिखे हैं। इसीके साथ वैसे ही सुनहरे अक्षरोंमें लिखी हुई कालकाचार्य-कथानककी प्रति भी थी। इसके अन्तमें " इति श्रीकालकाचार्यकथा" लिखा हुआ है। यह प्रति भी कल्पमत्रके समकालीन थी। ऐतिहासिक दृष्टिले महत्वपूर्ण होनेके कारण मूल प्रशस्ति प्रकाशित की जाती है । -वासुदेवशरण अग्रवाल हो गुच्छ इवाधिशीलः ॥४॥
तरपुत्रमायंद इति प्रसिद्ध ततोऽपि जातो वरदेवनाम्ना
स्तदङ्गजो आजड इत्युदीर्णः पवित्रचारित्रसुदीसधाम्ना
सुलक्षणो लक्षणयुक क्रमेण, जगजनीनो जिनदेवनामा
गुणालयौ गोसलदेसलौ च ॥६॥ बभूव तस्यानुगतिं दधानः ॥५॥
श्रीदेपलाद् देसल एव वंशः
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किरण १]
कल्पमृत्रकी एक चीन लेखक प्रशस्ति
ख्याति प्रपन्नो जगतोतलेऽस्मिन् शत्रुजये तीथवरे विभाति यन्नामतस्त्वादिकृतो विहारः ॥७॥ नन्सूनवः साधुगणरूपेनास्त्रयोऽपि सद्धर्मपरा बभूवः तेश्चादिमः श्रीसहजो विवेकी कपुरधाग विरुदप्रसिद्धः ॥८॥ नदंगभूर्भावविभूषितान्तः पारङ्गसाधुः प्रथितप्रतापः आजन्म यस्याऽभवदाप्तशोभः सुवर्णधारा विरुदप्रवाहः ॥६॥ श्रीसाहणः माहिनृपाधिपानां पदाऽपि सन्मानपदं बभूव देवालयं देवगिरी जिनानामकाग्यद् यो गिरिशृङ्गतुङ्गम् ॥१०॥ बन्धुम्तृतीयो जगतीजनेन मुगीनकात्तिः समर सुचेताः शत्रजयोद्वारविधि विधाय जगाम कीर्ति भरताधिकां य ॥15॥ य पाण्डुदशाधिपमोचनेन गत परां ख्यानिमतीव शुद्धाम् महम्मद योगिनिपीठनाथे नन्प्रौढताया. किमु वर्णनं स्यात् ॥१०॥ सुरन्न कृतिः समरश्रियः सा यदुद्भवाः पड़ननुजा जगन्याम् माल्हाभिधः श्रीमहितो हित - म्नेवादिमोऽपि प्रथितोऽद्वितीय ॥१३॥ देवालयदेवगुरुप्रयोगाद द्विबाणसंख्यमहिमानमाप सत्याभिधः सिद्धगिरी सुयात्रा विधाय सङ्घाधिपतेर्द्वितीयः ॥१४॥ यो योगिनीपीठनृपस्य मान्यः म दुगरस्त्यागधनस्तृतीयः जीर्णोद्ध्तेधर्मकरश्चतुर्थः श्रीपालिगः शूरशिरोमणिश्च ॥१२॥
श्रोस्वर्णपालः सुयशो विशालश्चतुष्कयुग्म प्रमितेरमोघः मुरालयः मोऽपि जगाम तीर्थं शत्रुक्षयं यात्रिकलोकयुकः ॥१६॥ स सजनः सजनसिंहसाधुः शत्रुञ्जये तीर्थपदं चकार यो द्वयब्धि संख्ये समये जगत्या जीवस्य हेतु. समभूद् जनानाम् ॥१७॥ स्वमातृकुक्षिप्रभवा मनोज्ञाः सौवर्णपालाः सरिदीश संख्याः मोलाभिधः प्राथमिकः सुवस्मयारन्तरालेन दयेन युक्रः ॥१८॥ श्रीसोढलेन्द्रः शुभसामराज एवं महाभूपतिराजमान्यः द्वितीयबन्धोर्विमनाभिधाना बभूव पत्नी कुलशीलरम्या ॥१६॥ तत्कुतिजाः श्रीशिवदत्त प्रायः शिवशङ्कारश्चापि शुभकरोऽपि क्षेत्र द्वितीये सहजाभिधः श्री. चन्द्रण युक्रो गुणभृद्गुणज्ञः ॥२०॥ दुर्भिक्षकालऽन्नसुभक्षकस्य पतिव्रता साधुशिवङ्करस्य सत्पुत्रपौत्र जयति कृतिज्ञा मद्वल्लभा देवलदेविनाम्नी ॥२३॥ तदङ्गजाः षड्विधधर्मकृत्य परायणाः षट्प्रमिता जयन्ति सुधीवरः श्रीसहितः मुदर्थः श्रीराजनामाभिहितो द्वितीयाः ॥२२॥ श्रीमांगणः साहिसभासुदक्षो हाजाभिवानो हरवासहासः मोमाख्यया सौमगुणो गुणाढ्यो जीयात् सदा जाधरनामधेयः ॥२३॥ श्रीसत्यकाहासवरः सभाग्यः मंडाभिधः श्रीसुयशो गुणाधिः श्रीवंतसंग्रामशिवादयोऽपि
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अनकान्त
[वर्ष १०
तस्याः सुपुत्राः दीप्तिभासः ॥२४॥
तत्पट्टनाथः प्रभुकक्कसरि. श्रीपार्श्वनाथस्य गणे प्रतीने
सिद्धान्तरत्नाकररत्नभूरिः पुरा प्रवीणः सुभदत्तनामा
सद्देशनादरा विशेषदानाद् यदाख्यया केशिगणः प्रसिद्धः
हि जेजयीते वसुधातलेऽस्मिन् ॥२६॥ केशी ततोऽपि प्रगुणो बभूव ॥२५॥
तस्योपदशाद् सुविधाप्य हैमं जीवादितत्वप्रगुणगुणात्मा
सैद्धान्तकिं ? पुस्तकमेतदेवं सदाशुभः स्वप्रभुपृरिराजा
श्रीवाचनाचार्यवराय वित्तरत्नाकरां ख्यातिमवाप गच्छ
सराय सादाद् निजहर्षयोगात् ॥३०॥ स्ततश्च रत्नप्रभसृरिरेषः।।२६॥ युग्मम्
यावत् स्थिरो मेरुमहीधरोऽयं उकेशतो यत्प्रतिबोधदानाद्
तथा ध्रु वाक्षिः खलु चन्द्रसूरी उकशगच्छः प्रथतां जगाम
तावद् दृढं नन्दतु वाच्यमानं यक्षस्य बोधे प्रतिबोधशक्त्या
हर्षेण हृद्य प्रतिवर्षमेतत् ॥३१॥ श्री यक्षदेवः सुगरुस्ततोऽनु॥२७॥ श्रीकक्कुटाचार्यगणप्रतीतो
इति सावर्णकल्पपुस्तकप्रशस्तिसमाप्तमिति ॥छ। श्रीदेवगुप्तो भवनीरनौका ।
सं० १५१६ वर्षे चैत्रसुदि ८ अष्टम्यां रखो सद्भाग्यमौभाग्यनरैककोशः
श्रीपत्तनवास्तव्यं मं. बाछाकन लिवितं ॥ श्रीसिद्धमुरिस्तदवाप्तपट्टः ॥२८॥
भद्र' भूयात् । श्रीसंघस्य ॥छ। प्रहार क्षेत्रके प्राचीन मूर्तिलेख [ संग्राहक-पं० गोविन्ददास जैन, न्यायतीर्थ शास्त्री ]
(वर्ष : किरण १० से आगे)
-2)*:(नं. ३०)
१० के वैशाख मुदी १३ को प्रतिष्ठा काई। ये मृत्तिका शिर और दोनों हाथ नहीं है । आमन- सब उसे सदा प्रणाम करते हैं । से पता चलता है कि मूति कुछ बड़ी थी। चिन्ह
(नं० ३१) शेरका है। करीब २ फुट ऊँची होगी। पद्मासन है। मूर्तिका सिर्फ आसन उपलब्ध है। बाकी पाषाण काला है।
आङ्गोपाङ्ग नहीं हैं। चिह्न शेरका है। करीब लेख-सम्बत् १२०६ वैशाख सुदी १३ माघुवान्वये श फीट पद्मासन है। पाषाण काला है। पालिश साहुयशवंत तस्य सुत मायसहद तस्य भार्या माहिणि चमकदार है। तयोः पुत्र श्यामदेव एते प्रणमन्ति नित्यम् ।
लेख-सम्बत् १२१० वैशाख मुदी १३ पण्डिनश्रीभावार्थ:-माघव वंशोत्पन्न शाह यशवन्त उनके विशालकीर्ति आर्यिकात्रिभुवनश्री तयोः शिष्यणी पर्णश्री पुत्र साहु यशहद उनकी धर्मपत्नी माहिणि उन तथा धनश्री एताः प्रणमन्ति नित्यम् । दोनोंके पुत्र श्यामदेवने इम प्रतिबिम्बकी सम्बन भावार्थ:-सम्बत् १२१० के वैशाम्ब सुदी १३ को
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किरण १]
अहार-क्षेत्रके प्राचीन मूर्ति-लेख
पण्डित श्रीविशालकीति और आयिका त्रिभूवनश्री भावार्थ:-गोलापूववंशोत्पन्न साह महिदीन उनके तथा उनकी शिष्यणी पूर्णश्री एवं धनश्री ये सब पुत्र म्युपस्यु तथा अहेमामक, मंवन १२० में प्रतिष्ठा सदा प्रणाम करते हैं।
कराके प्रणाम करते है। (नं०३२)
(न० ३५)
मूनिका शिर नहीं है। बाकी सर्वाङ्ग मुन्दर है। मृत्तिके श्रासनके अतिरिक्त बाकी हिस्सा नहीं।
चिन्ह शेरका है। करीब सा फूट ऊँची है। पद्मासन है। चिह्न बैलका है। करीब १।। फुट ऊँची पद्मामन :
* है। पाषाण काला है। पालिश चमकदार है। है। पाषाण काला है। पालिश चमकदार है।
लेग्व-संवत १२१६ माहसुदी १३ श्रीमत्कुटकान्वये लेख-सम्बत् १२०२ चैत्रसुदी १३ गोलापूर्वान्वये
पण्डितलक्ष्मण देवस्तस्य शिष्यार्यदेव आर्यिका लक्ष्मश्री नायक श्रीरतन तस्य सुत वाल्ह-पोल्ह-सामदेव-भामदेव
तल्लिका चारित्रश्री तद्भाना लिम्बदव एते श्रीमदवद्धप्रणमन्ति नित्यम् ।
मानस्य बिम्ब अहिनिशि प्रणमन्ति । भावार्थ:-गोलापर्ववंशोत्पन्न नायक श्रीरतन भावाथ-मं० १२१६ माघ सुदी १३ के शुभ उनके पुत्र वाल्ह-पोल्ह-मामदेव-भामदेव सम्बत दिनमे कुटकवशमे पैदा होनेवाले पण्डित लक्ष्मणदेव १०.के चैत्र सुदी १३ को बिम्बप्रतिष्टा कराक प्रति- उनके शिष्य आर्यदेव तथा आर्यिका लक्ष्मश्री उनकी दिन नमस्कार करते है।
सहचरी चारित्रश्री उनके भाई लिम्बदेव श्रीवर्द्धमान (नं. ३३)
भगवानकी प्रतिमाको प्रतिष्ठापित कराके प्रतिदिन
नमस्कार करत है। मृत्तिका सिर्फ शिर नहीं है। बाकी सर्व प्रागो
(नं०३६ ) पाङ्ग उपलब्ध है। चिह्न वगैरह कुछ नही है। करीब ११|| फुट ऊँची पद्मासन है। पापारण काला है।
___मृत्तिका आसन तथा कुहिनियों तक हाथ अवशिष्ट पालिश चमकदार है।
है। बाकी हिस्सा नहीं है। चिन्ह सिंहका प्रतीत होता
है। करीब २ फुट ऊंची पद्मामन है। पापारण काला लेख-सवत् १२१० वैशाख सुदी १३ मेडतब ल
है । पालिश चमकदार है। वंशे माहु प्रयणराम तत्सुन हरम एनो नित्यं प्रणमन्नः।।
लेग्व--सम्बत १२२५ जेठ सदी १५ गुरुदिने पडिनभावार्थ -म० १२१८ वैसाख सुदी १३ को
श्रीजन्यकी। सशीलदिवाकरनीपद्मश्रीरमनश्री प्रणमन्तिनित्यम् ।
, मेड़तवालवंशमे पैदा हुए माहु प्रयणराम उनके पुत्र
भावार्थ.-सम्बत १२०५ जेठ सुदी १५ गुरुवारको हरसू ये दोनों बिम्बप्रतिष्ठा कराके प्रणाम करते है।
पण्डित श्रीयशीति तथा शीलदिवाकरनी पद्मश्री (नं. ३४
और रतनश्रीने बिम्ब-प्रतिष्ठा कराई। मूत्तिक दोनों तरफ इन्द्र खड़े है। घुटनों तक
(नं. ३७) पैरोंके अतिरिक्त बाकी हिस्मा नहीं है। चिह्न दो
श्रामन और आधे हाथोंके अतिरिक्त मूत्तिका हिरणोंका है। करीब ३ फुट ऊंचाई है। मृत्ति खड्गा- बाकी हिम्मा खण्डित है। आमन चौड़ा और सन है। पाषाण काला है। पालिश चमकदार है। सभी
मनोहर है। चिह्न बैलका है। करीब दो फुट की ऊँची लेख-सम्बत् १२०६ गोलापूर्यान्वये माह महिदीन पद्मासन है । पाषाण काला है। आमन टूट गया तस्य पुत्र स्युपम्यु तथा महमामक प्रणमन्त ।
है और इलिये लेग्ब अधूरा है।
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अनेकान्त
[वर्ष १०
लेख-सम्वत् १२९० वैशाग्यसुदी १३ गृहपस्यन्वये लेख-सम्बत् १२३७ मार्ग मुदी ३ शुक्र गोलापूर्वासाहुसुलधस्य सुत............।
न्वये साहु वाल्ह भार्या मदना वेटी रतना श्रीऋषभनाथं ___ भावार्थ:-सम्बत् १२१० के वैशाखसुदी १३ को प्रणमन्ति नित्यम् । गृहपति वंशोत्पन्न साहु सुलधर उनके पुत्र ....." "ने भावार्थ:-सम्बत् १२३७ के अगहन मुदी ३ प्रतिष्ठा कराई।
शुक्रवारको गोलापूर्व वंशमें पैदा होनेवाले साहु (नं०३%)
वाल्ह उनकी पत्नी मदना और उनकी पुत्री रतनाने दोनों तरफ दो इन्ट खडे हैं। आसन और कुछ श्री ऋषभनाथके प्रतिबिम्बकी प्रतिष्ठा कराई। ये सब पैरोंके अतिरिक्त बाकी हिस्सा नहीं है। चिहको नित्य प्रणाम करते है। देखकर अरहनाथकी प्रतिमा मालम होती है। करीब
(०४१) ३ फुट ऊँची खड्गासन है। पाषाण काला है। इस
के आसनके अतिरिक्त बाकी आंगोपांग मूर्तिका धड़ मन्दिर नं०१ की दीवारमें खचित है, नहीं हैं । आसन चौड़ा है। चिन्ह बैलका है । करीब ऐसा नापसे मालूम होता है।
२॥ फुट ऊंची पद्मासन है । पापाण काला तथा चमलेख-सम्बत् १२०६ गोलापूर्वान्वये साहु सुपट भार्या कदार है। अल्ह तस्य पुत्र सान्ति पुत्र देल्हल अरहनाथं प्रणमन्ति लेख-गोलापूर्यान्वये साहुरासल तस्य सुत साहु नित्यम् ।
मामे प्रणमन्ति । गृहपत्यन्वये साहुकेशव भार्या शान्तिणी भावार्थ:--गोलापूर्ववंशोत्पन्न माह सुपट उनकी
साहु बाबण सुत माल्ह प्रणमन्ति । पत्नी अल्ह उमके पुत्र शान्ति तथा पुत्र देल्हलने इस । बिम्बकी सम्वत् १२०१ में प्रतिष्ठा कराई।
सम्बत् १२०३ गोलापूर्वान्वये साहुयाल्ह तस्य भार्या पन्हा तयोः पुत्र बहराऊदेव-राजजस-बेवल प्रणमन्ति नि
त्यम् अषाड सुदी २ सोमे । मूत्तिका शिर और हथेलियोंके अतिरिक्त बाकी हिस्मा उपलब्ध है। चिह्न बैलका है। करीब दो फट भावार्थः-गोलापूर्व वंशमें पैदा होनेवाले साहु ऊँची पद्मासन है। पाषाण काला तथा चमकदार है। रामल उनके पुत्र साहु मामे दोनों प्रणाम करते हैं। लेख-सम्वत् १२०३ माघ सुदी १३ वैश्यान्वे साह
तथा गृहपति वंशमें पैदा होनेवाले साहु केशव
उनकी धर्मपत्नी शान्तिणी और साहु बाबण उनके सुपट भार्या गंगा तस्य सुतः साहु रासल पाल्हऋषि प्रण
पुत्र माल्हने बिम्बप्रतिष्ठा कराई। ये सब प्रणाम मन्ति नित्यम् । भावार्थ:-वैश्य कुलमें पैदा होनेवाले सुपट
करते है। उनकी धर्मपत्नी गंगा उनके पुत्र माहु रासल तथा
तथा सम्वत् १२०३ के अषाढ़ सुदी २ मोमवारपाल्ह ऋषिने मं० १२०३ माघसुदी १३ गुरुवारमें
को गोलापूर्व वंशमें पैदा होनेवाले साहु याल्ह उनकी प्रतिष्ठा कराई।
धर्मपत्नी पल्हा उन दोनोंके पुत्र बछरायदेव-राजजस(नं०४०)
वेवल प्रतिष्ठा कराके प्रतिदिन नमस्कार करते हैं। मूर्तिका शिर और आधे हाथोंके अतिरिक्त सब नोट:-इस मूर्तिके प्रतिष्टायक गोलापूर्व और गृहअङ्ग प्राप्य है । चिन्ह बैंलका है । करीब २ फुट पति इन दो जातियोमें पैदा होनेवाले तीन कुटुम्बके मदस्य उंची पद्मासन है। पाषाण काला है। पालिश चमक- हैं जिन्होंने अपनी गाढ़ी कमाईका द्रव्य लगाकर यह विम्ब दार है।
निर्माण कराया।
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किरण १]
अहार-क्षेत्रके प्राचीन मूर्ति-लेख
(नं ४२)
बैल्लि (1) रतनश्री । सं० १२१६ माघसुदी १३ शुक्र जैसमृत्तिका शिर तथा दायाँ हाथ नहीं है। बाकी बालान्वये साहु बाहद भार्या श्रीदेवि पुत्री सावित्री एताः हिस्सा उपलब्ध है । लेखका प्रारम्भिक कुछ हिस्सा प्रणम
प्रणमन्ति। टूट गया है। २१० बचा है। अतः नीचे लेखमें सं० भावार्थ:-सिद्धान्ति श्रीसागरसेन आर्यिका जयश्री ५२१० अनुमानसे लिखा गया है । चिन्ह बैलका है। उनके पासमें रहनेवाली रतनश्री और जैसवाल करीब ।। फुट ऊंची पद्मासन है। पाषाण काला है। वंशमें पैदा होनेवाले साहु वाहड़ उनकी पत्नी श्री पालिश चमकदार है।
देवि तथा पुत्री सावित्रीने सम्वत् १२१६ के माघ लेख–सम्वत् २१० (१२१०) पौरपाटान्वये साहुश्री
सुदी १३ शुक्रवारको बिम्बप्रतिष्ठा कराई। गपधर भार्या गांग सुत सोद-माहव एते सर्वे श्रेयसे प्रण
(नं०४५) मन्ति नित्यम् । वैशाख सुदी १३ बुधदिने ।
मूत्तिके दोनों हाथोंकी हथेलियों तथा आसनके ___ भावार्थः-सम्बत् १२१० (?) के वैशाख सुदी १३ अतिरिक्त बाकी हिस्सा नहीं है । चिन्ह हिरणका बुधवारको पौरपाटवंशमें पैदा होनेवाले साह श्री है । करीब १।। फुट ऊंची पद्मासन है। पालिश चमगपधर उनकी भार्या गांग उनके पुत्र सोढू-माहव कदार है। इन्होंने मोक्ष प्राप्त करनेके लिये बिम्बप्रतिष्ठा कराई। लेख-सम्बत् १२०३ साहु सान्तन तस्य पुत्र लढू (नं० ४३)
तस्य भार्या मलगा प्रणमन्ति नित्यम् । मूर्तिके आसन और हाथके अतिरिक्त बाकी हिस्सा भावार्थः-- सम्वत् १२०३ में साहु शान्तन उनके नहीं है। चिन्ह हाथीका है । करीब २॥ फुट ऊंची पुत्र लढू उनकी पत्नी मलगाने बिम्बप्रतिष्ठा कराई । पद्मासन है । पाषाण काला तथा चमकदार है।
(नं०४६) ख-सम्बत १२१० वैशाख सदी १३ जैसवालान्वये मूर्तिकी हथेली और शिरके अतिरिक्त बाकी हिस्सा साहु दल्हण भार्या पाल्ही तत्सुत पंडित राल्ह भार्या कोहणी उपलब्ध है । चिन्ह चन्द्रका है। करीब २ फुट ऊंची तरसुत बद्ध मान-श्रामदेव एते श्रेयसे प्रणमन्ति नित्यम्। पद्मासन है। पाषाण काला है । पालिश चमकदार है।
भावार्थः-जैसवाल वंशमें पैदा होनेवाले साहु लेख-सम्वत् १२०७ माघ बदी ८ गृहपत्यन्वये देल्हण उनकी पत्नी पाल्ही उनके पुत्र पंडित राल्ह माहु मोने तस्य भार्या होवा तत्सुत दिवचन्द्र अष्टकर्मउनकी धर्मपत्नी कोहणी उसके पुत्र वर्द्धमान-श्राम- क्षयाय कारापितेयं प्रतिमा । देवने मोक्ष प्राप्त करनेके लिये सम्बत् १२१० वैशाख ___भावार्थ-गृहपतिवंशमें पैदा होनेवाले साहु सुदी १० को बिम्बप्रतिष्ठा कराई।
सोने उनकी धर्मपत्नी होवा उनके पुत्र दिवचन्द्रने (नं०४४)
सम्बत् १२०७ के माघ बदी ८ को अष्टकर्मक्षयके मूर्तिके आसनके अतिरिक्त बाकी हिस्सा नहीं
लिये प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई। है। चिन्ह बन्दरका मालूम होता है। करीब १५॥
(नं०४७) फुट ऊची पद्मासन है। पाषाण काला है। पालिश
मूर्तिका शिर और बाएं हाथके अतिरिक्त बाकी चमकदार है।
हिस्सा अखण्डित है। आसनका नीचेका हिस्सा लेख-सिद्धान्तिश्रीसागरसेन प्रार्यिका जयश्री तस्य कुछ छिल गया है, अतः कुछ लेख और चिन्ह नहीं
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अनेकान्त
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है । करीब १।।। फुट ऊंची पद्मासन है। पाषाण का- सेठ दायामारू उनके पुत्र सुरद माल्ह-कलाम इन ला है।
सबों ने मंवत् १२०७ के माघवदी = को यह प्रतिमा लेख-सम्बत् १२११ फा....................भार्या प्रतिष्ठित कराई। पापा तत्सुत साहु सीतल भार्या पाला नित्यं प्रणमन्ति ।
(नं०५०) भावार्थ-संवत् १२११ ( के फाल्गुन मास ) में दोनों तरफ इन्द्र खड़े है । चिन्ह वनदण्डका ... ... ... ... ... ... ... .. पत्नी पापा उनके पुत्र माहु है। शिर नहीं है, वाकी सवोङ्ग सुन्दर है। करीब २ सीतल उनकी पत्नी पालाने बिम्बप्रतिष्ठा कगई। फुट ऊंची खगासन है। पाषाण काला और
(नं०४८) मृत्तिका शिर नहीं है । दोनों हथेली छिलगई लेख--संवत् १२०१ वैशाखसुदी १३ पौरपाटान्वये हैं। चिन्ह चकवाका मालूम होता है। करीब श॥ साहुकोंक भार्या मातिणो साहु महेश भार्या सलखा। फुट ऊंची पद्मासन है । पाषाण काला है। पालिश भावाथः--पौरपाटवंशमें पैदा होनेवाले चमकदार है।
कोके उनकी यमपत्नी सलखाने सम्वत् १२०६ के लेख-संवत् १२३७ अाग्रहल सुदी ३ शुक खंडिल्ल वैशाख सुदी १३ को बिम्बप्रतिष्ठा कराई। बालान्वये साहु वाल्हल भार्या बस्ता मुत लाखना विघ्न
(२०५१) नाशाय प्रणमन्ति नित्यम् ।
__ मूत्तिका मिफ श्रासन अवशिष्ट है, जो काफी भावार्थः-खण्डेलवालवंशमें पैदा होनेवाले चौड़ा है। परन्तु बीचसं टूट गया है। अनः जोड़कर साह वाल्हल उनकी पत्नी बस्ता उसके पुत्र लाखना लेख लिया गया है। कुछ अक्षर उड़ गये हैं। चिह्न ने संवत् १२३७ के अगहनमुढी ३ शुक्रवारको शेरका है। करीब • फुट उंची पद्मासन है। पापागण विघ्नोंके नाश करनेकलिये इस बिम्बकी प्रतिमा काला है। पालिश चमकदार है। कराई।
लेख-सवत् १०७३ आषाढ बढी ३ शुक्र श्रीवीर(नं०४६)
वर्द्ध मानस्वामिप्रनिष्ठापिक:-गृहपत्यन्वये माहु श्रीउल्का मतिक आमनके अतिरिक्त बाकी हिस्सा नहीं ............. ..अल्हण साहु मातंण । वैश्यवालान्वये पाहु है। चिन्ह बैलका है। वायां घुटना ढूढ़कर मिलाया वामलस्तस्य दुहिता मातिणा साहुश्रीमहीपती ।" . . है। करीब शा फुट ऊंची पद्मासन है । पाषाण काल। भावार्थ:-गृहपतिवंशमे पैदा होनेवाले साहश्री और चमकदार है।
उलकण"अल्हण तथा माह मातने और वैश्यकुललेख-संवत् १२०७ माघ वदी ८ मडवालान्वये में पैदा होनेवाले साह वामल उनकी पुत्री मा तग्गी साहुसेठ दायामारु तस्य सत सुरदमाल्ह केलाम म प्रतिमा और माहश्री महीपतिनं मंवत् १२८३ आषाढ वदी ३ कारापिता।
शुक्रवारको यह श्रीवर्द्धमान स्वामीकी प्रतिमा प्रतिष्टा भावार्थः-मडवालवंशमे पैदा होनेवाले साहु कराई।
(क्रमशः)
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भगवान महावीर, जैनधर्म और भारत
( लेखक-श्री. लोकपाल)
जैनधर्मक बारेमें लोगोंकी जानकारी बहुत ही सभी पुरातत्ववेत्ता एवं विशेषज्ञ भी इसीकी स्ट 'कम है-और-जो कछ थोड़ी बहत है भी वह ऊपरी लगात है एवं उनकी जा.भी धारणाएं या निर्णय 'और विकृत है। औरोंकी कौन के जैन पंडितों और होते है व इमी विश्वासपर आधारित होते है। विद्वानोंकी भी हालत इम तरफ संतोषजनक .इतना ही नहीं, इस इतिहासने हमारे पूर्व पुरुखाओंको नहीं है।
.इस तरह करके दिखलाया कि हमें उनकी सत्ताम ही 'भारतके धार्मिक एवं सामाजिक जीवन, रीति- मंदह हागया और उससे भी अधिक खराबी यह व्यवहार तथा मान्यताओंपर विदेशी शासन-सत्ताका हुइकि हमन अलग-अलग महापुरुषांको अलग-अलग बड़ा ही बुरा प्रभाव पड़ा है। आज जो हम धार्मिक जातियां, धर्मा, सम्प्रदायों या गुटोंका मानकर उनका हठाग्रह, दुराग्रह और आपसी विद्वेष-भावना चांगें
भी विरोध किया और खूब किया। हराएकने इम तरफ देखते है। इसको बनाए रखने और बढ़ात रहनेमे तरह इन महापुरुपाको दूसरका समझकर खूब ही 'और कहीं कहीं नया पैदा करनेम इम विदेशी मत्ता- गालिया दी और धामिक विद्वेष, विरोध एवं रगड़ का कम हाथ नहीं रहा है। हम, हमारे प्रवजाको भगढ़ बढ़ा लिए । इतना तक.भी रहता तब भी हमारी मैकड़ों बस एक तरहका नकली इतिवाम अवनक हालत पश्चिमीय दशांकी तुलनामे अधिक . गिरी.न पढाया जाता रष्ट्रा-वही अब भी जारी है.भारत हाती, क्याक वजा तो इसस भी बढकर मनाक 'कहनको स्वतंत्र तो हा पर यह हानिकारक जाली दामिक अत्याचार हुए। पर हमने जो सबसे बड़ा पुरातत्व हमारे बीचल अबलक नती हटा।
खराब काम-इस विदेशी सत्ताद्वारा प्रचालित इतिइम इतिहासका निमाण-इसकी आख्यायिका.
हासक कारण उत्पन्न बुद्धि-किया वह यह कि हर
एक धर्मधालान दूसरे धमप्रचारक , महापषांकी • एवं लिखनेका हुग इस तरहका रखा गया कि हम ।
प्राचीनताको भी अवीकार किया और हर तरहस अपनी असली भारतीय संस्कृतिको एकदम भूल बैठे
सहन करत रहे । नतीजा यह हुयाकि हमारी महत्ता " और धीरे धीरे हमने एक नकली और पाखण
दिन-ब-दिन गिरती गई और हमारा बौद्धिक एवं रीतिनीति एवं व्यवहार अपना लिया और उसकी
., मानसिक ह्रास भी साथ ही साथ होता गया। आज हम भारतीय या हिन्दू संस्कृति समझे और " पकडे बँट है। इस इतिहामने और भी यह किया कि पहले भी भारतमें अति प्राचीनकालमे ही अनकों हमारे दिमागमे यह बात भरदी कि हम भारतीय धर्म एवं मत-मतांतर थे-और आपमी विरोध या
आदिम आय नहीं बल्कि कहीं मध्यएशियाम पाकर वैमनस्य उतना नही होनमें जब भी जो कोई वसनेवाले है- नाकि हम अपनेको प्राचीन और · चाला दुसरे धमकी शिक्षाओम प्रभावित होकर मभ्यतापूर्ण न समझकर यही समभले रहे कि हमार अपना धम अदल लेता था। इस तरह हर समझदार
पूर्वज जंगली थे और बादमे सभ्य हए । या बाहरसे या पढ़ा लिम्बा व्यक्ति अधिक-से-अधिक धर्मोकी वातों' दृमरोने प्रावर सभ्य बनाया। यह बात आज हमारे को समझने एवं ठीक ठीक जाननेकी चेष्टा करताथा- अंदर इतनी कूट-फूट कर भरदी गई है कि हमारे जिमसं. ज्ञानकी. वृद्धि के साथ ही साथ बौद्धिक एवं
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अनेकान्त
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मानसिक विकास भी बढ़ता था। पर जबसे धार्मिक धर्मतत्वों या धर्माचााकी खामखाहमें हंसी प्रतिबन्ध लगा दिए गए एवं "स्वधर्मे निधनं श्रेयः उड़ा देना या छोटा या गलत समझ लेना सच पूछिए परधर्मो भयावहः” इत्यादि तथा धर्ममें बुद्धि और तो उन तत्वोंमें जरा भी कमी नहीं लाता। वे तो तर्कको लगाना मना कर दिया गया तथा यह आम हमेशा वैसेके वैसे ही रहते है। हॉ, ऐसा करनेवाला फतवा या धर्माज्ञा हर एकके यहां होगई कि धर्मशास्त्रों उनकी जानकारीसे और ज्ञानके विकाससे वचित ने जो कुछ कह दिया है एवं गुरु लोग जो उसका अर्थ अवश्य हो जाता है। लगा देते है उसे मानना ही होगा-और जो न मानेगा इसी वातावरण में जैनधर्म या जैन धर्माचार्योंके वह नास्तिक और धर्मद्वषी या धर्मद्रोही समझा विरुद्ध जो घना द्वेधका या असहानुभतिका या असजायगा-तबसे ही ये धार्मिक विद्वेष लड़ाई-झगड़े हयोगकी भावनाका प्रचार भारतमें चारों तरफ जोरों में इत्यादि बढ़ गए हमने एकदम दूसरेकी बातें जानना अब भी मौजद है। उसने देशकी भारी हानि की है। लोड दिया---धीरे धीरे अपने धमके तत्वोंको भी जैनधर्मके तत्व एवं शिक्षा तो अब भी वही है और भल गए मानसिक एवं बौद्धिक विकास भी रुक कर दसरं धर्मोकी भी। पर इस तरहक परस्परके द्वेषधीरे धीरे एकदम गायब ही होगया।
विद्वेष एवं मनोमालिन्यने एक-दूसरेकी बातोंको धर्माचार्योने-चाहे वे किसी भी धर्म हो- जाननस हमें वंचित रखा और इस तरह हमारा बहत सोचने-विचारने, अनुशीलन और मनन करनेके मानसिक तथा बौद्धिक विकास रुकनेके माथ ही आपबाद ही कोई तत्व या Theory पेश की है। हर एक सी कटुता और बढ़ने में ही महायक हई। पर धाने जैसा और जितना ठीक समझा अपने तरीकेस- मिक शिक्षाओं में तो फिर भी कोई परिवर्तन नहीं अपनी बुद्धिके अनुसार लोगोंके मामने रखा। माना हुआ। हन इस सत्यको अपनी धर्मान्धता को कि इनमें बहुत तो सच्चे Sincere of honest एकदम भूल जाते है और यह कि ऐसा करके जोशमे ईमानदार रहे और बहुतोंने अपनी विद्वत्ता एवं हम दूसरोंका नहीं, बल्कि स्वयं अपना ही नुकमान प्रतिभा तथा प्रभावका अनुचत उपयोग भी किया- करत है। जिममे सत्यके बजाय असत्य फैलनेमे काफी महा- जैनधर्म बुद्धिवादका समर्थक हामी या प्रतियता मिली। सब कुछ होते हार भी इतना तो निश्चित पादक है। वह कोई भी ऐसी बात स्वीकार करने है कि ये लोग बहुत बड़े विद्वान् एवं विचारवान या से इनकार करता है जो बुद्धि और तर्ककी कसौटीThin less थे। फिर आज जो हवा हम चारों तरफ पर ठीक और खग एवं व्यावहारिक न उतरे, देखते हैं कि एक महज अदना मामूली आदमी भी इनकार ही नहीं करता अपने सभी Followers जो धर्म या धार्मिक तत्वोंका-क ख ग घ-भी नहीं अनुयायियोंको ऐसा करनेसे मना भी करता है। जानता वह भी दूसरे धर्मवाले विद्वान और गुरुकी वह कहता है कि किसी भी तत्त्वका, देवताका, गुरूका निन्दा कर देता है और हमी उड़ा देता है-क्या यह और शास्त्रका वगैर परीक्षा लिए और परीक्षा लेने पर कम मूढ़ताजनक और मूर्खतापूर्ण है ? क्या यह जब तक ठीक न उतरे या ठीक न जचे विश्वास मत सचमुच अपनी वेवकूफी और अज्ञानताको ही नहीं करो, मत मानो । वह कहता है कि ऐसा करके ही जाहिर करना है ? आज हमारी हालत यह है कि तुम सत्य और ठीक मार्गपर स्थित होगे या स्थिर हम ऐसा करके ही अपनेको धार्मिक एवं बहादुर होगे एवं उससे विचलित न होगे, कोई बहका नहीं ममझते हैं जब कि बात ठीक इसके विपरीत होनी सकेगा-धर्मके नामपर ढोंग और आडम्बरके चाहिए।
शिकार होकर अधार्मिकता करनेसे बच सकोगे
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किरण १]
भगवान महावीर, जैनधर्म और भारत
इत्यादि । इतना ही नहीं, वह हर एक नई बातको या आधुनिक भाषामें इस वैज्ञानिक तरीकोंको छोडहर संभावित पहलू-हर दृष्टिकोणसे देखनेकी कर अपना बड़ा ही नुकसान किया है। जब पश्चिमी सख्त ताकीद या हिदायत देता है । एव देश, देशोंने इसको अपनाकर अपनी हर तरफ उन्नति की, काल तथा व्यावहारिकताके अनुसार ही हमने इसे भगाकर अवनति की। आज जरूरत है उन्हें उपयोगमें लानेको कहता है ताकि कमसे इसे फिरसे जीवन और समाजके हर पहलूमें उचित कम गलती हो सके। किसी नई बातको जिसके एवं व्यावहारिकरूपसे अपनाने और काममें लाने बारेमें पूरी जानकारीकी जरूरत है उसे एक की-यदि हम सचमुच स्थायी और सुव्यवस्थितरूपसे बार सहसा मान लेने या एकतर्फा धारणा कोई भी उन्नति करना और करते जाना चाहते है तो। उसके बारेमे बना लेनेकी हानियों एवं कटु प्रभावों- जैनधर्मने धार्मिक विभिन्नताओं या मतभेदोंको से सचेत करता है तथा हर गंभीर प्रश्नको हर पहलू- कभी भी संघर्षणात्मक रूप नहीं दिया। हां, तात्विक से सोच विचार जॉचकर और अपनी हर शंकाएं या तार्किक खंडन मंडनका अवश्य व्यवहार यथासंभव निवारण करके ही स्वीकार करने या किया। इतना ही नहीं अपने अनुयायियोंको बराबर फिर आगे बढ़नेको कहता है। इसे ही हम "अने- यह कहता है कि हर एक धर्मका अनुशीलन,मनन कान्त” कहते है । आजका आधुनिक विज्ञान एवं मथन करना चाहिये और तब बुद्धि और तकका Science और इसके सारे कारवार मशीनपुर्जे व्यवहार करके जो कुछ ठीक जचे उसे मानना एवं इसी अनकान्तके व्यावहारिकरूप है जो अन्यथा स्वीकार करना चाहिये । तभी हम गलतियां कम-सेसंभव नहीं होसकते थे। एक मशीनका पुर्जा बनानेके कम करेंगे और जानकारी अधिकसे अधिक होगी लिए उसकी ड्राइंग (नकशा) कई तरफसे देखकर और इसतरह ही विश्वास या धारणा होगी वह भी । बाहरसे या बीचसे काटकर Sectional) बनाई अधक-से-अधिक सुदृढ एवं स्थायी होगी। यह स्थाजाती है तब उसका पूरा-पूरा Detail विवरण और यित्व एवं परिष्कृतपना किसी भी व्यक्ति या समाजानकारी प्राप्त होती है जिससे वह पुजा कारखानेमें जकी उन्नतिके लिए अत्यन्त जरूरी है। इस रीतिको ठीक-ठीक with preonsion बन सकता है। यही छोड़कर हमने जबसे एक दूसरेकी बातें जाननेकी बात और मभी कामोंके लिए भी है-कि किमी भी मनाही करदी और अलग-अलग रहने लगे तभीसे वस्तु या प्रश्नका या विचारणीय विषयका हर पहल फट वैर, विरोध और संघर्षणोंकी वृद्धि हुई और
और दृष्टिकोण या हर तरफसे देखना और विचा- होती गई एवं हमारा दिन-ब-दिन मानसिक, शारीरना उसके विशद या अधिक-से-अधिक ठीक रिक एवं नैतिक हास होता गया और हमारा जानकारीके लिए अत्यन्त जरुरी है-इसके वगैर वैयक्तिक पतन होते-होते सामाजिक एवं राष्ट्रीय पतन जो भी जानकारी होगी वह सर्वागीण पूण, सही भी पर्णरूपसे होगया। इस मनोवृत्तिको दूर करके ही और दुरुस्त न होकर एकांगी और defective हम उन्नति कर सकते हैं और तभी हमारी सर्वाङ्गीण अपूण और विकृत या अधकचरी होगी। विज्ञान या सवतोमुखी विकास होसकता है अन्यथा नहीं। या वैज्ञानिक तरीकोंका जिस विषयमें भी उपयोग य द किसी तरह कुछ हुआ भी तो वह स्थायी' या किया जायगा वही तरतीबबार और अनेकान्तरूपी असली न होकर थोड़े समयके लिये और नकली ही होगा। तभी हमें वस्तुओंका सच्चा स्वरूप एव गुण होगा। हमें धार्मिक खंडन-मंडनको केवल जवानी ठीक-ठीक मालूम होसकेगे। हमने इसी अनेकांत जमा-खर्च ही तक सीमित रखना चाहिये उसे संघ
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अनन्ति
ऐसा करक हा पा
सकता।
पण या खला विद्वेष या लड़ाईका रूप नहीं लेने देना हो जायंगी या हो जाती है। हमारी भारतीय संस्कृत चाहिये, न उससे कटुता ही किसी तरहकी होनी ति या थक संस्कृतियों कितनी पुरानी हैं यह हमारे चाहिये । वस्तुका ठीक-ठीक असली स्वरूप जाननेके आधुनिक विशेषज्ञोंद्वारा अभी तक कुंछ निश्चित लिये यह खंडन-मंडन 'विशंद और निष्पक्षरूपमे नहीं हुआ है। पुराने खंडहर भग्नावशेष अभी चारों होना जरूरी है। ज्ञान किसी भी वस्तु या विपयका "तरफ भरे पड़े है जिनकी खाई बाकी है। अङ्ग
'रेजोंने जो कुछ थोड़ी बहूत खुदाई इधर उधर करके मान महा भगवान महावीर जैनधर्मके चौबीसवें और ; .... .. हमें जो कुछ बतलाया अभी तक हम उमीपर निर्भर
. हैं और सब किए बैठे है। पर श्रव हमारी स्वतंत्र आखरी प्रचारक, परिष्कारक या प्रवर्तक हुए हमें ए.
सरकारको चुप बैठना ठीक नहीं। अपनी संस्कृतिकी यह जानबूझकर हमारे, विदेशी सत्ताधिकारियोंद्वारा . यह बतलाया जाता रहा कि 'महावीर जैनधर्म मचा- प्राचीनता सावित करना परम आवश्यक है। मथगकी पक है या हुए। और यह केवल इसलिए कि भारत खुदाइस हमन एक-दृसरको नया कह कहकर देशकी
- 'बड़ी मारी होनि' की । अपनी "मारी संस्कृतियोंकी अपनी पुरानी और प्राचीनतम संस्कृतियोंको भूल प.
"प्राचीनताकी ही बड़-मंडल कर दिया । यह ठीक जाय । यदि संभव होता और ऐतिहासिक प्रमाण । नहीं रहते तो इन लोगोंने भगवान महावीर या बुद्ध- नहा को ईसासे पांच सौ वर्ष पूर्व होने के बजाय पाँचसो मंगवान ऋषभदेव जैनधर्मकं सबसे प्रथम 'वष 'बाद होना ही दिग्खलाते । यदि तिव्बत और 'तीधर या प्रचारक हुए। पहले जैनधर्म ही मना
चीनकी पुस्तके नहीं रहती तो महावीर और बुद्धकी तन मत्यपर निश्चित या नियेन होनेमे "सनातन 'सत्ता या होना ही शंकाजनक 'बेतलाई जाती या धर्म" कहा जाता था। पर इधा करीव एक हजार अधिक-से-अधिक गड़रियोंके सरदारके रूपमें ही रहते 'वाँसे जब मन इस शब्दको अपना लिया और या कुछ ऐसा ही होता । परन्तु वहाँ ये मजबूर थे जैनधर्मको “जैन” नामकरण दे दिया तबस यह
और कम-से कम इन्हें इन भारतीय धर्मोको पश्चि- 'बाय "मनातन धर्म" के "जैनधम" होगया । कुछ "म.य धर्मो एवं संस्कृतियोंसे पहलेका स्वीकार करना लोगोंन इस मनातन जैनधर्म कहकर प्रचारित करन'ही पड़ा। फिर भी इन्होंने लगातार यही चेष्टा की है की चेष्टा की पर वे सफल न हो सके । भगवान ऋषहमारे दिमागोमे भरन्की कि रोम, ग्रीस या मिश्र "भदेवक बाद समय 'समयपर सईम तीथकर और और बैवीलोनियां वगैरहकी संस्कृतियां भर्भारतीय · हए जिन्होंन उसी एक नियत या निश्चित सत्यका संस्कृतियोंसे पुरानी थीं या हैं या रही हैं। और इस प्रचार किया जिन्हें जैन तत्त्व या जैनधमके नार्मस बातकी शिक्षा या प्रचार इस तरीकोसे Incisscent आज हम जानते हैं । 'आखिरी चौवीस तीथङ्कर लगातार की गई है कि हमारे विशेषज्ञोंने भी वैसा · भगवान महावीर हुए जिनका पावन जन्म आज़म ही मानना ठीक समझा जाने लगा या समझा गया। पच्चीममौ वर्ष पहले वैशाली के लिच्छवी वशके यदि केवल जैनधर्मको ही लिया जाय और उसकी , प्रजातत्रके राजवंशमें हुआ । उन्होंने विवाह नहीं 'प्राचीनताका ठीक unbiased 'अनुमंधान किया किया | बाल-ब्रह्मचारी रहे । वयस्क होनेपर उन्होंने
जाय और धार्मिक विद्वेष-भावना या हम घड़े तो संसारके दुःखोंको देखकर उसे दूर करनेका उपाय ..हम बड़ेकी भावना छोड़कर देखा जाय तो इससे जाननेके लिये राज्य छोड़कर कठिन तपस्या प्रारंभ भारतका गौरव बढ़ेगा ही । और भारतकी की। तपश्चर्या के पश्चात् जिम सत्यपर वे पहुँचे संस्कृतिकी प्राचीनतमता अपने आप मावित वह वही सनातन वैज्ञानिक मत्य था जिसे हम
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किरण १]
भगवान महावीर, जैनधम और भारत
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जैनधर्ममें व्यक्त पाते हैं। पूर्णज्ञान प्राप्त करनेके भी गिराया। फिर भला समाज और देशका पतन बाद उनका प्रथम उपदेश राजगृहमे जिसे आजकल न होता तो और क्या होता। नतीजा हुआ कि हमने 'राजगिर' कहते हैं वहाँ एक महती सभामें श्रावण- सदियों तक गुलामी भुगती और अब भी जब स्ववदि प्रतिपदाको हुआ, जो तिथि वीर-शासन-जयन्ती- तंत्र हुए हैं तब हमारा मानसिक और नेतिक धरातल के रूपमें आज एक पावन पर्वका रूप धारण इतने नीचे चला गया है कि हम अपनी इस स्वतकिए हुए है। कहते हैं कि उस सभामें मनुष्य त्रताका वास्तविक फल एकदम नहीं पा रहे हैं।
और मनुष्यनियों के अतिरिक्त सभी जीवमात्र-पशु- हमारे ऊँचे नेता चिल्ला-चिल्लाकर थक से रहे हैं पर पक्षी वगैरहके बैठनेका प्रबन्ध किया गया था और हमारा धर्मान्धकार अब भी जल्दी नहीं हटता। भगवानके तीन अहिंसामय तेजसे बिचकर अन- संसारमें सभी जीव बराबर हैं-सभीमे वह आत्मा गिनत पशु-पक्षी आए थे और उन्होंने भी उनकी है जो किमी भी एक आदमीमें है। जैनधर्म मानवीय अमृतवाणीके स्पर्शमात्रसे ज्ञान प्राप्त किया। मानवों- बराबरी ही क्यों वह तो सार्वभौम एवं अग्विल का तो फिर पूछना ही क्या। आज तो हम मनुष्य भूतको बराबरी तथा ऊपर आनेका और ईश्वरत्व मनुष्यको एक माथ एक मभामें बैठने देना पसन्द प्राप्त करने का सत्व या जन्मसिद्ध अधिकार मानता नहीं करते। ऊँच-नीच, छत-अछत वगैरहका इतना और कहता है-भले ही आज हम अपनी अज्ञानता भेद-भाव बढ़ा रखा है कि जो अपनेको बड़ा, एवं वहममें इसे अन्यथा मानते या कहते रहें यह ऊँचा या पवित्र समझते हैं उन्होंने अपने इसी दूसरी बात है । कुछ स्वार्थियोंने अपना नीच मतलब घमंडमें धर्म या धार्मिक तत्वोंकी अमलियतको छोड़ गाठनेके लिए हर-तरहके गलत-फलत या गन्दी ढोंग और मायाचारको अपना लिया और उसीको बुरी रीतियां या विश्वास फैला दिये और धार्मिक धर्माचार समझकर पतन होते-होते एकदम नीचता- तत्वोंका मतलब अपने मन-माना जैसा-चाहा विकृकी सीमाको पार कर गये। अपने पूज्यपना या तरूपमें लोगोंको समझा दिया । यही सारे अनर्थीका पवित्र होनेके मिथ्याभिमानमें इन लोगोंने अपनी मूल रहा है। उन्हीं विकृत बातों-रीतियों या रूढ़िविशेष मानसिक बौद्धिक एवं नैतिक उन्नति करना योंको हम आज भी वगैर सोचे समझे पकड़े हुए छोड़ दिया और अपने बड़प्पन, पूज्यपना या ऊँचे हैं। यदि कोई इनसे खलाफ (विरुद्ध) कुछ कहना होनेके घमंडमें या उसे अक्षुण बनाये रखनेके लिए चाहता है तो उसे वजाय सुननेक हम मारने या इन थोड़ेसे लोगोंने अगणित लोगोंको अपनी मामा काटने दौड़ते है। पर इससे तो धर्मकी ही हानि जिक शक्ति या प्रभावद्वारा नीच. अच्छत या अपवित्र सर्वत्र होरही है। धर्म और धर्मके साथ ही सब कहकर उन्हें ऐमा बनाए रखा और ऐमा बने रहनेके कुछ नीचे चलता जाता है । अब भारत स्वतंत्र हुआ लिये हर-तरहसे मजबूर और बाध्य किया-इम और जरूरत इस बातकी है कि हम विदेशी प्रभावसे तरह स्वयं पतित हुए और दमगेको भी पतित मुक्त इस वातावरणमें स्वयं कुछ मोचे समझे और वि. किया । और इस डरसे कि कहीं सुशिक्षित या चारे एवं हर-एककी बात जाननेकी चेष्टा करेसुसंस्कृत होकर ये पतित या नीच कहे जानेवाले वगैर किसी विरोध या Bias के-तभी हमें सत्यसे कहीं उन लोगोंसे ऊपर न आजा जो पवित्र या भेंट होगी और फिर हम अपने या धर्मकी असलिऊँचे कहे जाते हैं-इन ऊँचे कहे जानेवालोंने उनको यतको सचमुच पावेंगे । और तभी हमारी एवं हर-तरहसे बौद्धिक मानसिक एवं नैतिक विकास हमारे धर्मकी, हमारी जातिकी, हमारी संस्कृतिकी, करनेसे रोक दिया। आप भी गिरे और दमरोंको देशकी स्थायी उन्नति होगी और होती जायगी।
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अनेकान्त
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ऐसा यदि हम करेंगे तो मेरा विश्वास है कि विज्ञानका दारोमदार है। पर इस Election पुनः एक समय ऐसा आवेगा जब लोग जैनधर्मकी Theory की व्याख्या अपने विशद एवं व्यवस्थित महत्ताको, उसकी वैज्ञानिकताको एवं सर्वप्रियता तथा सूक्ष्मरूपमें सब कुछ जाननेवाले सर्वज्ञ जैनतथा सच्चाईको मानने और समझने लगेगे। तीर्थकरोंद्वारा पहले ही की गई है, जिसे शायद
भगवान महावीर केवल जैनधर्मके ही नहीं, अभी हमारे आधुनिक वैज्ञानिक कुछ और आगे जब विश्वके लिए परमपूज्य हुए और उन्होंने विहार बढेंगे तब पावेगे कि हाँ, जो कुछ जैनधर्ममें पुद्गल प्रान्तको ही नहीं सारे देश और इस पृथ्वीको भी और जीवके बारेमें कहा गया है उसीके ऊपर सारे अपने चरणोंसे पवित्रता प्रदान की। अतः विहारको मंमारका अस्तित्व है। जैनधर्ममें वार्णित ६ तत्वोंको ही क्यों सारे भारतको भगवान महावीरके लिए गर्व लोग भले ही अपने धार्मिक अहमें न माननेका दावा है और होना चाहिये । महात्मा गांधीने भी भगवान करते हों, पर आज तक हजारों वर्षोंसे भी किसीने महावीरकी जीवनीसे अहिंसाका व्यावहारिक ज्ञान उनका खडन अब तक नहीं किया है-न जिन्होंने लिया और युग बदल दिय।
चेष्टा की है वे सफल ही हो पाये हैं। जैनधर्म और आज हमारे वैज्ञानिक जैनधर्मके सूक्ष्म वैज्ञानिक इसके तत्वोंकी विशद वैज्ञानिक जानकारी हर तरह प्रतिपदन या तत्वोंसे एकदम अज्ञान है और सम- किमी भी व्यक्तिको ऊपर ही उठावेगी एवं देश या झते हैं कि विज्ञानका Election या low Theopv संसार भी इसी तरह ऊपर उठ सकता है तथा पश्चिमसे निकला है-जिसके ऊपर आज सारे सच्चा सुख और स्थाई शान्ति स्थापित होसकती है।
कीर-शासन-जयन्ती
( श्री जिनेश्वरप्रसाद, जैन)
श्रावण कृष्णा प्रतिपदाका पुण्य-दिवस श्री अजर, अमर, अनन्त गुणोंके पिण्ड शुद्ध-बुद्ध-सिद्ध१००८ भगवान महावीर स्वामीका शासन-जयन्ती स्वरूपको प्राप्त करो, जिससे मंसारके दुःखोंसे छूटदिवस है। इस दिन आजसे लगभग २५०० वर्ष पूर्व कर निजानन्दरसमें लवलीन हो सको।' भगवानके भगवानका प्रथम उपदेश उस समयके प्रकाण्ड- प्रथम आध्यात्मिक उपदेशका सार यही था। हम तत्त्ववेत्ता गौतम इन्द्रभूतिके मिलते ही विहारप्रान्त- सबको उसपर चलकर आत्म-कल्याण करना चाहिए की राजगृही नगरीके विपुलाचलपर हुआ था। और शासन-जयन्तीके स्मरणार्थ अपना कर्तव्य
भगवानने अपने उपदेशमें कहा कि 'ऐ जगतके पालन करना चाहिए। प्राणियो ! तुम शरीरसे ममत्वका त्यागकर आत्माके
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प्राप्तकी घद्धाका फल (श्री १८५ क्षुल्लक पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी)
श्रात्मानुशासनमें गुणभद्र स्वामी लिखते हैं :- ऊपर पुरुषत्वका वेष यह शोभा नहीं देता। सर्वः प्रेप्सति सत्सुखाप्तिमचिरास्सा सर्वकर्मक्षयात्, एक आदमी था । शरीरका सुन्दर था। उसने
सदवृत्तात्स च तच्च बोधनियतं सोऽप्यागमान्स श्रुतेः। स्त्रियों जैसे हाथ मटकाना और आंख चलाना सीख सा चामात्स च सर्वदोषरहितो रागादयस्तेऽप्यत- लिया । राजाका दरबार भरा था। अच्छे-अच्छे लोग
स्तं युक्त्या सुविचार्य सर्वसुखदं सन्तः श्रयन्तु श्रियै॥ उसमें बैठे हुए थे। वह आदमी भी स्त्रीके वेष में
'संसारके यावन्मात्र प्राणी सुख चाहते है, सुखकी वहाँ पहुँचा। सब लोग उसे देखकर हँसने लगे। प्राप्ति समस्त कर्मोंके क्षयसे हो सकती है। वह को- सबसे बड़ा जो आफीसर था वह भी हँसने लगा। का क्षय सम्यकचारित्रसे हो सकता है। सम्यक
उसने कहा हँसनेकी क्या बात है ? तुम लोग अंत. चारित्र सम्यग्ज्ञानसे सम्बन्ध रखता है। सम्यग्ज्ञान
रङ्गसे स्त्री हो और मैं बहिरङ्गका । यदि तुम अन्तआगमसे होता है, आगम श्रतिसे होता है. अति रङ्गक स्त्री न होते तो इतनी बहुसंख्यक जनताके आप्तसे होती है और आप्त वह है जिसके रागादि ऊपर मुट्ठी भर लोग राज्य कैसे करते ? वास्तवमें दोष नष्ट हो चुके हैं । इस प्रकार युक्तिद्वारा विचार यही बात है, तुम्हारा राज्य तुम्हारे प्रमाद और कर सर्व सुखोंको देनेवाले श्रीअरहन्तदेवकी उपा- तुम्हारी कायरतासे गया है । अग्रेजोंने और मुसलमना करो, उसीसे इहलौकिक और पारलौकिक लक्ष्मी माननि क्या किया ? उस समय तुम्हारी जैसी प्राप्त हो सकती है।'
हालत थी उसमें यदि अंग्रेज न आते तो कोई उनके यथार्थमें प्राप्त भगवानकी श्रद्धा बड़ा कल्याण
दादा आते । इतना खयाल अवश्य रक्खो कि अपनेकरनेवाली है। आप्त उस पवित्र आत्माको कहते द्वारा किसीका बुरा न हो जाय, पर जो तुम्हारा हैं जिसके हृदयसे रागादि दोष और ज्ञानावरणादि
विघात करनेको आवे उससे अपनी रक्षा जिस तरह आवरण निकल चुके हैं, जो सर्वज्ञ है और मोक्षमार्ग- बने कर सकते हो, ऐसी जिनागमकी आज्ञा है। का नेता है ऐसे आप्तके सुदृढ़ श्रद्धानसे यदि जीवका गुरु वही है, जो साक्षात्मोक्षमार्ग में प्रवेशकर कल्याण नहीं होगा तो किससे होगा ? भयसे आप चुका है, ऐलक मुनिकी सब क्रिया पालते हैं पर लोगोंके चेहरे सूख रहे है, कहते फिरते हो कोई उनकी एक हाथकी लंगोटी उनके गुरु होनेमें बाधक हमारा रक्षक नहीं है। संसारमें कौन किसकी रक्षा है। मेर तभी होगा जब ८० तोलेका होगा. चार करता है। आप लाग शूरवीरताको भूल गये इस आना भर भी कम रहनेपर सेर नहीं कहला सकता. लिये दुःखी होगये। शूरवीर ही संसारका मार्ग पर अंशतः गुरुत्व तो उनमें भी है । गुरुत्व ही क्यों? चलाता है और शूरवीर ही मोक्षका मार्ग चला प्राप्तपना भी अंशत: उनमें प्रकट हो जाता है। सकता है। आप पुरुष हैं। पुरुष होकर इतने भय- संयमियोंकी बात जाने दीजिये, अविरत सम्यग्द्रप्रिं. भीत होनेकी क्या आवश्यकता ? यदि आप अपनी में भी प्राप्तका अंश जागृत हो जाता है इसीलिये रक्षा नहीं कर सकते तो लुगी पहिन लो, पुरुषत्वका तो उसे 'घरमांहि जिनेश्वरका लघुनंदन' कहा। गर्व छोड़ दो । अन्तरङ्गमें स्त्री जैसी भीरुता और यथार्थ देव, गुरु और धर्मकी भक्ति करना
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अनेकान्त
[वर्ष १०
श्रावकका मुख्य कर्तव्य है । आगमका अध्यन करना के सामने चूहा डरकर रह गया । उसने समझा यही महोपकारी है। यदि आगमके ज्ञाता न हों तो आपकी बलवान् है इसे पूजना चाहिये । एक दिन कुत्ता सभाओं और मन्दिरोंकी शोभा कैसे होमकेगी। प्राया। उसके सामने बिलाव डर गया। अब वह कुत्तेउन पत्थरके खम्भोंसे म.न्दरकी शोभा नहीं है, को पूजने लगा। परदेशसे कुत्ते को साथ ले आया। ज्ञानवानोंसे मन्दिरकी शोभा है। लोग कहते हैं कि एक दिन कुत्ता चौकामें चला गया। स्त्रीने उसके इन विद्यालयोंमें हमारा लाखों रुपया व्यर्थ चला शिरमें वेलन जमा दिया । वह कई-कई करता हुआ गया, कुछ भी लाभ नहीं हुछा। पर मैं कहता हूँ कि भागा । पुरुषने सोचा यह स्त्री कुत्तेसे बड़ी है इसे ही तुम्हारे (सागर) विद्यालयसे ये तीन विद्वान (प० दया- पूजना चाहिये । अब वह उसे पूजने लगा। एक दिन चन्दजी, पन्नालालजी, माणकचन्दजी) तैयार होगये तो स्त्रीने दालमें नमक अधिक डाल दिया जिससे उस तुम्हारा लाखोंका खर्च सफल होगया। तुम्हीं सोचो पुरुषने उसके शिरमें एक चांटा मार दिया। वह रोने ज्ञानके बिना क्या शोभा ?
लगी। पुरुषने समझा अरे इससे बलवान तो मैं ही हूँ। देवकी पूजाका अभिप्राय यह नहीं कि उन्हींको मुझे स्वयं अपने आपकी पूजा करना चाहिये । मो हमेशा पूजते रहो। अरे ! वह तो तुम्हारा रूप है। भैया ! कल्याण तभी होगा जब आप अपनी पूजा वैसा तुम्हे बनना है। उपादान तो तुम्ही हो। करने लगेंगे, लेकिन जब तक वह दशा प्राप्त नहीं प्रयत्न तो तुम्हींको करना है। श्रीजिनेन्द्र देव निमित्त- हुई है तब तक देव आदिको पूजना ही है। मात्र है। आपका बच्चा पढ़ गया, पंडितजीने पढ़ा कुदेव, कुगुरु और कुधर्मकी सेवा करना सो दिया । क्षयोपशम बच्चेकी आत्मा में था। प्रयत्न अधर्म है । जो स्वयं रागी-द्वेषी है, विषय-वासनाओंउसने किया, पर उसका श्रेय पंडितजीको दिया जाता मे आसक्त है उसकी आराधनासे कल्याण होगा, है, यह निमित्तकी प्रधानतासे कथन है। निमित्तकी यह मंभव नहीं । जहाँ धमके नामपर मैं-मैं करते प्रधानतासे ही देवको कल्याणकारी माना जाता है, हुए निबल जन्तुओंके गलेपर छुरी चला दी जाय उपादानकी अपेक्षासे नहीं। यथार्थमे आपकी आत्मा वह क्या धर्म है ? ऐसे धर्मसे क्या किमीका कल्याण ही देव है वही पूज्य है। एक किस्सा है। आप होसकता है ? कल्याण तो उस धर्मसे होगा जिसमें लोगोंने कई बार सुना है। फिर भी कहता हूँ :- प्राणिमात्रका भला चाहा जाता है। एक पंडित थे ____ एक आदमी था। उसकी स्त्री थी। स्त्री बड़ी मन्मथ भट्राचार्य । बोले जैनधर्मने भारतवर्षको वरचतर थी। जब उसका पति परदेश जाने लगा तो वाद कर दिया। इनकी अहिंसाने दुनियाको कायर उसे डर लगा कि यह वहाँ धर्मभ्रष्ट न हो जाय। बना दिया। दूसरा एक समझदार वहीं था । उसने जाते समय उसने उम एक गोलवटैया दी और कहा उत्तर दिया । जैनधर्मने भारतको वरवाद नहीं किया, कि इनकी पूजा किये बिना खाना नहीं खाना और जब जैनधर्म कायरता नहीं मिखाता । वह इतना वीरतापूजा करो तब इनके सामने प्रतिज्ञा किया करो कि पूर्ण धर्म है कि उसे यदि कोई घानीमें भी पेल देवे 'मैं पाप नहीं करूँगा।' पुरुष था भोला-भाला, उसने तब भी उफ नहीं करे। भारतवर्षको नए किया है स्त्रीकी बात मान ली। वह एक दिन पूजा करके कहीं हमारी विषयासक्तिने, हमारे प्रमादने, गया कि इतनेमें चूहाने वटेयापरके चावल खा लिये री फूटने ।
और उसे लुड़का दिया। उसने समझा कि इस V संसार भरकी दशा बड़ी विचित्र है। कलका वटैयासे बड़ा तो यह चूहा है इसे ही पूजना करोड़पति आज भीख मांगता फिरता है। ससारकी चिहिये । वह चूहाको पूजने लगा । एक दिन विलाव- दशा एक पानीके बबूलेके समान है। संसारी जीव मोह
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फिरण १]
आप्तकी श्रद्धाका फल
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के कारण अन्धा होकर निरन्तर ऐसे काम करता है “इति स्तुति देव ! विधाय दैन्यावरं न याचे स्वमुपेक्षकोऽसि । जिससे उसका दुख ही बढ़ता है। यह जीव अपने छाया तरु संश्रयत: स्वतः स्यात्करछायया याचितयात्मलाभः॥" हाथों अपने कंधेपर कुल्हाड़ी मार रहा है। यह हे देव ! आपका स्वतवन कर बदलेमे मै कुछ जितने भी काम करता है प्रतिकूल ही करता है। चाहता नहीं हूँ और चाहूँ भी तो आप दे क्या संसारकी जो दशा है, यदि चतुर्थकाल होता तो उसे सकते हैं। क्योंकि आप उपेक्षक है-आपके मनमें देखकर हजागें आदमी दीक्षा ले लेते । पर यहाँ कुछ यह विकल्प ही नहीं कि यह मेरा भक्त है इलिये परवाह नहीं है । चिकना घड़ा है जिसपर पानीकी इसे कुछ देना चाहिये । फिर भी यदि मेरा भाग्य बूद ठहरती ही नहीं। भैया! मोहको छोड़ो, रागादि- होगा तो मरी प्रार्थना और आपकी इच्छाके बिना भावोंको छोड़ो, यही तुम्हारे शत्र है, इनसे बचो। ही मुझे प्राप्त हो जायगा। छायादार वृक्षके नीचे वस्तुतत्त्वकी यथार्थताको समझो। श्रद्धाको दृढ पहुँचनपर छाया स्वयं प्राप्त होजाती है। आपके राखो। धनंजय सेठके लड़केको सांपने काट लिया, आश्रयमें जो आयेगा उसका कल्याण अवश्य होगा। वेसुध होगया। लोगोंने कहा वैद्य आदिको बुलाओ, आपके आश्रयसे अभिप्राय शुद्ध होता है और अभिउन्होंने कहा वैद्योंसे क्या होगा ? दवाओंसे क्या प्रायकी शुद्धतामे पापाम्रब रुककर शुभास्रव होन होगा ? मंत्र-तंत्रोंसे क्या होगा ? एक जिनेन्द्रका लगता है। वह शुभाम्रव ही कल्याणका कारण है। शरण ही ग्रहण करना चाहिये। मंदिरमें लड़केको
देखो ! छाया किसकी है ? आप कहोगे वृक्षकी, लेजाकर सेठ स्तुति करता है :
पर वृक्ष तो अपने ठिकानेपर है। वृक्षके निमित्तसे "विघापहारं मणिमपिधानि मन्त्र पहिश्य रसायनं च।
दृश्य रसायन च। सूर्यकी किरणे रुक गई, अतः पृथिवीमे वैसा परिणभ्राम्यन्यहो न त्वमिति स्मरन्ति पर्यायनामानि तवैव तानि ॥" मन होगया, इसी प्रकार कारणकूट मिलनेपर ___ इस श्लोकके पढ़ते ही लड़का अच्छा होगया। आत्माम रागादिभावरूप परिणमन होजाता है। लोग यह न समझने लगे कि धनंजयने किसी वस्तु- जिसप्रकार छायारूप होना आत्माका निजस्वभाव की आकाक्षासे स्तोत्र बनाया था, इसलिये वह स्तोत्र- नहीं है। यही श्रद्धान होना तो शुद्धात्मश्रद्धान के अन्तमे कहते है :
है-सम्यग्दशन है।
(मागर-चतुर्माम्पमें दिया गया वीजीका एक प्रवचन)
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साहित्य-परिचय और समालोचन
इस स्तम्भमें समालोचनार्थ पाये नये ग्रन्थादि साहित्यका परिचय और समालोचन किया जाता है। समालोचनाके लिये प्रत्येक ग्रन्थादिकी दो-दो प्रतियाँ पानी जरूरी है।
-१० सम्पादक] १. मोक्षमागंप्रकाश-लेखक, आचार्यकल्प प्रकाशक भारतीयज्ञानपीठ काशी, पृष्ठ संख्या ३५४ पं० टोडरमलजी । सम्पादक पं० लालबहादर शास्त्री। मूल्य सजिल्द प्रतिका तेरह रुपया। प्रकाशक, भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरामी- प्रस्तुत ग्रन्थका विषय उसके नामसे स्पष्ट है। मथुरा। पृष्ठ संख्या, सब मिलाकर ४२८ । नूल्य, इसमे जैन-मठ, जैनसिद्धान्तभवन, सिद्धान्तवसदि मजिल्द प्रतिका आठ रुपया।
आदि शास्त्रभंडार मूडबिद्री, जैनमठ कारकल और पुस्तुत ग्रन्थ पंडितप्रवर टोडरमलजीके मोक्षमार्ग- आदिनाथ ग्रन्थभण्डार अलिपूर आदि स्थानोंके भप्रकाशका हूँ'ढारी भाषासे खड़ी भाषामें अनूदित एडारोंमें स्थित ताडपत्रीय ग्रन्थोंकी एक सूची है। उक्त संस्करण है। इस मंस्करणमें भापापरिवर्तनके साथ सूचीका संकलन भारतीयज्ञानपीठ काशीकी कन्नड विषयको स्पष्ट करनेके लिये अनेक ग्रन्थोंके आधारसे शाखाके द्वारा हुआ है। दि० जैन समाजमें विविध टिप्पण भी फुटनोटमें दिये गये हैं जिनसे जैनेतरग्रन्थ- प्रान्तोंके समस्त शास्त्र-भण्डारोंमें स्थित ग्रंथोंकी एक कागेकी मान्यताओंका भली-भांति परिचय मिल जाता मुकम्मल सूचीकी बहुत आवश्यकता है, उसका है। और ग्रन्थगत विशेष कथनोंको स्पष्ट करनेके लिये अभाव पद-पदपर खटकता है, जबकि श्वेताम्बपरिशिष्ट भी लगाये गये हैं। इमसे स्थलोंका अच्छा रीय समाजके शास्त्र भण्डारोंकी कई विशाल-सूचियां बोध होजाता है।
प्रकाशित हो चुकी है। प्रस्तुत सूचीके प्रकाशनसे ग्रन्थके आदिमें ५० पृष्ठकी महत्वकी प्रस्तावना
उसकी आंशिक पूर्ति हो जाती है। खेद है कि हमें है जिसमें प्रन्थकर्ता पं० टोडरमलजीके जीवन-इनिवृत्त
अभी तक भी इस बातका पता नहीं है कि हमारे पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है और उनकी कृति
पास कितनी शास्त्र-सम्पत्ति है। अस्तु, भारतीय योंका सामान्य परिचय भी दिया गया है। पंडि
ज्ञानपीठ काशीद्वारा किया गया यह प्रयत्न प्रशंसतजीका निश्चित जन्म-मंवन अभी और वि
नीय है। आशा है ज्ञानपीठ इस दिशामें और भी चारणीय है।
प्रयत्नशील होगी।
इम संस्करणमें कितनी ही अशुद्धियाँ रह गई है। इस संस्करणमें कुछ अशुद्धियाँ रह गई है जो
प्रस्तावके पृष्ठ २६ पर अप्रकाशित ग्रंथोंकी जो तालिका खटकने योग्य है फिर भी सम्पादकजीने इस संस्करणके
दी गई है उसमें ५५ नम्बरका ग्रन्थ प्रद्य म्रचरित पीछे जो परिश्रम किया है वह सराहनीय है। संघने
है जो महाकवि महासेनकी अनुपम कृतिरूपसे प्रमिद्ध इम संस्करणको प्रकाशितकर खड़ी भाषा-प्रेमी
है। वह अपने मूलरूपमें सं०१९७३ में माणिकपाठकोंका एक बड़ा हित किया है इसके लिये वह
चन्द दिगम्बर जैन-ग्रन्थमाला, बम्बईद्वारा प्रकाशित अवश्य धन्यवादाह है। सफाई-छपाई अच्छी है। स्वा
हो चुका है जिसका नं०८ है। अतः उसे अप्रकाशित ध्याय प्रेमियोंको इसे मंगाकर अवश्य पढ़ना चाहिए। ग्रन्थोंकी तालिकामें नहीं रखना चाहिये।
२. कन्नड-प्रान्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थ-सूची--- सूचीके १२६ वें पृष्ठपर मूडबिद्रीके जैन-मठके मम्पादक पं० के. भुजबली शास्त्री, मूडबिद्री, ताडपत्रीय ग्रन्थोंकी सूची देते हुए ११५ वें नं० पर
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किरण १]
साहित्य-परिचय और समालोचन
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वादिराजकृत 'यशोधर-काव्य' का परिचय दिया है टीका थी तो उसके अन्तकी प्रशस्तिके पद्य भी
और लिखा है कि इसमें स्वोपज्ञ संस्कृत टीका भी उद्धृत कर दिये जाते जिससे फिर शंकाको कोई है और विशेषद्वारा उस टीकाको क्षेमपुरके नेमिनाथ- स्थान नहीं रहता। अस्तु, दोनों ग्रन्थोंकी चैत्यालयमें रचे जानेका भी समुल्लेख किया है। ३२ पत्रात्मकसंख्या, और क्षेमपुरके नेमिनाथचैत्यावादिराजने अपने किसी काव्य-ग्रन्थपर स्वोपज्ञ लयमें निर्माण ये दोनों बातें विचारणीय हैं। क्योंकि टीका लिखी हो, यह ज्ञात नहीं होता। उनके दोनों टीकाओंका एक ही स्थानमें निर्माण होना यशोधर-काव्य और पार्श्वनाथ-चरित दोनों ही ग्रन्थ अवश्य ही विचारणीय है। छपाई-सफाई प्रायः मुद्रित हो चुके हैं, पर उनकी स्वोपज्ञ टीकाओंका कोई अच्छी है। यह ग्रन्थ प्रत्येक पुस्तकालयमें संग्रह परिचय नहीं है। मालूम होता है कि किसी अन्य करने योग्य है। विद्वानकी टीकाको ही 'स्वोपन' भूलसे लिया गया है; क्योंकि उसी सूचीके १३० वें पृष्ठपर १२६ ३ ३. हिन्दी-पद्य-संग्रह-सम्पादक-मुनि कान्तिसागर नम्बरके ग्रन्थ 'यशोधर-काव्य-टीका' के, जिसका रच- प्रकाशक-श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान-भंडार, सूरत । पृष्ठयिता पंडित लक्ष्मण है और जिसकी पत्र-संख्या भी संख्या ६८।। ११५ नम्बरके ममान ३२ वतलाई गई है, अन्तिम प्रस्तुत पुस्तकमें विभिन्न कवियोंद्वारा संकलित प्रशस्तिके दो पद्य सूचीमें निम्नरूपसे दिये हुए हैं :- नगरोंकी परिचयात्मक गजलोंका संग्रह है जो ऐति"अकारयदिमा टीका चिक्कणो गुणरक्षणः।
हासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इनसे उन नगरोंकी अफरोजिनदासोऽयं चिक्कणान्मजलक्ष्मणः ॥१॥
तत्कालीन परिस्थितिका चित्र सामने आजाता है। श्रीमत्पद्मणगुम्मटेन्यभिहित श्रीवर्णिनौ भूतले,
दि० जैनशास्त्र-भंडारोंमें इस प्रकारकी अनेक गजले, भ्रातारौश्चारुचरित्रवाधिहिमगृ तत्प्रीतये लक्ष्मणः ।
कवित्त तथा लावनियाँ पाई जाती हैं जिनमें उनकी मन्दो बन्धुरवाटिराजविदुषः काव्यस्य कल्याणदां,
ऐतिहामिक परिस्थितिके माथ वहाँकी जनताकी टीका तेमपुरेऽकरोद् गुरुनरश्रीनेमिचन्यालये।"
धार्मिक परिणतिका भी परिज्ञान होजाता है। मुनिजीइन पद्योंसे स्पष्ट मालूम होता है कि यशोधर
का यह कार्य प्रशंसनीय है। आशा है वे इस काव्यकी इस टीकाको लक्ष्मणने अपने पिताके अनु
प्रकारकी अन्य ऐतिहामिक कविताओंका भी संग्रह रोधमे बनाई है और अपने दोनों भाई पद्मण और
प्रकाशित करनेका प्रयत्न करेंगे।
प्र गुम्मट वणिद्वयके कहनेसे उनके प्रेमवश क्षेमपुरके पुस्तकके अन्तमें बतौर परिशिष्टके गजलोंमें वृहत नेमिनाथ-चैत्यालयमे उसे रचा है। बहुत प्रयुक्त हुए नगर, ग्राम, राजा, मंत्री, मेठ और संभव है दूसरी प्रतिमें, जिसका ऊपर उल्लेख श्रावक-श्राविकाओंके नामोंकी सूचीका न होना खटकिया गया है यही टीका साथमें अंकित हो, कता है। आशा है अगले संस्करणमें इस बातका जिम स्वोपन बतलाया गया है, यदि वह स्वोपज्ञ ध्यान रखा जावेगा।
-~-परमानन्द जैन, शास्त्री
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सम्पादकीय
अनेकान्तका नया वर्ष
और जिन वर्षों में अनेकान्तको घाटा न रहकर कुछ बचत ही इस किरणके साथ अनेकान्तका १० वाँ वर्ष प्रारम्भ रही थी। यहाँपर एक बात खासतौरसे नोट कर देनेकी है जो होता है और यह वर्षारम्भ श्रावण कृष्ण प्रतिपदाकी उस हाल में देहली म्यूजियमके सुपरिन्टेन्डेन्ट डा. वासुदेवशरणपुण्यतिथिसे किया जारहा है जो प्राचीन भारतका नव वर्ष जी अग्रवालने मिलनेपर कहा जिसका सार इतना ही है दिवस new years day है तथा जिस दिन श्रीवीरभग- कि देवमूर्ति और देवालय निर्माण तथा प्रतिष्ठादि कार्योंधानको प्रथम दिव्यध्वनि-वाणी विपुलाचलपर्वतपर खिरी में जिस प्रकार आर्थिक दृष्टिको लक्ष्य में नहीं रक्खा जाताथी-उनका शासनतीर्थ प्रवर्तित हुआ था-और जो लोकमें अर्थोपार्जन उसका ध्येय नहीं होता उसी प्रकार सरस्वतीवीरशासनजयन्ती पर्वके रूपमें विश्रत है। अब अनेकान्त देवीको मूर्ति जो साहित्य है उसके निर्माणादि कार्योंमें देहलीसे प्रकाशित हुश्रा करेगा और देहली के अकलंकप्रेममें आर्थिक दृष्टिको लक्ष्यमें नहीं रखना चाहिये । प्रयोजन उनउसके छपानेकी योजना की गई है। प्रेसने समयपर पत्र- का यह कि अनेकान्तको शुद्ध साहित्यिक तथा ऐतिहासिक को छापकर देनेका पुख्ता वादा किया है और वह एक पत्र बनाना चाहिये और उसमें महत्वके प्राचीन ग्रन्थोंको सप्ताहमें एक किरणको छाप देनेके लिये वचनबद्ध हुआ है। भी प्रकाशित करते रहना चाहिये। जैनसमाजमें साहित्यिक छपाईका चार्ज और देहलीका खर्च बढ जानेपर भी प्रचार- रुचि कम होनेसे यदि पत्रकी ग्राहकसंख्या कम रहे और की दृष्टि से मूल्य वही २) रु० वार्षिक ही रक्या गया है। इतने उससे घाटा उठाना पड़े तो उसकी चिन्ता न करनी मूल्यमें पत्रका खर्च पूरा नहीं हो सकता उस वक्र तक जब चाहिये-यह घाटा उन सज्जोंके द्वारा पूरा होना चाहिये तक कि पत्रकी ग्राहकसंख्या हजारोंकी तादादमें न बड़े जो सरस्वती अथवा जिनवाणी-माताकी पूजा उपासना और कोई भी पत्र हानि उठा कर अधिक समय तक किया करते हैं और देव गुरु-सरस्वतीको समान-दृष्टिम जीवित नहीं रह सकता । पिछले वर्ष जो घाटा रहा उसे देखते है । ऐसा होनेपर जैनसमाजमें साहित्यिक रुच भी वृ. देखते हुए इस बचे पत्रको निकालनेका साहस नहीं होता द्विको प्राप्त होगी, जिससे पत्रको फिर घाटा नहीं रहेगा और था परन्तु अनेक सज्जोंका यह अनुरोध हुआ कि अनेकान्त- लोकका जो अनन्त उपकार होगा उसका मूल्य नहीं प्राँका को बन्द नहीं करना चाहिये, क्योंकि इसके द्वारा कितने जा सकता-स्थायी साहित्यसे होनेवाला लाभ देवमूर्तियो ही महत्वके साहित्यका गहरी छान-बीनके साथ नव-निर्माण प्रादिसे होनेवाले लाभसे कुछ भी कम नहीं है । बात बहुत
और प्राचीन साहित्यका सुसम्पादन होकर प्रकाशन होता अच्छी तथा सुन्दर है और उसपर जनसमाजको खासतौरसे है, जो बन्द होनेपर रुक जायगा और उससे समाजको भारी ध्यान देकर अनेकान्तकी सहायतामें सविशेष रूपसे हानि पहुँचेगी। इधर बीरसेवामन्दिरके एक विद्वान्ने सावधान होना चाहिये, जिससे अनेकान्त घाटेकी चिन्तास निजी प्रयत्नसे १०० और दूसरे विद्वान्ने २०० नये मुक्र रहकर प्राचीन साहित्यके उद्धार और समयोपयोगी नवग्राहक बनानेका दृढ संकल्प करके प्रोत्साहित किया । उधर साहित्यके निर्माणादि कार्योंमें पूर्णतः दत्तचित्त रहे और इस गुण-ग्राहक प्रेमी-पाठकोंसे यह प्राशा की गई कि वे तरह समाज तथा देशको ठीक-ठीक सेवा कर सके । अनेकान्तको अनेक मार्गोंसे सहायता भेजकर तथा भिजवा अनेकान्तकी सहायताके अनेक मार्ग है जिहे पाठक अन्यत्र कर उसी प्रकारसे अपना हार्दिक सहयोग प्रदान करेंगे प्रकाशित 'अनेकान्तकी सहायताके मार्ग' इस शीर्षकपरसे जिस प्रकार कि वे अनेकान्तके ४थे, श्वें वर्षों में करते रहे है जान सकते है।
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देहलीमें कीर-शासन-जयन्तीका अपूर्व समारोह
भारतकी राजधानी देहलीमें भारतके आध्यात्मिक संत दुनिया अशान्त है। वह शान्तिका उपाय चाहती है। पूज्य श्री १०१ बुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णीकी अध्यक्षतामें शान्तिका सर्वश्रेष्ठ उपाय महावीरकी पहिंसा है। विदेशोंसे श्रावण कृष्णा प्रतिपदा, ता. ११ जुलाई सन् १९४६ को अहिंसाके प्रचारकी माँग प्रारही है, अहिंसाके प्रचारका रात्रिके ७॥ बजेसे १०॥ बजे तक लालमन्दिरजीके अहाते- इससे और महान् अवसर कब मिलेगा? भाप दश-बीसमें वीर-सेवामन्दिर सरसावाके तत्वावधानमें धीर-शासन- लाख रुपया इकट्ठे कीजिये और एक जहाज खरीदकर जयन्तीका अपूर्व समारोह सानन्द सम्पन्न हुआ।
विदेश चलिये और यहाँ पर वीर-शासनकी वास्तविक
विदश चाल जनता चार-पाँच हजारकी तादाद में उपस्थित थी और अहिंसाका प्रचार करिये। उसमें अपूर्व उल्लास था । ला० रघुधीरसिंहजी जैनावाच- मुख्तार साहबकी संस्था वीर-सेवामन्दिर वीर-शासनकी कम्पनी और जैन-जागृत-संघके सदस्योंने इस समारोहकी सेवा कर रही है, क्या आप लोग बीर-सेवामन्दिरको व्यवस्था की थी।
स्थानादिका प्रबन्ध नहीं कर सकते ? यदि आप लोग अपने पं० मुमालालजी समगौरयाके मंगलगानफे पश्चात् दैनिक खर्च मेंसे फी-रुपया एक-पैसा भी निकालें, जो
देनिक खचमसे फा-रुपया एक-पसा स्वामी निजानन्दजीने अपने भाषणमें वीर-शासनकी महत्ता- अधिक नहीं है तो लाखों रुपया इकट्ठा होसकता है और को बतलाया। अनन्तर जैटली साहबने, जो दर्शन-शास्त्रके उससे धीर-शासनके प्रचारमें पूरी मदद मिल सकती है। प्रौढ विद्वान् हैं और जैनधर्मसे विशेष प्रेम रखते हैं, आप वीर-सेवामन्दिरको अपनाएँ और उसकी तन-मनभारतीय-दर्शनोंके साथ तुलनात्मकरूपसे जैनदर्शन और धनसे सहायता करें जिससे वह प्राचीन-शास्त्रोके उद्धार उसके शहिसा, सत्य तथा कर्म श्रादि सिद्धान्तोंका सुन्दर करने में समर्थ होसके। भाषण चालू रखते हुए पूज्य एवं मार्मिक विवेचन किया और बतलाया कि भारतीय- वर्णीजीने कहा कि आज वीर-शासनका दिवस है। पाजसे दर्शनोंमें जैन-दर्शनका सबसे महत्वपूर्ण स्थान है और आप लोग मथ, मांस और मधुके त्यागपूर्वक मष्ट मूलगुणोंमहाबीरका शासन ही विरोधोंफा समन्वय करनेवाला है। को धारण करनेकी प्रतिज्ञा करें। आपने भाषणके अादि और अन्तमें महावीरके चरणों में
इसके बाद पं० राजेन्द्रकुमारजी प्रधानमंत्री दि.जैनअपनी हार्दिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित की। पश्चात् बा० जय- संघने पू य वर्णीजीकी भावनापर जोर देते हुए कहा कि भगवानजी एडवोकेट पानीपतने अपने महत्वपूर्ण भाषणमें
मुख्तार साहबने जैन-साहित्यकी बड़ी सेवा की है और वीर-शासनके प्रचारकी प्रेरणा करते हुए अपने जीवनको
उसके लिये अपना सब कुछ दे दिया है। आप लोग अपनी वीर-शासनका सच्चा अनुयायी बनानेकी ओर संकेत किया।
श्रामदनीमेंसे डेढ़ परसेन्ट निकालकर उसे वीर-सेवामन्दिरको अनन्तर वीर-सेवामन्दिरके संस्थापक पं० जुगलकिशोरजी
प्राचीन-शास्त्रोंके समद्धारके लिये दे देवें। वीर-सेवामन्दिरने मुख्तारने वीर-शासनदिवसकी महत्ता और तिथिकी
जैन-संस्कृति के संरक्षणका बड़ा कार्य किया है। इसपर पवित्रता एवं ऐतिहासिक प्राचीनताका उल्लेख करते हुए अनेक सजनोंने उसी समय अपने नाम लिखाये । 'महावीर-सन्देश' नामकी स्वरचित कविता पढ़कर सुनाई।
इस तरह धीर-शासन-जयन्तीका यह महोत्सव पदे इसके बाद अध्यक्ष महोदय पूज्य वर्णीजीका प्रभावक भाषण
धानन्द और उल्लासके साथ समाप्त हुआ। हुश्रा । आपने भगवान् महावीरके शासन-सिद्धान्तोंका स्वयं प्राचरण करनेकी प्रेरणा करते हुए कहा कि आज
--परमानन्द जैन
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Regd. No. D. 397
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---===) हमारे सुरुचिपूर्ण प्रकाशन (==
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जाना।
१. अनित्य-भावना-श्रा० पमनन्दिकृत भावपूर्ण ।। ६. उमास्वामिश्रावकाचारपरीक्षा-मुख्तार श्रीऔर हृदयग्राही महत्वकी कृति, साहित्य-तपस्वी पण्डित | जुगलकिशोरद्वारा लिखित ग्रन्थ-परीक्षाओंका इतिहासजुगलकिशोर मुख्तारके हिन्दी-पधानवाद और भावार्थ | सहित प्रथम अंश । मूल्य चार पाना। सहित । मूल्य चार थाना ।
७. विवाह-समुद्देश्य-पंडित जुगलकिशोर २. आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थसूत्र-सरल- मुख्तारद्वारा रचित विवाहके रहस्यको बतलानेवाली संक्षिप्त नया सूत्र-ग्रन्थ, पं. जुगलकिशोर मुख्तारकी और विवाहोंके अवसरपर वितरण करने योग्य सुन्दर सुबोध हिन्दी-व्याख्यासहित । मूल्य चार प्राना। कृति । मूल्य पाठ श्राना। ३. न्याय-दीपिका-(महत्वका सर्वप्रिय संस्क
नये प्रकाशन रण) अभिनव धर्मभूषण विरचित न्याय-विषयकी सुरोध प्राथमिक रचना। न्यायाचार्य पं. दरबारीलाल १. आमपरीक्षा-स्योपज्ञटीकासहित-( अनेक कोठियाद्वारा सम्पादिन, हिन्दी-अनबाट, विस्तृत (१०१ |
विशेषतायोंसे विशिष्ट महत्वपूर्ण अभिनव संस्करण) पृषकी) प्रस्तावना, प्राच.थन, परिशिष्टादिसे विशिष्ट, तार्किकशिरोमणि विद्यानन्दम्वामि-विरचित यातविषय४०० पृष्टप्रमाण, लागत मूल्य पाँच रुपया। विद्वानों, की अद्वितीय रचना, न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाल छायों और स्वाध्याय-प्रेमियोंने इस संस्करणको बहुत कोठियाद्वारा प्राचीन प्रतियोंपरसे संशोधित और सम्पा- . पसन्द किया है। इसकी थोड़ी ही प्रतियों शेष रही हैं। दित, हिन्दी-अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना, और अनेक शीघ्रता करें। फिर न मिलने पर पछताना पडेगा। परिशिष्टोंसे थला तर
२०४२६ पेजी साइज, लगभग ४. सत्साधुस्मरणमङ्गलपाठ-अभूतपूर्व सुन्दर : और विशिष्ट सरलन, सालयिता पंडित जगलकिन चार-सी पृष्ट प्रमाण, मूल्य अाठ रुपया। यह संस्करण मुख्तार । भगवान महावीरसे लेफर जिनसेनाचार्य
' शीघ्र प्रकाशित होरहा है। पर्यन्तके २१ महान् जैनाचार्योके प्रभावक गुणस्मरणोंसे
२.श्रीपुरपार्श्वनाथ-स्तोत्र-उन विद्यानन्दाचार्य-" युक । मूल्य पाठ श्राना।
बिरचित महत्वका स्तोत्र, हिन्दी-अनुवाद तथा प्रस्ता५. अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पञ्चाध्यायी तथा वनादि सहित । सम्पादफ-न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाटीसंहिता यादि ग्रन्थोंके रचयिता पंडित राजमल लाल कोठिया। मूल्य एक रुपया। विरचित अपूर्व प्राध्यात्मिक कृति. न्यायाचार्य पंडित ३. शासन चतुस्त्रिशिका-विक्रमकी १३ वीं दरबारीलाल कोठिया और पं० परमानन्द शास्त्रीके । शताब्दीके विद्वान् मुनि मदनकीर्ति-विरचित शीर्थसरत हिन्दी अनुवादादिसहित तथा मुख्तार पंडित परिचयात्मक ऐतिहासिक अपूर्व रचना, हिन्दी अनुवादजुगलकिशोरद्वारा लिखित विस्तृत प्ररतावनासे विशिष्ट । सहित । सम्पादक-न्यायाचार्य पण्डित दरवारीलाल मूल्य टेढ़ रुपया।
कोठिया। मूल्य बारह पाना ।
हयवस्थापक-कीरसेकामन्दिर,
७/३३ दरियागंज, देहली।
प्रकाशक-परमानन्द जैन शास्त्री, वीरसेवामंदिर ५/३३ दरियागंज देहली, मुद्रक-अजितकुमार जैन शास्त्री,
अकलंकप्रेस, सदरबाजार, देहली
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विधय बाय चानभयमभय मिश्रमपि नहिशेप. प्रत्येक नियमविषयश्चापरिमिते । मदान्यामापते मकनभुवनयेनगमगा यामीन नन्य बटन्य-वियतनम्वगात।
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विषय-सूची
विषय
लेखक १ अपराध-क्षमा-स्तोत्र-[सम्पादकीय २ मैं क्या हूँ- पं. दरवारीलालजो 'सस्य भन' ३ आत्मा और पुद्गलका अनादि सम्बन्ध-[श्री लोकपाल ४ जैनेन्द्र व्याकरणके विषयमें दो भूले-[ युधिष्ठिर भीमांसक ५ मेरे मनुष्य जन्मका फल-[श्री जुगलकिशोर कागजी ६ कविवर बनारसीदास -[ कुमार वीरेन्द्रप्रसाद जैन ७ महार-क्षेत्रके प्राचीन मूर्ति-लेख-[संग्राहक पं. गोविन्ददास जैन ८ अष्टसहस्रीकी एक प्रशस्ति-[सम्पादक १ पांडे रूपचन्द और उनका साहित्य-[पं० परमानन्द जैन शास्त्री १० साहित्य-परिचय और समालोचन [पंडित परमानन्द शास्त्री
. अनेकान्तकी सहायताके चार मार्गशित होनेके लिये उपयोगी चित्रोंकी योजना करना
(१) २५); ५०), १००) या इससे अधिक रकम और कराना । सम्पादक 'अनेकान्त देकर सहायकोंकी चार श्रेणियोंमेंसे किसी में अपना
आवश्यक सूचना नाम लिखना।
वीरसेवामन्दिरका आफिस और स्टाफ अब (२) अपनी ओरसे असमर्थोंको तथा अजैन सरसावासे देहली आगया है और 'अनेकान्त का संस्थाओंको अनेकान्त फ्री (विना मूल्य) या अर्ध- प्रकाशन देहलीसे होने लगा है। अतः 'अनेकान्त में मूल्यमें भिजवाना और इस तरह दूसरोंको अनेकान्त समालोचना तथा परिवर्तनके लिये लेखक तथा पत्रके पढ़नेकी सविशेष प्रेरणा करना। (इस मदमें
कार अपनी पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएं निम्न पतेपर सहायता देनेवालोंकी ओरसे प्रत्येक बारह रुपयेकी भेज । वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशनोंको सहायताके पीछे अनेकान्त तीनको फ्री अथवा छहको मंगाने लिये भी निम्न पते पर ही पत्रव्यवहार करें। अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा।
अनेकान्तकी यह दूसरी किरण पाठकोंके पास (३) उत्सव-विवाहादि दानके अवसरोंपर वी० पी० से पहुँच रही है। वे उसे अवश्य छडा लें। अनेकान्तका बराबर खयाल रखना और उसे अच्छी
व्यवस्थापकसहायता भेजना तथा भिजवाना, जिससे अनेकान्त
वीरसेवामन्दिर, अपने अच्छे विशेषाङ्क निकाल सके, उपहार प्रन्थोंकी
७३३ दरियागंज, देहली योजना कर सके और उत्तम लेखोंपर पुरस्कार भी
अनेकान्तके विज्ञापन-रेट दे सके । स्वतः अपनीअोरसे उपहार-ग्रन्थोंकी योजना भी इस मदमें शामिल होगी।
एक वर्षका छह महीनेका एक बारका (४) अनेकान्तके ग्राहक बनना, दूसरोंको बनाना
पूरे पेजका १५०) और अनेकान्तके लिये अच्छे अच्छे लेख लिखकर आधे पेजका ८०)
१०) भेजना, लेखोंकी सामग्री जुटाना तथा उसमें प्रका- चौथाई पेजका ५०)
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ॐ अहम्
स्ततत्व-सपातक
विश्वतत्त्व-प्रकाश
+eroenwar.cccwwcom
* वार्षिक मूल्य ५)* Perezzakervernoram
★ एक किरणका मूल्य ||)*
*Camerectemecaer.*
न
नीतिविशेषष्यसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥
*
वर्ष १० । किरण २ ।
वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम ), ७/३३ दरियागंज, देहली
भाद्रपद, वीरनिवारण-संवत् २४७५, विक्रम संवत् २००६
अगस्त १६४६
अपराध क्षमा-रस्तोत्र
[यह स्तोत्र ता. ३ अगस्त सन् १९४६ को देहली धर्मपुरा नयामन्दिरके शास्त्रभण्डारसे उपलब्ध हुआ है और रत्नाकर नामके किसी विद्वान्को कृति है । इसमें जिनेन्ददेवके सन्मुख जिनस्तुतिके साथ खुले दिलसे अपने अपराधोंकी विज्ञापना अथवा अपने दोषोंकी आलोचना की गई है और इस बातके लिये उत्सुकता व्या की गई है कि किसी तरह मेरे इन अपराधों अथवा दोषोंका क्षमापण हो-मैं जिनेन्द्रदेवक सम्पर्क और संसर्गसे उन्हें दूर करने में समर्थ होकर अपने खोये हुए सद्बाधि-रत्नको पुनः प्राप्त करनेमें सक्षम होसकू। स्तोत्र बदा सुन्दर तथा भावपूर्ण है और सच्चे हृदयसे जिनेन्द्र-प्रतिमादिकके सन्मुख इसका पाठ श्रात्माको ऊँचा उठानेवाला है, अतः इसे हिन्दी अनुवादके साथ यहाँ दिया जाता है । आशा है पाठक इससे यथेष्ट लाभ उठानेका बराबर प्रयत्न करेंगे। -सम्पादक] (इन्द्रवज्रादिछन्दों में)
जगत्त्रयाधार कृपाऽवतार श्रेयः श्रियां मङ्गल-केलि-सद्म
दुर्वार-संसार-विकार-वैद्य । नरेन्द्र देवेन्द्र-नतांहि-पद्म ।
श्रीवीतराग त्वयि मुग्धभावाद्सर्वज्ञ सर्वाऽतिशय-प्रधान
विज्ञप्रभो विज्ञपयामि किञ्चित् । चिरंजय ज्ञान-कला-निधान ।।१।।
'हे श्रीवीतराग (जिनेन्द्रदेव ) ' आप श्रेष्ठ-लक्ष्मि
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अनेकान्त
[वर्ष १०
योंके मंगलमय क्रीडागृह हैं, नरेन्द्र और देवेन्द्र आपके करूँ ?-मुझसे आपका भजन अथवा अाराधन बनता चरण-कमोलमें नतमस्तक हैं, आप सर्वज्ञ है, सर्व-प्रति- ही नहीं ।" शयोंकी प्रधानताको प्राप्त है, चिरकालसे जयवान् हैं, त्वत्तः सुदुःप्राप्यमिदं मयाऽऽप्तं ज्ञानकलाके निधान हैं, तीनों जगतके आधार हैं, कृपा-दया
रत्नत्रयं भूरि-भव-भ्रमेण । के अवतार हैं, संसारके विकार जो दुनिवार हैं उनको दूर प्रमाद-निद्रा-वशतो गतं तत् करनेवाले वैद्य हैं और विज्ञों-गणधरादिक मुनिवरोंके
कस्याऽग्रतो नायक पूत्करोमि ।।६।। स्वामी हैं; (इन गुणोंके कारण) में आपके प्रति मुग्ध ___'मैंने यह रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और है और उस मुग्धभावके कारण ही प्रापसे अपनी कुछ सम्यकचारित्ररूप तीन रनोंका समूह-जो बड़ा ही दुर्लभ
हृद्गत भावाका बिनम्र सूचना करता हू ।' है, बहुत कुछ संसार-परिभ्रमणके बाद आपसे प्राप्त किया किं बाल-लीला-कलितो न बालः
था, प्रमाद और निन्द्रा (अज्ञानता) के वश वह सब जाता पित्रोः पुरो जल्पति निर्विकल्पः ? रहा है अतः हे नायक ! अब मैं उसके लिए किसके आगे तथा यथार्थ कथयामि नाथ
पुकार करूँ अथवा अपना रोना राऊँ ? आपके सिवाय निजाऽऽशयं साऽनुशयस्तवाऽग्रे॥३॥ दूसरा कोई भी नज़र नहीं पाता। 'क्या बाल-लीलासे युक हुश्रा बालक निर्विकल्प
मन्ये मना यन्न मनोज्ञवृत्तं होकर-बिना किसी झिजकके-माता-पिताके सामने स्पष्ट
__ त्वदाऽऽस्य-पीयूष-मयूख-लाभात् । नहीं बोलता है? बोलता ही है। उसीप्रकार हे नाथ !
द्रतं महाऽऽनन्द-रसं कठोरमैं पश्चात्तापसे युक्त हुआ अपने श्राशयको यथार्थरूपमें
मम्मादृशां देव तदश्मतोऽपि ||७|| आपके आगे निवेदन करता हूं।"
'इस बातको मैं मानता हूं कि हमारे जैमोंका जो दत्तं न दानं परिशीलितं तु
मन अमनोज्ञवृत्त था-पच्चारित्रसे युक्त न था-और न शालि-शीलं न तपोऽभितप्तम् ।
पत्थरसे भी कठोर था वह आपके मखमे उत्पन्न हुए शुभो न भावोऽप्यभवद्भवेऽस्मिन्
अमृत-कणोंके लाभस-वचनाऽमृतको पाकर-एकबार विभो मया भ्रान्तमहो मुधैव ।।४।।
महा अानन्दरसके रूपमें द्रवीभूत होगया था।' '(वस्तुतः) मैंने दान नहीं दिया, उत्तम स्वभावका
वैराग्य-रंगः पस्वञ्चनाय परिशीलन नहीं किया--उसे नहीं अपनाया, और न कोई तप
धर्मापदेशो जन-रंजनाय । तपा है, शुभ भाव भी इस भवमें मेरा नहीं हुआ, इमसे
वादाय विद्याऽध्ययनं च मेऽभूत् हे प्रभो ! खेद है कि मैंने वृथा ही भ्रमण किया है,
कियबुवे हास्यकर स्वमीश ॥८॥ दग्धोऽग्निना क्रोधमयेन दटो
'मेरा वैराग्य रंग दूसरोंको ठगनेके लिये, मेरा धर्मोपदेश दुष्टेन लोभाख्य-महोरगेण ।
लोगोंको खुश करनेके लिये और मेरा विद्याध्ययन वादके प्रस्तोऽभिमानाऽजगरेण माया
लिये हुआ-यही उसका फलितार्थ निकला ! हे ईश ! मै जालेन बद्धश्च कथं भजे त्वाम् ॥शा अपनी हंसी करानेव ला वृत्तान्त कितना कहूँ ।' 'क्रोधमयी अग्निसे मैं दग्ध रहा हूँ, लोभ नामके पराऽपवादेन मुखं सदोषं दुष्ट महासर्पने मुझे डस रखा है, अभिमानरूपी अजगर
नेत्रं पर-स्त्री-जन वीक्षणेन । मुझे निगले हुए है और मायाजालसे मैं बँधा हा हूँ,
चेतः पराऽपाय-विचिन्तनेन ऐसी स्थिति में (हे भगवन् !) मैं आपका कैसे भजन कृतं (ती) भविष्यामि कथं विभोऽहम ॥६॥
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किरण २]
अपराध-क्षमा-स्तोत्र
'परके अपवाद अथवा निन्दास मुख सदोष (दोषी) है, 'चंचल नेत्रवाली स्त्रीके मुखको देखनेसे मानसमें परस्त्रीजनोंक देखनेसे नेत्र सदोष है और दूसरोंका बुरा जो थोड़ा-सा राग लगा है वह शुद्धि-सिद्धान्तके समुद्र में चिन्तन करनेसे मन सदोष है, तब हे विभो ! मैं कैसे धोनेपर भी नहीं गया, फिर पार उतरनेके लिये कौन कारण कृती-भाग्यशाली अथवा पुण्याधिकारी होसकूँगा ?- होगा ?-कैसे संसारसमुद्रसे पार हुश्रा जायगा ?, यह क्या किसी तरह होसकूँगा ? मुझे इसकी बड़ी चिन्ता है। बड़ी ही चिन्ताका विषय है।" विडम्बितं यत्स्मरय स्मराऽति
अंगन चंग न गुणो गुणानां दशावशात्स्वं विषयान्धलेन ।
न निर्मल: कोऽपि कला-विलासः । प्रकाशितो यद्भवतो हियैव
स्फुरप्रभा न प्रभुता च कोऽपि ____ सर्वज्ञ सर्व स्वयमेव वेसि ।।१०।।
तथाऽप्यहंकार-कदर्थितोऽहम् ।।१४।। 'मुझ विषयान्धने कामदेवकी पीडा-दशाके यशसे 'अंग चगा नहीं, गुणोंमें कुछ सार नहीं, कोई भी अपनेको जैसा कुछ विडम्बित किया है उसे स्मरण कीजिये। कला-विलास निर्दोष नहीं, प्रभाकी स्फूर्ति नहीं और न आपके सामने लज्जाक साथ यह जो कछ प्रकाशित किया कोई प्रभुता ही है। फिर भी मैं अहंकारसे पीडित गया है उसे हे सवज्ञ श्राप पूर्णरूपमें स्वयं ही जानते है। होरहा हे!' ध्वस्तोऽन्य-मंत्रः परमेष्ठि-मत्रं
आयुर्गलत्याशु न पाप-बुद्धि__कुशास्त्र-वाक्यैनिहताऽऽगमोक्तिः ।
गतं वयो नो विषयाऽभिलापः । कर्तुं वृथा कर्म कुदेव मंगा
यत्नश्च भैपज्य-विधौ न धर्मे दवांचिही (१) नाथ मति-भ्रमो मे ॥१२॥
स्वामिन महामोहविडम्बना मे ॥१।। 'अन्यमंत्रोंका सेवन करके मैंने परमेष्ठिमंत्रको ध्वस्त 'श्रायु शीघ्र बीत रही है परन्तु पापबुद्धि नहीं जाती, किया है, कुशास्त्रोंक वाक्योंका श्राश्रय लेकर प्रागमकी
अवस्था ढल रही है परन्तु विषयोंकी अभिलाषा नहीं उक्रिका घात किया है और कुदेवोंकी संगतिसे वृथा फर्म ढलप्ती, दवाइयोंकी विधि-व्यवस्थामें यस्न जारी है परन्तु करनेमें प्रवृत्त हुआ हूँ। यह सब हे नाथ ! मेरा मति-विभ्रम धममें नहीं; यह सब हे स्वामिन् ! मेरे महामोहको घिडअथवा बुद्धिका विकार है।'
म्बना है-उसीके कारण मै ऐसी शोचनीय दशाको प्राप्त
होरहा हूँ।' विमुच्य दकलक्ष्य-गनं भवन्तं ध्याता मया मूढ-धिया हृदन्तम् ।
नाऽऽस्मा न पुण्यं न भवो न पापं
मया विटानां कटुगीरमेयम् । कटाक्ष-वक्षोज-गभीर नाभि
अधारि कर्णे त्वयि केवलार्के कटी-तटीयासु दशा-विलासाः ।।१२।।
परिस्फुटे मत्यपि देव धिग्माम् ।।१६।। 'मुझ मूढबुद्धिने दृष्टिपथमें प्राप्त हुए अापको छोडकर हे देव ! आपमें कंवलज्ञानरूप सूर्य के परिस्फुट होते हृदयमें कटाक्ष, कुच, गंभीरनाभि और कटी-तटीयोंमें होने- हा भी 'श्रात्मा नहीं. पुण्य नहीं, पाप नहीं और संसार वाले दृष्टिके विलासोंको ध्याया है।'
कोई चीज़ नहीं' इसप्रकार धूर्तीकी बेहद कडवी बोलीको लोलेक्षणा-वक्तृ-निरीक्षणेन
मैंने कानोंमें धारण किया है-सुना है-अतः मुझे यो मानसे राग-लवो विलग्नः । धिक्कार है! न शुद्धि-सिद्धान्त-पयोधि-मध्ये
न देव-पूजा न च पात्र-पूजा धौतोऽप्यगात्तारण-कारणं किम् ॥१३।।
न श्राद्ध-धर्मश्च न माधु-धर्मः ।
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अनेकान्त
[वर्ष १०
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लब्ध्वाऽपि मानुष्यमिदं समस्तं
जन्मको वृथा हो गवाया है, कृतं शरण्यं प्रविलाप-तुल्यम् ॥ १७ ॥
वैराग्य-रंगो न गुरूदितेष 'इस मनुष्य-भवको पाकर भी मैंने न तो देवपूजा की,
न दुजनानां वचनेप शान्तिः । न पायजनोंकी पूजा की, न श्रावकधर्म अंगीकार किया और नाऽध्यात्म-लेशो मम कोऽपि देव न साधुधर्म पाला, इससे सारे शरण्यको मैंने प्रलाप-समान
तीर्यः कथं दामरयं भवाब्धिः॥२॥ कर दिया है ! कहने मात्रके लिये ही अर्हन्तादिका शरणा 'गुरुके कथनोंपर मेरे वैराग्यका कोई रंग नहीं है, रह गया है।"
दुर्जनोंक वचनोंको सुनकर मुझे शान्ति नहीं होती-क्रोध चक्र मयाऽसत्स्वपि कामधेनु
श्राजाता है, अध्यात्मका मुझमें कोई लेश भी नहीं है। फिर कल्पद्रु-चिन्तामाणिषु स्पृहाऽतिः । हे देव ! यह दारुण भवसमुद्र कैसे तिरा जायगा ?न जैनधर्मे स्फुट-शर्मदेऽपि
कुछ समझमें नहीं पाता।। जिनेश मे पश्य विमूढ-भावम् ॥१८॥
पूर्वे भवेऽकारि मया न पुण्य'मैने अविद्यमान कामधेनु, कल्पवृक्ष और चिन्ता
मागामि-जन्मन्यपि नो करिष्ये । मणिमें तो अपनी इच्छाको चरितार्थ किया और फलतः यदीदशोऽहं मम तेन नष्टा (उनके न मिलनेपर) पोद्दाको महा परन्तु स्पष्ट सुखके
भूतोद्भवद्भावि-भवत्रयाऽऽशा ।।२२।। देनेवाले (विद्यमान) जैनधर्म में अपनी इच्छाको प्रवृत्त 'पूर्वभवमें मैने पुण्य नहीं किया और अगले जन्ममें नहीं किया ! देखो, जिनेन्द्र ! मेरा यह कैसा विमूढभाव भी उसे करूँगा नहीं, यदि में ऐसा हूँ तो इससे मेरो अथवा मूर्खतापूर्ण कार्य है।
भूत, वतमान और भावी तीनों भवोंकी पाशा नष्ट सद्भोग-लीला न च रोग-कीला
होजाती है। धनाऽऽगमो नो निधनागमश्च ।
किं या मुधाऽहं बहुधा सुधा-भुक् दारा न कारा नरकस्य चित्रे
पूज्यस्त्वदग्रं चरित स्वकीयम् । विचिन्त्य नित्यं मयकाऽधमेन ॥१॥
जल्पामि यस्मात् त्रिजगत्स्वरूप'निरन्तर विचार करके भी मुझ अधमके चित्तमें सदा
निरूपकस्त्वं कियदेतदत्र ॥२३॥ उत्तम भोगों को लीला तो बनी रही परन्तु रोगोंकी कीलना प्रथवा क्या मैं व्यर्थ ही बहुन प्रकारके अमृतभोजन प्राई, धनक उत्पादनका विचार तो होता रहा परन्तु नका भोगी रहा हैं? कि श्राप पूज्य हैं और तीनों मरणका ध्यान नही पाया, दारा (स्त्री) तो चित्तमें बसी लोकके स्वरूपके निरूपक हैं इसलिये मैं आपके आगे रही परन्तु नरककी कारा-कालकोठरीका कभी खयाल ही अपने चरितका निवेदन कर रहा है। यह निवेदन यहाँ नहीं आया।
कितना है ?-कुछ भी नहीं है।' स्थितं न साधो हदि साधुवृत्तात्
(शार्दूलविक्रीडित) परोपकारान्न कृता यशश्च ।
दीनोद्धार-धुरंधरस्वदपरो नाऽऽस्ते मदन्यः कृपाकृतं न तीर्थोद्धारणादि-कृत्यं
पात्र नाऽत्र जने जिनेश्वर तथाऽप्येतां न याचे श्रियम्। मया मुधा हारितमेव जन्म || २०॥ कि वहन्निदमेव केवलमहो सदबोधि-रत्नं शिव:'हे साधो ! माधुचरित्रसे में (कभी) हृदयमें स्थित श्री-रत्नाकर-मंगलैक-निलय श्रेयस्कर प्रार्थये ।। नहीं हुश्रा-मेरा हृदय सदा असाधु विचारोंसे ही घिरा रहा, इति अपराध-क्षमा-स्तोत्र समाप्तन् । परोपकारसे मैंने यश पैदा नहीं किया और तीर्थीका उद्धार 'हे जिनेश्वर ! इस लोकमें आपसे भिन्न दूसरा कोई श्रादि कार्य भी नहीं किया; (सच पूछिये तो) मैंने अपने दीनोंका उद्धार करने में धुरंधर नहीं है और न मुझसे
घरा रहा,
अकलंसप्रेस, सदरबाजार, दद्दला
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किरण २]
मैं क्या हूँ?
अधिक अन्य कोई कृपापात्र है, फिर भी मैं आपसे इस प्रार्थना करता हूँ जो कल्याणकारी है-वही मुझे मिलना (लोकक) लक्ष्मीको याचना नहीं करता है किन्तु हे चाहिये; क्योंकि सबोधिके बिना सब कुछ मिलना व्यर्थ शिवश्रीक रत्नाकर (समुद्र) और मगलके अद्वितीय निवा- है, उससे आत्माका कुछ भी हित नहीं सधता ।' सस्थान अन्तदेव ! मैं कवल इस सद्बोधि-रूप रत्नकी ही इस प्रकार यह अपराधत्तमास्तोत्र समाप्त हुआ।
में क्या हूँ
[इस लेखके लेखक जैनसमाजके पुराने प्रसिद्ध विद्वान् पं० दरबारीलालजी 'सत्यभक' हैं, जो अपने कुछ स्वतंत्र विचारोंके कारण जैनसमाजसे अलग होकर अपना एक जुदा ही समाज कायम करने में प्रवृत्त हुए हैं, जिसे 'सत्यसमाज' कहते हैं, और जिनका 'सत्याश्रम' नामका एक प्राश्रम वर्धामें कई वर्षसे खुला हुआ है, और तबसे अाप अपनेको प्रायः सत्यभक्त ही लिखा करते हैं। श्राप स्वतत्र विचारफ होनेके साथ-साथ अच्छे निर्भोक लेखक और समालोचक हैं। आपकी पालोचनाएँ दूर-दूर तक प्रहार किया करती है-धर्म, समाज, राजनीति, देवी-देवता. पुराण-कुरान, साधुसन्यासी, देश-विदेश श्रीर स्वर्ग-नरकादिक सभी तक उनकी गति है। श्राप सत्यके प्राणस्वरूप 'अनेकान्त' के उपासक हैं और साथमें अहिंसाको भी अपनाये हुए हैं। इसीसे आपके विचारोंका पारमा प्रायः जैन है-शरीरादिक भले ही अन्य हो-और इसे श्राप अनेकों बार स्वयं स्वीकार भी कर चुके हैं और इसीलिये अपने विचारानुसार सदा ही लोककल्याणकी भावनाओंमें तत्पर रहते हैं। आपने अपने विचारोंका पोषक कितना ही साहित्य तय्यार किया है और श्राप उसके प्रचार-प्रसार तथा नवसाहित्यके निर्माणमें बराबर लगे हुए हैं। आपके विचारोंमें बहुतोंको कुछ असंगति प्रतीत होती तथा पारस्परिक विरोध जान पड़ता है, उस विरोधादिकको दूर करनेके लिये ही यह लेख लिखा गया है। इस श्रात्मपरिचायक लेखमें अपने विचारोंका जैसा कुछ स्पष्टीकरण किया गया है उसपरसे सत्यभाजीको बहुत अंशोंमें समझा जासकता है, और इस दृष्टिको लेकर ही यह लेख उनके 'संगम' पत्रपरसे यहाँ दिया जाता है। इस परिचयलेखमें एक बात बढी अच्छी कही गई है श्रार वह यह कि सत्यभक्रजीने जहाँ अपने विचारोंपर जिन्दगीके अन्त तक, असफलताको पराकाष्ठापर पहुंचनेपर भी और बिलकुल अकेला रह जानेपर भी स्थिर रहनेका दृढ निश्चय व्यक्त किया है वहां उन्होंने यह सुन्दर शर्त भी लगाई है कि "बशर्ते कि इस राह मुझे सत्येश्वरका विरोध मालूम न होग-अर्थात् यदि किसी समय किमीके भी युक्रि-बलको पाकर यह मालूम पड़े कि उनका कोई विचार सत्यके अथवा लोकहितके विरुद्ध है तो वे उसपर स्थिर रहनेका अाग्रह नहीं रक्खेगे । इस शर्तसे स्पष्ट है कि उन्हें अपने किसी भी दृढ विचारपर सर्वथा एकान्तरूप कदाग्रह नहीं है कोई उसे असत्य अथवा लोकहितके विरुद्ध सिद्ध करे तो वे उसे छोड़नेको तय्यार है और इससे उनकी भव्यताका अच्छा द्योतन होता है। उनके इस कथनको कोई भी समर्थ विद्वान परीक्षण .करके जाँच सकता है।
हों, इस लेखकी एक खास बात और भी उल्लेखनीय है और वह है तथ्य सत्यका विवेक । लेखमें तथ्य ( यथार्थता) को बुद्धिवाद और सत्यको कल्याणवाद कहा गया है और उसके द्वारा यह प्रकट किया गया है कि जिस बातसे लोकका अधिक हित सधता हो वही बात सत्यभक्जीको दृष्टिमें सत्य है चाहे वह कितनी ही अतथ्य अथवा प्रवास्तविक क्यों न हो । शायद इसी दृष्टिको लेकर सत्यभक्रजी भगवान महावीरकी डायरी महावीरके नामसे स्वयं लिख रहे हैं और
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अनेकान्त
[वर्ष १०
उसे संगम पत्र में प्रकट कर रहे हैं जिसमें जनताकी सत्यता-यथार्थता अथवा वास्तविकताके साथ भारी विरोध दीख पड़ता है। इस विषयमें लोकहित क्या और अधिक लोकहित किसमें है यह आधारभूत खास बात ही विचारणीय रह जाती है। प्रस्तु, लेखमें दो-एक बाते और भी ऐसी रह गई है जो लोगोंको अकसर अखरा करती हैं, अच्छा होता यदि उनका भी स्पष्टीकरण साथमें करदिया गया होता । लेख सत्यभक्रजीका परिचय पानेके लिये अच्छा उपयोगी और पढ़नेके योग्य है आशा है अनेकान्तके पाठक उसे पूरा हो पढ़नेकी कृपा करेंगे-अधूरा नहीं । सम्पादक]
पाठक पूछेगे कि क्या आप कोई पहेली है जो या राम आदिके नामसे शारीरिक चिकित्सा करने लोगोंकी समझमें नहीं आते ? मैं कहूँगा कि अपनी वालेका विरोध करता है, सृष्टिकी उत्पत्ति और समझमे मैं पहेली नहीं हूँ क्योंकि मै न परस्पर विकास आधुनिक विज्ञानके अनुमार मानता हूँ न विरोधी बातें कहता हूँ न अपने विचारोंको ऐसे कि धमशास्त्रोंमें बताये गये तरीकेसे, कुरूढ़ियोंका दुरंगे शब्दोंमें रखता हूँ कि लोग ठीक तरहसे निर्णय विरोधी हूँ, परिवतन या सुधारको सदा तैयार न कर पायें । समय समयपर कुछ लोगोने प्रशंसा- रहता हूँ, दैववादका विरोधी और पुरुषार्थवादका के रूपमें और कुछ लोगोंने मजाकके रूपमे यही समर्थक हूँ, साम्प्रदायिकता जातीयता यहां तक कि कहा है कि मैं बड़ा स्पष्टवादी हूँ, मुझे कहीं उलझन मनुष्यताकी उपेक्षा करनेवाली राष्ट्रीयताका भी नहीं है मुझे मेरा मार्ग स्पष्ट दिखाई देता है आदि। विरोधी हूँ, इत्यादि बातोंको देखकर कौन न कहेगा फिर भी ऐसे लोगोंकी संख्या कम नहीं है जिनके कि मैं बुद्धिवादी अर्थात् युक्तिवादी हूँ? मैं स्वयं लिये मैं पहेली हूँ। साधारणतः लोग मुझे बुद्धिवादी अपनेको बुद्धिवादका समर्थक मानता हूँ। समझते हैं। मैं प्राचीनताको महत्व नहीं देता, किसी इतनेपर भी अगर कोई ईश्वर परलोक या शास्त्रको पूर्ण प्रमाण नहीं मानता अलौकिक आत्माके अमरत्वपर विश्वास करता है तो अतिशयोंपर विश्वास नहीं करता, भूत पिशाच साधारणतः उसका विरोध नहीं करता, द्वैत या आदिकी मान्यताओंका जोरदार खण्डन करता हूँ, अद्वैत माननेवालेसे नहीं चिढ़ता मूर्तिका उपयोग अनीश्वरवादी और अनात्मवादी मार्क्स आदि तक खुद करता हूँ, भावनाजगाने वाली प्रार्थनाओंमे को योगी पैगम्बर तीर्थकर मान लेता हूँ, सर्वकाल भाग लेता हूँ, पुराने धर्मो और पैगम्बरोंका सन्मान सर्वलोकके प्रत्यक्षको असम्भव कहकर उसका खूब करता हूँ, भावनाको खुराक देने के लिये सत्यलोकखंडन करता हूँ, विज्ञानके विरुद्ध कोई घटना नहीं के कल्पित चित्र खींचता हूँ । स्व-परकल्याणकी मानता, मंत्र तंत्र आदिकी प्राचीन मान्यताको दृष्टिसे किस ढंगसे इनका समन्वय किया जाय यही गपोड़ा कह देता हूँ, हर बातमे उपयोगितावादसे बताता हूँ। मतलब यह कि अमुक ढंगकी आस्तिकताकाम लेता हूँ, कोई आदमी अगर किसी भी धर्मको से मुझे चिढ़ नहीं है, न पुराने शब्दोंका उपयोग नहीं मानता, सिर्फ नीति सदाचार आदिको मानता करनमे मुझे कोई इतराज है । हां ! उसके अर्थमें है तो भी मैं सन्तुष्ट होजाता हूँ, नीति सदाचारके कहीं कछ खराबी मालूम होती है तो उसका अर्थ पुराने रूपोंसे बँधा हुआ नहीं हूँ इसीलिये शीलको जरूर सधार लेता हूँ । अध्यात्मके नामपर जो महत्व देनेपर भी ब्रह्मचर्य के गीत नहीं गाता, पूजा दम्भ, अकर्मण्यता आदिका प्रचार होता है उसका नमाज प्रेयर आदिमें व्यक्तिको स्वतंत्र रखता हूँ, विरोध करता हूँ फिर भी मनोविज्ञानको भुलाता इनकी आवश्यकता न माननेवाले पर भी असन्तुट नहीं हूँ। जिन बातोंका मनोवैज्ञानिक दृष्टिसे नहीं होता, पूजा-नमाजसे, या मन्दिर-मसजिदसे, सदुपयोग होता है उनका प्रतिपादन भी करता हूँ।
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किरण २]
मैं क्या हूँ?
४७
सत्याश्रममें सब धर्मोका मन्दिर बना रक्खा है। नहीं है साधन है, यद्यपि मुख्य साधन है फिर भी प्राथना भी होती है।
एकमात्र साधन नहीं।। मेरी इन बातोंको देखकर बहुतसे लोग मैं मानता हूं कि अन्ध-विश्वासोंके कारण चकित होते हैं, वे मेरे बुद्धिवादी विचारोंके साथ मनुष्यने बहुत-सा अकल्याण किया है। भूत-प्रेत इन बातोंकी संगति नहीं देख पाते । यद्यपि संको- आदिके चक्करमे पड़ वास्तविक चिकित्सासे चवश कहते तो नहीं हैं पर शायद मनमें मोच वंचित रक्खा है, उन्हें खश करने के नामपर धनलेते है कि मैंने अपनी दुकान जमानेके लिये परस्पर जनका नाश किया है इसलिये मैं ऐसे अन्ध-विश्वासोंविरोधी वातोंका यह अजायबघर बना रक्खा है। वे का विरोधी हूँ और मनुष्यको अधिक-से-अधिक भूल जाते है कि दूकान जमानेका यह तरीका बुद्धिवादी बनाना चाहता हूँ । सर्वज्ञताने विकास सबसे अधिक बेकार है। दूकान जमती है पूरा रोक दिया, अपने सम्प्रदायका झूठा घमंड पैदा
आस्तिक बननेसे या पूरा नास्तिक बननेसे। किया, दूसरोंको हीन समझा, इसलिये ऐसी सर्वयही कारण है कि वर्धा आनेको तेरह वर्ष हो ज्ञताका मै विरोधी हूं । में ऐसे ईश्वरका भी चुके, पर वर्धा में अनुयायीके रूपमें तेरह आदमी
विरोधी हूं जो भजनसे या नाम-जापसे खश होता भी नहीं मिले । फिर भी मैं अपने समन्वयपर है, क्योंकि ऐसा ईश्वर कर्तव्यमें उपेक्षा पैदा कराता स्थिर हं और जिन्दगीके अन्त तक, असफलता है, और मनुष्यको चापलूस बनाता है। मैं ऐसी की पराकाष्ठापर पचल्नेपर भी और बिलकुल कहानियोंका भी विरोधी हूं जो प्राजके जीवनअकेला रहनेपर भी स्थिर रहनेका निश्चय है. से मंगत नहीं है, इसलिये या तो वे अविश्वासके वशर्ते कि इस राह मके मत्येश्वरका विरोध कारण निरथक जाती है या विश्वासके कारण न मालूम हो।
मनुप्यको धोखेमें डालती है। प्रागमें डालने मेरा ध्येय क्या है. मेरी नीति या सिद्धांत पर भी नती जलती नहीं, आदि कहानियाँ या तो क्या है जिससे उपयुक्त विरोधी दिखानवाले अविश्वसनीय होनसे बेकार जाती है या कोई विश्वाविचारोंका अजायबघर बना हश्रा हैं. इन बातों स करले तो वह आगमें जलनेवाली स्त्रीको सती का खलामा यद्यपि मेरे साहित्य में है फिर भी संक्षिप्त न मानेगा, इस प्रकार नारियोंके साथ घोर अन्याय
और साफ शब्दोंमे इम बातका पता लग जाय इस- करेगा, इससे में ऐसी कहानियोंका विरोध करता लिय में यहाँ कछ मह देता है। मैं यह तो आशा हूं, भंडा-फोड़ करता हूँ। इस प्रकार बद्धिवादकी नहीं करता कि पाठक उन सब महोंसे सहमत प्रत्येक बात पर मैं उपयोगिताकी दृष्टिसे विचार होजायंगे, पर यह आशा अवश्य करता है कि जिन करता हूं, और उपयोगिताकी कसौटी बनाता हूँ बातोंमें उन्हें परस्पर विरोध दिखाई देता है वह विश्वकल्याण, लोगोंकी मुख-शान्ति । इस प्रकार दिखाई न देगा, अथवा वे मेरे अजायबघरमें एक मैं बुद्धिवादीकी अपेक्षा कल्याणवादी या आनन्दनियमित व्यवस्था देख सकेगे।
वादी अधिक हूँ • बुद्धिवादको मैं तथ्य कहता हूं कल्याणवाद
कल्याणवादको सत्य । १. मेरा ध्येय मनुप्यमात्रको शान्त सुखी,
सत्य और तथ्य संयमी, सदाचारी और एक कुटुम्बीके समान २. सत्य और तथ्यका मै अधिक-से-अधिक बनाना है। बुद्धिवाद या वैज्ञानिक तथ्य इसके साहचर्य पसंद करता हूं, क्योंकि अतथ्य अगर साधनके रूपमे है। बुद्धिवाद मेरे लिये साध्य सत्य भी हो तो भी एक न एक दिन थोड़ा-बहुत
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अनेकान्त
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नुकसान पहुंचाता ही है। फिर भी जब मैं देखता मंत्र-तंत्रके शिकार होगये, तथ्य भी गया और सत्य हूं कि किसी तश्यसे होनेवाला नुकसान उस नुक- भी गया । इसलिये जिनका बौद्धिक विकास इतना सानसे बड़ा है जो हितकर अतथ्यके कारण हुआ है कि वे तथ्य-सत्यको पकड़ सकते हैं उनका होसकता है, तो अतथ्यको सत्य समझकर उसे में स्वागत करता हूँ, पर जो भावनावश या अन्य दरगुजर कर जाता है। हां। तथ्य-सत्यके मिल- किसी कारणवश ईश्वर परलोक आदिका सहारा ते ही मैं अतथ्य-सत्यको छोडनेको सदा तैयार लिये बिना रह नहीं सकते, उन्हें सिर्फ इनके दुरुपरहता हूं। और जहां तक बनता है अनावश्यक
योगसे बचानेकी कोशिश करता हूँ। इसलिये मैं अतथ्यको हटानेकी कोशिश करता हूं।
ईश्वरवादी आस्तिक, अनीश्वरवादी आस्तिक, ईश्व
रवादी नास्तिक, अनीश्वरवादी नास्तिक ऐसे चार भेद आलंकारिक भाषा
करता हूँ। जो ईश्वरको सर्वदृष्टा और सर्वशक्तिमान ३. रूपक अलंकार आदिके जरिये जो बात मानकर अंधेरेमें भी पापसे बचनेकी कोशिश करता कही जाती है उसे अतथ्य मानता । जैसे सत्य है वह ईश्वरवादी आस्तिक है, जो ईश्वर नहीं मानता श्वर, भगवती अहिंसा, सरस्वती देवी, विवेक दादा किन्तु प्रकृतिक नियमको मानता है इसलिये अंधेरेश्रादि कथन रूपक है । इस रूपक कथनसे मनको में भी पापसे बचता है वह अनीश्वरवादी आस्तिक तसल्ली मिलती है । इनकी आलंकारिकता स्पष्ट है है। जो ईश्वरको क्षमाशील मानकर पूजा, नमाज, किन्त यदि किसी कारण कालान्तरमें लोग ऐसे प्रार्थना, भेंट आदिसे ईश्वरको खुश करनेकी कोशिश वर्णनोंकी आलंकारिकता भूल जाँय तो उस समय करता है किन्तु पाप या बुराईसे बचनेकी कोशिश इसे अतथ्य सत्य कहने लगेंगे।
नहीं करता वह ईश्वरवादी नास्तिक है, और जो ___ अलंकारोंको काव्यकी कसौटीपर ही कमना जगतमें कोई व्यवस्था न मानकर स्वच्छन्दतासे पाप चाहिये, मुखचन्द्रकी शोभा काव्यमें है, खगोलकी करता है वह अनीश्वरवादी नास्तिक है। मेरा जोर मीमांसामें नहीं।
ईश्वरवाद या अनीश्वरवाद पर नहीं है किन्तु पात्रताका विवेक
दोनोंके आस्तिकरूप पर है। जबकि एकांत बुद्धि
वादी अनीश्वरवादपर जोर देता है । वह सोचता है ४. तथ्य सत्यके उपयोगमें पात्रताको देखकर कि किसी भी तरह ईश्वर, परलोक आदिसे मनुष्यजोर देता हूँ। अन्यथा तथ्य तो उड़ ही जाता है पर का पिण्ड छट जाय तो बाकी सब जल्दी सुधर जासाथ ही सत्य भी उड़ जाता है। व्यक्ति विशेषको
यगा। मैं सोचता हूँ कि पहले तो इनस पिण्ड छूटना जो पच जाता है वह साधारण जनताको नहीं पचता,
बहुत कठिन है, अगर छूट जाय तो बाकी सब ठीक इसका भी ध्यान रखता हूँ। जैनधर्मने ईश्वर उड़ा- होना और भी कठिन है। जैन-बौद्धोंके ऐतिहासिक दिया, लेकिन साधारण जनताको यह बात न पची,
उदाहरण तो हैं ही, पर आजके रूसका भी उदाहफल यह हुआ कि ईश्वरवादकी सारी बुराइयाँ
रण है जहां ईश्वर फिर अपने सब अंगोंके साथ परिवर्द्धितरूपमें जैनसमाजमें मौजूद हैं । बौद्ध
पनप रहा है। इसका विचारकर मैं ईश्वर अनीश्वरधर्मने अनीश्वरवाद और अनात्मवादको भी अप
वाद पर जोर नहीं देता, उन दोनोंके सदुपयोगपर नाया पर वहां इसकी प्रतिक्रिया और भयंकर हुई। जोर देता हूँ। यह मेरा कल्याणवाद या सत्यखास-खास व्यक्ति तो इनसे लाभ उठा सकते थे पर वाद है। जन-साधारण नहीं। वे अर्गाणत देवी-देवताओं और पर जैसे मैं ईश्वरको दरगुजर कर लेता हूं
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किरण २]
मैं क्या हूँ?
उसप्रकार भूत-प्रेत आदिको नहीं करता, क्योंकि ये पर दुरुपयोग हर चीज़का होता है। खाने-पीनेअतथ्य भी हैं और असत्य भी है। भूत-प्रेतोंकी का दुरुपयोग होता है इसलिये लोग बीमार पड़ते हैं मान्यताका सदाचार आदिकी दृष्टिसे जीवनपर पर इसलिये खाना नहीं छोड़ा जासकता । शारीरिक कोई अच्छा असर नहीं होता। ये कुचिकित्सा और चिकित्साका तो इतना दुरुपयोग होता रहता है कि अपव्यय आदि ही बढ़ाते है निरर्थक भय आदिसे एक संस्कृत कविने वैद्यको यमराजका भाई बताया, मानसिक बीमारियाँ भी बढ़ाते है, इसीलिये अग्नि- विशेषता यह कि यमराज तो प्राण लेता है वैद्य तो परीक्षा आदिमें मैंने इनका भंडाफोड़ किया है। प्राण और धन दोनों लेते है । दवाइयोंके विज्ञापन
आज मानवका विकास भी इतना होगया है कि वह कैसा सर्वनाश कर रहे है यह मालूम ही है। इतन इनसे पिण्ड छड़ा सकता है बहुत कुछ छुड़ा भी पर भी चिकित्साको रोका नहीं जासकता। ऐलोपेथी, चका है। मेरी नीति बौद्धिक दृष्टिसे मनुष्यको यथा- यतानी.भार्यर. होमियोपेथी. तार-चिकित्स शक्य विकसित करनेकी, तथ्यकी ओर लेजानेकी, चिकित्सा मादि कोई प्राकृतिक चिकित्मा, आदि तथा जितना विकास होगया है या सरलतासे होस- चिकित्साके रूप ही बदले जासकते है, अच्छे-से-अच्छे कता है उसे सहारा बनाकर कल्याणवाद या सत्य- चिकित्सकको हँदा जासकता है पर सदा सर्वत्रके वादका अधिक-से-अधिक प्रचार करनकी है। लिये चिकित्साको तिलाञ्जलि नहीं दी जासकती। धर्मसंस्थाका उपयोग
शासनतंत्रके दुरुपयोग तो अनन्त हैं, ये पीढ़ी-पीढ़ी ५. धर्मको मैं जीवनकी मनोवैज्ञानिक चिकित्सा
विश्वव्यापी महायुद्ध, यह मन्त्रियांसे लगाकर अदना
सं-अदना सरकारी नौकरकी रिश्वतखोरी, सरकारी मानता हूँ शासनतन्त्र बाहरी चिकित्सा है और धमे भीतरी । अगर भीतरी चिकित्मा न की जाय तो
आदमियोंका यह अनन्त विलाम अभिमान और
प्रजापीड़न, और जबदेस्ती, आदि दुरुपयोगोंका पहाड़ बाहरी चिकित्मा बेकार जायगी। शासनतंत्र चलाने
इकटठा होगया है। इतने पर भी हम शासनतन्त्रमात्र वालोंमें जितनी नैतिकता या धार्मिकता होती है
को दूर नहीं कर सकते । सिर्फ तंत्र बदल सकते है शासनतंत्र उतना ही अच्छा होता है। अन्यथा
सरकार बदल सकते है उन्हे अकुशमें रखनकी अच्छा-से-अच्छा शासनतंत्र बेकार जाता है। धर्मका
कोशिश कर सकते हैं। अन्य भी बहुत-सी बातें हैं कार्य मानवताके, ईमानदारीक सहयोगके सस्कार जिनके टरुपयोगको रोकनक लिये हम कोशिश करते डालना है. और ये मस्कार मंकटमे भी टिके रह पर उनकी जगह बिलकल खाली नहीं करत । धमइसके लिये पीठबल देना है। भले ही वह पीठबल
संस्थाओका जो दुरुपयोग हुआ है उसे गेकनेका ईश्वर हो, अदृष्ट हो, प्रकृति हो, या किसी तरहका
काम भी दूसरी धर्म-संस्थाओंन ही किया है। वैदिक योग हो।
धर्मके हिंसाकांड और शूद्र-परिपीड़नको जैन-बौद्धों निःसन्देह धर्म-संस्थाओंका खूब दुरुपयोग की अहिंसा और जाति-समभावन ही रोका । आज हुआ है, परलोकके नामपर ब्राह्मणोंने जनताको भी जो धर्मोका दरुपयोग होरहा है वह मैं मूल धर्मोंलूटा, विशेप पुण्यफलके नामपर सामन्तोंने अपनी में सुधार करके या सत्यसमाजके जरिये रोकना सामन्तशाही चलाई, उच्चवर्णी लोगोंने करोड़ोंको चाहता हूँ। नीचवर्णी अछूत आदि बनाकर रक्खा, एक धर्म- हां। मैं एक ऐसे युगकी कल्पना किया करता वालेने दूसरे धर्मवालोंका कत्लेआम किया आदि। हैं जिसमें मनुष्यको धमकी जरूरत ही न रहगी।
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अनेकान्त
[वर्ष १०
मनुष्यमात्र एक सुसंस्कृत कुटुम्बके समान बन जायगा उसी तरह धर्मका भी क्रम विकास मानता तब ये सब धर्म उठा दिये जायेंगे। 'नया संसार में हूं। प्राचीनताके कारण किसी धर्मको मैंने ऐसा चित्रण किया है। यह चित्रण ऐसा ही महत्व नहीं देता बल्कि अगर कोई दूसरा है जैसे कि कुछ लोग यह कल्पना करते हैं कि एक कारण न हो तो प्राचीनतासे अविकास की ही दिन मनुष्यमात्र सुसंस्कारोंसे इस प्रकार स्वयं शा- कल्पना करता हूं। जब कोई कहता है कि मेरा धर्म सित हो जायगा कि शासन-संस्थाकी जरूरत ही सबसे प्राचीन है तब मैं सोचता हूं कि क्या इस न रहेगा। इसाप्रकार यह भी कल्पना की जासकती आदमीका धम इतना अधिक अविकसित है कि है कि एक युग ऐसा आयगा जब मनुष्य अपने सबसे प्राचीन कहा जासके । साधारणत: एक क्षेत्र में संयम आदिके कारण ऐसा बीमार न होगा जिसके धमे जितना पुराना होगा करीब-करीब उतना युगलिये हास्पटिल डाक्टर वैद्य आदिकी जरूरत रहे। बाह्य (आउट आव डेट ) होगा । इसलिये मैं ये सब अच्छी कल्पनाएँ हैं, इनको आदर्श मानकर धर्मोकी आलोचना करता हूं, जो बातें युगबाह्य आगे बढने में प्रगति ही होती है। फिर भी जब तक हो गई है अवमर पर उनको युगबाह्य बताता हूं, मनुष्यका उतना विकास नहीं हो पाया है तब तक जैसे सब धमि अतिशयवाद अलौकिकताएँ हैं शरीर-चिकित्साओंका रहना, शासन-तंत्रका रहना उनका विरोध करता हूं, उनकी भौगोलिक मान्यअनिवार्य है। क्रान्तिके विस्फोटके समय, पुरानी ताओंको हटाता हूं. धर्मक्रियाओंमें जो दोष हैं उन्हें मंस्था नष्ट होनेपर और नई संस्था न आने तक दूर करना चाहता हूं, सर्वज्ञवाद आदिके सिद्धांत भले हा ऐसा मालूम हो कि अब धर्म-संस्था और जो विकास रोकनवाले और अहंकार बढ़ानेवाले हैं शासन-संस्था आदि नष्ट होगई पर थोड़े ही समय उनका खंडन करता हूं। मतलब यह कि सर्वधर्ममें वह किसी-न-किसी रूपमें फिर आजायगी। समभावी होनेपर भी धर्मोकी आलोचनासे डरता 'नया संसार' में बताई हई सीमा तक जब तक नहीं हूं। सिर्फ निष्पक्षताका खयाल रखता हूँ। मनुष्यका विकास नहीं होता तब तक किसी न कोई शास्त्र मेरे लिये प्रमाण नहीं है, यह तो कहा किसी तरहकी धर्म संस्था रहेगी।
ही करता है । मैं इस दुनियाको ही महाशास्त्र धर्म-संस्थाका विकास
मानता हूँ | मेरा कहना है६. विकासबादके आधारसे मैं धर्मोका अध्य- भाई पढ़ले यह संसार । यन करता हूं । जहाँ जिस युगमें मनप्यका जितना खुला हुआ है महाशास्त्र यह शास्त्रोंका आधार । विकास हुश्रा होता है उस युगमें पैदा होनेवाला एतना होनेपर भी में राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, धर्म भी वैसा ही विकसित होता है। जंगली युगका जरथुस्त, ईमा, मुहम्मद, माक्म आदिका सन्मान धर्म भी जंगली ढंगका होगा और वैज्ञानिक युगका करता हूं, उनकी पूजा करता हूं, उनकी मूर्ति बनाकर धर्म भी वैज्ञानिक ढंगका होगा। इसलिये मेरी दृष्टि- रख लेता हूं। इसका कारण यह है कि उन्हें अपने से न तो कोई धर्म पूर्ण सत्य होता है न सदा जमानेका युगप्रवर्तक मानता हूं और मानता हूं कि सर्वत्रके लिये उपयोगी । वह अपने देश कालकी मानव विकासके इतिहासमें उनकी सेवाओंका मांग पूरी करता है, और उस युगमें जैसी बौद्धिक एक विशिष्ट स्थान है, उनने मानवको एक मंजिल सामग्री उपलब्ध होती है उसी तरह वह बनता ऊपर चढ़ाया है भले ही वह मंजिल आजकी मंजिल- . है। मैं मानव जातिका क्रम विकास मानता हूं से नीची हो । जार्ज स्टिफेसनने जो रेल-एंजिन
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किरण २]
मैं क्या हूँ?
बनाया था वह आजके एजिनके सामने कोई चीज खोओंको स्वीकारकर उसके अनुसार सम्प्रदायम नहीं है फिर भी स्टिफेंसनकी मेवार आज भी स्मर- परिवर्तन करे । इमीलिये सत्यामृतमें मैंन एक णीय और स्तुत्य हैं।
विधान किया है कि बारह-बारह वर्ष बाद सत्याएक बात और है कि संयम आदिके क्षेत्र में आज मृतपर विचार किया जाय और आवश्यक सुधार भी मनुष्य-समाज इतना विकसित नहीं हो पाया कर लिया जाय । सम्प्रदायमें इस तरहकी गुञ्जाइश कि इन महात्माओंके जीवनसे प्रेरणा न ले सके। रहना चाहिये ।
आज भी इन महात्मा ओंके जीवनसे बहुत-सी बात दूसरी बात यह कि अपने सम्प्रदायको सर्वसीखी जासकती हैं इसलिये भी इनका आदर काल सवलोक सर्वव्यक्तिके लिये पूरण माननेका करता हूं। हां ! इनके जीवनकी जो बात युगबाह्य अभिमान न किया जाय । होसकता है कि हमारे होगई उसे युगबाह्य कहकर दूर कर देता हूं। फिर लिये हमारा सम्प्रदाय पूरी तरह मुफीद हो, पर भी मानता हूं कि काफी बाते प्रेरणा पाने लायक दुमरेके लिये वह अवश्य मुफीद होगा और दूसरा है। अन्धविश्वास न रखकर, विवेकपूर्वक ऐतिहा- कोई सम्प्रदाय दुसरेके लिये मुफीद नहीं होमकता सिक परिस्थितिका खयाल रखते हुए इनसे प्रेरणा यह घमंड दूर करना चाहिये। पानेका सन्देश देता हूं। और किसी एक ही महा- इस प्रकार सम्प्रदायोंको साम्प्रदायिक कट्टरता त्माके विषयमे पक्षपात न रखनेकी भी बात या साम्प्रदायिक मंकुचिततासे दूर रहना चाहिये। कहता हूं। साथ ही यह कहता हूं कि वैसे महात्मा अगर सम्प्रदायोंमें ये दोप है तो उन्हें दूर करना और कई अंशोंमे उनसे बढ़कर आज भी होसकते है। चाहिये या नये सम्प्रदाय बनाना चाहिये, पर सम्प्रसम्प्रदाय
दाय तो रहेगे ही, चिरकाल तक रहना भी चाहिये । ७. साम्प्रदायिक कट्टरता बुरी चीज है पर वे समस्कारोंके स्कूल हैं उन्हें सुधारना ही अभीष्ट सम्प्रदायोंसे घबरानेकी जरूरत नहीं है। सम्प्रदाय है मिटाना नहीं, भले ही किसी असाधारण व्यक्तिन अनिवार्य है। जो विचार आचार या संस्कार पर- कलके बिना ही शिक्षण प्राप्त कर लिया हो। एस म्परासे प्राप्त होता है उसे सम्प्रदाय कहते है। शास- एकाध व्यक्तिको देखकर स्कूल तोड़े नहीं जासकते । नकी भी परम्परा होती है, खान-पान, वेष-भूपा, भाषा मनुष्य अनीश्वरवादी होसकता है, अनात्मवादी
आदिकी भी परम्परा होती है। इसी प्रकार धमकी होमकता है पर उसके भी सुसंस्कार डालना होग भी परम्परा होती है। अगर धम परम्परागत संस्का- और उनका सम्प्रदाय बनाना पड़ेगा या बन रोंमे न दिखाई दे तो उसे निष्फल समझना चाहिये। जायगा। क्योंकि ससंस्कार पैदा करना ही उसकी सफ
जीवनके आधार लता है।
८. एक भाईने मेरे पास एक अंग्रेजी लेखका ___पर सम्प्रदायमे दो तरहकी बुराई आजाती है
अवतरण भेजा है-उसका मुख्य अंश यह हैजिससे साम्प्रदायिकता घातक होजाती है। एक है
they ask "what will you give us iti religiविवेकहीनता । मनुष्यको अपनी बुद्धि इतनी जाग्रत ens place ?' expacting us to substitute one रग्वना चाहिय कि वह सम्प्रदायकी यगबाह्यता. cil for another We answer frankly We give हानिकरता समझ सके और ऐसा अवसर आनेपर you nothing, offering only the knowledge that
will liberate mankind. वह परिवर्तन कर सके । बद्धिमंगत विचारों और
After the superstitions shackles are remo. वैज्ञानिकताको गाली न देने लगे, बल्कि विज्ञानकी ved once the inhibiting walls are torn down,
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अनेकान्त
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man will be free to construt his house from श्रादमी बिना नौकाके नदी पार नहीं कर सकता, those three eternal bricks- atoms and space तो इसका यह मतलब नहीं कि तेरनेवाला भी नहीं and law.
करसकता। लॅगड़को लकड़ीकी जरूरत है इससे अर्थान् धर्मवादी लोग हमसे पूछते हैं कि-आप हराएकको जरूरत न मान लेना चाहिये। धर्मके बदलेमें क्या देना चाहते हैं ? वे हमसे अाशा करते हैं कि हम एक बुराईके बदलेमें दूसरी बुगई ___इधर बुद्धिवादियोंसे भी कहना चाहता दें। पर हम उन्हें माफ साफ उत्तर देते है कि हमें हूं कि आप लॅगड़े नहीं हैं इसलिये लकड़ी न कल नहीं देना है। हम सिर्फ उस ज्ञानको भेट लीजिये, पर जो लॉगड़े है उनकी लकड़ी छडानेका करना चाहते हैं जो मनष्य-जातिको बन्धनमुक्त कर हठ क्या ? हाँ, उनका लँगड़ापन मिटाने की कोशिश देगा।
कीजिये, मिटजाय तो लकड़ी छूट ही जायगी, पर जब अन्ध-विश्वासोंके बन्धन टूट जायँगे, चहार
जबतक मिटा नहीं है तबतक लकड़ीके सहारे दीवारियाँ गिर जायँगी तब मनुष्य परमाणु, क्षेत्र
चलने दीजिये, इतना ही नहीं ऐसे लोगोंको लकड़ी और नियमरूपी तीन तत्वोंकी ईंटोंसे अपना घर
दीजिये । मैं यही कर रहा हूं। अनीश्वरवादीको बनानके लिये स्वतन्त्र होजायगा ।"
ईश्वरवादी नहीं बनाता पर जो ईश्वरवादके बिना बुद्धिवादियोंके इस तथ्य-सत्य-तादास्म्यके
नहीं चल सकता उस उसीक सहारे चलने देता हूं, आदर्शकी में प्रशंसा करता हूं फिर भी मेरा स्थान
इतना ही नहीं उसकी लकड़ीमें सुधार भी करता इन बुद्धिवादियों और धर्मवादियोंके बीचमें है।
हूं जिससे कमजोरी कम-से-कम रहे और गति ये बुद्धिवादी कहते है कि हमने तुम्हे अपना घर
प्रगति बने। (जीवन)बनानेक लिये तीन चीजे (परमाणु, क्षेत्र
मेरा ध्येय गति है चाहे लकड़ीके सहारे हो, और नियम) देदी । तुम इन्हींसे घर बनाओ। चाहे विना लकड़ीके महार, मेरा ध्येय घर बनाना अगर इन्हींसे घर नहीं बना सकते तो हम कुछ (जीवन-निमाण) है, चाहे वह परमाणु-क्षेत्र-नियमनहीं जानते । जबकि धर्मवादी कहते है कि केवल
की ईटोंसे ही बने, चाहे उममें ईश्वर या आत्माका इन चीजोंसे घर बन नही मकता, गारा या चनाके मसाला और लग जाय। रूपमें ईश्वरवाद या आत्मवाद जरूरी है। जा अन्ध-विश्वामोंके बन्धन टूटना और चहारइनके बिना घर बनाने की बात कहते हैं वे झूठ हैं। दीवारियोंका गिरना कठिन होनेपर भी इतना कठिन
मैं कहता हूं कि संसारमें ऐसे व्यक्ति भी है. नहीं है जितना कि जीवनका घर बनाना । अच्छी-सेभले ही वे बहुत थोड़े हों, पर भविष्यमें अधिक अच्छी सरकार और नमाज-व्यवस्था बनानेपर भी होसकते हैं, जो ईश्वरवाद या आत्मवादके बिना स्वार्थी व्यक्ति अन्यायसे सफलता पा लेते हैं अधिअपना घर (जीवन) बना सकते है, जैसा कि म० कारोंका दुरुपयोग करते है, और बहुतसे लोग बद्धने बनाया था, म० मार्क्सने बनाया था और जीवनभर तपस्या करनेपर भी म० ईसा और म. भी बहुतोंने बनाया था। इसलिये धर्मवादियोंका माक्र्सकी तरह कष्टमय और कष्टान्त जीवन बिताते एकान्त ठीक नहीं। आदमी अगर विमानमे बैठे हैं इनके लिये मानसिक समाधान क्या ? हरएक बिना व्योम-विहार नही करसकता तो इसका यह आदमी म०मास नहीं है, वह अगर म० ईसा बनमतलब नहीं कि कोई दूसरा प्राणी भी नहीं कर- जाय तो भी दुःख सहनके लिये अपने स्वर्गीय पितासकता। अथवा तेरना न जाननेबाला अगर कोई का सहारा चाहता है, भले ही वह स्वर्गीय पिता
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किरण २]
मैं क्या हूँ?
सिर्फ मनमें ही हो, पर जो मनमें होता है उसीके तभी उसकी अोटमें दूसरे लोग उसकी दुकानदारी अनुसार तोमानव जीवनका निर्माण होता है। बाहरी चलाते है और वंचनाका खेल दिखाते हैं, मूलमें ही वस्तु तो मनमें श्रानेके लिये निमित्तमात्र है। बाहरी दूकानदारी नहीं होती। वस्तुळे बिना भी अगर कोई बात मनमें बस जाय तो
यद्यपि मनोवैज्ञानिक तत्त्वोंसे भी सारी समस्या जीवन निर्माण उसीके आधारसे होने लगता है। सुलझ नहीं गई, फिर भी फीसदी दस बीस आदमियों ... एक आदमी सोचता है कि जगतमें तीन ही तत्व
ने फायदा जरूर उठाया, और पूरा फायदा नहीं हैं--परमाणु, क्षेत्र और नियम । नियममें गुरुत्वाकर्षण,
__ तो चतुर्थाश अष्टमांश फायदा जरूर उठाया। हम रसायनाकर्षण, स्नेहाकर्षण आदि बहुतसे नियम है
इनकी तसल्ली, इनका सहारा क्यों छीने ? खासकर पर ऐसा कोई नियम नहीं है कि यदि मैं अपनी
उस हालतमें जब कि हम इन्हें बुद्धिवादी सहारा दे चतुराईसे दूसरोंको ठग लू, किसी तरह समाजकी
नहीं पाते हैं। आंखों में धूल झोंककर दूसरोंका हिस्सा हड़प जाऊं,
कहा जासकता है कि इनका काफी दुरुपयोग दूसरों की कम-से-कम पर्बाह कर अपना मतलब गांठ
होता है और काफी निष्फलता भी है। पर क्या लू तो वह नियम मुझे दंड दे या रोक सके । समाज
अनीश्वरवाद नैरात्म्यवादका दुरुपयोग न होगा ? और सरकारकी व्यवस्था जरूर है पर वे ऐसी नहीं
क्या इससे निरंकुशता उच्छंखलताका तांडव-नृत्य हैं जो मेरी गहरी चालोंको पकड़ सकें। अथवा उनका
न होगा ? क्या इस राह पर चलनेवाले सभी मार्क्स संचालन मेरे ही हाथमे आसकता है तब सत्ता
और बुद्ध बन जायँगे ? दुरुपयोग दोनोंका है इसके वंभव प्रचारके माधन हाथमे होनेसे मै ऐसी चाल
लिये दुरुपयोग रोकनेकी ही पूरी कोशिश करना चल सकता हूँ कि बद होकर भी बदनामीसे बचा रहूं,
चाहिये । दुरुपयोग हर-एक चीजका होता है पर स्वार्थी होकर भी परोपकारी कहलाऊँ, लूटकर भी
दुरुपयोगके डरसे उसके लाभको छोड़ा नहीं जा
सकता। नहीं तो आदमी आदमी न रहे। ईश्वरवादानी उदार कहलाऊँ । मुझे अपने मतलबसे मत
दका दुरुपयोग होता है इसलिये ईश्वरवाद छोड़िये, लब । दुनिया जहन्नुममें जाय मुझे क्या देना लेना।
अनीश्वरवादका दुरुपयोग होता है इसलिये अनीमैंने जो यह एक आदमीका चित्र खींचा है वह
श्वरवाद छोड़िये, फिर रखिये क्या ? आत्मवादकिसी आसाधारण दुर्जनका चित्र नहीं है, किन्तु प्रागै
का भी दुरुपयोग, अनात्मवादका भी दरुपयोग, इसतिहासिक कालसे लेकर आज तकके औसत आदमी
लिये दोनोंका त्याग, तब रहे क्या ? अगर दोनोंसे का चित्र है। तन मनकी शक्तिके असानुर प्रायः हर परे अनिर्वचनीयवाद, संशयवाद, शून्यवाद आदि एक आदमी इसी राहपर चलता रहा है। बुद्धि
निकाल जॉय तो उनका दुरुपयोग भी होगा इस. वादियोंके उक्त तीन तत्वोंसे उसकी चिकित्सा नहीं
लिये उनका भी त्याग किया जायगा तब जड़ बनने या होपाई है। उस चिकित्माके लिये ईश्वर आत्मा आदि पशु बननेके सिवाय श्रादमीको रास्ता ही न रहेगा। के मनोवैज्ञानिक तत्वोंकी खोज करना पड़ी है। जिस दिन ये खोजे गये उस दिन सिर्फ खोजनेवालोंने हां ! दुरुपयोग सदुपयोगका टोटल जरूर अपनी दूकानदारी खड़ी करनेके लिये नहीं खोजे, मिलाना चाहिये । दरुपयोग अधिक हो तो छोड़ मनुष्यकी चिकित्सा करनेके लिये खोजे। हां! पीछे- देना चाहिये। ईश्वरवाद आत्मवादका दरुपयोग से इनके नामपर दुकानदारी, और वंचना भी हुई। सदुपयोगसे कम ही है। और जो दुरुपयोग है वह चिकित्सा शास्त्र शुरूमें कुछ करामत दिखा देता है अनीश्वरवाद अनात्मवादमें भी कम नहीं है। इस
को
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अनेकान्त
[वष १०
लिये मेरा यही रास्ता ठीक है कि जो ईश्वरवाद- अराजकताका तांडव प्रलय तांडव ही होगा। विवेक,
आत्मवादके रास्ते अधिक लाभ उठा सकते हैं उन्हें सयम, सहयोग, ये तीन तत्व मनष्यमें होनेपर भी उसी राह चलाना चाहिये, जो अनीश्वरवाद- इतने व्यापक और गम्भीर रूपमें नहीं हैं कि आज अनात्मवादके सहारे अधिक लाभ उठा सकते हैं अराजकताकी स्वतन्त्रताको पचा सकें। यही बात उन्हें उसी राह चलना चाहिये। और दोनों पक्षोंके अनात्मवाद अनीश्वरवादके अराजकवादके बारेमें दुरुपयोगको रोकनेकी पूरी कोशिश करना चाहिये। है। बड़ा मुन्दर है यह अराजकवाद, और धन्य हैं
अनीश्वरवाद अनात्मवाद आदि आध्यात्मिक वे जो इसीके सहारे मानवता कायम रख सके हैं पर अराजकवाद है। अराजकवाद बहुत ऊची व्यवस्था ऊंचे दर्जेकी यह धन्यता जिनको नहीं मिल पाई उन्हें है। आज राज्यके नामपर लाखों करोड़ों आदमी ईश्वरवाद या आत्मवादका बोझ उसी तरह उठाना गुलछरे उड़ा रहे है और उत्पादक श्रमके बिना ही पड़ेगा जिस प्रकार आजका अधन्य मनुष्य सरकारव्यवस्थाके नामपर जनताकी कमाईका मक्खन का बोझ उठाये हुए है। उसकी सेवा सरकार उठा हड़प रहे हैं, ब्यवस्थाके लिये नौकर रक्खे गये देनेमें नहीं है किन्तु सरकार बदलने या सरकार
आदमी व्यक्तिके सिरपर सवार है, महायुद्ध खून- सुधारनेमे है। खच्चर आदिका दौर-दौरा है, रिश्वतखोरी जनताका
साधन साध्य विवेक मांस चीथ रही है। इसकी अपेक्षा यह कितना अच्छा बुद्धिवादका समर्थक होनेपर भी बहुतसे उग्रहै कि दुनियामें कोई सरकार न हो, सब लोग अपने बुद्धिवादियोंके बारेमे मेरी यह शिकायत है कि मनष्योचित विवेक और संयमसे सहयोगी बनकर धर्मवादियोंकी तरह वे भी इकतरफा बहुत झुक जाते काम करें, न किसीको किसीकी धौंस सहना पड़े न हैं और अंतिम साध्यको भूल जाते हैं। धमेवादी जब किसीको हुजर सरकार कहना पड़े, न दर्जनों करोंके देखता है कि अमुक आदमी ईश्वरवादी नहीं है या रूपमें अपनी कमाई लुटवाना पड़े। अराजकवादका अमुक धार्मिक क्रियाकांड नहीं करता तब वह उसे यह कितना सरल सुन्दर चित्र है । इसमें भी सन्देह बेकार बेजिम्मेदार नीतिहीन आदि समझ लेता है, नहीं कि इसी दिशामें आगे बढ़नेपर मनुष्यका इसी तरह द्धिवादी जब देखता है कि अमुक आदमी वास्तविक विकास होसकता है। सैकड़ों आदमी ऐसे ईश्वर या आत्मा मानता है भावनाकी खुराकके रूपमे मिल सकते हैं जो अराजकवादी युगमें भी अपनी कुछ क्रियाकांड करता है तो यह भी उसे मूढ़ बेकार मनुष्यता कायम रख सकते हैं । इसलिये बुद्धिवादी आदि समझ लेता है, वह यह नहीं देखना चाहता की तरह अराजकवादीभी कह सकता है कि हम एक कि इनका उपयोग यह किस रूपमें करता है। सरकारके बदले दूसरी सरकार देकर एक बुराईके अन्तिम साध्यको भूलकर दोनों ही साधनमें अटक बदले दूसरी नहीं दे सकते, हम तो सिर्फ तीन चीजें कर रह जाते हैं। देना चाहते हैं विवेक, संयम और सहयोग । सरकार- हमारा पथ सच्चिदानन्दमय होना चाहिये । सत्की शृंखलासे मुक्त होकर मनुष्य इन्हीं तीनोंके सहारे का सार चित् है चित्का सार आनन्द । ईश्वरवाद अअपना घर बनानेके लिये स्वतन्त्र होगा।
नीश्वरवाद,आत्मवाद अनात्मवाद आदि सब चित्के अराजकवादके ऐसे सरल सुन्दर निर्दोष सन्देश- विलास हैं, चित्के बाद आनन्द है, चिद्विलासका को पाकर भी आज हम राज्यसंस्थाको हटा नहीं मूल्य आनन्द-प्रापकताकी दृष्टिसे है । मैं ईश्वरवादसकते, क्योंकि राज्यसंस्थाके तांडवकी अपेक्षा आज अनीश्वरवाद,दोनों हीराहोंसे आनन्दकी प्राप्ति मानता
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प्रात्मा और पुद्रलका अनादि-सम्बन्ध
( लेखक-श्री लोकपाल )
आत्माका स्वभाव पुद्गलसे एकदम भिन्न है। केवल मानकर ही न चले किन्तु समझकर माने आत्मा चेतन तथा अमूर्तीक है और पुद्गल जड और तदनुसार चले जिससे श्रद्धान और दृढ एवं तथा मूर्तिक । आत्मा पुद्गलका सम्बन्ध स्वभा- पक्का तथा पुर-असर हो । जब आत्मा और पुद्वतः नहीं होना चाहिए। स्वभावसे आत्मा कभी गलकी प्रकृति नहीं मिलती, एकतरफसे सांसारिक भी पुद्गलका साथ नहीं चाह सकता और पुद्गल भाषामें दुश्मनी ही है तो फिर यह मेल-मिलाप तो इच्छाविहीन जड ही है उसे क्या ? जहाँ चाहे और बंध वगैरह क्यों ? आत्मा स्वभावतः ही रख दीजिए या लगा दीजिए। फिर ऐसी हालतमें पुद्गलसे मिलना या बंधना नहीं चाहता, न चाह यह जो कहा जाता है कि यात्मा और पुद्गलका सकता है यदि एकबार वह निर्मल-परम विशुद्ध सम्बन्ध अनादि कालसे चला आता है-पुद्गलसे होजाय । फिर पुद्गलमें कौन-सी शक्ति है कि उसने श्रात्मा बंधा हुआ है-यह क्यों और कैसे है ? आत्माको बांध रखा है, जबकि वह स्वयं जड है इसका समाधान अब तक ऐसा ठीक-ठीक तथा तब ऐसा क्यों होता है ? यह प्रश्न ऐसा है विशेषरूपमें नहीं हो पाया जिससे सचमुच आदमी कि किसी भी समझदार आदमीके दिमागमें उत्प
न्न हुआ करता है जब वह सिद्धान्तका पीछा करते २ हूं । पात्रता, रुचि, मंस्कारादिके अनुसार दोनोंका यहां तक पहुँच जाता है। फिर उसे प्रायः यह उपयोग करता हूं । बुद्धिको भी खुराक देता हूं नमझकर संतोष कर लेना पड़ता है कि किसी भावनाको भी खुराक देता हूं। हां! दोनों राहोंकी सर्वज्ञने ऐसा कहा है इसलिए ऐसा ही होगा और बराइयोंको हटानेकी पूरी चेष्टा भी करता हूँ। यह बात केवल जन्मजात विश्वाससे ही हो सकती
मैं समझता हूं कि इस लम्बे-चौड़े खुलासेसे है जो केवल एक जैनीके दिलमें ही हो सकती है। पाठक मेरे विचारोंको स्पष्ट समझ जायेंगे, मुझे उग्र- दूसरे इसे क्यों मानने लगे। तुम यदि अपने सर्व बुद्धिवादी या उग्र भावनावादी समझकर भ्रममें न ज्ञकी व्याख्या नहीं कर सकते तो फिर मेरा ईश्वर रहेंगे। वास्तबमें मैं कल्याणवाद या सत्यवादका ही कौन खराब है । मैं ही क्यों फिर अपने ईश्वरको प्रचारक हूं जिसमें विज्ञान और धर्म, बुद्धि और छोडूं जब तुम भी वहीं आकर रुक जाते हो। भावना दोनों ही समन्वित होते हैं।
भाई, यहां तक तो बात मानने लायक हो भी सकती सत्याश्रम वर्धा
सत्यभक्त है कि आत्मा है और पुद्गल है और दोनों भिन्नता०२२-५-४६
भिन्न हैं-इत्यादि । पर जब दोनोंका स्वभावNature-प्रकृति एकदम विपरीत-भिन्न-भिन्न
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अनेकान्त
[वर्ष १०
है-दोनोंमें स्वाभाविकतया ही मेल नहीं होसकता- मुच ही आप उन्हें आनन-फाननमें स्वर्गका अधि
और यह सब भी जब आप ही कहते हैं तो हम यह कारी ( जैसा अधिकतर धर्मवालोंका चरम श्रादर्श कैसे मानलें कि आत्मा अनादि कालसे इन जड है या समझा जाता है) बनादें या अपने कथनापद्गलोंद्वारा बंधा चला आता है या बधा रह नुमार एकदम मोक्ष ही क्यों न दिलवा दें पर फिर सकता है । यह कैसे संभव है, तर्क-द्वारा यदि कुछ वे हठ-धर्मीको अखतियार कर लेते है और आपका समझा सकें तो समझाइये, वर्ना आप अपने सारा कथन टांय-टांय फिस हो जाता है। सिद्धान्तोंकी पूजा कीजिए, मै तो अपनेकी इसलिए जैनधर्मको पूर्णरूपसे प्रस्थापित कर ही रहा हूं। मैं ऐसी हालतमें क्यों आपकी (establish) करनके लिये इन प्राथामिक या बातें मानने लगा । ऐसी ही भावना हर-एक प्रारंभिक ( elementary ) बातोंका तर्कपूर्ण
आदमीके दिलमें जैनधर्मको जाननेके बाद भी उत्तर देना अत्यन्त आवश्यक है । मेरे मनमें भी होती है या हो सकती है-फिर वह सोचता है कि ये प्रश्न आज न जाने कितने वर्पोमे उठ रहे हैं पर भाई यही कहावत ठीक है कि "स्वधर्मे निधनं श्रेयः उनका ठीक-ठीक समाधान अब तक नहीं हुआ था। परधर्मो भयावहः” सभी धर्म ऐसे ही या एक-सां अब एकाएक कुछ उत्तर मनम उदित हुए है जिन्हें ही हैं। कोई कहीं जाकर गुम या चुप हो जाता है को- यहां देदेना मैं अपना फर्ज ममझता हूँ। ताकि और ई कहीं। फिर जैसे चलता है वैसे चलने दो। अदला- जो लोग इससे लाभ ले सके लेलें । हम आत्माके बदली या परिवर्तनादि करनेसे क्या फायदा ? यह कार्यों तक तो अनुमानद्वारा ही जा सकते है या तो कोरा मानव स्वभावानुकूल मनोवैज्ञानिक असर जा पाते है, स्वय आत्माको प्रत्यक्ष देखने या सम(effect ) ऐसी बातोंका हर एकके ऊपर पड़ता झनेवाला तो जैसा हम कहते है वही है है। जहां कहीं भी शुबहा या सन्देहका मौका या या हो सकता है जिसे हम तीर्थकर, केबली सवज्ञ छिद्र मिला कि मनुष्य उस किसी भी नए रास्तेको एवं सिद्ध कहते है । दृष्टान्त एवं उदाहरण नहीं पसंद करेगा या नहीं करता है-भले ही उसमें द्वारा जहाँ तक हम समझ या समझा सकते है चारों तरफ रत्न या सुवणकी खाने ही क्यों न भरी उतना ही तो हमे आगे बढ़ने और बढ़ानेमे सहापड़ी हों। मनुष्य भरसक जहां पड़ा है वहीं पड़ा यक होता है या होसकता है। और इसी तरह तर्क, रहना चाहता है यदि उसे दूसरी अवस्थामे लेजाने- अनुमान, प्रमाण इत्यादिपर सारी मान्यताएं की इच्छा रखनेवाला उसकी सारी शंकाओं या आधारित है। प्रश्नोंका ठीक-ठीक संतोषजनक समाधान न कर आत्मा और पुद्गल अथवा चेतन और सके यही बात और भी विशेषरूपसे हमारे धर्मोके जड़ (Matter) पदार्थ इस संसारमे-लोकमे साथ भी है। जैनधर्ममे बड़ी-बड़ी खूबियाँ एवं सब जगह भरे पड़े हैं । जीवके आत्म-प्रदेशम अच्छाइयाँ-आखिरी चरमसीमा या दर्जेकी सभी (उतनी जगह Space में जितनी कि जीवन जगह कूट-कूटकर भरी पड़ी है पर यहां पहुँचकर घेर रखी है) पुद्गल भरे पड़े है। ऐसा माननेमे जो हम ठीक जवाब नहीं दे पाते है इससे उन कोई दिक्कत किसीको नहीं होना चाहिए । यह तो लोगोंके लिए जिनके दिलमे जन्मजात श्रद्धा नहीं- एक तर्कपूर्ण--बुद्धिगम्य एवं वैज्ञानिक तथ्यसे भी हमारा और सब कुछ कहना सनना बेकार-बेमत- खंडित नहीं होता । आत्मा चेतन तथा पुद्गल लष-अप्रभावकारी हो जाता है। फिर वे आगे जड है। यह साबित करना यहां मेरा विषय नहीं ध्यान नहीं देते। भले ही आप सही हों और सच- है। इसपर तो बहत कुछ कहा और लिखा जा
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किरण २]
आत्मा और पुद्गलका अनादि-सम्बन्ध
चुका है जिसे कोई भाई मालूम कर मकता है। के हिलनेसे पुद्गल हिलते है। ऐसी हालतमें हिलतेआत्मा निराकार परवस्तुमे शन्य-Matterless and हिलाते रहनेमे ठीक वही दशा या बात हो जाती है Foruless है। निराकारका मतलब वही है जैसा है जैसे कि किमी एक श्रात्मप्रदेशके अंदर जितने हमारे यहां शास्त्रोंमे समझाया गया है। ये सब बाकी पुद्गल रहते है उनके भीतर अपने आप इसतरह बातें हमारे शास्त्रांस देखकर या जानकर ममझने के अविरल शाश्वत कंपनी या हलन-चलनसे एक
और माननमें कोई कठिनाई नहीं होती और न तरतीब या मंगठन या गुठ-सा बन जाता है। यह है। मैं उनके वर्णन या Detail और व्योरामे बात साधारणतः
बात साधारणतः सभीकी समझमें आ सकती हैयहां नहीं जाना चाहता। हाँ, तो आत्माके अपने थोड़ा गौर करने मात्र ही। यहां कोई खास दृष्टान्त प्रदेशमें पद्गल भरा हुआ है। जबतक श्रात्मा
मेर ध्यानमें अभी तक इस विषयपर या इसके इम मसारमे है तबतक इस पुद्गल-सम्बन्धसे छुट- भाग
श्रांगे जो बातें मै कहूँगा उनपर नहीं आया है फिर कोगनीपासका मनोरोग
भी विपयको समझनेमे कोई कठिनाई मेरी समझमें दोनों एक जराहू एक-सा है। ऐसी हालतसे जूल तो नहीं होनी चाहिए। जैसे किसी घड़ेमें हर एक उन पद्गलोमे जो आत्मप्रदेशमं स्थित है प्रकम्पन, साइजकी लंबी, मोटी, पतली, गोल, छोटी-बड़ी हलनचलन-हिलनाडुलना होता है तब श्रात्माक चीज रखी हों। जब हम घड़ेको हिलाते-डुलाते हैं प्रदेशमें भी या या कहिए कि आत्मामें भी यह तब वे एक-दूसरमे इस तरह बैठ जाती है कि फिर प्रकम्पन, हलन-चलन अथवा हलचल होती है। केवल घड़ेको उलट देने मात्रसे ही वे चीजें नीचे पद्गल तो श्रात्मप्रदेशमै और उसके बाहर भी नहीं गिर मकती । इसी तरहके अनेकों उदाहरण या ठसाठस भरे है उनमे हलचल तो होती ही रहती हपान्त हम स्वयं मोचकर अपने समझनेके लिए फिर इस हलचलमे आत्मप्रदेशके पदगलमें हलचल निकाल सकत है। कहनेका तात्पर्य यह कि इसतरह होते रहना स्वाभाविक है और उमसे फिर आत्माम किसी आत्म-प्रदेश अंदर मौजूद पुद्गल एक खास या आत्माकं अपने प्रदरामे भी। पुदगल ही चारों तरफ प्रकारकी बनावट या मघ या गठनमें गठित हो भरे पड़े हो सो बात नहीं, आत्मा भी चारों तरफ जाते है या होका रहते है। यह मब तो स्वाभाविकतः भरी पड़ी है। आत्मामे तो अन्य आत्माओंको ही हुआ। इसमें कोई दृमरा निमित्त नहीं। यह तो ममा मकनकी भी शक्ति है, क्योंकि वह Bodyleye एक तरहकी प्रारम्भिक दशा मान ली गई है केवल अशरीरी या Foruless (केवल spirit जैसा कि बातको ममझान मात्रके लिए, वैसे तो अनादिकहा जाता है) है-क प्रात्माके प्रदेशोंमें दमरी काजीन पुद्गल भी है और जीव भी और दोनों ही कितनी ही आत्मागे घूम सकती या रह मकती है। एकदूमरमे अभिन्न रूपमे भरे पड़े है। फिर उनमें इम विपयपर भी ग्रन्थोंमे बहुत कुछ लिखा जा बंध कैसे हुआ है या होता रहता है इसी चका है। इसतरह पदगलों और आत्माओंका का समझानके लिए इन मबकी जरूरत है, जिसएक दमरके माथ अभिन्न मन्निकटत्व चला में साधारण ज्ञानवाला भी तकपूर्ण पाकर समझ ही आता है। और एक दसरेके प्रदेश एक जाए एवं मंतोषित हो जाय-कि हां, बात ठीक दूमरेके कारण हलचल करते ही रहते है । अर्थात् है और यह संभव है। तथा आगे बढ़नेपर जब उनमें गति या हलन-चलन, जिसे हमारे यहां वह तारतम्यतायुक्त सभी कुछ चूल में चूल बैठता "कम्पन" नाम दिया गया है, होता रहता है । पुद्गल हुआ एवं तर्कपूर्ण तथा युक्तियुक्त पावे तो सभी के हिलनेसे आत्मप्रदेश हिलता और आत्म-प्रदेश को स्वीकार कर सके या कर ले-निःशंक होकर ।
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अनेकान्त
[वर्ष १०
हां, तो इस तरह आत्मप्रदेशके पद्गल एक हैं इत्यादि। यह को या पुद्गलोंका गठन कुछ खास तरहके गठनमे गठित हो जाते हैं या हो ऐसा स्पंज समान कहीं नरम कहीं कड़ा ठोक-ठीक रहते हैं। इसी तरह सोचते हए जब हम और आगे श्रात्मप्रदेशकी शकलका या साइज-आकारका ऐसा बढ़े तो यह सोच विचार या ममझ सकते हैं कि
बन जाता है और उसके अन्दर ठीक-ठीक फिट हो इस तरह ये पुद्गल गठित होकर किसी आत्म
गया होता है कि जहाँ जहाँ यह पुद्गल मंगठन प्रदेशमें इस तरह मुगठित हो जाते है कि और
जाता है आत्मा भी उमके माथ स्वयं स्वाभाविकत: दसरे पदगलोंके मुकाबले (comparison) मे उन- स्पन्जमे के पानी या नारंगीके रसके समान या की एक स्वयं स्वतंत्र सत्ता-सी हो जाती है, जैसे भीगे कपडमें वर्तमान पानीके समान अपने आप ले नदियों या झीलोंमे कंकड़ बन जाते है या समुद्रा- जाया जाता है। में मूगेके पहाड़ । ये कंकड़ या मूगेके पहाड़ स्वयं निर्जीव है पर बनते-बनते बन ही जाते है।
हमने देखा है कि एक सूची तोरई तोरी या जैसे कोई स्पञ्ज हो और उसमें अन्दर सब जगह नेनुआं जिसे जगह-जगह अलग-अलग नामोंसे पानी ही पानी भरा हो और जहाँ जहाँ वह स्पञ्ज पुकारते हैं । या इमी किसिमकी जरदार कोई भी ले जाई जाए उसके अन्दरका पानी भी वहां वहां तरकारी या फलके अन्दरसे लेकर बाहर तक जाय। या कोई फल ले लीजिए जैसे नारंगी या एक तरहकी बड़ी भारी जर्रेदार बनावट या संतरा । संतरेमे रस तो सभी जगह मौजूद है पर जाला-सा होता है जो बड़ा ही मजबूत होता है और कुछ कड़ी सूखी चीजें रेशे या ज़रें भी है जो गारने यदि उसके अन्दर पानी भी डाल दिया जाय तो से निकलती है। पर यह रस और सूखी चीज इस स्पजके माफिक वह उसे ले जा सकता है। इसी तरह एक-दूसरमें मिले हैं कि साथ-साथ हो चलते तरह यह हलन-चलन होनस और पुद्गलोंमे है। एक और उदाहरण लीजिए, जैसे किसी गोल आपसमें स्कंध या संघ बनते रहने एक तरहकी गेंदके अन्दर हवा गैस या कुछ और चीजें भर दी मजबूत स्थिर-नहीं मिटने वाली या जैसी भी गई हों-ठोंक-ठोंककर एकदम ठसाठस-तो गेद- हो-बनावट या शकलका निमोण स्वयं आत्मको उछालनेपर सभी कुछ उसके साथ ही उद्धलेगा। प्रदेशके अन्दर होजाता है या हाता रहता है। इसे या यों समझ लीजिए कि शरीरके अन्दर खन ही हम कह सकत है कि यह पुद्गलाका बंध हुआ। पाकर कोई मांसपेशी वढ़ती जाती है-पर खन यह सचमुच ही आत्माको बांध-मा लेता है या उसके जर्रे-जरे में मौजूद रहता है-इससे हम कह बांध लेसकता है जैसा हम ऊपर कह आए हैं। सकते है कि वह मांसपेशी रक्तमय है या मैंने पहले भी कहा है कि अभी इस समय तक उस मांसपेशीमें मौजूद सारा रक्त मांसप- (यह लेख लिम्बनेके समय तक) मेरे दिमागमे शीमय है। अथवा जैसे कपड़ेको हम पानी- कोई ऐसे मौज या ठीक दृष्टान्त या उदाहरण नहीं में भिगो दें तो पानी और कपड़ा साथ-साथ झलके जिन्हें मैं विषयको समझानेके लिए अकेला ही रहेगे जबतक कपड़ेसे पानी निचोड न दिया या एकदममे ददृ । पर फिर भी आशा है कि लोग आय । या यों समझिए कि कोई चीज है जिसके इस बातको समझ जायेंगे । जैसे जब किसी पक्षीका चारों तरफ मकड़ीने जाला बुन दिया-या घरकी वीर्य मादाके गभमें जाता है तब उसके चारों तरफ
औरतें जैसे छोटे-छोटे मोती या गुरियां (छोटे-छोटे और उसके अन्दर अपने आप बनाबट तैयार शीशेके पोत) के अन्दर किसी चोजको छिगा देता होने लगती है और बाहर भी एक कड़ी चीज बन
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किरण २]
आत्मा और पुद्गलका अनादि-सम्बन्ध
पता है कि
उसे
कोई
यादि. दोजी
जाती है जिसे अण्डेका खोखला कहते हैं और कोई भी विचित्रता बिना हल हुप ( insolved ) उसके भीतरकी चीज उसके अन्दर बन्द होजाती न रह जाय। जैसे मनुष्यके शरीरमें रक्त, मांस, है। पर बाहरसे भीतर तक नसों या बारीक रेशों- हड़ी वगैरह बनते है वैसे ही पेड़ों पौधों में फल, फूल, द्वारा सम्बन्ध कायम रहता है जैसे किसी फल, पत्ते एवं अन्न बनते है। हर-एक वस्तुके पुद्गलसाग-भाजी या पेड-पौधे या पत्तियोंमें देखनेमें आता संघकी बनावट अलग-अलग या भिन्न-भिन्न है। है। या आदमी या पशु-पक्षीके शरीरमें ही हम हर-एक वस्तुका रूप, रंग, गुण इत्यादि उसके यह करामात अपने चारों तरफ या स्वयं अपने पुद्गल-संघोंकी बनावटकी विशेषता या विभिन्नताअन्दर ही देखते हैं।
पर ही निर्भर है। एक ही जमीनसे रस-पानी इस तरहसे किसी भी आत्मप्रदेशके अन्दर खींचनेवाले तरह-तरहके पेड़-पौधोंमें क्यों भिन्नमौजूद पुद्गलोकी शकल, रूपरेखा-बनावट- भिन्न तरहके फल, फल, अन्न भिन्न-भिन्न रूपोंमें संगठन कुछ इस तरहका होजाता है कि वह पूराका गुण एवं स्वादके साथ हो जाते हैं। कोई मीठा, पूरा आत्मप्रदेश छेके तो रहता है ही वह उसे इस कोई कड़वा, कोई तीखा, कोई अमृत, कोई जहर, तरह आविष्ट, या आवेष्टित कर लेता है कि जिससे कोई टेढा, कोई सीधा, कोई गोल, कोई लम्बा, वह दोनों एक दूसरेसे बंध-से जाते है या बंध-से इत्यादि इत्यादि और भी एक ही तरहका अन्न, रहते है । इस तरहकी बातके होनेका अनुमान पानी, खाने-पीनेवाले दो जीवोंके शरीरमें दो तरहकी करना हरएकके लिए अत्यन्त ही आसान है। फिर चीजे पैदा हो जाती हैं एवं उनके बच्चे भी उन्हींके जहां-जहां वह पुद्गल शरीर जाता है या आत्मा अनुरूप होते हैं-यह सब क्यों ? और कैसे ? यह जाता है दोनों एक दूसरेके साथ चले या चलते प्रश्न हमारे आधुनिक वैज्ञानिकोंको चक्करमें डाले जाते है। यही कमों या पुद्गलोंका बंध है-जो हए है। हमें जानना चाहिए कि जैसे inorganic अनादि कालसे आत्माके साथ चला पाता है। chemistry मे chemicals का आपसमें action और वस्तुस्वभावके अनुरूप by perpetualc reaction होता है उसी तरह organicमंसारमें evolution शाश्वत विकास-द्वारा जब आत्मा भी होता है। सभीमें A toms या Molecules की पुद्गलोंसे छुटकारा पाजाता है तब उसे मोक्ष या बनावटमें फर्क पड़कर ही कोई तबदीली होती है। मुक्ति कहते है।
जैसे crystals खास चीजके एक ही शकल-सरतके - वस्तुएँ अनादिकालीन हैं और उनके स्वभाव बनते हैं वैसे ही अन्न पेड़-पौधोंमे भी फल, फूल, या गुण भी उनके साथ ही सदासे हैं । फिर जो पत्ते वगैरह एक खास शकल-सूरतके ही बनते हैं कुछ प्रभाव उनके आपसमें एक दूसरेपर क्रिया- एवं मनष्य या और प्राणियोंके शरीरके अन्दर भी प्रतिक्रिया (Action and reaction) या मिलने- उसी तरह सब चीजें अपने आप बनती है। हर एक विछुड़नेसे होगा या होता है उसीका नतीजा या उसी वस्तुके पुदगल-संघकी बनावटमें फरक है तथा हरके फलस्वरूप यह सब दृश्य जगत या जो कुछ हम एक बनावट अलग-अलग ढंगसे है। जब क्रिस्टल देखते-सुनते, जानते या समझते हैं वह सब कुछ है। बनते हैं तो उनके बननेमें भी यही बनावट उनके संसारकी विचित्रता
खास तरहकी शकल-सूरतका कारण होती है। यदि हम पुद्गल-संघोंके इस गठन या बनावट- पुद्गलका एक संघ (स्कन्ध ) छोटा-से-छोटा संघको ठीक-ठीक समझ जायँ तो संसारकी सभी Molecules जिस तरहका या जैसी बनावटका बातोंका उत्तर ठीक-ठीक अपने आप मिल जाय। होगा-और उसमें दूसरे और पुद्गल संघ mol
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अनेकान्त
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eculas जैसे-जैसे आते और जुटते जायेंगे उनके आत्माका बंध कहते हैं । यह सब भी ठीक उसी जुटने या मिलनेका ढंग या तरीका उस एक मंघ तरह होता है जैसे किसी अन्न या किसी फलका molecule की बनावटपर ही निर्भर करता है- रूप अपने आप तैयार हो जाता है। और भी जैसे जैसे किसी एक मूलमंघ ( Molecule) में एक पानीके गिलासमें तुखममलंगा इसवगोल या तरफ ऐसा है कि उसी तरफको दूसरा मौलेक्यूल इसी तरहको और भी ताकतकी दवाइयां होती हैं (उपादानभूत-मूल स्कन्ध ) मट सकता है दूसरी उन्हें डाल देनेपर ये चीजें फैल और फलकर सारे तरफ नहीं और दूसरा जो मौलेक्यल आवेगा वह गिलासके पानीको सोख लेती है और सब मिलभी एक तरफसे ही उस पहले मौलेक्यूलसे सटेगा- मिलाकर एक लोंदा-सा तैयार हो जाता है-पानीदूसरी तरफसे नहीं इस तरह हर-एक चीज जब का फिर न तो पता लगता है न पहले जो चीज छोड़ी स्वाभाविक रूपसे बनती है या बनने लगती है तब गई थी वही अपनी उस शकलमें रह जाती है। उसका एक खास रूप हो जाता है। सबकी अपनी- पानी और वह दवा एक-साथ ही लोंदेमें इकट्ठा अपनी तरतीब या शखला chaip or Inik & जहाँ जॉय तहाँ तहाँ इकटठा हो जायेंगे दोनों एकdirection of face or direction of atta- दुसरेसे बँधे हुए ही जायँग । पानीका तो कहीं पता chment अलग-अलग है। जैसे एक लोहा जब तक भी नहीं रहता उसी तरह और जैसे फल-फल चुम्बकके पास नहीं लाया जाता उमके भीतरकी और अन्न वगैरह अपनी-अपनी शकल पकड़ लेते बनावट एक खास तरहकी रहता है पर एक चुम्ब- हैं तथा जैसे शरीरधारियोंके शरीरमें रक्त, मांस, कके पास लाया जानेपर उसी लोहेके अन्दरकी मज्जा वगैरह अपने आप अपनी शकल-सूरत और बनावटमें या उसके बनानेवाले मौलेक्यूलोंकी तर- खास तरहकी बनावटोंमें बनते जाते हैं वैसे ही तीवमें फर्क पड़ जाता है, जिसकी वजहसे वह आत्म-प्रदेशमें स्थित पुद्गगल भी-अापसी कंपन चवक हो जाता है। पत्थरका कोयला बहुत दवाव या हलन-चलन या हलचलकी वजहसे एक खास पड़नेसे ही हीरामे परिणत हो जाता है। एक ही शकलमे बन जाता तथा आत्मासे बँध जाता है चीज इस तरहसे भिन्न-भिन्न वस्तुके साथ भिन्न- और उस भी बांध लेता है। भिन्न chemical action ( रासायनिक प्रक्रिया)
आत्माकी मुक्ति द्वारा, जिनसे पुद्गल-मंघोंकी बनावटमे स्वयं फरक पड़ जाता है, भिन्न-भिन्न गुणोंकी वस्तुमि परिणत
___ आत्मा चेतन है-जानने और अनुभव करने हो जाती हैं।
वाला। सच पूछिए तो केवल जानना और अनुभव - अनादिकालमे आत्मा (जीव) और पद्गल करना (to know & to feel) ही इसकी विशेषता. एक-साथ इकट्ठा घुले-मिले चले आरहे है-फिर को सूचित करता है। यह केवल ज्ञानमय या ज्ञानपद्गलोंमे हलन-चलन या कंपन होनेसे और मात्र ही है ऐसा भी कहना अनुचित नहीं होगा । आत्मप्रदेशमें भी कंपन-हलचल होनेसे उस अन्यथा ज्ञानके अतिरिक्त तो हर तरहसे यह शून्य आत्मप्रदेशमें वतमान पुद्गल भी एक खास तरह ही है। इसके कोई पोद्गलिक (material) की बनावट और संघोंमें बंध जाते हैं एवं आत्मा शरीर नहीं है। यह तो स्वयं अशरीरी है। हां, पद्को भी इस तरह आबद्ध कर लेते है कि फिर दोनों गलके Matter संयोगसे शरीरधारी हो जाता है। की गुत्थम-गुत्थी हो जाती है और दोनों एक-दूसरे पर पुद्गलके साथ मिलना, बंधना या संयोग इसका से अभिन्न-से हो जाते है-इसे ही पुदगल और स्वभाव नहीं है। न तो वस्तुत: इसके कोई इच्छा
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किरण २]
मैं क्या हूँ ?
ही है और न इच्छापूर्वक पुद्गलके साथ बँधना रहता है । इसके बारेमें वैज्ञानिक explanation ही इसका होता है। यह तो एक संयोगमात्र है। विवरण या स्पष्टीकरण) जो कुछ होसकता है उसके स्वभाव तो इमका हर तरहके Matter या पुद्गज लिये अपनी Theory या सिद्धान्त मैं पहले लिख से अलग ही रहनेका है पर अनादिकालीन चुका हूं। यह भी ठीक इसी तरहसे है जैसे आजसंयोग-साथ रहना इसे पुद्गलके साथ बांध देता कलके वैज्ञानिक बिजली (विद्य त-electri city) है। पर यह बंध स्वभावानुकल नहीं होनेसे यह का electrous द्वारा होना कहते, मानते एवं समआत्मस्वाभाविक रूपसे ही पुद्गलसे छटकारा पाता झते हैं । electrons को किनीने देखा नहीं:है या पा जाता है। यह छूटना, मुक्ति या मोक्ष तो परन्तु इसके काम या असर देखकर ही अनुमान वस्तुस्वभाव ही है। इसमे कोई तीसरा आधार, किया गया है कि ऐसा कुछ है या ऐमा कुछ होनेसे कारण या महायक कुछ भी नहीं है। यह तो स्वयं ही जो सब सामने बिजली द्वारा होता हुआ देखा अपन आप वस्तुम्वभावानुकूल होता है या होता जाता है वह संभव है या उन सबका कोई ठीक जाता है-जिसे आधुनिक वैज्ञानिक (evolution) explanation "तुकमें तुक वैठनेवाला" सम्भव या विकासवाद कहते है। आत्मा कर्मों या पुद्गलों- होता है। यही वात चेतन आत्मा और material से छुटकारा पानेके सिलसिले या दौरानमें जो रूप पुद्गलके मिलनके सम्बन्धमें भी, जैसा मैंने सुझाव या शरीर वगैरह धारण करता है या करता जाता उपस्थित किया है, पूर्ण रूपसे लागू है। यह काम है उसे ही मांसारिक भाषामें (evolution) या Phenomena किसतरह सम्पादित होता है उसका बिकाम कहते है । इसका पूर्ण विकास तो तभी प्रत्यक्ष दर्शन या प्रत्यक्ष ज्ञान तो अभी हम साधाहोता है जब इसके स्वभावको आवृत करनेवाले रण मानवोंको जितना सीमित ज्ञान, जानकारी या पुद्गलोंसे, जो संयोग या साथ रहनेके कारण ही अनुभव है उसमें कैसे सम्भव होसकता है? ऐसी इससे चिपटे रहते है और इसके गुणोंको ढॉक हालतमें यदि हम विद्य तप्रवाह इलेक्टन electrons रहते है, यह छुटकारा पाकर अपन स्वभावमें द्वारा होता है जैसे मानते है उसी तरह यदि तक पूणरूपसे विकासित हो जाता है । इसे ही धार्मिक पूर्ण तरीकोंसे इस विपयपर भी विचार करें तो परिभापामे मोक्ष मुक्ति या निवाण होना या सिद्ध इम विपयमें भी उमी नतीजे (Conclusions) पर पदमे स्थापित होना अथवा ईश्वर हो जाना कहते पहुचेगे जो पहले इस बारेमें लिखा जाचुका है और है। यह आत्माकी सबसे ऊँची अवस्था है जहां यही इसका mosi reasounbleयाRationalexइसका पूर्ण ज्ञान विकसित हो जाता है एवं यह planation लगता है (seems to be)जबतक दूसरा परम निर्मल, परमविशुद्ध होकर सचमुच ही केवल- कोई इससे बेहतर Theory या सिद्धान्त आगे प्रतिज्ञान एवं चेतनामय या ज्ञान एवं चेतनामात्र पादित न हो। इस तरह की बात जैसा पहले कहा रह जाता है। यह अवस्था प्रायः हर-एक जीव-हर- जाचुका है। जैनधर्ममें वार्णित सिद्धान्तसे भी मेल क भव्य-प्राणी प्राप्त करता है या कर सकता है। खाजाता है और वेदान्त, न्याय, बौद्धधर्मोंसे भी।
आत्माका पुद्गलोंके साथ सम्बन्ध मेल हां, इनमे केवल यह बात मानना अत्यन्त आवया बंध जब केवल मंयोगमात्र है तब आत्माका श्यक है कि संसारका निर्माण किसी बाहरी शक्ति इन पुद्गलोंसे छुटकारा स्वाभाविक एवं वस्तुस्व- या किसी सर्वशक्तिमान ईश्वरने नहीं किया बल्कि भावके कारण ही अपने आप होता है।
यह सब कुछ स्वयं स्वाभाविक एवं अनादि है। आत्माका बंध पुद्गलके साथ कैसे हुआ यदि ऐसा मान लिया जाता है और जैनधर्ममें वर्णित
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जैनेन्द्रव्याकरण के विषय में दो भूलें
(युधिष्ठिर मीमांसक)
- *सन् १६४२ में श्री० पं० नाथूरामजी प्रेमीके श्रीमान् मा० पण्डितजीकी आज्ञानुसार उन दो विविध विद्वत्ता एवं अन्वेषणपूर्ण लेखोंका संग्रह भूलोंपर यह लेख प्रकाशित कर रहा हूं। आशा है 'जैन साहित्य और इतिहास' नामक ग्रन्थ प्रका- इससे अनेक महानुभावों को लाभ होगा। शित हुआ । उसमें आचार्य देवनन्दि-विरचित १-डा० काशीनाथ बापूजी पाठकके प्रमाण जैनेन्द्रब्याकरणपर एक लेख छपा है। उसमें दो उदधत करते हए श्री० पण्डितजी ने लिखा हैभले है। उनकी ओर गत अगस्त मासमें श्री० मान- "पाणिनीय व्याकरणका सत्र है-'शरद्वच्छनकनीय पण्डितजीका ध्यान आकर्षित किया गया।
आकर्षित किया गया। दर्भाद् भृगुवत्सामायणेसु' (४।१।१०२)। इसके स्थानमें उन्होंने मेरे पत्रका उत्तर देते हुए लिखा
जैनेन्द्रका सूत्र इस प्रकार है-'शरद्वच्छनकदर्भाग्नि"आपने मेरे जैनेन्द्रव्याकरण सम्बन्धी लेखमें शर्मकृष्णरणात् भृगुवत्सारायणवृषगणब्राह्मणवसिष्ठे'जो दो न्यनताएं बतलाई है उनपर मैने विचार (३।१।१३४)। किया। आपने जो प्रमाण दिये हैं वे बिलकुल ठीक इसीका अनुकरणकारीसूत्र शाकटायनमें इस हैं। इनके लिये मैं आपका कृतज्ञ हूं।........ तरहका है-'शरदच्छुनकरणाग्निशमकृष्णदर्भाद् भृगु
आपने जो न्यनताएं बतलाई है उन्हें एक लेखके वत्सवसिष्ठवषगणब्राह्मणग्रायणे ।' २।४।३६॥ रूपमें यदि आप 'अनेकान्त' या 'जैनसिद्धान्त
इस सूत्रकी अमोघा वृत्तिमे "श्राग्निशर्मायणो भास्कर' में प्रकाशित करदें तो ज्यादा अच्छा हो " वाषगण्यः। श्राग्निशमिरन्यः" इस तरह व्याख्या की है।
इन सूत्रोंसे यह बात मालूम होती है कि कर्मसिद्धान्त(Kar.na-Philosophy)को ठीक-ठीक पाणिनिमें 'वार्षगण्य' शब्द सिद्ध नहीं किया गया। तरह समझ लिया जाय एवं ऊपर लिग्वे मुताबिक जबकि जैनेन्द्र में किया गया है। वार्षगण्य' सांख्य
आत्मा और पुद्गलोंके मंयोगकी जो व्याख्या दी कारिकाके कर्ता ईश्वरकृष्णका दूसरा नाम है।" गई है उसे स्वीकार कर लिया जाय तो फिर किसी (पष्ठ ११८) भी धर्ममें कोई झगड़ा न तो सिद्धान्तोंका रह जाता इस लेख में दो बातें दर्शाई हैं। एक-जैनेन्द्र है न मान्यताका । हाँ, व्यवहार या आचरण देश, व्याकरणके उपर्युक्त सूत्रमें 'चार्षगण्य' की सिद्धि काल, परिस्थिति एवं स्थान या आवश्यकतानुसार दर्शाई है। दसरी-पाणिनिमें वागण्यकी सिद्धि भिन्न भिन्न हो सकता है और होगा ही। क्या हमारे नहीं है। ये दोनों बातें ठीक नहीं हैं । जैनेन्द्र और धार्मिक नेतागण एवं Philosophers दर्शनके जान- शाकटायनके जो सूत्र ऊपर उद्धृत किये गये हैं उनमें कार इधर ध्यान देकर इस चिरकालसे चले आते वार्पगण्य गोत्र होने पर "श्राग्निशर्मायण" की सिद्धि हुए विवादको दूर करेंगे ? यदि ऐसा होजाय तो दर्शाई है न कि वार्षगण्यकी । वार्षगण्यकी सिद्धि फिर संसारमें स्थायी शान्ति और फलस्वरूप सच्चा जैनेन्द्र व्याकरणके "गर्गादेर्यन " (३।१।६४)(पृष्ठ ३६) सुख सचमुच स्थापित होजाय ।
से यत्रप्रत्यय होकर होती है । गगोदिगण (४|११०५)
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किरण २]
जैनेन्द्रव्याकरणके विषयमें दो भूलें
में 'वृषगण' शब्द पड़ा है (पृष्ठ ४०)। पाणिनिने भी माना है परन्तु इसपर सब सहमत हैं कि वह पूज्यगगादिगणमें वृषगण शब्दका पाठ किया है। अब पादसे प्राचीन है। चान्द्रव्याकरणमें भी एकशेष रही आग्निशर्मायण आदि पदोंकी सिद्धि। वह प्रकरण नहीं है अतः अनेकशेषब्याकरणकी भी पाणिनीय व्याकरणमें विद्यमान है। पाणिनिने उपज्ञा प्राचार्य पूज्यपादकी नहीं है। हमारे मतमें नडादिगण (४|१शहद) में "अग्निशर्मन् वृषगणे" तथा जैनेन्द्रव्याकरणकी विशेषता है संज्ञाका लाघव । "कृष्णरणी ब्राह्मणवाषिष्टयोः" दो गण सूत्र पढ़े है। यद्यपि पाणिनीय व्याकरणमें भी ट घु आदि लघु भेद केवल इतना ही है कि पाणिनिने ये गणमूत्र मंज्ञाएँ हैं तथापि उसमें सर्वनाम, सर्वनामस्थान पढ़े हैं और जैनेन्द्र और शाकटायन व्याकरणमें जैसी महती संज्ञाएँ भी विद्यमान हैं जैनेन्द्रव्याकइन्हे सूत्रमे सन्निविष्ट कर दिया है।
रणमें काई भी महती संज्ञा नहीं है। वार्षगण्य इश्वरकृष्णका नाम लिखा है और वस्तुतः व्याकरणमेंसे एकशेष प्रकरणको हटाना उसके आधारपर जो जैनेन्द्र के कालनिणयका प्रयत्न आचार्य चन्दगोमीकी भी उपना नहीं है। उसने तो किया गया है वह भी ठीक नहीं । वागण्य सांख्यका अपने व्याकरणमें आँख मींचकर पातञ्जल महाएक अत्यन्त प्राचीन आचार्य है । महाभारतमें भाष्यका अनुसरण किया है। पतञ्जलिने पाणिनिइसका बहुधा वर्णन मिलता है । तथा पाणिनिके के जिन-जिन मत्रोंका जैसा-जैसा न्यासान्तर दशोया व्याकरणमें वार्षगण्यकी सिद्धि होना भी इसकी चन्द्रगोमीन वैमा ही न्यासान्तर अपने व्याकरणमें प्राचीनतामें प्रत्यक्ष प्रमाण है अत: इस प्रमाणके रख दिया और जिन सत्रोंका प्रत्याख्यान किया आधारपर जैनेन्द्रका कालनिर्णय करना ठीक नहीं। उनको व्याकरणमें नहीं रक्खा। पतञ्जलिने महा
यह भूल डा० वेलवेल्कर ने भी की है देखो.... भाष्य रा२।६४ में "अभिधान पुनः स्वाभाविकं" कह..... पृष्ठ........
कर एकशेपका प्रत्याख्यान किया है। और आगे भी २-पृष्ठ १०२ पर लिखा है-"अभयनन्दि कृत प्रतिसूत्र 'श्रयं योगः शक्योऽवक्तुम्' लिखा है। महावृत्तिवाले सूत्रपाठमे एकशेपको अनावश्यक महाभाप्यसे भी प्राचीन माथुरी वृत्तिका एक बतलाया है-"स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैकशेषानारम्भः, उद्धरण पुरुषोत्तमदेवने भाषावृत्ति १२।५७ में दिया (१११६१)। और इसीलिये देवनन्दि या पूज्यपाद- है-" माथुयों तु वृत्ती अशिष्यग्रहणमापादमनुवर्तते ।। का व्याकरण 'अनेकशेष' कहलाता है। चन्द्रिका इस उद्धरणके अनुसार एकशेपकी अशिष्यता स्वयं टीकाके कर्ता स्वयं ही 'श्रादावुपज्ञोपक्रमम्' (
१९१४) सूत्रकार पाणिनिने
का सत्रकार पाणिनिने दर्शाई है ऐसा सिद्ध होता है। सूत्रकी टीकामें उदाहरण देते हैं-"देवोपज्ञमनेकशेष- ऐसी अवस्थामें उपलब्ध व्याकरणोंमें जैनेन्द्र व्याकरणम् ।" यह उदाहरण अभयनन्दिकृत महा- व्याकरण ही अनेकशेष व्याकरण है और अनेकवृत्तिमें भी दिया गया है।
शेष व्याकरणकी उपज्ञा प्राचार्य पूज्यपादकी है यह पुनः पृष्ट १०३ पर लिखा है-"पाठकोंको स्म- ठीक नहीं। रण रखना चाहिये कि उपलब्ध ब्याकरणों में "अने- इस विषयपर हमने अपने "संस्कृत व्याकरणकशेष" व्याकरण केवल देवनन्दिकृत ही है दूसरा शास्त्रका इतिहास" प्रन्थमें विस्तारसे लिखा है। नहीं।"
यह ग्रन्थ छप रहा है। यह लेख भी ठीक नहीं है। चान्द्रव्याकरणका आशा है विद्वान् महानुभाव इसपर विचार समय यद्यपि ऐतिहासिकोंने बहधा भिन्न-भिन्न करेंगे।
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मेरे मनुष्य जन्मका फल
( श्रीजुगलकिशोर कागजी )
: ह सके।
मेरी जो आत्मा इस समय शरीरके सहारसे खुशी मेरे शरीरके स्वस्थ रहनेपर निर्भर है उमी जीवित रह रही है उसे मै इसप्रकारका अभ्यास प्रकार दूसरे प्राणीकी खुशी भी उसके शरीरके - कराऊँ जिससे उसका आत्मबल बढ़ता जावे और स्वस्थ रहनेपर ही है। प्रत्येक प्राणीका स्वभाव : पढ़ते-बढ़ते पूर्ण बल प्राप्त करके बिना शरीरके सुख ही है और वह सदा दःखोंसे डरता है। और लके स्वयं अपने ही आधारस जीवित व सुखी सुख ही चाहता है।
___ दुःश्व दो प्रकारके होते है-एक तो शरीर-सम्बन्धी 1 आत्माका स्वभाव सुख है। आत्माका जब तक और दूसरे मनसम्बन्धी । शरीरसम्बन्धी दुःखसे बच
रीरसे सम्बन्ध बना रहेगा तब तक उसका सुख नके लिये शरीरकी प्रकृतिके अनुकूल शुद्ध साफ ताजा रीरके आधीन ही रहेगा अतः आत्माको सुखी ऋतुके अनुकूल नियत समयपर भृखसे कुछ कमती खनेके लिये शरीरको स्वस्थ रखने योग्य क्रियायें भोजन करना आवश्यक है । शरीरकी अस्वस्थ दशाके करनी पड़ती है-शरीरकी रक्षाके अनेक उपाय हो जानेपर तुरन्त ही उसकी ठीक-ठीक चिकित्साके रने पड़ते है।
द्वारा शुद्ध औषधिका सेवन व अनुकुल पदार्थाका २ शरीरका स्वभाव शारीरिक गुण और पर्यायोंके सेवन ही शारीरिक हानिको दूर करनेका निमित्त है।
धीन है और आत्माका स्वभाव आत्माके अधीन अपने शरीरके स्वस्थ रहते हुए ही मै शारीरिक २ फिर भी दोनोंके एक-साथ मेलके कारण एक दुःखसे निवृत्त रह सकता हूं । शरीरक रोगके र सरेको हानि व लाभ होता रहता है । शरीरको समय मुझं संसारके सभी पदार्थ व मेल बुरे वानि होनेमे आत्माको दुःख होता है, शरीरकी अनुभा होते है। शरीरका दुःख स्वयं मुझे ही रावस्था अनुकूल रहनेसे-स्वस्थ रहनेसे-शारी- भोगना पड़ता है। मुझे कोई भी ऐसा नहीं दीखता एक बलका लाभ होनेसे आत्माको सुख होता है। जो मेरे दुःखमे हिस्सा बटा ले। अपने शरीरकी साहला सख निरोगी काया' यह सब भली-भांति रक्षाक लिये शरीरमें उत्पन्न हुए रागको नष्ट करने गनते ही है।
के लिये मैं अपनी प्यारी सम्पत्तिकी भी परवाह । जब तक मेरी आत्माका मेल शरीरके साथ न करके उसको चिकित्सा व औपधिके निमित्त 'ना रहेगा मेरी आत्मा ऐसी क्रियाये व व्यव- खर्च कर देता हूं। शरीरसे बढ़कर मुझे कोई अन्य 'र करती रहेगी जिसके कारण शरीरकी रक्षा वस्तु शरीरके समान प्यारी या मूल्यवान नहीं
ती रहे । परन्तु जो भी व्यवहार करना पड़ समस्त संसारकी सम्पत्ति व विभूति एक तरफ और 'जमें इस बातका बिचार अवश्य करना पडेगा मेरे शरीरकी रक्षा-स्वास्थ्य-सुख दूसरी तरफ। अन्य किसी भी प्राणीके शरीरको किसी प्रकारका
जब मेरा शरीर ही इस समय मेरा सर्वस्व एन पहुँचे, कारण कि जिसप्रकार मेरी आत्माकी है तो भला दूसरे मेरी आत्माके समान जो आत्मा
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अनेकान्त
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व जीव हैं उनका शरीर उनको भी मुम्बका साधन समय-समय पर उसका स्मरण आजाने पर आत्मा व सर्वस्व क्यों न हो।
दु:ग्वी होकर उसका बदला लेने का प्रयत्न करने लग शरीरके म्वस्थ रहते हार भी अच्छीतरह जाता है। सुग्वपूर्वक समय विताते हुए भी आत्मामें एक चिंता- जब मेरी आत्मा मन-संबंधी दुखोंके कारणोंसी बनी रहती है, उधेड़-बुन सी लगी रहती है, से बचना चाहती है, तो फिर मुझे दूसरे प्राणियोंके उलझन-मुलझन-मी रहती है। कभी तो मन इतना हृदयमें चिन्ताओंके उत्पन्न करनेवाले कार्य करना सुग्वी-सा होजाता है कि बस मेरे बराबर कोई दूसरा कैसे शोभा दे सकते है ? जैसा में वैसे वे -इसकी नहीं, मब कुछ मेरे लिये और मेरे ही अधीन कसौटी तो आत्मा स्वय ही है कोई दूसरा अन्य है । और जो चीज वाकी रह गई है वे मुझे पदाथ नहीं, अपने आप ही वैध है, अपने विचार ही अधिक-से-अधिक प्राप्त होनी चाहिये । और कभी औषधि है, अपनी आत्माके अनुकूल दुसरी आत्माइतना दु:खी होजाता है कि मेरे बराबर कोई प्रोंके मुख व दुःखका अनुभव ही शान्ति है, और दु:ग्वी नहीं, अतः बरावर बेचन-सा बना रहता है। सत्य है, शुभ है, भाव अहिंसा है और इसी प्रकार जो पदार्थ या सम्बन्ध उसको प्यारा या सुखरूप के अधीन रहते हए दमरे जीव व पदार्थोसे व्यवजान पड़ता था वही कुछ समय पश्चात् बुरा या हार व मंबंध सत्य व्यवहार, शुभ व्यवहार और दुःखरूप जान पड़ने लगता है-किसी वस्तु या व्यावहारिक अहिंसा है। सम्बन्धसे मलकी चिन्ता और किमी सम्बन्ध या
जितना भी व्यवहार है वह सब मेरी आत्मा मेलको छोड़ने की चिन्ता लगी रहती है-किमीक की खशी व सखक लिये है। श्रात्माका सावधामेलसे जिस समय जिम मेलमें लाभ दीखता है. नता-पर्वक रहते हए जो अपने शरीरके साथ व वह सुखी होजाता है उसी मेलमें जिम समय हानि अन्य शरीरसहित व शरीररहित जड़ पदार्थों के देखता है वह दुःखी हाजाता है-इस तरह शारी- साथ जो व्यापार है उसका ध्येय अपनी व दूसरी रिक सुख-दुःखसे भिन्न दृसरा कारण मन-सम्बन्धी
नाही भी दुःख-मुख होता है।
अपनी आत्माका पास्तविक ध्येय आत्माको मन-सम्बन्धी दुःखको दूर करनेके लिये कोई न स्वतन्त्र शरीरके निमित्त तथा व्यवहारसे रहित तो औपधि है, न कोई चिकित्सा है, न एकके मनकी करनका ही है, ताकि शारीरिक दुख व मानसिक बातको कोई दूसरा जान पाता है। प्रत्येक प्राणी दुखोंसे यह प्रात्मा सदाक लिय निवृत हो जाव स्वयं अपने आप ही अनुभव करता रहता है, और जब तक आत्मा शरीरकं साथ रहते हुए शरीर मन-सम्बन्धी दुःखाम रहिन होने के उपाय मोचता और आत्माको एक मानन के कारण अपना पूर्ण श्रारहता है।
त्मवल प्राप्त नहीं कर लेगी तब तक शरीरका संबध व जब कोई गाली देता है, भूठ बोलता है, माल शरीरके निमिनमे उत्पन्न होनेवाले शारिरिक व चुराकर ले जाता है, धोग्वा दता है, छड़ता है, मानसिक दुःग्य आत्माको अप्रिय लगनवाले दुःख मारता है, पीटता है, किमी स्थानमे बंद कर देता भोगने ही पड़ेगे। है तब उस समय मन-संबंधी दुःग्व, अधिक उत्पन्न आत्मा इम मनुष्य-देहको प्राप्त होकर जो भी हो जाता है, जो कि एक ऐसा वैरका-चिन्ताका- व्यवहार शरीरकी स्थितिको भली-भाँति रखनेके दुःखका बीज आत्मामें उत्पन्नकर देता है जिससे लिये कर रही है उसका मूल प्रयोजन यह ही है कि
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कविकर बनारसीदास (ले०-कुमार वीरेन्द्रप्रसाद जैन )
- *शांत-रसकी भगीरथी प्रवाहित करनेवाले कविता-स्रोत वहायाः जिसका पानकर भग्नाश अध्यात्मवादका कोना-कोना झांक आनेवाले लोक- जनताने विषयात्मक वृत्ति वदली। ऐसे महान कविकल्याणार्थ सवस्व समर्पण करनेवाले, उदार-चेता शिरोमणि बनारसीदासजीके जीवन-वृत्तपर एक कर्मठ, कविवर बनारसीदासजीने स्वकृति-सुधासे विहंगम दृष्टिपात करना आवश्यक है। उनका शृंगारोन्मुख ज्ञानहीन जनताको संसार-सागरसे जीवन-वृत्त जाननेके निमित्त, हमें उनके अनठे तिरकर, उस परमसुख एवं परमानन्द मुक्तिको ग्रन्थ 'अर्धकथानक' का ही आश्रय लेना पड़ेगा, प्राप्त करनेके हेतु सीधा-सच्चा-सरल पथरूपी उसके आधारपर जन्मादि इसप्रकार है:
"सम्वत् सोलह-सौ तेताल, माघ मास सिन पक्ष रसाल । कुछ समय प्रति-दिन आत्माको ऐसा मिल जावे
एकादशी धार रविनन्द, नखत रोहिणी वृषको चन्द ॥ जबकि आत्मा आत्माके लिये अपनी आत्माके
रोहिन वितिय चरन अनुसार, खरगसैन घर सुत अवतार । अन्दर अपनी आत्माका ध्यान करनेका अभ्यास
दीनों नाम विक्रमजीत, गावहिं कामिन मंगल-गीत ॥" करने लग जावे-अर्थात् दृष्टि अपने इष्ट ध्येयपर
कविवरका अध्ययन सात वर्षकी अवस्थासे जमा लेवे । जब तक शरीर स्वस्थ रहेगा-तब तक
ही प्रारम्भ होगया था, इससमय आप प्रकाण्ड पं० यह ध्यान व दृष्टि बनती रहेगी, और आत्मा शरीरकी शक्तिसे भिन्न अपनी निज शक्तिको शनैः शनैः
पाण्डे रूपचन्द्रकी छत्रछायामें विद्योपार्जन करते थे, बढ़ाती चली जावेगी । ज्यों ज्यों आत्मशक्ति बढ़ती
परन्तु मुगलराज्यके भयसे आपका दस वर्षकी आयुमें जावेगी त्यों त्यों मानसिक दुःख कमती होते चले
पाणिग्रहण हो गया, इसके कुछ समय तक अध्य
यन कार्य बन्द रहा। चौदह वपकी अवस्थामें आपजावेगे और अन्तमें ममस्त मानसिक दुःखोंके कारणोंको आत्माम भिन्न करके निज पूर्ण ध्यान
ने पुनः पढ़ना प्रारम्भ किया। में आत्मा लीन व एक होकर सदाके लिये पूर्ण ज्ञान,
अब यह कविवरकी यौवन-अवस्था थी। दर्शन, सुख, वीर्यमे रम जावेगी । यह ही मनुष्य उनका गात उन्मादयुक्त था, वे इसके प्रभावसे जन्मका पूर्ण फल है, जिसे प्रत्येक आत्मा चाहती है
विरक्त न रह सके, इसके सामने सिर टेकना पड़ा, और यही प्रत्येक आत्माका स्वभाव है शरीरके विपय-वासनामे लिप्त होना पड़ा। यथासाथ वास्तविक व्यवहार इसकी ही सिद्धिके अर्थ 'तजि कुल कान लोककी लाज, भयो बनारसि श्रासिखबाज । हैं। जितने प्राणी इस प्रकार सिद्ध अवस्थाको प्राप्त और........... हो चुके हैं वे सिद्ध भगवान हैं शरीरसे रहित हैं- "कवहूं श्राइ शब्द उर धरै, कबहूं जाइ प्रासिखी करै । दुःखोंसे रहित हैं-पूर्ण मुग्वी है मैं उन्हींका पोथी एक बनाई नई, मित हजार दोहा चौपई ॥ सहारा लेकर और जिस मार्गपर वे चले हैं उसी तामें नवरस रचना लिखी, पै विशेप बरनन प्रासिखी" पर चलकर उन जैसा बननेका प्रयत्न करता हूँ।
कविवरके तीन विवाह हुए थे, तथा उनका
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अनेकान्त
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वैवाहिक जीवन आनन्दमय-सा रहा, आपकी मृत्युके विषयमें किंवदन्ती है, कि कविवर जब मृत्युपत्नी आदर्श एवं पतिव्रता थी, आपके नौ पुत्र हुए, शय्यापर पड़े थे उस समय कंठ रुध गया था, और पर दुर्भाग्यवश सब ही महाकालके पथिक बने। तब कविवर अपना अन्त समय समझ भगवत् ___"कविवरको काव्य-कलाके दर्शन तो बाल्याव- ध्यानमे निमग्न हो गए। आपकी मौन-मग्नता देख स्थासे ही हो गये थे, और कवित्व उनका जीवन- मूर्ख जन कहने लगे कि आपके प्राण माया एवं पारिसहचर-सा होगया था। इस समय आपकी कविता- वारिकजनोंमे अटके है । इसपर कविवरने संकेतोंसे धारा शृगार-रममें ही प्रवाहित हुई थी, किन्तु पट्टी और लेखनी मांगकर दो छन्द गढ़कर लिख परिवर्तन हुआ । प्रकृतिका यह अटल नियम है- दिये । रातके बाद दिन होता है।
"ज्ञान कुतक्का हाथ, मारि अरि मोहना । मंध्याके बाद प्रभात होता है।
प्रगट्यो रूप स्वरूप, अनन्त स मोहना ॥ मरणके बाद जन्म होता है।
जापरजको अन्त, सत्यकर मानना । अवननिके बाद अभ्युदय होता है।
चले बनारसीदास, फेरि नहि भावना ॥ एकबार कवि-पुंगव गोमतीके तटपर अपनी हमारे चरितनायक, कर्मवीर, कविचडामणि रसिक-मंडलीके माथ शीतल समीर सेवन कर रहे बनारमीदासजीका काव्य-निझर शान्तरसके सलिथे। सहसा कविवरकी दृष्टि गोमतीकी तरल लका बहा है; उसमे अलौकिक आभा है, अध्यातरंगोंपर पड़ी और वे उसकी तुलना मनसे करने त्मवादको चरम-सीमा है, मन मोहनेकी महान लगे, तब वे वैगग्यात्मक भाव-सागरमें स्नान करन क्षमता है और है उसमें सौष्ठवना, गेयता तथा लगे और एकाएक बगलमे दबा हुआ म्वरचित शृङ्गा. गम्भीरताके साथ-माथ सरसता। रिक काव्य गोमतीकी लोललहरोंमे सदाके लिए उनकी कविता गीतात्मक है, जो अपनी मधुर समर्पित कर दिया।। इतना महान त्याग क्षणभरकी स्वर-लहरीस सीधी मनुष्यके वक्षःस्थलपर ठहरती सतिक प्रभावसे कर डाला । इसपर उनके साथियों
स कर डाला । इसपर उनक साथिया है और हृदुस्थलके प्रत्येक मृक्ष्म भाग नकको ने क्रन्दन किया पर अब क्या होमकता था। यहां मंकत करती है। जिसकी झंकारस मानवके मानससे सं कविका जीवन-उपन्याम मदाके लिये पलट गया। सात्विकता, धर्मपरायणता और दयाकी स्वच्छ इतना ही नहीं उनका लौकिक प्रेम पारलौकिकतामे सरिता बह निकलती है जो मंसारकी संतप्तताम परिणत हो गया। यथा
शीतलताके मंचारणार्थ महायता प्रदान करती है। 'तब अपजसी बनारसी अवजस भयो विख्यात ।' उन्होंने तात्कालिक प्रचलित मभी काव्य-पद्ध
अबसे आपका शेपांश समय व्यापार तथा नियोंमे मफलकाव्यांगपूर्ण रचना की है । आपने धर्म-प्रभावनामें ही व्यतीत हुश्रा । आपने व्यापार- अवधी और खड़ी बोलीको अपनाया है। उसमे में बड़ी कठिनाइयोंका सामना किया। आपमे स्वा. भी शुद्ध तत्मम तथा तद्भव शब्दोंको और रूपकों भिमान था। यही कारण था कि आपने जहॉके शाह तथा अंलकारोंको व्यवहृत कर भाषाको पूर्ण शाहजहाँके यहां सन्मान पाया, शाहजहां आपकी साहित्यिक बना दिया है । भाषा प्रांजल तथा धर्मपरायणता, साधता तथा दृढ़तापर मंत्रमुग्ध-सा अध्यात्मवाद जैसे नीरम विषयमें होनपर भी रहता था । अर्धकथानक लिखनेके पश्चात् आप ओज, माधुर्य, प्रसाद आदि गुणोंमे युक्त है,। कबतक जीवित रहे, यह अज्ञात है। कविवरकी उनके हृद्रूपी सरोवरमे चार बृहन् कुसुम
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६८
अनेकान्त
[वर्ष १०
खिले; जो संसारके सामने 'समयसार', 'अर्ध- दृष्टिकोण में रखते हुए रचा। इसलिए नहीं कि वे कथानक', 'बनारसीविलास', और 'नाममाला' साहित्य-सदनमे सर्वोत्कृष्ट स्थानपर स्थित होवें। के रूपमें प्रकट हुए। उनके भीने भीने सौरभने इससे कविकी अन्तर-आत्मा झलक पड़ती है, इसके विश्वमें विमल वातावरणका विनिर्माण किया। एक दो शिक्षाप्रद पदोंकी मर्म-स्पर्शताकी अनुभूति
१. समयसार--यह प्राकृत भापाके समयसार कीजिए। पर लिखे गये संस्कृत समयसार नाटकके आधार
१. कुल-कलंक दलमलहि, पापमल--पंक पखारहि । पर रचा गया है। यह हिन्दी साहित्य-सदनका
दारुण संकट हरहि, जगत-माहिमा विस्तारहि ॥ विशाल बहिर तथा नींव है। इसमें कविने अ
सुरग मुकति पद रचाह, सकृत संचरहिं करुणारसि । ध्यात्म-मरुभूमिमे अपने शान्त-रसके सिचनसे
सरगन वदहि चरन, शील-गुण कहत बनारसि ॥ सुन्दर-सपमावाले उद्यानको सृष्टि की है, जिसमें
२. ज्यों सुवास फल-फूलमें, दही-दूध में घीव । विचरण करते ही बनता है । उसके एक सछन्दका पावक काठ-पाषाणमें, त्यों शरीरमें जीव ॥ रसास्वादन कीजिये:
४. नाममाला-यह एक कोप-ग्रन्थ है यह महा"काया चित्रमारी में करम परजंक मारी,
कवि धनजयकी संस्कृत रचना नाममालाका प्रायः मायाको सबारी सेज चादर कलपना।
सुन्दर हिन्दी-अनवाद है। अनवाद उत्तम है। शैन करै चेतन अचेतनता नींद लिए,
साहित्य-प्रेमियोंके कंठ करने योग्य है। उदाहरणार्थ मोहकी मरोर यह लोचनको ढपना ॥ एक दोहेका ही दर्शन कीजियेउदै बल जोर यहै श्वासको शबद घोर ,
सम्यक सत्य अमोघ सत नि:संदेह विनधार । विधै सुखकारी जाको दौर यहै सपना ।
ठीक यथाथ उचित तथ मिथ्या श्रादिश्रकार ॥ ऐसी मूढ दशामें मगन रहे तिहुँ काल,
हिन्दी-व्योम-वितानमे कविशिरोमणि बनाधावे भ्रम-जालमें न पावे रूप अपना"
रसीदासजी मध्यान्हकालीन जाज्वल्यमान मातडकी २. अर्धकथानक-कविका 'आत्मचरित्र' है। नाई प्रखर किरणोंवाले दीप्तमान है। उनकी आभा इसमे कविने जिस निपुणतामे आत्मवर्णन किया अमर है। उनकी क्षमता रखनेवाले प्रायः महात्मा है, वह पठनीय है। उममें कविके व्यक्तित्वकी।
तुलसीदासजी ही है। कहा जाता है कि एकबार छाप है। हिन्दी-साहित्यके क्षेत्रमें यह आत्म-चरित्र- बनारसीदासजी तथा तुलसीदासजीका साक्षात्कार चित्रणका पहला ग्रन्थ है, एवं चरित्र-चित्रणकी
हुआ था। उम समय कविवरने एक अपनी सुरचना शैलीकी सृष्टि यहींसे हुई। इसप्रकार हमारे कवि
तुलसीदासजीको सुनाई । इसपर महात्मा तुलसीराज चरित्र-चित्रण-शैलीके प्रवर्तक एवं मंस्थापक दासजीने अपना ग्रन्थ 'रामचरित मानस' कविवरभी हैं। 'अर्धकथानक' कविवरको एक प्रौढ़ को भंट किया। पुनः भेट होने पर जब तुलसीदासजी सत्समालोचक भी बनानेको पर्याप्त है।
ने रामायणके विषयमें पूछा तो कविवरने...... ३. बनारसी-बिलाम-बनारसीदासजीकी विमल “विराजै रामायण घट माहि" रचना तत्काल रचकर वाणीसे विखरित होनेवाले अमृतोपदेशका संग्रह सुनाई। इस अध्यात्म-रचनाको श्रवणकर तुलसी
है, जो पं० जगजीवनदामजी द्वारा संकलित दासजीने बनारसीदासजीको 'पार्श्वनाथस्तोत्र' किया गया है। इससे यह स्पष्ट है कि कविने जो एवं भक्तिविरदावलि' शीर्षक अपनी सुन्दर कुछ रचा है वह लोक-कल्याणका महान् , उद्देश्य रचना समर्पित की।
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(
A
अहार-क्षेत्रके प्राचीन मूर्ति लेख । ( मंग्राहक-५० गोविन्ददास जैन, न्यायतीर्थ, शास्त्री)
[वर्ष १० किरण १ से आगे] - )*
. (नं० ५२)
भावार्थ:-जैमवालवंशमें पैदा होनेवाले साहु दोनों ओर इन्द्र खड़े हैं । मत्ति कमरके खोने उनकी धर्मपत्नी यशकरी उनके पुत्र साहु पासमे टूट गई है। दोनों धड़ उठाकर इकटठं कर नायक उनके भाई साहु पाल्हण-वील्हे-माल्हा-परमेदिये हैं। शिलालेखके कुछ अक्षर घिस गये है।
माहिणि उनके पुत्र श्रीराने संवत् १२०३ माघ सुदी अतः परे पढे नहीं गये । करीव ५ फुट ऊँची खडा- १३ को बिम्बप्रतिष्ठा कराई। सन है । पापाण काला तथा चमकदार है।
तथा जैसवालवंशमे पैदा होनेवाले साहु बाहड़
उनकी धर्मपत्नी शिवदेवि उनके पुत्र साहु सोमिन लेख-संवत् १२०३ माघ मुदी १३ जैसवालान्वये
उनके भाई साहु माल्ह-जनप्राहड़-लाख-लाल्हेने साहु खोने भार्या यश् करी सुत नायक साहु भ्रातृ पाल्हण
संवत् १२०३ के माघ सदी १३ को बिम्बप्रतिष्ठा वील्हे माल्हा परमे महिणि सुतश्रीरा प्रणमन्ति नित्यम् ।
कराई। संवत् १२०३ माघसदी १३ जैसवालान्वये साहु नोट:-यह प्रतिविम्ब दो धर्मात्मा महाशयोंबाहड भार्या शिवदवि मृत साहु मोमिनि भ्राता साहु माल्ह- ने अपनी गाढ़ी कमाईकी द्रव्य लगाकर प्रतिष्ठित जनप्राहढ लाग्य लाल्हे प्रणमन्ति नित्यम् ।
कराई है। कविवर तुलसी तथा बनारमी दोनों ही हिन्दी
(नं० ५३) साहित्यके अमर कलाकार है। दोनोंकी भापा परिमा
___मत्तिका शिर और हाथोंके अतिरिक्त बाकी
हिम्मा नहीं है । चिन्हसे पता चलता है कि पुष्पर्जित है। रूपकों तथा अल कारोंके आभूषणोंसे युक्त ।
दन्तकी प्रतिमा है। करीव २। फुट ऊँची पद्मासन है, और संस्कृतके पुटसे अोत-प्रोत । यदि दानोंमे
है। पापाण काला है। कोई अन्तर है तो वह यह कि तुलसीका काव्य-क्षेत्र लेख-संवत् १२१३ अषाडसुदी २ भौमे गृहपत्यन्वये विस्तत और लौकिक है, और कविवर बनारसीका क्षेत्र माहुजमकरस्तस्य भार्या रोहणी तयोः पुत्रवासलस्तस्यकुछ सीमित और पारलौकिक अध्यात्मवाद है फिर लघुभ्रात. साहु नाने तस्य भार्या पाल्हा तथा अल्हा भी दोनों कवियोंकी कविता लोक-कल्याणके महान्
नित्य प्रणमन्ति ।
भावार्थ:-गृहपतिवंशमें पैदा होनेवाले साहु उद्देश्यस परिपूरित है तुलसीमें साकार ईश्वर-उपा
जशकर उनकी धर्मपत्नी रोहणी-उन दोनोंके पुत्र सनाकी प्रधानता है तो बनारसीमे है प्रत्येक आत्मा- बासल उनके छोटे भाई साहु नाने उनकी धर्मपत्नी के परमात्मा होनेके विवेचनकी मुख्यता । इस प्रकार पल्हा और अल्हा ने सवत १२१३ के असाढ़ सुदी दोनों ही साहित्यसदनकी अविनाशी विभूतियाँ है। ८ भौमको प्रतिष्ठा कराई।
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अनेकान्त
(नं०५४)
फागुन सुदी ८ शुक्रवारको प्रतिष्ठा कराई। मूर्तिका शिर और दोनों हाथ नहीं हैं। बाकी
(नं० ५७) आंगोपांग उपलब्ध हैं। चिन्ह बैलका है। करीब
मूर्तिके श्रासन और आधे हाथोंके अतिरिक्त २ फुट ऊँची पद्मासन है। पाषाण काला तथा चम- बाकी हिस्मा खण्डित है। लेख प्रायः घिस गया है। कदार है। .
अतः पूरा स्पष्ट नहीं पढ़ा गया। चिन्ह हिरणका लेख-खण्डेलवालान्वये साहु धामदेव भार्या पल्हा है। करीब २ फुट ऊँची पद्मासन है। पाषाण पुत्रसालू भार्या वस्रा संवत् १२२३ वैशाखमुदी ८ प्रण- काला और चमकदार है। मन्ति नित्यम् ।
लेख-संवत् १२३० फागुनसुदी १२ सनी... ... .. भावार्थ:-खण्डेलवाल वंशमें पैदा होनेवाले ...."स्तषडगण भार्या शान्तिणी सुत गांगदेव-सोमदेवसाहु धामदेव उनकी पत्नी पल्हा उनके पुत्र सालू उदय-गोरद प्रणमन्ति । उनकी पत्नी वस्राने संवत् १२२३ के वैशाख सुदी भावार्थ:-संवत् १२३० के फागुन सुदी १२ ८ को प्रतिष्ठा कराई।
शनिवारको....शाह पडगण उनकी पत्नी शान्तिणी (नं०५५)
उनके पुत्र गांगदेव-सोमदेव-उदय-गोरद ने यह विम्ब आसनके अतिरिक्त बाकी हिस्सा नहीं प्रतिष्ठा कराई। है। चिन्ह चन्द्रका है । करीब २ फुट ऊँची पद्मासन
(नं० ५८) है। पाषाण काला तथा चमकदार है।
मत्तिके दोनों ओर इन्द्र खड़े है । शिर खण्डित लेख-संवत् १२०७ माघवदी ८ गुरौ ग्रहपत्यन्वये है। बाकी सर्वाङ्ग सुन्दर है । चिन्ह बकरेका है। साहु सवधऊ तगार्या महनी तत्पुत्र उदयबंधु प्रण- करीव ३ पुट ऊँची खगासन है। पापाण काला है। मन्ति श्रेयसे।
पालिस चमकदार है। भावार्थ:-गृहपति वंशमें पैदा होनेवाले शाह लेख-सवत् १२०३ गोलापूर्वान्वये साहु सुपर सवधऊ उनकी धर्मपत्नी महनी उसके पुत्र उदयबंधु पुत्रः शांति तस्य पुत्र यशकर कुंथुनाथं प्रणमन्ति नित्यम् । ने संवत् १२०७ के माघ वदी८ गुरुवारको बिम्ब- भावार्थ:-गोलापूर्व वंशमें पैदा होनेवाले साहु प्रतिष्ठा कराई।
सपट उनके पुत्र शान्ति उनके पुत्र यशकरने श्री(नं० ५६)
कुन्थुनाथकी प्रतिमा संवत् १२०३ मे प्रतिष्ठा कराई। मूर्त्तिके आसन और आधे हाथोंके अतिरिक्त
(नं. ५६) बाकी हिस्सा खण्डित है। शेरका चिन्ह है। करीव मूत्तिके दोनों तरफ इन्द्र खड़े हैं। घुटनों तक २ फुट ऊँची पद्मासन है। पाषाण काला है। पैरोंके अतिरिक्त बाकी हिस्से अनुपलब्ध है। चिन्ह
कुछ नहीं है । करीब ६ फुट ऊँची खगासन है। लेख-संवत् १२१९ फागुनसुदी ८ शुक्रे श्रीमाथु
पाषाण काला तथा पालिस चमकदार है। रान्वये साहु जिनदेव सुत साह अर्हत भार्या किणवती पाषाण काला सुत साहु वीठु निन्यं प्रणमन्ति ।
लेख-संवत् १२०३ माघसुदी १३ जैसवालान्वये साहु भावार्थः-माथुरवंशमें पैद होनेवाले शाह षोने भार्या जसकरी सुतनायक साहु शान्तिपाल-वील्हे जिनदेव उनके पुत्र शाह आहत उनकी धर्मपत्नी पाल्हा-परमे-महिपाल सुतश्रीरा प्रणमन्ति नित्यम् । किणवती उसके पुत्र शाह वीठुने संवत् १२११ के संवत् १२०३ माघमुदी १३ जैसवालान्वये साहु
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अनेकान्त
वाहद भार्या शिवदेवि सुत सोम-जनप्राहढलाखूलाले
(नं०६२) प्रणमन्ति नित्यम्।
मूर्तिका शिर नहीं है। बाकी सर्वाङ्ग सुन्दर भावार्थ:-जैसवाल वंशमें पैदा होनेवाले है। यह प्रतिमा चिन्हको देखकर पुष्पदन्तकी साह पोने उनकी धर्मपत्नी यशकरी उनके पुत्र नायक प्रतीत होती है। करीब २॥ फुट ऊँची खड्गासन शाह शान्तिपाल-वील्हे-माल्हा-परमे-महीपाल मही- है। पाषाण काला तथा चमकदार है। पालके पुत्र श्रीराने संवत् १२०३ के माघसुदी १३ लेख-संवत् १२०७ माघ बदी 5 जैसवालान्वये को बिम्बप्रतिष्ठा कराई।
साहु तनस्तत्सुताः श्रीदेव-नूकान्त-भूपसिह प्रणमतथा जैसवाल वंशमें पैदा होनेवाले शाह ति नित्यम् । वाहड़ उनकी धर्मपत्नी शिवदेवी उनके पुत्र सोम
भावार्थ:-जैसवाल वंशमें पैदा होनेवाले जनप्राहड़-लाग्वू-लाले इन्होंने मंवत् १२०३ माघ
साहु तन उनके पुत्र श्रीदेव-नूकान्त-भूपसिंहने सुदी १३ को बिम्बप्रतिष्टा कराई।
मंवत् १२०७ के माघ वदी ८ को बिम्बप्रनोट:-यह मति एक वंशके दो भिन्न प्रतिष्ठा- तिष्टा कराई। पकोंने प्रतिष्ठित कराई।
(नं०६३) • (नं० ६०)
मृतिका शिर धड़से अलग है। अवगाहनासे मत्तिका सिर्फ एक घुटना मय आसनके उप- पता चलता है कि मूर्ति विशाल थी । चिन्हसे लब्ध है। बाकी हिस्से नहीं है। लेख करीब आधेसे प्रतीत होता कि पति अपनी
प्रतीत होता है कि प्रतिमा ऋपभदेव तीर्थकरकी है। ज्यादा खण्डित होगया है। चिन्ह घोड़ाका है ।
लेख-संवत् १२१० वैशाख सदी १३ ग्रहपत्यन्वये करीब १।। फुट ऊँची पद्मासन है। पाषाण काला है। साह श्रीसाद भार्या मना तयोः सुत साहु शीले भार्या रूपा लेख-संवत् १२०३ गोलापूर्वान्वये साहुपद्म माहु- तयोः सत देवचन्द्र एते प्रणमन्ति नित्यम् ।
भावार्थ:-गृहपति वंशमें पैदा होनेवाले साह भावार्थः गोलापूर्व वंशमें पैदा होने वाले साहु साद उनकी धर्मपत्नी मना उनके पुत्र साहु शीले पद्म तथा साहु णाल्हन"." मंवत् १२०३ में यह उनकी पत्नी रूपा उन दोनोंके पुत्र देवचन्द्र इन्होंने विम्वप्रतिष्ठा कराई।
संवत् १२१० के वैशाख मुदी १३ को यह बिम्ब (नं०६१)
प्रतिष्ठित कराई। दोनों ओर इन्द्र खड़े है। आधे पैरोंके अतिरिक्त
(नं०६४) बाकी हिस्सा खण्डित है । शिलालेख जोड़कर मतिका शिर नहीं है। बाकी सर्वाड सन्दर लिया गया है । करीव ५ फुट ऊँची खड्गासन है। है । चिन्हको देखकर मुनिसुव्रतकी प्रतीत होती पापाण काला है।
है। करीब ३ फुट ऊँची पद्मासन है। पद्मापाण लेख-साह दवचन्द्र प्रणमन्ति नित्यम् ।
काला है। भावार्थ-साहु देवचन्द्र जिनविम्ब प्रतिष्ठित लेख-संवत् १२८८ माघ सुदी १३ गुरौ प्रख्यातकराके प्रतिदिन नमस्कार करते हैं।
वंशे गोलापूर्वान्वये साहुरासल सुत साद गृहपतिवंशे . नोट:-मूर्तिमें संवत तथा तिथि नहीं दिये साहु श्रामदेव-हामरमल मुत पण्डित श्रीमालधन तथा गये है।
साहु निकट सुत साहु सीहालहाणरस्तत्पुत्र जनपति
णाल्ह........
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७२
अनेकान्त
ज्ञानचाकर- वामदेव तथा गोपाल्ह पुत्र नागदेव प्रणमन्ति । चार प्रणमन्ति तटे मदनसागरनिर्मलम् ।
भावार्थ:- प्रसिद्ध वंश गोलापूर्व अन्वय में पैदा होनेवाले शाह राशल उनके पुत्र सादू तथा गृहपति वंशमें पैदा होनेवाले शाह आमदेव- हामरमल उनके पुत्र पण्डित श्री मालधन तथा शाह निकट उनके पुत्र शाह सीहाल- हारण उनके पुत्र जनपति ज्ञानचाकर वामदेव तथा गोपाल्ह उनके पुत्र नागदेवने संवत् १२८८ के माघ सुदी १३ गुरुवारको निर्मल मदनसागर के किनारे विम्ब प्रतिष्ठा कराई।
नोट- यह प्रतिबिम्ब दो वंशोंके दो धार्मिक परुषोंने प्रतिष्ठित कराई है । मदनसागरके तट पर आज भी जिनमन्दिरके बड़े-बड़े भग्नावशेष उपलब्ध हैं और जिनसे जान पड़ता है कि वहाँ लेखमें उल्लिखित दोनों धर्मात्माओं के द्वारा बनाया गया यह जिनमन्दिर होगा और जिसमे प्रतिठित की गई प्रतिमाका उक्त लेख है । ( नं० ६५ )
मूर्तिका शिर धड़से अलग है । अवगाहना विशाल है । यह चिन्ह से पुष्पदन्तकी प्रतीत होती है । करीब २ || फुट ऊंची पद्मासन है । पापाण काला है ।
लेख - संवत् १२०७ माघ वदी में खण्डेलवालान्वये साहु माहवस्तत्सुत वालप्रसन भार्या सावित्री तत्सुत बीकऊ नित्यं प्रणमन्ति ।
भावार्थ:- खण्डेलवाल वंशमें पैदा होनेवाले साहु माहव उनके पुत्र वालप्रसन उनकी पत्नी सावित्री उनके पुत्र बीकऊने संवत् १२०७ माघ वदी को विम्व प्रतिष्ठा कराई ।
( नं० ६६ )
मूर्तिके कुछ पैर और आसनके अतिरिक्त कुछ नहीं है । अन्दाजा ३ फुट ऊंची खड्गासन है | चिन्ह पुष्पदन्तकी प्रतीत होती है । काले पापाणकी निर्मित है ।
लेख - संवत् १२०७ माघवदी ८ गृहपत्यन्वये
साहुरूपसिंह तस्य भार्या लखमा
तस्य भार्या लाहा ।
भावार्थ:- गृहपति वंशमें पैदा होनेवाले साहु रूपसिंह उनकी धर्मपत्नी लग्वमा उसके पुत्र मातनपति उसकी पत्नी लाहगा इन्होंने मंत् १२०७ के माघ वदी को प्रतिष्ठा कराई।
८
( नं० ६७ )
नहीं है। दोनों ओर इन्द्र खड़े है। करीब ३ फुट मूर्तिके कुछ पैर तथा श्रासनके अतिरिक्त कुछ ऊंची है । चिन्ह हाथीका है । पाषाण काला है।
लेख - साहु लखन नित्यं प्रणमन्ति । भावार्थ - शाह लखन नित्य प्रणाम करते है । नोट: -- मूत्तिपर संवत् आदि नहीं दिया गया । ( नं० ६ )
मूर्तिके दोनों ओर इन्द्र खड़े है । कुछ पैरोंके अतिरिक्त बाकी हिस्सा खण्डित है । चिन्ह सूअर का प्रतीत होता है। करीब ३ फुट ऊंची खड्गासन | पापारण काला तथा चमकदार है ।
लेख - संवत् १२१६ माघसुदी ३ शुक्रे साहु ग्रामदेव-देवचन्द्र प्रणमन्ति नित्यम् ।
भावाथः- संवत् १२१६ के माघसुदी ३ शुक्रवारको श्रमदेव - देवचन्द्र बिम्बप्रतिष्ठा कराई । (क्रमशः )
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अष्ट सहस्त्रीकी एक प्रशस्ति
-.300
[ कई वर्ष हुए, एटाके बड़े मन्दिरके शास्त्रभण्डारको देखते हुए मुझे प्राप्तमीमांसालंकृति अर्थात् अष्टपहमीकी एक प्रति दखनेको मिली थो, जिसको पत्रसंख्या ३४३ है और जिसपर ग्रन्थ नं० ४८ पडा है। यह प्रति जारम्बी वाले पं० जीवारामजीक हाथकी लिग्वी हुई है, संवत् १९४० में लिखी गई है और संवत् १६४१ में इस प्रतिको उक्त पडितजीसे छटोलालने प्राप्त किया है। पं. जीवारामजीने जिस प्रतिपरसे यह प्रति उतारी है वह ज्येष्ठ सुदि त्रयोदशी संवत् १७६२ को तक्षकपुरके नेमिनाथ-मंदिरमें लिखी गई है और उसे नरेन्द्रकीति गुरुके शिष्य पं० लालचन्द्रने लिया है, जो उस समय स्याद्वादविद्याके अध्ययनमें अग्रगण्य थे और जिन शिष्य १० लक्ष्मीदासने वादिराज श्रेष्ठिके मुग्वसे इस पवित्र शास्त्र (अष्टसहस्री) का अध्ययन किया था । उस प्रतिके श्रन्नमें उनकी लेखक प्रशस्ति लगी हुई थी, जिसमे अष्टमहम्रीकी स्तुति भी दी हुई है और अन्य भी कुछ खास बातोंका उल्लेख है। इस प्रशस्तिकी भी पं० जीवारामजीने अपनी प्रतिमें नकल उतारी है और यह बहा ही अच्छा किया है। यह प्रशस्ति दसवे परिच्छेदकी समाप्ति के बाद "श्रीमदकलंकशशधरकुलविद्यानन्दयभवा भूयात् । गुरुमीमांसालंकृतिरष्टमहसी पतामृद्धये ॥ ॥ इति श्रीमदाप्तमीमामालंकृति. पूर्ण ॥ छ।" इन वाक्योंको दनक अनन्तर “अथ प्रशस्ति" इस वाक्यसे प्रारभ होती है। अत: यहाँपर विद्वानो तथा इतिहासनीकी जानकारीके लिये इस प्रशस्तिको ज्यो-का-त्यों उद्धृत किया जाता है जहाँ कही कुछ शब्दाऽशुद्धि जान पडो उपका संकेत ब कटके भीतर कर दिया गया है। इस प्रशस्तिक साथ जुडी हुई अष्टमहम्रीको स्तुतिमें एक खास बातका उल्लेख किया गया है और वह है 'मामन्तभद्ग' नामकी वरवृत्ति पुस्तकका-स्वामी समन्तभद्र के द्वारा स्वोपज्ञ वृतिक रूपमें लिखे गये उत्तम टीका-ग्रन्थका -उल्लेख, जिसे पृथ्वीपर प्रसिद्ध बतलाया है और लिग्या है कि 'इन कार्णाटक तथा गोर्जर टीकाकारोका कोई खास विशेष नहीं है, 'मामन्तभद्र' नामकी वरवृत्ति पुस्तक सबको समानरूपम बराबर इष्ट रही है सभीने उसे अपनाया है। इससे प्राचार्य वमनन्दीने दवागमवृत्तिक मंगलाचरणमें जिम 'सामन्तभगमत' का उल्लेख किया है, यार उमे बन्दना की है वह इस 'मामन्तभद्र' वृत्तिका ही उल्लेख जान पड़ता है । इसी तरह शाकटायन व्याकरणका अभयचन्द्रसूरि-कृत वृत्तिमें, 'उपज्ञात' सूत्रकी व्याख्या करते हुए, जो उदाहरण स्वोपज्ञ कृतियोंके दिये है उनमें 'सामन्तभद्र महाभाष्यम्' नामका उदाहरण भी इसी वरवृत्तिकः द्यातक है जिपक लिये वहां 'महाभाष्य' शब्दका प्रयोग किया गया है। इन सब उल्लेवोपरम ऐसा मालूम होता है कि स्वामी समन्तभद्र के नामपर जो महाभाग्य चढा हया है वह संभवतः उनक देवागमसूत्रपर रचा हया उनका स्वोपज्ञ भाप्य है । इस विषयकी विशेष खोज होनेकी जरूरत है। विद्वानोंको इसके लिये प्रयत्न करना चाहिये ।-सम्पादक]
अथ प्रशस्तिः
वत्म नेत्रषडश्वमोम१७६निहित ज्यष्ठं च मासेन शुभ्र पक्ष इति त्रयोदशदिने श्रीतक्षाकाख्य पुरे । नेमिस्वामिगृहे व्यलीलिदिदं देवागमालंकृत[:] पुस्तं पृज्यनरेद्रकीर्तिसुगुरोः श्रीलालचन्द्रो वदुः ।। १ ।। विद्यविद्याविबिदा बुधानां पराजये पुष्टतरा बभूव । स्थाद्वादविद्याध्ययनेग्रगण्यः श्रीलालचंद्रो भुवि सार्थनामा ।। २ ।। तबोध्यैः कविवादिवाग्मिप्रगुणालंकारवद्भिः समा
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अनेकान्त
रोपगौणविरोधिज्ञप्तिवशतमाभिश्च पड्वैस्तकैः (१) एतच्छ प्ठिसुवादिराजमुखतोधीतं सुमृएत्र (श्र)तं
स्याद्वादांबुधिराजरश्मिचिरं लक्ष्म्यादिदासर्बुधैः ॥ ३॥ अथाष्टसहस्री स्तृयते
अष्टसहस्री कुरुते दुष्टसहस्री सुनिर्मदा भुवने । कष्टसहस्रीनाश(नश्यति धृष्टसहस्रीपदप्रणताम् ।।३।। सर्पत्मौगतसप्पेस(द)प्पदमनी शून्यांधकाराकरग्यौगारण्यकृशागुरन्नकणभुकछात्राचले हादिनी। स्तान्मीमांसकमांसराक्षसवधरद्वैतकादंविनी वात्या श्रीजिनशासनाब्धि-विधुभा देवागमालंकृतिः ॥ ४॥ रे चाव्वोक वराककाक कटुका(क) किं रारटीत्युत्कटमेकं मानमपास्य मानयुगलं मन्यस्व तद्धितः। मांख्यामंख्यकुतकेशंग्वसहजं त्यक्त्वा समुत्तोपम-(?) स्त्वं रे शैव शिवायनं शिवगतो त्यक्तोद्यतस्तारिः (१) ॥५॥ आमामं निखिलप्रवादिविसरो जैनैरमाचकृता(१)द्वादं स्वेप्सितसिद्धयेनुमतिभिस्तन्नो न दुःखावह । यबौद्धोधम एप बुद्धिविधवामूहि हास्याय तन कुर्वाण: स्वमतस्थिति स्थितिपदभृष्टः प्रमीतो यथा ॥६॥ निजागमत्तवाग्मरोछ(च्छ)लदनल्पयुक्त्युत्कटान (१) प्रचंडहृदयोन्नतीन प्रकटितस्वस्वगोत्करान् । गजानिव कुवादिनो नयनखं प्रमादष्ट्रिणं पर: किमु विदारये ज झटिति जैनसिंह विना ॥७॥ एवं मंकेतसंस्थाप्रतिपदनिचयाः संति कर्णाटजाता(नां) इत्थं मंकेतसंस्था लघुभिरपि कृताः श्रीसमन्तादिभद्र: ईहकर्मकेतसंस्थास्त इह जिनपदे पुस्तके[पपन्न:(न्नाः) जेयाश्चान्येषु धीभित्रिजमतिबलतस्ते यथास्थानमाप्ताः ।।८।। कार्णाटकानां खलु गोर्जराणां न विद्यते कोपि विशेष एपां सामन्तभद् वरवृत्तिपुस्तं समं समेष्टां प्रथितप्रथिव्यां ॥ ६ ॥ अष्टसहस्रीपुस्तकं त्रिकालं त्रिशुद्धया लालचंद्रो लक्ष्मीदामशिप्ययुतौ (तो?) नंनमीतीति भद्रम् ॥ १०॥ अनुक्रमे श्लोक ८७०० सित्यासीसै मूल जीवारामजीजारखीवाले पंडितजी मंवत् १६४० त्या द्रम् १० अनुक्रमे श्लोक ८७०० सित्यासीसै मूल जीवारामजीजारखीवाले पंडितजी मं० १६४१ शुग माघे छटीलालश्री श्री केदः पं० जीवारामजी
'श्री श्री श्री श्री
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गारव-गाथा
पांडे रूपचन्द और उनका साहित्य
(ले० पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
- ) (पांडे रूपचन्दजी विक्रमकी १७ वीं शताब्दीके हिन्दीके प्रसिद्ध कवि बनारसीदासजीने अपने विद्वान थे, काव्य-व्याकरणादिके साथ जैन सिद्धा- 'अर्धकथानक' में लिखा है कि संवत् १६६२ में न्तके भी अच्छे पंडित थे और भट्टारकीय पंडित आगरामें पं० रूपचन्द्रजी गुनीका आगमन हुआ होनेक कारण 'पांडे' की उपाधिसे अलंकृत थे। और उन्होंने तिहुना माइके मन्दिरमे डेरा किया।
आपको हिन्दीके सिवाय, संस्कृत भाषाके विविध उस समय आगरामें सब आध्यात्मियोंने मिलकर छन्दोंमे भी कविता करनेका अच्छा अभ्याम था। विचार किया कि पांडेजीसे आचार्य नेमिचन्द्र
आपने 'समवसरण' नामक संस्कृत पूजापाठकी सिद्धान्तचक्रवर्तीके द्वारा मकलित गोम्मटसार प्रशस्तिमे अपना जो परिचय दिया है नामक सिद्धान्तग्रन्थका वाचन कराया जाय । उमसे मालूम होता है कि आपका जन्म-स्थान चुनाँचे पंडितजीने गोम्मटसार ग्रन्थका प्रवचन 'कुछ' नामके देशमें स्थित 'सलेमपुर' था। आप किया और मार्गणा, गुणस्थान, जीवस्थान तथा अग्रवाल वंशके भूपण गर्गगोत्री थे। आपके पिता- कर्मबन्धादिके स्वरूपका विशद विवेचन किया। महका नाम मामट और पिताका नाम भगवानदास माथ ही, क्रियाकाण्ड और निश्चयनय व्यवहारथा । भगवानदासकी दो पत्नियां थी, जिनमें नयकी यथार्थ कथनीका रहस्य भी समझाया । प्रथमसे ब्रह्मदाम नामके पुत्रका जन्म हुआ था। और यह भी बतलाया कि जो नयदृष्टिसे विहीन दमरी पत्नी 'चाची' से पांच पुत्र समुत्पन्न हुए थे- है उन्हें वस्तुतत्त्वकी उपलब्धि नहीं होती तथा हरिराज, भूपति, अभयराज, कीर्तिचन्द्र और
श्रीब्रह्मदासेति समासवृत्तः । रूपचन्द्र । इनमे अन्तिम रूपचन्द्र ही प्रसिद्ध कवि द्वितीय 'चाचो' इति संज्ञिकाया, थे और जैन मद्धान्तके अच्छे मर्मज्ञ विद्वान थे ।
पन्यां भवा: पंचसुता: प्रसिद्धाः ॥२॥ वे ज्ञानप्राप्तके लिये बनारस गये थे और वहांस
हगिरिव हरिराजो भूपतिर्भूमिवोच्यः (!) शब्द और अर्थरूपी सुधारसका पानकर दरियापुरमे
भवदभयराज: कीर्ति चन्द्रः सुकीर्तिः । लौट कर आये थे।
तदनुजकविरूपो रूपचन्द्रो वितन्द्रो, १ नाभयभुतिरुचिरे कुहनाम्नि देशे,
विमलसुमतिचक्षुर्जेनसिद्धान्त-दक्षः ।।३।। शुद्ध सलेमपुरवाक्पहिरूपसिद्ध ।
स रूपचन्द्रोऽय समाव जत्पुरी, अग्रोस्कान्वय--विभूषण-गर्गगोत्र:,
बनारभी बोधविधानलब्धये । श्रीमामटस्य तनयो भगवानदास: ॥१॥
ग्रास्वाद्य शब्दार्थ सुधारसं ततः, तत्पूर्वपल्या प्रभवः प्रतापी,
संप्रातवांस्तद्दरियापरं पुरं ॥४॥
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अनेकान्त
वस्तुस्वभावसे रहित पुरुष सम्यग्दृष्टि नहीं हा अर्धकथानकके इस उल्लेग्यसे मालूम होता है सकते । पांडे रूपचन्द्रजीके वस्तुतत्व विवेचनम कि प्रस्तुत पांडे रूपचन्द्र ही उक्त 'समवसरण' पं० बनारसीदासका वह एकान्त अभिनिवेश दर पाठके रचयिता है। चूँ कि उक्त पाठ भी संवत् होगया, जो उन्हें और उनके साथियोंको 'नाटक १६६२ में रचा गया है और पं० बनारसीदासजीने समयसार' की रायमल्लीय टीकाके अध्ययन करनसे उक्त घटनाका समय भी अर्धकथानकमें सं० १६६२ होगया था और जिसके कारण वे जप, तप, सा- दिया है। इससे मालूम होता है कि उक्त पाठ मायिक, प्रतिक्रमणादि कियायोंको छोड़कर भग- आगरकी उपर्युक्त घटनासे पूर्व ही रचा गया है। वानका चढ़ाया हुआ नैवेद्य भी खाने लगे थे। इसीसे प्रशस्तिमे उसका कोई उल्लेख नहीं है। यह दशा केवल बनारसीदासकी ही नहीं उ- अन्यथा पांडे रुपचन्दजी उस घटनाका उल्लेख नके साथी चन्द्रभान, उदयकरन और थानमल्लकी उममें अवश्य ही करते । अस्तु, नाटक समयमारमें भी होगई थी। ये चारों ही जने नग्न होकर एक इन्ही रूपचन्द्रजीका समुल्लेख किया गया है वे कोठरीमे फिरते थे और कहते थे कि 'हम मुनिराज सं० १६६२ के रूपचन्द्रजीमे भिन्न नहीं हैं। हैं। हमारे कुछ भी परिग्रह नहीं है। जैसा कि अर्ध- इनकी सस्कृतभापाकी एक मात्रकृति 'ममवसरणकथानकके निम्न दोहेसे स्पष्ट है :
पाठ' अथवा 'केवलज्ञान कल्याणाचो' है। इसमे "नगन होंहि चारों जने, फिरहि कोठरी माहि। जैनतीर्थकरके केवलज्ञान प्राप्त कर लेनेपर जो अन्तकहहिं भये मुनिराज हम, कछू परिग्रह नाहि ॥" बर्बाह्य विभूति प्राप्त होती है अथवा ज्ञानावरण, पांडे रूपचन्द्रजीके वचनोंको मुनकर बनारसी
मब अध्यात्मी कियो विचार, दासजीका परिणमन और ही रूप होगया। उनकी
___ ग्रंथ वंचायौ गोम्मटमार ।।६३१।। दृष्टिमें सत्यता और श्रद्धा निर्मलताका प्रादुर्भाव
तामे गुनथानक परवान, हुआ। उन्हें अपनी भूल मालूम हुई और उन्होंने उमे
कह्यो ज्ञान अरु क्रिया विधान । दूर किया। उस समय उनके हृदयमें अनुपम ज्ञान
जो जिय जिम गुनथानक होइ, ज्योति जागृत हो उठी थी और इसीस उन्होंने
जैसी क्रिया करै मय कोइ ॥६३३।। अपनेको 'स्याद्वादपरिणतिसे परिणत' बतलाया
भिन्न भिन्न विवरण विस्तार,
_अन्तर नियत बहुरि विवहार । सं० १६६३ में पं० बनारसीदासजीने आचार्य
सबकी कथा सब विध कही, अमृतचन्द्र के 'नाटकममयमारकलश' का हिन्दी पद्या
सुनिक संसे कछु ना रही ॥६३३॥ नुवाद किया और संवत् १६६४ में पांडे रूप
तब बनारसी औरहि भयो. चन्द्रजीका स्वर्गवास होगया।
स्यावाद परिनति-परिनयो। १ अनायास इस ही समय,
पांड रूपचन्द्र गुरु पास, नगर अागरे थान ।
सुन्यो ग्रन्थ मन भयौ हुलास ।।६३०॥ रूपचन्द्र पंडित गुनी,
फिर तिस समै बरसकै बीच, अायो अागम जान ॥६३०॥
रूपचन्दको आई मीच । तिहुना साहु देहरा किया,
सुन सुन रूपचन्द्र के बैन, तहां श्राय तिन डेरा लिया। अर्धक.
बानारसी भयौ दिव जैन ॥६३५।।
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किरण २]
अनेकान्त
दशनावरण, मोहनीय और अन्तरायरूप घातिया पत्नीका नाम दुर्गा था। उससे दो पुत्र हुए । चक्रमेन कर्मो के विनाशसे जो अनन्त चतुष्टयरूप आत्मनिधि और मित्रमेन । चक्रसेनकी स्त्रीका नाम कृष्णावती था की समुपलब्धि होती है उमका वणन है। माथ ही, और उसमे केवलसेन और धर्मसेन नामके दो पुत्र बाह्यमें जो समवसरणादि विभूतिका प्रदर्शन होता है हुए । मित्रसेनकी धर्मपत्नीका नाम यशोदा था उसस वह सब उनके गुणातिशय अथवा पुण्यातिशयका भी दो पुत्र उत्पन्न हुए थे। उनमें प्रथम पुत्रका नाम महत्व है-वे उस विभूतिमें सर्वथा अलिन अंत- भगवानदास था, जो बड़ा ही प्रतापी और संघका रीक्ष विराजमान रहते हैं और वीतरागविज्ञानरूप अधिनायक था । और दूसरा पुत्र हरिवंश भी धर्मआत्मनिधिक द्वारा जगतका कल्याण करते है- प्रेमी और गुणसम्पन्न था। भगवानदासकी पत्नीसंसारके दुम्बी प्राणियोंको दुम्बने छुटकारा पाने का नाम केशरिद था, उससे तीन पुत्र उत्पन्न हुा.
और शाश्वत मुग्व प्राप्त करनका सुगम मागे थे-महासेन, जिनदाम और मुनिमुव्रत । मंघाधिप बतलाते है।
भगवानदासने जिनन्द्र भगवान्की प्रतिष्टा करवाई कविन इम पाठकी रचना आचाय जिनसेनकं थी और संघराजकी पदवीको भी प्राप्त किया था। आदिपुगणगत 'ममवसरण विपयक कथनको दृष्टि वह दान-मानमें करण के समान था। इन्हीं भगवानमे रग्बत हुए की है । प्रस्तुत ग्रन्थ दिल्लीक बादशाह दासकी प्रेरणाम पंडित रूपचन्द्रजीने प्रस्तुत पाठको जहांगीरके पुत्र शाहजहांक राज्यकालमे, संवत् १६६२ रचना की थी। पांडे रूपचन्द्रजीने इस ग्रन्थप्रशस्तिम के आश्विन महीने के कृष्णपक्षम, नवमी गुरुवारके -:. दिन, सिद्धयागम और पुनवसनक्षत्रम समान हशा एक है । इम जातिका अधिकतर निवास बुन्देलखण्डम है; जैसा कि उसके निम्न पद्यम स्पष्ट है:
पाया जाता है। यह जाति विक्रमकी १२ वी में १४ वा श्रीमल्संवत्सरेऽस्मि बरतनुनयविक्रमादित्यराज्ये
शताब्दी तक बब समृद्ध रही है। इसके द्वारा प्रतिष्ठित ऽतीते दृगनंदभद्राशुक्रतपरिमित(१६६२)कृष्णपक्षषमास ।
मूर्तिया १२०२ मे १२४७ तककी पाई जाती है। ये प्राचीन देवाचार्यप्रचार शुभनवर्माता सिद्धयोगे प्रसिद्धं ।
मृतिया महावा, इतरर, पपोरा, शाहार और नाबई श्रादि पानर्वस्वित्पुडस्थ (?) समवमृतिमह प्राप्तमाता समाप्ति ॥३४
के स्थानाम उपलब्ध होती हैं जिनपर प्रतिष्ठा करने-कराने
श्रादिका समय मा अकित है। इसके द्वारा निर्मित अनेक ___ ग्रन्थकर्ताने इस पाठक बनवानेवाले श्रावकके
शिवरवन्द मन्दिर भी यत्र तत्र मिलत है, जो उम जानिकी कुटुम्बका विस्तृत परिचय दिया है। जो इम
धर्मनिष्टाके प्रतीक है, अनेक ग्रंथोका निर्माण भी किया श्रोर प्रकार है:
कराया गया है। मं० १५४० मे श्रावण वदि १० को मूलमंघान्तर्गत नन्दिसंघ बलात्कारगण, मर- मलसघ मरस्वति गच्छके भ० जिनचन्द्र के प्रशिष्य भ• स्वतिगच्छके प्रसिद्ध कुन्दकुन्दान्वयमे वादीरूपी भवनकर्कातिके ममय गोलापूर्व जातिक साह सानातिक मुपुत्र हगांक मदको भेदन करनवाले सिंहकीति हुए। पपाने कर्मक्षय निमित्त उत्तरपुराण लिया था। यह ग्रंथ उनके पट्टपर धर्मकीर्ति, धमकीतिक पट्टपर ज्ञान- नागौर मंडार में सुरक्षित है । इन मब उल्लेखोमे दम जातिभूषण और ज्ञानभूपणके पट्टपर भारतीभूषण की महत्ता और ऐतिहासिकताका भली-भाति परिजान हो तपस्वी भट्टारकोंके द्वारा अभिवन्दनीय विगतदूषण जाता है । अाज भी इममें अनेक प्रनिनि विद्वान और भट्टारक जगत्भूपण हुए। इन्हीं भट्टारक जगद्भूपण- श्रीमान पाये जाते हैं। अन्वेषण होनेपर इस जातिके की गोलापूर्व' आम्नायमे दिव्यनयन हुए । उनकी विकाम आदि पर भी विचार किया जा सकता है। चंदेरी और
गोलापूर्व जाति जैनसमाजकी ४ उपजातियोमेसे उसके श्राम-वास स्थानोंमें भी इस जाति के अनुयायी रहे है।
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अनेकान्त
[वर्ष १०
नेत्रसिंह नामके अपने एक प्रधान शिष्यका भी कबहुँ भूलि न परिनए, ज्ञायक शुद्ध स्वभाव ॥८६॥ उल्लेख किया है पर वे कौन थे और कहांके निवासी नेमिनाथगस भी एक सुन्दर कृति है जिसे मैंने थे यह कुछ मालूम नहीं होसका ।
मं० १९४४ में जयपुरमें आमेरके भट्रारक महेन्द्रकीर्तिके उक्त पाठके अतिरिक्त पांडे रूपचन्द्रजीकी निम्न ग्रंथभंडारको अवलोकन करते हुए एक गुटकेमें देखा कृतियोंका उल्लेख और भी मिलता है जिनमेंसे रूप- था और उसका आदि अंतभाग नोट किया था। परचन्द्र-शतक, पंचमंगलपाठ और कुछ जकड़ो आदि नुबह मेरी नोटबुक इस समय सामने न होनेसे प्रकाशित भी
परन्तु नेमिनाथ-रास और उसके मम्बन्धमें कुछ न लिख कर उनकी अन्य रचअनेक पद तथा संस्कृतका उक्त पाठ अभी तक अप्रका- नामोंके सम्बंध ही विचार करता हूं। शित ही हैं। रूपचन्द्रशतकमे सी दौहे पाये जाते है, इनकी एक और नई रचना प्राप्त हुई है, उसका जो बड़े ही शिक्षाप्रद हैं और विषयाभिलाषी भोगी जनों नाम है, 'खटोलनागीत' । इन रूपक खटोलनागीत को उनसे विमुख कराने की प्रौढ शिक्षाको लिये हुए में १३ पद्य दिय हए हैं जो भावपूर्ण हैं और आत्महै। साथ ही प्रात्मम्वरूपके निदर्शक है । पाठकोंकी मंबोधनकी भावनाको लिये हुए है। उनमें बतलाया है जानकारीके लिये कुछ दोहे लिखित गुटकेपरमे नीचे कि यह जीव समाररूपी रति-मन्दिरमें एक खटोलने दिये जाते हैं:
पर लेटा हुआ है, जिसके क्रोध, मान, माया, लोभ मेवन विषय अनादित, तिसना कभी न बुझाय। रूप चार पग है, काम और कपट दो सीरा तथा ज्यों जलनै परितापती, हंधन सिग्वि अधिकाय ॥२६॥ चिन्ता और रति दानों पाटी हैं। वह अविरत आदि परकी संगति तुम गए, खोई अपनी जाति । दृढ़ वानोंसे बुना हुआ है, जिसमें मिथ्यात्वरूपी श्रापा-पर न पिछानहू, रहे प्रमादनि माति ॥४२॥ विशाल 'माई' लगी हुई है। वह आशारूपी अड़पर संजोगते बंध है, पर वियोगत मोख । वार्यान और शंकादिक पाठ दोपरूप मालोंसे भरा चेतन परक मिलनमें, लागत हैं बहु दोष ॥४६॥ हुआ है, मनरूपी बाढ़ईने उसे बनाया और गढ़ा मोह मनै तुम अापको, जानन हो परदर्व । है। ऐसे उन खटोलनेपर यह जीवरूपी पथिक ज्यों जन मातो कनकतो, कनकहि देम्बै सर्व ॥५१॥ राग-द्वेषरूपी गेडुवा और कुमतिरूपी सुकोमल सौर पाहन माहि सुवर्ण ज्यों, दारु विर्ष हुत भोज। से शरीरको ढककर पर-परिणतिरूपी गौरीके साथ त्यों तुम व्यापक घट विषै, देखहु कर किन खोज ॥५३॥ सो रहा है, मोते हुए उसे विपयकी अभिलाषा पुहपन विष सुवास ज्यों, तिलन विधैं ज्यों तेल। हुई, उसी समय पांच इन्द्रियरूपी चोरोंने मिलकर त्यौं तुम घटमें रहत हो, जिनि जानह यह खेल ॥५४॥ उसके आवास (निवास स्थान) को लूट लिया। दरशन ज्ञान चरितमें, वमै वस्तु घट मांहि। इस जीवको अनादि काल सोते हुए व्यतीत होगया मृरख मरम न जानही, बाहरि खोजन जाहि ॥५२॥ तो भी वह नहीं जागा, तब श्रीगुरुने सम्यक्त्वरूपी चेतनके परचै बिना, तप जप सब अकयत्थ । विहान (सवेरा) के होनका संकेत किया और कहा कन बिन तुष ज्यौं फटकतै, क न पावै हन्थ ॥८॥' कि अब काल रात्रि व्यतीत होगई है, और ज्ञानचेतनसौं परचै नहीं. कहा भये व्रत धारि । सूर्यका उदय हुआ है, जिसे सुनकर इस जीवका सालि विहूने खेत की, वृथा बनावत वारि ॥८६॥ भ्रमरूपी अज्ञान नष्ट हो गया और वह अपने आत्मबिना तस्व परचे लगत, अपर भाव अभिराम । स्वरूपको पानेके लिये उत्सुक हो उठा, और तत्काल नाम और रस रुचित हैं, अमृत न चाख्यौ जाम ॥८॥ ही खटोलनेसे उठकर और अशेष परिग्रहका परिसुने परिचये अनुभए, वार वार परभाव ।
त्यागकर दिगम्बर वेष धारण किया तथा समाधिमें
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किरण २]
अनेकान्त
लीन होकर सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी रत्नत्रयके अनुष्ठान द्वारा सदाके लिये कर्मबन्धनसे उन्मुक्त हो गया-वह अपने स्वरूपको प्राप्तकर निजानन्द रम में मग्न होगया । खटोलना गीतके वे पद्य इस प्रकार है:भव-रतिमंदिर पोढियो खटोला मेरो कोपादिक पग चारि । काम-कपट-सीरा दोऊ, चिन्ता रति दोऊ पाटि ॥१॥ अविरति दिढ वाननि, बुनो मिथ्या माई विसाल | थाशा अडवाइनि दई, शंकादिक वस साल ॥२॥ रचिउ गठिउ मन वाढई, बहु विधि कर्म सहाय । प्रथम ध्यान दोउ कारने, वा सिरुग्या नीलाइ (?) ॥३॥ राग द्वेष दोउ गेड्या, कुमति सुकोमल सोरि । जीव पथिक तहं पोढियो, पर-परिणनि-संगगौरि ॥४॥ मोह नोंद सूत रहिउ, लागी विषय-हवास । पंच करण चोरनि मिल, मूसउ सकल अवास ॥२॥ अनादिकाल सोते गयो' अजहु न जागइ मान । मोह नींद टूटे नहीं, क्या पावै निरवान ॥६॥ पोते सोते जागिया, ने नर चनुर सुजानि । गुरु चरणायुध बोलियों, समकित भयउ विहान ॥७॥ काल रयन तब बीतई, ऊगो ज्ञान सुभानु । भ्रांति तिमिर जब नाशियो, प्रगटउ अविचल थान 10 छोटि खटोला नुरत ही, धरिवि दिगम्बर वेष । गुप्त रत्न नीनों लिये, तेरि गये शिव देश ॥६॥
सिद्ध सदा जहां निवसही, चरम शरीर प्रमाण । किंचिदून मयनोझित, मूसा गगन समान ॥१०॥ परम मुखामृत पीवके, भाई सहज समाधि । अजर अमरते होय रहै, नासो सकल उपाधि ॥११॥ सो अवहीं जागिसी, कब लहिं सो अवकाश । मोह नोंद कब टूटसी, कब लहिहौं शिवपास ॥१२॥ रूपचन्द्र जन वीनवै, हुजी नुव गुण लाहु । ते जागा जे जागसी, तेहउ बंदउ साहु ॥१३॥
इति खटोलागीत समाप्त । इसके सिवाय आपके अनेक आध्यात्मिक पद भी गुटकोंमे लिखे हुए मिलते हैं, जो बहुत ही सरल
और भावपूर्ण है, पाठकोंकी जानकारीके लिये उनमें से एक छोटा पद नीचे उद्धृत किया जाता है:
जिय परमों किति प्रीत करीरे ॥ तू मुजान परक रंग राचो प्रकृति विरोध न समुझि परीरे ॥१॥ परिहर महज ज्ञानगण अपनो मूढपनों से चित धरीरे ॥२॥ अहंकार ममता भ्रम भूल्यौ चित चेतो एको न धरीरे ॥३॥ परकी संगति चहुंगति भीतरि कौन-कौन ते विपति भरीरे ॥ रूपचन्द्र चित चेतन काहि न अब, तेरी मति कौने हरीरे ।५।।
इन सब रचनाओंपरसे विज्ञ पाठक पांडे रूपचन्दजीके व्यक्तित्वका अनुमान कर सकते हैं, और उनकी रचनाएँ कितनी सरल और भावपूर्ण हैं इसका भी अनुभव कर सकते है।
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साहित्य-परिचय और समालोचन
[इस स्तम्भमें समालोचनार्थ आये नये ग्रन्थादि साहित्यका परिचय और समालोचन किया जाता है । समालोचनाके लिये प्रत्येक ग्रन्थादिकी दो-दो प्रतियां पाना जरूरी है।
-सम्पादक] जैनाचार्य-लेखक पं० मूलचन्द्रजी, वत्सल, उसीके आधारमं दूसरे नेमिचन्द्रने अपनी 'जीवदमोह। प्रकाशक, दि० जैन पुस्तकालय, सूरत । पृष्ट तत्त्वप्रबोधिका' नामकी संस्कृत टीका लिखी है। संख्या १६८ । मूल्य, एक रुपया दस आना।
आचार्य अभयचन्द्रने अपनी मन्दप्रबोधिका टीकामें इस पुस्तकमे २८ जैनाचार्यों और उनकी कृतियों- गोम्मटसारकी एक और 'पंजिका' टीकाका उल्लेख का मंक्षिप्त परिचय दिया हुआ है। भगवान महा. किया है और वह इस प्रकार है:-'अथवा सम्मूवीरके बाद जैनधर्मके अहिंसादि सिद्धान्तोंका प्रचार च्छेनगोपपात्तानाश्रित्य जन्म भवतीति गोम्मटसारकरनेवाले अनेक जैनाचार्य, विद्वान् , राजा, और पंचिकाकारादीनामभिप्रायः ।" इम पंजिका टीकाका राज्यमंत्री तथा नगर सेठ आदि प्रसिद्ध व्यक्ति हुए उल्लेग्व मेंने सन् १६४४ के मार्च महीनेके 'अनेकान्त' है। उनके सम्बन्धमें एक प्रामाणिक इतिवृत्तक लिग्ब वर्ष ६ किरण ८ के पृष्ठ २६४ पजके दूसरे कालमके जानेकी बड़ी आवश्यकता है । वत्सलजीने इस नीचे दुसरे फुट नोटमे किया था। दिशामें जो प्रयत्न किया है वह अभिनंदनीय है। इसके अतिरिक्त दशवी शताब्दीक आचार्य परन्तु प्रस्तुत पुस्तकमें प्रफ आदि प्रेस-सम्बन्धि अमृतचंद्रका समय १२ वीं शताब्दी बतलाया है जो अशुद्धियोंके अतिरिक्त कुछ ऐसी अशुद्धियाँ भी पाई ठीक नहीं है। तथा आचार्य विद्यानन्दका परिचय जाती है जो खटकने योग्य है । ऐसी पुस्तकमे ऐति- देते हुए उन्हें भी राजावली कथाक आधारोंपर १६ हासिक अशद्धियाँ नहीं रहनी चाहिये । बतौर उदा- वी शताब्दीक विद्यानन्द की घटनाओंके साथ हरणके यहाँ एक-दो अशुद्धियोंका दिग्दर्शन पाठ- सम्बद्ध कर दिया है। देवन्द्रकीतिने अपने शिष्य कोंकी जानकारीके लिये नीचे दिया जाता है:- बिद्यानन्दकी तारीफ की है न कि उन तार्किव
पृष्ठ ५३ पर प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्र- विद्यानन्दकी। इसी तरह शुभचन्द्रका परिचय देते वर्तीकी कृतियोंका परिचय कराते हुए उनकी कृति हुए, भट्टारक विश्वभूषणकी काल्पनिक कथाके गोम्मटसारकी चार टीकाओंका समुल्लेख किया है आधार पर बिना किसी जांच पड़तालके, भतृहरि,
और लिखा है कि-चामुण्डरायकी कर्नाटक-वृत्ति, सिन्धुल राजा मुञ्ज और शुभचन्द्रको सम-सामकेशववर्णीकी संस्कृत टीका, और अभयचन्द्रकी यिक भी प्रकट किया गया है जिनमे शताब्दियोंका मंदप्रबोधिका और पं० टोडरमलकी सम्यग्ज्ञानचन्द्रि- अन्तर है। यह सब कथन ऐतिहामिक दृष्टिस का, ये चार टीकाएँ है।
अंमगत है, और वह इतिहासकी अनभिज्ञताको इसमें चामुण्डरायकी वृत्तिको कनोटकी बतलाया व्यक्त करता है। ऐसी पुस्तकोंमे इसप्रकारकी त्रुटिगया है, जो ठीक नहीं है, चामुण्डरायने गोम्मट- योंका रह जाना अवश्य खटकता है । आशा है सारपर कोई कर्नाटक वृत्ति बनाई हो, इसका कोई लेखक महानुभाव दूसरे संस्करणमे आवश्यक स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता और न गोम्मटसार सुधार करनेका प्रयत्न करेंगे।-परमानन्द जैन । कर्मकाण्डकी ६७२ नं० की गाथासे ही इस बातकी कोई सूचना मिलती है। दूसरे केशववर्णीकी टीका १ देखो अनेकान्त वर्ष ४ किरण १ मे प्रकाशित संस्कृतमें नहीं है वह कर्नाटक भाषामें लिखी गई है, डा० ए० एन० उपाध्येका लेख ।
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पण्डितप्रवर टोडरमल्लजीकी स्वहस्त लिखित प्रतिपरसे संशोधित
मोक्षमार्गमका शक पाठकोंको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि आचार्यकल्प ५० टोडरमल्लजीके मोक्षमार्गप्रकाशककी स्वहस्त-लिखित प्रतिसे मिलानकर उक्त ग्रन्थ उनकी स्वहस्त-लिखित कृतियोंके चित्रों तथा श्री १०५ पूज्य शुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णीक प्राक्कथन और ऐतिहासिक महत्वपूर्ण प्रस्तावनाके साथ 40 परमानन्दजी शास्त्रीके सम्पादकत्वमें वीरसेवामन्दिरकी ओरसे छप रहा है। यह महत्वपूर्ण संस्करण पूज्य श्री १०५ क्षुल्लक चिदानन्दजी महाराजकी प्रेरणासे छपाया जारहा है और वह उनकी इच्छानुसार पाठकोंके लिये लागत मूल्यमें प्राप्त हो सकेगा । अतः ग्राहक महानुभाव अपनी प्रति अभीसे रिजर्व करालें।
___अहिंसाका महत्व भारत सदासे अहिंसात्मक संस्कृतिका केन्द्र तुलनात्मक रूपसे मांसाहारसे शाकाहार अधिक रहा है। आज यहाँ फैले हुए मांस और मदिराके उपयोगी सिद्ध हो । जो लेखक महाशय हिन्दी प्रचारको रोकनेके लिये और पुन: अहिंसा धर्म भाषामें सुन्दर व उपयोगी लेख फुलस्केप साइजके
और शाकाहारका प्रचार करनेके लिये इस समितिने २० पेजों में सितम्बर १९४६ के अन्त तक लिख कर निर्णय किया है कि सर्वसाधारणको शाकाहारकी मेजेंगे, उसमें सर्वोत्तम लेखकको २५१) दो सौ उपयोगिता बतानेके लिये सरल-सुबोध और प्रभा- इक्यावन रुपयेका पुरस्कार भेंट किया जावेगा। वशाली साहित्य प्रकाशित कराया जाय, जिसमें
नोट-लेखोंका निर्णय निम्नलिखित सज्जनोंका एक बोर्ड करेगा१ श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य, २ पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार प्रधान संपादक 'अनेकान्त', ३ श्री० जयभगवानजी एडवोकेट, पानीपत ४ ५० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री प्रधानाध्यापक, स्या० विद्या. काशी
५ पं० हीरालालजी 'कौशल' साहित्यरत्न, न्यायतीर्थ, देहली लेख भेजनेका पता
जैना वाच कम्पनी, सदर बाजार, देहली।
लालमन्दिरजी, देहली। नोटः-जो सज्जन इस विषयका साहित्य आदि उपयोगी वस्तुएं भेजनेकी कृपा करेंगे, हम उनके अत्यन्त आभारी होंगे।
संशोधन अनेकान्तकी गत किरणमें पृष्ठ ३० पर 'Thinkers की जगह Thinless और पृष्ठ ३४ पर दो जगह Electron के स्थानपर Election तथा Ion के स्थान पर Iow गलत छप गया है अतः पाठक अपनी अपनी प्रतिमें उसे सुधार लेनेकी कृपा करें।
-प्रकाशक ।
जैन अहिंसा प्रचारक समिति
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== हमारे सुरुचिपूर्ण प्रकाशन ===
१. अनित्य-भावना-पा०पमनन्दिकृत भावपूर्ण || ६. उमास्वामिश्रावकाचारपरीक्षा-मुख्तार श्री. और दयग्राही महत्वकी कृति, साहित्य-तपस्थी पण्डित || जुगलकिशोरद्वारा लिखित प्रन्य-परीक्षाओंका इतिहासगलकिशोर मुख्तारके हिन्दी-पचानुवाद और भावार्य | सहित प्रथम अंश । मूल्य चार माना। सहित । मूल्य चार आना।
७. विवाह-समुद्देश्य-पंडित जुगलकिशोर ॐ २. आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थसूत्र-सरक्ष- मुख्तारद्वारा रचित विवाहके रहस्यको बतलानेवाली
संक्ति नया सूत्र-ग्रन्थ, पं. जुगलकिशोर मुख्तारको और विवाहोंके अवसरपर वितरण करने योग्य सुन्दर सुबोध हिन्दी-ग्याल्यासहित । मूल्य चार पाना।
कृति । मूल्य पाठ माना। ए ३. न्याय-दीपिका-(महत्वका सर्वप्रिय संस्कप्रण) अभिनव धर्मभूषण विरचित न्याय-विषयकी रसुबोध प्राथमिक रचना। म्यायाचार्य पं. दरबारीलाम १. आप्तपरीक्षा-स्वोपाटीकासहित-(भनेक कोरियाद्वारा सम्पादित, हिन्दी-अनुवाद, विस्तृत (1.1 विशेषताओंसे विशिष्ट महत्वपूर्ण अभिनव संस्करण)
की) प्रस्तावना, प्राक्थन, परिशिष्टादिसे विशिष्ट, तार्किकशिरोमणि विद्यानन्दस्वामि-विरचित प्राप्तविषय४०० पृष्यमाण, लागत मूल्य पाँच रुपया। विद्वानों, की अद्वितीय रचना, न्यायाचाय परिडत दरवारोक्षाल
छात्रों और स्वाध्याय-प्रेमियोंने इस संस्करणको बहुत कोठियाद्वारा प्राचीन प्रतियोंपरसे संशोधित और सम्पा. सपसन्द किया है। इसकी थोड़ी ही प्रतियाँ शेष रही है। दित, हिन्दी-अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना, और अनेक शीघ्रता करें। फिर न मिलने पर पछताना पड़ेगा।
परिशिष्टोंसे अलङ्कत २०४२६ पेजी साइज, लगभग * ४.सत्साधुस्मरणमङ्गलपाठ-अभूतपूर्व सुन्दर और विशिष्ट सङ्कलन, सलयिता पंडित जुगलकिशोर
चार-सौ पृष्ठ प्रमाण, मूल्य पाठ रुपया। यह संस्करण मुख्तार । भगवान महावीरसे लेकर जिनसेनाचार्य
शीघ्र प्रकाशित होरहा है। पर्यन्तके २१ महान् जैनाचार्योक प्रभावक गुणस्मरणोंसे ..श्रीपुरपार्श्वनाथ-स्तोत्र-विद्यानन्दाचार्ययुक्त । मूल्य पाठ भामा।
विरचित महत्वका स्तोत्र, हिन्दी-अनुवाद तथा प्रस्तार ५. अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायी तथा वनादि सहित । सम्पादक-न्यायाचार्य पण्डित दरबारी
बाटीसंहिता भादि ग्रन्थोंके रचयिता पंडित राजमल्ल साल कोठिया। मूल्य एक रुपया । विरचित अपूर्व माध्यामिक कृति, न्यायाचार्य पंडित ३. शासन चतुस्त्रिशिका-विक्रमकी १३ वों दरबारीलाल कोठिया और पं. परमानन्द शास्त्रीके | शताब्दीके विद्वान् मुनि मदनकीर्ति-विरचित तीर्थसरल हिन्दी-अनुवादादिसहित तथा मुख्तार पंडित परिचयात्मक ऐतिहासिक अपूर्व रचना, हिन्दी अनुवादजुगलकिशोरद्वारा लिखित विस्तृत प्रस्तावनासे विशिष्ट । सहिव । सम्पादक-म्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाल मूल्य डेढ़ रुपया ।
कोठिया। मूल्य बारह माना।
व्यवस्थापकचीरसेकामन्दिर,
७.३३ दरियागंज, देहली।
प्रकाशक-परमानन्द जैन शास्त्री, बारसेवामदिर ७/३३ दरियागज देहली, मुद्रक-अजितकुमार जैन शास्त्री,
अकलंकप्रेस, सदरबाजार, देहली
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सम्पादक जुगलकिशोर मुख्तार
सहायक सम्पादक दरबारीलाल न्यायाचार्य
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श्री १०५ मुलक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य
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विषय-सूची
विषय
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लेखक .. साधु-महिमा
कविवर थानतराय २. श्रीपार्षनाथाष्टक- [श्रीवीरसेन ३. शौचधर्म- [श्री १.१. गणेशप्रसाद वर्णी ५. आत्मा, कर्म, सृष्टि और मुकि-हले. श्रीलोकपाल १. भा. विद्यानन्दके समयपर नवीन प्रकाश-ले. न्यायाचार्य पं दरबारीलाल कोठिया १. महार-क्षेत्रके प्राचीन मूर्तिलेख-[पं.गोविन्ददासशास्त्री .... .. ग्वालियरके फिलेका इतिहास
और जैन पुरातत्त्व- [वं परमानन्द शास्त्री ८. ऐतिहासक मारतकी आय मूर्तियां
जैन, बौद्ध या हिंदू- [श्री बालचन्द्र जैन, एम. ए. है. वर्णी-चापू (कविता)-[रच. सौ. चमेलीदेवी हिन्दी रत्न' १०. वर्णीजी और उनकी जयन्ती-दरबारीलाल कोठिया ११. साहित्यपरिचय और समालोचन- [पं. परमानन्द जैन, शास्त्री
१२०
८०)
अनेकान्तकी सहायताके चार मार्ग भेजना, लेखोंकी सामग्री जुटाना तथा उसमें प्रका(१) २५), ५०), १००) या इससे अधिक रकम शित होनेके लिये उपयोगी चित्रोंकी योजना करना , देकर सहायकोंकी चार श्रेणियोंमेंसे किसीमें अपना और कराना।-सम्पादक 'अनेकान्त नाम लिखना।
अनेकान्तके विज्ञापन-रेट (२) अपनी ओरसे असमर्थोंको तथा अजैन
एक वर्षका छह महीनेका एक बारका संस्थाओंको अनेकान्त फ्री (विना मूल्य) या अर्ध- पूरे पेजका १५०) मल्यमें भिजवाना और इस तरह दूसरोंको अनेकान्त आधे पेजका ८० ५०) के पढ़नेकी सविशेष प्रेरणा करना। इस मदमें चौथाई पेजका ५०) सहायता देनेवालोंकी ओरसे प्रत्येक बारह रुपयेकी
आवश्यक सूचना सहायताके पीछे अनेकान्त तीनको फ्री अथवा छहको अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा।
वीरसेवामन्दिरका आफिस और स्टाफ अब (३) उत्सव-विवाहादि दानके अवसरोंपर अने- सरसावासे देहली आगया है और 'अनेकान्त' का कान्तका बराबर स्खयाल रखना और उसे अच्छी प्रकाशन देहलीमे होने लगा है। अतः 'अनेकान्त' में सहायता भेजना तथा भिजवाना, जिससे अनेकान्त समालोचना तथा परिवर्तनके लिये लेखक तथा पत्रअपने अच्छे विशेषाङ्क निकाल सके, उपहार प्रन्थों- कार अपनी पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएं निम्न पतेपर की योजना कर सके और उत्तम लेखोंपर पुरस्कार भेजें । वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशनोंको
स्वतः अपनी ओरसे उपयोगी मँगानेके लिये भी निम्न पतेपर ही पत्रव्यवहार करें। योजना भी इस मदमें शामिल होगी।
व्यवस्थापक(४) अनेकान्तके ग्राहक बनना, दूसरोंको बनाना
वीरसेबामन्दिर, और अनेकान्तके लिये अनछे-अच्छे लेख लिखकर
७३३ दरियागंज, देहली
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अनेकान्तर
श्री १०५ पूज्यक्षुल्लक गणशप्रमादजी वर्णी [यापवा गत आश्विन कृष्णा ४ वीनिर्वाण म०२४७५, ता० ११ मितम्बर १६४६ को देहलीम ७५ वाँ जन्म-दिवम अपूर्व ममागे के माथ मनाया ___ गया । ]
श्री १०५ पृज्यक्षुल्लक पृर्णमागरजी
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अनेकान्त
श्री १०५ पृज्यक्षुल्लक चिनन्दा
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श्री १०५ पज्यक्षुल्लक निजानन्दी
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SUAL SexSINE
Read
Sanitatirapily
DAANANIE
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ॐ अहम
*
बस्वतत्त्व-सघातक
विश्वतत्व-प्रकाशक
keumerecatezcreeDesk
* वार्षिक मूल्य ५)*
kaporelatezaareezreeray
* एक किरणका मूल्य ।।)*
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नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्गफःसम्यक । |परमागमस्य नी भुवन
रामलाल
वर्ष १० । किरण ३
वीरसेवान्दिर (समन्तभद्राश्रम ), ७/३३ दरियागंज, देहली
आश्विन, वीरनिर्वाण-संवत् २४७५, विक्रम संवत् २००६
सितम्बर १६४६
साध-महिमा भौतन-भाग तज्यो गहि जोग, संजाग-वियोग समान निहारें । चंदन लावत सर्प कटावत, पुष्प चढ़ावत खड्ग प्रहार ।।
देवसों भिन्न लखें निज चिन्न, न चिन्न पगेसहमें गुग्त्र धार ।
'धानत' साध समाधि अराधिक, माहनिवारिक ज्योति विथारे ।। भू-जल-पावक-वृक्ष-शशी-रवि, मेघ नभं गुन ग्रायुह सारे । शात नदीतट ग्रीपम भूधर, पावम वृक्षनले निशि टार ।।
वन पर नहि ध्यान टर, शिव-वाहक चाहका दाह विडार । 'द्यानत' साध समाधि अराधिक, मोहनिवारिक ज्योति विथा ॥
-कवि द्याननराय जिनके घटमें प्रगट्यो परमारथ, गग विरोध हिये न विथा ।
करके अनभी निज आतमको, विषयामुग्वसो हित मूल निवा । हरिक ममता धरिक समता अपनी बल फौरि जु कर्म विडारे ।
जिनकी है यह कन्तूति सुजान मु आप तिर परजीवन तार ॥
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श्री पार्श्वनाथाष्टक
( मालिनी)
अजममग्मपारं मार-दुबार-वारं, गलित-बहल-ग्वेदं सर्वतत्त्वानुवेदं । कमठ-मद-विदार मूरि-सिद्धांत-मार, विगत-वृजिन-यूथं नौम्यहं पार्श्वनाथं ॥१॥ प्रहन-मदन-वात केवलज्ञानरूपं, मरकतमणि-देहं सौम्य-भावानगेहं । मुचरिन-गु-परं पंच-गंमार-दृरं, विगत-वृजिन-यूथं नौम्यहं पार्श्वनाथं ॥ २ ॥ मकल-मुजनम्पं धौत-नि:शेष तापं, भव-गहन-कुठारं सर्व-दुःखाऽपहारं ।। अतुलित-ननु-काम घात्यघाति-प्रणाश, विगत-वृजिन-यूथं नौम्यह पार्श्वनाथ ॥ ३ ॥ असहशमहिमानं पज्यमानं च मान, त्रिभुवन-वनतेसिं(?)क्लेश-वल्ली-हुताशं । स्त्रमन-धनमनीशं शुद्धबोध-प्रकाश, विगत-वृजिन-यूथं नौम्यहं पार्श्वनाथं ॥४॥ गत-मदकर माहं दिव्य-निर्घोष-वाह, विधुत-तिमिर-जालं मोह-मल्ल-प्रमन्न । विलमदमल-कायं मुक्ति-सामस्त्य-गेह, विगत-जिन-यूथं नौम्यहं पार्श्वनाथं ॥ ५॥ सुभग-वृप-विराज योगिर्न ध्यान-पुजं, त्रुटित-जनन-बंधं माधु-लोक-प्रबोधं । सपदि कालत-मोक्षं भ्रांति-मेधा-विपक्ष, विगत-वृजिन-यूथं नौम्यहं पाश्वनाथ ॥ ६॥ अनुपम-सुग्व-मूर्ति प्रातिहार्याऽष्ट-युक्त, खचर-नर-मुरेशं पंच-कल्याण-कोपं । धृत-फाणि-मणिदीपं सर्व-जीवानुकंप, विगत-वृजिन-यथं नौम्यहं पार्श्वनाथं ॥७॥ अमर-गुण-नृपालं किन्नरी-नाट्य-शालं, फणिपति-कृत-सेवं देवराजाऽधिदेव । असम-बल-निवासं मुक्ति कांता-निवास, विगत-जिन-यूथं नौम्यहं पार्श्वनाथं ॥८॥ मदन-मद-हर-श्रीवीरसेनस्य शिष्यैः, शुभग-वचन-पूरै राजसेनैः प्रणीतं । जपति पठति नित्यं पार्श्वनाथाऽष्टकं यः, स भवति शिवभूमौ मुक्तिमीमतिनीशः ॥६॥
॥ इति पार्श्वनाथाष्टकं समाप्तम् ॥ [नोट:-यह सुन्दर स्तोत्र श्रीवीरसेनके शिष्य राजसेनका बनाया हुआ है और हालमें देहलीके दिगम्बर जैन पंचायती मन्दिरसे प्राप्त हुआ है।
-सम्पादक]
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शौच धर्म ( प्रवक्ता श्री १०५ पूज्य क्षुल्लकगणेशप्रसादजी वर्णी ) (सागर-चातुर्मासमें दिया गया वर्णीजीका एक प्रवचन)
आज शौचधर्म है । शौचका अर्थ होता है पवि- तक ठहरेगा तो भोजन कराना पड़ेगा। वह समझ त्रता। सबको अपनी आत्मा पवित्र बनानी चाहिये। गया । उमने कहा कि मुझे आज भोजन तो करना ही पवित्रता लोभ-कषायके दूर होनेपर ही हो सकती है। नहीं है सिर्फ नहा-धोकर दर्शनकर आऊं । फिर थैली लोभ, यह एक ऐसी कषाय है जोकि बहुत देरमें पिंड- लेकर चला जाऊंगा। वह चुप रह गया, यह नहाछोड़ती है। क्रोध नष्ट हो जाता है, मान नष्ट हो जाता धोकर जब मन्दिरसे आया और रास्ता चलने लगा। है, माया नष्ट हो जाती है पर लोभ दशम गुणस्था- तब बोला कि मैं अब जाता है। मेरी थैली निकाल न तक साथ लगा रहता है । लोभके अभावमे यह दी। थैली लेकर वह जहांसे दो चार भले आदमी जा बात अवश्य है कि वह यथाख्यातचारित्र प्राप्त करा रहे थे खोलकर रोने लगा कि जिस किसी तरह जो दता है। यह बात क्रोध,मान और मायाके अभावमें १० गिन्नी और दो चार मुहरें इकट्ठी कर पाई थीं, नहीं होती। लोभ करना बड़ा बुरा है, जो अधिक पर आज वे कंकड़ पत्थर हो गई। यदि इनकी बात लोभ करता है उसकी बड़ी दुर्दशा होती है । मुजफ्फ- कहता हूँ तो कौन मानेगा, भले आदमी हैं। मैं तो लुट रनगरके पास एक सटैरो गांव है। वहां एक अच्छा गया। भीड़ इकट्ठी हो गई लोगोंने काना-फूसी करके धनाढ्य जैन रहता था। उसकी प्रकृति कृपण थी। घर उमसे कहा कि अपनी इजतमें वट्टान लगाओ। चुपआप हुएको दोसाटया खिलाना भी उसे भारी मालूम केमे दस गिन्नी और ४ मुहरें लाकर देदो। इज्जतका होता था। एक बार एक जैनी जो साधारण परिस्थि- ख्यालकर वह गिन्नी और मुहरें लाकर उसे देने लगा तिका था शामके समय उसके घर आकर ठहर गया, तो वह बोला, इम तरह मैं नहीं ले सकता, पंचोंपर उसने उससे व्यालूकी बात भी न पूछी। उसे दो केसामने लूगा । पंच जुड़े। पंचोंके सामने उस घरपरांयठा भारी हो गये। ठहरनेवाला आदमी बड़ा मालिकने उसे १० गिन्नियां और ४ मुहरे दी टंच था। उसने एक थैलीमें दम-पच्चीस रुपये और और हाथ जोड़े। अब उसने कहा कि यदि सत्य बात कुछ कंकड पत्थर भरकर मुह बंद किया और उम सुनना चाहते हो तो यह है कि मैं वंजी करनेवाला
आदमीसे कहा जिसके यहाँ ठहरा था कि इसमें कुछ आदमी हूँ। मेरे पास गिन्नी और मुहरें कहांसे श्रा जोखिम है आप अच्छी तरहसे रख लीजिये, वह मकती हैं। मैं इनके घर कल शामको व्यालूके वक्त खोलकर देखने लगा तो उसने कहा, क्या आवश्यकता आया पर इनस दो परांयठा नहीं खिलाये गये। इनके है ? आपका मुझे विश्वास है आप ऐसी-की-ऐमी दो परांयठाके लोभने मुझे यह षड्यन्त्र करनेको
ही कल दे दीजिये । अच्छी बात कहकर उसने वह बाध्य किया, मुझे न गिन्नी चाहिये न मुहरें। दर• थैली रख ली। सवेरा हुआ। उसने कहा, अब जाओ असल बात ऐसी ही है जो अधिक लुब्धक होता है
थैली निकाल दू? उसे डर था कि यदि यह कुछ समय उसकी ऐसी ही दशा होती है।
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८४
अनेकान्त
वर्ष १०]
इस पञ्चाध्यायीमें अभी सम्यक्त्वका ही प्रकरण और ८ बजेसे ११ बजेतक रसको साफकर खीर बनाते चलरहा है कलसे संवेगगुणका वर्णन चालू है। संवे. रहे, बनाते-बनाते मध्याह्नकी सामायिकका वक्त हो गया गका अर्थ धर्म और उसके फलमें सातिशय अनुराग मोचा कि सामायिक करली जाय बाद भोजन किया होना है। पंच परमेष्टियोंमें अनुराग होना भी संवेग जाय । सामायिकके बाद भोजनके लिये बैठे तो बाईही है। यहां अनुरागका अर्थ विषयेच्छा नहीं है। आप जी पहले पूड़ी परोसने लगी, हमने कहा खीरके जिनेन्द्रदेवके दर्शन करने मन्दिर आते हैं। इसमें बनानेमें हम लोगोंने ३ घन्टे खर्च किये सो फोकटमे
आपके क्या विषयेच्छा है ? विषयोंकी इच्छा घटाने जावेंगे | पहले खीर दो। बाईजीने थालियोंमें खीर के लिये ही तो आप मन्दिर आते है। समन्तभद्र- परोस दी। हम लोग अभिलापाकी तीव्रतासे उसे गर्म स्वामो भगवान महावीरका स्तवन करते हुए युक्त्यनु- ही खाने लगे, बाईजीन बहुत रोका, ठन्डी होजाने शासनमें कहते है
दो तब तक एक-दो पूड़िया खालो । पर आसक्ति "न रागान : स्तोत्र भवति भवपाशच्छिदि मुना, तो उसी ओर लगी हुई थी। हम दानाने खीरका एक
न चान्येषु द्वेषादपगुणकथाभ्यासखलता " एक ग्राम मुंहम दिया कि दो मक्खियां लड़ती भगवन ! मैन जो आपका यह स्तवन किया है सो लड़ती आई और हमारी थालीमे और एक दूसरी रागवश नहीं किया है। आप संसारके पाश-बन्धनको मोतीलालकी थालीम आगिरी । अन्तराय होगया, छेदन करनेवाले है। आपमे राग करनस विषयकी हम दोनों ऐन ही उठ गये । विश्वास हुआ कि विपपूर्ति क्या हो सकेगी ? वीतरागका दशन करना यांकी अभिलापा करनेसे उनकी प्राप्ति नहीं होती।
और मुनिके लिये भक्तिपूर्वक आहार देना मोक्ष- अब एक उदाहरण सुनो जहाँ बिना अभिलापा किये मार्ग है-इन दोनों हो कार्योसे मोक्षमागमे सद्यः पदार्थ मिल जाते है । मैं तो अपन-बीती ही आपप्रवेश हो सकता है । संवेगका एक अथ मंमार-भी- को अधिकतर सुना देता हूँ । इसमें मेरी आत्म-प्रशंमा रुता है । संसारसे भय खाना बुद्धिमानोंका कत्तव्य न ममझना, नहीं, कहो तो दृमरेका नाम ले दिया है। लेकिन संमारसे भय तो तब हो न, जब उसकी करूगा। नैनगिरकी बात है। हम दस-पांच आदमी विषमताका ध्यान किया जाय । ससारके स्वरूपका बैठे शास्त्रचचा कर रहे थे, परम्परमें चर्चा चल पड़ी जैसा-जैसा चिन्तन किया जाता है वैसा-वैसा ही कि अमुकका पुण्य अच्छा है। एकने कह दिया कि उससे भय होता जाता है। नरकादि गतियोंमे कैसा वीजीका पुण्य सबसे अच्छा है। इन्हे मनचाहीं क्या दुःख होता है, जरा इस बातको सोचो तो वस्तुएँ प्राप्त होजाती है। एक बाला यदि इन्हें आज मही. अभी रोमांच निकल आवेंगे। हम सांसारिक भोजनके पहले यहाँ अंगूर मिल जायं तो हम जानें पदार्थोकी अभिलाषामें इतने अधिक व्यस्त रहते है इनका पुण्य सबसे अच्छा है । मुझसे न रहा गया। जिसका कि कुछ ठिकाना नहीं। पर अभिलाषा मैने कहा, यदि उदय होगा तो यहीं मिल जावंगे। करनसे विषयों की प्राप्ति होजाती हो मोबात नहीं। उसने कहा, यहीं और अभी भोजनके पहले मिलना मेरा अनुभव तो ऐमा है ज्यों-ज्यों विषयोंकी अभि. चाहिये, मैने फिर भी कहा, यदि होगा तो कौन देख लाषा की जाती है त्यों-त्यों वे दुलभ होते जाते है। प्राया। मैं भोजन करने बैठा ही था कि इतनेमें बरुआसागरकी बात है। मैं और मोतीलालजी दोनों अयोध्याप्रसाद दिल्लीसे सागर होने हुवे रेशन्दीगिरि थे। मनमें अभिलाषा उत्पन्न हुई, रसखीर खायें। पहुँचे और बोले वर्णीजीने भोजन ना नहीं कर लिया। मुलचन्दजीसे रस बुला देनेको कहा। उन्होंने बहत- मै अंगूर लाया हूँ। भाग्यकी बात है उस जंगलमें सा रस बुला दिया। हम दोनोंको रसखीर खानेकी भी बिना इच्छा किये ही अंगूर मिल गये। इससे अभिलाषा थी इमलिये मन्दिरसे जल्दी आगये यह अनुभव होता है कि पदार्थोंकी अभिलाषासे ही
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किरण ३]
शौच-धर्म
उनकी प्राप्ति नहीं होजाती। पर किया क्या जाय ? पर मवार रहकर उन्हें अपने बन्धनमे रग्वना ।" यह अनादिकालमे जो यह मोह साथमें लगा हुआ है कहानी है तो हसानकी ही, पर वास्तव में विचार वही दुनियाको नाच नचा रहा है । एकने कहा है- करो तो यह स्त्रियां है बड़ीके तुल्य । इनहींके 'मोह महा रिपु-वैर कियो अति सब जिय बन्धन डारी, चक्करमं पड़कर मनुष्य एकमे दो, दोसे तीन, घर कारागृह बनिता बेडी परिजन जिय रखवारा तीनसे चार और इसी तरह अनेक होता रहता है
मोहरूपी प्रबल वैरीने ऐसा भारी वैर किया अपने आपको एक बड़े परिवारक बीचमे इन्हींकी कि सर जीवोंको बन्धनमें डाल दिया है। घरको कृपासे पाता है। संसार ही एसा है दोष किसे
काराग्रह बनाया है, स्त्रीको बेड़ी और परिवारक दिया जाय ? संमारका स्वभाव ही ऐसा है जो • लोगोंको रक्षक-पहरेदार बनाया है । यथार्थमें यह 'बोले मो फम ।'
स्त्री एक बेड़ीके समान है। लोकमन दाऊकी यह एक जगलमं एक माध रहता था। बड़ा तपस्वी कहानी याद आती है। वह कहा करता था कि था। जिस जो कह द उम उमकी प्राप्ति अवश्य हो "ब्रह्माके पेट में चारों वर्णके मनुष्य भरे हुए थे। उनम जानो। एक राजाक लड़का नहीं था। वह माधुके पास उन्हे जब कष्ट होने लगा तो उन्होंने ब्राह्मणान कहा आया। माध उसकी निमं प्रसन्न हो गया। राजान देखा, मुझे कष्ट हो रहा है आप लोग बाहर निकल पत्रका वरदान मांगा। माधुन स्त्रोकार कर लिया। राजा जाओ तो अच्छा है। ब्राह्मणोंने पूछा, बाहर जाकर अपने घर गया। अब जब रानी ऋतुमती होनके बाद क्या करेंगे ? ब्रह्माने कहा दुनियास पुजना और गभधारण करनेमे तत्पर हुइ नव दुनियामे कोई मरा क्या करोगे । पृथ्वीके देव बनकर रहा । ब्राह्मण ही नहीं, उसके गर्भ पिस भेजा जाय। मेरी बात बाहर निकल गये। अब क्षत्रियोमे कहा, तुम भी भठी न पद जाय इमनं. व्यालसे माध म्वयं मरकर बाहर निकल जाओ तो हमारी पीड़ा कम हा उमक गर्मम पहुँच गया। जब नौ महीना गर्भके दुःख जाय । क्षत्रियोंने कहा, ऐसा सुन्दर स्थान बाटकर महता उम अपनी सब गल्ती अनभयम आन लगो। कहां जायें ? क्या करेंगे? ब्रह्मान कहा मवपर पर अब कर हो क्या मकना था । ६ माह बाद पुत्र राज्य करना, राज्यके लोभसे क्षात्रय बाहर निकल हा। पर वह पूत्र अपनीमाधु अवस्थाका ख्यालकर आय। अब वैश्योंसे कहा, भैया! तुम लोग भी बुढ़ किमोस छ बालना नहीं था। गूगा माना जाने लगा। पर दयाकर बाहर होजाओ तो अच्छा है। बाहर राजान इतनेमे ही मंतोष कर लिया। चलो बोलता जाकर क्या करेंगे? खूब धन कमाना और मजम श नही, न बालने दो। निपूता तो नही कहलाऊंगा। आराम करना, ब्रह्माने कहा । धनकं लोभम वैश्य लटका बडा हुआ। एक दिन वह उद्यानमें क्रीड़ाके भी बाहर हुए। अब रहे शूद्र । सो जब शूद्रांम अथ गया। एक पेड़ के नीचे खड़ा था। उसी समय बाहर निकलनेको कहा तो उन्होंने कहा, जिननं एक शिकारी वहाँ आया । उस शिकारीको उम अच्छे-अच्छे काये थे सो तो उन तीननं हथया लिये. दिन शिकारमे कुछ भी नहीं मिला था। निराश हम लोग क्या करेंगे ? ब्रह्माने उन्हें प्रेमस ममझाया होकर अपने घर को लौट रहा था। इतनेमे उस वृक्ष कि तुम सबकी सेवा कर दिया करो, मवामे बड़ा पर एक चिड़िया बोल उठी । शिकारीका ध्यान पुण्य है। अच्छा कहकर शूद्र भी बाहर भागय । उन चिड़ियोंपर गया और उसने उम वृक्षपर अब भीतर रह गई स्त्रियां । उनसे भी कहा आप जाल डालकर सब चिड़ियोंको फंसा लिया। यह -लोग भी कृपा करो तो अच्छा हो । हम अबला दबकर राजाका लड़का बोल उठा, 'बोले सो फंस'
आपका आश्रय छोड़कर कहां जायंगी सा राजाक लड़कंक मखसे यह शब्द सुनकर शिकारी स्त्रियोंन पूछा । ब्रह्माजीने उत्तर दिया कि मोंक शिर- शुभ खबर देनेके लिये राजाके पास दौड़ा गया
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अनेकान्त
[वर्ष १०
और बोला । महाराज, आपका लड़का तो बोलता अरे! मखका अनुभव करनेसे पाप नहीं होता है। राजाने खश होकर पांच गांव तथा अपने सब किन्तु उसके हेतुओंका विधात करनेसे होता है। श्राभूषण इनाममें दिये । जब लड़का खेलकर मिष्ठान्न खानेसे अजीर्ण नहीं होता किन्तु उसकी आया तब राजाने कहा बेटा बोलो। लड़का चुप मात्राका उल्लंघन करनेसे होता है। मात्राका उल्लंघन था। कछ भी नहीं बोला । राजाको शिकारीपर अत्यासक्तिमें ही होता है। क्रोध आया कि यह भी हमारी हंसो करने लगा।
सम्यग्दृष्टिकी एक पहचान अनुकम्पा भी है । अनुइसे फांसीको सजा दी जाय, ऐसा सेवकोंसे
कम्पाका अर्थ है परदुःखप्रहाणेच्छा। परके दुखको कहा। जब मेवकगण उसे फांसीके लिये लेजाने
नष्ट करनेकी इच्छा होना ही अनुकम्पा है। मनुष्य लगे तो उसने कहा कि मुझे ५ मिनिटका समय
मात्रको चाहिये कि किसीको दुखी देखे तो उसका दु:ख दिया जाय और उस लड़कंको बुलाया जाय ।
दूर करनेका भरसक प्रयत्न करे। समस्त जीवोंके लड़का बुलाया गया। उसने उसे गोदमे बैठाकर
माथ मैत्रीभाव होना चाहिये । पर 'दुःखानुत्पत्यभिकहा। भैया, मेरी फांसी तो होती ही है तुम उतना लापो मैत्री' दसरेको दुःख उत्पन्न ही न हो यह मैत्रीका ही बोल दो जितना कि उस वृक्षके नीचे बोले थे ।
अथे है । अनुकम्पास मैत्री गुण प्रशस्त और उससे भी लड़केको दया आई । यह व्यर्थ ही माग जायगा। .
उत्तम माध्यस्थ्य गुण है, जिसमें न राग है न द्वेष है यह सोचकर उसने कहा-'बोले सो फंसे'। राजाको
दोनोंका विकल्प ही नहीं है। वैयावृत्य भी इसी शिकारीकी बात पर विश्वाम हो गया । सा उमकी
अनुकम्पा गुणका एक कार्य है। हृदयमें अनुकम्पा मजा माफ करदी गई और पांच गांव जो इनाममे
न होगी तो दूसरेकी वैयावृत्ति क्या करोगे । भक्तिदिये थे वे भी कायम रक्खे गये। अब राजानं लड़के
पूर्वक जो मुनियोंको आहारादि दिया जाता है वह में कहा बेटा बोलते क्यों नहीं ? लड़कने अपना पाय
वैयावृत्य है । उसमें पञ्चाश्चर्य आदि अतिशय होते सारा किम्मा सुनाया कि में साधु था। तुम्हाग है। पर किसी दरिद्रीको भोजन दिया जाता है उसमे भक्तिसे प्रसन्न हो गया था मोके फलस्वरूप मेरी भक्ति नहीं होती। इसमें दया ही होती है और दयायह दुर्गति हुई है। किस्मा तो कल्पित होता है। पर का फल स्वगोदिक है। मुनिदान एवं पूजनका फल उससे सार ग्रहण करलिया जाता है। विचार करो मोक्ष है। स्वर्गादिकी प्राप्ति हो जावे. यह दसरी बात यह राग-द्वेष ही तो दुःखका कारण है। राग-द्वेषमे ही है। किसान खेतमें बीज डालता है अनाजके लिये विषयासक्ति बढ़ती है। आसक्ति कम हो जाय तो भसाके लिये नहीं। वह तो अपने आप होजाता है। विषय उतना हानिकर नहीं है। आत्मानुशासनम इसी प्रकार कोई कार्य करो मोक्षकी इच्छासे करो यह गणभद्राचार्यसे कोई प्रश्न करता है कि 'आप, पाप स्वर्गादि भुसाके समान जरा-सी मन्दकषायसे प्राप्त न करो, पाप न करो ऐसा द्राविड़ी उपदेश क्यों दते हो सकते हैं और अनन्त बार प्राप्त हुए हैं। हो ? सीधा यही कहो न, कि पुण्य न कगे।न पुण्य किया जायगा, न सम्पदा प्राप्त होगी, न उमका श्राज शौच धमे है। इसमें लोभका त्याग करना उपभोग होगा और न तब पाप होगा।' इसके पड़ता है। यदि आप लोग लोभको अच्छा समझते उत्तरमें गुणभद्र स्वामी लिखते है कि:
हो तो मोक्षका लोभ रख लो, अन्य विषयसामग्रीका 'न सुखानुभवात्पापं पापं तदनुघातकारम्भात् । लोभ छोड़ दो। मोक्षका लोभ संसारका कारण नहीं नाजाय मिष्टान्नाननु तन्मात्रातिमक्रमणान् । है। पर विषयका लोभ अनन्त संसारका कारण है।
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आत्मा, कर्म, सृष्टि और मुक्ति
(ले० श्री लोकपाल )
जैनधर्मको कर्म-व्यवस्थाका वणन पूर्ण (कर्मपरमाणुओं) से घिरा चला आता है। वैज्ञानिक, तर्कपूर्ण एवं आधुनिक विज्ञानसे सिद्ध पुद्गलके इस घेरेको, जो आत्माको घेरे रहता है, हम है। इसे ठीक-ठीक जानने के लिये आधुनिक “कर्मशरीर” कहते हैं। इसमेंसे हर समय विज्ञानके A tonic theory अणुविज्ञानका कुछ अनंतानंत पुद्गल परमाणु छूटते रहते है इस तरह ज्ञान एकदम आवश्यक है। यह होनेसे ही इमकी इस "कर्मशरीर" में कछ न कुछ परिवर्तन पेचीदगियों और गढताओं या गुत्थियांको कोई (Change) होता रहता है और यही परिवर्तन ठीक-ठीक समझते हुए जैनधमके क्म-विज्ञान जीवों और शरीर-धारियोंकी उत्पत्ति, मृत्यु तथा Karn Philosphy में एक अन्तह टि-सी और दूसरी अवस्थाओंके होने और बदलनेका पा सकता है। अन्यथा ज्ञान कोरा किताबी ही रह कारण ( Basis Cause & reason ) है, जिसे जाता है या काफी गहरी वस्तुस्थिति तथा क्रम- हम सृष्टि कहते हैं। आत्मा और पुद्गल ये ही विकास evolution को एकदम ठीक-ठीक समझनेके दोनों मिलकर सारी सृष्टिकी रचना करते हैं। ये नजदीक नहीं होता। जैमी जैनधर्ममें वणित कर्मा- ही इसके कारण है। परन्तु पुद्गल तो जड है की व्याख्या है, यदि उसे लाग पूरा पूरा समझ ले इससे आत्माको ही हम विशेषतः सृष्टिकर्ता कहें तो फिर कोई बात या विचित्रता ही समझनके लिय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। जैसे जलमें मिटटीबाकी नहीं रह जाती। इमसे ठीक-ठीक यह जाना के बारीक कण डाल दिये जायें तो वह जलको जा सकेगा कि कोई जन्म, मरण या दूसरी अव
गंदा कर देंगे और यदि कोई रंग डाल दिया जाय स्थाऍ क्यों तथा कैसे होती है। इस विषयपर यदि
तो वह जलको रंगीन कर देगा। जलका निर्मलरूप कोई विद्वान वैज्ञानिक ढंगसे विस्तृतरूपम लिखे तो
जब इस प्रकार मलसहित-गंदा या विकृत हो जाता आज संसारमें इसे एक नृतन आविष्कार कहेगे।
है तब उसमें पड़ने वाला प्रतिबिम्ब भी साफ नहीं इतना ही नहीं, यह संसारकी व्यवस्थाओंमें एक
दिखलाई पड़ता, सब कुछ मिट्टीके कणोंके कारण क्रान्ति ला देगा, सब कुछ या सब प्रचलित धारणाएँ
धुधला हो जाता है या रंगके कारण रंगीन । फिर उथल-पुथल हो जायेंगी और एक नया संसार नये सिरस बन जायेगा. जिसमें मचमुच ही सत्ययुगके
__ भी जल सदा जल ही रहता है और उपयुक्त दवाई पहलेकी बातें सुख-शान्ति और आनंदका राज्य (Chamical) डालनेसे मिट्टी हटाकर या रंग
हटाकर फिर अपने असलरूपमें लाया जा सकता जैस लोगोंने ईश्वर और प्रकृतिको अनादि है। इतना ही नहीं जल चाहे गंदा हो या रंगीन माना है वैसे ही हमने भी आत्मा और पुदगल उसमें वस्तुओंका प्रतिबिम्ब तो पड़ेगा ही या पड़ता ( Matter ) को अनादि माना है और यह माना ही है। यह जलका स्वाभाविक गुण है जो उसहै कि अनादिकालसे सांसारिक आत्मा पुदगल से अलग नहीं किया जा सकता, इससे हम
होगा।
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अनेकान्त
[वर्ष १०
देखते हैं कि प्रतिबिम्ब जो जलमे किसी वस्तुका आत्मा और कर्म दो भिन्न-भिन्न वस्तु होते हुये भी पड़ता है वह मिट्टीके कण मौजूद रहनेसे केवल और एक-दूसरेसे न मिलते हुये भी या एक-दूमरेमें धुधला-मिटीके कणोंसे भरा-सा रंग रहनेपर रंगीन मौजद या एक-साथ रहते हये भी एक-दूसरेरूप दिखलाई पडता है पर जैसे-जैसे ये कण साफ या कम नहीं होसकते । न एक दूसरेमें मिल ही सकते हैं होते जायेंगे वैसे २ प्रतिच्छाया या प्रतिबिम्ब भी साफ फिर भी कमद्वारा आत्मप्रदेशमे अमर इस तरहका होता जायगा । मिट्टीके कणोंकी जगह यदि हम किसी पड़ता है जिससे आत्माका ज्ञान या दर्शन जैमा एसी वस्तुके कण पानीमे डाल दें जो पानीको गंदला होना चाहिये या जैसा रहना चाहिये (परम शुद्ध या धूमिल न करें बल्कि उसमें अधिक चमक लादे एवं निर्मल) वह नहीं रहता या नहीं होता । श्रातो जो प्रतिबिम्ब उस हालतमें दिखलाई दंगा वह त्मा यदि परम शुद्ध रहता उसके (श्रात्माके) प्रदेश उस वस्तुके कणांके कारण एकदम शुद्ध तथा निमल या शरीरमें या आत्मा जिस स्थानको घेरे हुए है तो नहीं होगा पर उसको हम प्रकाशयुक्त या किसी उतने या उसी स्थान या प्रदेशमे ये कमके
और ही तरहका पावेंगे। इसतरह हम देखते है कि परमागा उपस्थित नहीं रहते तो उसका ज्ञान परम विभिन्न वस्तुओंके कणोको जलमे डालनेसे एक ही निमल और विशुद्ध होता। पर ये परमारण उम चीजका प्रतिविम्ब विभिन्नरूपमे दिखलाई पडेगा। प्रदेशमे उपस्थित रहकर उसके अन्दर प्रतिबिम्बत एसा होनेमे न ता जलका दोप है न उस चीजका वस्तुओका रूप जैसा दिखलाई देना चाहिये वैमा जिसका प्रतिबिम्ब जलम पड़ रहा है और न प्रति- नहीं दिखलाई देने देते। बिम्बका ही जो हर वक्त हर हालतमे है या रहता आधुनिक विज्ञानमें जा Scattering of है। एक ही किस्मका पर केवल मिट्टी आदिके कणोंके
rays वगैरहके बारेमें वैज्ञानिकोंन बातें बतलाई है जलमें मौजूद रहनेसे प्रतिबिंबमे भी वे मौजूदरहते है। उन्हे जाननेवाला इस विपयपर गौर कर विभिन्न
और इसी कारण कोई भी प्रतिबिंब निर्मल नहीं एवं वस्तुओंके अणुओं atoms का प्रभाव प्रकाशसाफ नहीं दर्शित होता । ये कण प्रतिबिंबके साथ किरणोंपर क्या पड़ता है उसे समझकर काफी घल-मिल नहीं जाते, न प्रतिबिंब ही उनसे घुल-मिल जानकारी प्राप्त कर सकता है। कर एकाकार हो जाता है। ये दोनों दो चीजें हैं। और
आत्मा चेतन है और जल, मिट्टी इत्यादि वस्तुकिसी भी हालतमे एक दूसरेसे मिलकर एक नहीं हो
ओंके कण या किसी चीजका प्रतिबिम्ब (जो जलम सकतीं मिट्टा वगैरहके ये कण प्रतिबिंबमें न तो सट
पड़ रहा हो) ये सब अचेतन या जड़ है। ऐमी जाते हैं न प्रतिबिम्बके ऊपर उनका कोई एक दूसरेको बदल देनेवाला प्रभाव Actino & reacticn ही
हाललमें इन वस्तुओंका दृष्टान्त देकर आत्माकी बातें
ठीक-ठोक समझाना या समझना भी एकदम श्राहोता है, उनके रहनेसे प्रतिबिंब विकृत भी नहीं होता
सान नही। फिर भी कुछ यत्न और कोशिशसे वह तो हर हालतमे हर वक्त अपने स्वाभाविक रूपमे ही रहता है। फिर भी हम देखते हैं कि इन कणोंके
काफी जानकारी इस तरह हासिल की जा सकती है। जलमें रहनेसे वे प्रतिबिम्बमें भी रहते हैं और इसी आत्मा और पद्गल इस संसारमें सर्वदासे कारण प्रतिबिम्ब जैसा दिखलाई देना चाहिये वैसा मौजद हैं और हर जगह दोनों ही मौजूद हैं। नहीं दिखलाई देता।
जिन प्रदेशोंमें जगहोंमें या जितने आकाश स्थलमें इसी तरह यदि प्रास्माको हम प्रतिबिम्बकी आत्मा विद्यमान है या आकाशका जितना थोड़ा या जगह मान लें और कर्मपर मोंको मिट्टी आदि ज्यादा प्रदेश किसी एक श्रात्माने छेक रखा है उसके तरह तरह की चीजोंके कण तो हम समझ सकेगे कि भीतर पद्गल परमाणु भी वर्तमान है ऐसा सभी
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किरण ३ ]
जगह है। हर समय रहता है और सर्वदासे ऐसा हो है । ऐसी हालत में इन परमाणुओंका असर ठीक उसी तरह आत्मपर पड़ता है, जैसे जलमें दिखाई देनेवाले प्रतिविपर जलमें वर्तमान मिट्टी इत्यादि के कोंका । इस तरह आत्मा भी अनादि कालसे है, और पुद्गल भी, और जब तक किसी भी तरह आ त्मा इन पुद्गल परमाणुओंसे छुटकारा नहीं पाता तब तक वह परमनिमल नहीं कहा जा सकता । न उसका ज्ञान ही "केवलज्ञान" हो सकता है और न वह मोक्ष ही प्राप्त कर सकता है ।
आत्मा, कर्म, सृष्टि और मुक्ति
1
फिर प्रश्न यह उठता है कि जबतक आत्मा संसार में है, जहां हर जगह हर वक्त पुद्गल परमाणु मौजूद है । फिर वह कैसे छुटकारा पा सकेगा । ऐसी हालत मे जबतक कि वह किसी ऐसी जगह या स्थान में न पहुँच जाय जहां पुद्गल न हों फिर तो वह जगह ऐसी ही होगी जहां मोक्षके समय ही आत्मा जा सकेगी। या मोक्ष हो जानेपर ही जासकेगी। पर ऊपर यह कहा जा चुका है कि वगैर पुद्गलोंसे छुटकारा पाये मोक्ष नहीं हो सकता | फिर ये दोनों बातें एक दूसरेकी विरोधी हो जाती है। और देखन में तो इससे यही साबित होता है कि फिर ऐसी हालत में आत्माको कथा मोक्षकी प्राप्ति ही न हो सकेगी ?
पर ऐसी बात नहीं है थोड़ा गौग्म सोचने पर इस गुत्थी को भी हम सुलझा पायेंगे । और आगे समझ सकेंगे ।
बात है भी ऐसी ही कि आत्मा जबतक मंसारमे है या रहता है, कर्मेसि या पुद्गलों (कर्मपरमा
ओ) से छुटकारा नहीं पाता है क्योंकि वे तो हर वक्त उसके प्रदेशमें विद्यमान है। आत्मा तो स्वयं कुछ करता नहीं, जिससे इन पुद्गलोंसे छुट कारा पा जावे । या कर भी क्या सकता है जब उसके अन्दर और बाहर हर तरफ, हर जगह, हर व पुद्गल वर्तमान ही हैं। स्वयं वह कहीं श्र जा भी नहीं सकता। उसे तो स्थानान्तरित करने
ΣΕ
वाला या एक जगह से दूसरी जगह ले जानेवाला भी तो पुद्गल ही है । वह स्वयं तो केवल ज्ञानानंदमय चेतन है । वह तो केवल जानता या अनुभव करता है। बस, ऐसी हालत में आत्मा कैसे या क्यों कर केवलज्ञान या निर्मल ज्ञानको प्राप्त होगा या होता है, यह एक बहुत कठिन समस्या है जिसे यहाँ सुलझाना या हल करना है ।
आत्मा संसारमें रहते-रहते जब कभी मानवशरीर पाता है तब समय, संयोग तथा सुयोग पाकर (जिसे हमारे शास्त्रकारोंने निमित्तकारण तथा काललब्धि कहा है ) जब ऐसी अवस्थामें आता है कि वस्तुरूप ठोक-ठीक समझने लग जाय तब उसका ध्यान बाहर से मुड़कर अपने अंदर आना आरम्भ हो जाता है। और यहीं से उसके लिये केवलज्ञान या मोक्षप्राप्तिका प्रारम्भिक विषयप्रवेश आरम्भ होता है । और जैसे-जैसे अनेकानेक कारणों या जरियों द्वारा उसका ज्ञान बढ़ता जाता है अथवा यों कहिये कि माफ या निर्मल होता जाता है वह एक ऐसी स्थितिमे आ जाता जबकि उसके अन्दरके पुद्गलों की बनावट या गठन (तरतीच) में इसतरहका फर्क आ जाता है या आने लगता है कि उनका असर एकदम मटमैला या अंधकारपूर्ण न होकर चमकदार या प्रकाशपूर्ण होने लगता है। जैसे कि जलमे मिट्टीके करण न डालकर अबरख, या शीशे या हीरे के कर डाल दिये जाये । आधुनिक विज्ञानद्वारा ये बातें हम जान सकते है कि किसी भी वस्तुका रूप या आंतरिक और बाह्यरूप और गुण वगैरह उसकी Atomie Construction ( आणविक बनावट) पर ही निर्भर करते है । यदि हम किसी वस्तुकी एटोमिक बनावटको किसी तरह बदल सकें तो उस बस्तुको हम किसी दूसरी वस्तुमें परिणत कर देंगे, जिसका रूप और गुण वगैरह पहली वस्तुसे एकदम भिन्न होंगे। इस प्रकार आत्मामें जो चेतना (जानन तथा अनुभव करनेका (गुण) है । और पुद्गलक
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अनेकान्त
वर्ष १०
माथ रहनेसे उसमे जो हलन-चलन इत्यादिकी या काले पर्दे की तरह ढकनेवाले न होकर शीशेकी मानसिक या शरीरिक क्रिया करनेकी शक्ति रहती है तरह पारदर्शक होते जाते है। और यह बात जितनी उसके कारण हरदम उसके (आत्माके)प्रदेशोंमें विद्य- अधिकाधिक होती जाती है आत्माका ज्ञान विकमान पुद्गलोंके संगठन-पुद्गलस्कन्धोंकी बनावट मित, निर्मल और शुद्ध होता जाता है । (इसके बारे या एटोमिक बनावट या हरएक ऐटमकी ण्टोमिक में जैनशास्त्रों में बड़ा विस्तृत विवरण है जिसे कोई बनावट में हर वक्त परिवर्तन या हेर-फेर जारी रहता भी जाननकी चेा करनेसे जान सकता है) ऐमी हैया होता रहता है और यही मब जन्म, मृत्यु, अवस्थामें या इसतरह परिवर्तन होते-होते एक बीमारी श्रादि तथा एक जगहसे दूसरी जगह पाने,
समय ऐसा आता है जबकि किसी खाम आत्माके जाने,किसी खाम व्यक्तिका जन्म किसी खास स्थान
अन्दर (उसके आत्म-प्रदेशोंमें) विद्यमान पद्गल में किसी खास व्यक्तिके यहां होने तथा स्वभावादि
स्कन्ध प्रायः एकदम पारदर्शक हो जाते है और की विशेषताका कारण है।
तब निर्मल "केवलज्ञान” आत्माके अंदर झलक ___ इन कर्मपुद्गलोंकी बनावटम वस्तुस्वरूपकी जाता है जिमका तुरन्त असर यह होता है कि कर्म ठीक-ठीक जानकारी तथा ज्ञानका विस्तार और प्रा. उसके आत्मप्रदेशमें और भी कम होने शुरू हो चरण वगैरहका असर, ज्ञानको (मम्यग्ज्ञान) की जाते है और वह आत्मा अन्तको सवकर्मोसे रहित हालतमें जबकि शरीरधारी मानवका ध्यान अपनी होकर अपने ऊध्वगमनस्वभावसे लोकके अग्र
आत्माके अन्दरकी तरफ झुकना या लगना प्रारंभ भागमें जाकर स्थित होजाता है, जहां फिर उसके हो जाता है तब उसके प्रदशाम द्यिमान पुद्गलोका साथ कमपद्गलाका सम्बन्ध नहीं हो सकता। बनावट या पद्गलस्कंधोंकी बनावटमें ऐसा परि- आत्माकी इस परमशुद्ध अवस्थाको ही मुक्ति अथवा वर्तन होने लगता है कि व धुधले और अंधकार मोक्ष कहते है।
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प्रा० विद्यानन्दके समयपर नवीन प्रकाश (न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया )
wwsar प्राचार्य विद्यानन्द ने अपने किसी भी प्रन्थमें मोमांमक विद्वानोंके मिद्धान्नोंका विद्यानन्दने नामो
अपना ममय नहीं दिया। अतः उनके ल्लेख और विना नामोल्लेखके अपने प्रायः सभी ममयपर प्रमाणपूर्वक विचार किया जाता है। ग्रन्थोंमें निरमन किया है। कुमारिल भट्ट और प्रभा.
१. विद्यानन्दने न्यायदर्शनप्रणेना अक्षपाट गौत- करका ममय इसाकी मातवीं शताब्दी (ई० ६२५ मं मके न्यायसूत्र, न्यायसूत्रपर लिखे गये वात्स्यायनके'
६८०) है । अन. विद्यानन्द उनके (ई० मन ६८० के) न्यायभाष्य और न्यायमन्त्र तथा न्यायभाष्यपर ग्चे
पश्चाद्वर्ती हैं। गये उद्योनकरके न्यायवानिक, इन तीनोंका तत्त्वा
४. कणादके वैशेषिकमत्र, और वैशेषिकसूत्रपर लोकताकि
किसानों लिखे गये प्रशस्तपादके' प्रशस्तपादभाष्य तथा प्रशनामोल्लेखपूर्वक और बिना नामोल्लेबके भी सुवि
स्तपादभाष्यपर भी रची गई व्योमशिवाचार्यकी म्तन समालोचन किया है । उन्योतकरका समय ६००
व्यशेमवती टीकाका विद्यानन्दने अापपरीक्षा इ० माना जाता है। अतः विद्यानन्द ई० मन के आदिमें आलोचन किया है। व्योमशिवाचार्यका पूर्ववर्ती नहीं हैं।
ममय ई. सनकी मातवीं शताब्दीका उत्तरार्ध (ई.
६५० मे ७०० नक) बतलाया जाता है। अतः ____२. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ( पृ० १०,४२७) और
विद्यानन्द ई० मन ७०० के पूर्ववर्ती नहीं हैं। अष्टसहस्री (पृ० २८४) आदि ग्रन्थों में विद्यानन्दने प्रसिद्ध वैयाकरण एवं शब्दानप्रतिष्ठाता भन ह. ५ धर्मकीर्ति और उनके अनगामी प्रज्ञाकर तथा रिका नाम लेकर और बिना नाम लिये उनके 'वाक्य- धर्मोत्तरका अष्टमहसी (प्र. ८१,१२२,२७८), प्रमापदीय' प्रन्थकी अनेक कारिकाओंको उदधत करके गणपरीक्षा (पृ०५३),
गापरीक्षा (पृ०५३) आदिमें नामोल्लेखपूर्वक खण्डन उनका ग्वण्डन किया है। भत हरिका अस्तित्वममय किया गया है । धर्मकीनिका ई०६:५, प्रज्ञाकरका ई० ई. मन ६०० मे ई०६५०नक मनिीत है । अतः
७० और धर्मोनरका ई० ७२५ अस्तित्वकाल माना विद्यानन्द ई० मन ६५० के पूर्वकालीन नहीं है। जाना है । अतः श्रा० विद्यानन्द ई० मन ७.५ के ३. जैमिनि, शवर, कुमारिल भट्ट और प्रभाकर इन
पश्चात्कालीन है।
१ इनका समय प्राय. ईमाकी तीसरी, चौथी शताब्दी १ ये इंसाफी चौथी शतीक विद्वान् माने जाते हैं। श्रा० माना जाता है।
प. पृ० ६ में व्योमवती पृ० १४६ के 'द्रव्यत्वोपलक्षित २ चीनी यात्री इत्सिंगने अपनी भारतयात्राका वित्र
समवायको द्रव्यलक्षण' माननेके विचारका खण्डन किया रमा ई० सन् ६११-१२ में लिखा है और उसमें उसने यह गया है। तथा इसी ग्रन्थ के पृ. २६ पर व्योमवती पृ० ममुल्लेख किया है कि 'भत हरिकी मृत्य हा १० वर्षको १०७ मे समवायलक्षणका समस्त पदत्य दिया गया है। गये। अतः भत हरिका समय ई. सन् ६१० तक निश्चित ३ प्रमेयक मा. प्रस्ता पृ. " है। देखो, अकलंकन की प्रस्तावना ।
४ देखो, वादन्यायका परिशिष्ट नं.१।
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अनेकान्त
[वषे १०
६. अष्टसहस्री (पृ०१८) मे मण्डनमिश्रका नामो- २. प्रशस्तपादभाष्यपर क्रमशः चार प्रसिद्ध ल्लेखपूर्वक आलोचन किया गया है और श्लोकवा- टीकाएँ लिखी गई है-पहली व्योमशिव की व्योमत्तिक (पृ०६४) में मण्डनमिश्रके 'ब्रह्ममिद्वि' ग्रन्थसे वती, दुसरी श्रीधरकी न्यायकन्दली, सीमरी उदयन'पाहुर्विधातृ प्रत्यक्षा पद्यवाक्यको उद्धृत करके कद की किरणावली और चौथी श्रीवत्साचार्य की न्यायर्थन किया गया है। शङ्कराचार्यके प्रधान शिष्य लीलावती। श्रा. विद्यानन्दने इन चार दाकाओंमे मरेश्वरके बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिक (३-५) पहली व्योमशिवकी व्योमवती टीकाका तो निरसन मे 'यथा विशुद्धमाकाशं 'नथेदममल ब्रह्म य दो (४३, किया है, परन्तु अन्तिम तीन टीकाओंका उन्होंने ४४ वें) पद्य अष्टमहस्री (पृ०६३) में बिना नामो- निरमन नहीं किया। श्रीधरने अपनी न्यायकन्दली ल्लेखक और अष्टसहस्री (पृ० १६१ ) में 'यदुर टीका शक सं०६।३, ई०६६१में बनाई है । अतः बृहदारण्यकवात्तिक' शब्दोंक उल्लेखपूर्वक उक्त श्रीधरका समय इ० सन ६६१ है। और उदयनने वात्तिक ग्रथन्स ही 'आत्मापि पदिदं ब्रह्म', 'ग्रान्मा अपनो लक्षणावली शकसं० १०६, इ०सन १८४ में ब्रह्मति पारोच्य- ये दो पा उदधत किये गये है। समाप्त की है । इलिये उदयनका ममय ई० सन मण्डनमिश्रका' इ०६७० से ७२० और सरेश्वर ६८४ है। अतण्व विद्यानन्द ई० मन ८४ के बाद के मिश्रका ई० ७८८ ८२० समय समझा जाता है। नहीं है। अतः आ० विद्यानन्द इनके पूर्ववर्ती नहीं है-सुरे- ३. उद्योतकर (ई० ६००) के न्यायवार्त्तिकपर श्वर मिश्रके प्रायः समकालीन है. जैसा कि आगे वाचस्पति मिश्र (ई०८४१) ने तात्पर्यटीका लिखी सिद्ध किया जावेगा। विद्यानन्दक ग्रन्थोंमे सरेश्वर- है। विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक (प्र. २०६. मिश्र (८-०ई०) के उत्तरवर्ती किसी भी २८३,२८४ आदि) मे न्यायभाप्यकार और न्यायग्रन्थकारका खण्डन न होनम मरेश्वर मिश्रका समय वार्तिककारका ता दशों जगह नामोल्लेख करके विद्यानन्दकी प्रविधि समझना चाहिए।
खण्डन किया है । परन्तु तात्पर्यटीकाकारके किसी अब हम आ. विद्यानन्द की उत्तरावधिपर
भी पदवाक्यादिका कहीं भी खण्डन नहीं किया विचार करते है।
है। हाँ, एक जगह (तत्त्वार्थश्लो० पृ०२०६ मे) १. वादिराजमृग्नि अपने पाश्वनाथचरित
'न्यायवात्तिकटीकाकार' के नामसे उनके व्याख्यान(श्लोक २८) और न्यार्यावनिश्चयविवरण (प्रश
का प्रत्याख्यान हो जानेका उल्लेख जरूर मिलता है स्तिश्लो० २) में आ० विद्यानन्दकी स्तुति की है।
और जिसपरसे मुझे यह भ्रान्ति' हई थी कि वादिराज सूरिका समय इ. सन् १०२५ सुनिश्चित
विद्यानन्दने वाचस्पति मिश्रकी तात्पर्यटीकाका भी है। अतः विद्यानन्द ई० सन् १०२५ के पूर्ववर्ती
खण्डन किया है। परन्तु उक्त उल्लेखपर जब मैन हैं-पश्चाद्वर्ती नहीं।
गहराई और सूक्ष्मतासे एकसे अधिक बार विचार
किया और ग्रन्थोंके मन्दोंका बारीकीसे मिलान ५ देखो, वृहती द्वितीय भागको प्रस्तावना। किया तो मुझे वह उल्लेख अभ्रान्त प्रतीत नहीं
२ गोपीनाथ कविराज-'अच्युत' वर्ष ३, अङ्ग हुआ । वह उल्लख निम्न प्रकार है:पृष्ठ २५-२६ ।
१ 'अधिकदशोत्तरनवशतशाकाब्दे न्यायकन्दली रचिता। न्यायधिनिश्चयधिवरणाके मध्यमं भी वादिराजस. श्रीपाण्डदासयाचित-भट्ट-श्री-श्रीधरेण्यम्॥" रिने विद्यानन्दका स्मरण किया है। दम्बा, आप्तपरीक्षा,
२ देखो, न्यायदीपिका प्रस्तावना पृ०६। प्रस्तावना (लि.) पृ. ४२ का फुटनोट ।
३ विद्यानन्द का समय' अनेकान्त व ६, किरण ६-७॥
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किरण ३]
श्रा० विद्यानन्दके समयपर नवीन प्रकाश
3-
या
'तदनेन न्यायवातिकटीकाकारव्याख्यानमनुमानसूत्रस्य नन्दने दो एक जगह' और भी 'पूर्ववत् आदि अनुत्रिसूत्रीकरणेन प्रत्याख्यात प्रतिपत्तव्यमिति, लिङ्गलक्षणाना- मानसूत्रके त्रिसूत्रीकरणरूप व्याख्यानका उल्लेख किया मन्वयित्वादीनां त्रयेण पक्षधर्मत्वादीनामिव न प्रयोजनम् ।' है और उसका समालोचन किया है। उसपरसे भी
विद्यानन्दको न्यायवात्तिककारका ही मत-निरसन इस उल्लखमे दीका' शब्द अधिक है और वह
अभिप्रेत मालूम होता है । अतः उक्त उल्लेखमें विद्यालेखककी भूलसे ज्यादा लिखा गया जान पड़ता
। नन्दके द्वारा दिया गया 'टोका' शब्द नहीं होना है-प्रन्थकारका स्वयंका दिया हुआ वह शब्द
चाहिए---प्रतिलेखकके द्वारा ही.वह भ्रान्तिसे अधिक प्रतीत नहीं होता, क्योकि यदि ग्रन्थकारको 'टीका'
लिखा गया जान पड़ता है। प्रतिलेखक न्यूनाधिक शब्दके प्रदानसे वाचस्पति मिश्रकी तात्पर्यटीका
लिख जाना जैसी भूले बहुधा कर जाते है। विवक्षित हो तो उनका आगेका हनुम्प कथन सङ्गत
___ अथवा ग्रन्थकारका भी यदि दिया हुआ 'टीका' नहीं बैठता । कारण, अन्वयी, व्यतिरेकी और
शब्द हो तो उसमें उन्हें तात्पर्यटीका विवक्षित रही अन्वयव्यतिरंकी इन तीन हेतुओंका कथन पक्ष
हो; सो बात नही मालूम होती क्योंकि उनके उत्तरधमत्व, सपक्षसत्व और विपक्षाव्यावृत्ति इन तीन
ग्रन्थका सम्बन्ध न्यायवार्तिकसे ही है-तात्पर्यटीकाहेतुओंके कथनकी तरह न्यायवात्तिककार उद्यात
से नहीं। अतः 'न्यायवार्तिकटीका' शब्दका 'न्यायकरका अपना मत है-उद्योतकरने ही 'पूर्वच्छपवन'
वात्तिककी टीका' ऐसा अर्थ न करके 'न्यायवार्तिकआदि अनुमाननूत्रका त्रिसूत्रीकरणरूपसे व्याख्यान
रूप टीका' ऐसा अर्थ करना चाहिए, क्योंकि न्यायकिया है अथांत उन्हान उक्त अनुमानमत्रक तान वात्तिक भी न्यायसूत्र और न्यायभाष्यकी टीका व्याख्यान प्रदर्शित किये है,' तात्पर्यटीकाकार वाच- (ब्याख्या) है। इस तरह कोई असङ्गति अथवा स्पति मिश्रने नहीं, बल्कि वाचस्पति मिश्र स्वयं उन
असम्बद्धता नहीं रहती। अतएव विद्यानन्दके ग्रन्थोंव्याख्यानोंको उद्यातकरका मत बतलात ह । विद्या- में वाचस्पति मिश्रका खण्डन न होनेसे व उनके पूव
__ बर्ती सिद्ध होते हैं। वाचस्पति मिश्रका समय ई. १ यथा-(क) निविमिति । अन्वयी, व्यतिरेकी, अन्वय- मन ८४१ निश्चित है। अत. विद्यानन्दकी उत्तराव्यतिरेको च । तत्रान्वयव्यतिरेकी विवक्षिततजातीयोपपत्ती ववि ई० मन८४० होना चाहिए । वाचस्पति मिश्रक विपक्षावृत्तिः,यथा अनित्यः शब्दः सामान्यविशेषवत्वं सत्य- समकालीन न्यायमजरीकार जयन्तभद्र भी हए हैं। म्मदादिबाह्यकरणप्रत्यक्षत्वात् घटवदिति। -पृ०४६ । उनका भी विद्यानन्दके ग्रन्थोंमें कोई समालोचन
उपलब्ध नहीं होता । यदि विद्यानन्द उनके उत्तर(ख) अथवा विविधमिति । लिङ्गस्य प्रसिद्ध-सदसन्दि
कालीन हात तो वे न्यायदर्शनके (इन वाचस्पतिमिश्र ग्धतामाह । प्रसिद्ध मति पक्षे व्यापकम्, मदिति सजातीयेऽस्ति, असन्दिग्धमिप्ति सजातीयाविनाभावि ।'-पृ० ४६।
और जयन्तभट्ट जैसे) प्रमुख विद्वानोंका भी प्रभा
चन्द्रकी तरह आलोचन करते। (ग) 'अथवा त्रिविमिति नियमार्थम् । अनेकधा
इस तरह पूर्ववर्ती ग्रन्थकारोंके समालोचन और भिन्नस्यानुमानस्य त्रिविधेन पूर्ववदादिना संग्रह इति नियम
उत्तरवर्ती प्रन्थकर्ताओंके असमालोचनके आधारसे दर्शयति । -पृ. ४६ ।
विद्यानन्दका समय ई० सन् ७७५ से ई० सन् ८४० २ यथा--'तदेवं म्यमतेन सूत्रं म्याख्याय भाष्यकृन्मतेन निर्धारित होता है। ग्याचष्टे ।' पृ० १७४, 'स्वमतेन व्याख्यान्तरमाह
इस समयकी पुष्टि दूसरे अन्य प्रमाणोंमे भी अथवा....'' पृ. १७८, विविधपदस्य तात्पर्यान्तरमाह - अथवेति ।-पृ० १७६ ।
१ तत्वार्यश्लोक.पृ. २०५, प्रमाणपरी पृ०७५ ।
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६४
अनेकान्त
होती है और जो इस प्रकार हैं:
शती -
१. सुप्रसिद्ध तार्किक भट्टाकलङ्कदेवकी पर विद्यानन्दने अष्टसहस्री टीका लिखी है। यद्यपि यह टीका आप्तमीमांसा पर रची गई है तथापि विद्या - नन्दने अष्टसहस्री में अकलङ्कदेवकी अष्टशतीको आत्मससात् करके उसके प्रत्येक पदवाक्याटिका व्याख्यान किया है। अकलदेव के ग्रन्थवाक्योका व्याख्यान करनेवाले सर्वप्रथम व्यक्ति आ० विद्या नन्द हैं । विद्यानन्दकी अकलङ्कदेव के प्रति अगाध श्रद्धा थी और वे उन्हें अपना आदर्श मानते थे । इसपर से डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषण, म० म० गोपीनाथ कविराज जैसे कुछ विद्वानों को यह भ्रम हुआ है कि कलङ्कदेव अष्टसहस्रीकार के गुरु थे । परन्तु ऐतिहासिक अनुसन्धानमे प्रकट हैं कि अकलङ्कदेव अष्टसहस्त्रीकारके गुरु नहीं थे और न अनुसहस्रीकार ने उन्हें अपना गुरु बतलाया है । पर हॉ, इतना जरूर है कि वे अकलङ्कदेवके पदचिन्हों पर चले है और उनके द्वारा प्रदर्शित दिशापर जैनन्या यका उन्होंने सम्पुष्ट और समृद्ध किया है। अक लङ्कदेवका समय श्री० पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने विभिन्न विप्रतिपत्तियोंके निरसनपूर्वक अनेक प्रमागोसे ई० सन् ६२० से ६८० निर्णीत किया है । अतः विद्यानन्द ई० सन् ६८० के उत्तरवर्ती है, यह निश्चित है ।
२. अष्टसहस्रीकी अन्तिम प्रशस्तिमे विद्यानन्दने दो पद्य दिये है । दूसरे पद्यमे उन्होंने अपनी १ देखो, अच्युत (मासिकपत्र पृष्ठ २८) वर्ष ३, ४ । २ देखो, न्यायकुमुद प्र० भा० प्रस्ता० ।
३ " श्रीमदकलङ्कशशधर कु. लविधानन्दसम्भवा भूयात् । गुरुमीमांसालङ्क तिरष्टसहस्रो सतामृद्धये ॥ १ ॥ कष्ट सहस्री सिद्धा साऽष्टसहस्त्रीयमत्र मे पुष्यात् । शश्वदभीष्टमस्त्री कुमारसेनोविवर्धमानार्था ॥ ६ ॥” इन दो पद्योंके मध्य में जो कनडी पद्य मुद्रित अष्टसहस्रीम पाया जाता है वह अनावश्यक और असङ्गत प्रतीत होता है और इसलिये वह अष्टमस्त्रीकारका पद्य मालूम नहीं होता । लेखक ।
[ वर्ष १०
अष्टमहत्रीको कुमारसेनकी उक्तियोंसे वर्धमानार्थ बतलाया है अर्थात् कुमारमेन नामके पूर्ववर्ती विद्वानाचार्य के सम्भवतः आप्तमीमांसापर लिखे गये किसी महत्वपूर्ण विवरण अष्टसहस्रके अर्थको प्रवृद्ध किया प्रगट किया है । विद्यानन्दके इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि वे कुमारसेनके उत्तरकालीन है । कुमासेनका समय सन् ७८३ के कुछ पूर्व माना जाता है, क्योंकि शकस० ७०५ ई०, सन ७८३ में अपने हरिवंशपुराणको बनानेवाले पुन्नाटसंघी द्वितीय जिनमेनने इनका स्मरण किया है । अतः विद्यानन्द ई० सन् ७५० (कुमारसंनके अनुमानित समय ) के बाद हुए है।
३. चूंकि विद्यानन्दमुपरिचित कुमारसेनका हरिवंशपुराणकार ( ई० ७८३) ने स्मरण किया है, किंतु आ० विद्यानन्दका उन्होंने स्मरण नहीं किया । इससे प्रतीत होता है कि उस समय कुमारसेन तो यशस्वी वृद्ध ग्रन्थकार रहे होंगे और उनका यश सर्वत्र फैल रहा होगा । परन्तु विद्यानन्द उस समय बाल होंगे तथा वे ग्रन्थकार नहीं बन सके होंगे। अत इसमे भी विद्यानन्दका उपर्युक्त निर्धारित समय - ई० मन ७७५ मे ई० मन ८४०प्रमाणित होता है ।
४. श्र० विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकक अन्तमें प्रशस्तिरूपमें एक उल्लेखनीय निम्न पथ दिया है:
'जीयात्सज्जनताऽऽश्रयः शिव-सुधाधागवधान-प्रभु, ध्वस्त-ध्वान्त-ततिः समुन्नतगतिस्तोत्र - प्रतापान्वितः । प्रोजज्योतिरिवावगाहनकृतानन्त स्थितिर्मानतः, मन्मार्गस्त्रियात्मकोऽखिल मल-प्रज्वालन- प्रक्षम. ॥'
१ न्यायकुमुद प्र० प्र० पृ० ११३ । २ 'अकूपार' यशां लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्वलम् । गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम् ॥'
- हरिवंश १-३८ । ३ 'गरोः कुमारमेनस्य यशो अजिनात्मक विचरनि' शब्दों भी यही प्रतीत होता है ।
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किरण ३]
आ० विद्यानन्दके समयपर नवीन प्रकाश
इस प्रशस्ति-पद्यमें विद्यानन्दने 'शिवमार्ग मोक्ष वित:' आदि पदप्रयोगोंसे स्पष्ट ज्ञान होता है कि मार्गका जयकार तो किया ही है किन्तु जान पड़ता वहाँ ग्रन्थकारको अपने समयके राजाका उल्लेख है उन्होंने अपने समयके गङ्गनरेश शिवमार द्वितीय करना अभीष्ट है और इसलिये 'शिवप्रभु', शिवका भी जयकार एवं यशोगान किया है। शिवमार मारप्रभु' एक ही बात है। द्वितीय पश्चिमी गङ्गवंशी श्रीपरुप नरेशका डफ सा० ने विद्यानन्दका समय ई० सन ८१० उत्तराधिकारी और उसका पुत्र था, जो ई. सन ८१० बतलाया है। सम्भव है उन्होंने श्लोकवार्तिकके के लगभग राज्याधिकारी हुश्रा था। इसने श्रवण- इस प्रशस्तिपदा परसे हो, जिसमें शिवमारका वलगोलकी छोटी पहाड़ीपर एक वमदि बनवाई उल्लेख सम्भाव्य है, विद्यानन्दका उक्त समय बतथी, जिसका नाम "शिवमारनबमदि' था। चन्द्रनाथ- लाया है। क्योंकि गंगवंशी शिवमार नरेशका समय स्वामी वर्मादके निकट एक चट्टानपर कनडीमें मात्र ई०८१० के लगभग माना जाता है जैसा कि पहले इतना लेख अङ्कित है-"शिवमारनवसदि"। इस कहा जाचुका है। अभिलेखका ममय भाषा-लिपिविज्ञानकी दृष्टिस इस शिवमारका भतीजा और विजयादित्यका लगभग ८१० इ० माना जाता है २ । राइस सा० लड़का राचमल्न सत्यवाक्य प्रथम शिवमारक का कथन है कि इम नरेशने कुम्मडवाडमे भी एक राज्यका उत्तराधिकारी हुआ था तथा ई० मन् ८१६ वाद निर्माण कराई थी। इससे ज्ञात होता है कि के आस-पास राजगद्दापर बैठा था। विद्यानन्दने शिवमार द्वितीय अपने पिता श्रीपुरुपकी तरह अपने उत्तरग्रन्थोंम 'सत्यवाक्य' के नामसे इसका ही जैनधर्मका उत्कट समथ क एवं प्रभावक था। भी उल्लेख किया प्रतीत होता है । यथाअतः अधिक सम्भव है कि विद्यानन्दने अपने
(क) स्थेयाज्जातजयध्वजाप्रतिनिधिः प्रोद्भूतभूरिप्रभुः, श्लोकवार्तिककी रचना इमी शिवमार द्वितीय गङ्ग
प्रध्वस्ताग्विल-दुर्नय-द्विषदिभः सनीति-सामर्थ्यतः । नरेशक राज्यकालमे की होगी और इसलिये उन्होंने
सन्मार्गस्त्रिविधः कुमार्गमथनाऽहन् वीरनाथः श्रिये, अपने समयके इम राजाका 'शिव-सुधाधाराव
शश्व संस्तुतिगोचरोऽनघधियां श्रीमत्यवाक्याधिपः॥ धान-प्रभुः' शब्दोंद्वारा उल्लेख किया है तथा 'मजनताऽऽश्रय.', 'तीव्र-प्रतापान्वितः' आदि पदों द्वारा उसके गणोंका वर्णन किया है। उक्त पद्य (ख) प्रोक्र युक्त्यनुशासनं विजयिभिः स्याद्वादमार्गानुगअन्तिम प्रशस्तिरूप है, इमलिये उसमें ग्रन्थकारद्वारा
विद्यानन्दबुधैरलकृतमिदं श्रीमत्यवाक्याधिपः॥ अपना समय सूचित करनेके लिये तत्कालीन राजाका
-युक्त्यनुशासनालङ्कार प्रशस्ति । नाम देना उचित ही है। यद्यपि उक्त पदामे 'शिव
१ देखो, जैनसि. भा० वर्ष ३, किरण ३ गत बा. मार' राजाका पूरा नाम नहीं है-केवल 'शिव' पदका ही प्रयोग है तथापि नामैकदेश ग्रहणसे भी
कामनाप्रसादजीका लेख । पूरे नामका ग्रहण कर लिया जाता है. जैसे पावसे
२ गंगवंशमें होनेवाले कुछ राजाओंकी 'मत्यवाक्य पाश्वनाथ, रामसे रामचन्द्र आदि। दसरे, शिव, उपाधि थी। इस उपाधिको धारण करनेवाले चार राजा के आगे 'प्रभु' पद भी दिया गया है, जो राजाका हुए हैं--प्रथम सत्यवाक्य ई० सन् ८१५ के बाद, द्वितीय भी प्रकारान्तरसे बोधक है। तीसरे, 'तीव्रप्रतापा
पत्यवाक्य ई. ८७० से १०७, तृतीय सत्यवाक्य ई० १२०
और चौथे सत्यवाक्य ई. १७७ । यह मुझे बा० ज्योतिदेखो, शि. नं० २५६ (१५)। २ मेडिवल प्रसादजी, एम. ए. एल एल. बी. ने बतलाया है जिसके जैनिज्म पृ. २४-२५॥ ३ देखा, मैसूर और कर्ग पु० लिये मैं उनका आभारी हूँ।
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६६
अनेकान्त
[वर्ष १०
(ग) जयन्ति निर्जिताशेषसर्वथैकान्तनीतयः । पार्श्वनाथकी अतिशयपूर्ण प्रतिमा अधर रहती थी सत्यवाक्याधिपाः शश्वविद्यानन्दा जिनेश्वराः ॥ और जिसे लक्ष्य करके ही विद्यानन्दने श्रीपुरपाव
-प्रमाणपरीक्षा मङ्गलपद्य । नाथस्तोत्र रचा था। श्रीपुरुपका राज्य-समय ई० सन् (घ) विद्यानन्दैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं
७२६ से ई० मन ७७६ तक बतलाया जाता है। सत्यवाक्याथसिद्धय ।-आप्तपरी० श्लो. १२३ । विद्यानन्दने अपनी रचनाओं में श्रीपुरुषराजा (शिवविद्यानन्दके प्रमाणपरीक्षा और युक्त्यनुशासना- मारके पिता एवं पूर्वाधिकारी) का उत्तरवर्ती गजाओं लङ्कारके प्रशस्ति-उल्लेखोंपरसे बा० कामताप्रसादजी (शिवमार द्वि०, उसके उत्तराधिकारी राचमल्ल सत्यभी यही लिखते है । इससे मालूम होता वाक्य प्रथम और इसके पिता विजयादित्य) की है कि विद्यानन्द गङ्ग-नरेश शिवमार द्वितीय तरह कोई उल्लेख नहीं किया। इससे यह महत्व(ई०८१० ) और राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम पर्ण बात प्रकट होती है कि श्रीपुरुपके राज्य-काल (ई०८१६ ) के समकालीन हैं और उन्होंने अपनी (ई०७२६-ई ७७६) मे विद्यानन्द ग्रन्थकार नहीं कृतियाँ प्रायः इन्हीं के राज्य-समयमें बनाई है।
बन सके होंग और यदि यह भी कहा जाय कि व विद्यानन्दमहादय और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक तो
उस समय कुमारावस्थाको भी प्राप्त नहीं हो सके शिवमार द्वितीयके और आप्तपरीक्षा, प्रमाण- होंगे तो कोई आश्चय नहीं है। अतः इन सब परीक्षा तथा युक्त्यनुशासनालंकृति य तीन कृतियाँ प्रमाणोंसे आचाय विद्यानन्दका समय ई० सन राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम (इ०८१६-८३०) के ७५ से ई० सन् ८४ निीत होता है। राज्य-कालमें बनी जान पड़ती है। अष्टसहस्री, जो यहाँ यह शभा की जासकती है कि जिस प्रकार श्लोकवार्तिकक बादकी और आप्तपरीक्षा आदिक हरिवंशपराणकार जिनमन द्वितीय ई०७३, न पूर्वकी रचना है, करीब ई० ८१०८१५ में रची गई अपने समकालीन वीरसेनम्वामी (ई०८१६) ओर प्रतीत होती है। तथा पत्रपरीक्षा, श्रीपुरपाश्वनाथ- जिनसनस्वामी प्रथम (ई०८३७) का स्मरण किया स्तोत्र और सत्यशासनपरीक्षा ये तीन रचनाएँ इ० है उसी प्रकार इन आचार्योन अपने समकालीन सन् ८३०-८४० में रची ज्ञात होती है। इससे भी आचार्य विद्यानन्द (ई० ७७५-८४०) का स्मरण अथश्रा० विद्यानन्दका समय पूर्वोक्त ई० सन ७७५ से वा उनके ग्रन्थवाक्योंका उल्लेख क्यों नहीं किया ? ई. सन् ८४० प्रमाणित होता है।
इसका उत्तर यह है इन प्राचार्योकी वृद्धावस्थाक यहाँ एक खास बात और ध्यान दने योग्य है। समय ही प्रा० विद्यानन्दका ग्रन्थ-रचनाकाय वह यह कि शिवमारके पूर्वाधिकारी पश्चिमी गङ्ग- प्रारम्भ हुआ है और इसलिये विद्यानन्द उनके वंशी राजा श्रीपुरुषका शक सं० ६६८, ई० सन द्वारा स्मृत नहीं हए और न उनके ग्रन्थवाक्योंक ७७६ का लिखा हुआ एक दानपत्र मिला है जिसमे उन्होंने उल्लेख किये है। इसके अतिरिक्त एक दूसरे उसके द्वारा श्रीपरके जैन मन्दिरके लिये दान दिये की कायप्रवृत्तिस अपरिचित रहना अथवा ग्रन्थजानेका उल्लेख है । यह श्रीपुरका जैनमन्दिर काररूपस प्रसिद्ध न होना भी अनुल्लेखमें कारण सम्भवतः वही प्रसिद्ध जैनमन्दिर है जहाँ भगवान सम्भव है। अस्तु ।
, देखो, जैनसिद्धान्तभास्कर भाग ३, किरण ३। २. देखो, Guerinot no 131 अथवा जैनसि. भा. मा० ४, कि० ३ पृ० ११८ का नं० का उद्धरण ।
१ देखो, श्रीज्योतिप्रसाद जैन एम. ए. का लेख-Jain Antiouary. Vol.X. II. N. 1. जुलाई १६४६ ।
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प्रहार-क्षेत्रके मानि मातलेख ( संग्राहक-पं० गोविन्ददास जैन न्यायतीर्थ, शास्त्री)
[गताङ्क से आगे]
(न०६६)
(न०७२) मूर्ति यद्यपि देशी पाषाणकी है तो भी मनोज्ञ मूर्तिका शिर नहीं है । सिर्फ संवत् पढ़ा गया। है। लेख कुछ घिस गया है। करीब १ फुट ऊंची बाकी हिस्सा घिस गया है । करीब १।। फुट ऊंची खड्गासन है । चिन्ह हिरणका है ।
पद्मासन देशी पाषाणकी है। लेख-देउवालान्वये रयन प्रणमन्ति सं० ११२३ लेख-संवत् १२१२
भावार्थ-देउवाल वंशमें पैदा होनेवाले (शाह) नोट- यह मूर्ति संबत् १२१२ में प्रतिष्ठित हुई है। रयनने संवत् ११२३ में प्रतिष्ठा कराई।
(न०७३) नोट-उपलब्ध मूर्तिलेखोंमें यह सबसे प्राचीन
और आसनके सिवाय कुछ लेख है।
नहीं है। चिन्ह कछुवाका प्रतीत होता है। करीब ३ (न०७०)
फुट ऊंची खड्गासन है। पाषाण काला है। मृति के कई उपांग खंडित हो चुके हैं । चिन्ह लेख-संवत् १२५ भहारकबीमाणित्यदेवगुण्यसिंहका है । पाषाण देशी है। करीब शा फुट ऊंची देवो नित्यं प्रणमन्तः। खड़गासन है।
भावार्थः-भट्टारक माणिक्यदेव तथा गुण्यदेव लेख-खंडिल्लवालान्वये साहु बालचन्द्र भार्या सावित्री इन्होंने संबत् १२१३ में मूर्तिकी प्रतिष्ठा कराई। मवी-वील्हा प्रणमन्ति ।
(न०७४) भावार्थ-खंडेलवाल वंशमें पैदा होनेवाले शाह . मतिका धड़ वगैरह कुछ नहीं है। सिर्फ प्रासन बालचन्द्र उनकी पत्नी सावित्री-मवी-बील्हाने और कुछ हिस्से हाथ पैरोंके हैं । चिन्ह कमलका है। बिम्बप्रतिष्ठा कराई।
करीब ना फुट उंची पद्मामन है। पाषाण काला है। (न०७१)
पालिश चमकदार है। मृर्तिके आसन और कुछ हाथोंके अतिरिक्त कुछ।
लेख-संवत् १२०३ आषाद सुदी २ सोमे उन्नामे नहीं है। चिन्ह कछुवाका है। कुछ लेख टूट गया साहुसेल्ह भायों सहना तस्य पुत्र उदय तस्य पाहणहै। करीव २ फूट उंची पद्मासन है। पाषाण काला राल्हण नायक प्रणामम्ति ।
भावार्थ:-शाह सेल्ह उनकी धर्मपत्नी सहना लेख-संवत् ११९६ चैत्र सुदी १५ गर्गराटान्वये उसके पुत्र उदय उमके पाल्हण राल्हण नायकने
वाघ मुत माहु लाल माहुणीनाथ तस्य सुत साहु १२०३ के श्रापाड़ मदी२ सोमवार उत्तरा नक्षत्र में भाल्हण ।
बिम्बप्रतिष्ठा कराई। ___ भावार्थ-गर्गराट वशमें पैदा होनेवाले शाह
(न०७५) वाघ उनके पुत्र शाह लाल-साहुणीनाथ उसके पुत्र मूर्तिका आमन और कुछ हिस्सा हाथ-पैरोंका शाह अल्हणने संवत् ११६६ के चैत्र सुदी १३ को उपलब्ध है । लेख बीच २ में छिल गया है। अतः बिम्बप्रतिष्ठा कराई।
कछ भाग पढ़ा नहीं जामका । २। फुट ऊंची पद्मा.
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अनेकान्त
[वर्ष १०
सन है । पाषाण काला है।
' दूसरी देवीको मूर्ति है । दोनों तरफ दो देवी बैठी लेख-संवत् १२०............साहु श्रीहरिषेण भार्या हैं। कुछ ऊंचे हिस्सेपर दोनों तरफ पैरोंके निशाने रुद्री सुतसोमदेव मालह-साहु-णिसारमा--प्रणमन्ति हैं, जो उसके ऊपर निर्मित मूर्ति के सूचक हैं। जो नित्यम् ।
संभवतः पार्श्वनाथकी होगी और जो अब खंडित भावार्थ:-संवत् १२०० में शाह श्रीहरिषेण हो चुकी है। यह करीब २॥ फुट ऊंची खगासन है। उनकी पत्नी रुद्री उसके पुत्र सोमदेव-माल्ह शाह लेख-अवधपुरान्वये साहु हुसल-भार्यागाणिसारमाने बिम्ब प्रतिष्ठित कराई । गोत्रकी जगह .
__गी एते नित्यं प्रणमन्ति । सम्बत् १२१६ अपार बदी ८ 'महेशणऊ अन्वये' पढ़ा गया है।
सोमे । (न०७६) ।
भावार्थः-अवधपुरिया वंशमें पैदा होनेवाले , मूर्तिका शिर नहीं है । दाँया हाथ कुहिनिके ,
शाहु हसल..."उनकी पत्नी गांगी ने सम्बत् ऊपरसे टूट गया है। करीब २फुट ऊंची पद्मासन १२१६ के अषाड वदी - सोमके दिन बिम्ब प्रतिष्ठा है। पाषाण काला और पालिश चमकदार है ।
कराई। चिन्ह बैलका है।
(नं० ७) लेख-संवत् १२३७ मार्गशिर सुदी ३ शुक्र अवधपु
___ मूर्तिका पैरोंके ऊपरका हिस्सा टूट गया है। यह रान्धये साहु ताहाल साहु सीले-उल्हेसाहु जाल्ल-शिवराज कीत् बाल्हे सर्वश्रेष्ठीप्रसादं भवतु-प्रणमन्ति ।
देशी पाषाणकी बनी हुई है । पाषाण कुछ मटमैला . भावार्थः-अवधपुरियावंशमें पैदा होनेवाले हैं। श्रासनसे कुछ उपर पैरोंके चिन्ह हैं। जो अन्य
है। चिन्ह बन्दरका है। दोनों तरफ दो देवियाँ बैठी शाह ताहहल शाह सीले- उल्हेशाह जाल्लू-शिव- मर्तियोंके सचक हैं। मर्ति खड्गासन है। गज-कीत- बाल्हेने संवत् १२३७ के अगहन सदी
लेख-साह भीमदेव भार्या श्रीचन्द्रवती। सम्बत् ३ शुक्रवारको प्रतिष्ठा कराई । सब सेठोंको प्रसाद (प्रसन्नता) होवे।
१२३० मार्गसिर सुदी ३ शुक्र । । नोट-प्रतीत होता है कि इसकी कई श्रेष्टिवरोंने भावार्थ-सम्बत् १२३७ के अगहन सुदी ३ शुक्रमिलकर प्रतिष्ठा कराई है।
वारको शाह भीमदेव उनकी पत्नी चन्द्रवतीने बिम्ब (नं०७७ )
प्रतिष्ठा कराई। __मूर्तिका ऊपरी धड़ नहीं है । दाँया घुटना तथा
(न०८०) दोनों हथेलियाँ टूट गई हैं। करोब फुट ऊंची यह मत्ति किसी देवीकी मालूम होती है। अनमापद्मासन है। चिन्ह कमलका है। पालिश चिकनी है। नतः पद्मावतीदेवी होना चाहिये । पाषाण देशी है।
लेख-संवत् १२१३ पण्डितश्री मंहवर्म-आर्थि- पालिश मटियाले रंगका है। पैरोंके ऊपरका हिस्सा का श्रीमतीशिवणी-प्रणमन्ति।
मय धड़के नहीं है । करीब १२॥ फुट खगाभावार्थ-पण्डित श्रीमह-वर्म-प्रायिका श्री सन होगी। मती शिवणीने संवत् १२१३ में बिम्ब प्रतिष्ठा . लेख-गोलापूर्वान्वये साहु महिपति पुत्री हम्मा
प्रणमन्तः । १२१८। (नं०७८)
भावार्थ-गोलापर्व वंशमें पैदा होनेवाले शाह यह मति देशी पाषाणकी है । आभूषणों आदि महीपति तथा उनकी पुत्री हम्माने सं० १२१८ में यह मे मालूम होता है कि यह पद्मावती या किसी प्रतिष्ठा कराई।
कराई।
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किरण ३ ]
श्रहारक्षेत्र के प्राचीन मूर्तिलेख
( नं० ८१ )
यह मूर्त्ति देशी पाषाणकी बनी है। चिन्ह सिंह का है । करीब १|| फुट पद्मासन है । पालिश कुछ मटिया रंगका है।
लेख- सम्वत् १२१३ अषाद सुदी २ साहु रामचन्द्र भार्या पल्हा -- प्रणमन्ति ।
भावार्थ—–सं० १२१३ के अषाढ़ सुदी २ को शाह रामचन्द्र तथा उनकी पत्नी पल्हाने बिम्बप्रतिष्ठा कराई ।
( नं० ८२ )
मूर्ति करीब १० इचके लगभग खगासन होगी । पाषाण देशी है । पालिश वगैरह नहीं है । चिन्ह कोई नहीं है। पत्थर कुछ लाल है ।
लेख – सम्वत् १२३७ मार्ग सुदी २ सुक्रे शाहु........ प्रणमन्ति नित्यम् ।
भावार्थ - यह मूर्त्ति सं० १२३७ के अगहनमुदी २ को प्रतिष्ठित हुई ।
नोट - मूर्तिके प्रतिष्ठापकका नाम नहीं पढ़ा
जा सका ।
( नं० ८३ )
मूर्त्तिकशिर नहीं है । घड़ भी नहीं है । करीब २ फुट ऊंची पद्मासन है । चिन्ह बैलका है । पाषाण काला तथा चमकदार है ।
६६
नित्यम् ।
भावार्थ - सम्वत् १२०७ के माघवदी ८ को प्रतिष्ठित हुई ।
भावार्थ — गृहपति वंशमें पैदा होनेवाले शाह कुलधर उनके पुत्र .....
ने सम्वत् १२१० के वैशाख सुदी १३ को इस प्रतिबिम्बकी प्रतिष्ठा कराई ।
( नं० ८४ )
लेखमें सिर्फ सम्वत् पढ़ा जासका । बाकी हिस्सा टूट मूर्तिका सिर्फ आसनका टुकड़ा उपलब्ध है । गया है । पाषाण काला है ।
लेख - सम्वत् १२२५
भावार्थ - इस मूर्तिकी प्रतिष्ठा सम्बत् १२२५ में हुई ।
( नं० ८६ )
मूर्त्तिका शिर नहीं है। तथा धड़का दायां भाग नहीं है। अतः लेख आधा ही मिल पाया । करीब २ फुट ऊँची पद्मासन है । पाषाण काला तथा पालिश चमकदार है । चिन्ह बैलका है ।
लेख - सम्वत् १२०६ वैशाखसुदी १३
पंडित विक्रमशिष्येन ठक्कुरददेसुतेन पद्मसिंहेब पुण्याय कारापितेयम् ।
भावार्थ- पडित विक्रमके शिष्य ठक्कुर ददे उनके पुत्र पद्मसिंहने संवत् १२०६ के वैशाख सुदी १३ को प्रतिष्ठा कराई ।
( नं० ८७)
लेख - १२०७ माघ वदी म साहु - प्रणमन्ति मूत्तिका सिर नहीं है। आसन विशाल । करीब ३ फुट ऊंची पद्मासन है । पाषाण काला है। पालिश चमकदार है । चिन्ह नहीं है ।
लेख – सं० १२०७ माघवदी ८ बाणपुरे गृहपत्यन्वये नोट- प्रतिष्ठापकका नाम वंश वगैरह घिस कोच्छल गोत्रे साहुरुद्र - तत्सुताः पाणि मोल्लाया- तथा गया है । अतः पढ़ा नहीं गया ।
साहु मावली मले पुत्र हरिषेण किये तत्पु कारापितेयं नित्यं प्रणमन्ति ।
( नं० ८४ ) सिर्फ एक
छोड़कर बाकी हिस्सा नहीं है। करीब ३ फुट ऊँची पद्मासन है । पाषाण काला है। पालिश चमकदार है।
भावार्थ - वानपुर में गृहपति वंशमें पैदा होने वाले कोच्छल गोत्र में शाह रुद्र उनके पुत्र पाझिण मोल्लया और शाह माहवली रैमले पुत्र हरिषेण
लेख---सम्वत् १२१० वैशाख सुदी १३ गृहपत्यन्वये उनके पुत्र झिणेने इस प्रतिबिम्बकी १२०७ के साहुकुलधर सुत.....
माघदीको प्रतिष्ठा कराई ।
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अनेकान्त
[वर्ष १०
(०८)
श्री मूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे अन्दकुन्दाम्नाये मूर्तिका तमाम हिस्सा टूट गया है । सिर्फ कुछ भाग श्रीजिनप्रतिमा प्रतिष्ठितेयं । गोलापूर्वशे पदेले सिंघई बचा है । उसीसे कुछ लेख लिया गया है। मतिकी बाजुराय तस्य पुत्र दोय चन्द्रभान-सायकरायन नित्य अवगाहना करीब शा फुट रही होगी। पद्मासन है। प्रणमन्ति। काला पाषाण है। पालिश चमकदार है।
भावार्थ:-सम्बत् १८६१ के वैशाख सदी पंचमी लेख-सं० १२१३ सिद्धान्तीदेवस्वी सा .. सोमवारको श्रीमूलसंघ-बलात्कारगणमें सरस्वती
भावार्थ-मूर्तिके प्रतिष्ठापक सिद्धान्तीदेव- गच्छमें श्रीकुन्दकुन्दाम्नायमें यह श्रीप्रतिमा प्रतिश्री हैं। इन्होंने सं० १२१३ में बिम्ब प्रतिष्ठा कराई। ष्ठित हुई। (नं०८६)
गोलापूर्व वंशमें पैदा होनेवाले पड़ेले सिघई ___यह लेख वेदिकासे लिया गया है । वेदिका देशो बाजुराय उनके पुत्र दो-चन्द्रभान-सायकरायन प्रतिपाषाणकी बनाई गई है, जो कुछ पीला रुख लिये दिन प्रणाम करते हैं। है। इसकी तीन कटनी है। हरएक कटनीमें कंगूरेदार
।०६१) काम है। ऊपरी हिस्सेमें जलधारका जल बाहर जाने के लिये टोंटी है। अनुमानतः अभिषेकके लिये ही
यह मूर्ति सर्वाङ्ग सन्दर है। पीतलकी बनाई वेदी बनाई गई थी।
गई है। करीब ६ इन्च ऊँची पद्मासन है । चिन्ह
सर्पका है। (नीचे) लेख-सं० १२१३ भाषासुदी २ मोमदिन गृहपत्यन्वये कोल्लगोने बाणपुरवास्तव्य तद मुतमाहवा
लेख-सम्बत् १८८१ शभवृषे नाम फाल्गुनसुदी पुत्र हरिषेण उदइ-जलविदू प्रणमन्ति नित्यम् ।
३मोमवासरे ग्राम प्रहामरमेंथे सकल पंचान प्रणमन्ति । (उपर) लेख-हरषेण पुत्र हादव पुत्र महीपाल गंसव.
व भावार्थ-प्राम बहारवासी भकलपंचोंने संबत् सवचन्द्रवाहदेव माहिश्चन्द महदेव एते प्रणन्ति १८८१ के फागुन मुदी ३ सोमवारको बिम्ब प्रतिष्ठा नित्यम् ।
कराई। ___ भावार्थ:-गृहपतिबंशके काछल गोत्रमें पेदा
(नं०६२) होनेवाले वाणपुरनिवासी शाह तद उनके पुत्र
___यह प्रतिमा पीतलकी बनी है। सर्वांगसुन्दर है। माहवा उनके पुत्र माले उनके पुत्र हरिषेण-उदइ
करीब २ इंच उंची पद्माशन है । चिन्ह सका है। जलग्लू-विअइने मंवत १२१३ के अपाडसदी २ लेख-संवत् १६६३ म १ महसह । सोमवारको प्रतिष्ठा कराई।
भावर्थः-यह प्रतिमा संवन १६६३ में प्रतिष्ठित (ऊपरी भागमें) हरिषेण उनके पुत्र हाडदेव उनके पत्र महीपाल
(नं०६३) गांसव-सबचन्द्र-लाहदेव-महिचन्द्र-सहदेव ये प्रणाम
यह प्रतिमा माग सुन्दर है । पीतल को 'नी करते हैं।
हुई है। करीब ३ इञ्च पद्मासन होगी। चिन्ह मर्प(नं. १०) यह मूर्ति पीनलकी बनी हुई है। करीब ६ इंच लेख-संवत् १७२५ वर्षे अगहन बदी .......। पद्मासन होगी। चिन्हकी जगह कुछ नहीं।
भावार्थ:-सं १७२५ के अगहन वदी ५ को देख-संवत १८६१ पैशाख शुक्लपंचम्यां सोमवामरे बिम्ब प्रतिष्ठा हुई।-(भगले अमें ममाप्त)
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ग्वालियरके किले का इतिहास और जैन पुरातत्व
(ले० परमानन्द जैन, शास्त्री)
किलेका इतिहास
वादामन् नामके राजाने-जिसका राज्यशासन
१००७ से १८३७ तक रहा है, वह जैनधमका श्रद्धालु जन साहित्यमें वर्तमान ग्वालियरका था उसने संवत् १०३४ में एक जैनमृत्तिकी प्रतिष्ठा "उल्लेख गोपायलु, गोपाद्रि, गोपगिरि,
भी करवाई थी। उस मतिकी पीठपर जो लेख' गोपाचलगोपायल और गोयलगढ़ आदि नामोंसे अंकित योगी
___ अंकित है उसमे उसकी जैनधर्म में आस्था होने किया गया है। ग्वालियरकी इस प्रसिद्धिका कारण
का प्रमाण स्पष्ट है। इस वंशके अन्य राजाओंने जहां उसका पुरातन दुग (किला) है वहां भारतीय
जैन धर्मके संरक्षण प्रचार एवं प्रसार करनेमे क्या (हिन्दु, बौद्ध और जैनियोंके ) पुरातत्त्वकी प्राचीन कुछ सहयोग दिया यह बात अवश्य विचारणीय है एवं विपल सामग्रीकी उपलब्धि भी है। भारतीय
और अन्वेषणीय है, कन्नौजके प्रतिहारवंशी राजा इतिहासमे ग्वालियरका स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण
से ग्वालियरको ज.तकर उसपर अपना अधिकार है, वहाँपर प्राचीन अवशेषोंकी कमी नहीं है, उसके
कर लिया था। इस वंशके मंगलराज, कीर्तिराज, प्रसिद्ध सबों और किलोंमें इतिहासकी महत्वपूर्ण
भुवनपाल, देवपाल, पद्मपाल, सूर्यषाल, महीपाल, मामग्री उपलब्ध होती है । ग्वालियरका यह किला
भुवनपाल और मधुसूदनादि अन्य राजाओंने ग्वापहाड़की एक चट्टानपर स्थित है। यह पहाड़ डेढ़
लियरपर लगभग दो-सौ वर्षतक अपना शासन मील लम्बा और ३०० गज चौड़ा है। इसके ऊपर
किया है किन्तु बादमें पुनः प्रतिहारवशकी द्वितीय बलुआ पत्थरकी चट्टानें है उनकी नुकीली चोटियाँ
शाखाके राजाओंका उसपर अधिकार हो गया था; निकली हुई है जिनसे किलेकी प्राकृतिक दीवार बन
परन्तु वि० संवत् १२४६ में दिल्लीके शासक अल्तगई है। कहा जाता है कि इसे सूरजसेन नामके
मसने ग्वालियर पर घेरा डालकर दर्गका विनाश राजाने बनवाया था, वहां 'ग्वालिय' नामका एक
किया, उम समय राजपूतोंकी शक्ति कुछ क्षीण हो माधु रहता था, जिसने राजा सूरजमेनके कुष्ठ रोगको
चुकी थी, घोर संग्राम हुआ और राजपूतोंने अपने दर किया था। अतः उमको स्मृतिमें ही ग्वालियर
शौयका पूरा परिचय भी दिया; परन्त मुट्ठीभर राजनाम प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ है । पर इममे कोई मन्दह
पूत उस विशाल सेनासे कब तक लोहा लेते, श्रानहीं कि ग्वालियरके इस किलेका अस्तित्व विक्रम
खिर राजपूतोंने अपनी प्रानकी रक्षाके हित युद्ध में की छठी शताब्दीमें था, क्योंकि ग्वालियर की पहाडीपर स्थित 'मात्रिचेता' द्वारा निर्मापित सूर्यमन्दिर
मरजाना ही श्रेष्ठ समझा, और राजपूतनियोंने 'जौहर' के शिलालेखमें उक्त दुगका उल्लख पाया जाता है।
द्वारा अपने सतीत्वका परिचय दिया-वे अग्नि
की विशाल ज्वालामें जलकर भस्म हो गई-और दमरे, किले में स्थित चतुभुजमन्दिरके वि० संवत
राजपूत अपनी वीरताका परिचय देते हुए वीरगति६३२-३३ के दो शिलावाक्यों में भी उक्त दुर्गका उल्लेख
को प्राप्त हुए और किलेपर अल्तममका अधिकार पाया जाता है । हाँ, शिलालेखोंसे इस बातका पता जरूर चलता है कि उत्तरभारतके प्रतिहार राजा
हो गया। मिहिरभोजने जीतकर इसे अपने राज्य कनौज में
संवत् १०३४ श्रीवनदाममहाराजाधिराज वा. शामिल कर लिया था और उसे विक्रमकी १५वीं साख बदि पाचमि । । देखो, जनरल एशियाटिकमोमाशताब्दीके प्रारंभमें कन्छपघट या कछवाहा शके इंटी अाफवगाल पृ० ४१०-११॥
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१०२
अनेकान्त
सन् १३६८ ( वि० सं० १४५५ ) में तैमूरलंगने भारतपर जब श्राक्रमरण किया. तब अवसर पाकर तोमरवंशी वारसिंह नामके एक सरदारने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया और वह उक्त वंशके आधीन सन् १५३६ ( वि० संवत् १५६३ ) तक रहा। इसके बाद उक्त दुर्गपर इब्राहीम लोदीका अधिकार हो गया। मुमलमानोंने अपने शासनकालमें उक्त किलेको कैदखाना ही बनाकर रक्खा । पश्चात दुर्गपर मुगलोंका अधिकार हो गया. जब बाबर उस दुगको देखने के लिये गया, तब उसने उरवाही द्वारके दोनों ओर चट्टानोंपर उत्कीर्णे हुई उन नग्न दिगम्बर जैन मृतियोंके विनाश करनेकी आज्ञा दे दी । यह उसका कार्य कितना नृशंस एवं घृणापूर्ण था. इसे बतलानेकी आवश्यकता नहीं ।
·
सन् १८१५ में दुगेपर मराठोंका अधिकार हो गया, तबसे अबतक वहां पर उन्हींका शासन चल रहा है।
जैन मन्दिर और मूर्तियां
यह किला कलाकी दृष्टिसे बहुत ही महत्वपूर्ण है। किले में कई जगह जैन मूर्तियां खुदी हुई हैं । इस किले में शहर के लिये एक सड़क जानी है, इम सड़क के किनारे दोनों ओर विशाल चट्टानोंपर उत्कीर्ण हुई कुछ जैन मूर्तियां श्रत हैं। ये सब मूर्तियां पाषाणों का कर्कश चट्टानोंको खोदकर बनाई गई हैं। किले में हाथी दरवाजा और सासबहूके मन्दिरोंके मध्य में एक जैन मन्दिर है जिसे मुगलशासनकाल में एक मस्जिद के रूपमें बदल दिया गया था। खुदाई करनेपर नीचेको एक कमरा मिला है जिसमें कई नग्न जैन मूर्तियां हैं और एक लेख भी सन् ११०८ ( वि० सं० ११६५ ) का है । ये मूर्तियां कायोत्सर्ग तथा पद्मासन दोनों प्रकारकी है। उत्तरकी वेदीमे सात फऱण सहित भगवान श्री पार्श्वनाथकी सुन्दर पद्मासन मूर्ति है । दक्षिणकी भीतर भी पांच वेदियां है जिनमेंसे दोके
[ वर्षे १०
4
स्थान रिक्त हैं, जान पड़ता है कि उनकी मूर्तियां विनष्ट करदी गई है। उत्तरकी वेदीमें दो नग्न कायोमग मूर्तियाँ अभी भी मौजूद है । और मध्यम ६ फुट आठ इंच लम्बा आसन एक जैन मूर्तिका है. दक्षिणी वेदीपर भी दो पद्मासन नग्न मूतियां है।
किलेकी उर्वाहीद्वारकी मूर्तियों में भगवानआदिनाथ की मूर्ति सबसे विशाल है, उसके पैरोंकी लम्बाई नौ फुट है और इस तरह पैरोंमें तीन चार गुणी ऊंची है। मूर्तिकी कुल ऊंचाई ५७ फीटसे कम नहीं है । श्वेताम्बरीय विद्वान मुनि शीलविजय और सौभाग्यविजयने अपनी अपनो तीर्थमाला मं इस मूर्तिका प्रमाण बावन गज बतलाया है " । जो किसी तरह भी सम्भव नहीं है । और बाबरने अपने आत्म-चरितमें इस मूर्ति को करीब ४० फीट ऊंचा लिखा है जो ठीक नहीं है। साथ ही, आत्मचरितमें उन मूर्तियांक खंडित करानेका आदेश भी निहित है । यद्यपि अधिकांश मूर्तियां खंडित करा दी गई है, और कुछ मूर्तियोंकी बादमे सरकारकी ओरसे मरम्मत भी करा दी गई है, फिर भी उनमें की अधिकांश मूर्तियां अखंडित मौजूद है । किले से निकलते ही उरवाही द्वारकी भगवान आदिनाथकी उस विशाल मूर्तिका दर्शन करके दर्शकका चित्त इतना आकृष्ट हो जाता है कि वह कुछ समय के लिये सब कुछ भूल जाता है और उस मूर्तिकी ओर एकटक निनिमेष देखते हुए भी तबिय त नहीं हटती । सचमुच में यह मृनि बहुत दी सुन्दर, कलात्मक और शान्तिका पुंज है। इसके दर्शनसे ही परम शान्तिका स्रोत बहने लगता है । यद्यपि भारतमे श्रमणों (जैनियों) की इस प्रकारकी और
१ 'बावनगज प्रतिमा दीसती, गढग्वालेरि सत्रा सोभती' | - शीखविजय तोर्थमाला पृ० १११ ।
'गढ़ ग्वालेर बावनगज प्रतिमा बंदू ऋषभ रंग रोली जी" 'सोभाग्यविजय तीर्थमाला १४-२०१८ ।
२ देखो, बावरका आत्मचरित ।
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ग्वालियर के किले का इतिहास और जैन पुरातत्व
किरण ३]
T
कई प्राचीन मूर्तियां विद्यमान हैं जो भारतीयश्रमण संस्कृतिका प्रतिष्ठाको प्रतीक है और जो स्थापत्यकला की दृष्ट्रिले अनूठी एवं बेजोड़ है । उदाहरण के लिये श्रवणवल्गोलाकी बाहुबली स्वामोकी उस विशाल मतको ही ले लीजिये, वह कितनी आकर्षक, सुन्दर और मनमोहक है, इस बतलाने की आवश्यकता नहीं। एक बार टाटा कम्पनीका प्रसिद्ध व्यापारी टाटा अपने कई अंग्रेज मित्रों के साथ दक्षिणकी उस मूर्तिका दखने के लिये
गया,
ज्यां हो वह उस मूर्तिक समोप पहुँचा और उसे देखने लगाता मूर्तको दखते ही समाधि अस्थ हो गया, और वह समाधिमें इतना तल्लीन हो गया कि मानों वह पाषाणकं रूपमें स्थित है, तब उनके साथी अङ्गरेज मित्राने टाटाको निश्चेष्ट खड़ा हुआ देखकर कहा कि मिस्टर ठाटा ! तुम्हें क्या होगया हैजा हम लोगां बात भ नही करतं, चलो अब वापिस चलें; परन्तु टाटा व्यापारी उस समय समाधिमें लीन था, मित्राकी बातका कौन जत्राब देता, जब उसकी समावि नहीं खुली तब उन्हें चिन्ता होने लगो; किन्तु आधा घन्टा व्यतीत होते ही समावि खुल गई और उसने यह भावना व्यक्त की कि मुझे किसी चीजकी आवश्यकता नहीं है; किन्तु मरते समय इस मूर्तिका दर्शन हो। इससे पाठक जैन मूर्तियांकी उपयोगिताका अन्दाज लगा सकते हैं। ये मूर्तियां कलात्मक, वैराग्योत्पादक और शान्तिकी है। इस प्रकारकी कलापूर्ण एवं प्रशान्त मूर्तियों का निर्माण करनेवाले शिल्पियों की अटूट साधना, अतुलित धैर्य और कलाकी चतुराईकी जितनी प्रशंसा की जाय वह थोड़ी है । इसी प्रकारको कलाकी अभिव्यजक मूर्तियां भगवान नेमिनाथ और भगवान महावीरकी हैं ।
बाबा वावडी और जैन मूर्तियां
ग्वालियर से लश्कर जाते समय बीचमें एक मील के फासलेपर 'बाबा वावड़ी' के नामसे प्रसिद्ध
१०३
एक स्थान है। सड़कसे करीब डेढ़ फलांग चलने और कुछ उचाई चढ़नेपर किलेके नाचे पहाड़की विशाल चट्टानों को काट कर बहुत सी पद्मासन तथा कायात्सग मूर्तियॉ उत्कीर्ण की गई हैं। ये मूर्तियों प्रशान्त एवं कलापूर्ण तो हैं हो; किन्तु स्थापत्य कला की दृष्टिसे भी अनमोल है। इनकी ऊँचाई १५-२० फुटसे कम नहीं है। इतनी बड़ी पद्मासन मर्नियों मेरे देखने अन्यत्र कहीं नहीं आई । वावड़ी के बगल में दाहिनी ओर एक विशाल खड्गासन मूर्ति है । उसके नीचे एक विशाल शिलालेख भी लगा हुआ है । जिससे मालूम होता है कि इस मूर्तिकी प्रतिष्ठा वि० सं०५२५ में तोमरवंशी राजा डूंगर मिहके सुपुत्र कीर्तिसिंह या करणसिंहके राज्यकाल में हुई है ।
खेद है कि इन सभी मूर्तियोंके मुख प्राय खंडित है जो मुसलिम युगमें छाने वाले धार्मिक विद्वेषका परिणाम जान पड़ता है। इन मूर्तियों की केवल मुखाकृतिको ही नहीं बिगाड़ा गया किन्तु किसी किसी मूर्तिके हाथ-पैर भी खण्डित कर दिये गये है। इतना ही नहीं किन्तु विद्वेषियोंने कितनी मूर्तियों से भी चिनवा दिया था और सामनेकी विशाल मूर्तिको गारा मिट्टीसे छाप कर उसे एक कनका रूप भी दे दिया था । परन्तु सितम्बर सन् १९४७ के दंगे के समय उनसे उक्त स्थानकी प्राप्ति हुई है ।
जैनियोंकी ऐसी विशालकाय मूर्तियाँ, जो कलाकी दृष्टिसे अपना शानी नहीं रखतीं, उन्हे बिना किसी कारणके खंडित करना साम्प्रदायिक व्यामोहका ही परिणाम जान पड़ता है। अब हिंसा और सत्यके पुजारी भारतके आध्यात्मिक संत पूज्य वर्णी गणेशप्रसाद जीने मुरार (ग्वालियर) के चातुर्मास के समय उन मूर्तियों के जीर्णोद्धारक लिये समाजसे आर्थिक सहायता भी दिला दी, और फलस्वरूप कुछ मूर्तियों का जीर्णोद्वार भी होगया शेषके और होनेकी आवश्यकता है।
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१०४
अनेकान्त
बावरके आत्मचरितमें किलेकी इन मूर्तियोंके खंडित कराने की आज्ञाका उल्लेख पूर्व किया जाचुका है । मुस्लिम युगमें अनेक विशाल जिनमंदिरोको तोड़कर उनके पाषाणों आदि अनेक मस्जिदोंका निर्माण किया गया है । चुनाँचे देहलो में अनंगपाल द्वितीय और तृतीय के शासनकाल में निर्मित हुए अनेक जिनमन्दिरों तथा पश्चात्वर्ती अन्य अनेक मन्दिरोंको विनष्ट कर कुतुबमीनार के प्रसिद्ध लोहेकी नाटके चारों ओर पासवालो बड़ी मस्जिद इन्हीं मन्दिरोंके पाषाणसे बनाई गई है ।
संवत् १२४६ में जब शहाबुद्दीन गौरीने दिल्ली पर कब्जा किया तब अजमेर को विजय करके वहांपर बने हुए दि० जैन मन्दिरको ढाई दिन के अंदर उसे मस्जिदका रूप दे दिया गया था, और जिसे ढाई दिनका 'पड़ा' इस नामसे पुकारा जाता गत वर्ष विद्वत्परिषद् के सोनगढ़ अधिवेशन से वापिस लौटते समय गिरनारजी, शत्रुञ्जय और आबू आदिकी यात्रा करते हुए अजमेर में आये,
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[ वर्ष १०
कित हैं परन्तु शीघ्रता और अवकाशकी कमी के कारण मैं उन्हें नोट नहीं कर सका। अतः उनके सम्बन्धमें निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जासकता । संग्रहालय
ढाई के उस झोंपड़ेको देखने से मालूम हुआ कि वास्तव में वह एक जिनमन्दिर था, उसमें उसकी शिखरकी छत तथा दर्वाजेके अतिरिक्त अन्य किसी थानपर कोई विकृति नहीं आई है। उसकी अन्दर की छतोंपर जो देशी पाषाणपर अनेक बेल-बूटे बने हुए हैं । वे सब के मन्दिरों की शिल्पकलासे बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं । उसमें सात 'स्वस्तिक' (सांधिया) भी बने हुए हैं । बेल-बूटों में केवल पाषाण - काही अन्तर नहीं है, कि सूक्ष्मकलामें भी विशेबता पाई जाती है और जिसे आबूके मन्दिरोंकी तोंमें उत्कीरण किया गया है । स्व० महामना गौरीशंकर हीराचन्द्रजी श्रमाने भी अपने राज तानेके इतिहास प्रथम भाग में 'ढाई दिनके झोंपड़े' को जिन मन्दिर लिखा है। अजमेर के भट्टारकीय जिनमन्दिरमें बगलमे जो तीन विशाल मूर्तियां विराजमान हैं, उन्हें ढाई दिन के झोंपड़ेवाले मंदिरकी मूर्तियां बतलाया जाता है, उनपर मूर्तिलेख भी
ग्वालियर के किले में इस समय एक म्यूजियम ( संग्रहालय ) है जिसमें हिंदू, जैन और बौद्धोंके प्राचीन अवशेषों, मूर्तियों, शिलालेखों और सिक्कों आदिका संग्रह किया गया है । उसमें ऐतिहासिक पुरातन सामग्रीका जो संकलन अथवा संचय किया गया है वह बहुत ही महत्वपूर्ण है । यदि इन व शेषोंका पूरा परिचय और संग्रहीत शिलावाक्यों एवं मूर्तिलेखों का संग्रह पुरातत्व विभागकी ओर से प्रकाशित होजाय तो उससे ऐतिहासिक अनुसंधान में विशेष सहायता मिल सकती । इस संग्रहालय में जैनियों की गुप्तकालीन खड़गासन मूर्ति भी रक्खी हुई है जो बहुत ही कलात्मक और दर्शकको अपनी ओर आकृष्ट करती है। अन्य दूसरी मूर्तियां भी बहुत ही सुन्दर है । और वे अपनी प्राचीनता प्रकट करती है। किलेकी इन सब मूर्तियोंका निर्माण ग्वालियर के तोमर अथवा तंबर वंशी राजर डूंगरसिंह और उनके पुत्र कीर्तिसिंह या करणसिंह के राज्यकालमें हुआ है । ये तोमरवंश के प्रसिद्ध शासक थे । इनकी जैनधर्मपर बड़ी आस्था थी, और तत्कालीन भ० गुणकीर्ति आदि के प्रभावसे प्रभावित थे । इनके राज्यकालमें ग्वालियर और उसके सूबों तथा समीपवर्ती इलाकोंमें जैनधर्मने खूब समृद्धि पाई । राजा डूंगरसिंह और कीर्तिसिंहका राज्यकाल वि० सं० १४८१ से वि० सं० १५३६ तक सुनिचित है। जैन मूतियोंकी खुदाईका कार्य राजा डूंगरसिंहने शुरू किया था, वह उसे अपने जीवनकालमें पूरा नहीं करा सका, तब उसे उसके पुत्र कीर्तिसिह ने पूरा कराया था। जैनमूर्तियों की खुदाई का यह कार्य ३३ वर्ष पर्यंत चला है, इतने लम्बे अर्से में सैंकड़ों मृतियां उत्कीर्ण हुई हैं और
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किरण ३]
ग्वालियरके किलेका इतिहास और जैन पुगनपत्र
उनपर सहस्रों रुपये व्यय किये गये हैं। यद्यपि ग्वा- करते थे। लियर में जैनाचार्यों, मुनियों, भद्रारकों और विद्वानोंका दृबकुण्डम, जिसका पुराना नाम 'चंडोभ' है, मतत समागम रहा है उनकी निस्पृहता एवं निरीहता, एक जैन स्तपपर सं० ११५२ का एक और शिला त्याग और तपश्चर्या तथा अहिमा और सत्यकी लेख अकित है जिसमें सं० ११५२ की वैशाखसुदी निष्टाका महत्व वहांकी भूमिके कण-कणमें समाया ५ को काष्ठासंघके महान आचाय श्रीदेवसेनकी हुआ था, और जनताक हृदयम जैनधर्मके प्रति पादुका-युगल उत्कीर्ण है । वह शिलालेख तीन अगाध श्रद्धा एवं आस्थाका भाव घर किये हुए पंक्तियों में विभक्त है। इसी स्तुपके नीचे एक भगत था, और उससे जैन संस्कृतिके प्रचारमें बड़ी मदद मति उत्कीण है जिसपर 'श्रीदेव लिखा है, जो अधूरा मिली है। वहांके पुरातत्त्वकी विपल सामग्रीको नाम मालूम होता है पूरा नाम 'श्रीदेवसेन' रहा होगा। दखते हुए यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि ग्वालियरमे भट्टारकों की प्राचीन गद्दी रही है। और ग्वालियरमे जैनशासनका प्रचार एवं प्रसार प्राचीन उसमें देवसेन, विमलसेन, भावसन, सहसकीर्ति, भमयमे हो रहा है
गुणकीति, यशःकीर्ति, मलयकीर्ति और गुणभद्रादि
नामके अनेक भट्टारक हुए है। इनमे भ० देवसेन, दृबकडके शिलालेख
यशःकीर्ति और गुणभद्रने अपभ्रंश भाषामें अनेक इसकी पुष्टि दबकण्डवाले वि० सं० ११४५ के ग्रंथोंकी रचना की है और इन्हींके समयमें कवि उस शिलावाक्यसं होती है जो बहुत ही महत्वपूर्ण रइधने भी विविध ग्रन्थोंका निर्माण किया है । है । और जिससं विक्रमकी १२ वीं सदीमें जैनाचार्यो- इससे स्पष्ट मालूम होता है कि विक्रमकी १५ वी १६ के विहार और धर्मोप देश आदिका कितना ही वीं शताब्दीमे ग्वालियरमें जैनशासनका बड़ा परिचय मिल जाता है। ।
। प्रचार था। वहांके जैनधर्मविषयक भारी पुरातत्त्व___ शिलालेखमें महत्वकी बात तो यह है कि को देखते हुए यह कहना अत्युक्ति नहीं होगा कि ग्वालियर में कच्छपघट ( कछवाहा ) वंशके वहां विविध पंशक शासकोंके समयमें जैनधर्मने शासकोंके समयमें भी जैनमंदिर मौजद थे और खूब समृद्धि पाई थी। और वहांक श्रावकोंमें धानतन मन्दिरोंका भी निर्माण हया था. साथ ही मिक प्रेम और परोपकारकी वृत्ति पाई जाती थी। शिलालेग्वम उल्लिखित लाड-वागडगणके देवसेन, कुलभूषण, दुलभसेन, अवरसेन और शान्तिपेण
१ अामीद्विशुद्धतरबोधचरित्रष्टिइन पांच दिगम्बर जैनाचार्योंका समुल्लेख पाया
., नि.शेषसूरिनतमस्तकधारिताज्ञ. । जाता है जो उक्त प्रशस्तिके लेखक एवं शान्तिपेणके
श्रीलाटवागडगणोन्नतरोहणादिशिष्य विजयकीर्तिसे' पूर्ववर्ती है। यदि इन पांचों
माणिक्यभूतचरित गुरुदवसेनः । । । । । आचार्योंका समय १२५ वर्ष भो मान लिया जाय ॥२ पति १-सं० ११५२ वैशाखसुदि पञ्चम्यां जो अधिक नहीं है तो उसे ११४५ मेंसे घटान
२-श्री काष्ठासंघ महाचार्यवर्यश्रीदेव पर देवसेनका समय १०२० के करीब आ जाता है। .. ३-सेनपादुकायुगलम् । ये देवसेन अपने समयके प्रसिद्ध विद्वान थे, और SHe:-Ache-logical Survey of india
See Ache-logical Surv लाड बागड़ गणके उन्नत रोहणाद्रि थे, विशुद्ध V:22.103. ।।। ।।।। रत्नत्रयके धारक थे और समस्त प्राचार्य जिनकी ' '३-देश्यों, '
वअमिमन्दनमें प्रकाशित 'महाकवि आज्ञाको नतमस्तक होकर हृदय में 'धारण रह नामका मेरा विस्तृत लेख ।
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अनेकान्त
ग्वालियरके अन्य जिलों एवं ग्रामों में उपलब्ध सामग्री
ग्वालियर स्टेटके वर्तमान क्षेत्र में भेलसा (विदिशा), वेसनगर, उदयगिरि, बडोह (भिलसा) बरो (बडनगर) जि० अमझेरा, मंदसौर (दरापुर), नरवर, ग्यारसपुर, सुहानियाँ, गूडर, भीमपुर, पद्मावती, जारा जि तोंबरधार, चंदरा, मुरार आदि नगरोंमे बौद्ध और हिन्दुओ के प्राचान पुरातत्व अवशेषोंके साथ जैनियोंके भी प्राचीन पुरातत्व अवशेष उपलब्ध होते है । यद्यपि जैनियोंके पूरा
के सम्बन्धमें कोइ विशेष अन्वेषण नहीं किया गया और न जैन मर्तियों के सम्बंध में विशेष जानकारी ही प्राप्त की गई है जिसके किये जानेकी खाम जरूरत है । परन्तु इन स्थानोंके सम्बंध में जो कुछ परिचय ज्ञात हो सका है उसे नीचे दिया जाता है:
भिलसा—यह एक प्राचीन स्थान है । यहाँपर पुरातत्व के अनेक प्राचीन अवशेष पाए जाते हैं । नगरके समीप ही बौद्धोंके ६० स्तूप हैं जो ईस्वी सन की तीसरी शताब्दी से पूर्व और इश्वीसन् १०० तक के हैं । पडित देवीदासने आचार्य नरेन्द्रसेनकं सिद्धान्तसारकी हिन्दी गद्यटीका सं० १८४४ में यहां ही पूर्ण की थी।
वेमनगर -- भिलसाके उत्तर-पश्चिममें एक समृद्धिशाली प्राचीन नगर था जो मंगराजा श्रग्निमित्रका राज्यस्थान भी रहा है। और जिसे पाली भाषा के प्रन्थों में 'चैत्य गिरी' नामसे उल्ल ेखित किया गया है । यहाँपर बौद्धांके प्राचीन स्मारक पाए जाने हैं। इसमें उज्जैन के क्षत्रपोंके नागों और गुप्तक सिको भी प्राप्त हुए है। जैनियोंका तो यह महत्व
पूर्ण स्थान रहा है, जैन लेखोंमें इसे 'भद्दलपुर' कहा है जो १० वें तीर्थङ्कर शीतलनाथका जन्मस्थान रहा है। यहांपर जैनियों की एक गुप्तकालीन सुन्दर एवं कलापूर्ण मूर्ति मिली है. जो गूजरी महल के संग्र हालयमें रक्वी हुई है ।
[ वर्ष १०
उदयगिरि - उक्त भेलमा जिलेमें उदयगिरि नामका एक प्राचीन स्थान है-भेलनासे ४ मील दूर पहाड़ी में कटे हुए मन्दिर है । पहाड़ी पौन मीलक करीब लम्बो और ३०० फुटकी ऊँचाईको लिये हुए. है । यहां बीम गुफाएँ है। जिनमें प्रथम और बी नम्बरकी गुफा जैनियोंकी हैं, उनमें २० वीं गुफा जैनियोंके तवीसवें तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथकी है। उसमें सन् ४२५-४२६ का गुप्तकालीन एक अभिलेख है जो बहुत ही महत्वपूर्ण है । और जो इस प्रकार
हे:--
"सिद्धांको नमस्कार । श्रीसंयुक्त गुणसमुद्रगुमान्वय के सम्राट कुमारगुप्तके वर्द्धमान राज्य शासनक १०६ वें वर्ष और कार्तिक महीनेकी कृष्ण पचमी के दिन गुहाद्वारमं विस्तृत सर्पफरण से युन. शत्रुओं का जीतनेवाले जिन श्रेष्ठ पार्श्वनाथ जिनकी मूर्ति शमदम वान शंकरने बनवाई। जो आचाय भद्रान्वयके भूषण और आर्यकुलोत्पन्न आचाय गोशम मुनिके शिष्य तथा दूसरोंके द्वारा अजेय रिपुघ्न मार्न अश्वपति भट संघिल और पद्मावतीके पुत्र शंकर इम नामसे लोक में विश्रुत तथा शास्त्रोक्त यतिमार्गम स्थित था और वह उत्तर कुरुवोंके सदृश उत्तर प्रान्तके श्रेष्ठ देशमें उत्पन्न हुआ था उसके इस पावन कार्य में जो पुण्य हुआ हो वह सब कर्मरूपी शत्रसमूह क्षयके लिये हो ।" वह मूल लेख इम प्रकार है:
६-नमः सिद्धेभ्यः ["] श्रीसंयुमानां गुणतोयधीनां गुप्तान्वयानां नृपसत्तमानाम् । २--राज्ये कुलस्याधि विवर्द्धमाने विश
मासे [1] सुकार्तिके बहुलदिनेथ पंचमे । ३- गुहामुखे स्फटविकटोत्कटामियां, जिमद्विषां जिनवर पाश्वमंशिको जिमाकृति शम-दमवान । ४- चोकरत्] [11] आचार्यभद्रान्वयभूषणस्य शिष्यो सम्मा बाकुलोद्वतस्य श्राचार्य गोश
* मुनेस्तास्तु पद्मावताश्वपते टस्य [1] यस्य रिपुन मानिनम्स सघिल
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किरण ३]
ग्वालियरके किलेका इतिहास और जैन पुरातत्व
१०७
4-स्येतित्यभिविश्रतो भुवि स्वसज्ञया शंकरनाम मन् ४३७ का कुमारगुप्त प्रथमके समयका पाया शब्दितो विधान युक्तं यतिमार्गमस्थितः [1]
जाता है। यहां जैन श्रमण संस्कृतिके बहुतसे प्राचीन ७-स उत्तराणां शदृशे कुरूणां उदग्दिशा देशबरे प्रसूतः जैन स्मारक हैं। विक्रमकी दूसरी तीसरी शताब्दीके
-क्षयाय कारिगणस्य धीमान् यदत्र पुण्यं तदपास प्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्य समन्तभद्रने वाद-मेरी मर्ज [0] --फ्लीट गुप्त अभिलेख पृ० २५८ । बजाई थी। जैसा कि 'दशपुरनगरे भेरीमया साडिता'
इस लेखमें उल्लिखित आचार्य भद्र और उनके वाक्यसे प्रकट है । संस्कृत-हिन्दीभाषाके प्रसिद्ध अन्वयमें प्रसिद्ध मुनि गोशर्म, कहांके निवासी थे विद्वान पं० भागचन्द्रजी यहांके ही निवासी थे। और उनकी गुरु परम्परा क्या है ? यह कुछ मालुम यहां रहकर उन्होंने कई ग्रंथोंकी टीकाओंका निमोण नहीं हो सका।
किया है। आज भी यहां जैनमंदिर और शास्त्रबड़ोह-यह स्थान भी भेलसा जिले में है। यहां भंडार विद्यमान है और भावकगण अपने धर्मका एक प्राचीन जिन मन्दिर है, जो लगभग १०० ईस्वी यथेष्ट पालन करत है। का बना हुआ है। इस मंदिरमें १६ गर्भगृह है जिन- नरवर-सिपरी और सोनागिरके मध्यमें वसा में भगवान महावीर (वर्तमान), मलिनाथ, अजित- हुआ है। यहांपर नागराजा गणपतिके सिक प्राप्त नाथ, आदिनाथ पाश्वनाथ, भुजबली (बाहुबली) हुए हैं जिसका उल्लेख समुद्रगुप्तके इलाहाबादवाले
और शांतिनाथ आदि जैनतीर्थकरोंकी मूर्तियाँ अंकित लेखमें पाया जाता है । यह नगर भी अनेक राजा. है। यह मन्दिर भी दशनीय हैं।
ओंकी राजधानी रहा है। यहां एक किला भी है। बरो (बड़नगर)-जि० अमझेरामे बहुत प्राचान जिसमें विकमकी १२ वीं१३ वीं शताब्दीकी संगमरस्थान है । यह पुरातन समयमें बहुत ही मम्पन्न एवं मरकी अत्यंत सुन्दर कलापूर्ण जैन तीर्थकरोंकी मर्तिधन-जनसे परिपूर्ण रहा है, परन्तु वर्तमानमे वह यां पाई जाती है। जो उरवाही द्वारपर नवीन पक छोटे-से नगरके रूपमे दृष्टिगोचर हो रहा हैं। मन्दिरमें विराजमान हैं जिनपर वि० सं० १२१३, इसके आस-पास अनेक पुरातन वंसावशेष हैं जो १२०६, १३४० और १३४८ के मूर्तिलेख अंकित हैं। पथारी तक विस्तृत है। प्रस्तुत नगर गयानाथ पहाड़ किलेकी कितनी ही परातन मर्तियां खंडित कर दी की तलहटीमें वसा हुआ है, जो विन्ध्यका ही एक गई है। भाग जान पड़ता है । और वह भेलमाके उत्तर तक ग्यारमपुर--यह नगर भेलसास उत्तर-पूर्व २४ आता है। इस नगरके तालाबके किनारे हिन्दू और मीलकी दूरीपर वमा हुआ है। यह स्थान बहुत जैनोंके मन्दिर बने हुए हैं। उनमें एक विशाल जैन प्राचीन और प्रसिद्ध रहा है । यहांपर सबसे विश्रुत मंदिर भी है जिसमें १६ वेदियोंपर जैन तीर्थंकरोंकी मन्दिर अठखंभा है। इसकी बनावट कलापूर्ण तो बलात्मक सुन्दर मतियाँ विद्यमान है। मध्यमें किसी है ही, किन्तु उसके स्तम्भोंपर नक्काशीका कार्य बहुत मुनिका समाधिस्थान भी बना हुआ है । १७ वी ही मुन्दर है । और वह दर्शनीय भी है। एक खंभे शताब्दीमें पनाके राजा छत्रशालने इसे नष्ट किया पर सन १८२ (वि० सं० १०३६) का एक अभिलेम्व
किसी यात्रीका उत्कीर्ण है । यहां सबसे पुराना और मंदसौर-भारतीय संस्कृतिका अनुपम केन्द्र सुन्दर जैन मंदिर पहाड़ीकी नौकपर 'माता'के नामसे रहा है। इसका प्राचीन नाम 'दशपुर' है। नासिकसे प्रसिद्ध है, जो संभवतः नौमी, दशमी सदीका बनईस्वी सन्के प्रथमभागका क्षत्रपोंका एक अभिलेख वाया हआ होगा। इसमें वेदीपर एक बड़ी दिगम्बर. मिला है जिसमें उसका उल्लेख है। एक शिलालेख मन्दर जैन मूर्ति है और पाम में ३-४ मूर्तियां और
था।
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१०८.
भी हैं । तथा कमरे के अन्दर और भी बहुत-सी जैन मूर्तियाँ विराजमान हैं। इन सब मूर्तियों पर अंकित अभिलेखों का संकलन करना बहुत आवश्यक है ।
अनेकान्त
सुहानियाँ - यह स्थान पुरातन कालमें जैन संस्कृतिका केन्द्र रहा है और वह ग्वालियरसे उत्तरकी
र २४ मील, तथा कवरमे १४ मील उत्तर-पूर्व है । और हसिन नदीके उत्तरीय तटपर स्थिति है । कहा जाता है कि यह नगर पहले बहुत समृद्ध था और १२ काश जितने वितृत मैदानमे आवाद था । इसके चार फाटक थे, जिनके चिन्ह आज भी उपलब्ध होते है । सुना जाता है कि इस नगरको राजा मूरसेनके पूर्वजोंने बसाया था । कनिंघम साहबको यहां वि० मं० १०२३, १०३४, और १४६७ के मृतिलेख प्राप्त हुए थे। जिनमे मे प्रथममे बतलाया है कि “वि० सं० १०१३ ( ६५६ A D ) मे माधव के पुत्र महेन्द्रचन्द्रने, जो संभवतः ग्वालियरका राजा था एक जैन मूर्ति मुहम्य (Subamya जो ग्वालियरके समीप है ) मे अर्पण की ।" और दूसरे लेखसे स्पष्ट है कि वि० सं० १०३४ ( ६६७ A. 1)) में कच्छपघट या कछवाहा वंशके राजा वज्रदामनने उक्त संवत् के वैशाख वदा पंचमीको मूर्ति प्रतिष्ठित कराई थी । तृतीय लेख जैनियोंके १६ वें तीर्थंकर भगवान् शान्तिनाथकी १५ फुट ऊँची खडगासन मूर्ति जो चेतननाथकं नामसे प्रसिद्ध है यह स्थान भीमकी लासे करीब एक मील दूर हैं। इस मूर्तिके बगल मे दो खड्गामन मूर्तियां और भी है। इस के शिरके पास १४ पंक्तिका एक लेख है जो पूरा पढ़ने में नहीं आता किंतु 'सिद्धिस्तु १४६७ वैशाखसुदी
C
१ सं० १०५३ माधवसुतेन महिचन्द्रकन भी[ खो ?] दिता ।
२ "संवत् १०३४
इमालवदि पार्श्वमि "
शांतिनाथ की यह दिव्य मूर्ति और बगलवाली दोनों मूर्तियां अखण्डित है । शिरके पास भामण्डलका - चिन्ह भी उत्कीर्ण है और मिहमुख सिंहासनपर कमल बना हुआ है जिसपर वह मातिशय प्रशांत कलाभिव्यजक मूर्ति स्थित है उसके बगल में यक्ष-यक्षरिणयौकी मूर्तियां भी अंकित है । इनके समीप ही दो पद्मासन मूर्तियाँ अष्ट प्रातिहार्य और यक्ष-यक्षणियों सहित भगवान नेमिनाथ और पार्श्वनाथकी है । इस मूर्तिके आस-पास बहुत-सी खण्डित मूर्तियां पड़ी हुई हैं। जिसमे मालूम होता है कि इस स्थानकं दो-तीन मील इदे-गिर्द जैनियों के पुरातत्त्व की महत्वपूर्ण सामग्री यत्र तत्र विखरी हुई पड़ी है और कुछ –देखो, जनरल थाफ दी एशियाटिक सोसाइटी अभी भूगर्भ में भी दबी हुई है जिसको निकालकर प्रकाश लाने की बड़ी आवश्यकता
बंगाल भाग xxx । P. ४६० ४५६ सन् १८६२
| पर खेद है
[ वर्ष १०
११ रवौ” पढ़ा जाता है । इस ग्रामके पश्चिममें एक तम्भ है जिसे भीमकी लाट कहा जाता है। दक्षिणकी और कई दि० जैन मूर्तियां है। इस नगरको कन्नौज के राजा विजयचन्दने सन् ११७० में अपने अधिकारमें ले लिया था । श्राजकल यह स्थान अतिशय क्षेत्रके नामसे प्रसिद्ध है । इस सम्बन्धमें एक दिलचस्प घटना घटित हुई, जो इस प्रकार सुननेमें आई है । कुछ समय पहले बाबा गुमानीलालजीको रात्रिम एक स्वप्न हुआ, कि एक मूर्ति तेलीके घरकी देहरीक नीचे गड़ी है तुम जाकर ग्वोद लाओ । बाबाजीनं ती उस मूर्ति सम्बन्धमें कहा तो उसने इंकार कर दिया तब बाबाजीने गांवके अन्य लोगों को सब हाल बताकर आप शांतिनाथ भगवानकी उस मूर्ति के सामने आहारादिके त्यागका नियमकर कार्यात्सर्गम स्थित हो गए। और कुछ समय बाद उसी मूर्ति के समक्ष ध्यानस्थ बैठे रहे। दो दिनके पश्चात् महमा ग्राममें पत्थर वर्षा होने लगी जिसमे गांव के लोग दुखी हुए और उन्होंने तलोके घरमे खोदकर वह मूर्ति बाबाजीको लाकर देदी। तबसे बाबाजीका प्रभाव उस गांव पर हो गया है और शांतिनाथकी उस मूर्तिपर अधिक श्रद्धा हो गई है।
श्रीदाममहाराजाधिराज
- S
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किरण ३ ]
कि जैन समाजका ध्यान इधर नहीं है। मैं यह पहले बतला चुका हूं कि यह मूर्ति सं० १४६७ की है उस समय ग्वालियर मे तोमरवंशी राजा वीरमदेवका राज्य था । वीरमदेव कुशल राजनीतिज्ञ था । इनके राज्य में प्रजा सुखी थी, जैमवालवंशी कुशराज राजा वीरमदेव के मन्त्री थे, जो पृथ्वीके पालन करनेमें ममर्थ, और पृथ्वी के संरक्षण में सावधान और राजनीति भी कुशल थे । प्रस्तुत मुहानियां श्राजकल अतिशय क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध हैं, वहां मेला भी लगता है । और ना कोई सज्जन, जिनके नामकी मुझे इस समय स्मृति नहीं है, मंत्री है ।
ग्वालियर के किले का इतिहास और जैन पुरातत्व
गूडर - यह स्थान भी प्राचीन है और १२वीं १३ af शताब्दी में प्रसिद्ध रहा है । यहॉपर जैनियोंके शांतिनाथ, कुथनाथ और अरहनाथकी वि. सं. १२०६ की मृतियों पाई जाती है । इन सबसे बड़ी मूर्ति फुट ऊँची है, जो बहुत ही सुन्दर, चित्ताकर्षक और कलापूर्ण है । कलाकी दृष्टि इस प्रकारकी मनोहर मूर्तियों कम ही पाई जाती है। इसकी कोमलता और विशालता चतुर शिल्पीकी श्रात्म-साधनाका सजीव - चित्रण हैं । दृष्टि पड़ते ही दर्शक उस मृर्तिकी ओर आकृष्ट हुए बिना नहीं रहता और वह कुछ समय के लिये अपनेको भूल जाता है । और अपने स्वरूप मे निमग्न होनेका प्रयत्न करता है। साथ ही ज्ञानी आत्मा चैतन्यजिन प्रतिमा बननेका अभ्यास भी करने लगता है । इस कालमे जैन मूर्तियों का निर्माण बहुत अधिक हुआ है । पन्तु वह सब स्थापत्यकलाकी दृष्टि प्रायः सर्वांग पूर्ण हुआ है ।
भीमपुर - मे नरवर के जजयेलवंशी आसलदेव राजा के अधिकारी जैनसिंहने एक जैनमंदिर बन - वाया था जिसका वि० सं० १३१६का ४० पंक्तियोंका एक शिलालेख भी उपलब्ध है जिसकी मूल छाप ग्वालियर पुरातत्त्व विभागकी कृपासे मुझे प्राप्त हुई
। उसके पढ़ने का अभीतक अवकाश नहीं मिला, इससे उसे यहां नहीं दिया जारहा है ।
१०६
1
पद्मावती - यह वही प्रसिद्ध नगरी है जिसका उल्लेख खजुराहे के वि० सं० २०५२ के शिलालेख' में किया गया है और बतलाया है कि नगरी ऊंचे-ऊंचे गगनचुम्बी भवनांस सुशोभित थी । उसके राजमागमं बड़े-बड़े तेज तुरंग दौड़ते थे और जिसकी चमकती हुई स्वच्छ एवं शुभ्र दीवारें आकाशसे बाते करती थीं। यह नागराजाओंकी राजधानी थी । पद्मावतीपुरवाल जातिके निकासका केन्द्र थी । कार्य रहधूके ग्रन्थों में उल्लिखित 'पोमा वड पुरवाडवस' वाक्य पद्मावती नगरीका ही वाचक है उसीसे पद्मावती-पुरवालका उदय हुआ है । विष्णुपुराणके कथनानुसार इस नगरी में नौ नाग राजाओंने राज्य किया है। पद्मपवाया (पद्मावती) से नौ नागराजाओ के सिक्के भी मिले हैं।
ग्यारहवीं शताब्दी में रचित 'सरस्वतीकंठाभरण' में भी 'विशाला' पद्मावतीका वर्णन है ।
जोरा - जिला तोंवरघारसे दो दिगम्बर मूर्तियां प्राप्त हुई है जो बहुत ही सुन्दर एवं चित्ताकर्षक हैं । ये दोनों मूर्तियां लश्करके सरकारी म्यूजियम मे रक्खी हुई है २ ।
चंदेरी जि० नरवर - यह भी ाचीन स्थान है । इससे नौ मील बूढ़ी चंदेश है जो ध्वंशावशेषों का एक ढेर है । चंदेरीको चंदलवंशी राजाओं ने बसाया था. यह नगर तनजेब जैसे बारोक और सुन्दर कपड़ोंके बनाने में प्रसिद्ध था । किसी समय यह नगर श्रमण संस्कृति (जैन) के प्राचीन गौरवका केन्द्र बना हुआ था। इसके किलेके पास की खंडहर पहाड़ी पर उकेरी गई विशान जिन प्रतिमाएं उसका उज्ज्वल प्रमाण है । यहा जो मूर्तियां है और उनके साथ यक्ष-यक्षिणो आदिकीजो मूर्तियां उत्कीर्ण है, उनमे अङ्कित लेखोंस व तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्धकी प्रतीत होती है; क्योंकि
1 Epigrapha Indea V.LI.P. 149 २ देखो, ग्वालियर गजेटियर जिल्द 1 में प्रकाशित
चित्र |
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अनेकान्त
वर्ष १०
उनपर संवत् १२८३ से लेकर १२६३ तकका संवत् राजा विक्रमसिंहने महाचक नामके प्राममें कुछ उत्कीणे है । हां, बूढी चंदेरीमें १०वी ११वीं शताब्दी जमीन आदि भी प्रदान की '। नककी मूर्तियां पाई जाती हैं।
२) जैसवालवंशी कुशराजने, ओ तोमरवंशी मुरार-ग्वालियरमें पं० हरिहरनिवासजी द्विवेदी- राजा वीरमदेवके महामात्य थे, भगवान चद्रप्रभका को एक गुप्तकालीन चतुर्मुख सर्वतोभद्र प्रतिमाकी
____एक चैत्यालय बनवाया था और पद्मनाभ नामके प्राप्ति हुई है जो उन्हींके पास सुरक्षित है। उसपर कायस्थ विद्वानसे 'यशोधरचरित्र' अपरनाम गुप्त लिपिमें लेख भी अङ्कित है । यह मूति उन्हें 'दयासन्दरविधान' नामका एक संस्कृत काव्यग्रन्थ मुरारसे एक मीलकी दूरीपर मिली थी'
भी बनवाया था, जिसे पद्मनाभने भट्टारक गुण___ इन स्थानोंके अतिरिक्त वरई, सेसई, ईदार, कीर्तिके उपदेशसे पूर्वसूत्रानुसार रचा था । गोलकोट, पचराई, उज्जैन, और तुमुन आदि स्थानोंमें जैन पुरातत्वकी महत्वपूर्ण सामग्री विद्यमान है। (३) अरुणमणिके 'अजित पुराण में जिसका यदि जैन समाज ग्वालियर और उसके जिलों रचनाकाल सं० १७१६ है, भट्टारक श्रुतकीतिके शिष्य अथवा सूबों में प्राप्त सामग्रीपरसे ऐतिहामिक बुवराधवके द्वारा गोपाचल (ग्वालियर)में जैनमन्दिर
के बनानेका उल्लेख निम्न शब्दों में पाया जाता है:इतिवृत्तका मंकलन एवं अन्वेषणका कार्य प्रारम्भ करे, जो भारी अर्थव्ययको लिये हुए है, तो उसपर
"तच्छिष्य जातो बुधराघवाख्यो, मे जो मूल्यवान् सामग्री प्राप्त होगी, उमसे कितनी
गोपाचले कारितजैनधामा" ही ऐतिहामिक उलझनें दूर हो जावेगी । और वह
| जावगा। आर वह (४) अग्रवालकुलावंतस, संसारशरीरभोगोंजैन इतिहासके लिये ही नहीं किन्त भारतीय इति- से उदासीन, धर्मध्यानसे मंतन शास्त्रोंके अर्थरूपी हासके लिये हितकर होगी। क्या जैन समाज रत्न समहसे भूषित तथा एकादश प्रतिमाअकि अपना लक्ष्य इस ओर भी देगा ? अन्यथा आज संपालक खेल्हा नामके ब्रह्मचारीश्रावकने चन्द्रप्रभ जो महत्वपूर्ण सामग्री यत्र तत्र विखरी पड़ी है वह भगवानकी विशाल मतिका निर्माण ग्वालियरमै भी विनष्ट हो जायगी और उसका प्राम करना फि बड़ा ही दुष्कर होगा।
1 Sue Epigraphica indca. Vo L. II. P. 237 कतिपय जैनमन्दिर व मूर्तिनिर्मापकोंके • जाता श्रीकुशराज एवं सकलमापाखचूडामणिः
श्रीमसोमरवीरमस्थ विदितो विश्वासपात्रं महान् । समुल्लेख
मंत्री मंत्रविचक्षणः सममयः वीणारिपक्षः सयात् । (१) दूबकुण्ड ( चंडोभ ) के उक्त शिलालेखमें,
बोण्यामीरणरक्षणक्षणमतिजैनेन्द्रपूजारतः ॥ जिसका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। मुनि
स्वर्गस्यर्दिसमृद्धिकोऽतिविमलश्चैत्यालयः कारितो । विजयकीतिके उपदेशसे जैसवालवंशी श्रावक
लोकानां हृदयंगमो बहुध नैश्चन्द्रप्रमस्य प्रभोः । दाहड, कूकेक, सूर्पट, देवधर और महीचन्द्र आदि
ये तत्समकायमेव रुचिरं भव्य व काव्यं तथा । चतुर श्रावकोंने वि० सं० ११४५ में विशाल जैनमदिर
साधश्रीकशराजकेन सुधिया कीर्तिश्चिरस्थापकम् ।। का निमोण कराया था और जिसके पूजन, संरक्षणा एवं जीर्णोद्धार आदि कार्योंके लिये कच्छपवंशी
उपदेशेन ग्रन्थोऽवं गुणकीर्तिमहामुने। १ देखो, मंगलप्रभातमें प्रकाशित ग्वालियरको जैन कायस्थपचनामेन रचितः पूर्वसनतः ।। मूर्तियां' नामका लेख ।
-अशोभरचरित्र प्रशस्ति ।
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किरण ३]
ग्वालियरके किलेका इतिहास और जैन पुरातत्त्व
करवाया था ।
(६) कविवर रइधूको सम्यक्त्वकौमुदीकी खंडित (५) साहू खेममिहके पुत्र कमलसिंहने, दुर्गात- प्रशस्तिसे मालूम होता है कि गोलालारोय फुलमें की नाशक मध्यात्वरूपी गिरीन्द्रको विनष्ठ ममत्पन्न कमद्रवन्दने भी जिनबिम्बकी प्रतिष्ठा गोपाकरने के लिये वनके समान, और रोग-शोक आदि चलमें राजा कीर्तिसिंहके राज्यकालमें सम्पन्न कराई दुःखोंकी नाशक भगवान आदिनाथकी १५ हाथ थी' । परन्तु प्रशस्ति अधूरी होनेसे उनके वंशादिका (१६।। पुट) उंची सातिशय एक विशाल मूर्तिका कोई परिचय नहीं दिया जासका। निमोण कराया था और उसकी प्रतिष्ठा भी
बाबा बावड़ीके दाहिनी ओर एक सुन्दर खड़गा
बाला कराई थी।
मन मूर्ति भगवान पार्श्वनाथकी है, जिसके शिरका १ तासाम्म खणि घंभषय-मार-भारेण,
भाग अगुली व पैर खंडित दशामें है। उसके नीचे सिरि भयरवालंकवसम्मि सारेण ।
म. १५२५ का एक लेख भी अंकित है जिसमें गोलाससार-तण भाय-निम्विरचित्तणा,
लारीय वंशके द्वारा भ० सिहकीर्तिके उपदेशसे उक्त घरधम्मकाणामएणेव सितण॥
मंवतमें प्रतिष्ठित करानेका उल्लेख किया गया है. मत्थस्थरयणोहभूसियसदेहेण,
नोटबुक सामने न होनसे लेख यहां नहीं दिया दहएगपडिमाणपालणसणेहेण ।
जासका। इसी लाइनमें पद्मासन व खड्गासन वेल्हाहिहाणेण गमिऊण गुरुतेण,
विशाल मूर्तियाँ और भी अंकित हैं। जसकित्तिविणयत्तु मंडियगुणोहेण ।
(७) वि० सं०१५२१ में साहू पद्मसिंहने महाभो मयदाण-दापग्गिउल्धरण वणदास,
कवि पुष्पदन्तका आदिपुराण लिखवाया था, उममे संसार-जलराशि उत्तार-वरजाण ।
पंथ लिखाकर दान देने वालेकी दातृप्रशस्तिमें पद्मतुम्हं पसाएग भव-दुह-कयंतस्स,
सिंहके परिवारका परिचय कराते हुए लिखा है कि ससिपहजिदस्स पडिमा विसुद्धस्म ।
पद्मसिंहने आदिनाथका एक जिनायतन बनवाया कारायिथा मई जि गोधायले तुग,
था और उसकी प्रतिष्ठा भी करवाई थी तथा एक उहुचाधिणामेण तिमि सुहसंग ।
लाख ग्रंथ लिखवाए थे और चौवीस जिनालय कविरविरचितसम्मइजिनचार-प्रसारिन ।
(जिनमन्दिर) भी बनवाए थेजैसा कि उक्त प्रशस्ति२ जो देबाहिदेवतिस्थंकरु,
की निम्न पंक्तियोंसे प्रकट है:श्राहणाहतिथेस सुहंकर ।
"एयारह ममि मिरिपोमसिह, तहु पडिमा दुग्गह णिण्णासहि.
जिणमाममाणंदणवणसुमिह । जा मिच्छत्तगिरिंद सरासणि ।
पुरणच जिणायदणु जि विचित्त, जो पुण्ण भष्वह मुहगइ सासपि.
पसिहर सुपाडिहेरटू जुन्न । जा महिराय-सोय-दुह-णासणि । सा पुयाहर करधधिहगि,
बउविहसंघहंषिणय पयासित, काराचिन णिरुवम अइतुगी।
कम्ज़ सयलु जा सिद्ध सुहासिउ । प्रणय अण परिमको लक्खड़,
-कविरहधूरचितसम्मत्तगया विधाण प्रशाम्न । सुरुगुरु ताह गणण अह अक्खद।
, जेश पइडाषिय जिणबिंबद्द। कर वि पइह तिलड पुगु दियाउ'
सम्यक्स्वकामदी, कविरइधकृत । घिक मवि पविहित कालमा छिराउ
। देखो, जैन माहिन्यमंशोधक खंड २ अंक पृ० ० ।
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११२
सिम्मा विश्र भवंहि जाण वत्तु, कारिय पइछ जिण समयदिट्ठ,
विज्जुल चंचल लच्छी सहाउ,
रयणत्तयज्य जय पास जुत्तु ।
अवलो विसयल सचित्त हिट्ट ।
अनेकान्त
श्रालोइवि हुउ जिणधम्मभाव ।
जिण गंधु लिहाविउ लक्ख एक्कु,
सावय
मुणि भोयग्गु भुजाविय सहासु,
लक्खाहारातिरिक्कु |
ग्वालियर में भट्टारकों की पुरानी गही रही है, वहां विविध साहित्यको सृष्टि और अनेक मंदिर मूर्तियाँ का चवीस जिरणालउ किउ सुभासु । निर्माण आदि कार्य भी सम्पन्न हुआ है। वहांकी — श्रादिपुराणलेखकप्रशस्ति । भट्टारक परम्पराका भी पूरा इतिवृत्त ज्ञात नहीं है । फिर ग्रन्थरचनादिके सम्बन्धमें जो कुछ उल्लेख प्राप्त हुए है उन्हें नीचे दिया जाता है :
ये पद्मसिंह ग्वालियर के निवासी थे और देवशास्त्र-गुरुके भक्त थे और विपुल धनादिसे सम्पन्न थे, तभी वे जैनधर्मके प्रचार में अपने द्रव्यका सदु पयोगकर पुण्यका अर्जन कर सके है। और उन्होंने अपनी चंचला लक्ष्मीका जो सदुपयोग किया, वह सब अनुकरणीय है । उनमें अतिथि सत्कार की भी सुदृढ भावना थी, यही कारण है कि वे मुनियों अथवा अन्य साधर्मी श्रावकोंको भोजन कराकर आहार करते थे ।
(८) भ० गुणभद्रने संघवइ (संघपति) उद्धरणके जिनालय में 'ठहरकर लब्धिविधानकथाकी रचना साहु सारंगदेव के पुत्र देवदासकी प्रेरणासे की थी ? जिससे स्पष्ट है कि संघपति उद्धरणने जिनमंदिर भी बनवाया था
[वर्ष १०
तक भट्टारकों, आचार्यो और विद्वानोंकी जो परम्परा ग्वालियर और उसके सूत्रों तथा पासके विभिन्न राजाओं के शासनकाल मे रही है, अभीतक उसका पूरा इतिवृत्त प्राप्त नहीं है । इसीसे श्रृंखलाबद्ध कोई इतिहास सामग्री के अभाव में नहीं लिखा जा सकता । जो कुछ सामग्री संकलित की जा सकी उसीके आधारसे यह लेख लिखा गया है ।
इस तरह जैन साहित्य और उसकालके मृति लेग्खोंके संकलन करनेसे तात्कालिक, सन्तजनों, राजाओं, मंत्रियों और राजश्रेष्ठियों वगैरह के इतिवृत्तका और उनके द्वारा होनेवाले महत्वपूर्ण कार्यो का इतिवृत्त लिखा जा सकता है। इन सब उद्धरणों आदि परसे ग्वालियरकी महत्ताका अनुमान लगाया जा सकता है।
ग्रन्थरचना कतिपय उल्लेख विक्रमकी १० वीं शताब्दी से १८ वीं शताब्दी
विक्रमकी १५ वीं और १७ वीं शताब्दी में भट्टारक यश-कीर्ति कवि रइधू भ० गुणभद्र, कवि पद्मनाभकायस्थ, कवि परिमल और कवि ब्रह्मगुलालने जो भट्टारक जगभूपणके शिष्य थे, त्रेपनक्रिया और कृपणजगावनचरित आदि कितने ही ग्रंथों की रचना सं० १६६५ और १६७२ के मध्यम की हैं ।
(१) विक्रमकी १५ वीं शताब्दी के उपान्त्य समयमे भ० यशःकीर्तिनं वि० सं० १४६७ वे मे पाण्डवपुराण और मं० १५०० मे हरिवंशपुराणकी रचना अपभ्रंश भाषामें की है । तथा जिनरात्रिकथा और रविव्रतकथा भी इन्हींकी बनाई हुई है। चन्द्रप्रभचरित भी इन्हीं यशःकीर्तिका बनाया हुआ जीर्ण-शीर्ण खंडित प्रतिका समुद्धार भो इन्होंने कहा जाता है । स्वयंभूदेव के 'हरिवंशपुराण' की किया था । यह भ० गुणकीर्ति के लघुभ्राता और शिष्य थे ।
1
(२) कवि रइधूने, जो हरिसिंह संघवी के पुत्र थे इनकी जाति पद्मावतीपुरघाल थी । इन्होंने भ० यशःकीर्तिके प्रसादसे अनेक ग्रन्थोंकी रचना वि० सं० १४६२ में लेकर सं० १५२१ से पूर्व तक की है। इनकी अभी तक २३ कृतियोंका पता चला है जिनमें २०
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किरण ३]
ग्वालियर के किलेका इतिहास और जैन पुरातत्व
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कृतियां अभी तक मर देखनम आई है, शेष नीन अधिकांश वहां ही प्रतिलिपि किये गए हैं। कृतियां और भी अन्वेषणीय है । इनके विशेष परिच- श्वताम्बरसम्प्रदायमें भी ग्वालियरका कम यकं लिये 'वर्णी अभिनन्दन' ग्रन्थ देखना चाहिये। महत्व नहीं है। पूर्वकालमे ग्वालियर राज्यकी
(३) भ० गणभद्र, जो भ० मलयकार्तिक जो मीमा थी उसमें वर्तमान भग्तपुर स्टेटका शिष्य थे उन्होंने अपभ्रंश भाषाम छोटी छोटी १५ बयाना ग्राम, जो पहले कभी बड़े नगरके रूपमें रहा कथाओकी सृष्टि की है। इनका समय वि. की १६ है और जिसका प्राचीन नाम 'श्रीपथायां वी शताब्दीका पूर्वाद्ध है।
पुरि' अर्थात श्रीपथपरि अथवा श्रीपथ नामका नगर (४) कवि परिमलन मं० १६५१ मे, जो खा- था, ग्वालियर राज्यकी मीमाकं अन्दर अन्तनिहित लियरक निवासी थे, आगरेमें आकर श्रीपालच- था। यह वयाना दुवकुण्डसे८० मील उत्तरमें है । दृबरितकी रचना की है । इसके सिवाय और भी ग्रन्थोंका कुण्डक उम शिलालेम्बमे उल्लिखित राजा विजयपाल वहां निमाण हुआ है। जिनके सम्बन्धम मेरा अन्व- जो संभवतः विजयाधिराजकं नामसे ख्यात थे, बयापणकाय चाल है, प्राप्त होनपर उनका परिचय भी नाके शामक थे। इनके राज्यकालमे मं० ११०० का करानेका प्रयत्न किया जावेगा।
एक शिलालेख, जो कम्पाकगन्छके श्वेताम्बराचाय इसके अतिरिक्त ग्रंथोंकी अनेक प्रतिलिपियां श्रीमहश्वर सरिक समय लिखा गया है, इडियन वहां हुई एवं कराई है और व पद्मसिंह द्वारा एक
एण्टीक्वरीम प्रकाशित हुआ है। लक्षग्रन्थ लिखवानका उल्लेख भी ऊपर किया जा
प्रभावकचरितम ज्ञात होता है कि ग्वालियर चका है। उसके सिवाय और भी बहुतम ग्रन्थ
२३ हाथ उन्नत मंदिरम भगवान महावीरकी लेप्यमय समय ममयपर लिखवाए गये है। वि० सं० १४८६
प्रतिमा विराजमान को गई थी। में भ० यशःकीतिन राजा डूगरभिःके राजकालमे
कहा जाता है कि ११ वीं शताब्दीक विद्वान कवि श्रीधरका 'मुकमालचरिउ' और विबुध श्रीधर
प्रद्य म्नमूरिन अपनी वादक्तिसं ग्वालियर का संस्कृत भविष्यदत्तचरितकी प्रतिलिपि अपने
तत्कालीन राजाको अनुरंजित किया था । और
विक्रमकी १२ वीं शताब्दीक विद्वान वादिदेवसूरिन ज्ञानावरणीय कमके क्षयार्थ करवाई थी। सं० १५२१ में ज्ञानार्णव और महाकवि पुष्पदतके आदिपुराण
गंगाधर नामक किसी ब्राह्मण विद्वानको बादमे परा
जित किया था। इनके सिवाय सकलतीर्थस्तोत्रमे भी आदि अनेक ग्रन्थाकी प्रतिलिपियां कराई गई है।
ग्वालियरको नीथक रूपमै उल्लेखित किया गया है इनके अतिरिक्त और भी अनेक ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियां
जिनस स्पष्ट है कि ग्वालियरकी श्वेताम्बर साहित्यकी गई है जो यत्र तत्र भंडारोंमे उपलब्ध होती है ।
मे भा प्रसिद्धि रही है। ग्वालियरके स्वय भट्टारकीय शास्त्रमडारम सहनों
उपसंहार ग्रन्थ है जिनकी प्रतिलिपियां भी प्रायः वहां हुई है। उपरक इस सब विवेचनपरस पाठक यह भली वहां शांतिनाथमंदिरके शास्त्रभंडारमे 'ज्ञानागाव' भांति जान सकते है कि जैन पुरातत्वम ग्वालियरका
और आचार्य वीग्नन्दिक 'चन्द्रप्रभ चरित' की सुन्दर कितना महत्वपर्ण स्थान है । और वहां की पुरातत्वएवं शद्ध प्रतिलिपियां मौजूद है। इनके सिवाय विषयक महत्वपूर्ण ऐतिहामिक मामग्रीको लक्ष्यम लश्कर की तेरापंथी और बीसपंथी मन्दिरोके शास्त्र- रखतं हा यह निष्कर्ष निकालना अधिक सुसंगत है भंडारोंम भी अनेक हस्तलिखित ग्रन्थ है जिनमे किवालियर जैनसंस्कतिका प्रभावशाली केन्द्र रहा है।
देखो, अनेकान्त वर्ष ८ किरण ६.७ मे प्रकाशित १ तथा गोप्यगिरौं लेप्यमयविम्बयुनं नृपः । 'अपभ्रंशकथाका जैन साहित्य'।
श्रीवीरमन्दिरं तत्र त्रयोविंशतिहस्तकम् ।।
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ऐतिहासिक भारतकी प्राध मूर्तियां
जैन, बौद्ध या हिन्दू (ले०- श्री बालचन्द्र जैन, एम० ए०)
मतिनिमाणके दो ही उद्देश्य हो मकत अनेक वर्षों एकछत्र राज्य किया और जिनके वैभव है-प्रथम तो किमी अमत भावको मत रूप देना और प्रभुत्व का दबदबा उम समय समस्त उत्तर
और द्वितीय, किमीकी स्मृतिको स्थायी बनाम भारतमें था। रखना। भामकी कृतिसे हमे ज्ञात होता है कि अजातशत्रकी कही जानेवाली मति पर डा० प्राचीनकालमें देवकुल बनाए जाने की प्रथा थी। जायसवालने प्रजासत्र और कणिक दोनां नाम इन देवकुलाम स्थानीय राजवंशोंक प्रतापी गजानों पंढ थे जो बौद्ध और जैन ग्रंथोंसे समर्थित हैं। यह की मतियां स्थापित की जाती थीं। यह तो नहीं कहा अनुमान किया जा सकता है कि कणिक नामवारी जा सकता कि इन देवकलोमे स्थापित मतियाकी च्यनिने ही अपने सामथ्र्य और प्रभुत्वके बलपर पजा होती थी कि नहीं, पर इतना अवश्य ज्ञात हा अजातशत्रकी उपाधि ग्रहण की हा। मका है कि राजाकी मृत्युके पश्चात ही उसकी नन्दिवर्धनका वंशगत धर्म जैनधर्म था। हाथी मतिका निर्माण होता था और वह देवकुलमे रखी
। गुफाक लग्बमें 'लिगजिन मगध ले जानका उल्लेग्य' जाती थी। एक घटना मिलती है कि कुमार भरतको
इस कथन की पुष्टि करता है । चन्द्रगुप्त मौर्यसे पूर्व महाराज दशरथकी मृत्युकी प्रथम मचना देवकलमें
नन्द समस्त उत्तर भारतका एकछत्र सम्राट था। ही मिली थी जहां उन्होंन अन्य पृवजोक माथ उसकी शक्ति और सनाक आतंकस ही सिकन्दरको महाराज दशरथकी मति भी देवी । दवकुलांक प्रवकी ओर बढ़नके अपने निश्चयको बदलकर वाअस्तित्वक तिहासिक प्रमाण मथुरा प्रान्तस प्रान पम लौटना पड़ा था। कषाणवंशी राजाओंकी मतियों तथा परखम और हम यहां महिंजीदगे, हड़प्पा तथा सिधु-सभ्यता पटनाकी अजातशत्र और नन्दिवर्धनकी मतियांम के अन्य केन्द्रोंक संबन्धमे चर्चा नहीं करेंगे मिलते है।
क्योंकि वहांके. धमके बारमे पुरातत्त्व-विनअजानशत्र और नन्दिवधनकी मतियांक अभी तक किसी निणयपर नहीं पहुंच सके है। पर संबंध विद्वानाम मतभेद है। ये किसकी मूप्तियां उम संस्कृतिपर भी जैन प्रभाव लक्षित होता है।
एतिहामिक भारतकी मृतिकलापर दृष्टिपात कविद्वानोन भिन्न भिन्न प्रकारसे विचार किया है और रनेपर हम दग्यत है कि वैदिक देवताओं तथा राम उनके निर्णय भी भिन्न है। कुछ भी हो, मृतिके कृष्णा आदिकी मृति हमें उतनी प्राचीन नहीं मिलती रोबीले आकार, उच्चकाय, शैलीकी प्राचीनता और जितनीकि जैनतीथकरों और बद्ध तथा बोधिसत्वाअडित लिपि तथा नामोल्लेबने इन्हें उन्हीं महान की मिलनी हैं। 'कौन मेरे इन्टको खरीदेगा' इस वा. मम्राटोंकी मूर्ति मानना ही पड़ेगा जिन्होंने लगातार क्यमे यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि वैदिक
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ऐतिहासिक भारतकी आय मूर्तियां
युगमें इन्द्रकी मूर्तियां बनती थीं । रुद्र या शिवके डा० हेफल्डने भी गांधारकलाको यूनानी-बेक्ट्रियन वैदिक या प्राय देवता न होने में तो किसी संशयकी साम्राज्यके शताब्दियों पश्चास्का माना है। आवश्यकता ही नहीं।
एक बुद्धमूर्तिपर ३१८ वर्ष अंकित है। अनुमान ____ अब हमें देखना यह है कि आध मूर्ति-निर्माण किया जा सकता है कि सेल्यूकसका संवत् होगा। में किसे प्रथम स्थान प्राप्त है जैन तीर्थकरोंको या जिसके अनुसार मूर्तिका समय ६ ईस्वी होगा। इसबुद्ध और बोधिमत्वोंको । सर्वप्रथम हम बुद्धकी प्रकार गांधारकला मधुराकलासे पूर्वकी प्रतीत होती प्रथममतिके निर्माणकं सम्बन्धमे विचार करेंगे। है। लेकिन भावुकताके वश होकर कई लोग ऐसा भी बुद्धनिवाणके शताब्दियों पश्चात् तक बुद्धकी मर्ति मोचने लगते है कि बुद्धकी प्रथम मूर्ति भारतीयों बनानेका एक प्रकारसे निषध ही रहा, बोधिवृक्ष द्वारा ही बनाई गई होगी। धर्मचक्र, छत्र, वामन, स्तूप आदि चिन्हांसे सिक्कोंपर भी हमें बुद्धकी मूर्ति प्राप्त हुई है। ही बुद्धको लक्षित कराया जाता था । बाध गया, भ- कनिष्कके सिक्कोंपर तो वह स्पष्ट Bodds या बुद्ध रहत और मांचीकी ईस्वी पूर्व २री और ३री शती
नामसे अभिलिखित भी है। लेकिन कनिष्फमे पर्वके
- की कलामे कही भी बुद्धको मति नहों पाई जाती। इसके
गजा मोग और कुजल कडफिमसके सिक्कांपर भी बाद गांधार और मथुराम बुद्ध मूर्तियोंका निमोण
बुद्धमूर्ति दग्वी जाती है। होना प्रारम्भ हुआ। इस बीच अवश्य कोई ऐसा
महाराज मोगका एक सिक्का है जिसमें एकघटना हुई होगी जिमने बुद्धमूर्तिक निर्माणको प्रो.
ओर सूडमें माला लिए दौड़ता हुआ हाथी और त्माहन दिया। मथुरा की बनी मूर्तियांको ना किमीन भी
दूसरी ओर सिंहासन या चौकीपर पालथीमारे कोई इस्वी प्रथम नदी पृषकी नहीं माना है। उनका मम
व्यक्ति बैठा है। इसे राजाकी मूर्ति नहीं कहा जा य कुपाणवंशी महाराज हुविष्फ(२री शती)का राज्य
मकता, जिस वस्तुको तलवार कहा जाता है वह काल हो सकता है क्योंकि हम जानते है कि मथुरा
बास्तवमें तलवार नहीं है। हम जानते है कि शकोंके की कलाप्रवृत्तियों में हुविष्कका विशेष महयोग रहा
अम्त्र भाले और धनष थे न कि तलवार । सिक्केक है। कई विद्वान मथुराको कलापर गाधार प्रभाव
दोनों ओरका मिलान कर देनेपर यह निष्कर्ष भी मानते है । डा. बचफर दोनों शैलियांको स्वतन्त्र
निकला कि पद्मासन-अवस्थित बुद्धको माला और मौलिक मानते है। गांधार कला ईसाका प्रथम
अर्पित करनेके लिए हाथी दौड़ा आ रहा है। शतीम और मथुरा कला कनिष्ककं मथुराको अधि
कुजूल कडफिममके मिक्केपर सामने बैठे हुए बुद्धकृत करनेके ठीक बाद ही। दूसरे विद्वान मथराकी
, की मृति अंकित है। मूतिको गांधारमतिसे एक शती उत्तरकी मानत है ।। डाक्टर हुठल्यू कोन भी मथराकी मूर्तिको स्वतन्त्र इन प्रमाणांस हम इस निणयपर पहुंचे कि राजा मानते है । स्वर्गीय डा० कुमार स्वामीका भी ऐसा हा मोगक गान्धार विजयके पूर्व हो गांधारमें बुद्धमूर्तिका मत है। सन १६३१ में उन्होंने लिखा था कि गांधार प्रचार हो चला था। कोई भी राजा विजयक बुद्धमूर्ति ईस्वी सन्के उत्तरकी ही होना चाहिए और पश्चात विजित देशकी प्रजाको यह जतानके लिये कि उसमे भी एक शती उत्तरकी मथराकी मर्ति। डा०स्टेन मै तुम्हारा हूं वहांकी सभ्यता मंस्कृति तथा अन्य कोनोका मत है कि गांधार शैली कुपाणयुगमे ही प्रा- चिन्होंको स्वीकृत कर लेता है। महाराजा मोगने भी रंभ हुई थी अर्थात् उस समय जब भारतमें यूनानी ठीक उसीप्रकार शिव और बुद्धको अपने सिक्कोंपर प्रभाव हर प्रकारमं नष्ट हो चुका था । इमीप्रकार अंकित किया । महाराजा मांगने गांधारप्रदेशको ७०
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११६
अनेकान्त
[वष १०
__ दम प्रकार गांधार मूतिका कमन्सन्कम
(३ )पटना
वीपर्व ३री शनी
इस्त्रीमें विजित किया।
(२) ईम्वी पूर्व दृमरी शतीकी लिपिमें अभिइम प्रकार गांधार मूर्तिका कम-से-कम प्रथम शती लिखिन मृति-मथुरासे प्राप्त । ई० पूर्वका प्रारम्भ होना ही चाहिए और वह मथु
(३)पटना संग्रहालयमें प्रदशित मौयकालीन राके बुद्धसं कम-से-कम एक शती प्राचीन है।
पालिसयुक्त नग्न तीर्थकरमूर्ति ( ईस्वीपर्व ३री शती ।
(४) हाथी गुफा लेखमे उल्लिखित कलिंग आद्य बुद्धमतिका समय हम जान चुक इसा जिनकी मर्ति, जिसे नन्द अपने माथ मगध लगया पर्वकी पहली शती है । लेकिन यदि हम जैन-नि- था और फिर ग्यारवल वापस लाया था (ईम्वी पृव । निर्माण को देखे तो वह इमम कई शताब्दी पूर्व थी शती)। तककी मिलेगी।
इस प्रकार एतिहामिक भारतकी अबतककी बात (१) कुशाणवशी राजाओंक कालकी मथुगम मृतिकलामे ममयकी दृष्टिम जैन नीथकगेको प्रथम प्रान ( ईस्वा शती प्रथम)।
स्थान प्राप्त है।
वर्णी बापू। (रचियत्री सौ. चमेलीदेवी जैन, हिन्दीरत्न)
- - वर्णी बापू ! तुम समाजके महा प्रतिष्ठित मानव हो।
करने को कल्याण सबों का इन्द्रप्रस्थ में आये हो ।। धन्य मान वह धन्य तात वह जिनने तुम्हे जनाया है।
धन्य देश वह धन्य ग्राम वह जहां जन्म तुम पाया है।। मात चिरोंजा-उजियारीके, हीगपूत कहाये हो।
ग्राम हंसेरा झांमी मे जनि, जग आनन्द बढ़ाये हो ।। आश्विन वदि की पृत चौथ को, मान-पिता हर्षाये हो।
दिया बड़ों ने आशिष तुमको, धर्मवीर कहलाये हो। वैष्णव कुल मे जन्म लिया पर, जैनधर्म तुम पाया है।
मात चिरोजा ने पाकर तुमको विद्वद्ररत्न बनाया है. ।। बाबा भागीरथकी संगति से चारित्र बढ़ाया है।
श्रद्धा-ज्ञान-चरित्र-त्रयीका, उत्तम पथ तुम पाया है । लोक-जाति-उत्थान करण को, अपना ध्येय बनाया है।
___ व्याप्त हुआ अज्ञान तिमिरिको, तुमने ही तो हटाया है ।। खोले गुरुकुल खोली शाला, विद्यालय बहु खोले है।
घूम घूम कर तुमने सबको, ज्ञान महत्व बताया है।। फैल रही थीं रूढ़ि-रीतियां उन्हें तम्हों ने भगाया है।
दे उपदेश मधुर-वाणी का, पान तुम्हीं ने कराया है ।।
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किरण ३]
वीजी और उनकी जयन्तो
११७
हिन्द-मैन्यकी रक्षा करने, चादर तुम दे डाली हो।
कम-वीर कमठ जन-नायक, महा मान्य कहलाय हो ।। श्रावकके ग्यारह दरजे चढ़कर भुल्लक पद तुम पाये हो ।
मंघ महिन कल्याण मार्गमे मतत लगे औ लगाये हो ।। तुच्छ भेट भावोंको लेकर चरणों शीप झकाये हो।
करनेको कल्याण मबोंका इन्द्रप्रस्थमे आये हो।। नोट --वर्णी जयन्तिके उपलक्ष्य में यह कविता रची गई।
वर्णाजी और उनकी जयन्ती
श्राजके आध्यात्मिक संसारम श्री १०५ आनन्दकं संवादमे एक उल्लेखनीय प्रश्नोत्तर वल्लक पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचायका आया है। यानन्दन' बुद्धमे प्रश्न किया कि अग्र-स्थान है । आश्विन कृवाण ४ वीरनिवागग- “महापुरुप किम कहत है और उसका क्या लक्षण मंवत २१७५, ११ मितम्बर १९४६ को दहलीमे है" बद्धने उत्तर दिया कि "जो लोकापवादस
आपका ७५ वां जन्म-दिवम बड़ी धूमधामक माथ नही डरता है, मत्यका अनुयायी है, अपार करणामनाया गया । आपके व्यक्तित्व और वाणीम कितना का आगार है और जगतका कल्याण करनेके लिये प्रभाव एवं आकर्षण है वह इमीन मालूम हो मत यह भावना भाता है कि 'मै जगतका हित जाना है कि आपके उपदशमं ममाजन लाखों करनक लिय बद्ध बन''--'बुद्धा भवयं जगता रुपयोका दान किया है और अनेक विद्यालय, हिताय'। वह महापाप है।" यही बातें पूज्य गुरुकुल तथा पाठशालाएं स्थापित की है। हालमे वर्णीजीम पाई जाती है। आपके जन्म-दनपर भी महामना दानवीर मठ
लोकापवादपर विजय शान्तिप्रसादजी जैन डालमियानगग्ने आपके
कोई पच्चीम-तीस वर्ष पहलेकी बान है। दाग संस्थापित म्याद्वादमहाविद्यालय बनारमके
पूज्य वजीन ममाज-सुधारका एक आन्दोलन यह लिये एक लाम्बका उल्लेखनीय महत्वपूण दान
उठाया कि विवाहम-बरात और फैनागेमे औरते किया है। इमी प्रकार दहली ममाजके प्रमुग्ब और
न जाये, क्योंकि यह एक अच्छी प्रथा नहीं है और वर्णीसंघको उत्तरप्रान्तमे लानबालीम अग्रणी
उममे व्यथ अपव्यय होता है । परन्तु वर्णीजीक ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैनन भी छात्रवृत्तिफंडके
मदभावनापा इम आन्दोलनके विरुद्ध नीमटो. लिये क्यावन हजारका आदर्श दान दिया है।
रिया (झांमी)मे एक बगतमे औरने गई। जब वर्गीहमारे कितने ही जिज्ञासु पाठकोंके हृदयमे
जीको मालम हुआ ना व वहां पहुंचे और सारी यह जिज्ञामा होगी कि वर्गीजी क्या है ? और औरतोंको वापिम कगया। इमकी औरतीक चिनक्यों उनका इतना प्रभाव है?
पर बुरी प्रतिक्रिया हुई। उन्होंने विवेक बोकर वर्णी___ इसका एक ही उत्तर है और वह यह कि
जीको भारी गालियां दी, भला-बुरा कहा और खूब पूज्य वर्णीजी महा मानव है। जिन विशेषताओं
कोसा। किन्तु वर्णीजीके मनपर उसका कोई असर और बातांस मानवको महा मानव कहा जाता है वे सब विशेषता और बाते पूज्य वीजीमें पाई १ अानन्द महात्मा बुद्धका प्रिय बार प्रधान जाती है । बौद्धोंक एक प्राचीन ग्रन्थमे बुद्ध और शिष्य था।
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१५८
अनेकान्त
[वर्ष १०
नहीं हुआ-उनके दिलमे रत्ती भर भी कोच या रोपकी
सत्यानुसरण मात्रा उदित नहीं हई। परिणाम यह हुआ कि कुछ ममय बाद उन औरतीन अपन किये पर बड़ा
___ पूज्य वर्णीजी वैष्णव कुलमें उत्पन्न हुए है, किंतु पश्चात्ताप किया और गलती महसूस की । आज
उन्होंन अमढष्टि और परीक्षकबुद्धिम जैनधर्मको
आत्मधर्म एवं मत्यधर्म मान कर उसे अपनाया है। फलत. मारे बुन्देलखण्डम बगतामे औरतोका
उनका विवेक और श्रद्धा कितनी जागृत और सलझी जाना प्रायः सवथा बन्द होगया है।
हुई है, यह बात एक निम्न घटनाम मालम होजाती अभी उस दिन कुछ गुमराह भाइयोंन एक परचा
है। पिछले दिनों जब वर्णीजो महारनपुर पहुँचे ना निकाला और उसमे पज्य वीजीका प्रजातियांका
वहां एक विशाल सार्वजनिक मभाम उपदंश करते हामी (समर्थक) बनलाया। जब यह बात वर्णीजी को मालम हुई तो व हमकर मौम्य भाषाम बोले
हुए उनसे एक अजैन भाईन प्रश्न किया कि जिन विशे
षताओंके कारण आपने जैनधर्म ग्रहण किया है क्या 'भइया । मै तो त्यागी है और त्यागका ही उपदेश
व विशपता आपको हिन्द धर्ममे नहीं मिलीं।' देकर सबको त्यागी बनाता है। पूजीपतियास भी
वर्गाजीन इम उत्तरमे कहा कि जितना मूक्ष्म और पृ'जीका त्याग कराना चाहता है और उन्हें त्यागी बनाना चाहता है । यह कितना मधुर और मात्विक
विशद विचार तथा आचार हम जैनधर्ममे मिला है उत्तर उन भाइयों को दिया। वास्तवम वर्णीजीको क्या
उतना पड्दर्शनामेम किमीम भी नहीं मिला।'
यदि हो तो बनलायें, मै आज ही उम धमेको स्वीकार पूजीपति क्या अपूजीपति, क्या विद्वान क्या मख,
करल। परन्तु मैंने सब दशक आचार-विचागेक्या स्त्री क्या पुरुप, क्या बालक क्या वृद्ध मभासे
को गहराईम दवा और जाता है मुझे ना एक भी अपार वात्सल्य और धमानुगग है। वे सबका कल्याण चाहते है और समान भावस मबको उपदेश
दर्शनमे जैनधर्ममें वर्णित अहिंसा और अपरिग्रहका दत है। गांधीजीके लिये विडला जैम व्यक्ति नह
अद्वितीय एवं सक्ष्म आचार-विचार नहीं मिला
इसीस मैन जनधर्म स्वीकार किया है। यदि मारी पात्र थे, तो इसका मतलब यह नहीं कि व गरीबाकी उपेक्षा करते थे, उनपर स्नेह नही करत थे । मच
दुनिया जैनधर्म स्वीकार करले तो एक भी लड़ाईबात तो यह है कि उनका ममचा जीवन ही गरीबो
झगड़ान हो । जितने भा लड़ाई-झगड़े हात है व हिमा की मवा और उनकी गरीबी दर करनम बीता है।
और परिग्रहको लेकर ही हात है। समारमं मुख उन्हें अमीर और गरीब दोनोपर स्नेह और प्रेम था।
और शान्ति तभी हो सकती है जब अहिमा और अप
ग्ग्रिहका आचार-विचार मर्वत्र हाजाय।' यह है पृज्य यहा बात पज्य वर्णीजीम है । हमे बुन्दलग्बण्डका स्वय अनुभव है । वहा गरीबोंका जितना हित और
वर्गीजीका विवक और श्रद्धापूर्वक किया गया मत्या
नुसरण । म्वामी ममन्तभद्रन आनकी परीक्षा करक मेवा पृज्य वीजीन की है उतनी दृमगेन नहीं की। उन्होंने गरीब विद्यार्थियों, उयोगहीनों और निराश्रि
उन्हें अपना उपाम्य माना है । वास्तवम परीक्षकम तोंकी मतन महायता की और कराई है। अब तो व
दा गुण हात है. श्रद्धा गुणज्ञता (विवेक)। इन मारे भारतकी विभूति बन गये है। और प्राणिमात्र
दोक बिना परीक्षक नहीं है। मकता है। पूज्य के कल्यागामे उद्यत है। उनका अपार वात्मल्यभाव
वर्णीजीम हम दोनों गुण दग्वत है और इमलिय और मन्दकषायभाव अतुलनीय एवं अचिन्तनीय
म बुद्ध के शब्दोंम उन्हे 'सत्यका अनुयायी' पात है । है। लोकापवादकी एमी-नी अनेक घटना उनपर
अपार करुणा घटित हुई हैं पर व उनपर विजयी हुए और उनम पृज्य वर्णीजी कितने काणिक और पर-दुःग्य- . डरे नहीं।
कातर है यह उनकी जीवनव्यापी अनेक घटना
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किरण ३]
वर्णीजी और उनकी जयन्तो
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आंसे प्रकट है। उनकी करुणाकी न सीमा है, और हरेक अवसरपर प्राणिमात्रको अपना आत्मन पार है । जो अहिंसक और सन्मार्गगामी है उन- कल्याण करनेके लिये वे प्रेरणा करते है और अपना पर उनका वात्म ल्यभावरहता ही है किन्तु जो ममस्पशी उपदश देत है। विहारप्रान्तसे मध्यप्रांत. अहिंसक और सन्मागंगामी नहीं हैं-हिमक तथा '
यू० पी० और दहली तक पैदल यात्रा करके जा कुमार्गगामी है उनपर भी उनकी करुणाका प्रवाह
उन्होंन लाग्बों व्यक्तियोंको धर्मोपदेश किया है और मविशप वहा करता है। वे देशके ही नहीं।
उन्हें सदाचारक मार्गमे लगाया है वह उनकी जगमारी दुनियाके किसी भी व्यक्निको द खी देख कर कल्याणकी भावनाका ही सुफल है। आज जब एक दुःख-कातर हो जाते है, उसके दुखःमाचनकी भा- जगहसे दूसरी जगह जानेके लिये अनेक माधन है वना करने लगते है। गत विश्वयुद्धकी विनाशपूर्ण
उम समय उन्हान पैदल चलकर भारतीय प्राचीन खबरको सुनकर उन्हें मर्मान्तक दु:ग्य होता था
मन्तांका ही आदर्श उपस्थित किया है। इतिऔर उनकी करुणाका प्रवाह वहने लगता था। मन
हासमे यह उल्लेखनीय इतनी लम्बो पैदल यात्रा और ४५ मे जब आजाद-हिन्द-फौजक मंनिकांके विरुद्ध
ने भी की हो, यह ज्ञात नहीं। पर पृज्य वर्णीजीको गजद्रोहका अभियोग लगाया गया और उन्हें फांसी
यह लम्बी पैदल-यात्रा इतिहाममे सदा स्मरणीय के तस्तपर चढ़ाया जाने वाला था उस समय मार
रहगी। माथमे उनकी यह जगत्कल्याण की भावना
भी। आज विश्वको त्रम्त देखकर वे हमेशा कहा दशम मरकारके इस कार्यका विरोध हो रहा था और उनकी रक्षाक लिये धन इकट्ठा किया जा रहा
करते है कि 'एक हवाईजहाज लो, और माथम था। जबलपुरम एक मावनिक सभाम, जो इमी
दस-पन्द्रह मर्मत विद्वानांको और यरोपमे जाकर लिय की गई थी, पृज्य वर्गीजीका हृदय करुणाम
अहिंसा और अपरिग्रह धमका प्रचार करो। माथम भर आया और बोले--जिनकी रक्षाक लिये ४० करोड़
हम भी चलने को तैयार है । जहां शगव और मांम मानव प्रयत्नशील है उन्हें कोई शक्ति फांसीके
की दुकान है और नाचघर बने हुए है वहां जा तन्तपर नहीं चढ़ा सकती। आप विश्वास रखिये,
कर मदाचार और अहिंसाका उपदेश करो। आज मग अन्त करण कहता है कि आजाद-हिन्द-मैनिको
लोगोंका कितना भारी पतन हो रहा है। देशके लाग्यां
मानवोंका चरित्र बिगड़ रहा है उन्हें मचा मार्ग का बाल भी बांका नहीं हो सकता है।' इतना कहा और अपनी चादर भी उनकी सहायताक लिये
दिखाओ।' यह है पूज्य वर्गीजीकी जगत्कल्याणकी द डाली जिसका उपस्थित जनता और अध्यक्ष मध्य
भावना और हार्दिक ममम्पर्शी उपदेश । प्रान्तकं गृहमन्त्री पं० द्वारकाप्रसाद मिश्रपर बड़ा प्रज्य वर्णीजीम एम-एस अनक गुण है जिनही प्रभाव पड़ा। कहनका तात्पर्य यह कि पूज्य वर्णी- का यहां उल्लेख करना शक्य नहीं है। पंक्षपम. जीका हृदय करुणास भरा हुआ है और इसलिये उनका जीवनचरित्र महापुरुपका जीवनचरित्र है व करुणाके आगार है। वास्तवमै जिमका हृदय और इसलिये उन्हें करोड़ों नर-नारी महान् मन्त इम प्रकारकी करुणास भरा हुआ होता है वही एवं महापुरुप मानते है और अपनी श्रद्धाञ्जलि उनक अपार्यावचय धर्म यानका चिन्तवन कर पात है चरणोंमे अपित करत है। हम भी उनके चरणमि और वही तीर्थकर (जनताद्धारक) बनते है। अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते है। और भावना जगन्कल्याणकी सतत भावना
करत है कि वे चिरकाल तक हम लोगोंक मध्यम पज्य वर्णीजीम अपार करुणाके मिवाय जग
रहकर हम श्रात्मकल्याणकं मागेम लगाते रहे। स्कल्याणकी भी मतत भावना रहती है। हर समय
-दरबारीलाल कोठिया।
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साहित्य परिचय और समालोचन
[हम स्तम्भमें समालोचनार्थ आये नये ग्रन्यादि साहित्यका परिचय और समालोचन किया जाता है । समालोचनाक लिये प्रत्येक ग्रन्थादिकी दो-दो प्रतियां प्राना जरूरी है।
-सम्पादक ] आमर-शास्त्रभण्डार जयपुरकी ग्रन्थ-सूची-म- और एक वदीपरका मोनका कार्य दोनों ही दर्शनीय म्पादक पं० कस्तूरचन्द्रजी शास्त्री एम० ए०, प्रकाश- है। इसी मन्दिरमे भट्टारक महेन्द्रकीनिका उक्त शाक रामचन्द्रजी-खिन्दका मत्री श्रीदि जैन महावीर स्त्रभंडार है जिसे मैने सन् ५४ में देखा था और नीर्थक्षेत्र कमेटी महावीरपार्करोड, जयपुर । पृष्ठ- जिमके मब ग्रन्थोंको महावीरतीर्थक्षेत्रकमेटीके मंसंख्या २१८. मृल्य पांच रुपया।
त्री और पं० चैनमुम्बदामजीकं मौजन्यसे आमेरम प्रस्तुत ग्रन्थका विषय उसके नाम म्पष्ट है- लाकर जयपुर मंठ बधीचन्दजीकं मकानके एक कइममे भारकमहेन्द्रकीति-आमरशास्त्र-भंडारके मम्मे रकवा थे। उन्हींपरम तथा अतिशयक्षेत्र हलिग्वित ८०० तथा महावीरक्षत्रभंडारकं ३०० महावीरजीक शास्त्रमण्डार ग्रन्थोंपर ही इस ग्रन्थोंकी मचीका संग्रह किया गया है। प्राचीन समय- सचीका निर्माण किया गया है । यद्यपि इम में आमरको जयपर गज्यकी राजधानी बननेका भी
नका भा सूचीमे ग्वटकने योग्य त्रुटियाँ है परन्तु फिर भी मकी
। मौभाग्य प्राप्त हुआ था; परन्तु खेद है कि आज वह हावीरतीयत्रकमटीकी औरमे माहित्य प्रकाशनअनक जीर्ण-शीर्ण खंडहरोंको लिये हुए कालकी विचित्र का यह कार्य अभिनन्दनीय है। परिणतिकी और संकेत कररहा है। यह नगर पहाड़ों मचीमे उल्लिवित अपभ्रंश भापाका जो भी अकी त्रिकोणमे नीचे जयपुरमे ७ मीलकी दूरीपर वमा प्रकाशित साहित्य है कमटीको चाहिये कि वह उसे हा है। अनेक बडी-बड़ी अद्रालिका धराशायी पड़ी प्रकाशित करनका शीध्र प्रयत्न कर, जिमम अपभ्रंश है और व खंडहर नगरकी प्राचीनताक मद्योतक तथा- भाषा उत्थान-पतन इतिवृत्त लिम्वनमें सहायता उत्थान-पतनक स्पष्ट प्रतीक है । यहाका किला भी मिल सके । साथ ही, हिन्दीकी जननी देशी-भापाका. कलाकी दृष्टिम बड़े महत्वका है। यहां कई जैनमन्दिर जिसे 'अवहद या अपभ्रश कहा जाता है, प्रामाणिक
और एक शियां जी भी है। उन सब मन्दिरोंमे एक इतिहास जनताक मामन आसके । सूचीकी सफाई मन्दिर प्रमुख है जो जैनियोंके वाईमवे तीर्थकर भग- माधारगा है परन्तु मूल्य ५) रुपया कुछ अधिक प्रवान नेमिनाथका है जिसे 'मांवला' जीके नाममे पका- तोत होता है। पुस्तक अन्वषक विद्वानोंके बड़े रा जाता है । इम मन्दिरकी भीतरी शिम्बरका भाग कामकी है।
-परमानन्द जैन ।
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वीरसेवामन्दिरको विशेष बैठक २ अक्तूबर को जैनमन्दिर न्यू देहनीमें वीरसेवामन्दिरकी श्री १०५ पुल्लक पूज्य गोराप्रसादजी पर्दा न्यावाचार्यकी अध्यपतामें एक विशेष बैठक बुलाई गई थी, जिसमें बाल छोटेलालजी जैन कलकत्ता, बा.कपूरचन्दजी कानपुर. पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार अधिष्ठाता वीरसेवामन्दिर, मा. जयभगवानजी वकील पानीपत, सा. जुगलकिशोरजी कागजी देहली, पं०वंशीधरजी व्याकरणाचार्य बीना, पं० राजेन्द्रकुमारजी जैन न्यायतीर्थ देहली, मा. रघुवीरसिंह प्रेमचन्दजी देहली, रायसाहब सा. उल्फतरायजी देहली, ता. पन्नालालजी अग्रवाल देहखी, सेठ बैजनाथजी सरावगी कलकत्ता, ला. श्यामलालजी न्यू देहली, लाप्रेमचन्दजी देहली, पं.दरबारीलाबजी कोठियान्यायाचार्य देहली, पं परमानन्दजो शास्त्री देहली, श्रीवालचन्दजी एम० ए. शास्त्री देहली भादि महानुभाव उपस्थित थे। बैठकमें अनेक महत्वपूर्ण विषयोंपर विचार हुमा और वीरसेवामन्दिरकी प्रबन्धसमिति तथा कार्यसमितिके सदस्योंका नया चुनाव हुआ जिसका विशेष विवरण अगले अंकों प्रकाशित होगा।
-मंवाददाता सिद्धचक्रविधान भेंट हाल में हमने विधि और मन्नादि सहित सिन्चऋषिधान प्रकाशित कराया है जिन मन्दिरोंके लिये उसकी जहरत होवे लिखकर हमसे मंगा लेवें ।
--ला रघुवीरसिंह प्रेमचन्द जैन,
जैनावाच कम्पनी, सदर बाधार, देहली वीरसेवामन्दिरको प्राप्त सहायता ४) जैन पंचायत किशनगढ़ (जयपुर)।
अनेकान्तकी गत किरण श्में प्रकाशित सहायताके बाद वीरसेवामन्दिरको जो सहायता प्राप्त हुई है वह क्रमशः निम्न प्रकार है और उसके लिये दातार अनकान्तका प्राप्त सहायता
अनेकान्तको प्राप्त सहायता महानुभाव धन्यवाद के पात्र
। गत किरण नं० ११-१२, वर्ष १ में प्रकाशित १११) पं० सागरचन्दजी जैन, धर्मपुरा, देहली सहायताके बाद अनेकान्तको जो सहायता प्राप्त हुई १००) बा. सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन. कलकत्ता है वह निम्न प्रकार है और उसके लिये दातार महा
(बा. नरेन्द्रनाथकी अस्वस्थताके कारण निकाले नभाव धन्यवादके पात्र हैं:
हुए दानमेंसे वीरसेवामन्दिर प्रन्थमाला को)।। ५) श्री सेठ गेंदीलालजी गंगवाल जयपुर, पुत्र विवा. ५) मुन्शी सुमेरचन्दजी जैन अरायजनवीस होपलक्ष्यमें माफेत पं० भँवरलालजी शास्त्री।
देहली (माताजीके स्वर्गवासके अवसरपर नि- २) श्रीमंगतरामजी साधु बुलन्दशहर पौत्री विवाकाले हुए दानमेंसे)।
होपलक्ष्यमें। ११) १०मक्खनलालजी जैन (प्रचारक) देहली। ११) श्रीमाणिकचन्दजी गाँधी फल्टण (सतारा) ११३) दिगम्बर जैनसमाज मुरादाबाद, माफेत ५० स्व. श्री १०५ दुल्लक वीरसागरजी (वीरचंद
दरबारीलालजी कोठिया न्यायाचायेके मयस- कोदरजी गाँधी) के स्वर्गवास पर। फर खर्च १२) के
| ११) ला० बनवारीलालजी जैन, मुहल्ला इमली, ५०) सेठ जगन्नाथजी जैन पांड्या माइकामाइन्स
श्रोनर भूमरीतलैया (हजारीबाग), माफेत नह) 40 गोविन्दराम जैन न्यायतीर्थ ।
व्यवस्थापक 'भनेकान्त'
३६४)
अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर"
देहली।
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Regd. No. D. 397
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हमारे सुरुचिपूर्ण प्रकाशन स१. अनित्य-भावना-मा. पन्ननन्दिकृत भावपूवं ।। ६. उमास्वामिश्रावकाचारपरीक्षा-मुख्तार श्री
और हदयमाही महत्वकी कृति, साहित्य-तपस्वी पण्डित || पं.जुगलकिशोरद्वारा लिखित प्रन्य-परीक्षाओंका इतिहाजुगलकिशोर मुख्तारके हिन्दी-पद्यानुवाद और भावार्य स-सहित प्रथम अंश । मूल्य पार पाना। सहित । मूल्य चार माना।
७. विवाह-समुददेश्य-पंडित जुगलकिशोर - २. आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थसूत्र-सरमा
मुल्तारद्वारा रचित विवाहके रहस्यको बतलानेवाली मषित भया सूत्र-ग्रन्थ, पं. जुगलकिशोर मुख्तारकी और विवाहोंके अवसरपर वितरण करने योग्य सुन्दर सुबोध हिन्दी-म्याख्यासहित । मूल्य चार माना। कृति । मूल्य पाठ माना।
३. न्याय-दीपिका-(महत्वका सर्वप्रिय संस्कसरण)अभिनव धर्मभूषण विरचित न्याय-विषयको
नये प्रकाशन सुबोध प्राथमिक रचना। न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल
१. आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीकासहित-( अनेक काठयाद्वारा सम्पादित, हिन्दी-अनवाद, विस्तृत ( विशेषताओंसे विशिष्ट महत्वपूर्ण अभिनव संस्करण)" पृष्ठकी) प्रस्तावना, प्राक्थन, परिशिष्टादिसे विशिष्ट,
तार्किकशिरोमणि विद्यानन्दस्वामि-विरचित प्राप्तविषय४.० पृष्ठ प्रमाण, वागत मूल्य पाँच रुपया। विद्वानों,
की अद्वितीय रचना, न्यायाचार्य पण्डित दरबारीखाल छात्रों और स्वाध्याय-प्रेमियोंने इस संस्करणको बहुत
| कोठियाद्वारा प्राचीन प्रतियोंपरसे संशोधित और सम्पपसन्द किया है। इसकी थोदो ही प्रतियाँ शेष रही हैं। दित, हिन्दी-अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना, और अनेक सीनता करें। फिर न मिलनेपर पछताना पड़ेगा। परिशिष्टोंस अलङ्कत पेजी साइज, लगभग
४.सत्साधुस्मरणमङ्गलपाठ-श्वभूतपूर्व सुन्दर । भार विशिष्ट सखन, सालयिता पंडित जगलो चार-पा पृष्ठ प्रमाण, लागत मूल्य थाठ रुपया। यह मुख्तार । भगवान महावीरसे लेकर जिनसेनाचार्य
। संस्करण शीघ्र प्रकाशित होरहा है। बाइंडिंग शेष है। पर्यन्तणे २१ महान् जैनाचार्योंके प्रभावक गुणस्मरणोंसे
श्रीपुरपार्श्वनाथ-स्तोत्र-उक्र विद्यानन्दाचार
भापुर युक । मूल्य पाठ पाना।
विरचित महरदका स्तोत्र, हिन्दी-अनुवाद तथा प्रस्ता५. अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पजाध्यायी तथा । बनादि सहित । सम्पादक-न्यायाचार्य पण्डित दरबारीबाटीसंहिता आदि प्रन्योंके रचयिता पंडित राजमल लाल कोठिया । मूल्य बारह श्राना। विरचित अपूर्व माध्यात्मिक कृति, न्यायाचार्य पंडित ३. शासनचतुस्त्रिशिका-विरामकी १३ चाँ दरबारीलाल कोठिया और पं. परमानन्द शास्त्रीकेशालदीक विहान् मुनि मदनीति विरचित तीथसरल हिन्दी-अनुवादादिसहित तथा मुख्तार पंडित परिचयात्मक एतिहासिक अपूर्व रचना, हिन्दी अनुवादजुगलकिशोरद्वारा लिखित विस्तृत प्रस्तावनासे विशिष्ट । सहित । सम्पादफ-न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाल : ५.मूल्य वेद रूपया
कोठिया। मृल्य बारह थाना ।
*秋天秋天教我共款六次國
व्यवस्थापक-धीरसवामन्दिर,
७/३३ दरियागंज, देहली।
प्रकाशक- परमानन्द जैन शास्त्री, वीरसेवामंदिर ७/३३ दरियागंज देहली, मुद्रक-अजितकुमार जैन शास्त्रों,
अकलंकप्रेम, सहरबाजार, देहली।
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बनेका
कान्त
वर्ष १०]
अक्टूबर-नवम्बर, १६४६ [किरण ४-५
पम्पाट मालकिशार मुख्तार
महाबक सम्पादक दरबारीलाल न्यायाचार्य
MAHETANLankaniimaamir -a n - mur g a- man -
s inakana in sanlana . -..........
...
-
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....
-Lemmas . 17
ms
-
-~~-: विषय-मची :
६. ०...* " ५ भादतिजा शास्त्राधी बी ....
र केलामचन्दना शास्त्री
[सासभादन, म.प. ५, आखिर यह मद माडा क्या?
श्री मा. अनमानपाद ६. नवपदार्थानाचय--
[. वादीमिह .... ६. सलीम्तम्भबाट लेम्ब
भावान चन्द्र म. ए. ८. यशोधरग्निक कना पानाभ कायस्थ--- 1. परमानन्द जैन, शास्त्री .... ६. आहारतंत्र प्राचीन मतिलेग्य-- मिंग्रा. पं. गोविन्दवास शास्त्री १८. सयम----
ाि श्री गणेशममादजी पर्यो ११. मोलहवीं शताब्दीके दो अपभ्रंश काव्य -- [पं० परमानन्द जैन, शाम्रो .... १. माहिन्यपरिचय और ममालोचन-- [श्री बालचन्द्र एम. ए. २३.दाममतितार्थकर जयमाल
3. महेश . १४. डा. अम्बंडकर और उनके दार्शनिक विचार [ दरबारीलाब जम, कोटिया .... १५. जीवन और विश्वके परिवर्तनोका रहस्य- [श्री अनन्तप्रसाद जैन, B.Sc., Eug.
....
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“श्रीमाताजीका वियोग! अपने और वीरसेवामन्दिरके बहुत बड़े प्रेमी श्रीमान् बाबू छोटेलालजी और बाबू नन्दलालजी जैन कलकत्ताके पत्रोंसे यह मालूम करके चित्तको बड़ा ही आघात पहुंचा कि उनकी पूज्य श्रीमाताजीका भगहन (मंगसिर) सदि एकादशी ता० १ दिसम्बर बृहस्पतिवारको रात्रिके २॥ बजे ८५-८६ वर्षकी भवस्थामें समाधिमरणपूर्वक स्वर्गवास हो गया है ! माताजी यद्यपि वृद्धावस्था आदिके कारण कुछ अर्सेसे बीमार चल रही थी परन्त अपने धर्म कर्ममें सदा सावधान रहती थी, उनकी आत्मा बड़ी बलवान थी और उन्होंने अन्तमें बड़ी ही वीरताका परिचय दिया है। आपने अपना मरण निकट समझकर ४५ दिन पहलेसे अन्नका, २०दिन पहलेसे दूधका और ७.८ दिन-पहलेसे जलका भी त्याग कर दिया था। साथ ही सब सम्बन्धियों तथा परिमहसे भी अपना मोह हटा लिया था और अपनी सारी धन-सम्पत्तिको सत्कार्योंके लिये दान कर दिया था। अन्त समय तक आप बराबर श्री जिनेन्द्रदेवका स्मरण और धर्मका श्रवण करती रही हैं। ब्रह्मचारी भगतजी और ब्रह्मचारिणी चमेलीबाईजी दानों आपको बड़ी तत्परताके साथ नित्य धर्म-श्रवण कराते थे । अन्त में श्रीबाहुबलीजीकी प्रतिमाके दर्शनाथ जिस समय
आपने अपने हाथ जोड़े उसी क्षण प्रापका प्राणपखेरू उड़ गया !! कितना सुन्दर तथा इपोके योग्य मरण है ! ऐसे सन्मरणका फल परलोकमें मद्गतिका होना अवश्ययंभावी है। आप सात पुत्रोंकी माता, बड़ी भाग्यशालिनी तथा बहुत हो सज्जनस्वभावकी महिलारत्न थीं और आपका बहुत बड़ा कुटुम्ब तथा परिवार है। सबसे एकदम मोह छोड़ कर इसतरह अपने आत्मार्थको साधना कोई कम वीरताका काम नहीं है। आपके इस वियोगसे बाबू छोटेलालजी आदिको जो भारी दुःख पहुंचा है उसकी कल्पना नहीं की जासकती। बाब छोटेलालजी भाई गुलजारीलालजी सहित अपनी चिकित्साके लिये जयपुर थे, उन्हें अन्त समयमें मातृसेवास वंचित रहना पड़ा, इसके लिये बड़ा ही खेद हुआ। आप दुःखके साथ लिखते हैं
___ "मुझे तो जितना बड़ा दुलार और स्नेह माताजीसे मिलता रहा है उस में क्या लिखू। आज मैं अपनेको सर्वहारा समझ रहा है। मेरा निरोगताके लिये वह दिवारात्रि श्रीपाश्वप्रभुसे प्रार्थना करती रहती थीं । कल संध्याको कलकत्तासे जो पर आया था उसमें भी यही लिखा था कि 'मॉजीने कहा है कि छोटेलालको लिख दो कि वह अभो न श्रावे-पूण स्वस्थता प्राप्तकर ही श्राव' और पत्रके बाद कल ही रातको उनके स्वर्गवासका तार आगया । बाबजी, मैं क्या लिख मेर हृदयपर तो बनपात-सा हो गया ! रह-रहकर उनको स्नेहमई बातें मुझे याद बारहा है। शक्तिहीन होनेपर भी मेरी बीमारीके समय मेर शरीरपर हाथ फेरती थीं और कहती थी कि बेटा, मॉका हाथ शान्ति करता है । बड़ा आश्वासन दत रहती थीं बड़ी शान्तिके साथ क्या लिब', आज ता इतना सदमा पहुंचा है कि मैं सम्हल नहीं पा रहा हूँ
समझमें नहीं आता कि बाबसाहबको इस दुःखके अवसरपर कैसे सान्त्वना दी जाय! माताजी का आदर्श देहत्याग तथा मोहका त्याग और संसारस्वरूपका विचार ही उनके हृदयमें शान्ति ला सकेगा। आपके तथा सभो कटुम्बी जनोंके इस दुःखमें मेरी तथा वीरसेवामन्दिर परिवारकी हादिर समवेदना है । और हम सबकी यही भावना है कि माताजीको परलोकमें पूर्णत: सुख-शान्ति प्राप्ति होवे।
जुगलकिशोर मुख्तार
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DOGO 4:
★ वार्षिक मूल्य ५)
AA24:C2X A
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
अ
वर्ष १० किरण ४-५
>>>>>>>>>>>>>>
नीतिविशेषसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्पन् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
ॐ श्रईम्
वीर सेवामन्दिर ( समन्तभद्राश्रम ), ७/३३ दरियागंज, देहली कार्तिक- मंगसिर, वीरनिर्वाण-संवन २४७६, विक्रम संवत् २००६
★ वीर-वन्दना ★
***000***
जीते भय,
उपसर्ग - पह
जीते, जिनने मनको मार ; पंचेन्द्रियाँ जिन्होंने
श्रौ' क्रोधादि कपायें चार । राग-द्वेष-कामादिक जीते, मोह - शत्रु के सब हथियार ; सुख-दुख जीते, उन वीरोंको नमन करूँ मैं बारम्बार ॥१॥
जीतीं
'युगवीर'
→→→→→→→
तत्त्व-संघातक
1000304:30a
★ एक किरणका मूल्य १) ★
अक्टूबरनवम्बर
१६४६
100%20ODODOC
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अनेकान्तकाद और स्व. पं. अम्बादासजी शास्त्री
[सागरमें एक कलशोत्सबके अवसरपर, जिसका प्रायोजन श्रीटीकाराम प्यारेलालजी मलैयाकी पोरसे संवत् १९७२ में हुआ था, हिन्दू विश्वविद्यालय बनारसके संस्कृत के प्रिन्सिपल श्रीमान् निखिलविद्यावारिधि पण्डित अम्बादासजी शास्त्री भी पधारे थे और उनका बड़ा शानदार स्वागत हुआ था। उस समय प्रायोजित समामें शास्त्रीजीने जैनधर्मके 'अनेकान्तवाद' पर जो अपना प्रोजस्वी मार्मिक भाषण दिया था और जिसे सुनकर अच्छे-अच्छे विद्वान् मुग्ध हो गए थे उसे वर्णीगणेशप्रसादजीने हाल ही में प्रकाशित अपनी 'मेरी जीवनगाथा' नामकी पुस्तकमें संकलित और संग्रहीत किया है। उसीपरसे अनेकान्त-पाठकोंके लिए उपयोगी समझकर उसे यहां उद्धृत किया जाता है । इससे पाठकोंको सहज ही यह मालम हो सकेगा कि जैनधर्मके 'अनेकान्त' सिद्धान्तका गहरा अध्ययन करनेवाले उच्चकोटिक निष्पक्ष विद्वान् भी उसे कितना अधिक महत्व तथा ऊंचा स्थान प्रदान करते हैं और इसलिये जैनियोंको अपने सिद्धान्तोंको अजैन विद्वानोंके परिचयमें लानेको कितनी अधिक आवश्यकता है, इसे बतलानेकी जरूरत नहीं रहती। -सम्पादक]
पदार्थ नित्यानित्यात्मक है, अन्यथा मंमार और पुण्य-पाप तथा उसके फलका सर्वथा लोप होजावेमोक्षकी व्यवस्था नहीं बन सकती, क्योंकि सर्वथा गा। कल्पना कीजिये, किसी आत्माने किसीके नित्य मानने में परिणाम नहीं बनेगा, यदि मारनेका अभिप्राय किया वह क्षणिक होनेसे नष्ट परिणाम मानोगे तो नित्य माननेमे विरोध आवेगा। होगया अन्यने हिंसा की, क्षणिक होनेके कारण हिंसा श्रोसमन्तभद्रस्वामीने लिखा है
करनेवाला भी नष्ट होगया बन्ध अन्यको होगा, 'नित्येकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते ।
क्षणिक होनसे बन्धक आत्मा नष्ट होगया फलका प्रागेव कारकाभावः क्व प्रमाण क्व तत्फलम् ॥' भोक्ता अन्य ही हुआ...इस प्रकार यह णिकत्वकी यह सिद्धान्त निविवाद है कि पदार्थ चाहे नित्य कल्प
कल्पना श्रेष्ठ नहीं, प्रत्यक्ष विरोध पाता है अतः मानो चाहे अनित्य, किसी-न-किमी रूपसे रहेगा ही।
केवल अनित्यकी कल्पना सत्य नहीं । जैसा कि यदि नित्य है तो किस अवस्थामें है ? यहाँ दो ही
कहा भी हैविकल्प हो सकते है या तो शुद्ध स्वरूप होगा या
'परिणामिनोऽप्यभावात्क्षणिकं परिणाममात्रमिति वस्तु । अशुद्ध स्वरूप होगा। यदि शुद्ध है तो सर्वदा शुद्ध तस्यामिह परलोको न स्यात्कारणेमथापि कार्य वा ॥' ही रहेगा; क्योंकि सर्वथा नित्य माना है और इस बौद्धोंकी यह मान्यता है कि 'कारणसे कार्य सर्वथा दशामें संसार-प्रक्रिया न बनगी। यदि अशुद्ध है तो भिन्न है, कारण वह कहलाता है जो पूर्व क्षणवर्ती हो, सर्वथा संसार ही रहेगा और ऐसा माननेस संसार और कार्य वह है जो उत्तरक्षणवर्ती हो। परन्तु ऐसा एवं मोक्षकी जो प्रक्रिया मानी है उसका लोप हो माननेमें सवथा कार्यकारणभाव नहीं बनता । जब जायेगा, अतः सर्वथा नित्य मानना अनभवके प्रति कि कारण सर्वथा नाश होजाता है तब कार्यकी
उत्पत्तिमें उसका ऐसा कौन-सा अंश शेष रह जाता यदि सर्वथा अनित्य है ऐसा माना जाय तो जो है जो कि कार्यरूप परिणमन करेगा ? कुछ ज्ञानमे प्रथम समयमें है वह दूसरेमें न रहेगा और तब नहीं आता। जैसे, दो परमाणुओंसे द्वयणुक होता
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किरण ४]
अनेकान्तवाद और स्व०५० अम्बादासजी शास्त्री
है यदि वे दोनों सर्वथा नष्ट होगये तो द्वयणुक अतः अगत्या मानना पड़ेगा कि आत्माकी ही किसस हुआ? समझमे नहीं आता। यदि सवथा अशुद्ध अवस्थाका नाम मंसार है। अब यहां पर असत्से कार्य होने लगे तो मृत्पिण्डके अभावमे भी यह विचारणीय है कि यदि मंसार अवस्था आत्मा घटकी उत्पत्ति होने लगेगो पर ऐसा देखा नहीं का कार्य है और कारणसे कार्य सर्वथा भिन्न है तो जाता, इमसे सिद्ध होता है कि परमाणुका सवथा आत्माका उससे क्या विगाड़ हुआ? उसे संसारनाश नहीं होता किन्त जब वह दूसरे परमाणुके मोचनके लिये जो उपदेश दिया जाता है उसका साथ मिलनेके सन्मुख होता है तब उसका सूक्ष्म क्या प्रयोजन है ? अतः कहना पड़ेगा कि जो अशुद्ध परिणमन बदल कर कुछ वृद्धिरूप होजाता है और अवस्था है वह आत्माका ही परिणमनविशेष है, जिस परमाणुके साथ मिलता है उसका भी सूक्ष्म वही आत्माको मसारमे नाना यातनाएँ देना है, परिणमन बदल कर वृद्धिरूप हो जाता है। इसीप्रकार अतः उसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। जैसे जल जब बहुतम परमाणुओंका सम्बन्ध हो जाता है तब स्वभावसे शीत है परन्तु जब अग्निका सम्बन्ध म्कन्ध बन जाता है। स्कन्ध दशामे उन सब परमाणु- पाता है तब उष्ण अवस्थाको प्राप्त हो जाता है, इस
ओंका स्थूलरूप परिणमन होजाताहै। और ऐसा हानसे का यह अर्थ हुआ कि जिस प्रकार जलका पहले वह चक्षुरिन्द्रियके विषय हो जात है। कहनेका तात्पर्य शीतपयोयके माथ तादात्म्य था। उसी प्रकार अब यह है कि वे सब परमाणु स्कन्ध दशामे जितने थे उष्णपयोयके साथ तादात्म्य होगया परन्तु जलत्वउतने ही हैं, केवल उनकी जो सूक्ष्म पयोय थी वह को अपेक्षा वह नित्य रहा । यह ठीक है कि जलकी स्थूलभावको प्राप्त होगई । एवं यदि कारणसे कार्य
उष्णपर्याय अस्वाभाविक है-'परपदार्थजन्य है सर्वथा भिन्न हो तो कार्य होना असम्भव हो जावं
अतः हेय है। इसी तरह आत्मा एक द्रव्य है उसकी क्योंकि मंसारमें जितने कार्य है वे निमित्त ।
- जो संसार पर्याय है वह औपाधिक है उसके सद्और उपादान कारणसे उत्पन्न होते है । निमित्त ता
भावम आत्माके नाना विकृत परिणाम होते हैं जो महकारीमात्र है पर उपादानकारण कायरूप परि.
कि आत्माक लिये अहितकर है। जैसे, जब तक णमनको प्राप्त होता है । जिस प्रकार सहकारी कारण
आत्माकी संभार अवस्था रहती है तब तक यह भिन्न है उस प्रकार उपादान कारण कार्यमे भिन्न
आत्मा ही कभी मनुष्य हो जाता है, कभी पशु बन नहीं है किन्तु उपादान अपनी पूर्व पर्यायको त्याग जाता है, कभी देव तो कभी नारको हो जाता है कर ही उत्तर अवस्थाको प्राप्त होता है। इसी उत्तर तथा उन उन पयायोंके अनुकूल अनन्त दुःखोंका अवस्थाका नाम कार्य है । यह नियम सर्वत्र लागू
पात्र होता है इमीसे आये उपदेश प्रवृज्या ग्रहण होता है-आत्मामें भी यह नियम लागूहाता है- के
करनका है। आत्मा भी सर्वथा भिन्न कार्यको उत्पन्न नहीं करती। यहां पर कोई कहता है कि यदि पर्यायके साथ जैसे सब आस्तिक महाशयोंने आत्माकी मंसार द्रव्यका तादात्म्य सम्बन्ध है तो वह पर्याय विनष्ट
और मुक्ति दो दशाएं मानी हैं। यहां पर यह प्रश्न क्यों हो जाती है । इसका यह अर्थ है कि तादात्म्य स्वाभाविक है कि यदि कारणसे काय सर्वथा भिन्न सम्बन्ध एक तो नित्य होता है और एक अनित्य है तो संसार और मुक्ति ये दोनों कार्य किम द्रव्यक होता है। पर्दार्थोंके साथ जो सम्बन्ध है वह अनित्य अस्तित्व में है, सिद्ध करना चाहिए। यदि पुद्गल है और गुणोंके साथ जो सम्बन्ध है वह निरन्तर द्रन्यके अस्तित्वमें है तो आत्माको भक्ति, प्रवृज्या, रहता है अतः नित्य है। इसीलिये जैनाचार्योंने गुणों सन्यास, यम-नियम, व्रत, तप आदिका उपदेश देना को सहभावी और पर्यायोंको क्रमवर्ती माना है । निरर्थक है क्योंकि आत्मा तो सर्वथा निर्लेप है यही कारण है कि जो गुण परमाणुमें हैं वे ही
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स्कन्धमें हैं परन्तु जो पयायें इस समयमें हैं वे दूसरे तथा नित्य भी है अनित्य भी है। समयमें नहीं हो सकती। यदि यह व्यवस्था न मानी यहां पर आपाततः प्रत्येक मनुष्यको यह शङ्का जावे तो किसी पदार्थकी व्यवस्था नहीं बन सकती। हो सकती है कि इस प्रकार परस्पर-विरोधी धर्म एक जैसे, सुवर्णको लीजिए, उसमें जो स्पर्श, रस. गंध और स्थानपर कैसे रह सकते हैं और इसीसे वेदान्तसूत्र में वर्ण है वे, सोना चाहे किसीभी पर्यायमें रहे, रहेंगे व्यासजीने एक स्थानपर लिखा हैकेवल उसकी पर्यायों में ही पलटन होगा।
नैकस्मिन्नसम्भवात्। यही व्यवस्था जिन द्रव्योंको सर्वथा नित्य माना अर्थात् एक पदार्थमे परस्पर विरुद्ध नित्यानिहै उनमें है। यदि संसार अवस्थाका नाश न होता त्यत्वादि नहीं रह सकते । परन्तु जैनाचार्योने स्यातो मोक्षका कोई पात्र न होता । इमसे यह सिद्ध हुआ द्वादसिद्धान्तसे इन परस्पर विरोधी धर्मोका एक स्थान कि संसारमें ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जो नित्यानि- में भी रहना सिद्ध किया है और वह युक्ति-युक्त भी त्यात्मक न हो। तथा हि
है। क्योंकि वह विरोधी धम विभिन्न अपेक्षाओंसे एक आदीपमाघ्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रातिभेदि वस्तु । वस्तुमे रहत है, न कि एक ही अपेक्षासे । देवदत्त तमित्यमेकनित्यमन्यादति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापः ॥ पिता है और पुत्र भी है परन्तु एककी ही अपेक्षा
कहनेका तात्पर्य यह है कि दीपकसे लेकर उत्त. दोनों रूप दवदत्तमे सिद्ध नहीं हो सकते । वह आकाश पर्यन्त सभी पदार्थ नित्यानित्यात्मक है, अपने पुत्रकी अपेक्षा पिता है अपने पिताकी अपेक्षा इसको सिद्ध करनेवाली स्याद्वादमुद्रा है, उनमें दीपक- पुत्र भी है। इसी प्रकार सामान्यकी अपेक्षा पदार्थ को सर्वथा अनित्य और आकाशको सर्वथा नित्य नित्य है-उत्पाद और विनाशसे रहित है तथा माननेवाले जो भो पुरुष है वे आपकी आज्ञाके वैरी विशेषकी अपेक्षा अनित्य है-उत्पाद और विनाशस है। यदि दीपक, घट, पटादि सर्वथा अनित्य ही होते युक्त है । सामान्यकी अपेक्षा पदार्थ एक है परन्तु तो आज संसारका विलोप हो जाता। केवल दीपक अपनी पर्यायोंकी अपेक्षा वही पदाथे अनेक हो जाता पर्यायका नाश होता है न कि पुद्गलके जिन परमा- है । जैसे, सामान्य जलत्वकी अपेक्षास जल एक है णुओंसे दीपक पर्याय बनी है उनका नाश होता है। परन्तु तत्तत्पर्यायोंकी अपेक्षा वही जल तरङ्ग, बबूला, तत्त्वकी बात तो यह है कि न तो किसी पदार्थका हिम आदि अनेकरूप होता देखा जाता है। जैना. नाश होता है और न किसी पदार्थकी उत्पत्ति होतो चार्योंने स्याद्वादसिद्धान्तमै उक्त धोका अच्छा समहै। मूलपदार्थ दो है जीव और अजीव । न ये उत्पन्न न्वय किया है। देखियेहोते हैं और न नष्ट होते है। केवल पयायोंकी 'स्याद्वादा हि सकलवस्तुतत्वसाधकमेवमेकमस्खलितं उत्पत्ति होती है और उन्हींका विनाश होता है। माधनमहद्दवस्य, स तु सर्वमनेकान्तमनुशास्ति सवस्य सामान्यरूपसे द्रव्यका न तो उत्पाद है और न वस्तुनोऽनेकान्तात्मकत्वात् । अत्र स्वास्मवस्तुनो ज्ञानमात्रविनाश है परन्तु विशेषरूपसे उत्पाद भी है और तयानशास्यमानोऽपि न तत्परिदोषः ज्ञानमात्रम्यात्मवस्तुनः विनाश भी है। तथा हि
स्वयमेवानेकान्तात्मकत्वात् । तत्र यदेव तत् तदेवातत्, 'न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् । यदेवैकं तदेवानेकम् , यदेव सत् तदवासत्, यदेव नित्यं म्येत्युदेति विशेषासे सहकत्रोदयादि सत् ॥ तदेवानित्यमित्येक वस्तुवस्तुत्वनिष्पादकविरुद्धशक्रिद्वयप्रका
जैसे पदार्थ नित्यानित्यात्मक है वैसे ही तत शनमनेकान्तः । तत्स्वात्मकवस्तुनो ज्ञानमात्रत्वेऽप्यअवत् , सत् असत् और एकानेक रूप भी है। जैसे, न्तश्चकचकायमानरूपेण तत्त्वात् बहिरुन्मिषदनन्तज्ञ यताएक आत्मा द्रव्य लीजिये, वह तत् भी है अतत भी पक्षस्वरूपतातिरिक्तपररूपेणासत्वात् सहक्रमप्रवृत्तानन्तहै, एक भी है अनेक भी है, सत् भी है असत् भी है चिदंशसमुदयरूपाविभागकद्रव्येसैकत्वात् अविभागैकबन्य
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ज्याप्तसहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशरूपपर्यायैरनेकत्वात् स्वद्रव्य- स्वक्षेत्र एव ज्ञानस्य पर क्षेत्रगतज्ञेयाकारपरिणमनस्वभावक्षेत्रकालभावभवनशक्रिस्वभावत्वेन सत्त्वात्, परद्रव्य- त्वात् परक्षेत्रेण नास्तित्वं द्योतयक नेकान्त एव कालभावभवनशक्रिस्वभाववत्वेनासत्वात् अनादिनिधना- नाशयितु न ददाति । - यदा पूर्वालम्बितार्थविनाशकाले विभागकवृत्तिपरिणतस्वेन नित्यत्वात् क्रमप्रवृत्तकसमया- ज्ञानस्यासत्त्वं प्रतिपद्य नाशमुपैति तदा स्थकालेन सत्त्वं वच्छिन्ना नेकवृत्यं सपरिणतत्वेनानिस्यत्वात् तददत्वमेका- द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति । है यदा स्वालम्बननेकत्व सदसवं नित्यानित्यवत्र प्रकाशत एव । काल एव ज्ञानस्य सत्व प्रतिपद्यात्मानं नाशयति तदा परका
ननु यदि ज्ञानमात्रत्वेऽप्यात्मवस्तुनः स्वयमेवानेकान्तः लेनासावं द्योतयन नेकान्त एवं नाशयितुन ददाति । १० प्रकाशते तहि किमर्थमहद्भिस्तत्साधनत्वेनानशास्यतेऽने- यदा जायमानपरभावपरिणमनात् ज्ञायफभावं परभावत्वेन कान्तः ? श्रज्ञानिनां ज्ञानमात्रात्मवस्तुप्रसिदध्यर्थमिति प्रतिपद्य नाशमुपैति तदा स्वभावेन सत्वं द्योतयलनेकान्त बम.। न खल्वनेकान्तमन्तरेण ज्ञानमात्रमात्मवस्त्वेव प्रसि. एव तमुज्जीवयति । ११ यदा तु सर्वे भाषा अहमेवेति द्ध्यति । तथा हि-इह हि स्वभावत एव बहुभावनिर्भर
परभावं ज्ञायकभावत्वेन प्रतिपद्यात्मानं नाशयति तदा विश्वे सर्वभवानां स्वभावेनाद्वैनेऽपि द्वैतस्य निषेद्धमशक्य.
परमविनाशत्वं द्योतयन्मनेकान्त एव नाशयितु न ददाति । स्वात् समस्तमेव वस्तु स्वपररूपप्रवृत्तिव्यावृत्तिभ्यामुभय.
१२ यदा नित्यज्ञानविशेषैः खण्डितनित्यज्ञानसामान्यो भावाध्यवसितमेव । तत्र यदाऽयं ज्ञानमात्रो भावः शेष
नाशमपैति तदा ज्ञानसामान्यरूपेण नित्यत्वं द्योतयन् भनेभाव: सह स्वरसभरप्रवृत्तज्ञातृज्ञ यसम्बन्धतयाऽनादिशेय
कान्त एव नाशयित न ददाति । १३ यदा त नित्यज्ञानपरिणमनात् ज्ञानत्व पररूपेण प्रतिपद्याज्ञानीभूत्वा तमपति
सामान्योपादानायानित्यज्ञानविशेषत्यागेनात्मानं नाशयति तदा स्वरूपेण तत्वं द्योतयित्वा ज्ञातृत्वेन परिणमनात्
तदा ज्ञानविशेषरूपेणानेकत्वं द्योतयक्षनेकान्त एव तं ज्ञानी कुर्वन्ननेकान्त एव तमुद्गमयति । १ यदा तु सर्व
नाशयित न ददाति । १४....... में खल्विदमात्मेति अज्ञानत्वं ज्ञानरूपेण प्रतिपद्य विश्वो
यह गद्य श्रीअमृतचन्द्रस्वामीने समयसारके अन्त पादानेनात्मानं नाशयति तदा पररूपेणातत्व द्योतयित्वा म,जा स्याद्वादाधिकार है, उसम लिखा है। इसका विश्वाद भिन्नं ज्ञानं दर्शयन् अनेकान्त एव नायित्न भाव द्यह है किददाति । २ यदाऽनेकज्ञेयाकारैः खण्डितसफलफज्ञानाकारो
स्याद्वाद ही एक समस्त वस्तुका साधनेवाला नाशमति तदा द्रग्येणैकचं द्योतयन् अनेकान्त एव
निबाध अर्हन्त भगवानका शासन है और वह
समस्त पदार्थोंको अनेकान्तात्मक अनुशासन करता तमुज्जावयति । ३ यदा स्वैकज्ञानाकारोपादानायानेकज्ञेया
है, क्योंकि सकल पदार्थ अनेकधर्मस्वरूप कारत्यागनात्मान न शयति तदा पर्यायरनेकत्वं यातयन्
हैं। इस अनेकान्तके द्वारा जो पदार्थ अनेकधर्मअनेकान्त एव नाशयितु न ददाति । ४ यदा ज्ञायमान
स्वरूप कहे जाते हैं वह असत्य कल्पना नहीं है परद्रव्यपरिणमनात् ज्ञातृद्रव्यं परदन्यत्वेन प्रतिपद्य नाश
बल्कि वस्तुस्वरूप ही एसा है। यहां पर जो आत्मा मपैति तदा स्वद्रव्येण सत्वं द्योतयन् अनेकान्त एवं नामक वस्तुको ज्ञानमात्र कहा है उसमें स्याद्वादतमज्जीवति । ५ यदा तु सर्व द्रव्याण्य हमेवेति परद्रव्यं का विरोध नहीं है। ज्ञानमात्र जो आत्मवस्तु है वह ज्ञातव्यत्वेन प्रतिपद्यात्मानं नाशयति तदा परद्रव्येणासत्वं स्वयमेव अनेकान्तात्मक है। यही दिखलाते हैंद्योतयन् अनेकान्त एवं नायितु न ददाति । ६ यदा अनेकान्तका ऐसा स्वरूप है कि जो वस्तु तत्स्वरूप परक्षेत्रगतज्ञ यार्थपरिणमनात् परक्षेत्रेण ज्ञानं सत् प्रति- है वही वस्तु अतत्स्वरूप भी है, जो वस्तु एक है वही पच नाशमपैति तदा स्वक्षणास्तित्वं द्योतयन्ननेकान्त अनेक भी है तथा जो पदार्थ नित्य है वही अनित्य एव तमुज्जीवयति । ७ यदा तु स्वक्षेत्र भवनाय परक्षेत्र भी है। इसप्रकार एक ही वस्तुमें वस्तुत्वको प्रतिपाज्ञेयाकारत्यागेन ज्ञानं तुच्छीकुर्वनात्मानं नाशयति तदा दन करनेवाला एवं परस्पर विरुद्ध शक्तिद्धयको
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विष १
प्रकाशित करनेवाला अनेकान्त है। इसीको स्पष्ट है। यहां हरितत्व और पीतत्वकी अपेक्षा रूपमें करते हैं
परिवर्तन हुआ है पर मामान्यरूपकी अपेक्षा क्या जैसे आत्माको ज्ञानमात्र कहा है, यहां यद्यपि हुआ? दोनों ही दशाओं में रूप तो रहता ही है। आत्मा अन्तरंगमें दैदीप्यमान ज्ञानस्वरूपकी अपेक्षा इसप्रकार एक हो अविभागी द्रव्य, अपने महभावी तत्स्वरूप है तथापि बाह्यमें उदयरूप जो अनन्त गणों और क्रमभावी पर्यायोंकी अपेक्षा अनेकरूपमे ज्ञेय है वह जब ज्ञानमें प्रतिभासित होते हैं तब ज्ञानमें व्यवहृत होता है अथोत् सह-क्रमप्रवृत्त चिदंश समु. उनका विकल्प होता है इमप्रकार ज्ञेयतापत्र जो ज्ञान- दायरूप अविभागी द्रव्यकी अपेक्षा तो आत्मा एककारूप है जोकि ज्ञानसे भिन्न पररूप है उसकी अपेक्षा स्वरूप है और चिदशरूप पर्यायोंकी विवक्षासे अतत्स्वरूप भी है अर्थात् ज्ञान ज्ञेयरूप नहीं होता। अनेकस्वरूप है। सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनन्त चिदंशोंके समुदाय एवं स्वदव्य क्षेत्र काल भावरूप होनेके योग्य रूप जो अविभागी एक द्रव्य है उसकी अपेक्षा एक स्व. जो शक्ति है, अतः उसके स्वभावसे जब वस्तका रूप है अर्थात् द्रव्यमें जितने गुण है व अन्वयरूप- निरूपण करते हैं तब वस्त सत्स्वरूप होती है और से ही उसमें सदा रहते हैं विशेष रूपमे नहीं। ऐसा
परद्रव्य क्षेत्र काल भावरूप होनेके योग्य जो शक्ति है, नहीं है कि प्रथम समयमे जितने गुण हैं वे ही द्वितीय
अत: उसके अभावरूपमे जब वस्त का निरूपण करते समयमें रहत हों और वे ही अनन्त काल तक रहे
है तब अमत्स्वरूप होतो है। श्रीसमन्तभद्रस्वामीने आते हों। चूकि पर्याय समय समयमें बदलती
कहा है किरहती है और द्रव्यमें जितने गुण हैं वे सब पर्यायशून्य नहीं है अतः गणोंमे भी परिवर्तन होना अनि
'सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादिचतुष्टयात् । वाये है। इससे सिद्ध यह हुआ कि गण सामान्यतया
अमदेव विपर्यासान चेन व्यवतिष्ठते ।।' प्रौव्यरूप रहते है पर विशेषकी अपेक्षा वे भी उत्पा- अर्थात् स्वद्रव्य क्षेत्र काल भावको अपेक्षा सम्पूर्ण दव्ययरूप होते हैं। इसका खुलासा यह है कि जो विश्व मत् ही और परद्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेगण पहले जिसरूप था दूसरे समयमें अन्यरूप क्षा असत् ही है...इस कौन नहीं स्वीकृत करेगा? हो जाता है, जैसे जो थाम्र अपनी अपक्व अवस्थामें क्योंकि ऐसा मान बिना पदार्थकी व्यवस्था नहीं हरित होता है वही पक्व अवस्थामे पीत होजाता हो सकती।
अर्थका अनर्थ (श्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री )
'ज्ञानोदय' पत्रकी ४.५ संख्यामें 'शूद्रमुक्ति' प्रायः यह कहते और लिखते रहते हैं कि मूलशीर्षकसे सिद्धांतशास्त्री पं० फूलचन्द्रजीका एक सिद्धान्तग्रन्थोंसे अमुक बातका समर्थन नहीं होता । लेख प्रकाशित हुआ है। पं०जी सिद्धान्तशास्त्रोंके प्रन्थकारोंने परिस्थितिवश ऐसा लिख दिया है। ज्ञाता माने जाते हैं । आपने धवला और जयधवला- पहले कर्मसिद्धान्तके विषयमें आपने अपनी कुछ का सम्पादन किया है। साथ ही आप प्रबल सुधारक नवीन मान्यताएँ इसी आधारपर रक्खी थी। अब भी हैं। किन्त जो सुधार आपको बांछनीय हैं जैन श्राप शूद्रोंको मुक्तिका अधिकारी सिद्ध करना चाहते शास्त्रोंसे उनका समर्थन नहीं होता। अतः आप है। और उसके लिये आपने धवलासे उश्वगोत्रका
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बक्षण उद्धृत करके उमपरसे अपने अनुकूल मन्तव्य मुख्य वाचार्थ है और प्राचार उसका निमित्त है। निकालनेकी चेष्टा की है। तथा आचार्य नेमिचन्द्र किन्तु कमकाण्डमें प्राचारको गोत्रका वाच्यार्थ मान सिद्धान्तचक्रवर्तीके उच्चगोत्रके लक्षणको धवलाके लिया गया है। प्रतिकूल अत एव परिस्थितिजन्य बतलाया है । एवं
पं०जीका निष्कर्ष न०२ आपत्तिजनक है। पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिके एक वाक्यका भी स्वम
व आपने सन्तानका प्रसिद्ध अर्थ त्याग कर जो नया नोऽनुकूल अर्थ किया है। इस तरह अर्थका अनर्थ
अथे किया है उसका ममथन धवलाके उक्त लक्षणोंसे करनेस शास्त्रज्ञ तो भ्रममं नहीं पड़ सकते किन्तु जो तो नहीं होता। प्रथम तो धवलाकारने स्वयं ही स्वयं शास्त्रज्ञ नहीं है और अन्य शास्त्रज्ञोंकी बातको सन्तान शब्द का अर्थ गोत्र, कुल और वंश किया ही प्रमाण मानकर चलते हैं, वे इससं भ्रममें पड़ है। इन सब अर्थोंको छोड़ कर एक नया अर्थ घड़ना सकते है, अतः प्रकृत लेखके उक्त मन्तव्योंपर प्रकाश कोई मान नहीं रखता। दूसरे, धवलाकारने उच्चडाला जाता है।
गोत्रके लक्षण में केवल दीक्षायोग्य साधु आचरणधवलाका लक्षण इस प्रकार है
वालों की परम्पराको उच्चगोत्र नहीं कहा, वल्कि "दीक्षायोग्यसाध्वाचरणानां साध्वाचारैः कृत- उसके साथमें एक विशेषण और लगाया है कि सम्बधानाम आयेप्रत्ययाभिधानव्यवहारनिबन्ध- जिन्होंने साधु आचारवालोंके साथ सम्बन्ध' (मूलमें नानां सन्तानः उच्चैोत्रम्। ...............तद्विपरीतं 'कृतसम्बन्ध' शब्द है)। यदि सन्तानका अर्थ नीचैर्गोत्रम्।”
'परम्परा' मात्र लिया जाता है तो यह विशेषण व्यर्थ 'जो दाक्षायोग्य साधु आचरणवाले हों, जिन्होंने
पड़ जाता है क्योंकि जब दीक्षायोग्य आचरणवासाधु आचारवालोंके साथ सम्बन्ध स्थापित कर
लोकी परम्परा ही उच्चगोत्र अभीष्ट है तो उनके लिया हो तथा जिनमे यह 'आर्य' हे इम प्रकारकी
दीक्षायोग्य साधु आचारवालोंसे सम्बन्ध स्थापित ज्ञानकी प्रवृत्ति हो और यह 'आर्य' है इस प्रकारका शाब्दिक व्यवहार होने लगा हा उनकी परम्पराको
करने या न करनका कोई महत्व ही नहीं रहता। उच्चगोत्र कहत है और इसके विपरोत नीचगोत्र है।
किन्त धवलाकारको यह बात अभीष्ट अहीं है कि
जिनका केवल व्यक्तिगत आचरण साधु हो किन्त गोत्रका सामान्यलक्षण जीवस्थान चूलिका
कौटुम्बिक संबन्ध साधु आचरणवाले पुरुषोंके साथ अधिकारकी धवला टीकामे इस प्रकार किया है
न हो व मात्र व्यक्तिगत आचरणके कारण उच्च 'गोत्रं कुलं वंशः सन्तानमित्येकोऽर्थः'
गोत्री कहलाए। इसी लिये उन्होंने एक विशेषण गोत्र, कुल, वंश, और सन्तान ये एकार्थवाची
और लगा दिया है। नाम है। ये सब. लिखकर पं० जीने उसपरसे निम्न
आचाय नेमिचन्द्र के जिस लक्षणको पं0 जी निष्कर्ष निकाले है
परिस्थितिजन्य बतलात हैं वह परिस्थितिजन्य नहीं १-'आर्य होकर भी जो दीक्षायोग्य साध आचा- है किन्तु स्वामी वीरसेनक उक्त लक्षणका अनुवाद रवाले है वे उच्चगोत्री और शेष नीचगोत्री है। मात्र है जो पलट कर रख दिया गया है। स्वामी
२-सन्तानका अर्थ पुत्र, पौत्री, प्रपौत्रीकी परम्परा वोरसेन दीक्षाके योग्य साधु-आचरणवालोंकी न होकर आचारवालोंकी परम्परा है गोमट्रसार सन्तानको उच्चगोत्र कहते है और प्राचार्य नेमिचन्द्र कर्मकाण्डमें सन्तानक्रमस आये हुए जीवके आचा- सन्तानक्रमसे आये हुए जीवके आचारको गोत्र रको गोत्र कहा है। धवला टीकाके उक्त लक्षणको कहते है। अभिप्राय दोनोंका एक है, नेमिचन्द्राचादेखनेसे मालूम पड़ता है कि यह लक्षण उलटकर बने निमित्त साधु आचरणपर विशेष जोर दे दिया लिखा गया है। सन्तान (परम्परा) यह गोत्रका है। केवल इतना ही अन्तर है। जैसे-धनिककी
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परिभाषा की जाये कि — जो स्वयं धनवाले है तथा जिन्होंने धनवालोंके साथ सम्बन्ध किया है उनकी सन्तानको धनिक कहते हैं। इसे यूं कहा जाये सन्तान क्रमसे चले आये हुए धनको धनिक कहते हैं। इन दोनों वाक्यों में जितना अन्तर है उतना ही अन्तर उक्त दोनों लक्षणों में भी है। हां, यदि धवलाकारको मात्र व्यक्तिगत आचरण अभीष्ट होता और सन्तानका अर्थ कुल वंश वगैरह न करके पं० जाको अभीष्ट परम्परा अर्थ किया होता तो नेमिचन्द्राचार्यके लक्षणपर पं० जीकी आपत्ति तथा कल्पना उचित कही जा सकती थी । किन्त वीरसेन स्वामीको यह अभीष्ट नहीं है, जैसा कि ऊपर बतलाया है । सन्तान शब्दका अर्थ
सन्तान और परम्परामें बहुत अन्तर है । सन्तान उन्हीं की परम्पराको कहते है जिनमें कार्यकारणभाव होता है जैसे, बीज-वृक्षको सन्तान । अकलंकदेवने भी अष्टशती में सन्तानका यही लक्षण किया । यथा 'पूर्वापरकालभाविनोपि हेतुफलव्यपदेशभाजो रतिशयात्मनोरन्वयः सन्तानः । अर्थात् पूर्वापरकालभावी होते हुए भी जिनमें कार्यकारणभाव है उनकी परम्पराको सन्तान कहते हैं । किंतु परम्परा तो पूर्वापरकालभावी उन वस्तु
की भी होती है जिनमें कार्य कारणभाव नहीं है । पिता-पुत्र पूर्वापरकालभावी तो हैं हो किन्तु
में कार्यकारणभाव भी है। अतः उनकी परम्परा सन्तान कहलाती है। किन्तु कालक्रमसे होने वाले विभिन्न सन्तानी सदाचारी पुरुषोंके प्रवाहको परम्परा कहते हैं । अतः सन्तानका अर्थ मात्र परम्परा कग्ना भी ठीक नहीं है । सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थसूत्रकी श्राद्य टीका है । तत्त्वार्थसूत्र के छठे अध्यायमें प्रत्येक कर्मके आस्रव के कारण बतलाते हुए केवली. श्रुत, संघ, धर्म और देवोंके अवर्णवादको दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रवका कारण बतलाया है । सर्वार्थसिद्धि में प्रत्येक का अवर्णवाद उदाहरण देकर बतलाया है । संघका अवर्णवाद बतलाते हुए लिखा है'शुद्रत्वा शुचित्वायाविर्भावना संघावर्णवादः ।' इसका व्याख्यान राजवार्तिकमें अकलंकदेवने
[ वर्ष १०
इस प्रकार किया है—'ये श्रमण शूद्र है, स्नान न करने से इनका अंग मैलसे भरा है, ये गंदे हैं, निर्लज्ज दिगम्बर है। जब यहीं दुःख भोगते हैं तो परलोक में ये कैसे सुखी हो सकते हैं, इत्यादि कथन संघका अववाद है ।"
पं० फूलचन्दजी यह मानकर भी कि 'जो दोष जिसमें नहीं है उसका उसमें उद्भावन करना अववाद है' यह फलितार्थ निकालते हैं कि 'जैन मंघमें जो गृहस्थ अवस्था में शूद्र थे ऐसे मुनि भी पाये जाते थे तभी तो दूसरे लोग उन्हें उपहासमे शूद्र कहते होंगे।' जैन मुनियों को दूसरे लोग क्यों शूद्र कहते होंगे ये कलकदेव के वर्णनसे ही पता चल जाता है। जैनमुनि स्नान नहीं करते, उनका बदन मैला कुचैला रहता था, नंगे डोलते थे, बाह्य शुद्धिका मा महत्त्व उनकी दृष्टि में नहीं था जैसा दूसरे लोगों की दृष्टिमें था । अतः उन्हें शूद्र कहा जाता था । न कि शुद्रोंके मुनिपद ग्रहण करनेके कारण । यदि ऐसा माना जायेगा तो अन्य अवर्णवादों में भी अनुपपत्ति खड़ी हो जायेगी । उदाहरणकं लिये, मधु-मांस वगैरह का सेवन निर्दोष है इत्यादि कथनको श्रुतका अवर्णवाद बतलाया है तो इसपरसे आजके कोई युगका मांसप्रेमी यह भी निष्कर्ष निकाल सकेगा कि पहले श्रुतमें इन्हें निर्दोष बतलाया था तभी तो लोग ऐसा कहते थे | बादको समयके प्रभावके कारण इन चीजों को सदोष बतला दिया ।
किसी अंश में यह ठीक हो सकता है कि किन्हीं ग्रन्थकारों या टीकाकारोंपर समयका प्रभाव पड़ा हो, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे सामने है। किन्तु सभीको उस किश्तीमे सवार नहीं माना जासकता ।
पं० जी जैनसमाजके प्रसिद्ध टीकाकार हैं, श्राज भी वे सिद्धान्तमंथों की टीका कर रहे है और सर्वार्थसिद्धिकी उनकी टीका वर्गीप्रन्थमालासे छप रही है। यदि उनमें भी पं० जीने अपने इन नवीन मन्तव्योंको इसी प्रकार भरा होगा तो उससे जैनसिद्धाभ्तके मन्तव्योंको क्षति पहुँच सकती है, तथा व्यर्थका वितण्डावाद खड़ा हो सकता है इसी भावनासे यह लेख लिखा गया है ।
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जैन गुहामन्दिर (श्री बालचन्द्र जैन, एम० ए०)
"जैनोंके गहामंदिर उतने प्राचीन नहीं है जितने ग्वालियर किलेके गहामंदिरोंका बोध होता है। अन्य दोनों सम्प्रदायों (ब्राह्मण और बौद्ध) के। उदयगिरि (भेलमा) की गप्तकालीन गुफाएं स्थान शायद उनमेसे एक भी ७ वीं शती से पूर्वका नहीं की दृष्टिमे मध्यभारत ममहमें सम्मिलित की जा
मकती है लेकिन समयकी दृष्टिमे इन्हें पूर्वीय समह "जैन कभी गहानिर्माता रहे ही नहीं"२ के साथ ही जोड़ा जाएगा
उपर्यत दोनों कथन यद्यपि सर्वथा अमत्य है तो भी उस समय है जब विदेशी पंडित जैनधर्म
पूर्वीय समूह को बौद्धधर्म की ही शाग्वा मान रहे थे। उन्हें जैन ध तीर्थकरों और बुद्धकी मूर्तियोंमे कोई मौलिक भंद
"बराबर पहाड़ी गया सीधे रास्ते करीब १५.-१६ प्रतीत न होता था-जैनमूर्तियोंको भी वे चटमे बुद्धमूनि कह देते थे। राजगिरकी मोनभांडार माल और पक्की सड़कसे १६ मील दूर है और गुहा ओंमे उत्कीर्ण जिनाकृतियाँ एस ही समयमे
पटना-गया मार्गपर स्थित बला नामक छोटे-से रेलवे फर्गुसनको बुद्धमूर्तियाँ जॅची थीं और उसने लिम्ब
म्टेशनस ८ मील पूर्वको है । नागार्जुनी पहाड़ी
बराबर पहाड़ीमें करीब १ मीलकी दूरीपर है, दिया था कि वहाँ बहुतसे बुद्ध उत्कीर्ण है । प्रस्तुत
संभव है, इस पहाड़ीपर कभी बौद्ध विद्वान नागानिबंधमे यह दर्शाने का प्रयत्न किया जाएगा कि
जुनक अनुयायियाका अधिकार रहा हो । बराबर जैनोंक गुहामंदिरोंका इतिहास न केवल उतना ही
पहाड़ीमे चार और नागार्जुनीमे तीन गफाएं है। पुराना है जितना कि बौद्धों और ब्राह्मणोंके गुहा
यहाँ गुफाएं खोदना कोई सहज कार्य न था, कठोर मंदिरोंका बल्कि ये उनसे भी अधिक प्राचीन है।।
लिया पत्थरमे इतने विस्तारवाली और काँच जैसी स्थान और समयको दृष्टिसे जैन गहामंदिरां चमकती पालिसयुक्त गफाएं निर्माण करना अत्यन्त को तीन समूहोंमें विभक्त किया जा सकता है। १. व्ययमाध्य था । बराबर पहाड़ीकी गुफाएं अशोक पूर्वीयसमूह, २, पश्चिमीय समूह और ३. मध्यभारत
न और नागार्जुनीकी उमक पौत्र दशरथने
र समूह । पूर्वीयसमूहमे गया जिलेमे बराबर और नागा
- आजीविक साधुओंके निवासके लिए दान की थीं। र्जुनी पहाड़ियोंकी मौर्यकालीन गुफाप, पुरी जिले
(एतिहासिकोका मत है कि इन गुफाओंका दान की खंडगिरि और उदयगिरकी शुगकालीन गुफाएँ करनेवाला दशरथ और जैन ग्रन्थोंमे उल्लेखप्राप्त एवं राजगिरकी पूर्वगप्नकालीन गुफाएं सम्मिलित सम्प्रति एक ही व्यक्ति है) पीछसं४ थी शतीमें ये है; पश्चिमीय समहमें एलोरा, बदामी, ऐहोल आदि
गुफाएं ब्राह्मणों के अधिकारमे श्रागई जब शार्दूल की गफार स्थान पाती हैं और मध्यभारत समूहस वर्माके पुत्र अनन्तवर्माने यहाँ देवमाता कात्यायनी
और महादेवकी मूर्तियाँ स्थापित की। १. फर्गुसन जे०- केवटेम्पिल्स आफ इन्डिया'कृष्ट ४६०।२. उक्र ग्रन्थ पृष्ठ ११.1
बराबर पहाड़ीकी चार गुफाओंमेंसे लोमस
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१३०
अनेकान्त
[वर्ष १०
ऋषिगफा यद्यपि मौर्यकालीन ही है पर उसमें उस दक्षिणी छोरके ऊपरले भाग ५ पंक्तिका प्राचीन कालका कोई लेख नहीं है। शेष तीन, सुदामा, ब्राह्मी लिपिका लेब है, उमस मात्र इतना ही विश्वझोपड़ी और करणचौपार अशोक द्वारा दान विदित हो पाता है कि गुफाका नाम मुपिया था की गई गुफा है। इनमेंस दो तो राज्याभिषेकके और राजा प्रियदर्शी (अशोक) ने राज्याभिषेकके १२वें वर्ष (२५७ ई० पू०) में और एक उमसे भी मात ११वें वर्ष (२५० ई० पू०) में इम दान किया था। वर्ष पश्चात (२५० ई०पू०)। पहली दो, सुदामा और मल लेख इस प्रकार पढ़ा गया है:विश्वझोपड़ी में तो स्पष्ट उल्लेख है कि वे अजीविकों १.ला [जा पियदसीए[कु] न [वी] को दान की गई थीं। इन गफाओंके दानस राजा २.सतिवसा भमि त..... अशोकके सर्वधर्मसमभावका प्रमाण मिलता है। ३. .......... ..."उथात .. ... ..... अशोकके लेखांस भी यही विदित होता है कि वह ४. मपि ये ख ............. .......... मभी पापण्डों (मतों) की उन्नति चाहता था और ५. ना परस्परका विरोध उसे सर्वथा अप्रिय था, वह तो उक्त लेखके अतिरिक्त आने-जानवाने 'मारवड़ढि' (सारवृद्धि) का प्रेमी था। आजीविक यात्रियोंके भी अनेक छोट २ स्मारक लेख है। सम्प्रदाय उसके कालक प्रधान सम्प्रदायोंमेंस था, मदामा गफा-लेम्वमे इस न्यग्रोध गुहा कहा
और इसका उल्लेख उसके सातवें स्तंभलेखमें भो है। यह सूपिया गफासे विरुद्ध दिशामें है और मिलता है। आजीविक सम्प्रदाय जैनोंका ही एक दक्षिणमुख है। इसमें दो मंडप है, बाहरी और भाग था और यह दिगम्बर सम्प्रदायके अत्यन्त भीतरी मंडप क्रमशः ३३४२० और १६ फुटके हैं। निकट था। इसके साधु दिगम्बर साधुओं जैसे ही गुफाका भीतरी भाग मन्दरतापूर्वक पालिस किया नग्न रहते थे, प्रायः वैसी ही क्रिया और आचार हा है। दीवालें ॥ फट ऊंची है पर क्रमशः पालते थे एवं उग्र तपस्वी होते थे । जैन श्वेताम्बर चढ़ावसे छप्परकी ऊँचाई १२ फुट ३ इंच हो गई ग्रन्थों में उल्लेख मिलते है कि इनका नेता गोशालक है। दाहनी और दो पंक्तिका अशोकके राज्याविचारों में मतभेद उपस्थित हो जानेके कारण अभिपकके बारहवें वष (२५७ ई० पू०)का लेख महावीरके संबसे अलग हो गया था। तीसरी गफा करणचौपारका लेख घिम जाने में उसके दानके १. लाजिना पियदसिना दुवादस [वसभिसंबंधमें कुछ ज्ञात नहीं हो मका।
मितना] .......... ___ अब क्रमशः प्रत्येक गुफाका मंक्षिप्त विवरण ..[इय] निगोह कुभा दि [ना आजीविकेहि किया जाएगा।
इसमें इम लेग्बके अतिरिक्त यात्रियोंके अनेक करणचौपार-शिलालेखमें इसे 'मुपिया' छोट लेख है। गुफा कहा गया है। इसका मुख उत्तरकी ओर लोमपऋषि गका-लेखमे यह प्रवरगिरि गहा है। इसका भीतरी मंडप ३३४ १४ फुट है। दोवारे कही गई है और सुदामा गुफासे कुछ गजोंकी ६ फुट ऊँची किन्तु छप्परके क्रमशः चढ़ावसे वह ही दूरीपर है । गुफा तो पूर्ववत् प्राचीन ही है करीब ११ फुट हो गया है । पश्चिमी छोरपर किन्तु लेख गतकालका है। इसमें सुदामा जैसे मूर्ति स्थापित करनेके लिए चौकी है । इस ही द्वार है । यह उतनी ही विस्तृत है और इसकी चौकीको छोड़ शेष मारी-की-मारी गफा मोये- वनावट भी उसके हो जैसी है, लेकिन प्रवेशद्वार कालीन चमकती हुई पालिमयुक्त है। गुफाके बाहर का मिहराब अधिक बड़ा, अधिक विस्तृत एवं लकड़ी चट्टानपर शिवलिंग स्थापित है। बाहरी द्वारक ढंगकी बनावटके अनुरूप है, उसमें हाथी और
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किरण ४ ]
तृप बने है । कनिंघमने इसी आधारपर इसे पिछले कालकी यानो ३री ४थी शतीकी बनो, सोचा था किन्तु मे सुदाम जैसी ही होने के कारण इसकी प्राचीनता में संदेह नहीं किया जा सकता। इसमें अशोकका मूल लेख हटाया जाकर शर्मा और अनन्तवर्मा के लेख खोदे गए है । उसका हमारे विपय कोई सम्बन्ध नहीं है अतः वह यहाँ नहीं दिया जा रहा है ।
जैन गुहामन्दिर
विश्वझोपडी - लेख मे गुहाका नामोल्लेख नहीं है । यह दक्षिणमुख है और इसका भीतरी मडप भद्दा एवं अपूर्ण है । मंडपमे ही चार पंक्तियोंका लेख है जिससे विदित होता है कि बराबर पहाड़ी का प्राचीन नाम स्खलटिकपर्वत था और उपयुक्त गुफा अशोकन अपने राज्याभिषेकके बारहवे वपमे आजीविकोंको दान दी थी। लेख निम्न प्रकार है:
१. लाजिना पियदमिना दुवा २. इस वमाभिमितेन इय
३. कुमा खलटिक पवतसि
४. दीना (जीवि) केहि
गोपी गुफा - यह नागार्जुनी पहाड़ीमे है और भूमिसे करीब ५०-६० फुटकी ऊचाईपर है । वृक्ष और मुसलमानोंके ईदगाहसे इसका द्वार रुद्ध है । यह ईदगाह और सीढ़ियां भी मुसलमानोंने आज से करीब २००-२५० वर्ष पूर्व बनवाई थीं। गुफा की लम्बाई पूर्व-पश्चिम ४५ फुट और चौड़ाई १६ फुट है। दीवालें ६ फुट ऊँची है पर छप्पर क्रमशः चढ़ाव के कारण १० फुट ऊंचा है । गुफाका भीतरी भाग खूब अच्छी तरह पालिस किया हुआ तथा बिल्कुल मादा है । अनन्तवर्मा के लेखमे इमं 'त्रिभ्यभूधरगुहा' कहे जानेसे विदित होता है कि उस समय तक इसका प्राचीन नाम विस्मृत हो चुका था अथवा पुराना लेख पढ़ा नहीं जा सका था जिसमे इसका पुराना नाम उल्लिखित है। बाहरी दीवाल के ठीक ऊपर ही वह लेख इस प्रकार है:
१. गोपिक [1] कुभा दशलथेन देवानां पिवेना
१३१
२. अनंतलिय अभिसितेन [आजीविकेहि ] ३. भदंतेहि वासनिषिढियाये निषिढे ४. श्री चंदमसूलियं
लेख विदित होता है कि गुफाका नाम गोपिका गुफा था और वह देवानांप्रिय दशरथन राज्याभिषेकके बाद ही (२१४ ई० पू०) भदंतों को वासनिषिद्याके अर्थ चन्द्र-सूर्य की स्थिति पर्यंत काल के लिये दान की थी। द्वारके वांयें ओर अनन्तवर्मा का लेख है जिसमें कात्यायनीको मूर्तिकी स्थापनाका उल्लेख है ।
बहियाका गुफा–यह नागार्जुन पहाड़ी मे ही उत्तरकी ओर है। इसमें एक ही मंडप है और वह १६×११ फुटका है। इसमे पालिस बहुत ही अच्छी तरह की गई है। दीवाले ५ फुट ऊंची है पर छप्पर क्रमशः चढ़ावके कारण ७३ फुट ऊंचा है। गुफा में जो लेख है वह बिल्कुल गोपी गुफा जैसा है किन्तु उसमें इस गुफाका नाम वहियाका गुहा कहा गया है । इस लेख के अतिरिक्त गप्तकालके तथा ६ठीवीं शतीके अन्य कई लेख भी हैं।
वेदथिका गुफा -- यह भी नागार्जुनी पहाड़ी में है और वहियाका गुफाके पश्चिममे उसीसे लगी हुई है। इसका द्वार प्राकृतिक है । गुफाका विस्तार १६ ।। १११ फुट है और वह इटोंकी दीवालसे द्विधा विभक्त हैं । इसमें एक छोटी-सी खिड़की भी है। इस गुफामे वैशिष्ट्य यह है कि इसकी दीवालें मीधी नहीं है बल्कि मुड़ी हुई | भीतरका समस्त भाग अत्यन्त पालिसदार है। द्वारकी दाहनी चौखट पर चार पंक्तियोंका लेख खुदा हुआ है जो पहली दो गुफाओंके लेखोंकी ही प्रतिलिपि है। विभिन्नता है तो गुफाके नामोल्लेग्बमे जहाँ इसे वेदधिका गुहा कहा गया है।
उदयगिरि और खंडगिरि (उडीसा ) की गुफाएं - जैन इतिहास और कला की दृष्टिसं उदयगिरि और खंडगिरिको विशेष महत्वका स्थान प्राप्त है । इन पहाड़ियोंकी गुफायें ईस्वी पृव दूसरी और पहली शती की हैं। प्रस्तुत निबंध में विस्तार भयसे उनका सम्पूर्ण
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अनेकान्त
[वर्ष १० परिचय न दिया जा सकेगा, संक्षिप्त परिचय कमरोंका माप १६४७ फट है। बगलके कमरे से और कहीं-कहीं तो नामोल्लेखसे ही संतोष कर के है। लिया जाएगा और फिर कभी स्वतन्त्ररूपसे इनके मचपुरी या मेयपुरी-दोमंजिली गुफा है । इसमें विषयमें लिखा जायगा।
३२४११ का वरामदा और दो कमरे १७४७ के हैं सीढ़ियोंके मार्गस दर्शक एक छोटे-से गुफा- प्रत्येकमे गधर्व आदि उत्कीर्ण है। इस गुफाका समूह तक पहुंचते हैं, जिनमें छाटा हाथी गुफा महत्व इस कारण और भी बढ़ जाता है कि इसमें और जयविजय गुफाए है। इन्हे पीछे छोड़ते हुए हाथीगुफाके लेखसे किचित उत्तर कालका एक आगे ३० गज करोब बदनपर लम्बी और दो. लेख उत्कीण है जिससे खारवेलके उत्तराधिकारी मंजली रानीगुफापर पह'च जाते है, यह खंडगिरि के विषयमे जानकारी प्राप्त होती है जिसन यह गफा की गुफाओंमें सबसे लम्बी और शिल्पांकनमें खुदवाई थी। उक्त लेख इस प्रकार है:भी सबसे बड़ी-चढ़ी है । इसकी निचली मंजिल खरस माहराजस कलिगाधिपतिनो महा [मेघ] की प्रधान गैलरीमे तीन कमरे है, दाएं और वा १,५ वाहकुदेपमिरिनो लेन [] एक दूसरा लेख भी हैकमरा है। उपरली मंजिलकी गैलरीमे चार कमरे और कुमारो बडुखस लेन । दाएं-बाएं १,१, कमरा है। कमरोंके मापके अनुसार स्वर्गपुरी गुफा--ई० पू०२री शतीकी है। इसका उनमें १ से ३ तक द्वार है । स्तभशोर्पोपर दो-दो मामनका कमरा २४|| फुट लंबा है। इसमे तीन पंखयुक्त पशु है। निचली और उपरली मंजिलोंके पंक्तियोंका लेख भी है जो खारवेलकी पट्टरानीका वरामदे और कमरे भिन्न विस्तारक है। यहॉकीमभी है। लेखमे खारवलको कजिगचक्रवर्ती कहा गया है। गुफाओं में पार्श्वनाथको विशिष्ट स्थान प्राप्त है। उनके मूल लेख इस प्रकार है :जीवनसे संबंधित घटनाए भी उत्काणं की गई है। मान लेने कारित राजिना ल []लाक [स]
* १. अरहत पसादाय [] कालिंगा [ना] [मम] इसके अतिरिक्त विद्याधरों, संगोतात्सवों आदि । के भी परिचय दिए गए है।
२. हथिम हसपपोतस धु [ड] ना कलिगच
[कतिनो सिरि खा] रवलस बाजाघर-प्रथम शती ई० पू० की गुफा है।
३. अगमहिनी [न ] | कारि [] इसके वाए छोटा हाथी गुफा है।
गणेश गुफा-स्वर्गपुरीसे ५० गजकी दूरीपर अलकपुरी-छोटा हाथो गुफाके वाहै। इमका समय रानो गुफासे किञ्चित उत्तर है। यह भी दो
है। यह रानीगुफाक ही समकालीन है । इसका मंजली है, प्रत्येक मंजिलमें एक-एक आयताकार
वरामदा ३० ६ का है। यहां पद्मासन तीर्थकर, कमरा है, नीचेका कमरा २१४७ का है और
यक्ष आदि उत्कीर्ण है। 5वीं-वीं शतीका एक उसमे ३ द्वार हैं। ऊपरी कमरा २१॥ ४01 का है
नागरी लेख भी निम्न प्रकार है:जिसके द्वार अधिक ऊँच और चौड़े है । कमरोंम
१ श्री शानिकर मौराज्यादाचन्द्राक्क सिंह, पखयुक्त घोड़े, मनुष्यक चेहरेवाले पशु
२ गृहे गृहे आंद [?] स [2] ज्ञे पुन: प्र'गे [?] आदि उत्कीर्ण है।
३ जास्य विराजे जने इज्यागभममुद जयविजय गुफा- अलकपुरीके वार्य है। इसमें
४ भूतो नन्नटस्य सतो भिषक भोमातो दो कमरे और एक वरामदा है जो १३४४ का है।
५ याचते वान्यप्रस्थ सम्बत्मरात्पुनः' जय-विजयके उपर ११.५७ मापकी एक अन्य खली
धानघर-स्वगपुरीसे २० गजकी दुगेपर है। गुफा है। ठकुरानी, पनस, पातालपुरीमेंसे पाताल
इसका मंडप १८४७ का है और उसमे तीन द्वार पुरीमें बरामदेसे चार कमरोंके लिए चार द्वार है। इपिप्राफिया इंडिका जिल्द १३ ।
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किरण ४] जैन गुहामन्दिर
१३३ भी हैं। वरामदाका माप १६४६ है और वह ६. देशीगणाचार्यश्रीकुलचन्द्र प.ट ऊँचा है।
३. भट्टारकस्य तस्य शिष्यसुभचन्द्रस्य हाथीगुफा-स्वगपुरीसे ही ४० फट दूर वायव्य- दूसरा-श्रीधर छात्र कोण में है। यह प्राकृतिक गफा है, विशाल है, तीसरा-१. ओं श्री प्राचार्यकुलचन्द्रस्य तस्य आकार अनियमित है । गफाका द्वार १२ फुट ऊँचा
२. शिष्य स्वल्लशुभचन्द्रस्य और गुफाका माप २८४५६ है । यह सर्वाधिक
३. छात्र विजो परिचित एवं ख्यातिप्राप्त गफा है क्योंकि यहीं ग्वार- बारामुनी गफा-में बारह भुजावालो देवो तथा वेलका वह प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण लेख उत्कीण' अन्य पशु श्रादिक है। है जो इसकी ८४ वर्ग फुट जगह घेरे हुए है । लेग्व त्रिशून गुफा में २४ तीर्थकरोंकी मूर्तियाँ है यहाँ नहीं दिया जा रहा है।
लेकिन यहाँ पार्श्वनाथ महावीरके पूर्व, कतारमें सर्प गुफा-हाथीग फासे ५० गजपर है । तीन नहीं बल्कि बीचमे विराजमान है । वे मूलनायक फण वाली सपाकृतिके कारण इसका यह नाम पड़ा है। है। इसमें दो छोटे लेख है:
एक अन्य खुली गुफामे तीन आकृतियां हैं, उनमें पहला-२.चूलकमस कोठाजेया च
अम्बिका और ऋषभनाथ है। आकाशगंगा, गुप्तगंगा, दूसरा-१. केमस हल्खि
राधाकुड, और श्यामकुड ये कुड भी है। २.णय च पसादो
ललाटन्दुकेशरी-में एक मध्यकालीन लेख उत्कीण वाघ गुफा-सर्पगुफासे ५० फुट है । इसमे
है। इसकी भाषा संस्कृत है पर वह अशुद्ध एवं 'नगर अख उभस सभूतिनो लेन' ग्बुदा है।
अव्यवस्थित है । लेखमें खंडगिरिको कुमारपर्वत जम्वेश्वर गुफा-मे 'सहदास वारियाय नाकि यस लेनं' और
कहा गया है जबकि हाथीग फाके लेखमे उदयगिरि
को कुमारीपर्वत कहा है । अनुमान किया जा हरिदास गुफा-में 'चूलकरमस पसातो कोठा
सकता है कि कुमार और कमारी दोनोंके अलग जोय [1] च' लेख खुदे है।
अलग नाम रहे हों, और यदि दोनों पहाड़ियोंका ____ जगन्नाथ गुफा-२७:४७की है और उममें चार
एक ही नाम रहा हो तो लेखमे अशुद्धि है, जो उसे सादे द्वार है।
देखते हुए संभव ही है। लेख निम्न प्रकार है:अनंत गुफा-का वरासदा २७॥४८॥ का है।
१. ओं श्री उद्योतकेसरी विजयराज्य संवत् ५ इसमें 'दोहदसमनान लेन' उत्कीर्ण हैं।
२.श्री कमारपर्वते स्थाने जीन्न वापि जीन्न इसन तत्वा गुफा-का पहला लेख तो घिस गया है,
३. उद्योतित तस्मीन थाने चतुर्विशति तीर्थकर दूसरा 'पादमूलिकस कुसुमास लेन फि' है।
४. स्थापित प्रतीष्ठा काले हरि प जसनंदिक इसके अनंतर पानघर, खंडगिरि, तेन्तुली आदि
५. क्न ? द ? ति ? द्रथ ? श्री परम्यनाथस्य गुफाएं हैं।
कम्माख्यः नवनि गुफा-में अनेक तोथकर तथा शामनदवियां उत्कीर्ण है । १० वीं शतीके नागरी लेख भी
राजगिरकी गुफाएं है जो इस प्रकार हैं :
सोनभंडार गुफाएं-गरम झरनोंसे करीब एक मील पहला-१. ओं श्री मदुद्योतकेसरिदेवस्य प्रवध- की दुरीपर वैभारगिरिकी दक्षिणी तलहटीमें स्थित माने विजयराज्ये संवत् १८
हैं। पहली गफा ३४४१७ फुटकी है और इसका २. श्रीआर्यसंघप्रतिबद्धगृहकुलविनिर्गत- द्वार ।।४३ फुट है। इसमें एक खिड़की भी है जो
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१३४
अनेकान्त
[वर्ष १०
३४३॥ की है। कनिंघमने इस गुफाको ही सप्तप- से इन्हें पूर्वीय समूहके साथ ही जोड़ लिया गया है।
ी गुफा मानाथा जिसमें महाकाश्यपकी अध्यक्षता यद्यपि स्थानकी दृष्टिसे ये मध्यभारतसमूहके साथ में बौद्धोंकी प्रथम संगीति बैठी थी। बेग्लर इस बात हैं । भेलमासे करीब ४-५ मील दूर उदयगिरि मे सहमत तो न था पर वह इन्हें बुद्ध और आनंद पहाड़ीमे बीस गुहामंदिर है और वे सबके सब गुप्तकी गुफाएं मानता था। लेकिन गुफाके द्वारके कालके है। पाषाणकी दृष्टिसे यह पहाड़ी गुफाएं दाहने ३ री-४ थी शतीके अक्षरों में दो पंक्ति- खोदनेके लिये उपयुक्त न थी फिर भी यहां अनेक योंमें खुदे उपजाति छन्दके संस्कृत श्लोकमे उक्त दोनों ऐसी मूर्तियां निर्माण की गई हैं जो अद्वितीय हैं। धारणाए निरर्थक हो जाती है । वह लेख इस प्रकार गुफाओंमेंसे पहली और बीसवीं गुफा जैन हैं।
बीसवीं गुफा पहाड़ीके ऊपरी भागमें है। इसमें १. निर्वाणलाभाय तपस्वियोग्ये शुभे गुहेहत्प्र खुदे हुए लेखसे विदित होता है कि यहां पार्श्वनाथ [ति] माप्रतिष्ठिते [1]
की मूर्तिका निर्माण किया गया था। लेख कुमारगुप्त २.आचार्यरत्नं मुनिवरदेवः विमुक्तये कारय
प्रथमके राज्यकालमें गुप्तसंवत् १०६ में खोदा गया दीर्घ तेज [:] लेखमें गुफाएं निर्माण कराने था। मूल लेख इस प्रकार है:वाले वैरदेवको मुनि कहा है न कि भिक्षु । मुनि
१. नमः सिद्धम्यः [1] शब्द जैन माधुओं के लिये प्रयोगमें आता है(बौद्ध
श्रीसंयुतानां गुणतोयधीनां गुप्तान्वयानां साधुओंके लिए भिक्षु शब्दका ही प्रयोग किया
नृपसत्तमानां। जाता है) वैर शब्द-जो कि वनका जैन प्राकृत रूप ।
___२. राज्ये कुलस्याधिविबर्द्धमाने षड्भिर्युतैः है--से भी ऐसा ही समर्थन प्राप्त होता है। ये गुफाए । निमाण हानेके समयसे ही जैन गफा
वर्षशतथ मासे [1] होनेके ही कारण चीनी यात्रीने इनका उल्लेख भी
सुकार्तिके बहुलदिनेथ पंचमे
____३. नहीं किया। इस लेखके अतिरिक्त गुफाकी भीतरी ।
गुहामुखे स्फटविकटोत्कटामिमां[1]
जितद्विषो जिनवरपार्श्वसंज्ञिकां जिनाकृति शमदमवानऔर बाहिरी दीगलोंपर छोटे-छोटे बहुतसे लेख
चीकरत् [ ] है। जैन लोग इस गुफाका संबंध राजा श्रेणिक
आचार्यभद्रान्वयभूषणस्य शिष्यो ह्यसावार्यबिम्बिसार और उसकी रानी चेलनास जोड़ते है, वह भ्रांति भी उक्त लेखसे निरर्थक सिद्ध हो जाती है।
कुलोद्गतस्य [1]
आचार्यगोश इसी गुफामें द्वारके निकट शिखराकार चतुर्मुख
५. म्ममुनेस्सुतस्तु पद्मावतावश्वपतेन्भटस्य [1] मूर्ति रखी हुई है जिसका गुफासे कोई मौलिक
परैरजेयस्य रिपुघ्नमानिनस्य संघिल संबंध नहीं है। उसमें चारों ओर तीर्थंकर
स्येत्यभिविश्रतो भूविm मर्तियोंके नीचे क्रमशः धर्मचक्रके दोनों ओर जोड़े में हाथी, घोड़ा, बैल और बंदर लांछनरूपमें हैं जिन
स्वसंज्ञया शंकरनामशब्दितो विधानयुक्तं यति
मार्गमास्थितः[] से वे मतियां प्रथम चार तीर्थंकरों की जानी जा सकती हैं।
७. स उत्तराणां सदृशे कुरूणां उदग्दिशादेशवरे ... दूसरी गुफा पहलीके पूर्वमे उसीसे लगी हुई
प्रसूतः [1] है। यह २२।। १७ की है। इसकी छत गिर पड़ी है।
क्षयाय कर्मारिगणस्य धीमान् यदत्र पुण्यं तदयहां भी अनेक जैन तीर्थकर उत्कीर्ण हैं।
९ पाससर्ज [1] . उदयगिरिकी गुफाएं(भेलसा)-समयकी दृष्टि ..फ्लीट कार्पस इन्स्क्रप्सन इंडिकेरम जिल्द ३ ।
सज्ञिकां जिनामिमां।।
४.
लनास जोड़ते
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किरण ४7
जैन गुहामन्दिर
पश्चिमीय समूह
बादामी - यहां तीन ब्राह्मण गुफाओं के साथ एक जैनगुफा भी है जिनके निर्माणकाल में विशेष अंतर नहीं है। जैनगुफाका निर्माणकाल ६५० ई० होना चाहिए। गुफाका बरामदा ३१४६|| फुटका है और १६ फुट ऊंचा है। सामने चौखटे स्तंभ है जो एलीफेन्टा शैली से मिलते जुलते हैं। पीछे भी चार स्तंभ हैं। गर्भगृह में चार सीढ़ियां चढ़कर जाते है । यहां पोछेकी दीवाल में सिंहासनपर महावीर स्वामी विराजमान है, दोनों ओर दो चंवरधारी है। बरामदकं दोनों छोरोंपर क्रमशः पार्श्वनाथ और बाहुबलि करीब || फुट ऊंच उत्कीर्ण है । इसीप्रकार स्तंभों और अन्य दीवालों में भी तीर्थकरमृतियां उत्कीर्ण है।
धारामिव – पूनासे मद्राम रेलमार्ग द्वारा जाते, सोलापुरमे ३७ मोल उत्तर में यह स्थान है। गांव से करीब दो मील ईशान कोण में जैन गुफाओं का समूह है । अब तो उनके सामने महादेव मंदिर भी बन गया है। बाएं छोरपर जो गुफा है वह छोटी-सी और अनी है किन्तु उसके बाद की गुफा विशाल और सचमुच सुन्दर है । उसका बरामदा ७४१० फुटका है, और उसमें स्तंभोंके ऊपर तीर्थकर - मूर्तियां, अलंकरण, चैत्यद्वार आदि सभी कुछ है । बत्तीस वंम छतको सम्हाले हुए है । मण्डपमे चारों ओर बाईस कोठरियां और पीछे के हिस्स मे भगृह है जहां सप्तफरणयुक्त पद्मासन पाश्र्श्वनाथ ध्यानमुद्रा में विराजमान है । उनके सिरपर त्रिछत्र है, कंधों के ऊपर दोनों ओर गंधर्व आदि उत्कीर्ण है । सर्पफणों में प्रत्येक पर छोटा सा मुकुट जैसा है । मूर्तिके चारों ओर प्रदक्षिणामार्ग हैं। तीसरी गुफाका मंडप ५६ वर्ग फुट है और वह ११ फुट ऊंचा है, उसमें बीस खंभे और पांच द्वार हैं। बरामदे छह सादे अठकोण बभे हैं। चौथी गुफाका मण्डप २४ फुट ऊंचा और २६ फुट चौड़ा है। इसमें चार खंभे हैं। दीवालों में चार कोठरियां तथा पिछली दीवाल
१३५
में गर्भगृह है। दीवालोंपर कोई कारीगरी न होने एवं खंभोंकी शैलीसे यह एलोरासे भी प्राचीन अनुमानित की जा सकती है अर्थात् ७ वीं शती के मध्यकी ।
ऐहोल - यहांकी गुफा बादामीकी गुफासे अधिक लम्बी है । उसका बरामदा ३६४७|| फुट है और उसमें चार खंभे है, छत मकर, पुष्प से अलंकृत है । बाईं दीवाल में बादाम की ही तरह पार्श्वनाथ की मूर्ति है जिसके एक ओर नाग और दूसरी ओर नागी स्थित है । दाहने छोर हैं और उनके पीछे एक वृक्ष है जिसकी शाखाओ एक ओर जिन है जिसके दोनों ओर दो स्त्रीमूर्तियां पर दो आकृतियां उत्कीर्ण है हालका प्रवेशमार्ग आठ फुट हैं और दो ग्वंभांसे त्रिधा विभक्त है । हालका माप १५x१८ है, उसके दोनों ओर १४४५ के दो प्राथनागृह भी हैं । छतके ठीक बीच एक विस्तृत कमल तथा चारों कोनोंमें चार छोटे कमल एवं
बीच-बीच मे मकर, मत्स्य, पुष्प आदि चित्रित है । गर्भगृहका प्रवेशद्वार भी दो खंभों त्रिधा विभक्त है। यहां भी बदामी जैमी पद्मासन नीर्थकर मूर्ति है। बाएं ओर की दीवालमें सिंहासनपर महावीर तथा दजन करीब अन्य पुरुष - उनमें से कुछ हाथियों पर आरूढ़ - वंदना के लिए आते हुये दशीये गए हैं।
एलोरा की गुफाएं - पश्चिमीय समूह में एलोरा की गुफाए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। ये संख्या में भी अधिक है और विस्तार में भी, इनकी कला पूर्णविक्रमित होचुकी है। इनसे प्रभावित होकर आखिर फर्गुसनको स्वीकृत करना ही पड़ा कि “कुछ भी हो, जिन शिल्पियोंने एलोराकी इन दो मभाओं ( इन्द्रसभा और जगन्नाथ सभा) का निर्माण किया, वे सचमुच उनमें स्थान पाने योग्य हैं जिन्होंने अपने देवताओंके सम्मानमें जीवित पाषणको अमर मंदिर बना दिया" । एलोराकी जैन गुफाएं
१. विशेष विवरण के लिए देखें, श्रार्क सर्वे श्रष वेस्टर्न इंडिया प्रथम रिपोर्ट पृष्ठ ३७ ।
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ब्राह्मण गुफाओंमें अंतिम, डूमर लेणसे उत्तरकी कोई असुर रौद्ररूपमें अपने शस्त्रास्त्रों सहित
ओर करीब २०० गजपर है। ये ईस्वी सन्की ८वीं आक्रमण करता हुआ दिखाया गया है। ऊपर कोई शतीसे १३ वीं शती तककी हैं। इन्द्रसभा और शंख बजा रहा है, कोई बरछ। लिए आक्रमणको जगन्नाथ सभा एक-एक गुफा नहीं बल्कि गुफा उद्यत है। दाहनी ओर सिंहपर सवार कमठ समूह हैं। इनका विस्तार और अलंकरण कैलाश आक्रमण करनेकी स्थितिमें सिंह दहाड़ रहा है मंदिरके सिवाय किसी भी ब्राह्मण गुफामंदिरसे और सामने खड़े व्यक्तिको टुकड़े २ कर देनेके होड कर सकता है। इन गफाओंके मंडप भी बड़े २ लिए उछल पड़ा है । नीचेकी ओर दो भक्त एक विस्तार वाले है जिनमें यात्रीसंघ मुविधापूर्वक पुरुप और एक स्त्री। दृश्य बिलकुल सजीव है, बैठ सके।
आकृतियोंके मुखपर जो भाव अंकित किए गए छोटा कैलारा-ब्राह्मणोंके कैलाशमंदिरके आधार है वे बिलकुल सजीव हैं और एक क्षण को ऐसा पर ही इसका निमोण-कार्य प्रारम्भ किया गया था प्रतीत होता है कि उक्त घटना हमारी आंखों के जो दुर्भाग्यसे कभी पूरा नहीं हो सका । इसे भो ही सामने हो रही है। कैलाशमंदिरकी ही तरह ठीक उसीके अनुरूप एक दक्षिणी छोरपर बाहुबलि हैं, लताए उनके ही शिलाका तराशा जा रहा था इसलिए इसे छाटा शरीरपर छा गई हैं। गर्भगृहमें पद्मासन महावीर कैलाश कहते हैं। इमका मंडप करीब ३५-३६ फुट ध्यानमुद्रामे विराजमान है. ऊपर दुदभि तथा का है और उसमें १६ स्तंभ हैं, पीछे की ओर गर्भ. अन्य वाद्य बजाए जा रहे है । गृह है जिसका विस्तार१४।।११।। है । ममूचा मंदिर पीछे की ओर वृक्षके नीचे हाथीपर बैठे किसी एक ही शिलाका है और८० फुट चौड़ा तथा करीब यक्षकी मूर्ति है जिसे सभी विद्वानोंने एकमतसे १३० फुट ऊचा है। बाहरसे इसकी बनावट द्रविड इन्द्र माना है। वास्तव में महबीरका यक्ष मातंग है। शैलीकी है लेकिन शिखर उतना ऊंचा नहीं है दुसरी ओर यक्षी सिद्धायिकाकी मूर्ति है जिसे अभी डिजाइन तो कैलाश जैसी है ही। सफाई करते मिठी तक इन्द्राणी या अम्बिका माना जा रहा है।
आदि हटानेपर इसमे बहुत-सी खंडित मूर्तियां कोर्ट में प्रविष्ट होनेपर मंडप मिलता है जिसमें प्राप्त हुई थी। उनमेसे एक मस्तकविहीन मूर्तिपर चौमुख महावीर हैं । सिंहासनपर धमचक्र और शक सं० ११६६ (ई० १२४६) का लेख मिला था सिह है । मंडप और उसके द्वार बिल्कुल कैलाश जिसके अनुसार वह श्रीवर्धनापुरके किसी निवासी जैसे ही हैं और इसो शैलीके आधारपर वीं शतीके द्वारा दान की गई ज्ञात हो सकी थी।
माने जा सकते हैं। कोर्ट के बाएँ भी हॉल है, उसमे ___इन्द्रमभा-इस गुफासमहमें दो-दो मजिली, दक्षिणी दीवालमें पार्श्वनाथ और उनके सामने ही एक एकम जिली गुफा तथा अनेक छोटे-छोटे मदिर वाहुबलि खुदे है । यहां ये बाहरकी मूर्तियोंसे अपेमम्मिलित है। इन्द्रसभाके कोर्ट के बाहरकी दीबाल क्षाकृत बड़े हैं । पिछली दीवालमें पूर्ववत् यक्ष के उत्तरी छोरमें पार्श्वनाथपर कमठ द्वारा किए गए मातंग और यक्षी सिद्धायिका (इन्द्र-इन्द्राणी) एवं उपसर्गकी घटना उत्कीर्ण है। नग्न पार्श्वनाथ गर्भगृहमें सिंहासनपर महावीर विराजमान हैं, कायोत्सगे आसानमें ध्यानस्थ खड़े है, ऊपर उनके मस्तकपर त्रिछत्र हैं नीचेके हॉलमें प्रविष्ट सप्तफण सर्प छाया किए हुए है, एक नागी छत्र होनेपर बरामदा मिलता है और उसके आगे १८ लिए हुए है। छत्रबालीके नीचेको ओर दो अन्य खंभों वाला हॉल, जिसके कुछ खंभे तो चट्टानमें ही नागी एक हाथ जोड़े और दूसरी आश्चर्यभरे कटे है। खंभोंपर मनुष्यकायप्रमाण दो तीर्थकर दुखी मुद्रामें है। इसी ओर ऊपर भैंसेपर सवार मतियां हैं जिन्हें लेखके आधारपर शान्तिनाथ
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किरण ४]
जन गुहामन्दिर
मान सकते है। लेख नागरी लिपिमें है और एक प्राकृतियां हैं। दीवालोंपर महावीर ५०-६० बार, अन्य नागरी लेखसे, जिसे फ्लीटने ६ वी, १० वीं पाश्वनाथ ६-१० बार एवं इनके चारों ओर अन्य शतीका माना है, प्राचीन है। दोनों लेख इस प्रकार जिन तथा भक्तममह उत्कीर्ण हैं। पीछेकी दीवाल
पर गक्ष मातंग और यक्षी सिद्धायिका तथा बाहर प्रथम१. सोहिलब्रह्म
द्वाररक्षक स्थित है । गर्भगृहमें चार मिहोंक २. चारिणः शान्तिभद्रा आसन पर तीर्थकर, धर्मचक्रको बौना उठाए हुए ३. एक प्रतिमेयं
ऊपर त्रिछत्र और मिहामनके निम्न भागमें हरिण द्वितीय- श्री नागवमक्रि (क) ता प्रतिमा लांछन है जिमसे हम इसे शान्तिनाथकी मूनि कह
कोर्टके बाए' ओरके हालमे भी कनदी लिपि मकते है। अन्य बातोंमें यह इन्द्रमभा जैसी ही है। के लेखोंके चिन्ह है जिन्हें लिपिके आधारपर पार्श्वनाथ-पहाड़ीके जिस हिस्सेमे ये गुफा फ्लीटने ७५०-८५० ई.का माना है। बरामदा है, उसके मिरपर पार्श्वनाथकी विशाल मूर्ति है। पूर्वी छोरसे उपरली मजिलके लिये सीढियां है। तीर्थकर पाश्वनाथ पद्मामनम मिहामनपर श्रामीन सीढ़ीके ऊपर विस्तृत हॉल है जिसकी छत चित्रित है, नीचे आमनपर धर्मचक्रकी पूजा हो रही है. पूजा है । हालके खंभेलंकेश्वर गुहासे मिलते है इसलिए करनेवालोमे शिव और पार्वती भी सम्मिलित है। इन्हें ८वीं शतीका माना जा मकता है। वरामदमे मति १६ फूट उंची तथा फट चौड़ी है। इसपर हालमे तथा अन्य दीवालोंपर पहले जैसे ही महावीर खुद हुए लेम्बसे विदित होता है कि पहाड़ीका प्राचीन पार्श्वनाथ, बाहुबलि,यक्ष मातंग और यक्षी सिद्धाय- नाम चारणाद्रि था। लेख श्लोकबद्ध है और इम का आदि स्थित है। महावीरकी मति १२ फुट ऊंची प्रकार है.है। छतपर विस्तृत एवं सुन्दर कमल चित्रित है १. स्वस्ति श्री शाके ११५६ जयसंवछरं । जिसके रग आज भी चमकते हैं। चारो कोनोंपर (फाल्गुण मध त्रितिया बुध] दीपक रखनेके छेद है। यहांसे आग्नेय कोणक २ श्रीधनापुर ' जमा ' जनि राणुगिः । द्वारसे एक अन्य गुफामे पहुंचते है । यहां भी तत्पुत्रो म्हालुगि: स्वरवल्लभो जगतोप्यभूत ॥क्षा पूर्ववत मूर्तियां है और चित्रकारी भी लक्षित होती है
ताभ्यं व मूवश्चत्वर: * पुत्राश्चक्रेश्वरादयः । बड़े हालस ही एक मार्ग पश्चिमकी ओरकी एक मुख्यश्चक्रेश्वरस्तप ५ दाधर्मगुणोत्तरः । अन्य गुफाको जाता है। यहां प्रविष्ट होते ही दाहनी २.चंत्यं श्रीपार्श्वनाथस्य गिरी वारणसवित । और चतुभुजी तथा दूसरी अष्टभजी देवी स्थित है। चक्रेश्वरो सजदानाद्धता ' हुतों च कमणा ॥३॥ ____ जगन्नाथसभा-इन्द्रमभाके पीछे ही जगन्नाथ- वनि विवानि जिनश्वगण ' महानि । तनैवसभा है। सफाई की जाते समय इममम बहुत-सी विरच्य मर्वतः। मृतियां प्राप्त हुई थीं जिनसे विदित होता है कि यहा श्राचारणाद्रिगमितः मुतीथता कैल मभूभद्रतेन भारी तादादमें मतियांखादी गई थीं। कोर्टक पश्चि. यद्वत ॥४।। मकी ओर मंडप है जिसमे पहले जैसे ही गर्भगृहमं धम्मकमतिः स्थिरशद्धदृष्टिहयो सतीवल्लभ महावीर, दाहने बाहुबलि और बाएं पाश्वनाथको मतियां उत्कोण है। यक्ष मातंग और यक्षी सिद्धायिका १.मंवत्सरे पढे २. श्री वर्धनापर पढे ३. ताभ्या पदे भी उमी प्रकार ही है। दीवालोंपर कनडी लेखोंक ४. चत्वारःपढे ५.दानधर्म०६.चारण. .. दानाधतामंदकुछ अक्षर देखे जाते है जो८००-२५०ई०क होंगे। हास्य जिनेश्वराणा ६. मन्ति सामने दाहने ओर की छोटी कोठरीम भी पूर्ववत् १.५ भगवान लाल इन्द्राजी 'दीनी सती' पढ़ते है।
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अनेकान्त
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कल्पवृक्षः । उत्पद्यत निर्मलधर्मपालश्चक्र:श्वर, मे ११-१२ वीं शतीको गफाप हैं । इनमें से दो पञ्चमचक्रपाणि ||५|| शुभ भवतु ।।
गफाओं में भद्दी जिन-कृतियां पद्मासन ध्यान-मुद्रा __फाल्गुण त्रितीयां बुधे
में हैं। एकको दीवालमें मिहासनपर जिन हैं, उक्त लेबसे ज्ञात होता है कि शक सं० ११५६ उनके मस्तकपर २ नथा कतारोंमे १६ जिन है । गुफा फाल्गुण शुक्ल तृतोया बुधवारको श्रीवर्धनापुरके के पीछे सपफणयुक्त पार्श्वनाथको अधूरी मृति है। चक्र श्वर नामके व्यक्तिने चारा ऋषियांसे सेषित भामेर-खानदशक निजामपुर डिवीजनमे इस पहाड़ीपर कर्मोके क्षयहेतु श्री पाश्वनाथका धूलियास ३० मील दूर कुछ गुफाएं है। इनमेसे चैत्य और माथही माथ अनेक विशाल जिनमृतियां तीसरी सचमुच गुफा है, इसका बरामदा ७४ फुट भी निर्माण कराई और इस प्रकार यह चारणाद्रि है और उसम तीन द्वार २४४२० के वरामदोंमे जात पर्वत एक तीर्थ बना दिया गया जिम प्रकार भरतन है। जो एकदम अधियार है। दीवालोंपर पाश्वकैलाशको बना दिया था। पांचवें श्लोकमे चक्रेश्वर- नाथ तथा अन्य तीर्थककी भद्दी आकृतियां बनी को अनेक गण-यक्त, धर्मपालक तथा पंचमचक्रपाणि है। शैली चामरलेय जैसी ही है। (चक्रवर्ती या नागयण) कहा गया है।
__ बामचन्द्र-पूनासे करीब १५ मील वायव्य कोण पहाड़ीके नीचे और भी गुफाए हैं पर वे टूट में एक छोटा-सा गुहाम दिर तथा दो अधूरे गुहाफूट चुको है।
मदिर है। अब इनमें शिवलिंग स्थापित है। मडप पाटन-पीतल बोराके निकट पाटन ग्रामके पूर्व १५|| वर्गफुट, छत नीचा, चार स्तंभ, गर्भगृहक द्वार में कनहर पहाड़ीके पश्चिमी भागमे दो ग एं की चौग्बट अलगमे जोड़ी हुई। यहां जो भी आकृनागार्जुनकी कोठरी और सीताकीन्हानी खुदी हुई तियां मिलती है व तेल और सिंदर आदिसे इतनी है। दोनों गुफा' प्राय, एक-सी है, उनका आकार पोत दी गई है कि पहचानी नहीं जाती। अनियमित है और उनम अनक दिगम्बर मूर्तियां अकाइ त काइ गफाएं-अकाई गांवमें १०८गज उत्कीर्ण है । पहला गुफा का वरामदा एक छोरपर की दरीपर मात गुफाओका समूह है ,गुफाएं है तो छाटी १८४६ और दूसरपर १८४ है और दो खंभांस पर शिल्पकी दृष्टिले महत्वकी है। पहली गुफा दोसधा हुआ है । दूसरी गुफाका वरामदा २४ फुट मजिली है । नीचंकी म जिलका सामनका भाग दो लबा ह और उसमें भी दो खंभ है। वरामदाक वा बभोक आधारपर स्थित है। दोनों खंभोंपर द्वारएक छोटा-मा कमरा भी है। हाल २०४१४ और पाल जैसी आकृतियां उत्कीर्ण है । वरामद से मंडपमें २०x१६ का है, उसमें भी दो ग्वंभे है, इनममे एक जानका द्वार तो शिल्पमे भरपूर है वहां सूक्ष्म-मे पर स्थूल पुरुष और दमरपर बालक लिए स्त्री सूक्ष्म अंकन किया गया है। भीतरी मडप वगाकार उत्कोण है। पिछली दीवालमें कमलपर तीर्थकर है, उसकी छतको चार खंभे साधे हुए हैं। सभी
आसीन हैं । सिर पर तीन छत्र, कंधोंके ऊपर खंभे १११२ वीं शतीकी शैलीके है । गभगृहका विद्याधर आदि और दोनों ओर दो चंवरधारो द्वार भी पूर्ववत् शिल्पपूर्ण है । ऊपरी म जिलका है। पीछेको आर दक्षिणी दीवालमें आदमकद खड़े द्वार उतना शिल्पित नहीं है, भीतरी हाल ता बिलजिन उत्कोणं है, उनके पीछ प्रभामंडल, मिरपर कुल ही सादा है। तीन छत्र आदि है । गफाकी बनावट एलोराको दमरी गुफा पहले जैसी ही है और दो-मंजिली अन्तिम कालीन गफागों जैसा ही है अतः य उसी है। नीचेकी मंजिलका वरामदा २६४१२ फूट कालकी होनी चाहिए।
है, उसके दोनों छोरोंपर जो मतियां है जो दीवाल चामर लेण-नासिक से कुछ दूर वायव्य कोण- में उत्कीर्ण की हुई नहीं बल्कि स्वतंत्र पापाणकी हैं।
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जैन गुहामन्दिर
किरण ४ ]
यहां भी इन्द्र-इन्द्राणी (संभवतः मातंग और सिद्धा यिका) स्थित हैं । इन्द्राणीको तो गांववालोंने पोत पातकर भवानी बना लिया है। दूसरी मंजिल के लिये सीढ़ियों पे चढ़कर सादे द्वारसे होकर छज्जेपर पहुचते है जिसके दोनों छोरोंपर विशालाकृति सिंह उत्कीर्ण है | गर्भगृह ε×६ फुट है और उसमें मूर्ति की चौकी बनी हुई है ।
तीसरी गुफा दूसरी गुफाकी निचली मंजिल जैसी है । मामनेका कमरा २५४६ फुट है। दोनों छोरोंपर विशाल आकार के इन्द्र-इन्द्राणी ? स्थित है । मंडप २१x२५ और उसमें चार खंभ है । छतपर जो कमल बना है वह अन्य स्थानोंकी अपेक्षा अधिक सुन्दर तथा आकर्षक है । उसमें पंखुड़ियोंका चार कतारे हैं, उन पंखुड़ियोंपर नाचती या वाद्यजाता देवियां दिखाई गई है, देवदेवियों के अनेक जोड़े अपने अपने वाहनो पर आसीन हैं और तीर्थकरों के जन्मकल्याणक उत्सवकी ओर संकेत करते है । गभगृहमें आदमकद खड़े तीर्थंकर है, संभवतः शांतिनाथ निचली चोकीपर दोनों तरफ भक्त और सिंह, मध्यमे धर्मचक्र और उसके दोनों तरफ हाथा, नाच मृगलाइन तथा छातीपर श्रीवत्मांक इनके दोनो और छोटे-छोटे खंभों पर पंचफरणयुक्त पार्श्वनाथ खड़े है। शांतिनाथ के कंधों के ऊपर विद्याधर तथा उनके भी ऊपर गजलक्ष्मी । हाथियों के ऊपर पुष्पवृष्टि करत गंधक जाड़े और सबसे ऊपर तोरण बना है | इस प्रकार यह शैलो अधिक प्राचीन प्रतीत नहीं होती, १२वीं-१३वीं शतीकी कला है । गुफा कुछ ऐसे भी छेद है जिनमें महमद गजनवी के आक्रमणकाल में तीर्थंकर - मूर्तियां छिपा दी गई हों अथव। जिनका उपयोग अलाउद्दीन खिलजाक रक्तपातभरे राज्यकाल मे हुआ हो ।
चौथी गुफा के बारामदे में दो खंभे है, बरामदा ३०×८ फुट है। द्वार तो नीमरी गुफा जैसा ही है । मंडप १८ फुट ऊँचा और २४ फुट चौड़ा है, उसके बीच में दो खंभे है । वरामदेके वाएं खंभेपर लेख भी है पर पढ़ा नहीं जाता । अक्षरोंस हो उसे ११
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१२वीं शतीका अनुमानित किया जा सकता है । इनके अतिरिक्त कुछ गुफाएं पूर्व की ओर भी हैं पर वे सब टूटी फूटी है ।
मध्यभारत समूह
मध्यभारत में गुहामंदिर दो ही स्थानोंमें है और दोनों ही स्थान भूतपूर्व ग्वालियर रियासत में है । एक तो भेलसाके पास उदयगिरि पहाड़ी, जिसका वर्णन समयक्रमके आधारपर पूर्वीय समृहके माथ किया जा चुका है और दूसरा ग्वालियरका किला । ग्वालियर किले के गुफामन्दिर संख्या, विस्तार तथा मूर्तियोंकी ऊँचाईके कारण विशेष आकर्षण की वस्तु है । उक्त किला एक स्वतंत्र पहाड़ीपर है, वास्तवमं किला और पहाड़ी अलग अलग नहीं बल्कि एक ही वस्तु है । यह उत्तर-दक्षिण करीब २ मील लम्बा, पूर्व-पश्चिम आधा मील चौड़ा एवं ३०० फुट ऊँचा है। किलेमें कोई भी अधिक प्राचीन जैन वस्तु प्राप्त नहीं हुई है, सासबहू मंदिर जिसे कुछ लाग जैनमन्दिर कहते है, भी संभवतः ई० १०६३ में निर्माण किया गया था।
१५वीं शती में तोमर राजाओं के राज्यकाल में जैनांका जोर बढ़ा और उस समय पूरी पहाड़ीको जैन तीर्थ बना दिया गया। सारी पहाड़ीपर ऊपर नीचे, चारों ओर गुफामन्दिर खोद दिये गए और उनमें विशाल मूर्तियों का भी निर्माण किया गया । यद्यपि ये गुफामन्दिर और मूर्तियां संख्या और विस्तार में सर्वाधिक है फिर भी एलोरा तो क्या अन्य स्थानों की अपेक्षा भी इनका उतना अधिक महत्व नहीं आंका जा सकता क्योंकि एक तो ये अर्वाचीन है और दूसरे ये उतनी कलार्पूणभी नहीं है ।
उरवाही द्वारपर पहला और महत्वपूर्ण समूह है जिसमे करीब २५ विशाल नग्न तीर्थकर मृतियों मन्दिरोंके साथ खोदी गई है। इनमें सबसे बड़ी
१ कनिघम, रिपोर्ट जिल्द २, पृष्ट ३६० ।
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१४० अनेकान्त
[वर्ष १० ५७ फुट ऊँची है। यहीं श्रादिनाथ और नेमिनाथकी उपसंहार-इन प्रकार हम देखते है कि गुफाम३०-३० फुट ऊँची मूर्तियां हैं, साथ ही साथ अनेक ठिरोंका इतिहास जैनोंसे ही प्रारंभ होता है और छोटी छोटी मूर्तियां तथा अलंकरण आदि है पर उन्हींपर आकर समाप्त होजाता है- ग्वालियर उनमें कोई आकषण नहीं है । दूसरा समूह आधा किलेके गुफामन्दिरोंके उत्तर-काल में शायद अन्यत्र मील ऊपर और जाने पर मिलता है जहां २०.३० कहीं कोई गुफामन्दिर खोदाही नहीं गया। जहां फटकी मूर्तियां तथा :.-१५ फुट तककी बहुतसा तक शिल्प का क्षेत्र है जैन अन्य दोनों, ब्राह्मण बौद्ध मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । इस समहमें सचमुच गुफा कही सम्प्रदायोंस किसी प्रकार पिछड़े नहीं है-- अजन्ता जा सकनवाली गुफाएं भी है। इनके अतिरिक्त की गुफाओंका विशेष महत्व उनके चित्रोके कारण पहाड़ीके चारों ओर तीन-चार गुफामन्दिर समूह है-। उदयगिरि और खडगिरि की गुफाएं तो गुफाहै, उनमेंसे सर्वाधिक महत्त्व का समह है एक पत्थर निमोणके इतिहास में सवेच्चिस्थान प्राप्त किये हुए की वाबड़ीक पासका। इस गुफासमहमे पार्श्व. है, और इन्हींस दोमंजिलोगुफाओंका इतिहास नाथ की पद्मासन मति करीब २० फुट ऊंची है, प्रारंभ होता है। ऋषभनाथ अजितनाथ आदि की कायोत्सर्ग श्रामन में खड़ी अनेक विशाल मतियां है। समूह से हटकर
कलाकी दृष्टिसे शित्तनवासलक मदिरभी उल्लेखकुछ गजों की दूरीपर एक विशाल गुफा है जो सही नीय है। इसीप्रकार सौराष्ट्रमे गिरनारकी बाबा माने में मन्दिर ही है। मन्दिरकी मलनायक मूर्ति प्यारा मठ तथा ऊपरकोटकी गुफा भी जैन गुहा५५-६० फुट से कम ऊँची न होगी।
मंदिर निर्माण की प्राचीनता सिद्ध करती हैं। इन इन गुफामन्दिरोंमें अनेक लेख मिले हैं जिनसं गुहाओंमें अनेक जन चिन्ह प्राप्त हये है और वर्जेस विदित होता है कि ये ३३ वर्षमें खोदी जा सकी थीं ने यही पार्श्वनाथकी एक मूर्ति भी दखी है, इसी (अर्थात १४४१ से १४७४ में)। कनिंघमका मत है स्थानसे क्षत्रपकालीन उत्कीर्ण लेख भी प्राप्रहा था कि ये लेख पीछेसे जोड़े गए है। कुछभी हो, पर जिसमें 'केवलिज्ञानसंप्राप्तानां' पद पढ़ा गया था। इसमें संदेह नहीं कि ये १५वीं शतीक गुफामन्दिर है ऐसी स्थिति में फर्गसनके इस कथनका कला और शैलीकी दृष्टिसे ये अन्य स्थानीय गुफा- कि जैन कभी गृहानिर्माता रहे ही नहीं क्या मन्दिरोंकी अपेक्षा अधिक निम्न श्रेणीके है। मल्य है इसे पाठक स्वयं समझ सकते है।
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प्राखिर यह सब झगड़ा क्यों! [ले० श्री बा० अनन्तप्रसाद जैन बी० ए०, बी० एस-सी० इंजीनियर ]
यों तो जितने मनुष्य उतने ही मत, परन्तु धर्मों की संख्या काफी बड़ी होगई है। केवल भारतमें सामूहिक रूपमें किसी एक विशेष प्राचार. ही प्रचलित धों, मत-पतान्तरों, सम्प्रदायों और मान्यव्यवहार एवं सिद्धान्तको माननेवाले अपनेको ताओंकी गिनतीका अंदाजा लगाना प्रायः असंभव-सा अलग-अलग सम्प्रदाय या धमका अनुयायी मानते ही है। भारतीय दर्शन एक विशेषता रखते हैं। प्रायः और कहते हैं । संसारकी वर्तमान सामाजिक सभी धर्म विभिन्न हाते हुए भी अपनी मान्यताओ व्यवस्थाओंमें कोई भी व्यक्ति जन्मसे ही किसी धर्म सिद्धान्तों, तर्कशैली एवं आचार-व्यवहारमें बहुत या सम्प्रदायका अंग होजाता है। जो धर्म उसके बड़ी समानता रखते हैं। फिर भी आपसी असहयाग बाप-दादे मानते आये है, वही उसका भी धर्म हो या झगड़ा इसीलिये है कि हर एक अपनेको दृम्रेसे जाता है। बाइको उसी कुटुम्न या समाजमें रहते २ भिन्न और ऊंचा समझता और वतेता है तथा दूसरों उम व्यक्तिकी प्रवृत्तियां,विश्वास,मान्यतायें,धारणायें को हीन दृष्टिसे देखता है। यही बस ठीक नहीं।
और गति नीति तथा व्यवहार मभी कुछ सांचे में यदि सभी भारतीय दर्शनोंका समन्वय किया जाय ढले जैसे हो जाते है। विभिन्न धर्मावलम्वियोंने तो किसी प्रश्न या विचारणीय विषयको पूर्णरूपसे अपने धर्मको श्रेष्ठ और दूसरों के धर्मोको गलत समझनेके लिए हर एक दृष्टिकोणको अलग-अलग या होन कह-कह कर एक ऐसा वातावरण रूपसे समझनेकी आवश्यकता होगी। मदियोंसे कायम कर रखा है कि जो भी इसमें जैनी कहते है कि उनका धर्म सर्वश्रेष्ठ है। ऐसा प्रवेश करता है, वह भी उन्हीं विरोधी भावनाओंको ही दसरे भी कहते हैं। सब अपने अपनेको सबसे दृढ़तासे अपना लेता है । उपर्युक्त धार्मिक शिक्षा- अधिक ठीक या एकदम ठीक और दूसरोंको गलत
ओके प्रभावने इस विरोधको सदा बढाया एवं कहते है। सभी लोक-कल्याण और व्यक्ति तथा पुष्ट ही किया है । शक्ति सालो या कमजोर राजाओं समाजकी उन्नतिका दावा करते हैं और कहते हैं कि सम्राटों और नरेशोंने या उनके मंत्री, प्रशंसक केवल उन्हींके धर्मशास्त्रोंमें बतलाए मागेसे चलकर
और खशामदियोंने राजाओं तथा राज्यसत्ताका कोई भी मनुष्य उन्नति कर सकता है। हर एक यह प्रभाव एवं दबदबा बनाए रखने या अन्य प्रकारम भी कहता है, कि जो ज्ञानवान मानव सचमच धर्मस्वार्थ साधनके लिये तरह-तरह के शास्त्रोंकी तत्वांको जानकार होगा, वह उसीके धामिकतत्वों अपने मनोनुकूल व्याख्यायें व्यवस्थायें और परिभा- को ठीक मानेगा और यदि कोई उसे स्वीकार नहीं पायें समय-समयपर प्रचलित की-कहीं कहीं तो
करता है तो उसका मतलब यह है कि उसका ज्ञान काफी अन्याय अत्याचारके द्वारा भी गज्यकी इच्छा- अपूर्ण है या विकृत है, और ज्ञानके विकासके साथ ओंका प्रचार किया गया। ये सभी विश्वास समय
जब सब बातोंको वह और अधिक समझने लगेगा के साथ जोर पकड़ते पकड़ते रूढ़ियों में परिणत हो तब स्वय उसके धमकी श्रेष्ठता स्वीकार कर लेगा। जब गये और लोगोंने उन्हें ही स्वाभाविक मानकर सारा वास्तवमें बात ऐसी ही है, और ईमानदारीके साथ जोर लगा दिया तथा अब भी लगाते रहे हैं। लोग सचमुच ऐसा ही समझते और मानते हैं तब
इस तरह संसारमें फैले मत-मतान्तरों या फिर झगड़ा किस बात का ? सिवाय इसके कि
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अनेकान्त
[वर्ष १०
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हम अपनी ऐठ या अहंभावमें या अपनेको बड़ा व्यवहार करते हैं। यदि यह अज्ञान दूर होजाय तो
और दूसरोंको छोटा समझते या कहते रहनेके लिये हम स्वयं अपने आप किसीके बहकावे या भुलावे. ही यह सब झगड़ा-रगड़ा या द्वेष-
विद्वेष बढाते रहें में न पड़कर जो सच्चा, अच्छा एवं सर्वश्रेष्ठ होगा और कोई तथ्ययाअसलियत इसमें नहीं है। यह तो उसे जानलेंगे, चनलेंगे, पसंद तथा स्वीकार कर लेंगे केवल हमारी संकुचित एवं ओछी मनोवृत्तिका परि- और उसके अनसार काम भी करने लगेंगे। फिर तो चायकमात्र है। यदि सचमच लोककल्याण अभीष्ट ऐसे सभी लोग लोक-कल्याणमें सावधान एवं अपने है तो वजाय आपसी झगड़ रगड़े में शक्ति और और दूसरों को ज्ञानका लाभ करने-करानेकी तरफ ही समयका दुरुपयोग अथवा बर्बादी करनेके लोग उसे सचेष्ट होंगे और उमीमें सतत रचे-पचे रहेगे अपने अपने ज्ञानकी वृद्धिकी तरफ लगावें तो सचमुच ऐसा होनेपर रगड़ा-झगड़ा अपने आप खत्म हो धर्मका पालन भी हो और सबका तथा संसारका जायगा ज्ञानका उपार्जन और वृद्धि ही मुख्य ध्येय भला भी।
रहेगा। अतःसंसार-देश-समाज-एवं धर्म और व्यक्तिकी मंसारमें या किमी भी देरामे हरएक प्राणी अपना सच्ची उन्नतिके लिये यह आवश्यक है कि हम जैन अपना अलग अलग म्वभाव, मत-व्यवहार, पसंद, वौद्ध, वैष्णव, वेदान्ती, आर्यसमाजी आदिका भेद- ढंग और काम करने के तरीके रखता है । यह भिन्नता भाव भलकर एक दुसरंकी बातोंको जाननेकी चेष्टा कभी मिटनकी नहीं। सारे संसारमें इस तरह काल, करें। इससे ज्ञानकी उत्तरोत्तर वृद्धिद्वारा विज्ञ ज्ञानो जलवायु और स्थान या प्रवृत्रि और भुकाबके समझने की शक्ति और माद्दा अर्जित कर लेनमें समर्थ कारण भी एक धम, एक रीति-व्यवहार या मान्यतायें हो सकेगा और फिर उसे जो ठोक जंचंगा उसे स्वयं हो ही नहीं सकतीं, तब फिर क्यों न ऐसा कियाजाय स्वीकार कर लेगा प्रारंभमें ही दूपमूलक झगड़े करके कि हम वजाय छोटी-छोटी बातोंमें ही ममय वर्वाद शक्तियोंका व्यर्थ हास कर देना तो कोई बुद्धिमानी करनेके सारे ममारमं सम्यक-जानकी बद्धि कर, जा नहीं कही जा सकती। यद्यपि अबतक बहुत दिनोंसे स्वयं ही मब प्रश्नों, शकाओं और गुत्थियों का यही होता चला रहा है पर गलन बात गलत ही समाधान करनवाला है। है चाहे कितनी भी पुरानी क्यों न होजाय । अबतक श्वेताम्बर-दिगम्बरका झगड़ा या तेरापंथी-वीमहमने अपना संसारका एवं मानवमात्रका बड़ा ही पंथीका झगड़ा या जैनी-आर्यसमाजका झगड़ा तो भारीनकसान किया है। इसे-इसबातकी महत्ताको सचमुच व्यर्थका वितण्डावाद है। यह सब विभिन्नयदि हम अब भी समझले और सच्चे दिलसे दृढता- ताएँ तो एक-न-एक रूपमे सर्वदा रहेगी ही। लोग पूर्वक पुरानी गलत रीतियों, रूढ़ियों, धारणाओं एवं अपनी अपनी रुचि समझ एव मुविधाके अनुमार प्रणालियोंसे छुटकारा पा सके तो पुननिर्माण एवं समय समयपर क्षेत्र-काल-देश एवं आवश्यकताओं सच्चे उत्थानमें देर नहीं लगेगा।
से मजबूर होकर हेर-फेर करेंगे ही, खामकर अज्ञानाहमारे अन्दर वही अनंत शक्तिमान आत्मा वस्था या कम ज्ञानको अवस्थामं दसराहो ही क्या विद्यमान है जो पहिले कभी था और ठीक रास्ता सकता है। इसलिये सभी धमक पौडतो. विद्वानों. पकड लेनेपर इसे शरीर धारण करना दुःख और गुरुओं और प्रचारकोंको अब यह चाहिये कि लोकमे अज्ञानका कारण न होकर अनंत सुख, ज्ञान और ज्ञानको अधिक-से-अधिक वृद्धिके लिये यत्न, चेष्टा, मोक्षका कारण हो सकेगा । अज्ञान अथवा मृढता- अध्यवमाय एवं श्रम करे | अपनी बातें आधिकाधिक वश हो हम मानव एक-दूसरेसे लड़ते है, एक रूपमे समझे और दृमरोंकी बातों को समझकर दूसरेको ऊँचानीचा समझते हैं और तदनुसार उनसे टड दिल एवं दिमागकं साथ तुलना करें ।
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आखिर यह सब झगड़ा क्यों ?
किरण ४]
दूसरोंकी बातें स्वयं जानें और अपनी बातें समझने वालोंसे दूसरों की बातें जाननेको भी कहें तथा जाननेमें मदद करें तभी शुद्ध ज्ञान होगा और उसका सुसंस्कृत विकास होगा । ऐसा करके ही लोगोंकी मानसिक उन्नति और साथ ही आध्यात्मिक उन्नति भी हो सकेगी।
प्रायः सभी भारतीय धर्मामें आत्मलाभ आत्मज्ञान(to know the self or self realisation ) कोही महत्व दिया गया है और इसी को चरम आदर्श या ध्येय कहा गया है। यही सच्चा पुरुषार्थं है और मानव-जीवन प्राप्त करनेका ध्येय-मतलव या अर्थ भी इससे सम्पन्न होता है । अपनेको जानना किसी भी समझ्दार व्यक्तिका सबस पहला कर्त्तव्य है और सतत प्रयत्न एवं ध्यान अथवा तपस्या या भोग साधनपूर्वक अपने आत्माको जान कर उसे पा लेना ही हमारे जीवनका एकमात्र उद्देश्य है । इस काय या आ. शकी सिद्धिके लिए एकाग्रता अविच्छिन्न ध्यान, निर्विकार मनोयोग एव निश्चितता परम आवश्यक है। निर्मल ज्ञानका होना तो सबका आधार ही है। इस परम इष्ट आत्मधमके साधनद्वारा ही मनुष्य या व्यक्ति दुखोंस छुटकारा पाकर उन्नति करते-करते ईश्वर हो जा सकता है और इस तरह सारे आवागमन या सांसारिक कष्टों से छुटकारा पाकर परम निर्विकल्प एवं परम निराकुल मोक्षसुखका लाभ कर सकता है। इसी एक अ ंतिम या चरम लक्ष्यकी प्रधानतापूर्वक प्राप्ति के लिए ही सभी धर्मोन अपना २ मार्ग एवं रीतियाँ निर्धारित या निरूपित की हैं। जब लक्ष्य एक ही है तब साधन, प्रवृत्ति एवं समझके अनुसार व्यावहारिक विधानोंमे यदि भेद हुआ ही या होगा ही तो उसके कारण व्यर्थ तू-तू मैं-मैं करते रहना सिवा हानिके लाभप्रद कभी नहीं हो सकता । यही कारण है कि हम सब आपसमें एक दुसरेको समझ कर एक-साथ संयुक्त चेष्टा करने के बजाय लड़ते झगड़ते ही रह गए। इसमें अपने आप गिरे उन्नति मार्ग में आगे बढ़नेनं बंचित रहे और दूसरोंको भी गिराया तथा वंचित किया ।
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धार्मिक आचारों को पूर्णरूपसे निवाहने और ठीक जाननेके लिए देशकी राजनैतिक परिस्थितियोंका एवं सामाजिक संगठनका अनुकूल होना भी अत्यंत जरूरी है । राजनैतिक वातावरण या विधान और व्यवधानोंपर सच्चे धर्मका पालन बहुत कुछ निर्भर रहता है । इसलिए धर्मगुरुओं, पडितों और उपदेशकोंको यदि सचमुच लोककल्याण इष्ट है | सच्चे धर्मकी स्थापना ही मुख्य लक्ष्य और जाति, सम्प्रदाय, समाज एवं देश अथवा संसारमें सच्चा सुख और स्थायीशान्ति स्थापित करना ही उत्तम आदर्श है तो उन्हें सबसे पहले अपनी सारी शक्ति लगाकर राजनैतिक वातावरणको दुरुस्त करना ही होगा । अन्यथा आज तक हजारों वर्षों में कितने ही बड़े-बड़े अवतार बुद्ध, तोर्थंकर, पैगम्बर, मसीहा, उपदेशक, ज्ञानी वगैरह जो हुए है उनको शिक्षाओं के होते हुए भो संसार को दुरवस्थाएं एवं दुर्व्यवस्थाएं अब भी बनी हैं, उसमें उनकी भा सारी चेष्टाएं या शिक्षाए केवल मैकड़ों करोड़ों मानवों में गिनती के कतिपय धनिकों की कुछ भलाई करनेके सिवा प्रायः व्यर्थ ही रही है। अब तो एक ऐसे समाजकी स्थापना की जरूरत है जहां प्रायः सब समान हों-न कोई ऊँच हो न कोई नीच हो, यथाशक्ति परिश्रम करनेके बाद आजीविका एवं निर्वाहकी निश्चिन्तता हो और वृद्धावस्था या असहायावस्थामे देख-रेखकी निर्भरता हो । रूसका साम्यवाद तो अपने विनाशोक उपायोंसे आरंभ मे मफल होते भी जीवनके मुख्य व्यावहारिक क्षेत्रमे असफल सिद्ध हुआ है। अब तो महात्मा गांधी वाला जैन तीर्थंकरोंका बतलाया हुआ अहिंसामय 'समतावाद' ही हरएक बुराइयोंको दूर कर सकता है | इस 'समतावाद' की सिद्धिके लिए 'आत्मधर्म' का अधिक-से-अधिक व्यापक प्रचार ही इस धरातल पर अधिक-से-अधिक सुख-शान्ति स्थापित कर सकता है । सभी भारतीय धर्म या धर्मतत्व एक स्वरसं इसकी महत्ताका गान गाते है । फिर क्यों न सब कोई मिलकर अपने अपने धर्मोद्वारा निर्देशित मार्ग
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अनेकान्त
[वर्ष १० से चलते हुए और एक-दूसरेसे न टकराते हुये आगे थोप देते हैं। यह ठीक नहीं। इस उलटी प्रवृत्तिने हरतरह आगे बढ़ें। जो जितना ही अधिक बढ़ जाय उतना से सबकी हानि ही की है । ज्ञानकी वृद्धि होनेसे सारी ही अच्छा । आत्मज्ञानके मार्गमें किसी भी उपाय, आपत्तियां और भेदभाव अपने आप मिट जायेंगे अवलम्ब या धर्मका आश्रय ग्रहणकर जो कुछ भी या शमन हो जायेगे। थोड़ा-सा भी यदि कोई अग्रसर हो सके तो वह भी जब आत्मा हजारों-लाखों-करोड़ों क्या अनादिकाल एकदम नहींसे हर हालतमें अच्छा ही है। सैकड़ों के असंख्यात वर्षोंसे इसी तरह चलता हा आता है हजारों वर्षोंसे एक खास तरहके संस्कारोंमें पलते तो यदि सौ-सौ वर्षका समय या एक-दो जन्म और रहनेके कारण हममें कोई बात जांचने, देखने, सम- भी लग जाय तो कोई खास फर्क नहीं पड़ जाता। झने और ग्रहण करनेकी एक खास अपनी दृष्टि या झगड़ेकी जड़ यही है कि हम सब कुछ इसी एक जन्म दृष्टिकोण हो गया है। धार्मिक-रोक, व्यवधान और में पा जानेकी हड़बड़ीमे एक-दूसरेसं टक्कर खाते ही संकुचितताने इस दृष्टिकोणको अत्यन्त संकुचित रह जाते हैं और कुछ भी नहीं कर पाते । मेरे कहने बना दिया है । इसे अब दूर करना होगा। जरूरत का तात्पर्य यह नहीं कि खामखाहम जन्मोंकी संख्या है ज्ञानवृद्धिकी । हम स्वयं अपने ज्ञानकी वृद्धि करें बढ़ाई जाय । आदर्श तो यही रखना चाहिये कि और दूसरोंमें इसकी रुचि उत्पन्न करें। इसके लाभ हमें कम-से-कम समयमें और संभवतः इस एक ही सबको समझा एवं हर तरहकी सुविधायें और मनुष्यभव (जन्म)मे मोक्षकी प्राप्ति कर लेनी है-पर उपादान उपलब्ध करने और करानेमें सच्चे हृदय यदि यह संभव न हुश्रा या यदि हम अपने इम से सचेष्ट रहें। तभी हम अपने धर्मकी- हर एक धर्म चरमोत्कर्ष तक समयाभावसे नहीं पहच सके तो वाला अपने अपने धर्मकी- और साथ ही साथ व्य- आगे भी चेष्टा करनी छोड़ दें सो गलती या भ्रम है । क्ति, समाज एवं देश तथा अंतमें संसारकी उन्नति हम अपने समताभावको स्थिर रखते हये जितना एवं उत्थान कर सकता है। एक वेदान्तीको यह भी आगे बढ़ सके उतना बढ़ना चाहिये और ऐना नियम बना लेना चाहिये कि हर वेदान्तके साधक, करना आगे-आगेके जन्म याजन्मोंमें उससे भी आग. जिज्ञासु या ज्ञान प्राप्त करनेवालेको जैन, बौद्ध आगे बढ़नमें सहायक होगा न कि पीछे फेरनेमे । इत्यादि सभी प्रमुख दर्शनोंकी ठीक जानकारी प्राप्त इस तरह मनुष्यका सुधार तथा उसे सच्चे सुख एवं करना और कराना ज्ञानकी विशुद्धता एवं पूर्णताके स्थायी शांति और निश्चितताकी प्राप्तिका एक मात्र लिये अनिवार्य बतलावे तथा यही बात जैन और साधन 'आत्मधर्म (Realisation of the self) बौद्धोंके लिये भी आवश्यक है कि वे वेदान्त,सांख्य, है जिससे हर धर्म, सम्प्रदाय एवं विभिन्न न्याय इत्यादि दर्शनोंकी जानकारी अपने यहां आव- मतों दर्शनोंके अनुयायियो अथवा मानने श्यक करार दें। तभी ज्ञानका चौमुखी विकास एवं वालोंको अधिक-से-अधिक अपनेमें और संसारमें प्रकाश होगा और हर एक दूसरेकी बातोंको तो जाने विस्तृत करना ही अपना ध्येय, इष्ट या लक्ष्य बना ही गा, जो अपनी बातोंकी जानकारीमे दृढ़ता प्राप्त लेना चाहिये और इसकी प्रगति तभी अधिक-सेकरनेके लिये अत्यन्त आवश्यक है, साथ ही साथ अधिक होगी जब हम कम से कम विरोध, विद्वेष अपनी बातोंका ज्ञान भी अच्छी तरह या सम्यक् तथा विपरीताचरण करेंगे और एकता, अभिन्नता एवं प्रकारसे हो सकेगा। अन्यथा तो हर एकका ज्ञान सहयोग यासहगामिताकी भावनाको उत्तरोत्तर वृद्धिअधूग या एकतरफा ही रह जाता है। इसीसे गत रखेंगे। यह बात मभीके लिए बराबर रूपस साधना जब सफल नहीं होती तब लोग धर्मको ही लाग है चाहे वह वेदान्ती हो, वैदिकमतानुयायी हो, दोष देते हैं और अपनी गलतियोंको धर्मके माथे सांख्य हो, नैयायिक हो, बौद्ध हो, जैन हो या और
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आखिर यह सब झगड़ा क्यों ?
किरण ४ ]
कोई । हरएक मुख्य धर्मके अन्तर्गत जो छोटे-छोटे भेद, फिरके या मतान्तर होगये हैं उनके लिए भी यही जरूरी है कि अपने चरम आदर्श, उद्देश्य या लक्ष्य की तरफ ध्यान रखें न कि छोटी-छोटी बातोंपर ही झगड़ते रह जाएँ - जैसा वे अबतक करते आये हैं। एक छोटा-सा उदाहरण यहां दिया जा रहा है। भगवान महावीर क्षत्रिके पुत्र थे या ब्राह्मण के ? इसपर झगड़ा करते रहने के बजाए यदि हम भगवान महावीर ने क्या किया और क्या कहा उसको समझने और पालन करनेमें अपनी शक्तियों को लगावे तो अपना ही नहीं, किन्तु अखिल विश्वका एवं सारे मानव समाजका भी बड़ा भला करेगे। किसी बातकी अस लियतका पता लगाना जरूरी है पर उसीपर वादविवाद करते ही रह जाना बुद्धिमानी नहीं ।
शास्त्रोंने हमें केवल मार्ग बतलाया है । जैसे श्र व्यवस्थित घनघोर जंगलके बीचसे होता हुआ एक पहलेका बना हुआ राजमार्ग हमें निर्विघ्न जंगल के बाहर पहुंचाने में सहायक होता है उसी तरह ये शास्त्र हमें संसाररूपी घनघोर जंगल से बाहर निकलनेका रास्ता बतलाते है नहीं तो हम भटकते ही रह जाँय । जो मार्ग इन पुराण-पुरुषोंने सहस्रों वर्षो के अनुभव, श्रम और तपस्यासे जाननेके बाद निर्धारित किये हैं उनसे लाभ लिये बगैर हमारा काम नहीं चल सकता। पर इन्हें साधन समझनेके बजाय यदि हम सब कुछ का अंत यहीं या इन्हीं में मान लें तो यह हमारी गलती है । इनके बाद भी हमें कहीं 'अनंत' की तरफ जाना है, और जैसे नदीके उस पार किसी पुलके सहारे कोई पहुँच जाता उसी तरह इन शास्त्रोंकी सहायता लेते हुए हमें आगेका मार्ग प्रशस्त करना है, न कि पुल पार कर वहीं मार्गकी समाप्ति समझ लें और इधर-उधर न ताकें या आगे न बढ़ें। यह समझ लेना कि ज्ञानका या सारे ज्ञानोंका अन्त इन्हीं पूर्वकथित शास्त्रों में ही हो गया और अब इन्हें जानने या पढ़ लेनेके बाद कुछ भी नहीं करना है तो यह महज नादानी है अथवा इसे कोरा भ्रम या अज्ञान ही समझना चाहिये ।
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हमारे अधिकतर पंडित प्रायः उन सभी बातों का विरोध करते हुये पाये जाते है जो उनके शास्त्रों में वर्णित नहीं है या जिनका जिक्र वहां नहीं आया है अथवा कम विस्तार से लिखा हुआ। । यह उनकी गलती या एकान्तमयी प्रवृत्ति है। ज्ञान अगाध एवं अनंत है। इसके अतिरिक्त सभी शास्त्र तो कौन कहे एक भी शास्त्र स्वयं जिनेन्द्र-प्रणीत नहीं है'तीर्थंकर की धुनि गणधरने सुनि अंग रचे चुनि ज्ञानमई ।' इसके बाद भी उन गोंको गुरुओंने परम्परा से सुन-सुनाकर कंठस्थ कर रखा और बहुत बादमे तब जाकर कहीं किसीने लिपिबद्ध किया जो आज हमारे सम्मुख है। जब भी कोई बात एक आदमी दूसरे आदमीसे कहता है और वह दूसरा तीसरे से कहता है तभी उसमें शब्दों, वाक्यविन्यासों एवं अर्थ में भी विभिन्नताएं आ ही जाती हैं- यह सर्वथा स्वाभाविक है। फिर भी किसीने बीच में कुछ अपना मिला दिया तो यह भी कोई ताज्जुबकी बात नहीं । फिर बाद में व्याख्याओं और टीकाओं में तो बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ा दिया गया जिसका कुछ अन्त नहीं । आज अधिकतर लोग इन्हीं व्याख्याओंको 'जिनवाणी' समझकर वैसा ही व्यवहार करते हैं एवं दूसरों को उसमें शंकामात्र करनेसे ही धर्मद्वेषी या द्रोही समझ लेते हैं, यह तो सरासर गलती या अन्याय है । धर्मको सीमित कर देना उसका गला घोट देना है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं सुविधा और सामर्थ्य आदिके अनुसार धर्मका प्रवर्तन होना चाहिये । अन्यथा ढोंग और अतिचारोंका ही धर्मके रूप में माना जाना और प्रचलित होजाना कोई कैसे रोक सकता है । आज जैनधर्म ही क्यों सभी धर्मोकी यही हालत है। अब तो समझदारीका व्यवहार करके धर्मका रूप वर्तमान कालादिके अनुसार ऐसा निरूपित करना चाहिये कि उसका आचरण संभव, स्वाभाविक एवं ठीक हो तथा भ्रम और मिथ्यामार्ग एवं ढोंग से रहित हो । तभी अपना भला होगा और लोकका कल्याण भी । अपनेको जन्मके कारण ऊंचा समझना और दूसरोंको नीचा समझना जैनधर्म के
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अनेकान्त
[ वर्ष १०
विपरीत आचरण हैं। सभीके शरीरमें वे हीरस, धातु जितनी अधिक से अधिक संख्यामें लोग धर्म-लाभ या खून वगैरह हैं। शरीर तो जैसा एक पापीका कर उन्नति कर सके-अपनी मानसिक, नैतिक, वैसा ही प्रायः किसी मुनिका एक समान ही एवं आध्यात्मिक तरक्की कर सकें, उतनी ही अधिक अपवित्रताओंकी खान है। आत्मज्ञान द्वारा आत्मा सफलता इनके होने और रहनेकी कही जा सकती को उन्नति जितनी-जितनी होती जाय वही शुद्धता है। धर्मो और मतमतान्तरों की विभिन्नता एवं कही जासकती है। पर उसके मापनेका कोई बाहरी मान्यताओं या आचरणों में फर्क तो किसी-न-किसी मापदंड नहीं। इसलिये किसीको नीच या ऊंच रूपमें रहेगा ही उसे एकदम दूर करनेकी सोचना कहना, समझना या दूसरोंको भी ऐसा करनेके एकदम मिटा देनेके मंसूबे बॉधना गलत एवं लिये बहकाना या बाध्य करना जैनधर्म नहीं है। बहकी हई बात है। जरूरत ऐसी हालतमें यह है कि यहाँ तो "समतावाद"की ही प्रधानता एवं महत्ता हम बातकी अमलियतको समझे और आदर्श की हर तरफ आदर्श और व्यवहार दोनोंमे ही है । तरफ ध्यान रखते हुए जो कुछ समयानुकूल हमारे समाजके अग्रणी पण्डित, विद्वान, त्यागा, व्यावहारिक हो तथा एक-दूसरेको आगे बढ़ने में एवं समझदार सभी व्यक्तियोंको अहकारोंको सहयोग एव सद्भावना-पूर्वक संभव हो उसे ही छोड़कर स्थिर एवं शान्त चित्तसे ध्यान देकर ऐसे अपनावें तभी अपना भी और सभीका भला होगा। एकान्त मिथ्यात्वों या मिथ्या आचरणोंको शीघ्र आशा है हमारे समाजके प्रमुख व्यक्ति इसपर दूरकर सच्चे धर्मकी पुनः स्थापना करना कत्तव्य ध्यान देकर सच्चे अहिंसापूर्ण "श्रात्मधमक" है और ऐसा करके ही वे अहिंसाका पालन विस्तृत प्रचार एवं विस्तारमें सहायक होकर ससार सचमुच कर सकते हैं। अन्यथा सब कुछ हिंसा,
हिसार में ज्ञानकी वृद्धि करेंगे और स्वयं उन्नति करते हुए अहंकार, एवं दूसरोंको नीचे गिराना या गिरोंको लोकका सच्चा कल्याण करनेमें सफलीभूत हाग ऊपर न उठने देनेकी जो अति निम्न प्रवृत्ति है जो हमारे मानव-जीवनका एकमात्र कर्तव्य, ध्येय वह सब जैनधर्म या जैनतत्त्वोंके एकदम विपरीत
और असली पुरुषार्थ है। आचरण है जैनधर्म ही क्यों कोई भी धर्म संसारमें
सच्चे ज्ञानका पुरुषार्थ एव निर्बाध विकास एकमात्र ऐसा करके ही सच्चा धर्म कहा जा सकता है जो आत्माको ठीक ठीक समझ गया
ही हमारी मृढ़ताओंको दूर कर सारी बुराइयोंको
पृथ्वीतलसे विकास मिटा सकनेमें समर्थ होगा। हो उसकी तो यह समतापूर्ण दृष्टि ही एकमात्र
और ज्ञानका सुसंस्कृत चौमुखी विकास हर दृष्टिपहचान है। जहां यह या ऐसी बात अथवा विश्वास या आचरण न हो वहां आत्मधर्मकी
कोणकी साधना या जानकारी द्वारा ही संभव है। तरफ सच्ची प्रवृत्तिका अभाव ही समझना चाहिये।
हराएक धर्म, दर्शन या सिद्धान्त अलग-अलग दृष्टिजो कुछ बाहरसे इसके विपरीत कहा जाय या
कोण उपस्थित करते है। इसलिए ज्ञानके पूर्ण विकास दिखलाया जाय वह तो फिर कोरा भ्रम. गलत और निमलताके लिये सभी दृष्टिकोणोका जानना मार्ग, ढोंग या मिथ्यात्वका आचरण ही ठहरा।
आवश्यक है। इसीलिये खामखाहके वैर-विरोधों धर्म या धर्माचरणकी व्यवस्था और मंदिरों और रगड़े झगड़ोंको छोड़कर यदि हम सभी धर्मोकी एवं मूर्तियोंका निर्माण ही हश्रा है आत्माकी तरफ बातांको प्रम और मनोयोगपूर्वक समझे तभी हमारा झुकाव पैदा करने के लिए और मनुष्य की उन्नतिके ज्ञान परिष्कृत होगा और दृष्टि संकुचित न रहकर शुद्ध लिये साधन स्वरूप । पर यदि उमसे गिरे हुओंका
तथा विकसित होगी। तभी हम सच्चे रूपमें कुछ लाभ न हो सके तो सब बेकार । इनके द्वारा आत्मलाभ कर आत्मकल्याण भी कर सकेंगे।
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भट्टारकवादीभसिंहमूरि-विरचित नवपदार्थनिश्चय
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[गत वर्ष जब वादीभसिहसूरिके 'स्याद्वादसिद्धि प्रन्थका सम्पादन-कार्य कर रहा था, पण्डित परमानन्दजीद्वारा मुझे मालूम हुआ कि बाढीभतिहसूरिकी 'नवपदार्थनिश्चय' नामकी एक और रचना है और जो अभी अप्रकाशित है और इसलिये उसे भी 'स्याद्वादसिद्धि के साथ निबद्ध एवं प्रकाशित हो जाना चाहिए। मैंने उन्हें एक अभिनव ग्रन्थ-प्राप्तिके लिये अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुए उसे मंगानेको कहा और उसका पूरा परिचय प्राप्त करनेकी अपनी आकांक्षा व्यक्त की। उन्होंने पण्डित के० भुजबलिजी शास्त्री मृडबिद्रोको पत्र लिखा और शास्त्रीजोने शीघ्र जैनमठसे उक्त प्रन्थ भेज दिया, जिसके लिये दोनों विद्वान् धन्यवादके पात्र है ।
इस ग्रन्थको मैं बड़ी उत्सुकतासे आद्योपान्त देख गया। परन्तु यह उन्हीं वादीभसिंहसूरिकी कृति मालूम नहीं होती जिनकी स्याद्वादसिद्धि, गचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणि ये तीन महत्वपूर्ण एवं प्रौढ कृतियाँ है और जिनका समय जिनसेनस्वामी (E वीं शती) से पूर्ववर्ती है । ग्रन्थकी भाषा, विषय
और वर्णन-शैली प्रायः उतनी प्रौढ नहीं हैं और न ग्रन्थका जैसा नाम है वैसा इसमें महत्वपूर्ण विवेचन है-साधारणतौरसे नवपदार्थो के मात्र लक्षणादि किये गये हैं। अन्तःपरीक्षणपरसे यह प्रसिद्ध और प्राचीन तके-काव्यग्रन्थकार वादोभसिंहसरिसे भिन्न और उत्तरवर्ती दसरे वादीभसिंहकी रचना जान पड़ती है। अन्तमें जो पुष्पिका-वाक्य पाया जाता है उसपरसे भी वह किसी 'वादीभसिंह' नामधारी भट्टारक विद्वानकी कृति ज्ञात होती है । वह पुष्पिकावाक्य निम्न प्रकार है:
_ 'इति श्रीभट्टारकवादीभसिंहसूरिविरचितो नवपदार्थनिश्चयः' इसका सामान्य-परिचय नीचे दिया जाता है
रचनाके प्रारम्भमें प्रथम पद्यद्वारा अजित जिनको नमस्कार करके तत्त्वोंको कहनेकी प्रतिज्ञा और प्रयोजन बतलाया है। दूसरे पद्यमें उन (सात) तत्वोंका नामोल्लेख किया गया है और तोसरेमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश इन पांचको अस्तिकाय बतलाया है। आगे इन्हींका कथन चाल हो गया है । ४ से ४३वे पद्यतक जीवतत्त्वका, ४४ से ४६ तक पुद्गलतत्वका, ५० से ५३ तक धर्म और अधर्म तत्त्वका, ५४ से ५५ तक दो पद्योंमें आकाशतत्त्वका, ५६ से ५७ तक दो श्लोकोंमें कालतत्त्वका वर्णन किया गया है और ५८ वें पद्यमें जीवको छोड़कर उक्त तत्त्वोंको ‘अजीव' निर्दिष्ट किया गया है । इसके बाद ५६ से ६१।। तक ३॥ पद्योंमें पुण्यके भावपुण्य और द्रव्यपुण्य ये दो भेद करके कारुण्यादिको भावपुण्य और सातादिको द्रव्यपुण्य बतलाकर द्रव्यपुण्यके धम्य, अधर्म्य और निरनुबधि ये तीन भेद किये गये है और धर्म्यद्रव्यपुण्यको सम्यग्दृष्टियोंमें, अधम्य द्रव्यपुण्यको मिथ्यादृष्टियोंमें तथा निरनुबन्धि द्रव्यपुण्यको चरमशरीरियोंमें कहा है । इसके आगे २॥ श्लोकोंमें पुण्यकी तरह पापके भी भावपाप और द्रव्यपाप ये दो भेद बतलाये है और उनका स्वरूपनिर्देश किया है । ६४ से लेकर ७२ तक ६ पद्योंमें आस्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोक्ष तथा मुक्तजीवका कथन किया है । अन्तिम ७३ वें पद्यमें उक्त पदार्थोंका उपस हार करते हुए उनको जाननेका फल केवलज्ञान बतलाया है। इस तरह
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अनेकान्त
[वर्ष १० यह रचना ७२ अनुष्टप् और १ मालिनी कुल ७३ पद्योंमें समाप्त है । रचना साधारण और औपदेशिक है और प्रायः अशुद्ध है । विशेष परिचयके लिये इस पूरी रचनाको यहां 'अनेकान्त' में दिया जाता है । आशा है विद्वज्जन इसके कर्तृत्व, समय और साहित्यादि पर विशेष विचार करेंगे-कोठिया] नत्वाऽजित जिनं भक्त्या तत्त्वं जीवादिकं ब्रवे। जातो नष्टादिकं दुःखमश्नुते हि पुनः पुनः ॥१७॥ भव्यानां मोक्षसंसिद्ध्यै, ज्ञातुध्यातुच तत्वतः १ देवानां च मनुष्याणां, तिर्यग्नारकयोरपि । जीवाऽजीवौ पुण्यपापाऽसव-संवर-निर्जराः । गतिश्चतुर्गतयः स्युर्जीवानां संभवोचिताः ॥१८॥ बंध-मोक्षौच तत्त्वं स्यात् ज्ञयं श्रद्धेयमात्मनाम ॥२॥ देवा भवना व्यतरा ज्योतिष्काः स्वर्गवासिनः । जीवश्च पुद्गलो धर्मोऽधर्म अाकाश इत्यपि। इति चतुर्भेदतां यान्ति पुण्यकर्मविपाकतः ॥१६॥ स्वरूपास्तित्वतोऽस्ति स्यात कायो द्विगुणसंचयात् ३ तेषामन्तर्भिता चास्ति ज्ञातव्या स यथागमम् । इति पंचास्तिकायाः स्युम्तेषु स्यादुपयोगवान ।। मनुध्या द्वितयः कर्म-भोगभूसंभवा इति ॥२०॥ चिन्मयो निश्चयाज्जीवो भिन्नसाध
तेषामपि भिदा ज्ञया तियग्जीवास्त पडविधा: । पंचेन्द्रिय-बल-प्राण स्वायरुच्छवासभेदकैः । पृथ्वी-जल-तेजो-बायु-वनस्पति-बसा इति ।।२१।। दशप्राणैरजीवद्यो जीविष्यति च जीवति ||५|| रत्नशर्कराबालुकाकधूमतमःप्रभाः। व्यवहारस्तु जीवः स्याद् भिन्नसाधनसाध्यतः । तमस्तमःप्रभाभिख्या भूभिन्ना नारका इति ॥२२॥ एवं च लक्षितो जीवो दशान्वयगुणैर्भवेत् ।।६।। द्रव्यादिपंचकं प्राप्त त्याज्यं त्याजन्नवं पुनः । अस्ति ज्ञाता तथा दृष्टा को भोक्ताऽवगाहकः । ग्राहन ग्राहन भ्रमत्येवं जीवोऽयं नटवत क्षिर अतिसूक्ष्मोऽगुरुलघुरमूर्तोऽसंख्यदेशकः ॥णा मृता नरश्च तिर्यचो यान्त्येवात्र चतर्गतिम् । उपलब्ध्युपपोगौ च दृशि ज्ञाने क्रियाचितोः । दवाश्च नारकाश्चैते नरतिर्यग्गतिं मृताः ॥२४॥ संस्काररहितौ तौ च, प्रत्येक व्यतिरेकगाः ॥॥ एकेन्द्रियादयो जीवाश्चत्वारो दव-नारकाः । एकादशगुणा जीवे भवेयुः कर्म निर्मिताः । भोगभूनरतिर्यंचो न भवन्ति विशेषतः ।।२।। अनानिधनः स्वेन गृहीततनुमात्रकः ॥६॥ श्रानतादयः ये देवास्तिर्यचो न भवन्त्यमी । स जीवो मुक्त-ससारि-विभेदेन द्विधा भवेत् । सनत्कुमारकल्पाद्या देवाः स्युः संज्ञिनोदश।२६।। मुक्तजीवस्वरूपस्तु(पं तु),किंचित्प्रवक्ष्यतेऽधुना||१०|| अभूमितरुकायेषु संभवन्त्यपराः सुराः ।
आप्ताऽऽगमपदार्थेषु याथात्म्यज्ञान-पूर्विकाम् । अब्भूमितरुकायानां नरतियच संभवः ।। २७ ।। निरस्तदोषां श्रद्धां यः करोत्यष्टाङ्गसङ्गताम् ।।१शा दर्शनेन विहीना ये तिर्यचोऽपि नराश्च ते । मूलोत्तरगुणोपेतश्चानुप्रक्षा-परायणः ।
सतेजोवायकायाः स्यः तेषां तिर्यक्षु संभवः ।।२।। त्रिगुमि दशधर्मेषु रतश्चारित्रवान् यतिः ।।१२।। सहस्रारान्तदेवाः स्युराजीवकमते स्थिताः । निमल-ध्यानवहो सः कर्माष्टक-समुच्चयम् । ब्रह्मान्ताः स्युः परिव्राजो ज्योतिष्कान्ताश्च तापसाः २६ हुता(त्वा)निरस्तदोषोऽसौ शुद्धो लोकाग्र-संस्थितः १३ व्रतदर्शनसंयुक्तस्तिर्यक् चासौ नरोऽपि च । अनन्तज्ञान हरवीर्य-सुखरूपो निरामयः । सौधर्मादिपु सर्वेष कल्पेष्वपि च संभवेत् ।। ३०॥ निरायुर्नाम-गोत्राभ्यामवाच्यः शुद्धचित्पुनः ॥१४॥ व्रतयुक्तो नरो याति कल्पान्तं भवनादिकम् । त्यक्तदेहसमः साक्षात्कृतविश्वमपि स्फुटम् । वती तिर्यग्भावनाद्य सहस्रारान्तमेति च ॥३॥ लोकं त्रिकालविषयं नित्यो भाति निराकुलः ॥१५॥ भोगभूनरतियचः सम्यग्दर्शनभूषिताः । त्रिलोकाधिपपूज्यं तमुपमातीत निरंजनम् । सौधर्मेशानकल्पे स्युरन्ये स्यभवनादयः ।। ३२ ।। भक्त (क्त्यै)वाहं च मोक्षाय यजामि च नमामि च १६ अहमिन्द्रा भवेयुस्ते मुनयो जातरूपकाः । समारी कर्मणा स्वम्य चतुर्ग तिषु सर्वदा । ज्ञानध्यानादिसंपन्ना यान्त्युत्तरमनुत्तरम ॥३३॥
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किरण ४]
नवपदार्थनिश्चय
D
सप्तमं नरकं यान्ति मत्स्येन पुरुषास्ततः। जलमिव मत्स्यानां स्यात् छायेवाथ पथिकानी । षष्ठ यान्ति स्त्रियोऽतस्तु चतुष्पादास्त पंचमम्॥३४॥ गतेः स्थितेश्चाश्रयौ तौ जीवपद्गलयोरपि ॥५२॥ चतुर्थ पादरहिताः तृतीयं पक्षिणस्ततः । पक्षपादौ यथा स्यातां गतिस्थित्योस्तु पक्षिणः। द्वितीयं भेकमुख्यास्तु प्रथमं यान्त्यसंज्ञिनः ॥ ३५ ॥ हेतू तौ च गतिस्थित्योर्जीवपुद्गलयोरपि ॥५३॥ उपर्य परि यान्त्येव नाधः सर्वेपि कीर्तिताः । जीवादीनां पदार्थानां अवकाशप्रदायकः । दुःखं पापातिरेकेणानुभवन्त्यतिदुःसहम् ।। ३६ ॥ आकाशः स्यात्प्रदेशेनानन्तोऽमूर्तश्च निष्क्रियः॥५४॥ प्रथमादिचतुर्थान्तानिर्गता नरकात् पुनः । यत्राकाशे तु लोक्यंते जीवाचा लोक एव सः । केचिन्मुक्ति च याम्ति स्युः पंचमात्तपास स्थिताः॥३७॥ अन्यस्त्वलोक एव स्यादिति ज्ञेयं मनीषिभिः॥५॥ षष्ठाद् व्रते च तिष्ठन्ति सप्तमान्निर्गताः पुनः। षड्द्रव्यं तु भवेदेते वर्तनालक्षणेन च । तिर्यग्गतिष जाताः स्युनरकस्येदशी गतिः ॥ ६॥ कालेन सहिताः सोऽपि समयावलिके ततः ॥५६।। एकेन्द्रियजीवोऽस्मिन लोके सर्वत्र विद्यते । उच्छवासस्तोकलवाश्च नाडिका मुहूर्ता दिनाः । नालिकायां तु विद्यन्ते जीवाः पंचेन्द्रिया: पन ॥३६॥ पक्षमासरत्वयनाब्दा युगाद्याश्चेत्यनंताः स्युः !॥५७।। सातदीपद्वयार्द्ध च त्रिसमुद्रे च संति वे ।। द्रव्येषूक्तेषु जीवेन विनाऽन्ये स्युरजीवकाः । विकलेन्द्रियास्त्वन्यत्र न सन्तीति विनिश्चयः ॥ ४०॥ पुण्यं तु द्विविधं भावद्रव्यपुण्यविभागतः ॥५॥ साधंद्वीपद्वये जन्म मनष्याणां भवेत्पुनः ।। कारुण्यप्रसन्नभावौ तपो गुणानुरागश्च । त्रैवर्णिकाः कृतपुण्या:मोक्षं यान्ति नरोत्तमाः ॥४१॥ प्रशस्तज्ञानध्यानानां प्रवृत्तयश्च भावः स्यात् ॥५६॥ उपसहारविसौं देहिनां कर्मनिर्मिती । अन्यत्तु भावतो जातः सातं सम्यक्त्वपुवेदौ । तद्द हमात्र एव स्यादसंख्यातप्रदेश्यपि ॥ ४२ ॥ हास्यरतिनृदेवायु: सुनामगोत्रात्मकं स्यात् ॥६०॥ एवं च कर्मकर्ताऽसौ जीवो भोक्ता च संमृतौ। तच्च त्रिविधं धयं चाधर्म्य निरनुवंधी च । स्थित्युत्पत्तिविनाशात्मा बभ्राति निरन्तरम् ।।४३।। सम्यग्दृष्टिषु धयं स्यादधय॑ त्वन्यदृष्टिषु ॥६१।। वणगंधरसस्पर्शलक्ष्यो यः पुद्गला भवत् । चरमदेहिनामन्यत्कर्मनिमूलनक्षमम् ।। पूरणो गलनात्माऽसौ बोद्धा कारणकार्यतः ॥४४॥ पापं च द्विविधं द्रव्यभावपापविभागतः ।। ६२ ।। एकवणं च गधं च रसं चैकं भजन स्वयम् । अकारुण्यादयो भावास्तज्जाताशेषकमे च । द्विस्पर्श स्निग्धरूक्षत्वे सूक्ष्मोऽनेकशक्तिभाक् ।।४।।
अन्यत्स्यात्सर्वदुःखानामाकर संसृती पुनः ।।६।। द्रव्यादीनां प्रमाणानां मूलप्रथन एव च । श्रास्रवः स्याज्ञाताज्ञातपुण्यपापाधिकासवः । कारणं परमाणुः स्यात् कायें तत्संघ एव सः॥४६॥ हीनद्रव्यास्रवो भावसांपरायिकासवश्च ।। ६४॥ द्विगुणसूक्ष्मः सक्ष्मश्च सूक्ष्मस्थूलस्थूलसूक्ष्मः । ईपिथास्रवश्चेति कर्मणामास्रवो दश । स्थूलोऽथ स्थूलस्थूलश्चेत्येवं षोढा भवेत् स च ॥४७॥ तेषां स्वरूपभेदस्तु दृष्टव्यं स्याद्यथाऽऽगमम् ।।६।। कमण: प्राकस्थितः कर्म नोकर्म च ततोऽधिकः। गप्त्या समिति मैश्वानप्रेक्षातपःसयमः । एकेन्द्रियस्य विषयः सर्वस्य विषयः क्रमात् ॥४॥ परीषहजयः साध्य ज्ञानध्यानप्रवृत्तितः ।। ६३ ।। शब्दमेघतमोवन्हिवायुभूम्युदकप्रभा ।
कर्मासवनिरोधो यः स भवेत्संवरो दश । छायाशरीरभोग्यादि सर्व पौद्गलिकं भवेत् ॥४॥ माध्यसाधनसंवरो द्रव्यभावविभेदतः ।। ६७॥ गत्युन्मुखाना जीवानां पुद्गलानां च तां प्रति । पुण्यपापसंवराभ्यां सांपरायिकसंबर: । हेतुर्धर्मास्तिरेव स्यादमूर्तोऽसंख्यदेशकः ॥ ५० ॥
ईर्यापथेन विकल: सकलसंवरश्चेति ? ।। ६८।। स्थित्युन्मुखानां जीवानां पुद्गलानां च तां प्रति । तपसा संयमैश्चाथ परीषहजयैरपि । हेतुर्भवेदधर्मास्तिग्माऽमख्यदेशकः ॥ ५१ ॥ कर्मनिर्जरणं यत्तन्निर्जरा सर्वकर्मणाम ॥ ६ ॥
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१५० अनेकान्त
[वर्ष १० मिथ्यात्वासंयमो योगः कषाया अपि हेतवः । इति च नवपदार्थ यः सुधोर्वेत्ति सोऽयं कर्मबंधस्य बंधोऽपि प्रकृत्यादेश्चतुर्विधः ।। ७० ॥ सकलसुरनरेन्द्रः पूजितः शुद्धदृष्टिः । कर्मबंधविनिमुक्तो जीवो लोकाग्रमध्यगः। श्रयति परमसौख्यं सर्वकर्मक्षयोत्थ अनंतज्ञानदृग्वार्यसुखाद्यष्टगुणैर्युतः ॥ ७१ ॥ विपुलमतुलमुच्चैः केवलज्ञानपूर्णम् ॥ ७ ॥ सिद्धः शुद्धो निरातको निष्कलो निरुपमः स्वयम्। इति श्रीमहारकवादीभसिंहसूरिविरचितो नित्यो भाति मुनीन्दाद्यायो वंद्यो निरन्तरम्।।२।।
नवपदार्थनिश्चयः ॥समाप्तः॥ बडली स्तंभङ लेख
(ई० पू० ४४३ अथवा ३७३) (श्री बालचन्द्र जैन, एम० ए०)
प्रस्तुत लेख एक सफेद पत्थरपर उत्कीर्ण है विराय भगवत...-४ चतुरासितिवसे "बाये और राजपूताना संग्रहालय अजमेरमें सुरक्षित है। सालिमालिनिये....र' निविथ माझिमिके उक्त पत्थर किसी षटकोण स्तंभके द्विधा खंडित (स्वर्गीय डा० काशीप्रसाद जायसवालका पाठ) टुकड़ेका एक ओरका हिस्सा है। स्वर्गीय महामहो- प्रथम पंक्तिमे भगवान वीर (महावीर) का पाध्याय गौरीशंकर हीराचंद अोझाने इसे राजपूताना उल्लेख है जिनके सम्मानमें दिये गये दानकी सूचना के बडली ग्रामसे करीब आधा मील दूर भैरूजीके के लिए यह लेख उत्कीर्ण किया गया था। यहाँ वि मंदिरसे प्राप्त किया था जहांकि मंदिरका पुजारी के वकारका वृत्त प्रस्तुत लेखमें उत्कीण अन्य वकारों इसे तम्बाकू कूटनेके काममें लाता था । इसका के वृत्तसे छोटा है, इसीप्रकार इ मात्रा भी अपने मध्यभाग परा और आठ इंच चौडा है, वायां ढंगकी निराली ही है जो अन्य ब्राह्मी लेखोंमें नहीं हिस्सा टूटा हुआ और ३।। इंच चौड़ा है जबकि देखी जाती । स्वर्गीय महामहोपाध्याय गौरीशंकर दायां हिस्सा केवल दो इच चौड़ा है और उसमें हीराचंद ओझा इसी कारण उस ई मात्रा मानते थे प्रत्येक पक्तिमें केवल एक-एक अक्षर ही लक्षित किन्तु स्वर्गीय डा० काशीप्रसाद जायसवालने उसे होता है।
इमात्रा माना है और उसकी तुलना अशोकके कालउत्कीर्ण लेख कुल १३४ १०, इच स्थान घेरे सीके लेखमें प्रयुक्त ति की इ मात्रासे की है। हुए हैं और प्रत्येक अक्षर भलीभांति साफ-साफ द्वितीय पंक्ति विशेष महत्वकी है क्योंकि यहां उत्कीर्ण किया हुआ है। लेखको भाषा प्राकृत किसी ऐसे संवतका उल्लेख किया गया है जो उस
और लिपि प्रागशोककालीन ब्राह्मी है। मूल लेख समय प्रचलित था और जिसके ८४वें वर्षमें यह इस प्रकार है:
लेख उत्कीर्ण किया गया था। चूंकि प्रस्तुत लेखके वा बीचमें
अक्षर अशोकसे पूर्व के हैं और पिप्रावासे प्राप्त लेखके १. वि गय भगव (त) अक्षरोंसे मिलते है इसलिये यह विचार करना ८०(४) चतुरासिति व
आवश्यक हो जाता है कि क्या अशोकसे पूर्व किसी जाये सालिमालिनि (य ?) संवतका प्रचलन था ? अशोकसे पूर्व प्रचलित एक ही र नि(िव) थ माझिमिके (य?) संवतकी मत्ता अभी तक ज्ञात हो सकी है और वह
0.
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किरण ४]
बडली स्तंभखंड लेख है नंदसंवत जिसका प्रारंभकाल ४५८ ई० पू० सिद्ध ल्लेख है जो कोई स्त्री प्रतीत होती है। हो चुका है (ज० वि० ओ० रि० सो० १६२६ पृष्ठ चतुर्थ पंक्तिमें दान की गई वस्तु और दानके २३७)। यदि प्रस्तुत लेख नंदसंवत्के ८४वें वर्षमें स्थान माझमिक (माध्यमिक) का उल्लेख है जिसे उत्कीर्ण किया गया हो तो उसके अनुसार इसका पिछले लेखोंमें माध्यमिका कहा है। यह स्थान दक्षिसमय ३७४ या ३७३ ई० पू० होना चाहिये। दूसरे ण-पूर्व राजपूतानेमें है और प्राचीन कालमें यह ओर, यह भी अनुमान किया जा सकता है कि चूकि विशाल-नगरी थी जिसका प्रमाण 'अरुणत यवना इस दानका संबंध भगवान वीरसे है (और दान साकेतम, अरुणत् यवनाः माध्यमिकाम्' पतञ्जलिके करनेवाला भी कोई उनका भक्त या अनुयायी ही इन वाक्योंसे मिलता है। -अर्थात् जैन-होगा) अतः यह वर्ष उनके निवाण इसप्रकार, प्रस्तुत लेख न केवल जैन इतिहास संवतमे भी मबद्ध हो सकता है। (जैनग्रन्थों में प्रायः बल्कि भारतीय इतिहासके लिये विशेष महत्वका है। इस प्रकारके उल्लेख मिलते है कि वीरनिर्वाणके क्योंकि पहले तो यह अबतक प्राप्त सभी उत्कीरों इतने वर्ष बाद अमुक कार्य हुआ, इतने वर्ष बाद लेखोंमे प्राचीनतम है। दूसरे, यह अशोकसे पूर्व अमुक राजा या आचार्य हुआ आदि) यदि हम एक स्वतंत्र संवतके प्रचलनका उल्लेख करता है लेखमे प्रयुक्त संवत्को वीरनिवारण संवत् मान ले तो और तीसरे, इससे यह भी विदित होता है कि ई० फिर इसका काल ४४३ ई० पू० होना चाहिए। पृ. ४थी-५वीं शतीमें राजपूतानेमें भगवान वीरके
तृतीय पंक्तिमें, दान करने वाले व्यक्तिका नामो- अनुयायी और भक्तोंका निवास था।
यशोधरचरित्रके कर्ता पझनामकायस्थ
(लेखक-५० परमानन्द जैन, शास्त्री )
यशोधर-चरित्रके कर्ता कवि पद्मनाभ हैं। इन- धर्म कितना समुदार है कि उसका आश्रय पाकर की जाति कायस्थ थी। जैन समाजमें कायस्थ जाति- पापीसे पापी अपने जीवनको ऊंचा उठा र के अनेक विद्वान् और कवि हुए हैं। सुप्रसिद्ध है। यमपाल चाण्डालकी कथा तो लोक-प्रसिद्ध 'जीवन्धर चम्पू' और 'धर्मशर्माभ्युदय' महाकाव्यों- है ही। यही कारण है कि जैनधर्म विविध वंशों के कर्ता महाकवि 'हरिचन्द' भी उक्त कायस्थ जाति और जातियोंके व्यक्तियों में आज भी उज्जीवित के विद्वान थे। इनके अतिरिक्त अनेक विद्वान् जैन है, उन्होंने जैनधर्मको पाकर अपने जीवनको ग्रन्थोंके लेखक एवं प्रतिलिपिकर्ता हुए हैं । उन्हें जैन आदर्श बनानेका प्रयत्न किया है । कविवर धर्मसे भारी प्रेम था और उनके पावन सिद्धान्तों पद्मनाभका संस्कृत भाषापर तो अधिकार था ही, में आस्था थी। इतना ही नहीं, किन्तु उनके ग्रन्थों जैनधर्मके अचार-विचारों और सिद्धान्तोंका भ. का अध्ययन करनेसे मालूम होता है कि वे जैन गुणकीर्तिके सानिध्य में अध्ययन किया । फलतः सिद्धान्तके कितने मर्मज्ञ विद्वान थे । यद्यपि वे उनकी आस्था जैनधर्ममें हो गई। आज भी जो महागृहस्थ थे तो भी गृहस्थोचित सभी कर्तव्योंका नुभाव जैनवमके सिद्धान्तोंका अध्ययन करते हैं के पूर्णरूपसे पालन करते थे। उनकी प्रतिभा विशाल उसकी महत्तासे परिचित हैं थी और कवित्वशक्तिका उनमें विकास था। जैन कविवर पद्मनाभने भद्रारक गुणकीतिके उपदेश
काव
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अनेकान्त
[ वर्ष १०
से पूर्वसूत्रानुसार 'यशोधर चरित्र' अथवा 'दयासुन्दर. अनेक विद्वानों द्वारा प्राकृत संस्कृत और हिंदी गुजविधान' नामक ग्रन्थकी रचना राजा वीरमेन्द्र अथवा राती भाषामें अनेक ग्रंथ रच गये हैं। चूँ कि इम वीरमदेवके राज्यकालमें की है। उनके महामात्य काव्यग्रंथमें दयाका कथानक दिया हुआ है इसलिये (मंत्री) श्री साधु (साह) कुशराज जैसवालके अनु- इस प्रन्थका नाम 'दयासुन्दरविधानकाव्य' नामसे रोधसे की है । पद्मनाभ संस्कृतभाषाके अच्छे विद्वान् भी उल्लेखित किया है। थे और जैनधर्मसे प्रेम भी था अतः ग्रन्थ बनकर पद्मनाभने अपना यह प्रथ राजा वीरमदेवके तय्यार हो गया। संतोष नामके जैसवालने उसकी राज्यकालमें रचा है। वीरमदेव बड़ा ही बहुत प्रशंसा की और विजयसिंह जैसवालके पुत्र प्रतापी राजा था, अपने तोमरवंशका भूषण था, लोक पृथ्वीराजने उक्त ग्रन्थकी अनुमोदना की थी। मे उसका निर्मल यश व्याप्त था। दान-मान और
कुशराज जैसवाल कुलके भूषण थे। यह वीरम- विवेकमें उस समय उसकी कोई समता करने वाला देवके मत्री थे और अपने कार्यमें दक्ष, तथा शत्र. न था। यह विद्वानोंके लिये विशेष रूपसे आनन्दपक्षको क्षणभरमें नष्ट करने वाले, और पृथ्वीको दायक था और पृथ्वीका यथार्थरूपसे उपभोग करता देख-रेख एवं उसके संरक्षणमें समर्थ बुद्धि थे। आप था। वह ग्वालियरका शासक था और उसका वंश के पिताका नाम जैनपाल और माताका नाम लोणा- तोमर था। यह वही प्रसिद्ध क्षत्रिय वंश है जिसे दिल्ली देवी था, पितामह का लण और पितामहीका नाम को बसाने और उसके पुनरुद्धारका श्रेय प्राप्त है। उदितादेवी था आपके पांच और भी भाई थे। जिन वीरमदेवके पिता उद्धरणदव थे, जो राजनीतिमें दक्ष में चार बड़े और एक सबसे छोटा था। हंसराज, और सर्वगुणसम्पन्न थे। सन् १४०० या इसके आससैराज, रेराज, भवराज और क्षेमराज । क्षेमराज । पास ही राज्यसत्ता वीरमदेवके हाथमें आई थी। इनमें सबसे छोटा ओर कुशराज उससे बड़ा था। ई० सन् “४०५ में मल्लू इकवालखांने ग्वालियरपर कुशराज बड़ा ही धर्मात्मा, और राजनीतिमें दक्ष था। चढ़ाई की थी, परन्तु उस समय उसे निराश होकर इसने ग्वालियर में चन्द्रप्रभजिनका एक विशाल ही लौटना पड़ा । फिर उसने दूसरी बार भी ग्वालिजिनमंदिर बनवाया था और उसकी प्रतिष्ठा भी यरपर घेरा डाला, किंतु इस बार आस-पासके कराई थी। कुशराजकी तीन पत्नियाँ थीं रल्हो, लक्ष- इलाकोंको लूटकर उसे वापिस लौटना पड़ा । वीरमगश्री, और कोशीरा ये तीनों ही पत्नियाँ सती. दवने उससे सुलह कर ली थी। साध्वी और स्त्रिीयोचित गुणोंसे अलंकृत थीं। ल्हो आवायें अमृतचन्द्रकी 'तत्त्वदीपिका' (प्रवचनगृहकार्यमें कुशल तथा दानशीला थो और नित्य सारटीका) की लेखकप्रशस्तिमें, जो वि० सं० १४६६ जिनपजन किया करती थी. इससे कल्याणसिंह में लिखी गई है उसमें गोपाद्रि (ग्वालियर) में उस नामका एक पुत्र उत्पन्न हश्रा था, जो बड़ा ही रूप- समय वीरमदेवके राज्यका समुल्लेख किया है। पान, दानी और जिनगुरुके चरणाराधनमें तत्पर वीरमदेवराज्य सं० १४६६ से कुछ बादमें भी रहा था। दूसरी पत्नी लक्षणश्री भी सुशीला तथा पतिव्रता है। इससे उसके राज्यकालकी सीमा सन् १४०५ थी और तीसरी कोशीरा गुणवती एवं सती थी। इसी (वि० सं० १४६२)से पूर्व सन् १४१५ (वि० सं०१४७२) तरह सर्वगुणसम्पन्न कुशराजने श्रुतभक्तिवश उक्त तक जान पड़ती है । इसके बाद सन् १४२४ (वि० यशोधरचरित्रको रचना कराई थी। उक्त ग्रंथमें राजा सं० १४८१) से पूर्व वीरमदेवके पुत्र गणपतिदेवने यशोधर और रानी चन्द्रमतीका जीवनपरिचय राज्यका संचालन दिया हुआ है। यह पौराणिक कथानक बड़ा ही कि पद्मनाभने स. १४०५ से सन् १४२५ के मध्यकालप्रिय, और दयाका स्रोत बहानेवाला है। इसपर में किसी समय यशोधरचरित्रकी रचना की है।
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महार-क्षेत्र के प्राचीन मूर्तिलेख ( संग्राहक-पं० गोविन्ददास जैन न्यायतीर्थ, शास्त्री )
[गताङ्कस आगे]
- - (न०६४)
३ मंगलवारको विम्ब प्रतिष्ठा कराई। मृति धातुसे बनी है । सवाङ्ग सुन्दर है । करीब
(नं०६८) २ इश्च ऊंची पद्मासन है । चिन्ह नहीं है।
यह मृत्ति सर्वाङ्ग सुन्दर है । पाषाण देशी है। लेख-संवत् १६७१ वंशाख सुदी ।
करीब सा फुट ऊँची पद्मासन है। चिन्ह सर्पका भावार्थ-संवत १६७५ के वैशाख सुदी ५ को है। बिम्ब प्रतिष्ठा हुई।
लेख-संबत् १८६६ अगहन सुदी ७ भौमे श्री (नं०६५)
मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्ययह मति पीतलकी बनाई गई है। करीब २ इञ्च थाम्नाये चौधरी................तस्य पुत्र चौधरी गनेश ऊंची पद्मासन है। चिन्ह मर्प का है।
ग्रणमन्ति। लेख-सवत् १६८८ फागुन सुदी ८ भ. जगन्द्रषेण । भावार्थ:-श्री मूलसंघ, बलात्कारगण, सरस्वती
भावार्थ-भ० जगन्द्रपेणने मंवत १६८८ के गच्छ कुन्दकुन्द आम्नायमें पैदा होने वाले........ फागुन सुदीको प्रतिष्ठा कराई।
उनके पुत्र चौधरी गनेशने संवत् १८६६ के अगहन (नं०६६)
सुदी ७ मंगलवारको प्रतिष्ठा कराई। यह मृत्ति मफेद पापाणकी है। मृत्ति सर्वाङ्ग मन्दर है। करीब शा फुट ऊंची पद्मासन है। चिन्ह यह मत्ति सर्वाङ्ग सुन्दर है। पाषाण सफेद है। वगेरह कुछ नहीं है । लेख प्रायः घिम चुका है। करीब ।। फुट पद्मासन है। चिन्ह सर्पका है। कुछ हिस्सा पढ़ा जासका।
लेख-संवत् १५४८ वर्षे वैशाख सुदी १३........ लेख-संवत् १५४८ वर्षे वैशाग्य सुदी १२.....
भावार्थ:-मंबत् १५४८ के बैशाख सदी १३ भावार्थ:-संवत १५४८ के वैशाखसुदी १२ को यह बिम्ब प्रतिष्ठित हुई। को विम्ब प्रतिष्ठा हुई।
नोटः-लेख घिस गया है। अतः पूरा पढ़ा नहीं (नं.६७)
गया। यह मत्ति माग सुन्दर है । मफंद पाषाण की
(नं०१००) बनी हुई है। चिन्ह कमलका है । करोब १ फुट ऊँची मृत्तिका शिर नहीं है । पाषाण काला है। पद्मासन है।
करीब ३ फुट ऊंची पद्मासन है। चिन्ह बैलका लेख–संबत् १५४८ वर्षे वैशाख सुदी ३ भीमे संघ है। पालिस चमकदार है। संवतका कुछ भाग टूट भट्टारक श्रीजिनचन्द्रदेव पाहु जीवराज पापकोवर एते गया है। बाकी सर्वाङ्ग सन्दर है। प्रणमन्ति ।
लेख-संवत्... EE महिषणपुर पुरवाडान्वये साहु भायार्थः-भट्टारक श्री जिनचन्द्रदेव वा शाह श्रीलाखणसतश्रीबठई भार्या साऊ जसकरी सुत साहू जीवराज-पापकोवरने संवत १५४८ के वैशाख सुदी प्रणामन्ति ।
(०६)
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अनेकान्त
[वर्ष १० ___भावार्थ-संवत्....६६ ( ११६६?) में पुरवाल उनके पुत्र शाह.....उनके पुत्र सीढू ये सब प्रतिदिन वंशोत्पन्न शाह श्री लाखण उनके पुत्र वठई उसकी प्रणाम करते हैं। महालक्ष्मी मंगल करे। पत्नी यशकरी उसके पुत्र साढूने विम्ब प्रतिष्ठा
(नं० १०३)
मूर्तिका शिर नहीं है । करीब ३ फुट ऊ'ची __ (नं० १०१)
पद्मासन है । पाषाण काला तथा पालिस चमकदार । शिर नहीं है । शिलालेखके अक्षर है। चिन्ह बलका है। प्रायः मिल गये हैं। करीब ३ फुट ऊची पद्मासन लेख-संवत् १२०३........सुदी १३........जसकर होगी । पाषाण काला और चमकदार है । चिन्ह तत्सुत जसरा तत्पुत्र नायक श्रीराल्हण तस्सुत श्रीजसोधर बेलका है।
एते नित्यं प्रणमंति । लेख-श्री गोलापर्वान्वये साहश्री-साहलकके भावार्थ:-सवत् १२०३ के.......सदी १३ को एतयोः सुत साहुश्रीदेवचन्द्र........अस्य सुत सीले एते शाह यशकर उनके पुत्र यशराज उनके पुत्र नायक प्रणमन्ति नित्यम् । सं० १२०३ ।
श्रीराल्हण उनके पुत्र श्री यशोधरने बिम्ब प्रतिष्ठा ___ भावार्थः-गोलापूर्व वशमें पैदा होने वाले कराई। शाह श्री तथा शाह लंकके इन दोनोंके पुत्र शाह
(नं० १०४) देवचन्द्र उनके पुत्र शीलेने संवत् १२०३ में बिम्ब मूर्तिका शिर नहीं है । पाषाण देशी है । करीव प्रतिष्ठा कराई।
११ फुट ऊँची पद्मासन है। चिन्ह हिरणका है। (नं० १०२)
पालिस मटयाला है। लेख कुछ अंशोंमें घिस गया यह मूर्ति भी शिरसे खण्डित है। पाषाण काला तथा चमकदार है । चिन्ह सिंहका है। करीब ३ फुट
लेख-संवत् १३२० फाल्गुन सुदी १३ शुक्रे............ पद्मासन है।
साह, मदन भार्या रोहणी सुत धूने भार्या देवा तत्पुत्र लेख-संवत् १२०७ अषाढ़ बदी । शुक्रे श्री चीर माधव भार्या बाछिणी प्रणमन्ति । बर्द्धमानस्वामि प्रतिष्ठापितो गृहपत्यन्वये साहु श्री
भावार्थ:-श्री मदन उनकी पत्नी रोहणी उनके
भावा राहणश्चतुर्विधदानेन---पठलितविमुक्रसखशीतलउलक- पुत्र घूने उसकी पत्नी देवा उसके पुत्र माधव उसकी प्रवदितकीतिलतावगठितब्रह्माण्ड,..........
पत्नी बाघिणीने संवत् १३२० के फाल्गुन सुदी १३ वरसुत श्री पलहस्तथा तत्सुत साहु मातनेन पोरवालान्वये को प्रतिष्ठा कराई। साहुवासलस्तस्य दुहिता मातिणी साहुश्री महीपति
(नं०१०५) तासुत साहु.......तत्सुत सोडू एते निस्य प्रणमन्ति ।
मूति देशी पाषाणकी बनी हुई है। करीब शा मंगलं महाश्री।
फुट ऊँची पद्मासन है । मूर्ति शिरसे खण्डित है। ____ भावार्थः-श्री वीर वर्द्धमान स्वामीकी प्रतिष्ठा
चिन्ह चंद्रका है। कराने वाले-गृहपति वशमें पैदा होने वाले शाह लेख-स'वत् १३३२ अषाढ़ बदी २ साहुपटु........पुत्र श्री राल्हण है । जिनकी कीर्ति चार प्रकारके दानसे सायद भार्या मातिणी प्रणमंति नित्यम् । इतनी प्रवर्द्धित हुई कि ब्रह्मांड भर गया।ऐसे राल्हण भावार्थ:-शाह पटु उनके पुत्र सार्यहद उनकी के पुत्र श्री अल्ह तथा उनके पुत्र शाह मातनने सवत् पत्नी मातिणीने संवत १३३२ के अषाढ़ बदी २ को १२०७ के अषाड़ बदी शक्रवारको प्रतिष्ठा कराई। प्रतिष्ठा कराई। तथा पौरवाल वंशमें पैदा होने वाले शाह
(नं० १०६) बासल उनकी पुत्री मातणो तथा शाह श्री महीपति
२ फट ऊंची पद्मासन है। काले
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किरण ४]
महारक्षेत्रके प्राचीन मूर्तिलेख पाषाणसे बनी है । पालिस चमकीली है। मूर्ति शिर नोटः-लेखके अपर घिस गये । अतः वह पूरा पढ़ा से खण्डित है । चिन्ह शेरका है।
नहीं गया। लेख-............पण्डितश्रीगंगवर तस्य भार्या जागल
(०११०) बती सुत मांगनदेव श्रीवीरनाथं प्रणमन्ति नित्यम् । संवत् यह मूर्ति देशी पाषाणकी बनी है। करीब २ १२०३ माह बदी।
फुट ऊंची पद्मासन है । चिन्ह शेरका है। भावार्थ:-.......पंडित श्री गंगवर उनकी पत्नी लेख-साह श्री नवल पुत्र नस्ल संवत् ११३१ मय । जागलवती उसके पुत्र मांगलदेव श्री वीरनाथको भावार्थ:-संवत ११३१ में शाह श्री नवल उनके संवन १२०३ के माघबदी २ को प्रतिष्ठा कराके प्रणाम पुत्र नलने बिम्बप्रतिष्ठा कराई। करते हैं।
नोट:-उपलब्ध लेखोंमें यह दूसरा प्राचीन मूर्ति(नं०१०७) . यह मूर्ति देशी पापाणसे बनी हुई है । करीब १
(नं०१११) फुट ऊची पद्मासन है । चिन्ह सर्पका है। पालिस यह मूर्ति भी खण्डित है । सर्वाङ्ग सुन्दर है। कुछ काला है। ग्राम नारायणपरके मंदिरमें नं०११ लेख-संवत् १२३७ मार्गसदी ३ शुक्रे गोलापूर्षान्वये से लेकर १६ तक विराजमान हैं।
___ साह राल्हण तस्य.......... लेख-संवत् १७१३ वर्षे मार्गशिर सदी १० रबऊ श्री- ................ प्रणमान्त । भट्टारकधवलकीति भट्टारक सकलकीर्ति....
भावार्थ:-संवत् १२३७ के अगहन सुदो ३ प्रणमंति नित्यम् ।
शुक्रवारको गोलापूर्व वंशमें पैदा हुए साह राल्हण भावार्थ:-श्री भट्टारक धवलकीर्ति और भट्टारक उसके............ने विम्बप्रतिष्ठा कराई । ये सब प्रणाम श्री सकलकीत्तिने संवत् १७१३ के अगहन सुदी १० करते है। रविवारको प्रतिष्ठा कराई।
(नं० ११२) (नं०१०८)
लेख-जैसवालान्वये साहु मोतीकांत भार्या माहण पीतलसे निर्मित है। करीब ४ इञ्च प्रणमन्ति नित्यम् । ॐची पद्मासन है । चिन्ह सर्पका है।
भावार्थ:-जैसवालवंशोत्पन्न शाह मोतीचन्द्र लेख-सवत् १५२४ वर्षे बदी शुक्र दिने गोलापूर्ववंशे उनकी पत्नी माहण प्रणाम करते हैं। बलई तस्य भार्या पन्ना प्रणमंति।।
(नं० ११३) ___ भावार्थः-गोलापूर्व वंशोत्पन्न श्री बलई उनकी यह एक तावेका षोड़शकारण यन्त्र है । थाली पत्नी पन्नाने संवत् १५२४ के बदी १ शुक्रवारको की तरह गोल है। उसमें एक लेख है जो प्रतिष्ठा कराई।
नीचे दिया जाता है(नं०१०६)
लेख-संवत् १७२० वर्षे फागुन सुदी १० शुक्र ब. स. यह मूर्ति सफेद पाषाणकी बनी है। करीब ६ कुन्दकुन्दाचार्याम्नाये महारकश्रीसकसकीर्तिउपदेशात इंच ऊची पद्मासन है। चिन्ह कमलका है। गोलापूर्वान्वये गोत्रपथबार पं० परवति तरसुत-जेष्ठ-डोंगरू
लेख-सवत् १५४८ वर्षे बैशाख सदी३ भट्टारक श्री पाक-विशन-उग्रसन नित्यं प्रणयन्ति सि० खरसेनके जिनचंद्र..........................
............. यन्त्रमें यन्त्र प्रतिष्टितं ।
भावार्थ:-गोलापूर्व पेंथवार वंशमें पैदा होनेवाले भावार्थ:-भट्टारक श्रीजिनचंद्रने संवत् १५४८ पण्डित परवत उनके पुत्र डोंगर-पाक-विशनु-उग्रसेन के बैशाख सुदी ३ को प्रतिष्ठा कराई।
ने कुन्दकुन्दाचायकी आम्नायमें हुए भट्रारक सकल
........................
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१५६
भनेकान्त
[वर्ष १०
कीर्त्तिके उपदेशसे संवत् १७२० के फागुन सुदी १० साहु वरदेव उनकी पत्नी माध्वी जैणी उन दोनों के को सिंघई खरगसेनके यन्त्रमें यन्त्र प्रतिष्ठा कराई। गुत्र साहु रूपचंद्र द्वितीय पुत्र माहु विहराज उनकी (नं०११४)
पत्नी हांसो माह वरदेव उनके भाई माहु रूपचंद्र यह एक तांवेका चौकोर यन्त्र है। इममे निम्न उमके पुत्र साहु नानि दृमरे ममननानि उनके पुत्र लेख उत्कीर्ण है--
श्राइने संवत् १५०२ क कार्तिक सुदी ५ मंगलको लेख-संवत् १६४२ फागुन पित १० गुरौ भृगे श्रीथब- इस यन्त्रकी प्रतिष्टा कगई। रजमालदजराज्ये पैरोजाबादे श्रीमूलम घबलात्कारगने सर
(नं०११६) स्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्याम्नाये भट्टारकश्रीधर्मकीति- यह यन्त्र तावका गोल है। उसमें यह लेख देवातस्पट्ट श्रीभट्टारकशील सत्रदेवातत्पी भट्टारफश्री. लिखा हैज्ञानसूत्रनदेवास्तदाम्नाये श्रीहिरउ पुत्रौ २ दोदिनमरू लेख-वत १६८३ फाल्गन सदी ३ श्रीधर्मकोतिसत्र दीदि भार्याप्रभा तत्पत्राः५ लोह-तत्र लोह-गुप्तधर- उपदेशात् मुकुट भा० किशुन पुत्रमोदन-श्याम-रामदासणीधर भार्या ।
नन्दराम-सुग्वानन्द-भगवानदास पुत्रासा-जातसिरा-रामभावार्थ:-मं०१६४२ के फागुन सुदी १०वृहस्पति दामोदर--विरदेराम--किशनदास--वैशास्वनन्दनपरचार प्ते वारको श्रीअवरजलाल दजके राज्यमें पैरोजाबाद नमन्ति । में श्री मूलमंघ बलात्कारगण सरस्वतीगच्छ कुन्द- भावार्थ:-मंवत १६८३ के फाल्गुन मुदी ३ कुन्दाचार्यकी आम्नायमें भट्टारक श्रीधर्मकीतिदेव श्रीधर्मकीत्तिके उपदेशसे समुकुट भाकिशन उनके उनके पट्टाधिकारी भट्टारक श्री शीलसत्रदेव उनके पुत्र मोदन-श्याम-रामदास-नन्दगम-सुखानन्द-भगपट्टाधिकारी ज्ञानसत्रदेव उनकी परम्परामे पैदा वानदाम भगवानदासकं पुत्र आशा-जातसिराहोनेवाले शाहश्री हिरउ उनके पुत्र २ दौदि नमरू रामदामोदविग्देगम-किशनदास बैशाखनन्दन, उनमेंसे दौदिकी धर्मपत्नी प्रभा उसके पुत्र लोह- इन्होंने इसकी प्रतिष्ठा कराई । ये मब इम यंत्रको नत्रलोह-गुप्त-धरणीधर उसकी पत्नी ................न नमस्कार करते है। यन्त्र प्रतिष्ठित कराया।
(न०११७) (नं० ११५)
यह यंत्र पीतलका है। गोलाकार है। लेग्य भी यह यन्त्र चौकोर तांवा का बना हुआ है। इस अंकित है। पर निम्न लेग्य अंकित है
लेग्व- सवत् १६०७ मार्गशिर शुक्ल १० वुधे श्रीमृललेख-कल्पनातिगता बुद्धिः परभाषाविभाविका । संघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगने कन्दकन्दाचर्याम्नाये भट्टारक ज्ञानं निश्चयतो ज्ञयं तदन्यव्यवहारतः ॥
श्रीविशालकीर्तिस्तत्पट्ट भट्टारकश्रीपद्मकीर्ति तयोः उपदेशात्मवत् ११०२ वर्ष कार्तिक मुदी भीमदिने श्रीकाष्ठा- जांती मोहिनवान्........ ..भायां निवा-भागा तयोः पुत्र मधे भट्टारक श्रीगुणकीर्तिदेव तत्पट्ट श्रीयशकीर्तिदेव यादोजी भार्या देवा प्रणमन्ति। तस्पट्ट श्रीमलेकीर्तिदेवान्वये माह बरदेवास्तस्य भार्या
भावार्थ-मवत १६८७ के अगहन सदी १० जैणी तयोः पुत्र माहु रूपचंद्र द्वितीय पत्र साह बिहराज बुधवारको श्रीमूलमघक सरस्वतीगच्छ व बलात्कारतस्य भार्या साह हांसो माह बाद भात माह पर गणमें कुन्दकुन्दाचार्यकी आम्नायमें होनेवाले भट्टारक तस्य पुत्र साहु नानि द्वितीय समननानि पुत्र श्राद्ध प्रतिष्ठतम्। विशालकीति उनक पट्टपर बैठनेवाले भट्टारक श्रीपद्म
भावार्थ:-काष्ठासंघमें भटारक श्री गणकीर्तिदेव कीर्ति इन दोनोंके उपदेशसे शाह जांती सोहतवान उनका उनके पटपर बैठनेवाले यशकीर्तिदेव उनके पटा. पत्नी निबा-भागा इन दोनोंके पुत्र यादोजी उनकी धिकारी श्री मलैकीर्तिदेव उनकी परम्परा में होनेवाले पत्नी देवाने यन्त्रकी प्रतिष्ठा कराई।
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संयम (प्रवक्ता श्री १०५ पूज्य क्षुल्लक गणेशप्रमादजी वर्णी न्यायाचार्य) सागर-चानुमांसमें दिया गया वर्णीजीका एक अन्य प्रवचन]
--x-- आज संयमका दिन है संयमका अर्थ श्री नेमिः तो यह अहिसा नहीं है। गृहस्थ पुरुष अपने पदके चंद्र आचार्यने लिखा है कि
अनुकूल ही अहिंसाका पालन कर सकता है। 'वदममिदिकसायाणं दंडाए तहिदियाण पञ्चण्ह। झठका आप लोगोंके त्याग होगा हा प्रतिदिनका धारणपावणणिग्गह चागजओ मयमो भणिओ' ॥ न हो, पर इन पवेक दिनोंमें भी कोई झूठ बोलता
व्रतांको धारण करना, समितियोंका पालन होगा, यह विश्वास मुझे नहीं होता। करना, कपायोंका निग्रह करना, दण्डों-मन, वचन, कायके व्यापारका त्याग करना और इंद्रियों
चोरीकी बात पूछिये नहीं, समय ऐसा आगया का जीतना मंयम कहलाता है। मंयममे ही संमार
है कि अचौयव्रतका निरतिचार पालन करना हम ममुद्रस मंतरण हो सकता है। मनुष्यपर्याय पाकर
त्यागियोंके लिये भी दुर्भर हो रहा है। एक त्यागीन जिन्होंने संयम नहीं धारण किया उन्होंने क्या
प्रतिज्ञा की थी कि मैं किसीको घूम न दूंगा न किसी किया ? भगवान समन्तभद्र देवनं लिखा है- म लुगा, दोनों हो चोरोमें सम्मिलित है। उसे हिमानृतचौर्येभ्यो मैथुनमवापरिग्रहाभ्याच।।
इटावास जबलपुर आना था । वह तीन दिन पापप्रणालिकाम्यो विरतिः संनस्य चारित्रं ।। म्टेशनपर गया । पर बाबृने उसे टिकिट नहीं दिया।
हिमा.भठ. चोरी. व्यभिचार और परिग्रह ये चौथे दिन जब दो रूपये अंटीमे दिय तब टिकिट पांच पापकी नालियां है, इनसे विरक्त होना मा मिला। जबलपुर आकर उमन प्रायश्चित्त किया। व्रत है। व्रत महाव्रत और अणुव्रतके भंदस दो दृसरंकी क्या कहे, आजकल हम लोग भी तो चोरो प्रकारका है। अभी यहां महाव्रतक धारण करने का ही खा रह है। जब यहां गेहूँ पैदा हुआ ही नहीं वाले तो नहीं है अन्य स्थानमे है पर अवतक है तब यह निश्चय है कि जो कुछ हमें मिलता है धारण करनेवाले बहतसं बैठ है। य क्षुल्लकजी वह मब ब्लैककं द्वारा ही मिलता है वही ब्लैकका बैठे है। लंगोटी और चादरको छोड़ दें। अकलापीछी द्रव्य हम लोग भी ग्वाते है। यदि आप लोग चोर है
और कमण्डलु ही परिग्रह रह जाय। यही मान ता हम लोग भी कोन माहूकार है ? तुम्हाग दिया कहलाने लगग। जैन कुलमे उत्पन्न हुआ आदमी हुआ अन्न भी बात है। आरम्भ उद्यम आदिको छोड़कर प्रायः किसी जीव- मैथुनमंवा विषयमे तो कुछ कहने नहीं बनता। की हिंमा नहीं करता है। प्रारम्भमें उद्यम आदिम जवान स्त्री-पुरुपोंका शरीर जर्जर हो गया है। हिंसा करनी पड़ती है पर जैन-शासन गृहस्थकोमा पन्द्रह-पन्द्रह सालकी लड़कियां पिण्डरामे पड़ी हुई करनेकी आज्ञा देता है। हम चादरको अपना माने है। जैमी प्रवृत्ति आप लोगोंकी है उसमें पिण्डरा और उसकी रक्षा करे नहीं यह कहांका धर्म है। नहीं रहना पड़े तो कहां रहना पड़े। पं० श्राशाधर
आप शरीरको अपना माने और फोड़ा आदि होने जीन लिखा है कि स्त्रीका सेवन अन्नकी तरह ...पर उनमे उसको रक्षा नहीं करें ये तो गृहस्थका करना चाहिये। जिस प्रकार सीमास अधिक अन्न कर्तव्य नहीं है । आप पशु पालें और उनके घाव ग्वानपर मृत्यु हो जाती है उसी प्रकार सीमासे आदिमें कीड़े पड़ जानेपर उनसे उनकी रक्षा न करें अधिक स्त्री-सेवन करनेपर मृत्यु हो जाती है।
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अनेकान्त
विर्ष १०
लोग कहते हैं कि अंग्रेजोंने भारतवर्ष ले लिया था, यदि अशान्ति है तो थोड़ासा परिग्रह भी आगे चल अरे, अग्रेजोंने नहीं लिया था । तुम्हारो विषय- कर अधिक परिग्रही बना देता है। एक माधु था। वासनाने लिया था। बेवकूफ पृथ्वीराज यदि एक स्त्री उसके पास गीताको पोथो थो उसे रखने के लिए के पोछे जयचदसे नहीं लड़ता तो मुमलमानोंके उमने एक बिल्ली पाली, बिल्लोको दूध दही मिले पर यहां कैसे जमते ? और मुसलमानों के हाथस इमलिये गाय पालो, गाय की सेवाके लिये एक स्त्री राज्य गया सो उसका कारण भा बाजिद अली आदि रखो.स्त्रोकी आजीविकाके लिये भी परिग्रहका मंचय बादशाहकी विषय-पिपासा ही कारण है। वह करना पड़ा। एक दिन साधु मोचने लगा कि एक अटारीपरसे नीचे उतरता था तो उसे आलम्बनके छोटी-मो गीताकी पोथीके कारण तो मुझे इतना लिये स्त्रियोंके कुचोंकी आवश्यकता थी । काम परिग्रहका संचय करना पड़ा, जो कहीं भागवत पुरुषार्थमें मनुष्य इतने मस्त हो रहे हैं कि कुछ ले लेता, तो न मालूम क्या दशा होती ? कहा कहते ही नहीं बनता । अष्टमी, चतुर्दशी, अपाह्निका भी है :सोलह कारण आदि धार्मिक पर्व है। इनमें मनुष्य गोताकी पोथी लई जिमका इतना ठाट । ब्रह्मचयसे रहे तो उसका शरीर तगड़ा हो। आप जा कहुं लेता भागवत होता बाराबाट ।। विषयसेवन करना चाहते है तो उसके योग्य शरीर मम्यग्दर्शन के अनुकम्पा गणके श्रवण करनेका तो को भी तो बनाना पड़ेगा। एक-एक पुरुषके चार फल होगा जो विपत्तिसं सताये हुए है उन्हें महारा सालमें चार-चार बच्चे पैदा हो जाते है। किसीको दना. यह मनुष्यमात्रका कतव्य है। आस्तिक्यगणका लीवर बढ़ रहा है, किसीको ऑम्व दुःख रही है, अर्थ श्रद्धा और विश्वास है । वह तो आपमें है हो । किसीकी नाक बह रही है। फिर भी पदा किये हो श्रद्धा न होती तो इतना व्रत उपवास आदिका कष्ट जाते हो। जिम स्त्रीके पटमे दमग बच्चा आगया क्यों महन करते ?। यदि धर्मका फल मिलन है उमके माथ विपय सेवन करना महान् अधर्म है। कदाचित विलम्ब हो तो अधैर्यवश उसपर अवि. मंभव है पेटमे लड़की आई हो, तब ? बच्चा पैदा श्वास नहीं करना चाहिये एक उदाहरण आप हो जानेपर भी कुछ समय तक अपना, स्त्रीका मुनियतथा बच्चेका शरीर पनपने दिया जाय तो शरीर एक राजा था जो बडा लोभी था, वह १० वर्ष ठीक रह सकता है। पर क्या कह लोगोंकी बात इन
का होगया फिरभी उसके जीसे राज्यका मोह नहीं लोगोंने तो विषयको रोटी-भाजो बना रक्खा है।
छूटता था। एक बार उसके यहां एक नट और नटी भाई, मानो चाहे नहीं, मै तो आप लोगोंसे दो
आये । नृत्य करते-करते नटीको रात्रिके ३ बजे पर रोटियाँ पाता है.सो उतनेकी बजा देता हूँ। आपका राजाकी तरफसे उसे कुछ भी न मिला। जब नटी श्रापका मार्ग दिखला देता हूं। आप उसपर जाव बिलकल थक गई तब वह नटसे बोलीआपकी खुशी, न जावें आपकी खशी।
'रात घड़ीभर रह गई थाके पिंजर आय, पाप की चौथी प्रणाली है परिग्रह । गृहस्थ परि
कह नटनी सुन मालदेव धीमी ताल बजाय।' ग्रहका बिलकुल तो त्याग नहीं कर सकता पर उसका परिमाण अवश्य कर सकता है। आप अनावश्यक
अर्थात रात बिलकुल थोड़ी रह गई है हमारा परिग्रह नहीं रोके तो उससे दूसरोका काम चल शरीर थक गया इमलिए अब धामा ताल ब
शरीर थक गया इमलिए अब धीमी ताल बजाओ। जावे । सुना है कि आपके यहां पंजाबके शरणार्थी उत्तर में नट कहता है किआने वाले हैं उन्हें आप अच्छी तरह आश्रय दे 'बहुत गई थोड़ी रही थोड़ी हू ओ जात । सकें तो आपके परिग्रहका सामयिक उपयोग होगा। अब मत चूके नाटनी फल मिलनेकी बात ।।'
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किरण४]
संयम
१५६
अर्थात् रात बहुत सी तो निकल चुकी है अब पुत्रके साथ है मैं चाहती थी कि आप इसके साथ थोड़ी सी बाकी रह गई है सो वह भी चली जावेगी। मेरी शादी कर देते और कुछ गांव देकर मुझे खुश अतः अपना काम करती चलो; क्योंकि अब फल कर देते पर मेरी उमर २० वर्षकी होगई आप लोभ मिलने की बात है।
वश कुछ करते धरते नहीं इसलिये दोहा सननेके यहां दोहा कहनेकी देर थी कि राजाके लड़के पहले में सोच रही थी कि आज सवेरा होनेके ने उसे अपना कई लाखका हार गलेस उतारकर पहले ही इसके साथ कहीं चली जाऊं, पर दोहा सुन दे दिया। लड़कीने अपने हाथकी कीमती पहंची कर मुझे विवेक आया कि बहुत समय तो निकल दे दी, और एक वृद्ध माधु बैठा था सो उसने अपना चुका है अब थोड़ा-सा और रह गया है पिताजीके कीमती दुशाला दे दिया। राजाको यह बात बहुत बाद हमारे भाईको राज्य मिलेगा वह हमसे स्नेह अखरी उसने लड़केस कहा बेटा ! तुम इस दोहापर रखता है अतः इच्छानुसार काम कर देगा, व्यर्थ इतने लट्र होगये कि ७ लाख रुपयेका हार तमने की बदनामी क्यों उठाऊं? पिताजी आज मैं कलंक दे डाला ? मै बहुत देता दस पचास रुपये देता। से बच गइ इसीकी खुशीमें मैंने अपनी पहुंची इसे लड़केंने कहा पिताजी इसके दोहाने मुझे पितहत्या देदो। राजाने साधुमे भी पूछा कि तुमने अपना सं बचा लिया यह दोहा सुनने के पहले मेरा विचार दुशाला क्यों दे दिया ? उसने कहा महाराज ! हो रहा था कि आप इतने वृद्ध हो गये फिर भी हमारी आयुका बहुतसा भाग तो बीत चुका अब मुझे राज्य नहीं दे रहे अत: नौकरम विष दिलाकर थोड़ा-सा रह गया है सो वह भी निकल जायगा।
आपको मार डाल और स्वयं राज्य करने लगृ; पर मुझे यह कीमती दुशाला क्या शोभा देता है ? यह दोहा सुनकर मेरा विचार बदल गया कि बहत यह सोच कर मैंने इसे दे दिया। राजा तीनोंके उत्तर समय तो बीत गया अब आप हमेशा तो जीते न सुनकर प्रसन्न हुआ और सवेरा होते ही लड़केको रहेगे साल दो मालमें अवश्य खतम हो जाओगे तब राज्य देकर तथा पुत्रीका मंत्री-पुत्रके साथ विवाहको राज्य मुझे ही मिलेगा पितहत्याका पाप क्यों व्यवस्था कर संन्यासी होगया। करू? इस दोहाको सुनकर मैं पापसे बच गया मोया। अब फल मिलनेकी बात है जरासे अतः मैने उसे हार दे दिया, राजाने कहा, ठीक है। अब लड़की से पूछा बेटी तमने कीमती पहंची क्यों विलम्बके पीछे अपने महासिद्धान्तसे विचलित नहीं द दी, उसने कहा पिताजी ! मेरा अनराग मंत्रीके होओ।
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सोलहवीं शताब्दीके दो अपभ्रंश काध्य
(लेखक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
देशभाषा अथवा अवहट्ट या अपभ्रंशभाषा अथवा जैसवाल कुलरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करने विक्रमकी ८ वीं शताब्दीसे १६ वीं शताब्दी तक के लिये 'तरणि' (मर्य) था। इमकी माताका नाम कितनी लोकप्रिय रही है, इसे बतलानेकी आवश्य- 'दीवा' था । जैसाकि नागकुमार चरित प्रशस्तिकी कता नहीं है । इसके अभ्यासी साहित्यिक जन निम्न पक्तियोंसे प्रकट है:सुपरिचित है । इसकी लोक-प्रियताका इससे "तहिं णिवपइ पंडिउ मत्थखणि, अधिक और क्या सुबूत होसकता है कि इस भाषा
मिरि जयसवालकुलकमलनरणि । में १६ वी १७ वीं शताब्दी तक ग्रन्थरचना होती
इक्वाकुवं समहियलिवरिट्ट, रही है । इम भापाने हिन्दी भाषाको केवल जन्म ही
बुह सूरा गंदणु सुयगरिछ । नहीं दिया किन्तु उमके विकासभे भी बहुत कुछ
उप्पएणड दीवा उयरि खाणु, योगदान दिया है । आज जबकि हिन्दी राष्टकी
बुह माणिकुणामें वुहहिमागु ।' भाषाके गौरवको प्राप्त कर रही है तब उसकी जनक भाषाका साहित्य और इतिवृत्तके लिखे जानकी नागकुमार चरित्रके आदिके दो पत्र नहीं है। महती आवश्यकता है । इस भाषाके अप्रकाशित इसलिये उक्त ग्रन्थका निर्माण करते समय कवि कितने हा ग्रन्थोंका परिचय अनेकान्तमें दिया जा कहांका निवासी था यह मालूम नहीं हो सका, पर चका है। आज भी दो नवीन अप्रकाशित अपभ्रश इतना कहा जा सकता है कि वहांके जिनमन्दिर भाषाके अमरसेनचरित और नागकुमामारचरित में निवास करते थे जिसमें भगवान आदिनाथकी नामके इन ग्रन्थोंका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा दिव्य मूर्ति विगजमान थी। वह स्थान कहां था
उसक सम्बन्धमें निश्चयपूर्वक तो कुछ नहीं कहा इनमें से प्रथम प्रन्थका नाम 'अमरसेन चरित' जा सकता, किन्तु अमरमनतरितके बनाते समय वे है जिससे स्पष्ट मालूम होता है कि उक्त ग्रन्थमे मुनि 'रोहियालिपुर' रोहतकक निवासी थ । जो आज भी अमरसेनके जीवन परिचयको अङ्कित किया गया यह नगर उमी नामसे उल्लेखित किया जा रहा है। है। मनिअमरसेन कौन थे और उन्होंने अपने यह नगर अाज भी जन-धनस सम्पन्न है। जान जीवनर्म आत्म-साधनाके साथ क्या कछ लोकप्रिय पड़ता है कि सुनपतकी तरह रोहतकमें भी भट्टारकीय कार्य किये है ? यह इम लेखका विपय नहीं है। गद्दी थी, वहांक पंचायती मन्दिरमे आज भी एक अतः इसके सम्बन्धमें कुछ न लिग्व कर इतना विशाल शास्त्रभंडार है जो भट्टारकीय परम्पराकी लिखना ही पर्याप्त होगा कि इस प्रथकी यह एक स्मृतिका द्योतक है । रोहतक लिखे हुए अपभ्रंश खण्डित प्रति आमेर शास्त्र-भंडारमें उपलब्ध है भाषाके कई ग्रंथ मर देग्वनमे आए है इममें वहांक जिसकी पत्र संख्या ६६ है, प्रति बहुत ही जीर्ण-शीर्ण
भडारमें अपभ्रंश भाषाके ग्रन्थों का संग्रह रहना अवस्थामें है और खंडित है-उसमें प्रथम पत्र नहीं
बहुत कुछ संभव है। और जबकि वहां भो ग्रन्थहै। प्रन्थमें सात सन्धियां है जिनमें उक्त चरित्रका रचना उस भाषामें हुई है तब इसमें सन्देहको चित्रण किया गया है।
कोई स्थान ही नहीं रहता। इन प्रथोंके कर्ताका नाम कवि मणिक्कराज कवि माणिक्कराजने अमरसनचरितमे अपनी है, जो 'बुहसूरा' बुधसूराका पुत्र था। यह जायस. गुरुपरम्परा इस प्रकार बतलाई है:
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फिरण४]
सोलहवीं शताब्दीके दो अपभ्रंश-काव्य
१६१
तव-तेय-णियत्तणु कियउ खीणु,
गरवय जसमलु गुणगणणिहाणु, सिरिखेमकित्ति पट्टहि पवीणु ।
बीयउ लहु बधउ तग्वजाणु । मिरिहेमकित्ति जिं हयउ बामु,
मिरिसंतिदास गंथथ जाणु, तहु' पवि कुमरविलेण णामु ।
चम्बइ मिरिपारसु विगय-माणु । णिग्गधु दयालउ जइ दरिद्व,
इस चरित प्रथका निर्माण कराने वाले सजन जि कहिउ जिणागमभेउ मुह, । रोहतकके निवासी थे। उनका कुल अग्रवाल और तहु पट्टि णिविटिउ बुह पहाणु, गोत्र था सिंघल या सिंगल । उनका नाम था सिरिहेमच'दु मय-तिमिर-भाणु । देवराज जो चौधरी पदमे अलंकृत थे। इनके तं पट्टि धुर धरु वय पवीणु, पिताका नाम साहू महणा था। प्रस्तुत ग्रंथ चूंकि वर पोमणदि जो तवह खीणु । चौधरी देवराजकी प्रेरणासे बना है अतएव वह तं पविवि णियगुरुसीलखाणि, उन्हींके नामांकित किया गया है । प्रथ प्रशस्तिमें
णिग्ग'थु दयालउ अमियवाणि । इनके कुटुम्बका विस्तृत परिचय दिया हुआ है, क्षेमकीर्ति, हेमकीति, कुमारसेन, हेमचन्द्र और इसी कारण उसे यहां नहीं दिया, पाठक महानुभाव
प्रशस्तिपरसे अवलोकन करें। पद्मनन्दी । प्रस्तुत पद्मनन्दी तपस्वी, शीलकी खानि, प्र निम्रन्थ, दयालु और अमृतवाणी थे। यही माणि- इस ग्रंथकी रचना वि. सं० १५७६ के चैत्रसुदी क्कगजके गुरु थे । इन्हींको कविने अपना गुरु पंचमी शनिवारके दिन कृतिका नक्षत्रके शुभ योगमें बतलाकर उन्हें प्रणाम किया है। इस प्रथको प्रण की गई है जैसाकि निम्न पद्योंसे प्रकट है:अन्तिम प्रशस्तिमें भ० पद्मनन्दीके एक और शिष्य
"विक्कम रायहु ववगह कालई, का उल्लेग्य है जिनका नाम देवनन्दी था और जो
लेसु मुणीम विसर अकाला। श्रावककी एकादश प्रतिमाओंके मंपालक, गग-द्रुप
धरणि अक महु चइत विमाणे, मद-मोहके विनाशक, शुभध्यानमें अनुरक्त और सणिवारस्य पंचमिदिवसें । उपशम भावी था। उस समय रोहतकमे उक्त पार्श्व
कित्तिय णवत्त सुहजोए, नाथके मन्दिरमें दो विद्वान और भी रहते थे। ज्येष्ठ हुउ उप्परणउ सुत्त सुहजोए । जसमलु और लघुबांधव शांतिदास । जैसाकि उक्त प्रस्तुत प्रति अपने रचनाकालसे एक वर्ष बादकी प्रशस्तिके निम्न वाक्योंसे प्रकट है:
लिखी हुई है अर्थात सं० १५७७ की कार्तिकवदी 'हेमचंदु श्रायरिउ वरिष्टुर' चतुर्थी रविवारके दिन कुरुजांगल देशके सुवर्णपथ नहु मीसुवि तव-नेय-गरिउ,
(सुनपत)नामके नगरमें काष्ठामंघ माथुरान्वय पुष्करपोमण दि धरण दउ मुणिवा ।
गण के भट्टारक गुणभद्रकी आम्नायमे उक्त नगरके देवणंदि तहु पीस महीवरू,
निवासी अग्रवालवंशी गोयलगोत्रो जिनपूजा परंदर एयारह पडिमउ धारतउ,
व्रतवान साहू छल्हूके पुत्र साहू वाटूने इस अमरसेन राय-रोस-मय--मोह-हणतउ ।
चरित्रको लिखा था। मुहमाणे उपममु भावतउ, _इनकी दूसरी कृति 'नागकुमार चरित्र' है, जिसे रणदउ बभलोल ममवतउ । उन्होंने संवन १५७६ में फाल्गुणमदि नवमीके दिन तह पासजिणेदह गहरवण, पूर्ण की है। यह ग्रन्थ नौ संधियोंमें पूर्ण हुआ है वे पडिय शिवसहिं कणयंवण ।
जिसकी श्लोक संख्या ३३०० बतलाई गई है
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अनेकान्त
[वष १०
यह ग्रन्थ साह जगमीक पत्र माहू टोडरमल्लकी टोडरमल्लका जयघोष करते हुए लिग्वा है कि वह प्रेरणासे रचा गया है और उन्हींके नामांकित राजसभामें मान्य था, अखण्ड प्रतापी, स्वजनोंका किया गया है। ग्रन्थकी कुछ मंधियोंकी आदिमं विकामी, और जीवादि सप्ततत्त्वोंका कथन करनेकतिपय संस्कृत पद्य भी पाये जाते है जिनमे साहू वाला था, विमल गुणोंसे युक्त और भाई तथा पुत्र टोडरका खुला यशोगान किया गया है-उसे कणके से अलंकृत था, जैसा कि उसके निम्न पदासे प्रकट समान दानी, विद्वज्जनोंका मंपोषक, रूप लावण्यम है:युक्त और विवेकी बतलाया है। कविने इस ग्रंथको "नृपतिपदसि मान्यो यो ह्यग्वंदप्रतापः , पूरा कर जब साहू टोडरमल के हाथमें दिया तब स्वजनजन विकासी सप्ततत्त्वावभासी। उसने उसे अपने शीशपर चढ़ाया और कवि मानि- विमल-गुणनिकेतो भ्रान पुत्रो समेतः , कराजको बब आदर-मन्कार किया उसने उसे स जयति शिवकामः माधु टोडरुत्ति णामा।" वस्त्रोंके अतिरिक्त कंकण कुडल और मुद्रिका आदि
इम तरह यह प्रथ भी लोकप्रिय भाषामें षणोंस अलंकृत भी किया। उस समय गुणीजनों लिया गया। राजा मापा माथि
| लिखा गया है। अपभ्रंश भाषाके साहित्यका की कदर थी; किन्तु आज गुणीजनां और मंतजनक अध्ययन करनेसे यह सहज ही मालूम हो जाता है निरादर करनेवाले तो बहुत है; हां गुगाग्राहक कि उसके द्वारा हिन्दीका विकास कैसे हुआ है। इन बहुत ही कम है। क्योंकि स्वाथे-तत्परता और अहं- दोनों ग्रथोंका अध्ययन करनसे यह सहज ही ज्ञात कारन उमका स्थान ले लिया ह। अपन स्वाथकी हो जाता है कि इनमें हिंदी भापाका कितना विकअथवा कषायकी पूर्ति न होनेपर उनके प्रति अवज्ञा मितरूप पाया जाता है। ग्रन्थमे देशी भाषाके शब्दों
और तिरस्कारकी भावना जागृत हो जाती है । 'गुण की भी बहनायत है और अपभ्रंश भाषाकी मरलता न हिगनों किंतु गुणगाहक हिगनों' की नीतिके
।' का नातिक पद-पदपर दृष्टिगोगर होती है, हा पदलालित्यमें अनुसार खद है कि गुणग्राही धमात्मा श्रावकाकी कमी नहीं है। ग्रन्थागत चरितभाग भी सुन्दर है. मन्या विरल है-वे थोड़े है । अस्तु ।
और उस पढ़ने के लिये उत्साह होता है। इस प्रकार कविने इस प्रथकी चौथी मंधिक आदिम माह य दोनों ही प्रथ प्रकाशनक योग्य है।
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साहित्य-परिचय और समालोचन
इस स्तम्भमे समालोचनार्थ श्राये नये ग्रन्थादि माहित्यका परिचय और ममालोचन किया जाता है। समालोचनाक लिये प्रत्यक प्रन्यादिकी दो-दो प्रतियां श्राना जरूरी है।
-सम्पादक]
शासन-चतुस्त्रिंशिका-मल रचनाकार श्री श्रीपुर-पार्श्वनाथ स्तोत्र-मूल रचनाकार, मदनकीति । सम्पादक और अनुवादक, न्यायाचार्य श्रीमद्विद्यानन्दस्वामी । संपादक और अनुवादक पं० दरबारीलाल जैन कोठिया, शास्त्री । प्रकाशक- श्रीन्यायाचार्य प० दरवारोलाल जैन कोठिया, वीरसेवामंदिर सरसावा, जिला महारनपुर । पृष्ठ शास्त्री। प्रकाशक, वीरसंवामंदिर सरसावा, जिला मंख्या ५६४ २१ । लागत मूल्य बारह आने । महारनपुर । पृष्ठसंख्या, ८६४०४। लागत मूल्य
श्रीमदनकीर्ति मुनिने दिगम्बर जैन शासनका बारह आन।। व्यापक प्रचार और प्रभाव दर्शाने के लिए उक्त चतु- मलम्तोत्र ३० पद्योंमे है और इतनेमे ही रचयिता स्त्रिंशिकाकी रचना की है। हरएक श्लोकके अन्तमें ने आपकं गुणोंका विवेचन और परीक्षण करते 'दिग्वामसां शासनम' पद इमका समर्थन करता हुए, भगवान पार्श्वनाथमें उन मबका सद्भाव पाकर है। पुस्तकको मही मानेमें जैन तीर्थोकी परिचय- उन्हें वन्दनीय माना है और उनकी स्तुति की है। पुस्तक कहना चाहिए।
कोई ममय था जब श्रीपुरके पार्श्वनाथके अतिशय प्रस्तुत मंस्करण विद्वान सम्पादकके अनुवाद
और माहात्म्यकी चचा चारों ओर फैली थी। और परिशिष्टमें दिए गए तीर्थपरिचयसे विशेष विद्यानन्द भी उससे प्रभावित हुए और उन्होंने महत्वका बन गया है। ग्रन्थमें उल्लेग्वप्राप्त सभी श्रीपुर-पार्श्वनाथकी स्नतिक बहाने एक नवीन तीर्थोका इतिहास तथा वर्तमान स्थानका परिचय दार्शनिक कृति ही उपस्थिन कर दी। कगनेका मफल और मही प्रयास किया गया है। संपादकने प्रस्तावनामे स्वयं लिम्बा है, "प्रस्तुत फलामक बाग्मे “यह ध्यान रहे कि अष्टापदभी इमी ग्रन्थ 'श्रीपुर पार्श्वनाथम्तोत्र' ......म्वामी ममन्तभद्र कैलामगिरि का दृमग नाम है। जैन तर इम 'गौरी- के 'देवागम ( याप्रमीमामा )' स्तात्र जैमा बड़ी हो शकर पहाड़' भी कहत है।" की सत्यता विचार- मुन्दर और महत्वपूण दानिक कृति है और उमीके गीय है।
ममान जटिल एवं दह है।" इमी जटिल और प्रस्तावनामे सम्पादक महादयन मुनि मदन- दुरूह महत्वपूर्ण दार्शनिक कृतिको मर्वसाधारणक कीतिक समय और उनके स्थानपर अच्छा प्रकाश मम्झन लायक बना दनक उह श्यम विद्वान डाला है।
मंपादकने पद्याथ, भावाथ आदि अनेक प्रकारसं छपाई सफाई उत्तम । पुस्तक सर्वसाधारणके प्रत्येक पद्य का विवंचन किया है। लिए उपयोगी है।
१६ पृष्ठांकी प्रस्तावनाम मपादकने ‘प्रन्धका
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१६४
अनेकान्त
[वर्ष १०
संक्षिप्त परिचय', 'श्रीपुर और उसके अवस्थानका अन्तर्गत ग्रन्थकी महत्ता पर प्रकाश डाला है। विचार', (ग्रन्थसंबंधी) कर्तृत्वविषयक भ्रान्ति और छपाई सफाई उत्तम । पुस्तक विद्वानों और सर्वउसका निराकरण, ग्रन्थकारकी अन्य रचनाएं, साधारणके कामकी है। प्रन्थकारका परिचय और समय, इन शीर्षकोंके
-बालचन्द्र जैन हासप्तति-तीर्थकर जयमाल [ कोई डेढ़-दो वर्षका अर्सा हुआ, कानपुरसे मुख्तारसाहब एक पुराना गुटका लाये थे। इस गुटकेमें कई महत्वकी अप्रकाशित रचनाए पाई गई, जिनमेसे कुछ रचनाए 'अनेकान्त' में प्रकाशित हो चुकी है। आज उमी गुट केपरमे एक अप्रकाशित रचना, जिसे उसी समय नोट कर लिया था, यहां प्रकाशित की जा रही है। यह अच्छी, सरल और मधुर रचना है। इसमें भत, वर्तमान और भविष्यत्के बहत्तर तीर्थंकरोंका अठारह पद्योंमें जय-गान किया गया है । रचना कण्ठस्थ करने योग्य है और बोलने में वड़ी प्यारी लगती है। इसके रचयिता ब्र० महेश है। ये संस्कृतके साथ अपभ्रंशके भी अच्छे विद्वान जान पड़ते हैं, क्योंकि इनकी एक अपभ्रंश रचना भी पाई जाती है जिसका नाम 'मदनपराजयगीत' है और जिसमें बड़े सुन्दर ढंगसे मदनके पराजय का वर्णन है। इसके दो पद्य नमूनेके तौरपर इस प्रकार है:
“एम मनोभउ जंपइ मोते बलिय न केवि । हरि-हर बंभ जि अतिबल मई जीते हैं तेवि ॥५॥ मोह कम्भु तब भासद एवं मयन म गधि ।
आथि जिनेसु महाबलु जेन पवाहिय भवि ॥६॥" इस रचनाको भी अगले किसी अङ्कमें पूरा प्रकाशित किया जावेगा. जिससे पाठक उमसे भी परिचित हो सकेंगे। ब्र० महेश कब और कहां पैदा हुए है तथा उनकी और कौन २ रचनाएं
हैं. यह एक स्वतंत्र लेखका विपय है जिसपर फिर कभी प्रकाश डाला जा सकेगा। -कोठिया ] किवाणं प्रकटित-निर्वाणं सागरमतिसादर-गीर्वाणम् । सुमति सुमनो-नुत-पद-पद्म पद्मप्रभमत्यद त-पद्मम् । नोमि महासाधुशम-लाभं केवल-विमल विदं विमलाभम् ॥१॥ स्तामि स्पार्श्वमपाकृत-तन्द्र चन्द्रप्रभमाभा-हत-चन्द्रम्॥२॥ श्रीयर-मतुल-श्रीधर देहं शुद्धाभ सुविशुद्धप देहम् । सविधिं भाषित-शुभविधि-रचनं शीतलविभुमतिशीतलवचनं । तत्तमभीप्सित-दान-सुरागं जिनममलाभं गत-वसु रागम् ॥२॥ श्रेयांसं सरपति-कृत-पूजं पूज्यतमं वसपूज्यतनूजम् ॥३॥ उद्धृतमम्युद्धत-परलोकं जिनपनिमग्निं तर्जित शोकम् । विमलं पूरिन-सेवक-कामं श्रीमदनन्तजिन प्रणमामि । संयममुत्तम-संयम-पात्रं शिवमति बहुशिव-लक्षण गात्रम् ॥३॥ [..................
....................]॥४॥ पुष्पान्जलिमखिलाजन-रहितं शिवगणमुल्वणशिवगणहितं [..........
.................. सोत्सवमत्साहं जिननाथं ज्ञानमनन्त ज्ञान-सनाथम् ॥४॥ मल्लिमशल्यं सरभिशरीरं मुनिसबतमघ-मेघ-समीरम् ॥२॥ परमेश्वरमागम-परमेशं शुकु-विमल लेश्यं विमलेशम्। नमित-सरासरकं नमिदेवं नेमि क्रम-नत-हरि-बलदेवम् । स्तौमि यशोधरमुज्वल-यशस कृष्णमतृष्ण हितकरवचमम्॥॥ पार्श्वम्पाश्रित-धरणमपाशं वर्द्धमानमहन्तमपाशम् ॥६॥ ज्ञानमति नाशित नरकुमनि शुद्ध मनिं मुलभीकृतमुगतिम् । नौमि महापद्म' च पदाऽहं सूरदेवमित-मानस-दाहम् । श्रीभद्र प्रणमामि सकान्ति शान्ति विहित-चतुर्गणशांतिम्॥६॥ सुप्रभमुरु-भामण्डल-शोभं स्वयमादिप्रभमज्झित-लोभम् ॥३॥ बन्दे मनिवृषभं वृषभेशं प्रभुजितं बुध-कैरव-मेशम्। सर्वायुधमखिलायुध-हीनं जयदेवं नतदेवमहीनम् । सम्भवमजरासम्भवविलयं नौम्पभिनन्दनमद्भज्ञानम् ॥॥ जनिन-जनाभ्युदयमदयदेवं प्रभादेवमिन्द्र-विहित-सेवम् ॥२॥
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किरण ४]
डा. अम्बेडकर और उनके दाशनिक विचार
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मस्त-समस्तावमुदकं प्रश्नकोतिमुन्मीलित-पङ्कम् । जयनाथं जयजय-रव-महितं श्रीविमलं त्रिभुवनपरमहितम् । जयजयशब्द-नुत-जयसंशं पूर्णबुद्धिमुन्मीलितसंज्ञ॥३॥ दिग्यवादमति-दिव्य-निनादं वन्देऽनन्तवीर(य)मविषादम् ॥ निष्कषायमत्यस्तकषायं विमलप्रभममलप्रभकायम् । इति नमति जिनेशान् भूत-सद्भाविनो यबहुलबलं चहलं जिनराजं निर्मलमतिनिमल-गण-भाजम् ॥४॥ रचरण-नत-महेशान् सप्तति युग्मयुक्ताम् । चित्रगुप्तमत्यन्तसमाधि बोधि-निगप्तान्त-समाधिम् । प्रथमममर-सौख्यं दीर्घकालं स भक्त्वा , स्वयमादिभुवममायमदपं कन्दर्प सुख-जित-कन्दर्पम् ॥२॥ विविध-विबुध-सेव्यः स्यात्पुनस्तीयकर्ता ॥१॥
॥ इति द्वासप्ततितीर्थकरजयमाला समाप्ता ।। डा० अम्बेदकर और उनके दाशनिक विचार गत १४ नवम्बर (१९४८) को सिद्धार्थ कालेज सिद्धान्त है, जिसका अर्थ नानाधर्मात्मक वस्तु बम्बईके प्रोफेमर और अनेक ग्रन्थोंके रचयिता है-अनेकका अर्थ नाना है और अन्तका अर्थ सर्वतंत्र स्वतन्त्र पं० माधवाचार्य विद्यामार्तण्डके धर्म है और इसलिये दोनोंका सम्मिलित अर्थ माथ मुझे डाक्टर अम्बेडकरसे, जो स्वतन्त्र भारतकी नानाधर्मात्मक वस्तु होता है। जैनदर्श नमें विश्वविधान समविदा समितिके अध्यक्ष है और जिन्हें के समस्त पदार्थों को नाना धर्मात्मक माना गया है। स्वतन्त्र भारतके विधान-निमोता होनेसे वर्तमान एक आत्मा पदार्थको लीजिए, वह द्रव्यकी अपेक्षा भारतमें 'मनु' कहा जाता है तथा जो कानूनके
सदा विद्यमान रहता है-उसका न नाश होता है विद्वानों में सर्वोच्च एवं विख्यात विद्वान् माने जाते
और न उत्पाद । किन्तु पर्यायोंको अपेक्षा वह परिहै, भेंट करनेका मौका मिला।
वर्तनशील है-उत्पाद और विनाश होते हैं । जिसे डा० साहबसे मिलकर और यह जानकर बड़ी हम डाक्टर या वकील कहते हैं उसे उनका पुत्र प्रसन्नता हुई कि वे कानूनके पण्डित होनेके सिवाय 'पिताजी' कहता है और उसके पिताजी 'पुत्र' कहते दर्शनशास्त्रके भी अच्छे विद्वान हैं और विभिन्न
हैं, भतीजा चाचा और चाचा भतीजा तथा भानजा दर्शनासा उन्होंने गहरा एव तुलनात्मक अध्ययन मामा और मामा भानजा कहकर पुकारते है ।ये किया है। जैन दर्शन और बौद्ध दर्शनका भी सब धर्म डा. साहब अथवा वकील साहबमें एकउन्होने अच्छा परिशीलन किया है।
साथ एक-कालमें विद्यमान रहते हैं। भले ही मिलनक समय मेरे हाथमे 'अनेकान्त' के प्रथम डाक्टर या पिताजी कहनेके समय वे सब धर्म वर्षकी फाइल थी, जिसमें उक्त प्रोफेसर साहबका गौण हो जायें, परन्तु वे वहाँ उस समय हैं अवश्य'भारतीय दर्शन शास्त्र' शार्षक महत्वका एक लेख केवल उनकी विवक्षा न होनेसे वे गौण होजाते हैं। छपा है और जिसमें प्रोफेसर सा० ने जैनदर्शन वस्तुके इम नाना धर्मात्मक स्वभावरूप अमेकान्त के स्याद्वाद तथा अनेकान्त सिद्धान्तपर उत्तम सिद्धान्तका सूचन अथवा ज्ञापन करनेके लिये इस विचार प्रदशित किये है । डा०साहबने बड़े सौजन्य- अखवारका नाम 'अनेकान्त' रखा गया है। से मुझसे कुछ प्रश्नोत्तर किये, जिन्हे महत्वके होनेसे डाक्टरसाहब-दर्शनका अर्थ तो जगतमें शांति नीचे दिया जाता है
का मार्ग दिखाने का है, किन्तु वर्तमानमें जितने दर्शन डाक्टर सा०-आपके इस अखवारका नाम है वे सब परस्पर विवाद करते हैं। उनमें खण्डन 'अनेकान्त' क्यों है ?
और एक-दूसरेपर आक्षेप तथा आक्रमण करने के मैं-'अनेकान्त' जैनदर्शनका एक प्रमुख सिवाय कुछ नहीं मालूम पड़ता ?
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अनेकान्त
[वष १०
मैं-यह विल्कुल ठीक है कि 'दर्शन' का अर्थ मानता है और विरोधी दिखनेसे दूसरे धर्मका वह जगतमें शांतिका मार्ग दिखानेका है और इसीलिये निराकरण करता है तो स्याद्वादद्वारा यह बतलाया दर्शनशास्त्रका, लोकमें उदय हुआ है। जब लोकमें जाता है कि स्यात्-अमुक दृष्टिसे अमुक धर्म है धर्मको लेकर अन्धश्रद्धा बढ़ गई और भेड़ियाधमान और स्यात्-अमुक दृष्टिसे अमुक धर्म है और इस जैसा लोगोंका गतानुगतिक प्रवर्तन होने लगा तो तरह दोनों धर्म वस्तुमें विद्यमान है । जैसे, वेदान्ती समझदार लोगोंको दर्शनशास्त्र बनाने पड़े और उनके आत्माको सर्वथा नित्य और बौद्ध सर्वथा अनित्य द्वारा यह बताया गया कि अपने हितका मार्ग परीक्षा मानते हैं। यहाँ जैनदर्शन स्याद्वादसिद्धान्त द्वारा करके चुनो। अमुक पुस्तकमें ऐसा लिखा है अथवा आत्माको द्रव्य और पर्यायोंकी अपेक्षासे नित्य तथा अमुक व्यक्तिका ऐसा वचन है इतनेसे उसे मत मान अनित्य दोनों बतलाता है और उन्हें कथंचित रूप में लो, पहले उसकी परीक्षा करलो। पीछे यथार्थ जंचने ही स्वीकार करनेके लिये कहता है। यही समन्वय. पर उसे अपनाओ। जैनदर्शनमें स्पट कहा है- का मार्ग है । हमारा मब सच और दूसरेका सब
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिपु। झठ, यह वस्तुनिर्णयकी सम्यक नीति नहीं है।
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ मूलतः सभी दर्शनकारोंका यह अभिप्राय रहा है
हिन्दुस्तान हिन्दुओंका ही है, ऐमा मानने और कि मेरे अथवा मेरे दर्शनद्वारा जगतको शांतिका मार्ग
९ कहनेमें झगड़ा है किन्तु वह जैनों, मुसलमानों, दिखे, किन्तु उत्तरकालमें पक्षपातादिके कारण उनके
बौद्धों आदि दुमरोंका भी है, ऐमा मानने तथा अनुयायिओंने उनके उस अभिप्रायको सुरक्षित नहीं।
कहनेमें झगड़ा नहीं होता । स्याद्वाद यही काम करता रखा और इसीसे उन्हें खण्डन तथा एक-दसरेपर है और इसीलिये जब हम स्याद्वादकी दृष्टिने काम
आक्रमणके दल-दल में फंस जाना पड़ा और जिससे लेते है तो सत्यार्थीमें कोई भी विरोधी नहीं मिलेगा. वे दर्शन श्राज विवाद करनेवाले-से प्रतीत होते है। जिसका निराकरण करना पड़े।
जैनदर्शनमें इन विवादोंको शमन करने और डाक्टरसा०-बुद्ध और महावीरकी सेवाधर्मकी समन्वय करनेके लिये अहिंसा और स्याद्वाद ये दो नीति अच्छी है और उसके द्वारा जनताको शांति शान्तिपूर्ण तरीके बतलाये गये है । अहिंसा आक्षेप मिल सकती है ? और आक्रमणकी भावनाको रोकती है और त्याद्वाद मैं-सेवाधर्म अहिंसाका ही एक अङ्ग है । माध्यस्थ्यभावको प्रदान करता है जिससं विवेकके अहिंसकको सेवाभावी होना ही चाहिए । महावीर साथ वस्तुनिर्णय तक पहुँचा जाता है। आप दखगे, और बुद्ध ने इस अहिंसाद्वारा ही जनताको बड़ी जैनदशनमें श्राक्षेप और आक्रमण नहीं मिलेगे। शान्ति पहुँचाई थो और यहो उन दोनों महापुरुषों हाँ, किसी असत्यार्थका प्रतिवाद जरूर मिलेगा की जनताजनादेनकी लोकोत्तर सेवा थी, जिसमें और जोरदार मिलेगा।
उनके अभ्युदय और कल्याणकी भावना तथा __ डाक्टरसा० - समन्वयका मागे तो ठीक नहीं है, प्रयत्न समाये हुए थे । इन महापुरुषोंके उपदेशोंपर उससे जनताको न शान्ति मिल सकती है और न चलकर ही महात्मा गान्धीजीने देशको स्वतन्त्र ठीक मार्ग । जो विरोधी है उसका निगकरण हाना किया, यह आपको मालूम हो है। ही चाहिये?
__यह चर्चा बड़ी मैत्री और सौजन्यपूर्ण हुई। इसके __ मैं-मेरा अभिप्राय यह है कि एक वस्तुमें सतत लिये प्रो.सा. तथा डा. सा. धन्यवाद के पात्र हैं । विद्यमान दो धमिसे एक एक धर्मको ही यदि कोई १० दिसम्बर १६४६, -दरबारीलाल जैन,
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जीवन और विश्वके परिवर्तनोंका रहस्थ
(ले०-श्री अनन्तप्रसाद जैन B.Sc , Eng., 'लोकपाल')
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[इस लेखमें विद्वान लेखकने जीवन-मरण, सुम्ब-दुःख, संयोग-वियोग, रोग-शोक, भारोग्य, हानिलाभ, सन्तति-सम्बन्ध, एक वस्तुका दूसरीपर अच्छा-बुरा प्रभाव और प्राकस्मिक घटनाओं जैसी विश्वकी अनेक जटिल समस्योंको हल करने और उनके हल द्वारा लोकमें सुख-शांतिका स्रोत कैसे बहाया जा सकता है उसकी दिशाका बोध करानेके लिए एक नई विचार-धारा प्रस्तुत की है। इस विचार-धाराका दृष्टिकोण वैज्ञानिक और श्राधार जैन-सिद्धांतों में वर्णित पुद्गल वर्गणायें और उनकी गतिविधि अथवा कार्य प्रणाली हैं। ये नाना प्रकारकी पुद्गल वर्गणाए अथवा पुद्गल परमाणुओंके विविध संघ या स्कंध, जिनमें कर्म-वर्गणाएं अपना विशिष्ट स्थान रखती है, विश्वके सारे परिवर्तनोंके मल में स्थित है। ये वर्गणाएं निरन्तर बढ़ी द्रति-गतिके साथ एक वस्तुमे निकलती श्रीर दूसरी वस्तुओंमें प्रवेश करती तथा परिवर्तित होती रहती हैं और इस तरह मिलबिडकर अनेक सूक्ष्म-स्थूल, स्थायी वा क्षणिक परिवर्तनोंको बराबर जन्म दिया करती हैं, जिनके लोकमें कुछ अन्य अन्य ही कारण कल्पित किए जाते हैं। हम अपने मन-वचन-कायकी प्रवृत्तियोंको यदि खोटी रक्खें तो उनका वोटा फल हमको कैसे भोगना होगा और अच्छी रखनेपर अच्छे फलका उपभोग कैसे किया जासफेगा
और कैम हम विश्वकी सुख-शांतिमें सहायक हो सकेगे यह सब भी सांकेतिक रूपसे इसमें बतलाया गया है। लेख अपन विषयका प्रारम्भिक लेख है और बंज्ञानिकोको विज्ञान विषयकी एक नई खोजकी तरफ प्रोत्साहित करताहै। श्रतः वैज्ञानिकोंको इस विषयपर गम्भीरताक माथ विचारकर उसके अनुसन्धानमें प्रगति प्रदान करना चाहिए और जैन विद्वानोंको भागमम साधक-बाधक प्रमाणोंको उपस्थिनकर अनुसन्धान कार्यमें सुगमता और ममीचीनता लानेका भरसक प्रयत्न करनाचाहिए। लेम्ब लोक-हितकी भावनाओंम प्रोत-प्रोत है और उसके प्रतिपाद्य-विषयकी वैज्ञानिक सफलता अथवा उसको विज्ञानका पूरा समर्थन मिलनेपर लोकमें जैनदर्शनको बहुत बदी ख्याति एवं प्रभावनाका होना अवश्यंभावी है । इस ओर बैज्ञानिकोंका ध्यान आकृष्ट करने और उन्हें पढ़ल-वर्गणाप्रोंक विशेष वर्णनादिसे सम्बन्ध रखनेपाली उपयुक्त सामग्री देनेकी खास जरूरत है। 'अनेकान्त' इस विषयकी सी मब माधन-सामग्री और उसपर किए गए विद्वानोंक विवेचनोंका स्वागत करेगा।
-सम्पादका प्रास्ताविक-आत्मा और पुद्गलक मंयुक्त शश्वत विकास होते होते जब यही जीव जघन्य रूपमे ही संसारमै जीवोंकी अवस्थिति है। आत्मा (परम सूक्ष्म निगोदिया) रूपसे निकालकर पूर (Sul) और पुद्गल (matter) का सम्बन्ध विकमित मन एवं बुद्धियुक्त मनुष्यका शरीर प्रानअनादि कालीन है । प्रात्मा जब तक मुक्त नहीं हो कर लेता है तब इसे अपने इस पुद्गल शरीरको जाता तब तक प्राय: पुद्गलमय ही रहता है। शुद्धकर अन्तमें इममे छुटकारा पाजानेकी पूर्ण आत्मा चेतन (जानने और अनुभव करने वाला) है संभावना एवं सुविधा प्राप्त होती है। और पुद्गल जड़, अचेतन है। इस शरीरधारी जीव- स्वतंत्र रूपसे तो आत्मा ईश्वर या सिडात्मा को मांसारिक अवस्थामें चसनमय पुद्गल या होकर ही पूर्ण शुद्ध रह सकता है अन्यथा हर हालतपुद्गलमय चेतन भी कहे तो कोई गलती नहीं। में यह जद या पुद्गल शरीर धारी ही होता है। जो
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अनेकान्त
[वर्ष १०
कुछ हम संसारमें देखते, जानते, सुनते, ममझते, भान उतना आकर्षक न होनेसे या और दूसरे कुछ कारणों करते या विचार करते हैं वह सब आत्मा और पुद्- से उसके मानने वालोंकी संख्या बहुत कम हो गई गलको सृष्टि या रचनामात्र ही है । हम जो कुछ भी या रह गई है। जानदार देखते हैं वह आत्मा और पुद्गल (Soul अधिकतर लोग अपनी अज्ञानतामें नामके पीछे And matter) का ही मंयुक्तरूप है। आत्माकी ही जान देते हैं। विशेषकर वर्तमान संसारमें तो चेतनाके कारण उसकी चेतना है और जड़ पुद्गल- कुछ ऐसी ही परिपाटीकी प्रधानता सभी जगह सभी के कारण उसका बाह्य रूप । आत्माका यह सरूपी देशों तथा सभी लोगोंमें पाई जाती है। धर्मका नाम दर्शन या प्रत्यक्ष प्रमाण केवल मात्र उमके इस पुद्- कुछ भी रहे-जिसके समय-समयपर परिवर्तित होते गल या जड़के संयोग और आधारके कारणसे ही रहनेको कोई रोक नहीं सकता है- हमारा ध्यान तो मंभव है, अन्यथा आत्माका सब कुछ अदृश्य इस बातपर होना चाहिए कि वह धर्म क्या सिख(uvisible) एवं अचिन्तनीय ही था। फिर न तो लाता है और कहां पहुंचाता है। जैनधर्मका ही नाम संसार होता, न दर्शन, धर्म, न और कुछ । केबल यदि आज 'आत्मधर्म' या 'मानवधर्म' या और कुल पद्गलका ही रूप बनता बिगड़ता रहता-न कोई भी बदलकर रख दिया जाय तब भी उससे क्या जानने वाला होता न कुछ जाननेकी जरूरत ही रहतो, हानि ? यदि तत्त्वोंकी सनातन वैज्ञानिक एवं तकपर चूँ कि हमारे इस संसारमें यह आत्मा भी शामिल पूर्ण तथा बुद्धिगम्य विवेचनात्मक प्रामाणिकता है और हम सब जोवमात्र उसीके भिन्न भिन्न रूप है, सर्वदा सत्यके ऊपर ही अवलंबित रहे और उमीका जिसमें मनुष्य विशेष शक्तियोंसे सम्पन्न विवेचना- प्रतिपादन करे। युक्त होनेसे उसे यह जानना परम आवश्यक हो जाता हां, तो जैन धर्ममें वणित षद्रव्य, पंचास्तिहै कि यह सब क्या है, क्यों है और वह स्वयं क्या काय, सप्ततत्व और नवपदार्थीका यथानुरूप शद्ध है तथा इन सबोंसे उसका क्या सम्बन्ध है ? इनके निर्धारण एवं विशद व्याख्यान इतना ठीक, युक्तिसाथ रहना है या इनसे छुटकारा पाना है ? इत्यादि। युक्त एवं आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों और मा. और यदि छुटकारा पाना ही ध्यय है ता यह कम न्यताओं द्वारा अखंडित है कि इससे अधिक सत्यमंभव होगा? पर जब तक वह स्वयं अपनेको ठीक के मूल तक पहुंचाने वाला तथा वस्तुस्वरूपको अपने ठीक न जानले और अपने चारों तरफ फैले हुए असली मूल रूपमें दिखाने एवं निरूपित करनेमे विस्तृत इन सब वस्तुओं और बाकी जीवोंके बारेमें दूसरा कोई दर्शन समर्थ हुआ नहीं दीखता । भले भी ठीक जानकारी प्राप्त न करले तब तक वह जो ही बहुतोंने बहुत घुमा-फिराकर या बढ़ा-चढा कर कुछ भी छुटकारेका रास्ता, तरीका या उपाय निश्-ि बहुत सी बातें लोगोंको प्रभावित करनेके लिये कही चत करेगा वह प्रायः गलत ही होगा और पूरा कार- हों या अद्भुतताको पुट देकर आकर्षित करनेके गर नहीं हो सकता । बात कछ ऐसी ही प्रायः सभी लिये आडबरोंका सिलसिला खड़ा कर रखा हो, पर धर्मों और धर्मतत्त्वोंके साथ रही है। अनेक तरह की उससे क्या ? -असल सत्य तो आखिर सत्य मिथ्या भावनाओं, मान्यताओं और परिभाषाओं ही है, कोई उसे पावे या न पावे अथवा उस तक का क्यों इतना अधिक खुला प्रचार संसारमें होगया पहुंचे या न पहुंचे । जो कुछ भी हो, तत्त्वोंको ठीक उसके ऊपर मुझे यहां कुछ कहनेका न तो अवकाश ठीक जाननेके लिये और वस्तस्वरूपका पूर्ण निर्मल है और न कहना इष्ट ही है । मुझे तो यहां यह ज्ञान प्राप्त करनेके लिए यह आवश्यक है कि तर्क देखना है कि आखिर इन सब भ्रममाोंमें क्या कहीं और दर्शनके हर तरीकोंको देखा जाय और वस्तु की कोई सच्चा, ठीक सही मार्ग भी छिपा हुआ है, जो या किसी तत्त्वकी परीक्षा सभी दर्शनों एवं विचारों
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किरण ५]
जीवन और विश्वके परिवर्तनोंका रहस्य
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या दृष्टियोंसे करके और अच्छी समीक्षा करके होते हैं । आत्माको यदि हम यहाँ विद्य त शक्तिके ही उसका कोई निश्चय किया जाय। इसलिए चाहे और नाना प्रकारके यन्त्रोंको शरीरके रूपमें सोचें तो जैन दर्शन हो या बौद्ध दर्शन या वेदान्त, सांख्य हर प्राणीमें एक ही तरहकी और एक समान ही श
और चार्वाक सभीकी जानकारी मनन जरूरी हो क्तिमान एवं गुणयक्त आत्मा होनेपर भी हर एक जाता है । जनदर्शन स्याद्वाद या अनेकान्तदृष्टि की शक्ति या कार्यो की भिन्नताका अन्दाज या उनके द्वारा ही किसी विषयका निरूपण और निर्धारण कारणका अनमान हम बड़ी प्रामानीसे लगा सकते हैं करता है, इमीसे संसारकी मूलभूत वस्तुओं और और बात समझने में कठिनता कम हो जाती है। द्रव्योंका अधिक सूक्ष्म रूपमें दिग्दर्शन करने में सभी शरोरोंमें चेतना आत्माका ही लक्षण या ममथे हुआ है । यहां उसके केवल दो प्रधान तत्त्वों गुण है परन्तु यह चेतना समान होते हुए भी हर या द्रब्योंकी आधारभूत वस्तओं या स्वरूपोंपर एक शरीरके कार्यों में बड़ी विभिन्नता है, जिसका विचारविमर्श किया जायगा विशेष विस्तृत मात्र कारण पौदुगलिक शरीरकी बनावटकी आन्तजानकारी तो किसी भी प्रामाणिक ग्रन्थसे उपलब्धहो रिक या बाह्य विभिन्नता ही है । पुद्गल भी अपने सकती है।
मूल परमाणुरूपमें अकेला कुछ नहीं करता, पर विषय-प्रवेश-आत्मा और पुद्गल (चेतन जब ये परमाणु आपसमें मिलकर संघबद्ध हो और जड़)- ये ही दो वस्तु' या द्रव्य या तत्व मूल जाते है तब तरह तरह के गुणयुक्त और प्रभाव युक्त उपादान कारण है जिनसे मिलकर हम जीवधारी होनेसे ही कार्यकारी होते है। पुद्गलका परमाणु या शरीरधारी प्राणियोंकी सृष्टि हुई है । संसारके अकेला प्राय: नहीं रहता है । इन परमाणुओंके मभी प्राणियों या जीवों में मनष्य प्रमुख है । इस संघ सूक्ष्म एवं स्थूल रूपमें बनते है। सक्ष्म संघ की बनावट भी औरोंकी बनिस्बत (अपेक्षा) अधिक आंखोंसे देखनेमें नहीं आते जब कि स्थूल संघ मक्ष्म, क्लिष्ट, जटिल या उलझनों वाली (Most हम अपने चारों तरफ देखते या पाते हैं। अतिComplicated) है। जीव या आत्मा और पदगल मम संघ तो यन्त्रोंसे भी नहीं देखे जाते-केवल या जड़का अनादि सम्बन्ध चला जाता है। आत्मा उनकी कारवाई प्रभाव या (manifestation) द्वारा चेतन या जानने और अनुभव करने वाला है जब ही उनका होना या उनकी अवस्थितिका अनमान कि पुदगल रूप और शरीर वाला, कर्मका आधार किया जाता है । इन परमाणुओं (electrons &
और परिस्पन्दन, कम्पन अथवा हलन-चलनका Protons ar lons). का सबसे पहला कारण है। हम जो कछ भी गतिशीलता या प्रकम्पन (elementary) संघ जो होता है उसे हम यदि देखते या अनुभव करते है वह मब केवल पुद्गल- 'मृलमंघ (मूल स्कन्ध), जिसे अंगरेजीमें एटम के ही कारण है । ये तरह तरह के हर एक प्राणीक (atoms) कहते हैं, कह तो, आगे वर्णनमें सुविधा शरीर भिन्न भिन्न रूपों और बनावट के कारण भिन्न होगी । इन प्राथमिक (poimary) 'मूल संघों' भिन्न कार्य संपादन करनेकी क्षमता रखने वाले atom) के. मिलनेसे फिर जो द्वितीय श्रेणीका विजलीके यन्त्रोंके समान ही हैं। जो जब तक विजली (secondary) मंघ (स्कन्ध) बनता है उसे 'वर्गणा' या विद्य त-प्रवाह (Electric eurrant) जारी जिसे अगरजीमें मोले क्यूल (inolecule) कहते है. रहता है काम करते हैं । यद्यपि विजली सभीमें कहें तो दोनों नामकरण शास्त्रोक्त वर्णनस भी मेल एक रूपकी ही है पर यन्त्रोंकी बनावट भिन्न भिन्न खायगे और आधुनिक विज्ञानसे भी। हमें यहां होनेसे उनकी कार्य-शक्ति और तज्जन्य कार्य अलग मुख्य संबन्ध पुद्गलोंके उन संघोंसे हैं जिनको अलग विशिष्टता लिये हुए या विभिन्नता लिये हुए हमारे यहां “कार्माणवर्गणा” नाम दिया गया है।
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अनेकान्त
वर्ष १०
पुद्गलका जो शरीर आत्माके साथ लगा हुआ से प्रायः अनाकर्षित, दूर तथा अपरिचित ही रहा। है उसके तीन विभाग है । एक तो सक्षम या परम संमारकी विचित्रताओंका भी कोई समुचित, तर्फसक्ष्म 'कार्माणशरीर' है जो 'कार्मण वर्गणओं- पूर्ण, बुद्धिगम्य, युत्तियुक्त एवं वैज्ञानिक द्वारा निर्मित है, दूसरा 'तेजस शरीर' है और वे व्याख्यान. विवेचन, उत्तर या वास्तविक कारणों दोनों अदृश्य हैं। तीसरा औहारिक शरीर है जिसे का निरूपण कहीं ऐसा नहीं मिलता जिससे सन्तोष हो हम अपने सामने प्रत्यक्ष देखते है । इनका विशद सके और इसलिये जिज्ञासु मानव धार्मिक तत्त्वोंकी विवरण जैन शास्त्रोंमें मिलता है। कर्मवर्गणाओका अन्त दृष्टिमे प्रायः वंचित ही रह जाता है या जन्मश्रात्मासे सम्बद्ध होना, बिछड़ना और उसमे जात आस्थाके न होनेमे उसपर विश्वास नहीं ला सर्वदा परिवर्तन होते रहनेके कारण जो कुछ असर पाता है । जन्मजात आस्था भी वस्तुके मुलरूप और इस शरीर धारीकं कार्यो' या मुख दुख वगैरह पर उसके परिवर्तनादिके कारण-भूत तत्त्वों या उपादानों पड़ता है उसे ही हम संसारावस्था कहते है । इन की क्रिया-प्रक्रियाको प्रत्यक्ष अनुभव करनेके उपरान्त मबका भी विशद व्यवस्थित वर्णन शास्त्रोंमें ज्ञानकी निर्मलतामें जितनी पूर्ण रूपसे सहायक एवं मिलता है । इन 'कर्मवर्गणाओं को ही सक्षपमे कार्यकारी होगी उतनी केवल वाणित परिणामोंकी "क" कहा गया है। इनमें परिवर्तन कैम कैसे विशद व्याख्या द्वारा नहीं हो सकती। क्रिया-प्रक्रिया होता है या हर एक परिवर्तनका क्या-क्या असर की साक्षात अन्तष्टि किसी भी विषयक ज्ञानको पड़ता है और जन्म, मरण, रोग शोक इत्यादि प्रत्यक्ष या एकदम निमल बना देती है। जहां शंकाजो कुछ भी जीवके साथ सामारिक अवस्थामें हर का एकदम अभाव हो जाता है। विद्वान केवल समय होता रहता है उसके उस रूपमे होनेका मूल मानकर ही नहीं चलता है, बल्कि समझकर या जान क्या है या मूलमें वह किस तरह संपादित होता है, कर मानता है और तब चलता है। इसके अतिरिक्त यही यहाँ दिग्दर्शन कगना मुख्य ध्येय इस लेखका जो जन्मजात जैनी नहीं वे क्यों इस तरहकी बातों है ( How tbese fahenomena take place को मानने लगे जिनका कोई सबूत ऐसा नहीं जिस actually) इनके कार्य कारणमें एक अन्त दृष्टि प्रान आजकलका वैज्ञानिक संसार अपनी मान्यताको उस करना ही हमारा खास मतलब है। शास्त्रोंमे वणित पर बड़ा करने या स्थिर करनेके लिये आधाररूपम व्याख्याए केवल फल (result or resultant मर्वप्रथम किसी नई बातकी जानकारीके लिए श्रावconclusions) या अन्तिमरूप ही वर्णन करती श्यक समझना हो। वह सब कुछ तर्कपूण, बद्धिगहै बतलाती है कि कौनसी 'कर्मवर्गणा" या कौनस म्य और युक्तियुक्त होते हुए भी साक्षात् देखना, 'कर्म' लगनेस अथवा बिछड़ने या उनमें परिवर्तन मिद्ध करना, जानना एवं अनुभव करना चाहता है। होनस क्या असर होता है। पर इन कर्मवर्गणाओं अन्यथा वह कोई भी एमी बात माननेको या स्वीमें यह जो परिवर्तन या आपसी प्रांतरिक क्रिया कार करनेको तैयार नहीं। इसी कठिनाईको दर प्रक्रिया (Internal action and reaction) होती करनेके लिये एवं संसारकी विचित्रताओंका एक रहती है वह क्यों और कैसे होती हैं तथा इनक ऐसा वैज्ञानिक ममाधान (solution) उपस्थित कर होनेका जो प्रभाव पड़ता है वह क्यों और कैंस सकनेक लिये जो वस्तुतः प्रत्यक्ष और प्रयोगात्मक एवं पड़ता है, यही दिखलाना यहां इष्ट या अपना सचमुच कार्यकारी (realistic & practical) हो, प्रतिपाद्य विषय है। अब तक जैन शास्त्रोंमे इसकी यह लेख लिखा गया है । इस तरहकी व्याख्याके म मिलनेसे आधुनिक हरक मुलधातु ( element ) का सबसे वैज्ञानिक समाज इस परम वैज्ञानिक धर्म सिद्धान्त- छोटा अदृश्य (Invisible) मूलरूप 'एटम'
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किरण५]
जीवन और विषयके परिवर्तनोंका रहस्य
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वस्तुओं
(aton) कहा गया है जिसे हमने 'मूलसंघ' नाम तरहकी योनियोंमें जन्म लेता है या तरह-तरह के दिया है। यह 'मलमंघ' (atom) परमाणुओं- शरीर धारण करता रहता है। यह कार्माणशरीर के मिलने या इकट्ठा होनेसे बनता है। तथा औदारिक शरीर मभी कुछ पुद्गलोंकी रचना एक मृलधातुके मूलसंघोंकी बनावट एक तरहकी है और पुद्गल वर्गणाओंका भारी समूह है। ही होती है और गुण भी इसी कारण एक होते है। कहा गया है कि एक अंगुष्ठ प्रमाण किसी इस आन्तरिक बनावटमें फर्क पड़ते ही एक मूल- वस्तुमें अनंतानंत वर्गणाएं हैं। बालकी नोकमें या धातु बदल कर दूसरा मूलधात (Element) हो बालूके एक करणमें अनगिनत वर्गणाए हैं तो फिर जायगा । दो मूलधात ओंके गुणादिकमें भिन्नता समूचे शरीरमें तो इनकी संख्या अपरिमित और उनके मूलमंघोंकी बनावट की भिन्नता के ही कारण असंख्यात-अनंत है ही । यदि यहां गणितके होती है । दो या कई मूलधात (Elements) मिल- आधार पर बातको समझनेके लिए हम एक कर किसी भी 'वम्त' (Subrtice) का निर्माण करते विशिष्ट सीमित संख्या थोड़ी देर के लिए मानलें तो है । किसी वस्तु' का सबसे छोटा अदृश्य मूलरूप दृष्टान्तरूपमें समझना सम्भव हो सकेगा। 'मौलाक्यल' (molecule) या वर्गणा कहा गया संसारम काइ भी वस्तु अकला नहा ह है, जिसमें उस वस्तुके सारे गुण विद्यमान रहते भी एक वस्तु या शरीरके चारों तरफ अनंतानंत है । यह वर्गणा' दो या दो से अधिक मूलधातुओं वस्तु भरी पड़ी है। मभी एक दूसरेके ऊपर अपना (slements) के-मूलमंघोंके-मिलने से कोई भी अक्षुण्ण प्रभाव डालती रहती है। आधुनिक विज्ञाएक विभिन्न गुणों वाली नई वस्तु (Substance) नन आकर्षण एवं प्रत्याकर्षणका सिद्धान्त हमारे तैयार हो जाती है। भिन्न-भिन्न वस्तुओंके पारम्परिक सामने रखा है-उसके अनुसार भी सभी वस्तु गणोंकी विभिन्नताका कारण उनकी वर्गणाओं की एक दूसरेका श्रापित या प्रभावित करती है । ऐसा
आन्तरिक बनावटकी विभिन्नता ही है। जैसे यह नहीं कि केवल विजली पैदा करने वाली मशीनोंमें बात निर्जीव वस्तुओं (Inorgane sutstances) ही इलेक्ट्रन (परमाण) उत्पन्न होता हो-इलेकटन में लागू है वैसे ही और उतनी ही (precision) तो हर समय हर जगह हर वस्तुसे बाहर अनंतानंत यथार्थता एवं सूक्ष्मताके साथ जीवधारी वस्तुओं निकलते रहते है और अंदर प्रविष्ट भी होते रहते (organic and animate) या प्राणियोंक शरीरों है। ये पुद्गल परमाण अदृश्य होनेसे दिखलाई के लिए भी लागू है।
नहीं पड़ते । ये कुछ तो 'परमाणु' रूपमें कुछ 'मूल___ हमारा शरीर इन पुदगल वर्गणाओं (Mole- मंघ' के रूपमे और कुछ 'वर्गणाओं' के रूपमें ही culcs) का एक बहुत बड़ा बृहत् समूह संघ या निष्कम
जर में या निष्क्रमण करते हैं। इनका तारतम्य सतत जारी मंगठन है । इसके भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रहता है; कभी भी नहीं टूटता-चाह हमें इस क्रिया (अदृश्य) मे दो भाग है । प्रत्यक्षको औदारिक (Phemomena) की अनुभूति हो या न हो पर यह शरीर कहते हैं जो हाड़, मास, रक्त इत्यादि मय है सर्वदा स्वाभाविक रूपमे होती रहती है । कोई इसे
और दृसर अप्रत्यक्ष भाग तैजस तथा कार्माण शरीर रोक नहीं सकता। इस तरह एक वस्तुका असर हर है । मंसारमे मृत्यु हो जाने पर यह औदारिक शरीर एक दूसरी वस्तु पर कमोवंश-जसा जिसका प्रभाव, तो छूट जाता है पर ये कार्माण और तैजम शरीर विस्तार या शक्ति हो उसके मुताबिक पड़ता है। आत्माके माथ नब तक रहते है जब तक वह इनमे हर एक जीव या आत्मा संसारी दशामें शरीरधारी छुटकारा पाकर मोक्ष अथवा मुक्तिकी प्राप्ति नहीं अवश्य हैं इसलिये हमारे शरीरोंक माथ भी यही कर लेता है। कार्माण शरीरके द्वारा ही जीव तरह- बान होती है। हर दम हर समय इन शरीरोंमे हर
का
नहीं:
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अनेकान्त
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सरहके पुद्गल परमाणु, मूलसंघ एवं वर्गणाके रूपमें करते हैं पर अभी अनंतानंत Phenamena बाहरसे आते और शरीरोंसे बाहर निकलते रहते हैं। क्रियाएं ऐसी हैं जिनका हमें कतई ज्ञान या भान इतना ही नहीं हर शरीरके अन्दर भी इस तरहकी नहीं। हम जानें या न जानें, असर तो हर एकका क्रिया-प्रक्रिया हर एक छोटेसे छाटे दो हिस्सों, अंगों, होता ही है। इस तरह यद्यपि हम समझते है कि दो किस्मोकी चीजों या कहीं भी दो नजदीकी रक्त- आधुनिक विज्ञान बहुत बड़ी उन्नति कर गया है पर कणों या मांसपिण्डों तकमें होती ही रहती है । इन यदि ठीक तरहसे देखा जाय तो हमारा सारा ज्ञान पदगल परमाणुओंका आदान-प्रदान किसी-न-किसी महासमुद्रमेंसे केवल एक लोटा पानीके बराबरकी उपमें अविराम गतिसे शास्वत चलता रहता है। तलना ही रखता है। ज्ञान अपरंपार है-समय और यही हर तरहके परिवर्तनोंका मूल कारण है। हर शक्तियां सीमित हैं-इससे पहले जो लोग जान गए एक प्रह-उपग्रह भी इसी तरह अविराम गतिसे इन और हमारे मार्ग-प्रदर्शनके लिए कर कह गये या पदगलोंको अपने चारों तरफ फेंकते रहते हैं तथा लिख गये उससे मदद लेना, शिक्षा लेना हमारे एक दसरे द्वार फंके गए पुद्गल एक दूसरे पर या आगे बढ़नेके लिए परम आवश्यक है। हमारे जैन एक दूसरे ग्रह-उप ग्रह पर अवस्थित वस्तुओं जीवों, शास्त्रकारोंने सर्वन तीर्थङ्कारोंका ज्ञान अपनी शक्तिके देहों इत्यादि पर अपना अमिट प्रभाव डालते है। अनुसार आगमोंमें भरा; पर अनन्तज्ञान भला कहीं सर्य तो सारी शक्तियोंका अजस्र स्रोत कहा गया योथियोंमे भर सकता या समा सकता है ? ये शास्त्र है। यह भी इसी कारण है कि सूयसे ये पुद्गल तो केवल मार्ग या दिशा इंगित करनेके लिये है, बाकी अजस्र प्रवाहके रूपमें चारों तरफ बड़ी तीव्रतम तो स्वयं चेष्टा कर हम जितना जो कछ जानलें वही गतिसे निकलते रहते हैं और इसी कारण प्रकाश भी गनीमत और हमारी तथा संमारकी भलाई में सहाहोता है और हम सभी संसारिया या ममारकी सभी यक हैं। अथवा असली-सचा प्रत्यक्ष वस्तुओं पर इनका अनुण्ण प्रभाव हर तरह पड़ता अपनी चीज है। या होता रहता है। हमार वैज्ञानिकान जितनी आत्माको अनादि-कालीन पुद्गलके सम्बकिरणों (rays) या धाराओं (waevs) का अनुमा न्धस छुटकारा दिलाकर मोक्ष (मुक्ति) की प्राप्ति कर धान या अनमान किया है उमस कहीं अधिक अनं- लेना ही हमारा एकमात्र लक्ष्य, ध्येय एवं तानंत संख्या और रूपोंमें ये पुद्गल दृश्य और कर्तव्य है। ऐसा करके ही हमारे पुरुषार्थकी सिद्धि अदृश्य धाराओं एवं किरणोंकी बनावट या शकलमें होती है अन्यथा तो समय और जीवन बर्बाद तथा सर्यसे इस तरह निकलते रहते रहते है जिनका पार बेकार ही है। आत्माकी मुक्तिके लिए आत्मा और पाना या पूरी जानकारी प्राप्त करना असम्भव मा पदगलादिका रूप एवं आपसी व्यवहार और क्रियाही जान पड़ता है। ये सारी पुद्गलकी धाराएं जो प्रक्रियाका रूप सूक्ष्म रूपसे जान लेना परम आवएक दूसरी वस्तुसे टकराती तथा उनके अन्दर घुसती- श्यक है। इसके वगैर कुछ भी नहीं हो सकता या निकलती रहती हैं वे हर एक वस्तुकी अंदरूनी मोले- इसकी जानकारीमें भ्रम और गलती रहनेसे हमारा क्यूलर या आणविक बनावटमें कुछ न कुछ कम- जो कुछ कार्य फलतः होगा वह सब गलत एवं भ्रमबेश स्थायी या क्षणिक (जहां जैमा भी हो) परिवर्तन पूण तथा उलटा प्रभाव-असर या फल उत्पन्न या प्रभाव अवश्य करती हैं । बहुत सी बातोंको करने वाला होकर बज'ए लाभके हानि ही करेगा। इस स्क्यं खुलेआम देखते जानते और अनुभव करते केवल पुस्तकोंकी जानकारी ज्ञानका या शुद्धज्ञानका हैं, बहुत सी बातोंको यन्त्रोंकी सहायतासे और मापदंड नहीं। पुस्तके तो एक साधन या सहारेकी बहुतोंको अनमान या आभासमात्रसे ही अधिगत तरह हैं-उन्हें ही या उन्हीं में हर जानकारीका अन्त
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जीवन और विषयके परिवर्तनोंका रहस्य
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समझ लेना अज्ञानता है । हां, मनुष्यको सीमित इन तत्वोंको ठीक-ठीक न जानने से ही है। शक्तियों एवं समयके कारण उनकी बुद्धि-पूर्वक हमारे जैन शास्त्रोंमें पुद्गल-बर्गणाओंका पात्मामदद लेना आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है। पर के ऊपर जो असर होता है उसका अच्छा विवेचन यहां भी मात्र सिद्धांतोंके घचड़-पचड़में अपनेको किया हुआ मिलता है, पर वहां ऐसा समाधानात्मक भुला देना ठीक नहीं-एक सच्चे मार्गकी खोज वर्णन न होने से जिससे कि हमें उनकी आन्तरिक करना ही हमारा इष्ट या ध्येय अथवा हमारी सारी क्रिया-प्रक्रियामे एक अन्तईष्टि-मी हो जाय और हम चेष्टाओंका लक्ष्य होना चाहिए।
यह जान जाय कि आखिर यह सब सचमुच होता जैनसिद्धान्तोंने अनेकान्त-स्यादवादका व्यवहार से है-हमारा ज्ञान फिरभी अधूरा ही रह जाता करके इसी तरहका एक सीधा-सादा मार्ग सांसारिक है। यह थोड़ा-सा अव्यक्तपन या धुंधलापन आत्माओंको आगे बढ़नेके लिए निर्धारित किया अथवा इस तरह का अधूरापन ही सारे फिसादों है । जो परम्परासे मर्वज्ञ-तीर्थकर-जिनद्वारा निर्दे एवं झगड़ों की जड़ है । इसे यथासंभव हटाना शित, निरूपित और व्यक्त किया जाकर प्राचार्यों आवश्यक है। मैंने भी कर्म-वर्गणाओं की इस गुत्थीतथा दर्शनवेत्ता-गुरुत्रों और ज्ञानियों द्वारा लिपि- को सुलझानेक लिये जो कुछ अपने मनमें तर्फबद्ध किया गया है। ज्ञान और अनभव को ठीक. वितक-द्वारा शास्त्रोंको पढ़ने पर निश्चय किया उस ठीक व्यक्त करना कठिन ही नहीं प्रायः असम्भव- यहां लोगोंकी मदद के लिए यथासंभव और यथा. सा है, लिखना तो और भी दूर की बात है। दूसरों शक्ति प्रकाशित कर देना अपना कर्तव्य समझा। की शिक्षाओं या लेखोंसे तो हम एक मुलझाया विषय इतना गूद, कठिन एवं क्लिष्ट है कि हुआ निर्देश ही पाते है-असल बात तो उमको बहुत चेष्टा करने परभी मेरा अपने विचारोंको जानकर स्वयं अनभव प्राप्त करना ही मचा तथ्य जल्दी लिपिबद्ध करना संभव नहीं हो सका । या सारे तत्वोंका सार है।
कितनी ही बार लिखना प्रारम्भ किया पर भूमिकाआत्मा और पुद्गलकी परिभाषाओं, शक्तियों में ही उलझा रहा गया या विषयान्तर हो जानेसे और रूपोंका वर्णन बड़े विशदरूपमे जैन शास्त्रोंमें प्रतिपाद्य विषय कुछका कुछ होकर दूसरी तरफ मुड़ किया गया है, यहां तो केवल कुछ ऐसी बातों पर गया। खैर, अन्तमे थोड़ो-सी सफलता मिली है, प्रकाश डालना है जिन्हें हम केवल पाथियोंको पढ़- जिसे यहाँ इसलिए व्यक्त किया जाता है कि इससे कर खुलासा जान नहीं पाते है । केवल तर्क या और दूसरे विचक्षण वैज्ञानिक एवं दार्शनिक लाभ श्रद्धापूर्ण तर्क द्वारा ही बहुत-सी बातों को स्वयं सिद्ध ले सकें। मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण है इसलिए लेखककह कर मान लेते है, जो हमारे ज्ञानको पूर्णरूपसे को भी वैसा ही समझना उचित एवं ठीक है । जिस विशुद्ध बनाने में असमर्थ रहता है। यही कारण आदमीने अंगूर नहीं खाए है वह अंगूर का स्वाद है कि धर्म-तत्वोंका अर्थ लोग मनमाना लगा लेते हैं ठीक-ठीक कैसा होता है नहीं जान सकता है। ऐसे
और फिर व्यवहार में भी उसी कारण ढोंग और ही दूसरे फलोंके स्वादकी बात समझिये। पुस्तकोंसे मिध्या आचार एवं रीति-नीतिका विस्तार बढ़ जाता या दूसरोंके कहने अथवा बतलाने और निर्देश है। इससे बचने के लिए और संसारको या जिज्ञासु करनेसे हम किसीके बारेमें बहुत-सी ज्ञातव्य बातें अन्य व्यक्तियोंको तत्वोंका ठीक सकचा झान कराने जान जाते है जिसे हजारों वर्षोंसे लेकर आज तकके लिए उनकी सूरमतम बारीकियोंको आधुनिक के अनभवका इकट्ठा लाभ कहा जासकता है-फिर बैज्ञानिक तरीकोंसे प्रतिपादन करना अत्यन्त जरूरी भी यह साराका साग ज्ञान नकली है यदि स्वयं है। संसारकी सारी अव्यवस्था या उथल-पुथल अपनी अनभूति माथमें न हो या न होसके। इस
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अनेकान्त
[वर्ष १०
लिए केवल पुस्तकोंके ज्ञानमे अपनेको ज्ञानी समझ उन्हीं मौलीक्यूलो (molecules) वर्गणाओंमेंसे लेना महज गलती है । पुस्तकोंकी जानकारीका लाभ निकलते हैं जो किसी भी वस्तु के बनानेवाले अभिन्न लेकर स्वयं अपना अध्यवसाय लगाकर जो कुछ अंग या हिस्से हैं। माधारण कम्पन-प्रकम्पन तो हर साक्षात् अनभवमें श्रावे वही असली या सच्चा शुद्ध वस्तु और उसको बनानवाले मौलीक्यलोंमें हरवख्त ज्ञान किसी वस्तु या विषयका कहा जा सकता है। होता रहता है और हर मौलीक्यूलको बनानेवाले यहो बात जीवनमे संबद्ध प्रश्नोंके लिए भी इलेक्ट्रनामसे ह्रास या छूटना और विछुड़ना एवं
दूसरोंसे आते हुए इलेक्ट्रनों द्वारा उनकी वृद्धि या
पूर्तिका सिलसिला बगबर ही लगा रहता है। बिजली बाह्य प्रभाव, प्रकम्पन और परिवर्तन
का उत्पादन तो इन इलेक्टनों पुद्गल परमाणुओंका संसारमें हरएक छोटीसे छोटी या बड़ीस बड़ी बहुत बड़ी तादादमें इकट्ठा एक दिशामें विशेषशक्ति सभी वस्तुओंपर इतनी बाह्य शक्तियाँ (Forces)
क्तिया Yonces) (torce) द्वारा प्रवाहित करनेका ही रूप है। पर काम कर रही है कि उनकी बाह्य स्थिति होन हुए भी साधारणतः दुसरे रूपोंमे इसी तरह की कुछ क्रियाहर एकका एक एक एटम या मूलमंघ तक कंपन प्रक्रिया बराबर हरवस्तमे सर्वदा कमबेश जारी रहती प्रकम्पनसे यक्त ही है। कोई भी वस्तु सर्वथा कपन- है। यही कम्पन और प्रकम्पन हमारे शरीरके अंदर स शून्य नहीं है। छोटी बड़ी शक्तियांकी आपसी तथा बाहर मब तरफ भरी हुई वस्तुओंकी वर्गणाओं क्रिया-प्रक्रिया इस तरह होती रहती है कि कम्पनसे (मौलीक्यलों) में होते रहने के कारण उनमेंसे य शून्य होना सभव ही नही । यही कम्पन-प्रकम्पन सब पुदगल परमाणु (इलेक्टन) निकलते और दसरोंसे कुछ परिबर्तन या जीवन और सृष्टिका मूल कारण आनेवाले पुदगल-परमाणु उनके अन्दर घुसते और है। यदि यह एक दम शान्त होजाय तो सब कुछ मिलते रहते हैं। चूकि सभी वस्तुएं मंयोगके अनुशान्त हो जाय, फिर न परिवतन हो, न जन्म मृत्यु सार परिवर्तन करती हैं और यह परिवर्तन उनकी और न नई मृष्टि इत्यादि । यह कम्पन-प्रकम्पन ही वर्गणाओंकी अन्दररूनी बनावटमें हेर-फेर होनेसे मूलत: पुद्गल परमाणुओंक छूटने और आन या ही होता है और इसीलिए यह परिवर्तन या अदलानिकलने और मिलने का कारण है। जैस दो चम्बकों बदलो अथवा वह सब कुछ जो हम इस संसारमें या के बीचमे एक खिंचाव रहता है और कोई गुप्त ।
अपने अन्दर होते हुए देखते, समझते या अनुभव
करते हैं वह सब होता है या होता रहता है। शक्ति बीचकी जगहमे काम करती रहती है-जबतक
इन पुद्गलपरमाणुओंका आदान-प्रदान और बीचवाला स्थान स्थिर या शान्त रहता है कोई नई वर्गणाओं की बनावटमें हेर-फेर होकर एकसे दूसरा खास बात उत्पन्न नहीं होती-पर जैसे ही उसके
होजानेके कारण ही सारी व्यक्त या अव्यक्त, दृश्य या अंदर किसी तरह प्रकम्पन या हलनचलन (Distu
अदृश्य सांसारिक अवस्थाएं बनतो विशाइती रहती हैं Thance) किसी प्रकारका उत्पन्न होजाय या कर या गतियों का उत्पाद-विमाश लगा रहता है। जैसे दिया जाय तो तुरन्त विद्युत-विजलीका जन्म हो हम भोजन करते हैं और शरीरमें जाकर उसमेंका जाता है । इलेक्ट्न ( Electrons) छूटने लगते है कुछ भाग रह जाता है और फिर वहांसे उस भोजन
और उन्हें रास्ता दे देनेसे एक प्रवाह जारी हो जाता का रूप बदलकर मलखपमें बाहर निकल जाता है है जिसके काम या कारगुजारियाँ (Mauifesta. फिर भी हमारा बाह्यरूप ज्यों का त्यों दीखता है उसी tions) हम बिजलीक रूपमे देखते या पाते तरह जहां हरएक वर्गणामें न जाने कितने मूलसंघ है । ये इलेक्टन कहां में निकलते है ? ये और कितनं परमाणु रहते हैं उनमेसे कुछ दि
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जीवन और विश्वके परिवर्तनोंका रहस्य
जा सकती है। यही
निकलते रहें और उसी तरहके उन्हींके स्थानपर सब कुछ परिवतेन या पुराना विनाश और नया दूसरे आते जाय तो ऐसी वर्गणाओंमें फरक नहीं उत्पादन होते हुये भी मूलभूत सब कुछ ज्यों-का-त्यों पड़ सकता है और वस्तु प्रायः ज्यों-की-त्यों रहेगी स्थिर रहता है । अवस्थाएं ही बदलती है, वस्तुका बदलेगी नहीं बाह्यरूप उसका जैसा-का तैसा दिखेगा। न एकदम विनाश हो सकता है और न नई वस्तुएं पर यह आन्तरिक क्रिया-प्रक्रिया तो फिर भी सदाही एकदम 'कछ नहीं' से बनाई ही जा सकती। चलती रहेगी।
नियम उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य नामक तत्वको पूर्ण रूपसे जहां पद्गलपरमाणु इस तरहके आवें कि वर्ग- प्रतिपादित करता है। अवस्थाओंके परिवतनको णाओंकी आन्तरिक बनावट ही बदल जाय तब ही जैनसिद्धान्तमें 'पर्याय' कहा गया है। हमारे रासायनिक (chemical) विज्ञानमें वर्णित प्रक्रि- शरीरके अन्दर भी हरएक 'वर्गणा' और 'मलसंघ' याओंद्वारा उस वस्तु (substance) में ही परिवर्तन बराबर कम्पायमान होते रहते हैं। यह कम्पन कई होकर वह पुरानी वस्तु न रहकर दूसरी वस्तु हो जाती तरह का होता है। एक तो प्राकृतिक, जो शरीरके है । जो बात रसायनमें होती है वही और उसी अन्दर शरीर पोषण वगैरहकी क्रियाए अपने आप तरहकी बात या क्रियाएं शरीरकी हरएक वगणा या होती रहती हैं उनके कारण कम्पन तरह तरह के होते मौलीक्यूल के माथ भी पूर्णरूपसे लागू है। और ही रहते है । दूसर, बाहरी वस्तुओं द्वारा जो क्तियां यह सब कुछ कम्पन-प्रकम्पन (हलका भारी म्थायी अपना प्रभाव डालती है उनके द्वारा दूसरे कम्पन क्षणिक इत्यादि जो भी हो) द्वारा ही होता है। रासा- अपने आप होते रहते हैं। तीसरे तरहका कम्पन यनिक प्रक्रियाओं में भी वे ही वस्तुएं आपसमें एक वह है जिसे हम अपनी चेष्टाओंसे उत्पन्न करते हैं। दसरे पर आक्रमण कर तीसरी वस्तुके उत्पन्न होने इसमें भी तीन भेद है। मन-दारा, वचन-द्वारा.एवं का कारण होती है जिनमें आपसी कुछ ऐमी क्रियाएं शारीरिक हलन चलन या गति-द्वारा। इन्हें ही जैन करके मिलमिलाकर तीसरी वस्तु उत्पन्न करने शास्त्रों में 'योग' कहा गया है। की स्वाभाविक(affinity) सम्मिलनशक्ति योग्यता
जिम समय हम एक विषयको अपने मनमें या गुण होता है । इसी लिए पुदगलपरमाणुआका सोचते रहते हैं उस समय हमारा मानसिक प्रदेश इसी मिलने या न मिलनेके भेदोंके अनुसार कई
कार्यशील रहता है या कम्पित होता रहता है । एक भेदोंमें विभाजित किया गया है। आधुनिक विज्ञान अपना सिद्धान्त कुछ ऐसा ही पेश करता है और
विषय या एक भावसे दूसरे विषय या भावपर जिस
समय मन बदलता या जाता है इन कम्पनों में एक जैनदर्शन भी कर्मोके वर्णनमें कुछ इसी तरहकी
तीव्रता अधिक रूपसे आती है। एक ही विषयपर बात 'स्निग्ध' 'रूक्ष' करके कहता है । जैसे गंधकका तेजाब और जस्त (ainc) को एक जगह शामिल
ध्यान लगाए रखनेसे ये कम्पन काफी कम या एक करनेसे जो तीसरी वस्तु उत्पन्न होगी वही हरसमय
ही तरह के होनेस शांतताकी भावना या स्थिति बाह्य इन दोनों वस्तुओंके सम्मिलनसे सर्वत्र उत्पन्न होती
रूपमें भी प्रदर्शित करते हैं। इसीलिये एकाग्रता या है, यही एक स्वयंसिद्ध नियम या स्थायित्व इन मारे
- ध्यानकी महिमा बहुत बड़ी कही गई है। परिवर्तनोंमें एवं इनको नियमबद्ध कहने या करने में प्रकम्पनादिक ओर हिंसा-किसी एक जीवित अथवा मंसारके परिवर्तनोंमें नियमितता रखने में वस्तुका रूपपरिवतन होना या एक रूप नष्ट समर्थ है। यही बात संसारकी या संसार स्थित होकर दूसरा उत्पन्न होनेका नाम ही हिंमा (?) है। किसी भी वस्तु या नियमकी स्थिरता अथवा स्थाय- जब कभी भी हमारे अन्दर कोई विशेष कम्पन होता त्वका कारण है।
है तो इस शरीरके अन्दर जो अनंतानंत परम सूक्ष्म
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जीवाणु (cells) विद्यमान हैं उनमें असंख्योंका उस जीवकी और उसके शरीरके अन्दर जिनने विनाश और असंख्यों नयोंका उत्पाद उसी समय जीवाण हैं उनकी हत्या तो इकटठा करते ही हैं: साथ उनकी जगह पर होता है। यह प्रकम्पन जितना तीव्र ही साथ उस तरहका पदार्थ खानेस हमारे शरीरके होगा विनाश और उत्पादकी यह क्रिया उतनी ही अन्दर भी बड़ा ही तीव्र प्रकम्पन और हेर-फेर होता बहत्या बड़ी होगी। मनकी अपेक्षा वचन और उम- है जो पुन: अनंतानंत जीवाणुओंकी हत्याका भीतरी से भी अधिक कायके हलन-चलनसे उत्तरोत्तर इन एवं बाहरी कारण बनता है। इस तरह कोई भी जीवाणुओंकी हिंसा अधिकाधिक होती है। इतना मनुष्य मांस खानेमें हिमा करके कई गुना और ही नहीं हमारे अन्दर यह हलन-चलन या प्रकम्पन बहुतर्फी हिंसाका भागी होता है। मांस खानसे होनेसे हमारे शरीरसे निकलने वाले पुद्गलों की गति भावों में जो कलुपता आंतरिक वगणाओंमे हेर-फर एवं संख्यामें भी तीव्रता या बढ़ोतरी हो जाती है। होकर उत्पन्न हो जाती है वह आगेके लिये एक हमारे चारों तरफ वायुमण्डलमे अनंतानंत जीव ऐस स्थायी कारण हिसाका कायम कर देती है। इस भरे पड़े है जिन्हे. हम देख नहीं सकते-इस तरह
-इस तरह तरह खान पानकी शद्धि भो आत्म-लाभ और अहिउनका बड़ा भारी नाश हमारे प्रकम्पनोंमे स्वयमेव
साकी साधनाके लिए परम आवश्यक है होता रहता है । इसी लिए हम जितना जितना भी
परिवर्तनादिके मूलकारणका कुछ स्पष्टीकरण:मन-वचन-कायकी क्रियाओंको कम करें हिंमा उतनी
सांसारिक परिवर्तनादिक एवं व्यक्त या अव्यक्त ही कम होगी। और यही अहिंसाका परम आदर्श
और दृश्य या अदृश्य क्रियाएँ जो जगतमें होती है। और चूकि ऐसा करके ही हम पुद्गलोंसे छुट
रहती हैं उनका मूल कारण वर्गणाओंकी अन्दरूनी कारा पाकर परम निर्वाण या मोक्षका लाभ करसकते
बनावट में हेर-फेरका होना है। पर हमें यहां गणित. हैं इसीलिए “अहिसा परमो धर्मः" कहा गया है ।
की सहायता लेकर यह देखने या जानने की यथाजिस समय हमारा मन इतना अधिक एकाग्र होजाय
शक्ति चेष्टा करनी है कि आखिर यह सब होता कि कुछ देरके लिए भी यदि ये मानसिक या शारीरिक चेष्टावाले हलन-चलन एकदम विल्कुल बन्द ।
क्यों या कैसे है ? तथा क्या और कैसा होनेसे क्या हो जायँ तो यह पुद्गलोंका पुज आत्मामेस सहसा
अमर पड़ता है ? विषय बहुत ही विशाल है पर
यहां थोड़से छोटे मोटे दृष्टान्त देकर विषयक दृष्टिकोसारा-का-सारा अपने आप झड़ जाय और आत्मा
णकी तरफ लोगोंका ध्यान आकृष्ट या मुखातिब तुरंत मोक्षका लाभ करले। यह अवस्था परम निवि.
करने मात्रकी चेष्टा ही की जायगी। छोटेसे लेखकी कल्प दशामें होती है और परम निर्विकल्प दशा या । परमशांत दशाको लानेवाली है। इस परम निर्वि- कौन कहे बड़े-बड़े पोथोंमें कितने ही वो तक लिखते कल्पताका तभी लाभ होता है जब पूर्ण ज्ञान उत्पन्न
रहने पर भी इस विषयका अंत नही हो सकता। होजाय और हम हर एक बात या कार्यका कारण
इस लिए लेखको अंतिम न मान कर केवल मात्र और असर भूत,वर्तमान,भविष्यके बारेमें जान जांय
विषयसे परिचय कराने का एक बहुत ही छोटा परतथा कोई भी मानसिक विकार किसी तरहका रह माणु बराबर प्रयास ही मानना चाहिए। साधारण ही न जाय और सुख-दुखकी भावना एकदम अपने मनुष्यका, ज्ञान अपूर्ण है इस लिए कोई बात ऐन आप गायब होजाय-यही वह परम निर्विकल्प अपूर्ण ज्ञानवाले मानवकी कही हुई पूर्ण तो कैम दशा है जब आत्मा मोक्ष प्राप्त कर लेता है। होसकती है? और फिर ऐसी हालत में गलतियोंका -
भोजन-पानका भी हिंसा-अहिंसासे बड़ा संबंध होना भी असम्भव नहीं। किसी भी Theory या है। किसी जीवको मारकर मांस निकालने में हम सिद्धान्तको तर्क एवं बुद्धिकी कसौटीपर कसकर
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तथा व्यवहार और अनुभवकी श्रागमें तपाकर भाविक प्रकृतिकी सदृशता ही खिंचावका कारण यहां यदि ठीक पाया जाय तभी स्वीकार करना चाहिए। है। प्रकृतियों में विषमता होनेपर दोनों इकट्ठा नहीं हमारे आधुनिक वैज्ञानिकों को इधर विशेष ध्यान रह सकते। ये जीवाणु जब स्त्रीके गभाशयमें जाते
चाहिए। इधर अनुसंधानका विशाल अनंत है तो जिन जीवाणु मोंकी वर्गणाओंकी अधिक तक विस्तृत क्षेत्र पड़ा है और जितनो जितनी जान• संख्यामें स्त्रीकी वर्गणाओंकी अधिकाधिक या पचास कारी मिलती जायगी उतनी ही अधिकाधिक दिलचस्पी फीसदीसे अधिक संख्या एवं प्रकृतिसे समानता न इधर बढ़ेगी एवं आत्मज्ञान, आत्मलाभ, अथवा होगी तो वे बाहर निकल जायंग-रुक नहीं सकते। मुख-शान्तिका सच्चा मार्ग मुलभ होगा तथा व्यक्ति फिर रजका साथ हो जानेसे इन जीवाणुओंका अर्ध एवं संमार ऊपर उठने में समर्थ होगा।
शरीर पूरा होकर पूर्ण या पूर्ण विकसित हो जाता किसी भी एक व्यक्तिके शरीरमें अनंतानंत पुद- ह । एसा हालतम उनका वगणााका स
पद- है। ऐसी हालतमें उनकी वर्गणाओंकी संख्या और गल वगणाऍ है। और ये वर्गणाएँ अनंतानंत प्रका
प्रकृतिमें भी फर्क आजाता है-तब फिर वे हो रकी है। यदि बात समझनके लिए यहां हम यह जीवाणु गर्भाशयमें रुक सकते हैं जहां आधे-स-अधिक मान लें कि किसी भी शरोरमे कंवल एक सौ (one
की समानता स्त्रीकी बर्गणाओंके साथ हो यानी hundred प्रकारको ही वर्गणा है और हर एक
पचाससे ऊपर सौ तक जितनी भी अधिक हो सके
दोनाकी वर्गणाओंकी समानता हो । इसके अतिरिक्त प्रकारमे एक ही वर्गणा एक तरहकी है नो इम नरह आगे मुख्य विषयको स्पष्ट करनेके लिये जो बातें
भी स्त्रीके शरीरकी वर्गणाओंकी संख्या प्रकृति एवं बतलाई जायेंगी उनको समझने-समझानेमें आसानी
बनावटम भी सर्वदा हर समय-हर क्षण परिवर्तन होगी।
होता रहता है और साथ ही साथ गर्भाशयस्थित
जीवाणुओंके भी। इस तरह जिस ममय भी यह (१) मानवजन्म-अब हमे दखना है कि
बात ऐसी होजायगी कि दोनोंकी ममानता आधेसे मानव-जन्म कैमा होता है। किसी पुरुषके शरीरकी
कम हो जाय तो फौरन वह जीवाणु बाहर निकल वर्गणाओं की संख्या मौ है और स्त्रीक शरीरकी वगे
जायगा । गर्भपातका भी कारण यही है। इस तरह णायोंकी संख्या भी मौही है। और पुरुपक वीयम
हम देखते हैं कि अन्तको अधिकतर गर्भाशयमें रहनेवाले सूक्ष्म, अपर्याप्त जीवाणु (cells) जिनमे
केवल एक ही जीवाणु टिका रहकर जन्म लेता है। आगे चलकर स्त्रीक रजका संयोग होनेस पूर्ण रूप कहीं कहीं अधिक बच्चे भी एक-साथ जन्म लेते है या शरीर प्राप्त होता है उसको भी वगणाांकी उसके कारणका उपयुक्त रीतिसं ठीक-ठीक समाधान संख्या मो है। बीयम इसतरहक असंख्य जीवाणु या हल मिल जाता है। यह तो एक छोटा-सा उदाएक माथ रहते है और एक साथ के सहगमनमें कई
हरण बहुत ही संक्षेपमें यहां दिया गया-इसका सौ ऐसे जीवाणु गभाशयमे चले जाते है। किसी विस्तृत उपयोग कोई भी जिज्ञासु या अनुसंधान पुरुषके वीयमे व हो जावाणु रहेंगे जिनकी वगेगा- करनेवाला वैज्ञानिक इसी तरह विश्लेषण (Aualyओंमेंसे आधे से अधिक वर्गणाओंका या अधिकम sis) करते हा निकाल सकता है। अधिक वर्गणाओंका गठन या उनकी बनावट ऐमी होगी जिनके स्वभावकी समानता उस परुष (२) सन्तानमें बुद्धि-शक्ति-स्वास्थ्यादि
आधेसे अधिक या अधिकसे अधिक वर्गणाओंके गुणोंका संयोग-लड़का, लड़की जो भी उत्पन्न होत गठन एवं स्वभावके साथ होगी। कर्मप्रकृतियों या हैं उनके गुग्णादिक या बुद्धि और शक्ति स्वास्थ्य वगैरह पुद्गल-वर्गणाओं की समानता, अनुरूपता या स्वा- हर एक चीजका इन वर्गणाओंकी समानता और
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विषमतापर ही साग दारोमदार है । दो पुरुषोंकी (३) वर्गणाओंकी बनावट आदिपर स्वभा. वर्गणाओंकी बनावट एवं संख्यामें जितनी अधिका
वादिका आधार-एक ही तरहकी बनावटवाली धिक समानता होगी उनके रूप, बनावट और स्वभावादि तो समान होंगे ही उनके शरीरके अन्दर वगणााका अलग-अलग गुट्ट, समुदाय या संगखून वगैरहमें भी काफी समानता वगेणाओंकी ठन होता है। हर संगठनका असर किसी भी जीव समानताके अनुरूप कमोवेश होगी या होती है। या मानव-स्वभावपर उनकी संख्याके अनपातके यही कारण है कि एक खानदान या वंशके लोगोंमें या
अनसार ही कमोवेश होता है। जैसे किसी व्यक्तिमें
अनुसार पिता-पुत्र और भाई-भाईमें प्रायः काफी समानता होती
विज्ञानकी तरफ झुकाव लानेवाली वर्गणाओंकी है। दो यमज (युगलिया) भाइयोंमें तो इतनी अधिक
संख्या काफी होनेसे उसकी दिलचस्पी विज्ञानकी समानता पाई गई है कि यदि एकको सर्दी या जानकारी या आविष्कार इत्यादिकी तरफ ज्यादा बुखार होता है तो दूसरेको भी हो जाता है। हां, दो ।
होगी। उसी तरह-दर्शन, संगीत, राजनीति, व्यापार, भाइयोंके एक ही माता-पिताकी संतान होनेपर भी।
परेलू प्रबन्ध, खेती, पशुपालन, मंतानपालन इत्यादि. उनकी प्रकृतियोंमें काफी फर्क भी इसी तरह हो
इत्यादिकी वर्गणाएं अलग-अलग बनावटवाली सकता है। जैसे एककी सौ वर्गणाओंमें पचहत्तरकी
होती हैं । कोई पुरुष और उसकी पत्नी दोनों दूरसमानता पिताके साथ है जिनमें पचास तो 'सम, दूर देशाक और भिन्न-भिन्न संस्कृतियोंके होनेसे प्रकृति की हैं और पञ्चीस 'विषम' प्रकृतिकी। ये कुल
उनकी मनोवृत्तियों एवं झुकावोंमें काको विभिन्नता
होगी। उनकी योग्यताओं और रुचियोंमें भी वैचित्र्य पचहत्तर पिताकी प्रकृतिसे समानता रखती हैं, बाकी
होगा। इन सबका समन्वय समुचित परिमाणमें पञ्चीस वर्गणाएं जो पुत्रमें वची वे यदि समप्रकृति की हुई तो उसके अन्दर समप्रकृतिकी वर्गणाओंकी
उस संतानमें पाया जायगा जो इनसे उत्पन्न होगी।
अतः किसी सन्तानमें तरह-तरह के गुण एक साथ संख्या पचहत्तर हो जाती है और विषमकी सिर्फ
पाए जाय इसके लिये आवश्यकता है कि सुदूर और २५ ही रह जाती है। अब दूसरे पुत्रको भी इमी
विभिन्न विचारोंवाले स्त्री-पुरुषोंमें वैवाहिक संबन्ध तरह देखें तो ठीक इसके विपरीत उसमें विषम
स्थापित किया जाय। प्रकृति वाली वर्गणाओंकी संख्या पचहत्तर हो सकती है और समप्रकृतिकी केवल २५। ऐसी हालतमें पिता और माता र्याद एक ही कुटुम्बके हो तो दोनोंका स्वभाव एकदम विपरीत होना स्वाभाविक जो सन्तान होगी वह और अधिक उनके अनुरूप है । ऐसी हालतमें एक दुष्ट हो सकता है और दूसरा होगी । ऐसी हालत में वर्गणाओंकी समानता बड़ी एकदम भलामानस । यद्यपि ऐसा कम होता है पर आसानी या मोटे तौरपर ही मिल जाने लड़का यह भी असंभव नहीं। यह स्वभावोंकी विपरीतता या बजाय चलता-पुर्जा-तीव्र बुद्धिवाला-विलक्षण होने विभिन्नता वर्गणाओंकी संख्याकी अधिक या कम के कम बुद्धिवाला हो सकता है । मूर्खता या खानविभिन्नता और समानतापर निर्भर करती है। दानी मदता अधिक मात्रामें सन्तानमें परिलक्षित इसके अलावा भी जैसे-जैसे बच्चे उम्रमें बढ़ते जाते होनेकी संभावना रहती है। यदि पिता-माता दूरहैं उनकी वर्गणाओं में परिवर्तन होता रहता है- दरके या दूर देशोंके हों या दो वर्ण (Race के किसीमें किसी एक तरहको वर्गणाओंकी संख्या बढ़ी, हों तो वर्गणाओंकी समानता माता-पिता और पुत्रकिसीमें दूसरी तरहकी-इत्यादि । इस तरह भी में काफी संख्याकी वर्गणाओंको शामिल करनेपर स्वभावमें फर्क पड़ता चला आसकता है।
ही उपलब्ध होगी । इस तरह सन्तानकी प्रकृतिमें
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काफी वैचित्र्य और चंचलता लक्षिप्त होगी। लड़का है तो वह स्वस्थ होगा इत्यादि । अधिक होनहार होगा। लेकिन बादमें उसके लालन- (४) बीमारीकी सन्तति- पिताको यदि पालन, चारों तरफके लोगोंके साथ मिलना-जुलना, कोई बीमारी हो तो उसकी वर्गणाओं में भी बीमारी वातावरण, जलवायु इत्यादिका प्रभाव भो उसकी
या बीमारियोंवाली वर्गणाए होंगी और उसके वर्गणाओंमें हरदम परिवर्तन लाता रहता है इस
वीर्यमें वही कीटाणु श्रावेंगे जिनकी धर्गणाओं लिए 'तुख्म तासोर सोहबते असर' ये दोनों व्यर्थ
की समानता इनके साथ अधिक-से-अधिक होगी। नहीं जाते । मनुष्यके स्वभाव या प्रकृतिपर हर
बहुत-सी बीमारियां बड़ी गहरी छाप लगाने वाली वस्तुका, हर बातका, हर वातावरणका असर पड़ता
होती है, जिसका मतलब यह कि पुरुषकी कुल है । वर्गणाओंके गठन या बनावटपर ही किसी
वर्गणाओंमें ऐसी बीमारीकी कारणवाली षगणाओंका स्वभाव-प्रकृति या उसका सब कुछ निर्भर
की संख्या काफी बड़ी होती है, जैसे सुजाक, गर्मी, करता है या यह सब कुछ वर्गणाओं-द्वारा ही बनता
दमा, वगैरह । यही कारण है कि जो संतान ऐसी विगड़ता या परिवर्तित और संचालित होता है।
बीमारीवाले पिताकी होती है उसमें भी ये लक्षण हर एक जीव या मानव-शरीरके अन्दर अनन्ता
मिलते है। माताके साथ भी ऐसी ही बात है, क्योंनन्त प्रकारकी वर्गणाए हैं। जिन एक तरहकी वर्ग
कि संतान आखिर उसकी वर्गणामोंसे समानता णाओंकी संख्या अधिक या काफी मात्रामें होगी, उनके अनुरूप या उनके प्रभाव द्वारा उत्पन्न हा रखने वाली ही गर्भमें रुक सकती है और फिर स्वभाव या आचरण इत्यादि विशेषरूपसे परि
बादको माताके साथ रहनेसे उसकी वर्गणाओंमें लक्षित होंगे। इनमें भी जिनका उदय ऊपर आता है
- जो बादको परिवर्तन होते है वे भी तो माताकी उनका ही तात्कालिक प्रभाव विशेष दिखलाई पडता वर्गणाओंस ही प्रभावित होते हैं। इसलिए यह है। संसारमे जितने व्यक्ति है उतने तरहक स्वभाव संभव है कि पिताके यहांस यदि कोई सन्तान
और हरएक मनुष्यके अन्दरकी हरएक बनावट या बीमारीवाला न भी आया हो तो वह माताकी बाहरी शारीरिक व्योरा Details और गुणादिक सुहबत (संगति) में माताकी बीमारी ले सकता एकदम पृथक-पृथक या भिन्न-भिन्न होते हैं। इस तरह है, इत्यादि। संसारके किन्हीं भी दो व्यक्तियों की कुल वर्गणाए कमी (५) वातावरणादिका स्वास्थ्यपर असरभी समान नहीं होती। जितनी-जितनी समानता दो या अधिक व्यक्तियोंमें वर्गणाओंके गउनकी
___ हर एक वातावरणमें भरे हुए या स्थान पाए हुए
पुद्गलोका भी संगठन एक खास तरहका ही होता होगी उनकी व सब बातें उसी अनुपातमें समान होंगी जो उन समान वर्गणाओंके फलस्वरूप या ६,
: है, जो किसी जगहके जलवायुके कारण होता है । उनस प्रभावित होती है। इसी तरह विपरीतता या जब एक बच्चा किसी खास वातावरणमें उत्पन्न विभिन्नता भी समझना चाहिए। संसारमें जितने
हुश्रा तब यदि उसकी वर्गणामोंकी प्रकृति वाताव्यक्ति है उतनी ही विभिन्नता उनकी वगेणाओंकी वरण की वग बनावट एवं संगठनमें दो व्यक्तियों में यदि बीमार या अस्वस्थ हो जायगा और यदि वह पचास-पचास वर्गणाए शान्तताकी समान हैं तो विषमता अधिक हुई तो उसकी मृत्यु हो जायगी। दोनोंमें शान्त स्वभाव होगा । बाकी पचासमेंसे वह उस वातावरणमें जिन्दा नहीं रह सकता। एकमें यदि बीमारीकी वर्गणाएं अधिक है तो वह एसी हालतमें यदि लड़केको दूसरे वातावरणमें बीमार होगा और यदि दुसरेमें स्वस्थताकी अधिक बदल दिया जाय या दूसरी जगह ले जाया जाय
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जो उसकी प्रकृतिके अनुकूल पड़े तो वह जिन्दा रह नियोंके अनुसार अथवा बातावरण जलवायु संगति सकता है या अस्वस्थतासे निकल कर स्वास्थ्य लाभ खान-पान वगैरहके अनुसार होती हैं। जैसे कि रमाकर सकता है।
यनोंमें एक दूसरेके साथ मिलने-मिलानेपर होती किसीकी सौ वर्गणाओंमेंसे यदि यह मान लिया
है। फर्क केवल इतना ही है कि एकको हम जीवित
रूपमें हाड़, मांस, खून वगैरह करके देखते और जाय कि पूर्ण स्वास्थ्यके लिए कम-से-कम ७५
जानते हैं जबकि दूसरेको निर्जीव ममझते और मानते वर्गणाओंकी समानता स्थानीय वातावरणकी वगणाओंके साथ होना जरूरी है तो ऐसा होने पर
हैं । परन्तु मूलभूत धातुएं (clements)सभीमें वे ही
हैं। इन्हीं मलभत धातु ओंके सम्मिश्रणके जेरेअसर वह व्यक्ति शक्तिशाली स्वास्थ्यवाला होगा जब कि
(प्रभावके अंतर्गत) बेजान(inorganic and inaniइससे कम होने पर उसपर बीमारियोंका दौरा
imate) वस्तुएं भी हैं और जानदार(organic and होगा । बीमारियां भी वर्गणाओंके अनुरूप ही
animate) वस्तुएं भी है। हाँ, अधितर जानदार होंगी । फिर यदि यह मान लिया जाय कि उस
वस्तुओंकी वर्गणाओकी बनावट अधिक उलझनोंसे वातावरण में केवल जीवित मात्र रहने के लिए कम-से
पूर्ण एवं कम्प्लेक्स (complex) होती है बनिस्वत कम पचास या पचास फी सदी वगणााका बेजान (ILOganic) वस्तुओं (substances) के। समानता आवश्यक है तब यदि इमक ऊपर समा- इसलिये पारम्परिक क्रिया-प्रक्रिया (action and नता हुई तब तक तो वह जीता रहेगा और जहां reaction) का भी उमी तरह गूढ या कम्प्लेक्म इस संख्यासे कमी हुई कि तत्काल उसकी मृत्यु (complex) होना स्वाभाविक है। फल (effect) हो जायगी । दवाओं या उपयुक्त उपचारसे अथवा
भी उसी तरहका होता है । हरएक प्रकृतिकी वगबातावरण या स्थानके परिवर्तन द्वारा समान वर्ग- णाओंकी बनावट और उनका अपना गुट्ट अलग णाओंकी संख्यामें काफी वृद्धि होसकती है और होता है । जैस कोध उत्पन्न करनेवालो वर्गणाओंकी होती है और इनका असर हम नित्य प्रत्यक्ष बनावट एक तरहकी होगी, लोभकी एक तरहकी और देखते है।
कुशीलकी दूसरे तरहकी। इत्यादि । इसी तरह या इसके उलटा होनेस विपरीत बात अच्छे गुणोंके लिये भी समझना चाहिये । एक गुण भी हो सकती है। यही बात मानवके पूर जीवन या औगणके लिये एक ही तरह की बनावटकी पर्यन्त होती रहती है। कहींका वातावरण या जल- वर्गणा हर शरीर में हर जगह होंगी। जैसे गंधककी वायु किसीके लिये लाभकर और कहींका हानिकर तेजाबकी बनावट सभी जगह एक-सी ही होगी या होता है-इन सबका कारण स्थानीय पुद्गलवगे- लोहेकी वर्गणाओंकी बनावट एक ही तरहके लोहेके णाओंकी लाभकारक या हानिकारक रचना है । जैसे लिये हर जगह हर समय एक-सी ही रहेगी। जिस किसीधातुके साथ गंधककी तेजाब(sulphuric acid)
पथ गधकका तजाब(sulphuric acid) तरह इन धातुओंकी वर्गणाओंकी बनावटमें विभिन्नता लगा दी जाय तो उसका असर तुरंत पड़गा जबकि आनेस इनके मलरूप, गुण और नाम ही बदल जाते तेजाबके अलावा बाकी दूमरे किसी तरल पदार्थका हैं उसी तरह जीवधारी मानवोंकी वर्गणाओंका भी उतना असर नहीं होगा। मतलब यह कि गंधकके हिसाब-किताब है। किसी भी समय किसी बाहरी तेजाबकी वर्गणाओंकी बनावट ऐसी है कि उसका या आन्तरिक प्रभाव द्वारा क्रोधकी वगेणाएं क्षमामें, असर उसी तरहका पड़ता है जबकि किसी और करुणामे या किसी भी दूसरे गुण अथवा अवगुणमें दूसरे तरल पदार्थका वैसा नहीं। मनुष्य ही क्यों, परिणत हो मकती है और होती रहती हैं। हर एकका जीवमात्रके शरीरके साथ भी क्रिया-प्रक्रिया उन्हीं स्थायित्व उनकी बनावट के स्थायित्वपर एवं प्रभाव
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उनकी संख्या और संगठनके ऊपर निर्भर करता है। इत्यादि । स्वास्थ्य पर भी इसी तरह असर पड़ता है और परिवर्तन होते हैं । हम जो कहीं किसी खाम वातावरण में एकाएक (अचानक ) बीमार पड़ जाते हैं या दूसरे में जाकर अच्छे हो जाते हैं यह सब इन वर्गाओं की समानता और विभिन्नताके ही कारण होता है | कभी ऐसा होता है कि कोई हवा बह जाती है या किसी छूतवाली बीमारीकी छूत लगने से एकाएक कोई बीमार हो जाता है, इसका मतलब यह है कि उस मनुष्य में वैसी वर्गणाए' बन जाती है पहले से कुछ हों तो उनकी संख्या एकाएक काफी बढ़ जाती है और वे अपना प्रभाव ऊपर कर देती है। दवाइयां ग्वानेसे हमारे अन्दरकी वर्गणाओंमें परिवर्तन होता है और फिर वे वातावरण के जब अनुकूल हो जाती है तब बीमारी छूट जाती हैं । पथ्य, भोजन, विचार, रहनसहन इत्यादि हर एक वस्तुका प्रभाव हर वक्त हमारी वर्गों की बनावटको बदलता रहता हूँ — जैसा कि पहले ऊपर कह आए है - इससे इनका भी असर हम बीमारी वगैरह में या स्वस्थ अवस्था में पूर्ण रूपसे देखते या अनुभव करते है ।
(६) वर्गणाओं के परिवर्तन -हमारे चारों तरफ पुद्गल भरे पड़े हैं- कुछ परामागुरूपमें कुछ मूलसों (atoms) के रूपमे और कुछ वर्ग - ाओं (molecules) के रूपमे । हमारे अन्दर भी शरीरमें ये सब वस्तुएं मौजूद हैं। वर्ग णाओंकी बनावट ऐसी है कि एक जालीसे उसकी उपमा दो जा सकती हैं। उसके भीतर भी यों ही छुट्ट पुद्गल इन तीनों रूपों में बराबर विद्यमान है या आते-जाते रहते है | जिस समय हमारे शरीरकी वर्गणाओंका कम्पन या प्रकम्पन किसी कारण से होता है इनकी बनावटके अन्दर एक हलचल मच जाती है और इस हलचलमे बहुत से परमाणु अपना स्थान छोड़ देते हैं और उनकी जगह नए परमाणु ले लेते हैं। इस तरह इन वर्गणाओंमें परिवर्तन हो जाता है या होता ही
जीवन और विश्वके परिवर्तनों का रहस्य
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रहता है। यह परिवर्तन कम्पनके कमजोर या अधिक जोर पर कम वेश होता है या कम्पनके कारणों द्वारा विशेष तरीके से होनेसे ये परिवर्तन कम-वेश, स्थायी, क्षणिक, कम समय (स्थिति) वाले या अधिक समय (स्थिति) वाले, तीब्र या हलके इत्यादि अनेक प्रकार के होते है। तीव्र कषायोंके कारण जो कम्पन होते हैं उनसे बंध गहरा होता है । बन्धका विभाग हमारे यहां प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग ऐसे चार प्रकार किया गया है और इन सबका जैन शास्त्रों में बहुत कुछ विस्तार के साथ वर्णन है । (८) बाह्य वस्तुओंका प्रभाव और कारण -
हम जो कुछ देखते है उसका बहुत बड़ा असर हमारे ऊपर पड़ता है। हर एक वस्तु या शरीर से अजस्ररूपमं पुद्गलोंका प्रवाह निकलता रहता है । यह प्रवाह इस तरह निकलता रहता है कि जिससे हमें किसी वस्तु के होने का और उसकी रूपरेखा तथा रङ्गका ठीक-ठीक भान या भास होता है । ये पुद्गल परमाणु, मूलसंघ और वर्गणाओंके रूपमें निकलते रहते है और हमारी आंखों पर जब पड़ते है या आंखोंक पसे अन्दर जाते है तो हमे उनके कारण जो अनुभव होता है वही हमारी देखनेकी शक्ति कही जाती है ।
हम जो कुछ भी देखते हैं उसका मूल कारण यह हूँ कि जो वर्गखाए अजस्ररूपसे किसी भी शरीर या वस्तु के हर हिस्सेसे हर समय निकलती रहती हैं वे उस वस्तुके अनुरूप ठोक ठीक वैसी ही रूपरेखा-रङ्गवाली सूक्ष्म वर्गणाए' बना देती हैं या ऐसी वर्गाओं में परिणत हो जाती हैं जो फिर दृष्टिद्वारा दर्शित एवं प्रतिबिम्ब उत्पन्न करनेवाली वस्तुओं में प्रतिबिम्बित होती है या फोटो खिंचने में सहायक होती हैं । इतना ही नहीं, जो वर्गणाएं एक छोटे लेन्स ( Lense) के भीतर घुसती हैं लेन्स की बनावटके अनुसार ही दूसरी तरफ बाहर निकलनेपर उनका फैलाव (Scattering) होता है । सूर्यकिरणें सूर्य से निकली वर्गणाएं ही हैं, उन्हें भी किसी लेन्स द्वारा एकत्रित किसी वस्तुपर जोर से आक्रमण करने के
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कारण हो अग्नि उत्पन्न हो जाती है। यह भी ठीक है। वर्गणाओंकी बनावटमें बड़ा तोत्र परिवर्तन हो. उसी तरह होता है जैसे फिलामेंटमें हम रोशनीका ता है और एकदम दबी हुई निष्क्रिय वर्गणाए भान करते है जबकि विद्य त प्रवाह जारी रहता है। ऊपर आकर अपना प्रभाव तुरन्त प्रकट रूपमें डालने रंगोंका प्रभाव भो हमारे अन्दरकी वर्गणाओंको एक लगती हैं। इसीके द्वारा सहसा क्रोध बदलकर आक्र. खास तरतीवमें पुनःसंगठन करनेमें बड़ा भारी कार- मणमें परिणत होजाता है या दूसरे निमित्त पाकर गर होता है । उपयुक्त रङ्गोंके चुनाव, सम्मिश्रण या अथवा अपनोंपर हाथ उठानेमे अशक्तता महसूम सम्मेलन और प्रदर्शन द्वारा हरएक तरहकी बीमा- होनेसे मनोभावनाओंमें ऐसा परिवर्तन होजाता है रियां स्वयं अच्छी हो सकती हैं और मनपर अच्छा कि जिससे क्रोधकी वर्गणाए' मलाईमें परिणत हो बुरा प्रभाव भी डाला जा सकता है।
जाती हैं इत्यादि। ___यह बात नहीं कि किसी वस्तुमे लगातार निक- इस तरह जो भी वस्तु जिस अवस्था लनेवाले ये पुद्गल केवल प्रांखोंमें ही घुसते हों
में हम अच्छी या बुरी देखते हैं यदि उस समय ये तो सारे शरीरमें सब जगह घुसते और निकलते
हमारे अन्दर मनोविकार हुए तो उनका असर दुगुना रहते हैं और कम्पनके अनुसार अपना प्रभाव भी
हो जाता है । इसीलिए बुरी वस्तुएं देखकर या अन्य हाल जाते हैं-चाहे स्थायी क्षणिक या कैसा भी
किसी अनिष्ट बातको देखकर घृणा करनेके लिए मना क्यों न हो। हमारे शरीरसे भी इसी तरह पुद्गलका
किया गया है। वस्तुस्वरूपका विचार करके घृणा अजस्र प्रवाह तेजीसे निकलता रहता है। जिसके .
आदि विकारोंको रोकना चाहिए, जिससे हमारे अंदर कारण ही प्रतिबिंब दृष्टिगोचर होते है या फोटो खींचना या उतारना संभव होता है। यह फोटो या
__ की पद्गल बर्गणाओंकी बनावट और समभावी
वर्गणाओं की संख्या ठीक रहे। इसीलिए मनुष्यके प्रतिबिंबों का बनना इन पद्गल वर्गणाओंके निष्का
अन्दर विकार न पैदा हो या कम-से-कम पैदा हो सनके कारण ही होता है। यदि ये पुद्गल वर्गणाएँ किसी वस्तु या शरीरसे अजस्ररूपमें नहीं
इसके लिए यह आवश्यक है कि हमारे चारों तरफ निकलती रहतीं तो फोटो खींचना या प्रतिबिंबोंका
हर वस्तु सन्दर होकर अच्छी तरहसे स्थित हो और बनना या कोई वस्तु देखना या जानना संभव नहीं
उनकी तरतीब य। सजावट ऐमी हो जिससे हमारे होता । जिस समय कोई जोरोंका कम्पन शरीरमें
मनपर बुरा असर न पड़कर अच्छा शुभ असर अन्दर या बाहर या भावोंमें होता है तब पदगलका पड़े। अच्छे प्राकृतिक दृश्योंवाले स्थानोंकी महत्ता प्रवाह और तीव्र हो जाता है-आनेवाले पद्गला
इसी कारण है । सुन्दर-भव्य वस्तुओंका देखना का भी और बाहर निकलनेवाले पदगलोंका भी। हमारे भावाम या हमारी वगणाओंके गठनम जब बदनमे थर-थराहट हो, छींके आवे या कम्प- सुन्दरता या भव्यता लाता है। कुरुचिपूर्ण वस्तओं कम्पी हो या रोमांच हो जाय तो वगणाओं में बड़ा का दृश्य हानिकारक एवं सुरुचिपूर्ण और मनोहर भारी परिवर्तन एकाएक होता है। किसी भी सहसा दृश्योंका असर दोषोंका नाशक है। प्रभावकारी डर-भय या इसीतरह के दूसरे Shocks सुन्दरता द्वारा मनुष्य ही क्यों पशु भी मोहित या घटनाओंका बड़ा भारी असर पड़ता है । आक- एवं प्रभावित होते हैं। मनुष्यकी बनावट या स्वभाव स्मिक आघात Suddeu shocks या आवेगका कुछ ऐसा है कि वह सुन्दरताकी तरफ आकर्षित असर आधी या बबंडर की तरह पड़ता है अथवा होता है। इस आकषणमें अनुराग हो जाना ही प्रेम वषोती नदियों में होनेवाले चकोह्की तरह नीचकी है। प्रेममें ध्यानकी सबसे अधिक एकाग्रता होती चाज ऊपर और ऊपर को चीज नीचे कर देने में होता है। निर्जीव वस्तुओं की अपेक्षा जानदार वस्तुओं
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किरण ५]
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में बनावट के अतिरिक्त और भी सुन्दर चेष्टाएं एक साथ कम-वेश अपनी शक्तिके अनुसार काम कर श्राकषणको अधिकाधिक तीव्र करती है । इस रहे या प्रभाव डाल रहे है। जिसका प्रभाव जिस 'आकर्षणको ही अध्यात्मकी तरफ मोड़ना उन लोगों दिशामें अधिक जोरदार होगा उधर ही उसकी गति के लिए अधिक आसान होता है जो संसारी माया- होगी। इतना ही नहीं, वर्षों पहलेसे चलती आती मोहमे बेतरह उलझे हुए और मंलग्न है। भक्तिमार्ग हुई बात किसी निमित्त के मिल जानेसे जोर पकड़ की व्यापक सफलता इसी में रही है। अपवाद और लेती है और तब हम उससे प्रभावित होकर उस अनचित प्रयोग तो सभी जगहों या सभी वस्तुओं मुताविक आचरण या कार्य करने लगते हैं। जैसे में साधारण अपूर्ण मानवकी अज्ञानावस्था और कोई मित्र दिल्लीमें बैठा बार-बार अपने पटना स्थित असहायावस्थाके कारण है, होगए है और होते मित्रको दिल्ली आनेके लिये लिखता है-पर वह रहेंगे। इन्हे उचित शिक्षा एवं उपदेश द्वारा सच्च नहीं जा पाता। पर एकाएक ऐसा निमित्त मिला कि मागमे युक्त करना गुरुओंका काम है । सुन्दरताके कोई दूसरा मित्र भी व्यापारके सिलेसिलेमें दिल्ली देखने और ध्यान करनेसे नए-नए भावोंकी सृष्टि जा रहा है और आकर इस पहले श्रादमीसे चलनको होती है उन्हें शुभ्ररूप देना,अध्यात्मकी तरफ मोड़ना कहता है तो उस दूसरे व्यक्तिकी उपस्थिति, भाव, एवं पूज्यताम युनकर वासनाको उनके अन्दर भापणका सहारा मिला। नई वर्गणाए' बनीघुमनसे रोकना प्रावश्यक है। सौन्दर्य इस तरह पुरानीमे परिवर्तन हुआ तथा सपत वर्गणाएँ क्रियामनोहारो होनेसे एकाग्रताके कारण जो अच्छे परि. शील हो उठीं, इस तरह वह भी दिल्लीके लिए वर्तन हमारी वर्गणाओ में उत्पन्न करता है वह रवाना हो जाता है। इससे ग्रहों का प्रभाव कहें मानवको सदा शारीरिक, मानसिक और नैतिक या दृमरे कारणोंका, सब बातें मुलमें एकही हैं। मुख प्रदान करनेवाला एवं उन्नतिकारक है। एकाग्रता
(१०) ध्यान तथा विचारादिका असरएक-तरहकी ही वर्गणाओं को बनने देती है इससे
इसी प्रकार जो कुछ हम ध्यान करते है या मनमें तरह तरह के बन्धो में इस समय छुटकारा मिल
विचार या भावनाए लाते है उनका भी पूरा असर जाता है।
हमारे ऊपर पड़ता है। इतना ही नहीं दसरे लोग (6) सुनन आदिका असर-इसी तरह जो विचार अपने मनमें करते है उनका भी असर हम जो कुछ भी अच्छा या बुरा सुनते है उसका भी हमार उपर पड़ता है । हमसे जो लोग मिलते-मिलाते अमर हमारी वर्गणाओं की बनावटपर तत्काल है या हमारे पास रहते है उनका भी बड़ा भारी पड़ता है। और यदि हमारे अन्दर भी उस समय अमर हमारे ऊपर उनके शरीरसे निकलन वाली उस तरहके भाव या विकार मौजूद रहे तो उनका वर्गणाओंके कारण हमारे अन्दरकी वर्गणाओंमें असर दुगुना या बहुगुना हो जाता है। अच्छे मंगीत परिवर्तनस्वरूप तुरन्त पड़ता है या बराबर पड़ता का असर अच्छा हाता है। बुरी बातें सनकर मनमें रहता है । इसीलिए दुष्प-संगति वजित और साधुविकार उत्पन्न होता है। और यह सब हमारे मंतिकी प्रेरणा मभी लगह मिलती है । दुष्ट यति अन्तरङ्गके वर्गणाओ मे मद्यः परिवर्तनम्वरूप ही कुछ कहे भी नहीं तब भी उसके शरीरसे निकलने वाली होता है।
वर्गणार उमके भावोंके अनुकूल ही होंगी और मनष्यकी सारी गतियां ही वर्गणाओं के प्रभाव उनका असर किमी भी आस-पासमें रहनेवालेके - के अनसार होती है। मनुष्य अकेला तो है नहीं, उस ऊपर निबांध गतिमे पड़ेगा-इस असरको कोई
पर चारो ओरसे अमंख्यो शक्तियां एवं प्रभाव भी व्यक्ति केवल निवृत्ति या चिसकी समता या
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निर्विकारता द्वारा ही प्रभाव रहित (neu.ralise) वरणमें जो प्रक्रिया होती है वह भी उसीके अनुरूप कर सकता है। ऐसी हालतमें दुष्टके शरीरसे निकली हानिकारक या बुरी और लाभदायक या अच्छो वर्गणाएं तो आसपासमें रहनेवालेके शरीरके होती है । इन दोनोंको मिलाकर ही हमारे ऊपर अन्दर घुसेंगे ही पर यदि वहां कम्पन या भावों जो उनका असर पड़ता है उसे हमारे भावोंके में फरक न आवे तो वे बगैर असर या बध किए अनुसार ही अच्छा या बुरा अथवा उलटा-प्रतिअथवा उस दूसरे मनुष्यकी वर्गणाओंमें कोई क्रियात्मक प्रभाव कहते है। इस तरह अपने भाव, परिवर्तन उत्पन्न किए बिना हो आप-से-आप एक भाषण या व्यवहार अच्छे रखना अपना ही भला तरफसे घुमतो हुई दूसरी तरफ निकल जायंगी, करते है। इत्यादि । इसके विपरीत सत्पुरुषके शरीरसे निक- (१०) भोजन-पानादिका असर-इसी तरह लनेवाली वर्गणाए उसके स्वभावके अनुकूल । शान्त, सरल और समता युक्त होंगी, जिससे
___ जो कुछ हम अन्नपान भोजन करते है उनका तो उसके आस-पासका वातावरण भी उसी मुताविक
एकदम ही सीधा (Direct) असर हमारे अन्दर प्रभावित होगा-और पासके रहनेवाले प्राणीपर
के पुद्गलवर्गणाओंकी बनावटपर पढ़ता है। यों भी उसी तरहका शुभ्र प्रभाव पड़ेगा। सत्पुरुष कुछ
तो इन पुद्गलवर्गणाओंको जैन सिद्धांतने तीन करें भी नहीं तब भी संसारका भला केवल उनकी
मोटे-मोटे भागोंमें विभक्त किया है। कार्माणअवस्थिति मात्रसे ही होजाता है। उनके शरीरसे
वर्गणाए, तेजस वर्गणाए और औदारिकशरीर निकलने वाली वर्गणाए' लोककल्याणरूप होने
रूपी दृश्य पुद्गलशरीरको बनाने वाली वगणाएं। से सारे संसारमें फैलकर अपना भला प्रभाव
ये तीनों ही एक दूसरेसे अभिन्न रूपसे संबन्धित अंकित करती हैं।
और मिली-जुली हुई हैं । हर-एकका प्रदेश पूर्णरूप ___इनके अतिरिक्त भी जब हम किसीके प्रति से दूसरेके प्रदेशोंसे समान और एकमेक मिला अच्छे या बरे भाव रखते हैं या हमारे अन्दर अच्छे हुश्रा हे । केवल इस सांसारिक शरीरसे आत्मा या बरे भाव जब कभी किसी विशेष व्यक्ति के प्रति के निकलने या मृत्युके समय ही तैजस और कर्माण उत्पन्न होते है तो हमारे अन्दर उसके अनसार रूपी सूक्ष्म शरीर तो आत्माके साथ-साथ जाता वर्गणाए' बनकर बड़ी तेजीसे बाहर निकलती हैं है पर यह स्थूल औदारिक शरीर यहीं रह जाता
और उस मनुष्य तक पहुचती हैं ऐसी हालतमें दो है । जिस समय भोजन या पेय हमारे शरीरके काम एक साथ ही होते हैं। एक यह कि ये वर्गणाएं अन्दर जाता है वहां रासायनिक क्रिया-प्रक्रिया उस दूसरे मनुष्यके भावोंके या अपनी चंचलता प्रारम्भ हो जाती है और उनका असर वर्गणाओंक के अनुसार ही उसपर असर करेंगी, न करेंगी या परिवर्तनमें होने लगता है । यह असर हर एक कम-वेश करेंगी । पर इनका एक निश्चित असर वर्गणापर पड़ता है ऊपर देखने में सारी वर्गणाओं उस मनुष्यपर तो अवश्य ही पड़ता है जिसके का समूह यह शरीर एक सत्ता-सा दीखता है या अन्दर इस तरहकी वर्गणाएं अच्छी या बुरी बनीं। रहता है पर अन्दर परिवर्तन हर समय होता रहता कारण दो हैं एक यह कि वर्गणाएं जो अच्छी या है। मनुष्यकी अवस्था या उसका सब कुछ जो एक बुरी बनी सबकी सब तो निकल नहीं जाती, काफी क्षण पहले था दूसरे क्षण वही नहीं रहता-उसमें परिमाणमें अपने अन्दर भी रह जाती हैं और परिवर्तन हो जाता है-भले ही इसे हम महसूस दूसरी वर्गणाओंमें भी अपना असर उत्पन्न करती करें या न करें अथवा देरसे करें, यह दूसरी हैं । इसके अतिरिक्त उनके बाहर निकलनेसे वाता- बात है।
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इस तरह हम जो भी कर्म करते हैं या हमारे मंडल में परिवर्तन होता रहता है । इन परिवर्तनों द्वाग शरीर और इंद्रियों तथा मन द्वारा जो भी कुछ होता हमारी वर्गणाओंकी गठन या बनावटमें भी हेर-फेर रहता है अथवा भूतकालमें हुआ उन सबके फल होना स्वाभाविक ही है (resultant) रूप हमारी वर्गणाएं बदलकर विशेष (१२) ग्रहों-उपग्रहोंका असर-प्रहों-उपग्रहों रूपमें बन गई होती हैं या बनती रहती हैं, इसलिये से अनंतानन्त पुद्गल वर्गणाएँ बड़ी तेजीसे निकलकर हम जो कुछ भी कर्म एक क्षणभर पहले तक कर चुके हमारी पृथ्वीपर पड़ती है या इसपरकी हर वस्तुओं होते हैं उन सबका असर-प्रभाव (effect) अंतिम से टकराती है और उनपर अपना परिवर्तनकारी संयुक्त फलरूप वर्गणाओंमें हर समय परिवर्तन स्व- असर डालती ही हैं। इनका प्रभाव निश्चित, अनिरूप ही होता है या पड़ता है। यह बात अन्यथा वार्य और काफी जोरदार होता है। नहीं हो सकती। वर्गणाओंमे जो कुछ भी जब भी सूयमे तो जितनी तरहकी किरणें या धारायें जिस तरहका भी फर्क या हेर-फेर उनकी बनावटमें निकलती हैं वे तो बहुत ही अधिक हैं। असंख्य हैं। होगा या होता रहता है उसका ही असर हमारे केवल कछ-एकको हो वैज्ञानिकोंने पकड़ा या जान ऊपर या हमारी सारी बातों, व्यवहारों, कार्यों या पाया है पर असर तो सबका ही होता है। सूर्य ही अवस्थाओंको उत्पन्न करने, बनाने या उनके हानमं क्यों हरएक वस्त या शरीरसे अनगिनत किस्मोंकी पड़ता है।
किरणों और धाराओंका अजम्रप्रवाह हर समय इनक अलावा भी ऊपर जैसा कहा जा चुका है निकलता रहता है जिन्हें हमारा विज्ञान अभी तक उससे यह आगे जानना कठिन नहीं कि किस तरह
बहुत ही कम जान पाया है। हमारे खान-पादिका सद्यः असर या प्रभाव हमारे सबसे भी जो प्रकाश-किरणें निकलती हैं वे सबस्वभाव या कर्म बन्धनों या हरएक बात जो हमसे की-सब वर्गणाओंकी तोव्रतम धारा या प्रवाह ही मंबन्धित है उसपर पड़ता है। स्थ औदारिक वर्ग- है। हमारे देशके प्रसिद्ध वैज्ञानिक श्रीरमनने जो इन णाम परिवर्तन होनसे कामोणवर्गणाओं में तथा प्रकाश-किरणोंके फैलने और तरह तरह के रंगोंवाली तेजमवर्गणाओंमें भी साथ ही साथ परिवतन होगा स्पेक्टम (SPectruu) धारियां पर्दे पर बनानेके ही, क्याकि ये एक शरीर, भव या पयायके समय कारणोंके बारेमे जो विशद खोज, अनुसंधान, एवं मब साथ ही साथ हैं।
आविष्कारादि किए है वे सब इन वर्गणाओंकी (११) वायुमंडलका असर- वायुमण्डल बनावटके वजहसे ही हैं। जैसे एक तरह की प्रकाशमें या हमार चारों तरफ जो हलचल होती है या किरणों या एक तरह की रंगोंकी वर्गणाओंकी बनावट होती रहती है उससे भी हमारे चारों तरफ जो पुद- एक विशेष तरहकी ही होती है और दूसरोंसे भिन्न । गल भरे पड़े हैं उनमें कम्पन होता रहता है और जब ये ही प्रकाश-किरणें किसी वस्तुविशेष(auyउनकी सन्निकटतासं हमारे शरीरके अंदर भी यह particular substance) से होकर गुजरती है तो कम्पन हर समय होता ही रहता है। और हर वस्तु इन दोनोंकी वर्गणाओं में परमाणुओका आदानम निःमृत जो पुद्गलवर्गणाएं है वे वातावरणमे प्रदान होकर उनकी बनावटमें हेर-फेर हो जाता है विद्यमान रहती है और बहती हुई वायुके साथ दूर जिससे जब किरणें पुनः बाहर निकलती है तो उनसे दरसे तरह तरहकी दूसरे वातावरणों या स्थानोंकी दिखलाई पड़ने वाला रंग भिन्न हो जाता है या दिखवर्गणाए वायु द्वारा एक जगहसे दूसरी जगह पहुँचाई लाई पड़ता है। हरएक रंगकी मिन्न-भिन्न बनावटकी जाती रहती हैं। फिर उनके ऊपर वर्षा और मेघोंकी वर्गणाएँ जब एक त्रिकोन शीशा(prissu) से होकर बड़घड़ाहट या विजलीकी चमक इत्यादि द्वारा वाय- गजरती हैं तब बाहर पर्देपर उन्हें डालनेसे अलग
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[वर्ष १० अलग रंगोंकी रेखाएं (spectrum) धारियां बन वर्गणाएं निःसृत होती रहती है जो नजदीकके वायुजाती है-इसका कारण भी यही है कि शीशेकी मंडल वातावरणमें हल-चल उत्पन्न करती है-ठीक वर्गणाओंकी बनावट कुछ ऐसी है कि प्रकाश-किरणों उसी तरह जैसे हमारे बोलनेसे हवामें या आकाशको बनानेवाली अलग अलग किस्मकी वर्गणाओंको मार्गमें हल-चल (wavce) उत्पन्न होती हैं। इन अलग-अलग रास्तेसे होकर ही गुजरने देती है जिससे शब्दों द्वारा उत्पन्न हलचलों (Disturbanles) को सब इकट्ठी न रहकर अलग-अलग हो जाती हैं। हम बेतारके तार रेडियो (wiiecess) से बड़ी-बड़ी विषय बहुत ही विशाल और सचमुच अभी और दूर तक पकड़ कर ठीक ठीक उन्हीं शब्दोंको अपने वहत अधिक अनुसंधानकी अपेक्षा रखता है। मतलब यहां यन्त्रों में उत्पन्न कर सुन लेते हैं। वह समय भी यह कि संसारमें जो कुछ भी दृश्य या अदृश्य होरहा आसकता है जब इसी तरहके यन्त्रों द्वारा हम यहां है वह सब वर्गणाओंकी ही आपसी क्रिया-प्रक्रिया भारतमें घर बैठे बैठे इंगलैन्डके किसी मानवके हृदयके फलस्वरूप है । और हर वस्तुका प्रभाव हर वस्तु तलमें होनेवाले अंतद्वन्द्वका पूरा पूरा पता यन्त्रों पर अवश्य पड़ता है।
द्वारा लगा लें। कहनेका मतलब यह कि इंगलैन्डका (१४) हर वस्तुकी हर समयकी स्थिति-हर निवासी जो कुछ भावना या कार्य करता है उसका एक वस्तुओंपर चारों तरफकी बाहरी शक्तियां या भी असर संसार के वातावरणमें मौजूद है और इस चारों तरफकी वर्गणाओंका हमला और आकर्षण- तरह हर एकका असर इकट्ठा होकर हमारे ऊपर प्रत्याकर्षण एवं क्रिया-प्रक्रियाओंका इतना अधिक भी पड़ता है और हमारी पथ्वीसे उमी अनरूप असर पड़ता है कि इन शक्तियामें हेर-फेर या पुद्गलोंका निष्क्रमण होकर और दूसरे ग्रहो-उपकमती-वेशी होनेके कारण ही हर वस्तु हर ग्रहोंपर पड़ता है। यही बात दूसरी तरफसे भी है वक्त कम्पन या प्रकम्पनकी दशामें रहती कि इन सभी ग्रहों-उपग्रहोंका कुल सम्मिलित असर है। दि स्वक्तियां स्थिररूपसे एक-सा बराबर जो हमारी पृथ्वीपर या हमारे ऊपर पड़ता है वह रहती होती तो कोई कम्पन या प्रकम्पन नहीं वहाक रहन वाल
र वहांके रहने वाले हर एक निवासी या हर वस्तुका होता-सब कुछ शान्त ही रहता, कोई गति कहीं (sumtotal) कुल इकट्ठा प्रभाव ही होनेसे हम यह नहीं होती, सब कुछ निर्जीव हो जाता। गतिका होना भी कह सकते है कि उन उपग्रहोंके रहनेवाले हर ही जीवनका प्रमाण है । परन्तु हर वस्तु परिवर्तन एक प्राणीका असर हमारे ऊपर पड़ता है। चाहे करती रहती है-बदलती रहती है, इस लिए उनके अलग अलग इतना कम क्यों न हो कि उस हम प्रभावोंमें भी कमी-वेशी होती रहती है और इसी शून्यके बराबर ही समझे। पर उनका मिल-मिला लिए हर वस्तु बरावर (vibration) या कम्पनकी कर इकट्ठा असर तो बहुत ही बृहत हो जाता है। अवस्था (हालत) में रहती हैं। ये ही कम्पन वस्तुओं और इस बृहत असरमें उस क्षुद्र प्राणीका भी कछया उनकी देहोंसे पुद्गलोंके निकलनेमें कारण हैं और न-कुछ भाग या हिस्सा या अंश है ही। इस तरह हर वस्तुके आंतरिक मौलीक्यूलर या वर्गणाओंके हम देखते हैं कि मनुष्य अकेला नहीं है। इसी
आंतरिक गठनमे तबदीलियोंको करनेवाले होते है, संसारमें कौन कहे अखिल विश्वका असर उसके इत्यादि ।
ऊपर पड़ता है और वह भी अपना असर अखिल (विचाराका असर-और तो और विश्वके उपर हर समय डालता रहता है। जो लोग इंगलैंडमें बैठा हुआ एक आदमी जो मनोभावनाएं अपने अज्ञानमें अपना स्वार्थ सबसे अलग होने में अपने अन्दर बनाता बदलता रहता है उसके कारण सोचते हैं वे गलती करते हैं और अन्त में स्वयं अपने उसके शरीरसे उसीके अनुसार स्वाभाविक रूपमें परम स्वाथकी ही हानि करते है पर यह बात हमारी
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फिरण ५]
जीवन और विश्व के परिवर्तनोंका रहस्य समझमें इस लिए नहीं आती कि हम अपने अज्ञा- दर्शन या अन्तरदृष्टिका जो ज्ञानकी, शुद्धताके लिए नमें इतने अन्धे हो रहे हैं कि जिसकी कोई हद परम आवश्यक है, ऐसी दशामें अभाव रहता है। नहीं । हर एक आदमी अपनेको अलग अलग सम- इस अभावकी यथोचित और यथासंभव पूर्ति मता है-और हर एक देशवाला तो अपने देशका होजाना हर हालतमें सहायक एवं लाभदायक ही ही स्वार्थ देखता है-पर यह सब-कुछ भ्रम और है और कुछ हो या न हो इसी बहाने कम-से-कम एक गलती है अंतमें सबका नकसान ही होता है। कोई नए ज्ञानकी उपलब्धि तो हो ही जायगी। ज्ञानका भी जीव व्यक्तिरूपसे अलग व्यक्तित्व रखता है विकास हर हालतमें लाभदायक है। जिसका सब-कुछ किसी भी दूसरे प्राणी या व्यक्तिसे (१६) मनकी एकाग्रतादिका आश्चर्यएक-दम भिन्न है पर समष्टि-रूपसे वह सारे अखि- जनक प्रभाव-हम अपने मनकी एकाग्रताद्वारा, ल विश्वक ही एक छोटा-सा ही सही पर सत्ता और मनोयोग द्वारा, तपस्या और ध्यान द्वारा अपनी अस्तित्वधारी अपना अलग प्रभाव करनेवाला वर्गणाओंमे इस तरहकी तबदीलियां ला सकते हैं होता है। जब सब एक दूसरेका विश्वव्यापी लोक- या उत्पन्न कर सकते है जिनका बाह्य असर कल्याण करनेकी भावनासे ओत-प्रोत होंग और आश्चर्यजनक हो। भावोंकी एकाग्रता बड़ी-से-बड़ी रहेंगे तभी उनका भी मचा कल्याण होगा। चाहे शक्तिकी जननी है । जैसे लोहा साधारण हालतमें वह इंगलैड हो चाहे अमेरिका चाहे रूस या भारत चम्बककी शक्ति नहीं रखता। पर वही जब चुम्बकया और कोई भी हो। अकेला किसीका कल्याण न के सामने लाया जाता है तब उस लोहेके अन्दरहान होगा। सच्चा सुख और स्थायी शान्ति वि- की वर्गणाओं (मौलीक्यूल्स) की बनावटमें कुछ श्वभावना द्वारा ही हो सकता है और इसीमें ऐसा हेर फेर या वर्गणाओंमें कुछ ऐसे तरहका हर एक व्यक्ति, समाज और देशका सच्चा कल्याण संगठन होजाता है या एक ही दिशामे सबकी शक्ति संनिहित है।
इस तरहसे काम करने लगती है कि उस साधारण मौलेक्यूलर और ऐटोमिक अथवा वर्गणाओं लाहेमे भी बड़ी भारी चुम्बकको शक्ति हम सामने और मूलमंघोंमे जो परिवर्तनादि होते है उन्हें पाते हैं । विजलीके इस तरहके चुम्बकवाले क्रन आधुनिक विज्ञानका जानकार तो जानता ही है-पर टनां बोझा उठा लेते है। इसी तरह हम अपने मनजो लोग नहीं भी जानते है वे किसी भी विज्ञानके की एकाग्रता या किसी एक तरफ या एक विषय या तीसरे वर्षके विद्यार्थीसे आणविक बनावट और एक वस्तुपर ध्यान लगाकर अपने अन्दरकी वर्गउनकी आपसी क्रिया-प्रक्रियाके वारेमें आसानीसे णाओं में ऐसा तारतम्य उत्पन्न कर सकते हैं कि जानकारी प्राप्त कर सकते है। ऐसा करनेसे जैन जिनकी सम्मिलित शक्ति बड़े-बड़े आश्चर्यजनक सिद्धान्तोंमें प्रतिपादित व्यवस्थित कर्मोंका रूप या कार्य कर सकती है। जिसे हम मनोवल या वर्गणाओंके गटन या परिवर्तनादि और उनका असर will power कहते है । इसे बहुत लोग आम बोलअच्छी तरह समझमें आसकते हैं। हर एक जैनधर्मके चालकी सांसारिक भाषामें आत्मबल या आत्मपंडितको, जानकार और जिज्ञासुको, जो तत्त्वोंकी शक्ति भी कहते है । पर आत्मा तो अनन्त शक्तियोंका शुद्ध जानकारी चाहता है इस आधुनिक विज्ञान अक्षय भंडार स्रोत या उन्हें धारण करनेवाला द्वारा निरूपित एवं प्रतिपादित आणविक-ऐटोमिक स्वयं है। उसकी शक्तियाँ केवल इस पार्थिव शरीर व्यवस्थाओंको जानलेना आवश्यक है। अन्यथा की अयोग्यता या कमजोरीके कारणही पूर्ण विकसित उसका ज्ञान कोरा किताबी या जन्मजात श्रद्धा द्वारा नहीं हो पाती या इसकी कायक्षमता सीमित रहनेसे उत्पन्न ऊपरसे लादा हुआ-सा ही होगा-स्वयं प्रत्यक्ष आत्माकी शक्ति भी उसी तरह सीमित हो जाती है।
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जैसे-जैसे इसका विकास जिस दिशामें होता जाता पड़ती है कि अव्यवस्थित वर्गणाओंको एक व्यवस्था है एवं इसकी योग्यता बढ़तो जाती है, श्रात्माकी में लावें और उनमें तारतम्यता उपस्थित करेंशक्तियोंका विकास एवं अभ्युदय भी उतना-उतना जितनी-जितनी यह व्यवस्था या सुचारु संगउस-उस दिशामें होता जाता है। हम सतत प्रयत्न, ठन होता जायगा उतना-उतना हमारी शक्ति अभ्यास या एकाग्र चेष्टाओं द्वारा इस शरीर एवं हमारा ज्ञान और कार्यक्षमता हर तरहकी मानसिक, अपनी इन्द्रियों को इस योग्य जब बना लेते है कि शारीरिक, आध्यात्मिक आदिका विकास और अभ्य.
आत्माकी विकसित शक्तियोंका बोझ या भार वहन दय दीख पड़ेगा। मनुष्यजीवन भी सीमित कुछ करने में वे समर्थ हो सके तो वे शक्तियां स्वयं विक- वर्षों का ही है-नहीं तो यही यदि अनंत रहता तो सित होकर कार्यशील होती हुई दृष्टिगोचर होती एक जन्म या एक पर्याय या एक योनिमें ही सब कुछ हैं। जैसी बात शारीरिक शक्तियोंके साथ या उनके अनन्त शक्तियां इसे उपलब्ध हो जाती। ये शक्तियां विकास और अभ्युदयमें है, वही बात मानसिक या संयत जीवन व्यतीत करने पर एक जन्म या एक पर्याय दूसरी शक्तियोंके विकास या अभ्युदयमें भी है। मे दूसरे पर्यायमे बढ़ती जाती हैं। असंयम होनेसे हम अपनी धारणा एवं एकाग्र मनोबल द्वारा ध्यान भी इनकी आपसमें टक्कर होकर विनाश या हास पूर्वक कहीं दूर स्थित अमेरिकाके किसी परिचित हो जाता है। एक मामूली लोहे और चुम्बक लोहेमें व्यक्ति तक अपने मनकी बातें मात्र वर्गणाओं फर्क इतना ही है कि चुम्बक लोहेके अन्दरकी वर्गके निकलनेवाली क्रियाओं में तारतम्यता लाकर णाओं में एक मिसिला या तारतम्यता या संगठन
चा सकते हैं अथवा जिधर या जिसका ध्यान रखता है. जबकि साधारण लोहेके अन्दरकी वर्गणाओं हम करते हैं उधर या उस तक वे अपने आप पहुँच में नहीं होनेसे उनकी शनियां आपसमें हो टकराकर जाती है। ऐसा प्रायः देखा जाता है कि दो निकट एक दसरको बेकार (Deutralise) कर देती है । पर सम्बन्धी बहत दर देशोंमें स्थित एक साथ एक समयमें ही एक दूसरेके बारेमें एक ही किस्मकी बातें
जब वही चुम्बक द्वारा एक ही दिशाकी तरफ फेर दी सोचते हैं। यह इतनी दूरी तक कार्यशील शक्ति
जाती है तो उस माधारण लोहेमें भी चम्बककी शक्ति हमारे आत्माकी अपनी शक्ति है, पर वह कार्य
" दृष्टिगोचर होने लगती है । ऐसा नहीं कि यह आकशील या गतिशील केवल वर्गणाओं या पुद्गल
पण और प्रत्याकर्षणको चुम्बकीय शक्ति उस लोहमें द्वारा हो होतो या दृष्टिगोचर होती हैं। आधुनिक कहीं बाहरसे आ जाती हो, यह तो उसकी वर्गणाओं विद्य त या विजलीमें अपार शक्तियां हैं, पर जब में हर समय निहित रहती है पर अव्यवस्था या उस कार्य के योग्य शक्तिशाली यन्त्र होता है तभी बेतरतीबी होनेस बेकार हुई रहती है । जब वही व्यवह कार्य करनेकी क्षमता रखती हुई या कार्य साधन वस्था और तरतीब हो जानेपर इकट्टा एक दिशामें करती हुई देखी जाती है । जैसे एक खास तरहके काम करने लगती है तो हमें सामने उसके कार्य खास काम करने वाले यन्त्रसे दूसरे तरहका कार्य (manifestations) दिखलाई देने लगते है। यही बगैर उस यन्त्रमें उपयुत्त हेर-फेर किए नहीं ले बात आत्मा और शरीरके संबंधमें भी है। शरीर सकते उसी तरह यह जीवधारियोंका भिन्न-भिन्न प्रात्माके वर्तमान रहनस गतिशील एवं चेतनमय है शरीर भी है। मानवशरीर सबसे अधिक क्षमता- और इस तरह पुद्गलकी रचनास सारा काम होता शाली है। पर इसकी भी योग्यताका सतत प्रयत्न है। हां, योग्यता और क्षमताकी शक्ति उसमें वर्ग(practice) और अभ्यास द्वारा विकास किए बिना णाओंमे उचित प्रयत्न द्वारा उचित रूपमें परिवर्तन कछ नहीं हो मकना। शिक्षाकी भी इसीलिए जरूरत पूर्वक लाना आवश्यक है।
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किरण ५]
जीवन और विश्व के परिवर्तनोंका रहस्य
१८१
आत्मा जबतक मुक्ति नहीं पाता पुद्गलके साथ उठा हुश्रा समझ ले तो यह दूसरी बात है। आज ही रहता है। और इस पुद्गलशरीरसे छुटकारा इंगलैंड या अमेरिका वगैरह देश या वहांके देशवापानेके लिए मानवशरीर और उसके पहले अनंता- सी अपनेको उन्नतिशील समझते हैं तो यह उनका नंत पर्यायों द्वारा शाश्वत विकासकी परम आवश्य- कोरा भ्रम है और इसे सिवा अज्ञानतिमिर या अन्धकता एवं निर्भरता है। इसके बगैर यह मोक्ष संभव कारके और कुछ नहीं कहा जा सकता। किसी पेड़ नहीं। संसार द्वारा ही श्रात्मा या यह शरीधारी पर चढ़कर यदि कोई अपनेको संसारसे ऊचा समझ मानव इस शरीरके आधारसे कोई अभ्यास, तपस्या ले तो यह नादानी नहीं तो और क्या ? यही हालत या चेष्टा कर सकने में समर्थ है। इसलिये यह संसार आज चारों तरफ सचमुच हम देखते या पाते है। और शरीर मिथ्या या व्यर्थ न होकर पुरुषार्थकी सच्ची इतना ही नहीं बाकी लोग भो देखा-देखी इसी भ्रमको और असली सिद्धि के लिए परम आवश्यक है। इनका असल समझकर उसके पीछे दौड़ते है। पर अब लाभ जो नहीं लेता उसका दुर्भाग्य ही समझना समय आगया है जब हम सबोंको असली उन्नति चाहिये । लाभ भी तभी ठीक लेना हो सकता है जब और उत्थानको जानना चाहिये और सबको-सारे तत्वोंका ठोक-ठीक ज्ञान हो । अन्यथा सारी चेष्टाएं संसार और सारे विश्वको एक, निकटतम रूपमें एक विपरीत दिशामें किए गए अमके समान ही विफल दुसरेसे संबन्धित और अन्योन्याश्रयी समझकर ही या हानिकारक हैं।
कोई समाज-व्यवस्था ऐसी स्थापित करनी चाहिये मनुष्य अपनेको अकेला समझकर अनादिका
जिससे व्यक्ति भी उठे, समाज भी उठे, देश या राष्ट्र लीन अज्ञानवश या कर्मोंके वशीभत किसी बातकी
भी उठे और सबके साथ संसार ऊपर उठे और इस सिद्धिमें या किसी वस्तकी प्राप्तिमें या सांसारिक तरह मंसारके ऊपर उठनेसे सचमुच ये व्यक्ति, धनके लाभमें अपना स्वार्थ समझकर उसके लिये
समाज, देश या राष्ट्ररूपी इकाइयां भी ऊपर उठे। नाना प्रकारकी चेष्टाएं नीची और ऊंची सब तरहकी
ऐसा करके ही सच्चा सुख सभीको उपलब्ध होगा और करता है और दूसरोंको हानि पहुँचाकर भी उस
स्थायी, शान्ति सब जगह स्थापित होगी। अभी तो अपने ओछे स्वार्थकी सिद्धिका हरएक उपाय करता
जिसे सुख मानकर पश्चिमीय देश आगे बढ़ रहे हैं है, लेकिन यह नहीं जानता कि सचमुच वह अन्तमें
वह मृग-मरीचिका मात्र ही है-जितना जितना वे या फलस्वरूप अपनी ही बड़ी भारी हानि इस तरह
आगे बढ़ेंगे उन्हें यही पता लगेगा कि सुख अभी और करता है। सदा पापपंकमें लीन रहनेसे या सांसा.
आगे है। इस तरह अज्ञान एवं भ्रमके कारण उनका रिक निम्न स्तरपर रहनेसे वह ऊपर कभी भी नहीं
दिन-पर-दिन नैतिक एवं आध्यात्मिक पतन होता जा उठ पाता है और इसीमें अज्ञानवश अपना सुख
__ रहा है-जो एक समय पूर्ण विनाशका ही उत्पन्न और स्वार्थसिद्धि समझता है । जब संसारका
करने वाला हो सकता है। अभी घमंडमें ये लोग इस उत्थान होगा-उन्नति होगी तभी संसारमें रहनेवाले भावष्यका दख नहा पात, जा ठाक नहा । देश, समाज या व्यक्तिका भी सचमुच उत्थान या इतना ही क्यों आधुनिक वैज्ञानिकोंने 'एटमबम' उन्नति होगी अन्यथा संसार यदि निचली स्तरपर (atomic bomb) बनाए- पर उन्हें सब कुछ ही रहे तो उसके अन्दर रहनेवाला या उसीमें युक्त मालूम होते हुए भी वे यह भूल गये कि जिस समय व्यक्ति, समाज या देश कैसे उन्नति या उत्थान कर एटम टूटेगा उस समय परमाणुओंकी जो बाद उस सकता है या ऊपर उठ सकता है। हाँ, भले ही कोई से निःसृत होगी या निकलेगी वह रूसमें होनेपर भी एक सीमित दायरे या वृत्त (sphere) के अन्दर अमेरिका तक पहुंचेगी और अमेरिकामें होनेपर भी पछल-कूदकर अपनेको ऊँचा चढ़ा हवा या ऊपर रूसमें पहुँचेगी और किसी बड़े पैमानेपर इस तरह
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१६० अनेकान्त
[वर्ष १० का युद्ध चाहे संसारके किसी भी कोनेमें क्यों न हो अपने पास के दूसरे मौलीक्यूलोंमें घुसते रहते हैं संसारका जो आणुवीय (atomic)समन्वय, स्थिति- एवं इनकी जगह पहले मौलीक्यूलमें पासके दूसरे करण, संतुलन(balance) है वह एकदम भंग होकर मौलीवयूलों (वर्गणाओं) से परमाणु श्राकर लेलेते सभी जगह सभी कुछ छिन्न-भिन्न (disintegrate) है। यही बात जब कोई बाहरी शक्ति काम करती है कर सकता है। इन वैज्ञानिकोंका इधर ख्याल क्यों तो अधिक तेजो या परिमाणमें होती है जैसा कि नहीं गया यही ताज्जुबकी बात है-पर यह तो,केवल बिजली उत्पन्न करने में आज-कल हम सामने प्रत्यक्ष "विनाशकाले विपरीतबुद्धिः" द्वाग होना कोई पाते है। इस तरहके आवागमनसे वर्गणाओंके या आश्चर्य नहीं | अबसे भी यदि लोग चेत जांए मूलसंघोंके गुणोंमें कोई हेर-फेर नहीं होता, वे ज्यों-के. तो संसारका विनाश बच सकता है। त्यों रहते है। जब केवल उनकी अन्दरूनी बनावटमनुष्य या कोई जीव या संसारकी कोई भी वस्तु तरतीब या (setting) में फर्क पड़ता है तभी उनके अकेली नहीं है सबका एक-दमरेके साथ अभिन्न गुणों और स्वभाव या प्रभावमें भी परिवर्तन हो या मन्निकट सम्बन्ध (relation) है। हम सब जाता है । अथवा किमी एक वर्गणामें मिलकर उस साथ-साथ चलकर ही ऊपर उठ सकते हैं और वर्गणाका सृजन करने वाले कई एक मलसंघों मेंमे अपना एवं दूसरोंका या मबका भला एक साथ कर किसी एक मलधातु (element) का एक तरह का सकते हैं। बाकी दूसरे तरह का कोई भी विचार मृलसंघ निकल जाय और दूसरी घस्तुओंसे या मिथ्या, भ्रम एवं अज्ञान या अहंकारमय कोरी बहक दृसरी वर्गणाओस दृमरे मृलधातुका मूलमंघ उसमें ही इसे बनाए रखना आविरमें हानिकर और आकर मिल जाय तो दस प्रक्रियाको रामायनिक दूर करना या छोड़ना ही लाभदायक एवं मुग्व- प्रक्रिया (chemical reaction) कहते है और तब कर है।
वर्गणाका म्वभाव और प्रकृति एवं गुण बदल जाते (१६) हमारे शारीरिक परिवर्तन—जैसा हैं और हम कहते हैं कि एक वस्तु बदलकर दुमरी आधनिक वैज्ञानिक कहते हैं, मलसंघों ( एटम हो गई या ऐमी दो वस्तुओंको मिलानेपर जिनमे utams) की बनावट या आन्तरिक संगठन और रासायनिक क्रिया हो सकती है उनसे एक तीसरी तरतीब कुछ उसी तरह की है जैसे हमारा सूर्यमंडल नई वस्तु नए गुणों और प्रभावोंवाली उत्पन्न हो है-जिसके बीचमे सूर्य और चारों तरफ ग्रह-उपग्रह गई। यही बात जैसे रसायन-शास्त्रमें है वैसे ही और नक्षत्र मंडल है । कई एक मूलसंघ मिलकर
मनुष्यके शरीरके अन्दर भी होती है। सभी जीवएक वर्गणा--(मौलीक्यूल (molecule) का सृजन
धारियोंके साथ भी यही बात है। करते है । एक-एक 'एटम' या 'मलसंघ' में कितने- विज्ञान कहता है कि पानी (जल) स्वयं तत्व या कितने परमाणु रहते है इसका ठीक-ठीक अन्दाज मूलधात (element) नहीं है । इसमें दो मूलअभी विज्ञानकी जितनी जानकारी है उसमें नहीं धातओंका संयोग है-एक 'हाईडोजन' और दूसरा हा है। यों भले ही काम चलानेके लिए इकाइयां 'आक्सिजन'-पानीका रासायनिक निशान है (units) मान ली गई है । एक एक 'मौलीक्यूल' या 120-जिसका मतलब है कि पानीको एक वर्गणा 'वर्गणा' में अनगिनत परमाणु होते है या हो सकते या मौलीक्यूलमें हाईड्रोजनका दो मूलमंघ (aton) हैं। ऐसी हालतमें यह होता है कि बाहरसे सब कुछ और आक्सिजनका एक मूलमघ या एटम रहता स्थिर दीखते हुए भी अन्दर कोई ऐसी बात होती है। दोनों गैस या हवाएं हैं। पर दोनोंके मिलनेसे रहती है जिससे किसी एक मौलीक्युलके कुछ परमाणु एक तरल पदार्थ-जल बन जाता है। यदि जलको (electrons) अपनी जंगहम छूटते रहते हैं और बनाने वाले इन दोनों मूलधातुओं (elements)
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किरण ५] जीवन और विश्वके परिवर्तनोंका रहस्य
१६१ में किसी उपाय-द्वारा विभाजन किया जाय तो ये व
रणाम-इस कार्माण शोरर दोनों फिर अपने गैस(gas)के रूपमें आ जावेंगे। के बनाने वाली(Imolecules constituting this इसी तरह गंधकके तेजाबका रासायनिक चिन्ह है Invisible and imperceptible body) वर्ग(H,so), जिसका मतलब है कि इसकी एक णाओंको हमारे यहां आठ भागोंमे विभाजित किया वगणामें दो एटम हाइड्रोजनके, एक एटम गंधकका गया है जिन्हें अध कर्म कहते हैं। इन अष्टकों
और चार एटम आक्सिजनके होते है। यदि इस या आठ तरह की पुदगल वर्गणाओं(जिन्हें ही संक्षेप गंधकके तेजाबको तांबेके साथ युक्त करें तो यह होगा में "कर्मवर्गगणा" या उससे भी अधिक संक्षेपमें कि हाइडोजन अलग हो जायगा और तांबेके साथ "कर्म कहते हैं के आने और शरीरके अन्दर लगने गंधक और आक्सिजन वाला भाग तांबे (copper) बनने इत्यादि का तथा उनको आत्मा या शरीरसे के साथ मिलकर एक नई वस्तु (substance) बना अलग करनेका या रोकने इत्यादि का भेदकर आस्रव, लेगा। इस नई वस्तुका स्वभाव, बनावट गुण एवं बन्ध. संवर. निर्जरा और मोक्ष ऐसा विभेद करके प्रभाव सभी कुछ गंधकके तेजाबसे भिन्न होगा। फिर पांच अध्यायोंमे छोटे बड़े प्रथानुकूल विस्तृत तो यह तेजाब भी नहीं रह जायेगा और जो तेजाब और विशद या संक्षिा वर्णन हर जगह जैनकी तेजी पहले वाले द्रव्यमें थी वह एकदम समाप्त हो शास्त्रोंमें मिलेगा। जाएगी। इत्यादि । यह तो हुआ बेजान वस्तुओंकी बाहर आनेवाली वर्गणाओंका शरीरके अन्दर रासायनिक क्रिया-प्रक्रियाका संक्षिप्त दृष्टान्त । जानदार
विद्यमान वर्गणाओंके साथ मिलकर रासायनिक वस्तुओं या जानदार शरीरोंके अन्दर जो क्रिया
- क्रिया-प्रक्रिया रूपसे कुछ स्थायी परिवर्तन उनकी प्रक्रियाएं होती हैं वे इतनी सरल या साधारण न
बनावटमें कर देना ही 'बन्ध' है। यह बात हमारे होकर बहुत ही जटिल एवं क्लिष्ट(complex) होती
शारीरिक या मानसिक हलन-चलन-द्वारा भी शरीरक है। जब भी हम भोजन-पान करते हैं तो जो कुछ
अन्दर विद्यमान धातुओं या वगणाओंमे क्रियाहमारे शरीरके अन्दर रस जाता है उसकी मूलधातु
प्रक्रिया होकर होती रहती है। शरीरके अन्दर विद्यमान वर्गणाओंके साथ क्रिया
वर्गणाओंकी बनावटमें संयत आहार-विहार प्रक्रिया द्वारा मिल-मिला या बिछुड़कर काफी परिव- ,
और भावोंकी शुद्धता-द्वारा इस तरह का तन हर तरह की वर्गणाओंमें ला देती हैं। जिनका
परिवर्तन लाते जाना कि उनका प्रभाव धुधलापन असर शरीर एवं मन या बुद्धिपर तुरन्त होता हुआ
या अन्धकार उत्पन्न करनेवाला न होकर प्रकाशमय हम देखते हैं।
(transparent) होता जाय तो हमारा ज्ञान अधि. जो पुद्गल-मैटर (matter) जीवधारियोक काधिक शभ्र होता जाता है। ये हो वर्गणाएं पूर्णरूप साथ लगा हुआ उनके शरीरका निर्माण करता है में स्वच्छ निर्मल हो जानेपर संसारकी सभी वस्तुएं उसे जैनशास्त्रोंने दो मुख्य भागोंमे विभक्त किया है- ज्या-की-त्यों हमारे अन्दर झलक जाती है और एक तो वह सूक्ष शरीर है जो इन्द्रियों द्वारा देखा या हमारा ज्ञान पूर्णताको प्राप्त कर पूर्ण निर्विकल्प दशा जाना नहीं जाता और जिसे कर्माण शरीर कहते है, को उत्पन्न करता है जब मोक्ष लाभ हो जाता है। ।
और दूसरा स्थूल शरीर है, जो हाड़ मांस-मय हम जिन वस्तओंको जिस अवस्थामें देखते हैं दिखलाई देता है। यह कामणि शरीर आत्माके उनका बड़ा स्थायी असर हमारे ऊपर अनजानमें ही साथ तब तक रहता है जब तक मुक्ति या मोक्ष पडता रहता है। जिस रूपका हम ध्यान करते है नहीं होता।
उसका भी बड़ा प्रबल प्रभाव हमारी वर्गणाओंके (१७
परिवर्तनादिमें पड़ता है। वर्गणाएं जो भी वस्तुसे,
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१६२
अनेकान्त
वर्ष १०
शरीरसे, रूपसे निकलती हैं वे उसीछापकी इस सूक्ष्म उसके अनुसार ही यह शरीरधारी आत्मा सारी सांसा. रूपमें पूरीकी पूरी बनी रहती हैं जिसके कारण ही रिक अवस्थाओंसे होता हुआ जब ऐसी अवस्थामें हमें उनके विशद मांमारिक रूपका पूरा ज्ञान होता पहुँचता है जहाँ उसके वर्तमान शरीरकी कार्माणहै। ये वर्गणा लगातार और अधिक समय तक वर्गणाओंकी बहुसंख्याका स्थानीय वातावरणकी देखने या ध्यान करनेसे हमारे शरीरके अन्दरकी वर्ग- वर्गणाओंकी बनावट या स्थिति (setting) के साथ णाओंमें भी परिवतेन लाकर उन्हें उसी रूपका भरसक अनुकूलता नहीं रहती तो आत्मा इस पार्थिव-स्थूल अधिक-से-अधिक बनाती जाती है। तीर्थकरकी मूति- पुद्गल शरीरको छोड़कर कामणि शरीर के साथ ऐसी का दर्शन या रूपका ध्यान करते रहनेसे हमारा रूप जगह चला जाता है जहां उसका वर्गणाओंकी अनभी हमारे अनजानमें वैसा ही अपने आप होता जाता रूपता अधिक से अधिक संख्या. मात्रा या परिमाण. है। स्त्रीरूपसे किसी देवाका बराबर ध्यान करनेसे में होती है। वर्गणाओमें अपने श्राप एक स्वभाव, जैसे भाव होंगे वैसा ही गठन हमारे शरीरका भी प्रकृति या विशंपताका निर्माण हुआ होता है और होता जाएगा। वीरका ध्यान करने से वीर, भयंकरा- वह योनि या पर्याय भी उसीके अनुकूल होती कृतिसे भयंकरता, शांताकारसे शांतता इत्यादि है। सारे विश्व में ऐसे समय वर्गणाओंकी सबसे स्वभावमें उसीत रहकी वर्गणाओंके बननेसे आती है। अधिक अनुकूलता केवल एक ही स्थान और निराकार ध्यान दि संभव हो तो वह मोक्षमे परम एक ही पर्याय मे होती है। केवल इमीस हम सहायक है। बाल्यरूपका ध्यान करनेस बूढ़ा भी किसी जीवधारीके शरीरकी रचना करने वालो वगजवान हो सकता है। इसीलिये ध्यान, पूजन, जप णाओंकी अनंतता एवं विविधताकी महानताका वगैरहकी महत्ता सभी भारतीय धर्मोमे बहुत बड़ी अनुमान कर सकते हैं। दृष्टान्तके लिए ऊपर मैंने कही गई है।
वर्गणाओंकी संख्या और किस्में केवल एक सौ मान इसके अतिरिक्त भी तो कारण शरीरम सर्वदा ली है; पर व अर्गात, असंख्य और अनंत है। अदल-बदल हेर-फेर वर्गणाओंकी बनावटमे होता अनंत होते हुए भी उनमे व्यवस्था है, यही सबसे ही रहता है, जिसे हम कर्मोका बंध कहते है और बड़ी खूबी है। और इसी व्यवस्थाके कारण ससार उसीके अनुरूप हमारा सारा व्यवहार एवं आचार या विश्व एक परम व्यवस्थितरूप, चाल या गतिमे होनेसे हमे फलस्वरूप मुख-दुःख की प्राप्ति एव अनु- चलता जाता है। सभी परिवर्तनादि सुव्यवस्थित भव होता रहता है। कोई भी जीव अकेला दुख- एवं सुचारु रूपसे ही होत है। कहीं गड़बड़-शड़वड़ सुख अनुभव करनेमे समर्थ नहीं । यद्यपि दुख सुख या अव्यवस्था नहीं । यदि किसी मनुष्यका देहान्त तो अकेला ही अनुभव होता है पर उसमे निमित्त हो जाता है और मान लिया कि उसे पहले सुजाककी कारण सारा संसार ही है। मुख्य निमित्त तो कोई बीमारी थी तो उसकी कामाण-वर्गणाओंमें ऐसी व्यक्ति स्वयं है और संयोगिक (casual) निमित्त वर्गणाएं भी होंगी जो इस बीमारीसे संबन्ध रखती बाकी सभी कोई या सभी कुछ है । अकेला रहने में है। ऐसी हालतमें यदि उसकी वर्गणाओंका संगठन न दुख होता है न सुख न उनके कारण ही हात है- (seting) ऐसा हो गया है कि पुनः उसका दूसरा पर कि किसी भी व्यक्ति या जीवधारीक साथ जन्म मनष्यका ही होगा तो मरनपर उसका आत्मा चारों तरफ एक पूरा भरा संसार है और सबका ऐसे ही मनुष्यके वीर्य में जायगा जिसको यह बीमारी असर सबके ऊपर अनिवार्य रूपसे अक्षुण्ण पड़ता है हो। इस तरह यह कहना कि पिताके पापोंका फल इसीलिये दख सुख भी है।
सन्तानको भोगना पड़ता है वह गलत है। फल तो कार्माण शरीरमें जो परिवर्तन होता रहता है हर एकको अपने अपने कर्मका ही भोगना पड़ता है।
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किरण ५ जीवन और विश्वके परिवर्तनोंका रहस्य
१६३ परन्तु सांसारिक भाषामें एक राजाके पापों या गल- अंक तो बहुत ही छोटा है कर्म वर्गणाओंकी संख्या तियोंका कटु फल उसके सारे देशको भुगतना पड़ता हमारी संसारी भाषामें असंख्य, अगणित या अनहै ऐसा कहा जाता है। यदि सूक्ष्म दृष्टिसे इसका तानंत है। फिर भी उनकी संख्याकी एक कोई खास विश्लेषण किया जाय तो अंतमें यही मिलेगा कि गिनती विराट विश्वकी गणनामें अवश्य है; क्योंकि वह सबका सब फल उन सारे लोगोंके अपने कर्मोका सारे संबन्धित कार्य गणितके अंकोंकी गणनाके ही था जो एक खास तरहकी वर्गणाओंमे निर्मित समान ही निश्चित और स्थायी या फलवाले पूर्ण शरीरके कारण एक-सी दशा, जगह, देश या स्थान व्यवस्थित होते है। एक ही नक्षत्र में और एकसां इत्यादिमे जन्म लिए हर है और फिर सबको परिस्थितियोंमे जन्म लिए दो मानवोंका भाग्य प्रायः एक-सी परिस्थितिका सामना करना पड़ा या फल एकसा होता है। जो कुछ विभिन्नता होती है वह भुगतना पड़ा।
इनमे कुछ फर्क होने तथा और दूसरी बातोंमें फर्क कोई काम या बात सहसा एकाएक नहीं हो होने की वजहसे ही होता है। इत्यादि । विराट विश्वजाती-उसके होनेका बीज बहत समय पहलेस रूपी शरीरका हर एक जीव एक अंग है चाहे वह बोया हुआ रहता है। आज हम किसी मनप्यके भले ही तुच्छ-स-नुच्छ क्यों न हो। हर एकका कोई साथ बात कर रहे है या कोई व्यापार करके लाभ खास काय, कतव्य, उपयोग और उद्देश्य (use & उठाते है वह मनुष्य कितने वर्षों पहले उत्पन्न हुआ purpose) होता है। कुछ भी या कोई भी व्यथे और था। आज जो अन्न हम खाते है वह भो कितने बंकार नहीं। हमार भाग्यके बननेमे ता प्रथमतः हमी समय पहले उत्पन्न किया गया था। और न जाने जिम्मदार है पर निमित्त और उसकी सिद्धि या कितने लोगों द्वारा कहां कहांसे लाकर हमारे पास गठनमें सभीकी सहायता सन्निहित है। इस संबन्ध पहुंचा, तब घरमे उसे पकाकर भोजन बनाया गया और स्थितिसे तो छुटकारा केवल तभी मिलता है जब
और हमे खानको मिला इत्यादि। यदि बहत ही जीव सांसारिक जीवन-मरण छोड़कर मोक्ष लाभ सूक्ष्मरूपस और गहरे गहर पैठकर देखा जाय तो कर लेता है। यह सब सिलसिला अनादिकालसे ही अपने स्वाभा- देखने में तो सभी मनुष्य बाहररो एकसां मनुष्य विकरूपस चलता चला आता मालूम होगा। हम है-पर हर एकका रूप, स्वभाव, चहरा माहरा, एक रुपयेकी काई चीज विलायतकी बनी यहां बोली, चाल, लिखनेके अक्षर, शब्द उच्चारण, भाव खरीदत है उसमें न जान कितनाका हिस्सा भाग या सब कुछ भिन्न भिन्न है। सबकी वर्गणाओंमें इतनी भाग्य सन्निहित है-यदि विशदरूप में देखा जाय काफी विभिन्नता है कि एक जीव जो जन्म लेनेवाला तो संसारके अधिकमे अधिक लोगोंका हिस्सा किसी है मंसारक सार मनुष्योंसे केवल एकके ही वीर्यमें एसी वस्तुमे सन्निहित मिलेगा। सभी एक दसरस उसके लिए अपनी वर्गणाओंकी समानता या अनरूसम्बन्धित है।
पता मिलेगी और वह वहीं जायगा। दो स्थान एक ऊपर सजाककी बीमारीवाले जीवात्माके ही समान उसके लिए नहीं है-या यदि णिक रूपमें बारेमे कहा गया है। यदि मान लें कि उसकी कार्मा कहीं एसी बात हो भी जाय तो परिवर्तन-द्वारा वह वर्गणाओं की संख्या सौ है तो जहां उसकी वगेणा- क्षणिक ही रहेगी। अन्यथा तो इस तरह जन्म लेने ओंकी सबसे अधिक संख्यामें समानता होगी उसी वाला जीव बीच में ही लटका रह जायगा जब तक पुरुषके वीर्य में उसका गमन होगा। जैसे किसीके एकान्त समानता न प्राप्त हो । मानवयोनि ही क्यों, ६६ वर्गणाओंकी समानता है-किसीके ६६, किसीके सारे विश्वमें देव, गंधर्व, मानव, जीव, जन्तु, ६५ तो वह ६६ वालेके वीर्यमें ही जायगा। पर यह कीड़े, मकोड़े, पड़, पौधों इत्यादि सभी अनंतानंत
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१६४
अनेकान्त
[वर्ष १०
योनियों और जीवधारियोंकी तुलना पर भी वह पाया हूँ। हमारे यहां जीवोंके इन्द्रियोंके विकासाजन्म लेनेवाला जीव केवल एक ही जगह पैदा होगा नुसार पांच भाग किये गये हैं। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, या जन्म लेगा या उसका गर्भ गमन होगा। विषय तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । पञ्चेन्द्रियमें बड़ा ही निगूढ़ है और इसकीधारणा(couception) भी असैनो बेमनवाले और सैनी मनवाले हैं। मेरा जरा गम्भीरतापूर्वक विचारनेसे ही होना संभव ख्याल है कि एक दफा जब जीव एकेन्द्रियसे द्वीन्द्रिय है। यहां सब बातोंका ब्योरे वार वर्णन संभव पयोयका शरीर धारण कर लेगा तो पुनः वह एकेनहीं, न शक्ति ही है और न सब कुछ लिखनेका न्द्रिय शरीर नहीं प्राप्त करेगा इत्यादि । एकेन्द्रियमें समय ही है।
असंख्यात योनियां या पर्याय है उसी तरह द्वी
न्द्रिय वगैरहमें भी अलग-अलग असंख्यात योनियां___ जिस समय किसी जीवका या मनुष्यकी एक
पर्याय है । जब जीव एक दफा पञ्चेन्द्रिय शरीर देहका अंत होता है यानि उसकी मृत्यु हो जाती
धारण कर लेगा तो वह फिर पन्चेन्द्रिय पर्यायोंमें है तब उस जीवके कर्माण शरीरकी बनावटमें जो ही घमता रहेगा न कि नीचे चला जायगा। हां, देव परिवर्तन पहलेसे हुआ रहता है एवं जो स्थूल पुद्गल
एवं नारको अवश्य हो सकता है जो एकदम भिन शरीरको छोड़नेके समय एकदम होता है वही उससे ।
पर्याएं ही है। जो कुछ भी हो, एक अनेकान्तका (space) क्षेत्रोंके फैलाव (size) का आकार अगले मानने वाला मेरे इस मतभेदको बुरा नहीं मानेगा। भव. जन्म, योनि या पर्यायके अनुकूल बना देता अभी तक तो मेरा ऐसा ही ख्याल है कि संभवतः है । या वर्गणाएं स्वयं परिवर्तित होकर उस अगली तीर्थकरोंके कहे हुएमें बादको लोगोंने अपने मनसे योनि वाले शरीरको धारण करनेके अनकूल रूप इस बातको या इस प्रकारके भयको इसलिए जोड़ एवं अवस्था और आकार (size) फैलावमें बन दिया है कि अज्ञानी या मुढ मानव या थोड़ ज्ञानसे जाते हैं। जब एक बाल (Haii) की नोक असंख्य ही अपनेको पूर्ण समझनवाले लोग स्वेच्छाचारी वर्गणाएं हैं तो फिर एक अदने अणुवीक्षणीय होकर नीचे न गिर जांय । यही नहीं और भी कितने जीवमें भी अनगिनत या बहुत बड़ी संख्या वर्ग- ही विषयोंमें ऐसा हुआ जान पड़ता है। णाएं हुई तो इसमे क्या ताज्जुब । और भी यह कि यह तो निश्चित बात है कि जीव परमसूक्ष्म वर्गणाओंमें परिवर्तन तो होता ही है-मृत्युके समय अपर्याप्त निगोदिया शरीरसे निकलकर क्रमविकास जो वर्गणाएं अधिक होती हैं अपने आप छुट जाती द्वारा ही मानवशरीर या और बड़ा महामत्स्यका हैं-या यदि कम हों तो और जुट जायँगो । एक शरीर धारण करता है। हर समय आत्मा या जीव हाथीका शीरीर एक मानव या चूटो या इससे भी वही रहता है। इसलिए उसमें यह योग्यता तो छोटे जीवके शरीरमें जा सकता है या ठीक इसके बराबर ही बनी रहती है कि इस तरह बड़ा-से-बड़ा विपरीत भी बात हो सकती है। इसमें कोई कठिनाई शरीराकार भी हो जाय और फिर सूक्ष्म-से-सूक्ष्म या असंभवता नहीं।
या छोटे-से-छोटा निगोदिया आकारका शरीर भी नोट-पर यहां पर मै स्वयं जैन शास्त्रोंमें वर्णित धारण कर ले । यह योग्यता उसमें अवश्य सर्वदा कुछ बातोंसे अपना मतभेद रखता हूं। मैं तो शाश्वत रहती है । पर ऐसा कहनेका तात्पर्य लोगोंने बादमे क्रमविकास (eternal evolution) में विश्वास
गलत लगा लिया जान पड़ता है कि वह पुन: मानवरखता हूँ फिर उनका यह कहना कि एक मानवका भवसे निगोदिया भव या पर्यायमें चला जायगा। जीब भी पुनः निगाद या एकेन्द्रिय वनस्पति पर्याय- यही मेरा मतभेद होता है । में जन्म ले सकता है इसे अभी तक मैं नहीं मान- यदि सचमुच देखा जाय तो गीताका यह वचन
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जीवन और विश्वपरिवर्तनोंका रहस्य
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कि "कर्मण्येवाधिकारस्ते" एकदम गलत हो जाता आत्मज्ञानी ही जान सकता है। बतलानेको तो है। मनुष्य कर्म करनेके लिए भी परम स्वतन्त्र या बहुत कुछ शास्त्रों में कथनोपकथन हो चुका है। पर स्वाधीन नहीं । जव स्वाधीनता नहीं तब फिर अधि- स्वच्छ सच्चा ज्ञान तो स्वय' दर्शन और अनुभव कार कैसा ? पर सांसारिक भाषामें ऐसा कथनोप. द्वारा ही होता है। कथन होता है और ऐसा न होनेसे फिर तो अज्ञानी संसारकी सारी व्यवस्थाए इसीलिए बनी हैं कि मानव बातोंको ठीक-ठीक नहीं समझनेके कारण कहीं व्यवधान न हो और सब काम ठीक-ठीक चुपचाप बैठ जाय, कुछ कर्म या क्रिया संसारमें न यथानुरूप और यथायोग्य एवं यथोचित होता करे यह गलत धारणा बनाकर कि जो कुछ होनेको जाय । मानव-जीवनका एकमात्र ध्येय ही है अविरल होगा वह तो अपने आप होगा ही। बात तो है सच- कर्म । संयमित कर्म, संयमित आचार-व्यवहार, मुच ऐसी ही पर इस अर्थमें नहीं जिस अर्थमें एक संयमित खानपान, संयमित बोलचाल वगैरह ही अनद्यमी, श्रमसे देह चुराने वाला या आलसी हमें मोक्षमार्गकी तरफ अग्रसर करते है। चुपचाप आदमी सोचकर या मानकर चुपचाप पड़े रहनेका बैठे रहना नहीं । जब कर्मवर्गणाओंमें परिवर्तन एक आसान बहाना निकाले-जैसे कि उसका जन्म होकर जरूरत मुताबिक शुद्धता आवेगी तभी कुछ संसारम व्यर्थ ही हो और उसके जन्मका कोई मत- हो सकता है और यह परिवर्तन वगैर कर्मके हो ही लब, ध्येय या अथे एकदम न हो, न उसका अपना नहीं सकता। और इसके अलावा भी भले ही कोई पार्ट (part) ही अदा करना हो । पर वह काम भ्रमपूर्वक मान ले कि वह कर्म नहीं कर रहा है या करे या न करे खाना-पीना भी तो एक काम ही है- ऐसा संभव है पर यह क्षणिक ऊपरी ही होगा न यह भी तो तब उसे छोड़ देना ठीक था-पर ऐसी स्थायी होगा न सचमुचका ही, न संभव ही है। बात नहीं है। संसार तो अग्रसरहोता ही जाता है- आज जो हम कर्म करते हैं उसकी प्रेरणाका बीज न
और उसमें उसे अपने भागका पाटे अदा करना हो जाने किस समय हुआ था-जिस वर्गणाके प्रभावपड़ेगा चाहे वह खुशीसे करे या दुखके साथ। में जो कर्म होता है न जाने किस भव या किस इत्यादि ।
जन्ममें-जो अनादिकालसे अब तक होता चला आत्मामें स्वयं अपना वीर्य ऐसा है कि जो उसे आया है-उसका गठन हुआ था-कौन जानता सतत विकास-द्वारा पुद्गलोंसे छुटकारा दिलानेमें है ? इत्यादि । सब कुछ अपने आप होते हुए भी समर्थ होता है। आत्माकी तर्क और बुद्धि द्वारा सबका सहयोग एवं सबका सहगमन अनिवार्य है। जितना जाना जा सकता है उतना शास्त्रों द्वारा हम बड़ी भारी विराट विश्व-मशीन या विराट हम जान पाते है बाकी तो स्वयं अनुभव द्वारा ही विश्व-शरीरके एक अंग या एक पुर्जामात्र हैं। अपनेजाना जा सकता है। जैसे साधारणतः मोटे तौर पर को अलग समझकर भ्रममागमें चलना नादानी, भी जिस चिड़ियाको हमने स्वयं आँखोंसे न देखा अज्ञानता या गलती ही है। हो उसके किसी दूसरे द्वारा जबानी वर्णनसे हम व्यक्तिकी कौन कहे, किसी देशका भाग्य भी ठीक-ठीक सच्चा अनमान नहीं लगा सकते या अंगूर सैकड़ों हजारों वर्षोंसे होते आए इतिहासका ही जिसने स्वयं न चखे हों उसके स्वादका अनुभव अन्तिम वर्तमान फल (resultant) होता है। किसी केवलमात्र दुसरेके वर्णनसे नहीं हो सकता । फिर धनीका लड़का अपने बाप-दादेका अर्जन किया धन
आत्मा तो वर्णनातीत ही है । केवल अनुभवगम्य जब प्राप्त करके मौजें उड़ाता है तो उसके इस तरहके है। तब आत्माका वह वीर्य क्या है जिसके कारण मनोभावों, आचार-व्यवहार एवं आचरण वगैरह वह पुद्गलोंसे छुटकारा पा जाता है यह बात तो की रूपरेखा बनानेमें वह उसके पुरुखाओं द्वारा
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अनेकान्त
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ही है । पर चारित्र भी सच्चे मार्ग वाला ही ठीक है । भ्रममार्ग एवं ढोंग और आडम्बर व्यर्थ तो है ही हानिकारक भी है । चारित्र हो तो ज्ञानप्राप्तिका सर्वप्रथम उद्योग या चेष्टा करके जितना भी हो शुद्ध ज्ञान उपलब्ध कर लेना चाहिए तभी आत्माकी शुद्धि उत्थान और कल्याण हो सकेगा । अपना सच्चा कल्याण ही लोक कल्याण है और लोक-कल्याण ही अपना सच्चा कल्याण है। हिंसात्मक साम्यवाद (communism ) से गुत्थियों को नहीं सुलझाया जा सकता है, केवल यहिमात्मक 'समतावाद' (Equalism) से ही संसार के दुःखों और अशान्तिका अन्त होना संभव है । 'समतावाद' (Equalism) साम्यवाद (communism ) का ही पूर्ण अहिसात्मक रूप और नामकरण है। जब तक सामाजिक विषमता रहेगी एक शोषण करने वाला तथा दूसरा शोषित रहेगा ही । यथासंभव आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक 'समता' (Fquality) व्यक्ति, देश एवं संसारकी उन्नति के लिए परम आवश्यक है । ऐसा होनेने ही विश्व में सच्चा सुख एवं स्थायी शांति स्थापित हो सकती है ।
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अर्जित किया धन ही मुख्य कारण होता है । यह धन नहीं रहता तो उसका रहन-सहन जीवन दूसरा ही होता। इस तरह उसके जीवन या कार्योकी नींव न जाने कितने वर्षों पहले ही पड़ गई थी। उसी तरह देशों के भाग्य के साथ भी बात है और देशोंका भाग्य विश्वके उतार-चढ़ाव के साथ ही संबन्ध है । आज एक साधारण भारतवासी आधा पेट भी खाना नहीं पाता है और इंगलैंड वाला उससे तिगुना खाता है और मौजें भी करता है । इसका कारण तुरन्तका श्रम या कामना नहीं है पर सैकड़ोंहजारों वर्षोके वातावरण - इतिहास और श्रमका संयुक्त फल ही है ।
(१८) व्यक्ति आदिकी उन्नति में आवश्यकीय भविष्य की बातें लोग बतलाते हैं या ज्योतिषी काफी ठीक-ठीक गणना कर देते हैं- - यह कि सब आखिर क्या साबित करते है ? - यह कि भब कुछ गणित अङ्कों के जोड़, घटाव या गुणनफल या भागफलके निश्चित परिणामके समान ही निश्चित है । न एक अंक इधर हो सकता है न उधर । हां, किसीकी गणना गलत हो तो दूसरी बात है— पर विश्वकी व्यवस्था में कोई गलतीकी संभाबना नहीं । कोई भी व्यक्ति इन बातोंको समझकर और अधिक अध्यवसायी एवं सचेष्ट हो जाता है न कि निष्क्रिय, लापरवाह, श्रालसो और ढीला-ढाला । निष्क्रियता किसी कमी ( defect) गलती या भ्रमकी सूचक है । किमी मनुष्यमें जब ऐसे भाव उत्पन्न हों तो उसे हटाने की चेष्टा करनी चाहिये क्योंकि सक्रि यता ही जीवन और निष्क्रियता ही विनाश है । विश्वकी व्यवस्थाओंक निश्चत रूपका ज्ञान होजाने पर तो आकुलता, उद्वेग और उत्तेजनादिकी कमी होकर निराकुलता, शातता एवं 'समता' को वृद्धि होनी चाहिए । ज्ञानके साथ चारित्रका विकास ही वांछ नीय है । बिना ज्ञानके चारित्र ढोंग और अहंकार को ही उत्पादन करता है। फिर भी चारित्रका शुद्ध होना तो हर हालत में अच्छा, वांछनीय एवं जरूरी
(१६) संतानादि के भविष्य की उज्ज्वलतामें आवश्यक कर्त्तव्य
- जिस समय कोई जीव गर्भमें आजाता है उसके ऊपर अक्षरण रूपने माताके रहन-सहन, खान-पान, व्यवहार और भावनाओंका असर पड़ता है। उस जीवके शरीर में भी उसी अनुरूप वर्गणाओंका सृजन होता है । अतः माताके लिए देह परम आवश्यक है कि ऊंचे उन्नतिशील - शुभ्र भाव रखे एवं खानानादि ठीक रखे। तभी संतान उन्नतिशील होगी । पिताका वीर्य होनेसे पिता के स्वभावका असर तो रहता ही है- पर माता के सहयोग में इस तरह खराब असरोंको कर और बुरी वर्गणाओं को भी परिवर्तित कर अच्छा बनाया जा सकता है। अतः व्यक्ति या संसारके उज्ज्वल भविष्य के लिए यह परम आवश्यक है कि स्त्रियोंको पूरा सुविधाएं एवं हर एक साधन इसके
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किरण५]
जीवन और विश्वके परिवर्तनोंका रहस्य
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लिए उपलब्ध बनाए जाएँ तथा उन्हें हर तरह ऐसा छोटापना, तुच्छता एवं प्रात्माको नीचा ले जाना योग्य बनाया जाय कि भावी सन्तान उन्नतिशील ही वाला अकल्याणकारक है। हर एक बात या विषय हो। संसारको उन्नतिके लिए स्त्रियोंकी उन्नति सर्व पर स्वयं अपने आप मनन करके उससे समुचित प्रथम आवश्यक है।
निर्णय निकालनेकी आदत डालकर स्वतन्त्र बुद्धिके व्यक्ति समाज और देश या राकी उन्नतिक विकासका सिलसिला उनमें उत्पन्न करना आवश्यक लिए माताओं (स्त्रियों) की महत्ता पुरुषोंसे कई
है। वर्तमानमें धर्मोका जो रूप हो गया है वह इस गुनी है । स्त्रियां उन्नत-शील विचारों वाली होंगी बुद्धिक विकासको एक-दम संकुचित कर देता है, जो तो संतान भी स्वाभाविकतः वैसी ही या उन्नति
आगे चलकर सारे द्वन्द्वों, उत्पातों, संघर्षों और
युद्धोंका मूल कारण हो जाता है । धार्मिक संकुचितता शील झाकाववालो होनेसे असानीसे तरक्कीकी
दूर करना आवश्यक है यदि विश्वशान्ति सचमुच सरफ बढ गी-अपनी भी तरक्की करेगी-शुभ्र
इष्ट हो तो । ज्ञानकी वृद्धि हो जानपर स्वयमेव आचारणों और उंचे विचारों वालो होगी एव उसक व्यक्ति अपना मार्ग और धम, विश्वास और सिद्धांत सहयोग या संगतिमें आनेवाले भी उसके प्रभावसे चन लेगा। एसा करके हो लोककल्याण और शुद्धता प्राप्त करेंगे और उसकी अगली संतान भी व्यक्तिका सच्चा कल्याण हो सकता है । स्वयं उठों अच्छे वीर्यसे होने के कारण उत्तरोत्तर अच्छी होगी। और दसरोंको भो उठाओ तभी हमारा उठना भी इसी तरह समाज देश या राष्ट्र उन्नतिशील और स्थायी हो सकता है। किसीको तुच्छ, छोटा, नीच शुद्ध आचारणों वाला हो सकता है। इसके लिए वगैरह समझना स्वयं अपने भावोंको ऊपर उठने स्त्रियोंकी शिक्षा और उन्हें सुनंस्कृत करना पुरुषों- नहीं देता न शुभ्रता ही लाने देता है। हम अहकार की अपना पहले और अधिक आवश्यक है। पर में सच्ची उन्नति और उसका ठीक सत्य मार्ग भूल अभी तो सभी कुछ उलटा ही होता आया है और कर ढांग और मायाचारको अपना लेते हैं। यह अभी भी हो रहा है । मंसारके सच्चे उत्थानके अन्त में आत्माको गिरानवाला अकल्याणकारी ही लिए इस व्यवस्थाको बदलना होगा और स्त्रियोंको है। अपने प्रात्माकी विशद्धिके लिए अपने भावोंको उचित सुयोग्य शिक्षा द्वारा उन्नतिशील बनाना उन्नत रखना ही एक मात्र उपाय है । भाव जितनेहोगा।
जितने शुभ्र एवं उन्नत होंगे हमारी कार्माण वर्गणाओंमें गर्भमें नौ महीने रहने के उपरान्त जन्म हो जाने भी समुचित परिवर्तन होकर हमारे आत्माके ज्ञान पर बालक जो दग्धपान करता है, जिस धायक का विकास भी होगा और शुभ्रता आकर हम हाथमे खेलता है उन सबका असर तो पड़ता ही है अधिकाधिक सच्चे मुख और मोक्षके परम सुखका
और उसके बाद में भी जैसी मंगति और वातावरण नजदीक होते जायंगे । आज जो चारों तरफ में वह पाला जाता है उमोके अनुरूप वह हो जाता विडम्बनाए दृष्टिगोचर होती हैं उनका कारण तत्वों है । और बाद में शिक्षाका बड़ा भारी प्रभाव उमके की ठीक-ठीक जानकारीका व्यापक अभाव ही है। भावोंको बदलनमें होता है। इस लिए यह परम आत्माका जो रूप जैन सिद्धांतोंमें निरूपित किया
आवश्यक है कि संसारमे शिक्षा जो दी जाय उसमें है वह व्यक्तिको सबसे ऊपर और सबसे अधिक शुद्धता, स्फूति एवं आत्मविश्वास तथा उत्थानकी सीधे तौरसे या शीघ्रता पूर्वक उन्नत करने में समर्थ बातें और शाश्वत अविरल कर्ममें श्रद्धा उत्पन्न की है। पर विभिन्न मानवोंका स्वभाव विभिन्न परिजाय । कोई काम छोटा नहीं बल्कि किसी कामको स्थितियों, वातावरण और समाज एवं व्यवस्था न करना या घृणा करना या छोटा समझना ही में पले होनेके कारण बहुत ही भिन्न है। इसलिए
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एक धर्म का होना तो सभी जगह एकदम संभव नहीं । लोग अपने अज्ञान और अशक्त अवस्थामें अपने मतलब लायक उसमें फेर बदल कर ही लेंगे। इसलिए साधनों, ध्येयों एवं मान्यताओं में विभिन्नता रहते हुए भी बजाय द्वेष-विद्वेषके सबको एक दूसरे की सहायता और सहयोग द्वारा जितना भी व्यवहारतः संभव हो सके स्वयं आगे बढ़ना और बाकी सभीको आगे बढ़ाना चाहिए । ऐसा करते-करते जब काफी ज्ञानका विकास होजायगा एवं काफी व्यापक रूपमें व्यक्ति तथा समाज सचमुच उन्नतिशील होगा तो अपने आप धीरे धीरे सारी व्यवस्थाए ठीक होती जायेंगी । विरोध कम होता जायगा ।
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जाने, समझे और विभिन्नताओं की परवाह न करते हुए जहां समानता मिले उसे ही सुदृढ़ करे और
(२०) आजकी श्रावश्यकता - आज जरूरत है संसार में यथा शक्ति सच्चे ज्ञानका अधिक-सेअधिक व्यापक प्रचार करनेकी । छोटे-बड़ेका भेद भाव मिटाकर सबको हर संभव सुविधाएं उन्नति करने लायक उपलब्ध करनेकी । द्वेष-विद्वेषकी भावना दूर हटाकर हर एककी बातें एक दूसरा
बढ़ाते हुए हर कोई आगे बढ़े। ऐसा करके ही व्यक्ति, समाज, सम्प्रदाय, देश एवं संसारकी सच्ची उन्नति एवं सच्चा कल्याण होगा तथा सच्चे सुख और स्थायी शान्तिकी स्थापना हो सकेगी ।
(नोट-इल लेखको समझ लेनेके बाद जैन तत्त्वोंको समझने में आसानी होगी । जो लोग जीवन, मरण, संसार, दुख-सुख और मोक्ष आदि के असली तत्वोंको ठीक-ठीक सत्य-सत्य जानना चाहें उन्हें यह लेख पढ़नेके बाद - बा० सूरजभानु वकील द्वारा लिखित - हिन्दी द्रव्य-संग्रहकी हिन्दी टीका या अंग्रेजी में Sacred Books of the Jains Volu me V-Dravya Sangraha (द्रव्य-संग्रह) पढ़ना चाहिये- इसके बाद और दूसरी पुस्तकोंमें समयसार या फिर जितनी पुस्तकें देख सकें देख जांय तो अच्छा ही है । )
पटना, ता० १-११-४६
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स्वाध्यायप्रेमियों के लिये उत्तम अवसर भारतकी राजधानी देहलीमें वीरसेवामन्दिरके तत्वावधानमें समाजके जिनवाणोभक्त । दानी महानुभावोंकी आर्थिक सहायतासे एक सस्ती जैन ग्रन्थमालाकी स्थापना हुई है। प्रन्थमालाका प्रत्येक ग्रन्थ गृहस्थोपयोगी है-स्त्री पुरुष और बच्चोंके लिए उसका लेना बड़ा ही लाभदायक और अत्यन्त आवश्यक है । इसलिये प्रत्येक सद्गृहस्थका कर्तव्य है कि वह इन प्रन्थरत्नोंको खरीदकर जिनवाणीके स्वाध्यायसे आत्म-कल्याण करे। इस ग्रन्थमालासे प्रकाशित ग्रंथोंको प्रायः लागतसे भी कम मूल्यमें दिये जानेकी योजना की गई। अभी नीचे लिखे ग्रन्थ छप रहे हैं। जिन
प्रन्थोंका लागत मूल्य १५) है, वे पूरा सेट लेनेवाले सज्जनोंको लागतसे भी कम मूल्य १२) में और पद्मपुराणको छोड़कर शेष ७ ग्रन्थोंका सेट सिर्फ ७) में देनेका निश्चय किया है। जिन्हें इन ग्रंथरत्नोंकी आवश्यकता हो वे ग्राहकोंमें अपना नाम लिखवाकर और अपना मूल्य भेजकर 'वीरसेवामान्दर श्राफिस ७३३ दरियागंज देहली' से रसीद लेलें। ग्रन्थ जैसे-जैसे तैयार होते
जायेंगे उसी क्रमसे व उनके पास पहुंचते रहेंगे। १ रत्नकरण्डश्रावकाचार-मजिल्द लगभग ८०० पृष्ठ मूल समन्तभद्राचाये, टी०५० सदासुखदासजी ३) २ मोक्षमार्गप्रकाशक-सजिल्द लगभग ५०० पृष्ठ (पं० टोडरमलजो, ग्रन्थकारकी स्वहस्त लिखित
प्रांत परसे संशोधित) २) ३ जैनमहिलाशिक्षामंग्रह-पृष्ठ २४०। ४ सुखकी झलक-पृष्ठ १६० (पूज्यवीजोके प्रवचनोंका सुन्दर संकलन)
12) ५ श्रावकधम संग्रह-पृष्ट २४०(पं० दरयावमिह, श्रावकोपयागी पुस्तक) ६ सरल जैनधर्म-पृष्ठ ५१२ (बालकोपयोगो पुस्तक)
।) ७छहढाला-पृष्ठ १०० (पं०दौलतरामजी व पं० बुधजनजी कृत) ८ पद्मपुराण-(सजिल्द बड़ा साइज) पृष्ठ ८०० (मूल रविपेणाचार्य, टी० पं० दौलतरामजी) ६१) मूल्य भेजने तथा ग्रन्थ मंगानका पता:
मन्त्री-सस्ती ग्रन्थमाला
नं. ३३ दरियागंज, देहली। जिन ग्राहकोंका पेशगी मल्य आजायगा उनमेंसे देहलीवालोंको ग्रन्थ उनके मकानपर भिजवा दिये जायेगे। शेष बाहरके सज्जनोंको ग्रन्थोंका सेट पोप्टेज वी० पी० से भेज दिया जायगा।
अनेकान्तकी सहायताके चार मार्ग (३) उत्सव-विवाहादि दानके अवसरोंपर अने(१) २५), ५०), १००) या इससे अधिक रकम
कान्तका बराबर खयाल रखना और उसे अच्छी
सहायता भंजना तथा भिजवाना, जिससे अनेकान्त देकर सहायकोंकी चार श्रेणियोंमेंसे किसीमें अपना
अपने अच्छे विशपाङ्क निकाल सके, उपहार-ग्रन्थोंनाम लिखना।
की योजना कर सके और उत्तम लेखोंपर पुरस्कार (२) अपनी ओरसे असमोंको तथा प्रजनी
अजन भी दे सके । स्वतः अपनी ओरसे उपहार-ग्रन्थोंकी
नगर संस्थाओंको अनेकान्त फ्री (विना मूल्य) या अर्ध- योजना भी इस मद में शामिल होगी। मल्यमें भिजवाना और इस तरह दूसरोंको अनेकान्त (४) अनेकान्तके ग्राहक बनना, दूसरोंको बनाना के पढ़नेकी सविशेष प्रेरणा करना। इस मदमें और अनेकान्तके लिये अच्छे-अच्छे लेख लिखकर -सहायता देनेवालोंकी ओरसे प्रत्येक बारह रुपयेकी भंजना, लेखोंकी सामग्री जुटाना तथा उसमें प्रकासहायताके पीछे अनेकान्त तीनको फ्री अथवा छहको शित होनेके लिये उपयोगी चित्रोंकी योजना करना अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा।
और कराना ।-सम्पादक 'अनेकान्त'
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हमारे सुरुचिपूर्ण प्रकाशन
१. अनित्य - भावना - था० पद्मनन्दिकृत भावपूर्ण और दही महत्वकी कृति, साहित्य-तपस्वी पण्डित जुगलकिशोर मुख्तारके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित मूल्य चार थाना ।
२. आचार्य प्रभाचन्द्रका तस्वार्थसूत्र--सरलसंक्षिप्त गया सूत्रप्रन्थ, पं० जुगलकिशोर मुख्तारकी सुबोध हिन्दी व्याख्यासहित । मुल्य चार थाना ।
३. न्याय - दीपिका - ( महत्वका सवप्रिय संस्क र ) अभिनव धर्मभुषण विरचित न्याय-विषयकी सुबोध प्राथमिक रचना म्यायाचार्य प० दरवारालाल कोरियाद्वारा सम्पादित, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत (१०१ पृष्ठको प्रस्तावना, प्राकथन, परिशिष्टादि विशिष्ट, ४०० पृष्ठ प्रमाण, लागत मूल्य पाँच रुपया । विद्वानों, छात्रों और स्वाध्याय- प्रेमियोंने इस संस्करणका बहत पसन्द किया है। इसकी थोडी ही प्रतियों रही है। शीघ्रता करें। फिर न मिलने पर पछताना पड़ा।
४. सत्साधुस्मरणमङ्गलपाठ - अभूतपूष सुन्दर और विशिष्ट मङ्कलन, मङ्कलयिना पंडिन जु सुतार | भगवान महावीर लेकर जिननाचार्य पर्यम्तके २१ महान् जैनाचार्योंक प्रभावक गुणस्मरणम
युक्र । मूल्य घाठ माना ।
५. अध्यात्मकमलमार्तण्ड - पञ्चाध्यायी तथा arelifen aft प्रन्थोंके रचयिता पंडित राजमल विरचित अपूर्व आध्यात्मिक कृति, न्यायाचार्य पंडि दरबारीलाल कोठिया और पं० परमानन्द शास्त्रीक सरख हिन्दी अनुवादादिसहित तथा मुम्तार पाडत जुगलकिशोरद्वारा लिखित विस्तृत प्रस्तावनासे विशिष्ट : मूल्य डेढ़ रुपया ।
Regd. No. D, 793.
६. उमास्वामिश्रावकाचारपरीक्षा -- मुख्तार श्री पं० जुगलकिशोरद्वारा लिखित ग्रन्थ-परीक्षाओंका इतिहा स-महित प्रथम अंश । मुल्य चार आना ।
७. विवाह-ममुद्देश्य - पंडित जुगलकिशोर मुरहारा रचित विवाह रहस्यको बतलानेवाली और विवाहोक अवसरपर विनरण करने याग्य सुन्दर कृति | मुल्य आठ आना।
नय प्रकाशन
४. आमपरीक्षा-स्वापटीसहित- ( अनेक farmer विशिष्ट महत्वपूर्ण अभिकरण ) arihafrief (वयानन्दस्वामि-विरचित श्राप्तविषयका प्रतिनीय बनना, न्यायाधाय पण्डित दरबारीलाल कोरियाद्वारा प्राचीन प्रतियोपसंशोधित र सम्पा दिन हिन्दी अनुवाद विस्तृत प्रस्तावना, और समाजक बहुत विद्वान पःकैलाशचन्द्र जी शास्त्री द्वारा लिम्बिन प्राकथन तथा अनेक पोष्ट न पंजी साइज, लगभग चार-सा पृष्ठ प्रमाणा. लागत मुल्य आठ रुपया यह मस्करण प्रकाशिन gimme
महत्वक
श्रीपरपाभ्यनाथ-नोत्र- 3 विद्यानन्दाचार्यference तो हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्ता वनादि सहित सम्पादक न्यायाचार्य मांगइन दरबारीजाळ काठिया | मूल्य बारह आना ।
३. शासनचतुस्त्रिशिका - विक्रमको १२ घों शताब्दी विद्वान मुनि मनकीनि विरचित तीर्थeference offमक अपूर्व रचना. हिन्दी अनुवादमदिन | सम्पादक न्यायाचाच परिडन दरबारजाल कोटिया मूल्य बारह आना ।
व्यवस्थापक-वीरमेवामन्दिर,
७३६ दरियागंज, दहली ।
TAKI
XYY
प्रकाशक - परमानन्द जैन शास्त्री, वीरसेवामंदिर ७/३३ दरियागंज देहली, मुद्रक - अजितकुमार जैन शास्त्री, अकलंक प्रेस. सदरबाजार, देहली।
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ने का त
[किरण ६
सहायक सम्पादक दरधारीलाल न्यायाचार्य
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बर्ष १० ]
सम्पादक
जुगलकिशोर मुख्तार
विषय
१. विद्यानन्द प्रशस्ति
२. सिद्धसेन दृष्टिप्रबोध-द्वात्रिंशिका -
दिसम्बर १६४४
विषय-सूची :--
लेखक
३. स्याद्वाद -
४. आप्तपरिक्षाका प्राक्कथन -
५. ब्रह्मचर्य -
६. राष्ट्रकूट गोविंद तृतीयका शासनकाल
७. डा० कालीदास नागका भाषण
८. सम्पादकीय -
६. साहित्य - परिचय श्रोर समालोचन -
१०. भद्रबाहुमंहिता और उसका अनुवाद११. भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र
[ सम्पादक
[ श्रीसिद्धसेन
[ न्यायाचार्य पं० महेन्द्र कुमार
[ पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री
[ श्री वर्णीजी
[ श्री एम. गोविंद पै
[ डा० कालीदास नाग
[ दरबारीलाल जैन,
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[ दरबारीलाल जैन,
[ दरबारीलाल जैन,
[ वैध जवाहरलाल जैन,
01.0
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पृष्ठ
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प्राप्त परीक्षाका सुन्दर न या संस्करण
'आप्तपरीक्षा के प्रेमी विद्यार्थी, विद्वान और पाठक अर्सेसे जिस संस्करणको प्रतीक्षा कर रहे थे वह छप कर तैयार हो गया है। इस संस्करणपर विद्वानोंने अपनी सम्मतियां भेजते हुए हर्ष व्यक्त किया है। विच्छिरोमणि कवि-तार्किकचक्रवर्ती प्रो. महादेव शास्त्री पाण्डेय प्रोफेसर हिन्दूविश्वद्यिालय काशी लिखते हैं-'मैंने 'माप्तपरीक्षा' की भाषाव्याख्या, जिसके निर्माता श्रीदरबारीलालजी जैसे विज्ञ हैं, विमर्श-। पूर्वक देखी। इस व्याख्या कर्तृत्वमें अध्ययन, श्रम, गवेषणा तथा भाषासौष्ठव विशद प्रकारसे उपलब्ध । होता है। पदार्थविवेचन स्पष्ट, शुद्ध और अर्खलन भावसे किया गया है। मार्मिक स्थलोंकी पन्थियां : ऐसी उद्घाटित हुई हैं कि उससे अध्येतृवर्गको सुगमता प्राप्त करनेमें विशेष बुद्धिब्यायामका प्रसङ्ग कदा. चित् उपस्थित हो सके। यह प्रयत्न राष्ट्रभाषाके भण्डारके लिए सफल होगा।'
गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज बनारसके सुप्रसिद्ध विद्वान मो० मुकुन्द शास्त्री खिस्ते साहित्याचार्य लिखते है-'प्राज इस 'प्राप्तपरीक्षाके' भाषानुवादको देखकर मुझे परम सन्तोष हो रहा है। इसमें पं० दरबारीलालजी जैनने ऐसीरीतिका श्राश्रयण किया है जिससे कठिन-से-कठिन रहस्य सरलतासे समझमें भाजावें। यह हिन्दी भाषानुवाद केवल साधारण जनोंके लिये ही नहीं, किन्तु संस्कृत जानने वालोंके लिए भी अतीव उपयोगी है, इससे समाजका परम उपकार होगा।'
जैनसमाजके मूर्धन्य प्रसिद्ध मुनि कान्तिमागर सम्पादक 'ज्ञानोदय' भारतीयज्ञानपीठ काशी अपनी सम्मतिमें लिखते हैं-"आप्तपरीक्षा के प्रस्तुत सस्करणमे विद्यानन्दकी दार्शनिक प्रतिभा और प्रौढता पृष्ठ-पृष्ठपर है। | इस सुन्दर संस्करण में सम्पादकने जो प्रयत्न किया है वह अनुकरणीय है।'
गवर्नमेन्ट सस्कृत कालेज बनारसके प्रिन्सिपल श्रीनारायणशास्त्री खिस्ते अपनी संस्कृत भाषामे नियद्ध सम्मतिमें लिखते हैं-'मैंने मुनि विद्यानन्द विरचित स्वोपज्ञटीकासहित आप्तपरीक्षाको आपाततः ही दखा, परन्तु इतनेसे हो स्थालोपुलाकन्यायसे जो परीक्षण हुआ उससे इसकी परम उपादयता अच्छी तरह ज्ञात होगई। इसका सम्पादन भी नवीन प्रणालीस बहुत उत्तम हुआ, जो अत्यन्त प्रमोदजनक है।'
श्रीभूपनाराण झा शास्त्री प्रो. गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज बनारस अपनी संस्कृत पद्यमय सम्मतिमें लिखते है-'हिन्दो व्याख्यासहित 'आप्तपरीक्षा' का, जिसकी स्वोपज्ञति अनेक समीक्षाओंस उल्जसित है, देखकर मन प्रसन्न हुआ। इस व्याख्यामें कोई क्लिष्ट पद ऐसा नहीं रहा जिस स्पष्ट न किया गया हो। अन्तमें निबद्ध परिशिष्ट और भी अधिक मेरे मनको प्रमुदित करता है । इस विद्वन्मान्य उच्च विद्वान्की यह कृति प्रशंसा योग्य है।'
इस संस्करणकी विशेषताएँ निम्न है:
१. इसका प्राक्कथन बहुश्रुत विद्वान् और स्याद्वादमहाविद्यालय काशोके प्रधानाध्यापक पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने लिखा है जो विचारपूर्ण है।
२. इसमें ५४पेजकी प्रस्तावना, ७ परिशिष्ट, मूलप्रन्थको शुद्ध करके उसमें पैराग्राफ, उत्थानिकावाक्य, विषयविभाजन (ईश्वरपरीक्षा आदि) जैसा निर्माणकार्य किया गया है। तात्पर्य यह कि पिछले मुद्रित दोनों संस्करणोंसे इस संस्कणको अधिक लोकप्रिय और उपयोगो बनानेका प्रयत्न किया गया है।
'व्यवस्थापक' वीरसेवामन्दिर, ७/३३ दरियागज, देहली ।
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ॐ अहम्
तस्व-सघातक
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
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tooccociatrenawati
* वार्षिक मूल्य ५) *
Rececream:Curcurrecrx
*omeDreaeo.
एक किरणका मूल्य।)
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नीतिविरोधध्यसीलोकव्यवहारवर्तकसम्यक। परमागमस्यबीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥
वर्ष १० । वीरसेवामन्दिर ( समन्तभद्राश्रम ), ७३३ दरियागंज, देहली 1 किरण ६ ) पौषशुक्ल, चीनिर्वाण-संवत् २४७६, विक्रम संवत् २००६ ।
विद्यानन्दलशस्ति
दिसम्बर १६४E
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विद्यानन्द हिमाचल-मुख-पद्म विनिर्गता सुगम्भीरा । प्राप्तपरीक्षा-टीका गङ्गावञ्चिरतरं जयतु ॥ १ ॥ भास्वद्भासिरदोषा कुमति-मत-ध्वान्त भेदने पटवी ।
आप्तपरीक्षाऽलंकृतिराऽऽचन्द्रार्क चिर' जयतु ।। २॥ स जयतु विद्यानन्दो रत्नत्रय-भूरिभूषणः सततम् । तत्त्वार्थार्णव-तरणे सदुपायः प्रकटितो येन ॥३॥
-प्राप्तपरीक्षा-टीकान्तगता "विद्यानन्दरूप हिमाचलके मुखरूप पादहसे निकली हुई सुन्दर-सातिशय गम्भीर जो प्राप्तपरीक्षाकी टोका है वह गंगाकी तरह चिरकाल तक अपवन्त होवे-लोकमें अपने प्रभावादिको विस्तृत करे ॥ सूर्य के समान
दीप्तिमती और कुमतियों तथा कुमतोंके अन्धकारको विनष्ट करने में समर्थ जो प्राप्तपरीक्षाकी निर्दोष अलंकृप्ति-- Y उसे सुभूषित करनेवाली स्वोपज्ञ टीका है वह सूर्य-चन्द्रमाको अवस्थिति पर्यन्त चिर-जयबती होवे । (और) जो V रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र) रूप बहुत बहुमूल्य प्राभूषणोंसे निरन्तर भूषित हैं और जिन्होंने ॐ तत्वार्थरूप समुद्रको तिरनेका उसके पार पहुँचनेका-समीचीन उपाय (अपने पासपरीक्षा-तस्वार्थश्लोकवातिकादि
प्रन्थोंद्वारा) प्रकट किया है वे श्रीविद्यानन्द प्राचार्य सदा जयवन्त हों-जोकहृदयमें अपने तत्वज्ञानका सिक्का * बराबर जमाए रहें।
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सिद्धसेना-दृष्टिप्रबोध-द्वात्रिंशिका
[विंशतितमी द्वात्रिंशिका ]
उत्पाद विगम-ध्रौव्य-द्रव्य-पयोय-संग्रहम् । कृत्स्नं श्रीवर्तमानस्य वर्द्धमास्य शासनम् ।।१।। अपायापोहतोऽन्योऽन्यं हन्यतो वा तदेव वा। ग्रन्थार्थः स्वपराऽन्वर्थो विध्युपाय-विकल्पतः ।।२।। बाचिकित्सितमानाध्वमणिरागादिभक्तिवत् । नानात्वैक्योभयाऽनुक्तिविषमं सममर्थतः ॥३॥ प्रमाणान्यनुवर्तन्ते विषये सर्ववादिनाम् । संज्ञाऽभिप्राय-भेदात्तु विवदन्ति तपस्विनः ॥४॥ न यथार्थ-परिज्ञानाददोषशान्तिन वाऽन्यथा । प्रकोप-सम-सामान्याव्यभिचाराच्च तद्वताम् ॥शा येन दोषा नि विरुध्यन्ते ज्ञानेनाचरितेन वा । स सोऽभ्युपायस्तच्छान्तावनासक्तमवेद्यत् ।।६।। यथाप्रकारा यावन्तः संसारावेशहेतवः । तावन्तस्तद्विपर्यासा निवाणाऽवाप्तिहेतवः ।।। सामान्यं सर्वसत्वानामवश्यं जन्मकारणम् । शरीरेन्द्रियभोगानामविशिष्ट विशिष्यते ।।८।। विकल्प-प्रभवं जन्म सामान्यं नातिवतेते । हेतावपचिते शेषं कि परिज्ञाय वा न वा ॥ गुरु-लाधव-संदिग्ध-विपरीताः प्रतिक्रियाः। लध्वसदिग्धविज्ञानं त्वास्य द्विष्टस्य सिति ॥१०॥ द्रव्यसत्त्वादिनानात्वं नाति सममात्मनः । विषयेन्द्रियचेतस्यमनेनाहमनीत वा||११|| बौद्धमध्र वमद्रब्यसांख्य' काणादमन्यथा । लोकः पुरुष इत्येतदवक्तव्यं शरीरवत ॥१२।। निमित्तेश्वर कारः प्रकाश-नृप-शिल्पिवत् । यथेष्ट-साधनोत्कर्ष-विशेषापायवृत्तयः ।।१३।। स्वभावोऽर्थोऽन्तराभावा नियमा व्यभिचारतः । इष्टतोऽन्यदनेनोक्ता देश-काल-समाधयः॥१४॥ लक्ष्य-लक्षणयोरेवं देशधम-विकल्पतः । सदादि-प्रतिभेदाच्च निव-प्रतियोजनाः॥१५॥ चैतन्य दयोर्विच्छेदः परिणामेष्वसंश्रयात् । न विकल्पान्तरंभोक्तरनेनोक्तं सुखादिवत् ॥१६।। शरीरविभुता तुल्यमानन्त्यगुणदोषतः (वत)। मंमार-प्राप्त्यभिव्यक्तिर्विकल्पा: कारणात्मनः ॥१७॥ गुण-प्रचय-संस्कार-वृत्तयः कर्मवृत्तयः । अनाद्यनन्तरावश्ययथा चेतरयोगतः ॥१८॥ भतप्रत्येकर्मयोग(घात)सामान्यार्थान्तरात्मकम् । पंचधा बहुधा वाऽपि कार्यादेकादिव(चे)न्द्रियम ॥१।। जाति-प्रत्यय-सामान्य-चर-स्थिरचरन्मनः । उभयं विभवा देहलोकयोरनुगामि च ।।२०।। रूपादिमात्र द्रव्य च पिंडं एकविकल्पवान्। समस्त-व्यस्त-वृत्तिभ्यामथे-परिणतेपि ॥२शा सदसत्सदसन्नति काय-कारण-संभवः । अनित्य-नित्य-शून्यत्वे शेषमित्युपपादितम् । अवस्थितं जगत्सत्वाद्धात्वसत्प्रक्रियात्मकम् । धमोऽधर्मस्वभावेष्टिपुरुषार्थ निमित्ततः ।।२।। समग्र-विकलादेश-त्यागाऽभिप्राय-तत्कथा । सामान्याव्यासतः शेक्ष्यविपक्षाचार्य-शक्तितः ॥२४॥ द्वीप-वेलोदधि-व्यास-संख्या-भोग-विभूतयः । स्वर्गापायानुभागाश्च सनिमित्ता यथेष्टप्सः ।।२।। ज्ञानाऽऽचारविशेषाभ्यामाचारा द्धियते जनः । स नाऽत्युत्तान गंभीर: मुख-दुःखात्ययो हितः ॥२६॥ दृष्टान्तश्रविकैर्लोक: परिपक्ति शुभाऽशुभैः । सुखाथे-संशय-प्राप्ति-प्रतिषेध-महाफलैः ॥२७॥ ज्ञानात्कृत्स्नेष्टधर्मात्मपरमेश्वरतः शिवम् । कर्मोपयोगवैराग्य धाम-प्राप्तिश्च योगतः ॥२८।। पृथकसहाविनिर्भागदया-वैराग्य-संविदाम । ऐश्वर्य-मोक्षोपशम-समावेश-विकल्पतः ॥२॥ भागमाऽभ्युदयज्ञान-योगाध्याहार-धारणा । भावना-प्राणसंरोध-कृच्छयत्न-ब्रतानि च ॥३०॥ दोषव्यक्ति-प्रसंख्यान-विषयाऽतिशयात्ययः । परमैश्वर्यसंयोग-ज्ञानैश्वयं विकल्पयेत ॥३॥ प्रसिद्ध-प्राविभास्येति कामतस्तीर्थ-भक्तयः । ननु श्रीवर्द्धमानस्य वाचो युक्तः परस्परम् ॥३२॥
इति श्रीसिद्धसेनाचार्यप्रणीत-दृष्टिप्रबोधद्वात्रिंशिका ।
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स्याहाद [ले० पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ]
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न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमारजी भारतीय दर्शनशास्त्रके अधिकारी और प्रतिष्ठित विद्वान् तथा लेखक है। हिन्दविश्वविद्यालय काशीमें प्राप बोद्धदशनके प्राध्यापक (प्रोफेसर) तथा जैनदर्शनके अनेक प्रन्थों के सम्पादक हैं। आपको विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावनाएँ भारतीय दर्शनशास्त्रके जिज्ञासुओं और विद्वानोंके लिये पढ़ने योग्य हैं। न्यायविनिश्चयविवरणकी, जो हालमें भारतीयज्ञानपीठ काशीसे मुद्रित हुआ है, प्रस्तावनामें जैनदर्शनक स्याद्वाद और अनेकान्तवादपर विस्तृत तथा महत्वका आपने विचार किया है और उन विद्वानोंकी भूल-भ्रान्तियों को दूर किया है जिन्होने अपने दर्शनग्रन्थों में जैनदर्शनके स्याद्वान और अनेकन्सवादको गलत रूपमें समझा तथा उल्लेखित किया है। प्रस्तुत लेखमें से ही विद्वानोंकी भूलोंका निरसन किया गया है और जिम वहाँसे उद्धृत करके यहां दिया जारहा है । पाठकों तथा संबद्ध दर्शनग्रन्धके लेखक विद्वानोंसे अनुरोध है कि वे इस लेखको तथा इतः पूर्व प्रकाशित 'सजयवेलहिपुत्त और स्याद्वाद' शीधक हमारे लेखको अवश्य पढ़ें।
-स. सम्पादक] जैनदर्शनने सामान्यरूपसे यावत् सत्को परि- स्याद्वाद-सुनयका निरूपण करनेवालो भाषा णामीनित्य माना है। प्रत्येक सत अनन्तधात्मक पद्धति है । 'स्यात्' शब्द यह निश्चितरूपसे बताता है। उसका पूर्णरूप वचनोंक अगोचर है । अनेकान्त है कि वस्तु केवल इसी धर्मवाली ही नहीं है उसमें अर्थका निर्दुष्टरूपसे कथन करनेवाली भाषा स्थाबाद इसके अतिरिक्त भी धर्म विद्यमान है । तात्पर्य यह रूप होती है। उसमें जिम धर्मका निरूपण होता है कि-अविवक्षित शेष धोका प्रतिनिधित्व 'स्यात्' उमके साथ 'स्यात्' शब्द इसलिये लगा दिया जाता शब्द करता है। 'रूपवान घट:' यह वाक्य भो है जिमसे पूरी वस्तु उसी धर्मरूप न ममझ ली अपने भीतर 'स्यात्' शब्दको छिपाये हुए है । इसका जाय । अविवक्षित शेष धर्मोका अस्तित्व भी उममें अर्थ है कि 'स्यात् रूपवान घटः' अर्थात् चक्षु इन्द्रियहै, यह प्रतिपादन 'स्यात' शब्दसे होता है। के द्वारा ग्राह्य होनेस या रूप गुणकी सत्ता होनेसे
स्याद्वादका अर्थ है-स्यात्-अमुक निश्चित घड़ा रूपवान है, पर रूपवान् ही नहीं है उसमें रस, अपक्षाम । अमुक निश्चित अपेक्षासे घट अस्ति ही गन्ध, स्पश आदि अनेक गुण, छोटा बड़ा आदि है और अमुक निश्चित अपेक्षाम घट नास्ति ही है। अनेक धर्म विद्यमान है। इन अविवक्षित गुण-धर्मोक स्यातका अर्थ न तो शायद है न सम्भवतः और न अस्तित्वको रक्षा करनेवाला 'स्यात्' शब्द है। स्यात्' कदाचित् दी। 'स्यात्' शब्द सुनिश्चित दृष्टिकोणका का अर्थ शायद या सम्भावना नहीं है किन्तु निश्चिप्रतीक है। इस शब्दके अर्थको पुराने मतवादी य है। अर्थात् घड़में रूपके अस्तित्वकी सूचना तो दार्शनिकोंने ईमानदारीसे समझनका प्रयास तो नहीं 'रूपवान्' शब्द दे ही रहा है पर उन उपेक्षित शेष ही किया था किन्तु आज भी वैज्ञानिक दृष्टिकी दुहाई धर्मोके अस्तित्वकी सूचना 'स्यात्' शब्दसे होती है। देनेवाले दर्शनलेखक उसी भ्रान्तपरम्पराका पोषण सारांश यह कि 'स्यात' शब्द 'रूपवान् के साथ करते आते है।
नहीं जुटता है, किन्तु अविक्षित धोके साथ । वह
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अनेकान्त
[वर्ष १०
'रूपवान्' को पूरो वस्तुपर अधिकार जमानेसे रोकता अनुदारता, परमतासहिष्णुता आदिसे विश्वको है और कह देता है कि वस्तु बहुत बड़ी है उसमें अशांत और आकुलतामय बना दिया है। 'स्यात्' रूप भी एक है । ऐसे अनन्त गुण-धर्म वस्तुमें लहरा शब्द वाक्यके उस जहरको निकाल देता है जिससे रहे है। अभी रूपको विवक्षा या दृष्टि होनेसे वह अहकारका सर्जन होता है और वस्तुके अन्य धर्मोंसामने है या शब्दसे उच्चारत हो रहा है सो वह के अस्तित्वसे इनकार करके पदार्थके साथ अन्याय मुख्य हो सकता है पर वही सब कुछ नहीं है। होता है। दसरे क्षणमें रसकी मुख्यता होनेपर रूप गौण हा स्यात' शब्द एक निश्चित अपेक्षाको द्योतन जायगा और वह अविक्षत शेष धर्मोंकी राशि में
करके जहाँ 'अस्तित्व' धर्मकी स्थिति सुदृढ़ सहेतुक शामिल हो जायगा।
बनाता है वहाँ वह उसकी उस सर्वहरा प्रवृत्तिको __'स्यात्' शब्द एक प्रहरो है, जो उच्चरित धर्मको भी नए करता है जिससे वह पूरी वस्तुका मालिक इधर-उधर नहीं जाने देता है । वह उन अविवक्षित बनना चाहता है। वह न्यायाधीशकी तरह तुरन्त कह धोका संरक्षक है। इसलिये 'रूपवान्' के साथ देता है कि-हे अस्ति ! तुम अपने अधिकारकी सीमा 'स्यात् शब्दका अन्वय करके जो लोग घड़ेमे रूपको को समझो । स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी दृष्टिसे जिस भी स्थितिको स्यात्का शायद या संभावना अथ प्रकार तुम घटमें रहते हो उसी तरह परद्रव्यादिकी करके संदिग्ध बनाना चाहते है वे भ्रममें है। इसी अपेक्षा 'नास्ति' नामका तुम्हारा भाई भी उसी घटमें तरह 'स्यादस्ति घटः' वाक्यमें 'घटः अस्ति' यह है। इसी प्रकार घटका परिवार बहुत बड़ा है। अभी अस्तित्व अंश घटमें सुनिश्चित रूपसे विद्यमान है। तुम्हारा नाम लेकर पुकारा गया है इसका इतना ही 'स्यात्' शब्द उस अस्तित्वकी स्थिति कमजोर नहीं अर्थ है कि इस समय तुमसे काम है, तुम्हारा प्रयोजन बनाता किन्तु उसकी वास्तविक आंशिक स्थितिकी है, तुम्हारी विवक्षा है। अतः इस समय तुम मुख्य सूचना देकर अन्य नास्ति आदि धर्मोके मद्भावका हो । पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है जो तुम प्रतिनिधित्व करता है । सारांश यह कि 'स्यात्' पद अपने समानाधिकारी भाइयोंक मद्भावको भी नष्ट एक स्वतंत्र पद है जो वस्तुके शेषांशका प्रतिनिधित्व करनेका दुष्प्रयास करो। वास्तविक बात तो यह है करता है। उसे डर है कि कहीं 'अस्ति' नामका धमे कि यदि परकी अपेक्षा 'नास्ति' धर्म न हो तो जिस जिसे शब्दसे उच्चरित होनेके कारण प्रमुखता मिली घड़े में तुम रहते हो वह घड़ा घड़ा ही न रहेगा कपड़ा है पूरी वस्तुको न हड़प जाय, अपने अन्य नास्ति आदि पररूप होजायगा। अतः जैसी तम्हारी स्थिति
आदि सहयोगियोंके स्थानको समान न कर जाय। है वैसी ही पररूपकी अपेक्षा 'नास्ति'आदि धर्मको भी इसलिये वह प्रतिवाक्यमें चेतावनी देता रहता है कि स्थिति है। तुम उनको हिंसा न कर सको इसके लिये भाई अस्ति, तुम वस्तुके एक अंश हो, तुम अपने अहिंसाका प्रतीक 'स्यात्' शब्द तुमसे पहले ही अन्य नास्ति आदि भाइयोंके हकको हड़पनेकी चेष्टा वाक्यमे लगा दिया जाता है। भाई अस्ति, यह नहीं करना । इस भयका कारण है-'नित्य ही है' तुम्हारा दोष नहीं है । तुम तो बराबर अपने नास्ति 'अनित्य ही है' आदि अंशवाक्योंने अपना पूर्ण अादि अनन्य भाइयोंको वस्तुमें रहने देते हो और अधिकार वस्तुपर जमाकर अनधिकार चेष्टा की है बड़े प्रेमसे सबके सब अनन्त धर्मभाई रहते हो, पर और जगसमें अनेक तरहसे वितण्डा और संघर्ष इन वस्तुदशियोंकी दृष्टिको क्या कहा जाय । इनकी उत्पन्न किये है। इसके फलस्वरूप पदार्थके साथ दृष्टि ही एकाङ्गी है। ये शब्दके द्वारा तुममेंसे किसी अन्याय हुआ ही है, पर इस वाद-प्रतिवादने अनेक एक 'अस्ति' आदिको मुख्य करके उसकी स्थिति इतनी मतवादोंकी सृष्टि करके अहंकार, हिंसा, संघर्ष, अहङ्कारपूर्ण कर देना चाहते है जिससे वह 'अस्ति।
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किरण ६] स्याबाद
२०३. अन्यका निराकरण करने लग जाय । बस, 'स्यात्' जो 'स्यात्' शब्द वस्तुके इस पूर्णरूप दर्शनकी याद. शब्द एक अञ्जन है जो उनकी दृष्टिको धिकृत नहीं दिलाता है उसे ही हम 'विरोध संशय' जैसी गालि होने देता और उसे निर्मल तथा पूर्णदर्शी बनाता है। योंसे दुरदुराते हैं, किमाश्चर्यमतः परम् । यहाँ धर्मइस अविवक्षितसंरक्षक, दृष्टिविषहारी, शब्दको कीर्तिका यह श्लोकांश ध्यानमें आजाता हैसधारूप बनानेवाले, सचेतक प्रहरी, अहिंसक भाव- 'यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम। नाके प्रतीक, जीवन्त न्यायरूप, सुनिश्चित अपेक्षा- अर्थात्-यदि यह अनेकधर्मरूपता वस्तुको स्वयं द्योतक 'स्यास्' शब्दके साथ हमारे दार्शनिकोंने पसन्द है, वस्तु स्वयं राजी है उसमें है, तो हम बीचन्याय तो किया हो नहीं किन्तु उसके स्वरूपका में काजी बननेवाले कौन ? जगत्का एक-एक कण इस 'शायद' संभव है, कदाचित' जैसे भ्रष्ट पर्यायोंसे अनन्तधर्मताका आकार है। हमें अपनी दृष्टि निर्मल विकृत करनेका दुष्ट प्रयत्न अवश्य किया है तथा और विशाल बनानेकी आवश्यकता है। वस्तुमें कोई किया जा रहा है।
__विरोध नहीं है । विरोध हमारी दृष्टिमें है। और इस __ सबसे थोथा तर्क तो यह दिया जाता है कि घड़ा दृष्टिविरोधकी अमृतौषधि 'स्यात्' शब्द है, जो रोगी जब अस्ति है तो नास्ति कैसे हो सकता है, घड़ा जब को कटु तो जरूर मालूम होती है पर इसके बिना एक है तो अनेक कैसे हो सकता है, यह तो प्रत्यक्ष यह दृष्टिविषम-ज्वर उतर भी नहीं सकता। विरोध है, पर विचार तो करो घड़ा घड़ा ही है प्रो. बलदेव उपाध्यायने भारतीय दर्शन (पृ. कपड़ा नहीं, कुरसी नहीं, टेबिल नहीं, गाय नहीं, १५५ ) में स्याद्वादका अर्थ बताते हुए लिखा है किघोड़ा नहीं, तात्पर्प यह कि वह घटभिन्न अनन्त "स्यात् (शायद, सम्भवतः) शब्द अस् धातुके पदार्थरूप नहीं है । तो यह कहनेमे आपको क्यों विधिलिङके रूपका तिङन्त प्रतिरूपक अव्यय माना संकोच होता है कि घड़ा अपने स्वरूपसे 'अस्ति' है जाता है। घड़ेके विषयमें हमारा परामर्श 'स्यादस्तिघटभिन्न पररूपोंसे नास्ति है । इस घड़ेमें अनन्त पर- संभवत: यह विद्यमान है। इसी रूपमें होना रूपोंकी अपेक्षा 'नास्तित्व' धर्म है, नहीं तो दुनियांमें चाहिये।" यहाँ 'स्यात्' शब्दको शायदका पयोयकोई शक्ति घड़ेको कपड़ा आदि बननसे नहीं रोक वाची तो उपाध्यायजी स्वीकार नहीं करना चाहते। सकती। यह 'नास्ति' धर्म ही घड़ेको घड़ेरूपमें कायम इसीलिये वे शायद शब्दको कोष्ठकमें लिखकर भी रखनका हेतु है। इसी 'नास्ति' धर्मकी सूचना आगे 'सम्भवतः' शब्दका समर्थन करते है। वैदिक 'अस्ति' के प्रयोगके समय 'स्यात्' शब्द द देता है। प्राचार्यों में शकराचार्यने शांकरभाष्यमें स्याद्वादको इसी तरह घड़ा एक है। पर वहो घड़ा रूप, रस, संशयरूप लिखा है इसका संस्कार आज भी कुछ गन्ध, स्पशे, छोटा, बड़ा, हलका, भारी आदि अनन्त विद्वानोंके माथेमें पड़ा हुआ है और वे उस संस्कारशक्तियोंको दृष्टिसे अनेक रूपमे दिखाई देता है या वश 'स्यात्' का अर्थ शायद लिख ही जाते हैं। जब नहीं ? यह आप स्वयं बतावें । यदि अनेक रूपमें यह स्पष्टरूपसे अवधारण करके कहा जाता है किदिखाई देता है तो आपको यह कहने में क्यों कष्ट 'घटः स्यादस्ति' अर्थात् घड़ा अपने स्वरूपसे है ही। होता है कि "घड़ाद्रव्य एक है, पर अपने गुण धर्म 'घटः स्यानास्ति'-घट स्वभिन्न स्वरूपसे नहीं ही है, शक्ति आदि की दृष्टिसे अनेक है। कृपा कर सोचिए तब संशयको स्थान कहाँ है ? 'स्यात्' शब्द जिस कि वस्तुमें जब अनेक विरोधी धर्मोका प्रत्यक्ष हो ही धर्मका प्रतिपादन किया जारहा है उससे भिन्न अन्य रहा है और स्वयं वस्तु अनन्त विरोधी धर्मोंका धोके सद्भावको सूचित करता है। वह प्रति समय अविरोधी क्रीडा-स्थल है तब हमें उसके स्वरूपको श्रोताको यह सूचना देना चाहता है कि वक्ताके विकृतरूपमें देखनेकी १ दृष्टि तो नहीं करनी चाहिये शब्दोंसे वस्तुके जिस स्वरूपका निरूपण हो रहा है
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अनेकान्त
[वर्ष १०
वस्त उतनी ही नहीं है उसमें अन्य धर्म भी विद्यमान जैन दर्शन स्याद्वाद सिद्धान्तके अनुसार वस्तुहैं। जब कि संशय और शायदमें एक भी धर्म नि- स्थितिके आधारसे समन्वय करता है । जो धर्म श्चित नहीं होता। जैनके अनेकान्तमें अनन्त धर्म वस्तुमें विद्यमान है उन्हींका समन्वय हो सकता निश्चित है, उनके दृष्टिकोण निश्चित हैं तब संशय है। जैनदर्शनको आप वास्तव बहुत्ववादी लिख
और शायदकी उस भ्रान्त परम्पराको आज भी आये है। अनेक स्वतंत्र सत्व्यवहारके लिये सद्रपसे अपनेको तटस्थ माननेवाले विद्वान भी चलाए जाते एक कहे जायँ पर वह काल्पनिक एकत्व वस्तु नहीं है यह रूढ़िवादका ही माहात्म्य है।
हो सकता? यह कैसे संभव है कि चेतन और अचेइसी संस्कारवश प्रो. बलदेवजी स्यातके पर्याय- तन दोनों ही एक सत्के प्रातिभासिक विवते हों। वाचियोंमें शायद शब्दको लिखकर (पृ० १७३) जैन- जिस काल्पनिक समन्वयको ओर उपाध्यायजी दर्शनकी समीक्षा करते समय शंकराचार्यकी बकालत संकेत करते है उस और भी जैन दर्शनिकोंने प्रारइन शब्दोंमें करते है कि-"यह निश्चित ही है कि म्भस दृष्टिपात किया है । परममंग्रहनयको दृष्टिसे इसी समन्वय की दृष्टिम वह पदार्थोके विभिन्न रूपों सद्रपसे यावत चेतन अचेतन द्रव्योंका संग्रह करके का समीकरण करता जाता तो समग्र विश्व में अनु. एक मत्' इस शब्दव्यवहारके होनमें जैन दाशस्यूत परमतत्त्व तक अवश्य ही पहुँच जाता। इसी निकाको कोई आपत्ति नहीं है । सैकड़ों काल्पनिक दृष्टिको ध्यानमें रखकर शंकराचार्य ने इस 'स्याद्वाद' व्यवहार होते हैं, पर इससे मौलिक तत्त्वव्यवस्था का मार्मिक अपने शारीरिक भाष्य (२, २, ३३) में नहीं की जा सकतो? एक देश या राष्ट्र अपने में प्रबल युक्तियोंके सहार किया है।" पर उपाध्याय क्या वस्तु है ? समय समयपर होनेवाली बुद्धिगत जी, जब आप स्यात्का अर्थ निश्चित रूपसे 'संशय' दैशिक एकताके सिवाय एक देश या एक राष्टका नहीं मानते तब शंकराचार्य के खण्डनका मार्मिकत्व स्वतंत्र अस्तित्व ही क्या है ? अस्तित्व जुदा जुदा क्या रह जाता है ? आप कृपाकर स्व. महामहोपा- भूखण्डोंका अपना है । उसमे व्यवहारकी सुविधाक ध्याय डा० गंगानाथमाकं इन वाक्योंको देखें-"जब लिये प्रान्त और देश मंज्ञाएं जैसे काल्पनिक है से मैंने शंकराचार्यद्वारा जैनसिद्धान्तका खण्डन पढ़ा व्यवहारसत्य है उसी तरह एक सत या एक ब्रह्म है तबसे मुझे विश्वास हुआ है कि इस सिद्ध न्तमें काल्पनिक सत् होकर व्यवहारमत्य बन सकता है बहुत कुछ है जिसे वेदान्तके श्राचार्यों ने नहीं और कल्पनाकी दौड़का चरम-बिन्दु भी हो सकता है समझा " श्री फणिभूषण अधिकारी तो और पर उसका तत्त्वसत् या परमार्थसत् होना नितान्त स्पष्ट लिखते है कि-"जैनधर्मके स्याद्वाद-सिद्धान्त असम्भव है। आज विज्ञान एटम तकका विश्लेषण को जितना गलत समझा गया है उतना किसी अन्य कर चुका है और सब मौलिक अणओंकी पृथक सिद्धान्तको नहीं । यहाँ तक कि शंकराचाय भी इस सत्ता स्वीकार करता है। उनमे अभद और इतना दोषसे मुक्त नहीं हैं। उन्होंने भी इस सिद्धान्तके प्रति बड़ा अभंद जिसमें चेतन अचेतन मूर्त अमूर्त आदि अन्याय किया है । यह बात अल्पज्ञ पुरुषोंके लिये सभी लीन होजायँ कल्पनासाम्राज्यकी अन्तिमकोटि क्षम्य हो सकती थी। किन्तु यदि मुझे कहनेका है और इस कल्पनाकोटिको परमार्थसत् न माननेक अधिकार है तो मैं भारतके इस महान विद्वानके लिये कारण यदि जैनदर्शनका स्याद्वादमिद्धान्त आपको तो अक्षम्य ही कहूँगा, यद्यपि मैं इस महषिको मूलभूत तत्त्वके स्वरूप समझानेमे नितान्त असमः अतीव श्रादरकी दृष्टिसे देखता हूँ। ऐसा जान पड़ता प्रतीत होता है तो हो, पर वह व तुसीमाका उल्लंघन है उन्होंने इस धर्मके दर्शनशास्त्रक मूल ग्रन्थोंक नहीं कर सकता और न कल्पनालोककी लम्बी दौड़ अभ्ययनकी परवाह नहीं की"
ही लगा सकता है।
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किरण ५]
स्याद्वाद स्यात् शब्दको उपाध्यायजी संशयका पर्याय- न यह संशयवाद है, न अनिश्चयवाद और न वाची नहीं मानते यह तो प्रायः निश्चित है क्योंकि संभावनावाद ही, किन्त खरा अपेक्षा प्रयुक्त
आप स्वयं लिखते हैं प०१७३) कि-"यह अने- निश्चयवाद है। कान्तवाद संशयवादको रूपान्तर नहीं है," पर इसी तरह डा० देवराजजीका पूर्वी और आप उसे संभववाद अवश्य कहना चाहते है। पश्चिमी दर्शन (पृष्ठ ६५) में किया गया स्यात् परन्तु 'स्यात्' का अर्थ 'संभवत:' करना भी न्याय. शब्दका 'कदाचित्' अनुवाद भी भ्रामक है। कदासंगत नहीं है क्योंकि संभावना संशयमें जो कोटियाँ चित् शब्द कालापेक्ष है, इसका सोधा अर्थ है किसी उपस्थित होती हैं उनकी अर्धनिश्चितताकी ओर समय। और प्रचलित अर्थ में यह सशयकी ओर ही संकेत मात्र है, निश्चय इससे भिन्न ही है। उपाध्या- झुकाता है । स्यात का प्राचीन अर्थ है कथंचितयजी स्याद्वादको संशयवाद और निश्चयवादके अथात् किसी निश्चित प्रकारसे, स्पष्ट शब्दोंमें बीच संभावनावाद की जगह रखना चाहते हैं जो अमुक निश्चित दृष्टिकोणसे। इस प्रकार अपेक्षाएक अनध्यवसायात्मक अनिश्चयके समान है। प्रयुक्त निश्चयवाद ही स्याद्वादका अभ्रान्त परन्तु जब स्याद्वाद स्पष्टरूपसे डंकेकी चोट यह कह वाच्यार्थ है। रहा है कि-घड़ा स्यादस्ति अर्थात् अपने स्वरूप, महापडित राहु लसांकृत्यायनने तथा इतः पूर्व अपने क्षेत्र, अपने काल और अपने आकार इस प्रो० जैकोबी आदिने स्याद्वादकी उत्पत्तिको संजय स्वचतुष्टयकी अपेक्षा है ही यह निश्चित अवधारण वेलट्रिपत्तके मतसे बतानेका प्रयत्न किया है। राहुहै । घड़ा स्वस भिन्न यावत् पर-पदार्थोकी दृष्टिसे लजीने दर्शनदिग्दर्शन (पृ०४६६) में लिखा है किनहीं हो है यह भी निश्चित अवधारण है। इस "आधुनिक जैनदर्शनका आधार स्यादाद है । जो तरह जब दोनों धर्मों का अपने अपने दृष्टिकोणसे मालूम होता है संजयवेलट्टिपुत्तके चार अंगवाले घड़ा अविरोधी आधार है तब घड़े को हम उभय अनेकान्तवादको लेकर उसे सात अंगवाला किया दृष्टिसे अस्ति-नास्तिरूप भी निश्चित ही कहते है। गया है। संजयने तत्त्वों (परलोक देवता) के बारेमें पर शब्दमें यह सामर्थ्य नहीं है कि घटके पूर्णपका कुछ भी निश्चयात्मक रूपसे कहनेसे इन्कार करते जिसमें अस्ति-नास्ति जैसे एक-अनेक. नित्य-अनित्य हए उस इन्कारको चार प्रकार कहा है
आदि अनेकों युगलधमे लहरा रहे है-कह १ है ? नहीं कह सकता। सके, अतः समग्रभावसे घड़ा अवक्तव्य है। इस २ नहीं है ? नहीं कह सकता। प्रकार जब स्याद्वाद सुनिश्चित दृष्टिकोणोंसे ३ है भी और नहीं भी ? नहीं कह सकता। तत्तत् धर्मोके वास्तविक निश्चयकी घोषणा करता
४न है और न नहीं है ? नहीं कह सकता। है तब इसे संभावनावादमें कैसे रखा जा इसकी तुलना कीजिए जैनोंके सात प्रकारके सकता है ? स्यात शब्दके साथ ही एवकार लगा स्याद्वादसरहता है जो निदिष्ट धर्मका अवधारण सूचित है? हो सकता है (स्यादस्ति) करता है तथा स्यात् शब्द उस निर्दिष्ट धर्मसे २ नहीं है ? नहीं भी होसकता है (स्यान्नास्ति) अतिरिक्त अन्य धर्मोकी निश्चित स्थितिकी सूचना ३ है भी और नहीं भी है भो और नहीं भो देता है। जिससे श्रोता यह न समझ ले कि वस्तु हो सकता (स्यादस्ति च नास्ति च)। इसी धर्मरूप है। यह स्याद्वाद कल्पितधों तक उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा सकते हैं (= वक्तव्य व्यवहारके लिये भले ही पहुँच जाय पर वस्तव्य- हैं) ? इसका उत्तर जैन 'नहीं' में देते हैवस्थाके लिये वस्तुकी सीमाको नहीं लाँघता । अतः ४ स्याद् (हो सकता है) क्या यह कहा जा
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२०६ अनेकान्त
विर्ष १० सकता (वक्तव्य) है ? नहीं, स्याद् अ- वक्तव्य है। परलोक न है और न नहीं है।" ।
५ स्यादस्ति' क्या यह वक्तव्य है? नहीं, संजयके परलोक, देवता, कर्मफल और मुक्तिके 'स्याद् अस्ति' अवक्तव्य है।
सम्बन्धके ये विचार शतप्रतिशत अनिश्चयवादके ६ स्याद् नास्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, है। वह स्पष्ट कहता है कि-'यदि मैं जानता होऊँ 'स्याद् नास्ति' प्रवक्तव्य है।
तो बताऊँ ।" संजयको परलोक मुक्ति आदिके ७'स्याद् अस्ति च नास्ति च' क्या यह वक्तव्य स्वरूपका कुछ भी निश्चय नहीं था, इसलिये उसका है ? नहीं, 'स्यादस्ति च नास्ति च' प्रवक्तव्य है। दर्शन वकौल राहुलजीके मानवकी सहज बुद्धिको
दोनोंके मिलानेसे मालूम होगा कि जैनोंने संज- भ्रममें नहीं डालना चाहता और न कुछ निश्चयकर यके पहिलेवाले तीन वाक्यों (प्रश्न और उत्तर दोनों) भ्रान्त धारणाओंकी पुष्टि ही करना चाहता है। को अलग करके अपने स्यद्वादको छह भंगियाँ बनाई तात्पर्य यह कि संजय घोर अनिश्चयवादो था। हैं और उसके चौथे वाक्य 'न है और न नहीं है। बद्ध ओर संजय-बुद्धने "लोक नित्य है', को जोड़कर 'स्याद' भी प्रवक्तव्य है, यह सातवाँ अनित्य है।.नित्य-अनित्य है .न नित्य न अनित्य भंग तैयार कर अपनी संप्तभंगी पूरी की।' है'; लोक अन्तवान है', नहीं है , है नहीं है', न ___इस प्रकार एक भो सिद्धान्त (= वाद) को है न नहीं है'; निर्वाणके बाद तथागत होते है', स्थापना न करना जो कि संजयका वाद था, उसीको नहा होते', होते-नहीं होते', न होते न नहीं होते ; संजयके अनुयायिओंके लुप्त होजानेपर जैनोंने जीव शरीरसे भिन्न है', जीव शरीरसे भिन्न नहीं अपना लिया और उसकी चतभंगी न्यायको सप्त- है" माध्यमिकवृत्ति पृ०४४६) इन चौदह वस्तुओंभंगीमें परिणत कर दिया।"
को अव्याकृत कहा है। मज्झिमनिकाय (२२।३) में राहुलजीने उक्त सन्दर्भमें सप्तभंगी और स्याद्वा- इनकी संख्या दश है । इसमें आदिके दो प्रश्नोंमें दके स्वरूपको न समझ कर केवल शब्दसाम्यम एक तीसरा और चौथा विकल्प नहीं गिना गया है। मये मतकी सृष्टि की है । यह तो ऐसा ही है जैसे इनके अन्याकृत होनेका कारण बुद्ध ने बताया है कि चोरसे "क्या तुम अमुक जगह गये थे ? यह कि इनके बारेमें कहना सार्थक नहीं, भितुचर्या के पूछने पर वह कहे कि नहीं कह सकता कि गया लिए उपयोगी नहीं, न यह निर्वेद, निरोध, शान्ति या था" और जज अन्य प्रमाणोंसे यह सिद्ध कर दे कि परमज्ञान, निर्वाणके लिये आवश्यक है। तात्पर्य चोर अमुक जगह गया था। तब शब्दसाम्य देखकर यह कि बुद्धकी दृष्टिमें इनका जानना मुमुक्षुके लिये यह कहना कि जजका फैसला चोरके वयानसे आवश्यक नहीं था। दूसरे शब्दोंमें बुद्ध भी संजयनिकला है।
की तरह इनके बारेमें कुछ कहकर मानवकी सहज संजयलट्टिपुत्तके दर्शनका विवेचन स्वयं राहुल- बुद्धिको भ्रममें नहीं डालना चाहते थे और न भ्रान्त जीने (पृ० ४६१) इन शब्दोंमें किया है"यदि आप धारणाओंको पुष्ट करना चाहते थे। हाँ.. पूछे-'क्या परलोक है? तो दि मैं समझता होऊँ अपनी अज्ञानता या अनिश्चयको साफ साफ शब्दोंकि परलोक है तो आपको बतलाऊँ कि परलोक है। में कह देता है कि यदि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ, मैं ऐसा भी नहीं कहता वैसा भी नहीं कहता तब बुद्ध अपने जानने न जाननेका उल्लेख न करके दूसरी तरहसे भी नहीं कहता । मैं यह भी उस रहस्यका शिष्योंके लिये अनुपयोगी बताकर नहीं कहता कि वह नहीं है । मैं यह भी नहीं कहता अपना पोछा छुड़ा लेते हैं। किसी भी तार्किकका यह कि वह नहीं नहीं है। परलोक नहीं है। परलोक प्रश्न अभी तक असमाहित ही रह जाता है कि इस नहीं नहीं है। परलोक है भी और नहीं भी है। अव्याकृतता और संजयके अनिश्चयवादमें क्या
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किरण ६]
स्थाद्वाद
२०७
अन्तर है। सिवाय इसके कि संजय फक्कड़की थे। उनका विश्वास था कि संघके पँचमेल व्यक्ति तरह खरो बात कह देता है और बुद्ध बड़े आद- जब तक वस्ततत्त्वका ठीक निर्णय नहीं कर लेते तब मियोंकी शालीनताका निर्वाह करते है। . तक उनमें बौद्धिक दृढ़ता और मानसबल नहीं प्रा
बुद्ध और संजय ही क्या, उस समयके वाता- सकता। वे सदा अपने समानशील अन्य सघके वरणमें आत्मा, लोक-परलोक और मुक्तिके स्वरूप
भिक्षुओंके सामने अपनी बौद्धिक दीनताके कारण सम्बन्धमें-है (सत्), नहीं (असत),है-नहीं (सदसत
हतप्रभ रहेंगे और इसका असर उसके जीवन और उभय), न है न नहीं है (अवक्तव्य या अनुभय)।ये आचारपर आये बिना न रहेगा । वे अपने चार कोटियाँ गूंज रही थीं। कोई भी प्राश्निक शिष्योंको पर्देबन्द पदानियों की तरह जगतके स्वरूप. किसी भी तीर्थकर या प्राचार्यसे बिना किमी मंकोचक विचारकी बाह्य हवासे अपरिचित नहीं रखना अपने प्रश्नको एक साँसमें ही उक्त चार कोटियोंमें थे, किन्त चाहते थे कि प्रत्येक प्राणी अपनी सहज विभाजित करके ही पूछता था । जिस प्रकार आज जिज्ञासा और मननशक्तिको वस्तके यथार्थ स्वरूपक कोई भी प्रश्न मजदूर और पूंजीपति, शोषक और
विचारकी ओर लगावे। न उन्हे बुद्धकी तरह यह भय शोष्यके द्वन्द्वकी छायामे ही सामने आता है, उसी व्याप्त था कि यदि आत्माके सम्बन्धमें 'है' कहते है प्रकार उस समय आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थोक
तो शाश्वतवाद अर्थात उपनिषद्वादियों की तरह प्रश्न सत् असत् उभय और अनुभय-अनिर्वचनीय
लोग नित्यत्वकी ओर झुक जायेंगे और नहीं इस चतुष्कोटिमें आवेष्टित रहते थे । उपनिषद् या करनेसे उच्छवाद अर्थात् चावाककी तरह नास्तिऋगवेदमे इस चतुष्कोटिक दशन होते है। विश्व के
त्वका प्रमंग प्राप्त होगा। अतः इस प्रश्नको अव्यास्वरूपके सम्बन्धमें असत्से सत हुआ ? या सत्
कृन रखना ही श्रेष्ठ है । वे चाहते थे कि मौजूदस सत् हुआ ? यह सदसत् दोनों रूपसे निवेच.
तकोंका और संशयोंका समाधान वस्तुस्थिति के नीय है ? इत्यादि प्रश्न उपनिषद् ओर वेदमे बरा
आधारसे होना ही चाहिए। अतः उन्होंने वस्तस्वरूपबर उपलब्ध होते है ? ऐमी दशामें राहुलजीका
का अनुभव कर यह बताया कि जगतका प्रत्येक स्याद्वादके विषयमें यह फतवा देदना कि संजयक
सत् चाहे वह चेतनजातीय हो या अचेतनजातीय, प्रश्नोंके शब्दोंसे या उसकी चतुर्भगीको तोड़-मरोड़. परिवर्तनशील है । वह निसर्गतः प्रतिक्षण परि. कर सप्तभंगी बनी-कहां तक उचित है, यह वे स्वयं वर्तित होता रहता है। उसकी पर्याय बदलती रहती विचारें । बुद्धकं समकालीन जो छह तीथिक थे उनमे
है। उसका परिणमन कभी सदृश भी होता है कभी महावीर निग्गएठ नाथपुत्रकी, सवज्ञ और सवेदशी- विसदृश भी। पर परिणमनसामान्यके प्रभावसे के रूपमे प्रसिद्धि थी। व सर्वज्ञ और सर्वदशी थ कोई भी अछूता नहीं रहता । यह एक मौलिक या नहीं यह इस समयकी चर्चाका विषय नहीं है, नियम है कि किसी भी सत्का विश्वस सर्वथा पर वे विशिष्ट तत्त्वविचारक थे और किसी भी प्रश्न- उच्वंद नहीं हो सकता, यह परिवर्तित होकर भी को संजयकी तरह निश्चय कोटि या विक्षेप* अपनी मौलिकता या सत्ताको नहीं खो सकता । कोटिमें या बुद्धकी तरह अव्याकृत कोटिमे डालने एक परमाणु है वह हाइडोजन बन जाय, जल बन वाले नहीं थे और न शिष्योंको सहज जिज्ञासाको
जाय, भाप बन जाय, फिर पानी हो जाय, पृथ्वी अनुपयोगिताके भयप्रद चक्करमें डुवा देना चाहते बन जाय और अनन्त आकृतियों या पयायोंको धारण
8 प्रो० धर्मानन्द कोसाम्बीने संजयके वादको विशेष- करले, पर अपने द्रव्यत्व या मौलिकत्वको नहीं खो वाद संज्ञा दी है। देखो, भारतीय संस्कृति और अहिंसा सकता। किसीकी ताकत नहीं जो उस परमाणुकी पृष्ठ ४७1
हस्ती या अस्तित्वको मिटा सके । तात्पर्य यह कि
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अनेकान्त
[ वर्ष १०
जगतमें जितने 'सत्' है उतने बने रहेगे। उनमेसे विभाव परिणमन-राग-द्वेष-मोह-अज्ञानरूप दशाएँ एक भी कम नहीं हो सकता, एक दूमरेमें विलीन होती रहती हैं । जब यह जीव अपनी चारित्रप्रसानहीं हो सकता। इसी तरह न कोई नया 'मत्' धनाद्वारा इतना समथे और स्वरूपप्रतिष्ठ हो जाता उत्पन्न हो सकता है। जितने हैं उनका ही आपसी है कि उसपर बाह्य जगत्का कोई भी प्रभाव न पड़ संयोग वियोगोंके आधारसे यह विश्व जगत् सके तो वह मुक्त होजाता है और अपने अनन्त चैतन्य. (गच्छतीति जगत् अर्थात् नाना रूपोंको प्राप्त होना) में स्थिर हो जाता है । यह मुक्त जीव अपने प्रतोबनता रहता है।
क्षण परिवर्तित स्वाभाविक चैतन्य में लीन रहता है। तात्पर्य यह कि-विश्वमें जितने सत् है उनमेंसे ।
. फिर उसमें अशुद्ध दशा नहीं होतो । अन्ततः पुद्गल न तो एक कम हा मकता है और न एक बढ़ सकता
परमाणु ही ऐसे है जिनमें शुद्ध या अशुद्ध किसी है। अनन्त जड परमाणु, अनन्त श्रात्माएं, एक
भो दशामें दूमरे संयोगके आधारसे नाना आकृ. धर्मद्रव्य, एक अधमेद्रव्य, एक श्राकाश और असंख्य
तियाँ और अनेक परिणमन संभव हैं तथा होते कालाणु इतने सत् हैं। इनमें धर्म,अधर्म, आकाश और
र रहते है । इस जगत् व्यवस्थामें किसी एक ईश्वर
" काल अपने स्वाभाविकरूपमें सदा विद्यमान रहते हैं ।
जैसे नियन्ताका कोई स्थान नहीं है, यह तो अपने उनका विलक्षण परिणमन नहीं होता। इसका अर्थ अपने संयोग-वियागोंसे परिणमनशील है। यह नहीं कि ये कूटस्थ नित्य हैं किन्तु इनका प्रति- प्रत्येक पदार्थका अपना सहज स्वभावजन्य प्रतिक्षण जो परिणमन होता है वह सदृश स्वाभाविक क्षणभावी परिणमनचक्र चालू है। यदि कोई दूसरा परिणमन ही होता है। श्रात्मा और पदगल ये दो संया। आ पड़ा और उस द्रव्यने इसके प्रभावको द्रव्य एक दूमरेको प्रभावित करते हैं। जिस समय आत्मसात् किया तो परिणमन तत्प्रभावित हो श्रात्मा शुद्ध हो जाता है उस समय वह भी अपने जायगा, अन्यथा वह अपनी गतिसे बदलता प्रतिक्षण भावी स्वाभाविक परिणमनका ही स्वामी जायगा । हाइड्रोजनका एक अणु अपनी गतिसे रहता है। उसमें विलक्षण परिणति नहीं होती। प्रतिक्षण हाइडोजनरूपमें बदल रहा है । यदि जब तक आत्मा अशुद्ध है तब तक ही इसके परिण- आक्साजनका अणु उसमें आजुटा तो दोनोंका जल मनपर सजातोय जोवान्तरका और विजातीय पद रूप परिणमन हो जायगा । वे एक बिन्दरूपसे गलका प्रभाव आनेसे विलक्षणता आती है। इसकी
सदृश संयुक्त परिणमन कर लेगें । यदि किसी नानारूपता प्रत्येकको स्वानुभवसिद्ध है । जड
वैज्ञानिकके विश्लेषणप्रयोगका निमित्त मिला तो पुद्गल ही एक ऐसा विलक्षण द्रव्य है जो सदा व दोनों फिर जुदा जदा भी हो सकते हैं। यदि सजातीयसे भी प्रभावित होता है और विजातीय अग्निका सयोग मिल गया भाप बन जायंगे। चेतनस भी। इसी पद्गल द्रब्यका चमत्कार आज यदि सांपके मुखका सयोग मिला विषबिन्द हो विज्ञानके द्वारा हम सबके सामने प्रस्तत है। इसीके जायेगे। तात्पर्य यह कि यह विश्व साधारणतया हीनाधिक संयोग-वियोगोंके फलस्वरूप असंख्य पुद्गल और अशुद्ध जोवके निमित्त-नैमित्तिक
आविष्कार हो रहे हैं। विद्य त, शब्द आदि इसीके सम्बन्धका वास्तविक उद्यान है। परिणमनचक्रपर रूपान्तर हैं, इसीको शक्तियां है । जीवको अशुद्ध दशा प्रत्येक द्रव्य चढ़ा हुआ है। वह अपनी अनन्त इसीके संपर्कसे होती है । अनादिसे जीव और योग्यताओं के अनुसार अनन्त एरिणमनोंको क्रमशः पद्गलका ऐसा संयोग है जो पर्यायान्तर लेनेपर भी धारण करता है। समस्त 'सत्' के समुदायका नाम जीव इसके संयोगसे मुक्त नहीं हो पाता और उसमें लोक या विश्व है। इस दृष्टिसे अब आप लोकके
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किरण ६]
स्याद्वाद
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शाश्वत और अशाश्वतवाले प्रश्नको विचारिए- (४) क्या लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनों रूप
(१) क्या लोक शाश्वत है ? हाँ, लोक शाश्वत नहीं है ? आखिर उमका पूर्ण रूप क्या है ? हाँ, लो है । द्रव्योंकी संख्याकी दृष्टिसे, अर्थात् जितने सत् कका पूर्ण रूप अवक्तव्य है. नहीं कहा जासकता। कोई इसमें हैं उनमेंका एक भो सत् कम नहीं हो सकता शब्द ऐसा नहीं जो एक-साथ शाश्वत और अशा
और न उनमें किसी नये सत्की वृद्धि ही हो सकती श्वत इन दोनों स्वरूपोंको तथा उसमें विद्यमान है। न एक सत दूसरेमें विलीन ही होसकता है। कभी अन्य अनन्त धर्मों को युगपत् कह सके । अतः शब्दभो ऐसा समय नहीं आ सकता जो इसके अंगभूत की असामध्येके कारण जगतका पूर्ण रूप अवक्तव्य द्रव्योंका लोप होजाय या वे समाप्त होजायँ । है, अनुभय है, वचनातीत है।
(२) क्या लोक अशाश्वत है ? हॉ, लोक अशा- इस निरूपणमें आप देखेंगे कि वस्तुका पूर्ण रूप श्वत है, अंगभूत द्रव्योंके प्रतिक्षणभावि परिणमा- वचनोंके अगोचर है, अनिर्वचनीय या अवक्तव्य की दृष्टिमे, अर्थात् जितने सत् है वे प्रतिक्षण सदृश है। यह चौथा उत्तर वस्तुके पूर्ण रूपको युगपत् या विसदृश परिणमन करते रहते हैं। इसमें दो
कहनेकी दृष्टिसे है। पर वही जगत् शाश्वत कहा क्षण तक ठहरनेवाला कोई परिणमन नहीं है । जो जाता है द्रव्यदृष्टिसे, अशाश्वत कहा जाता है हमें अनेक क्षण ठहरनेवाला परिणमन दिखाई देता पर्यायष्टिसे । इस तरह मूलतः चौथा, पहला है वह प्रतिक्षणभावो सदृश परिणमनका स्थूल दृष्टि- और दसरा ये तीन ही प्रश्न मौलिक हैं। तीसरा से अवलोकनमात्र है। इस तरह सतत परिवर्तनशील
उभयरूपताका प्रश्न तो प्रथम और द्वितीयके संयोगसंयाग-वियोगोंकी दृष्टिसे विचार कीजिए तो लोक
रूप है । अब आप विचारें कि संजयने जब लोकके अशाश्वत है, अनित्य है, प्रतिक्षण परिवर्तित है।
शाश्वत और अशाश्वत आदिके बारेमें स्पष्ट कह (३) क्या लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनों दिया कि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ और बुद्धने रूप है ? हॉ, क्रमशः उपर्युक्त दोनों दृष्टियोंसे -
कह दिया कि इनके चक्करमें न पड़ो, इसका जानना विचार कीजिए तो लोक शाश्वत भी है (द्रव्यदृष्टिसे) उपयोगो नहीं तब महावीरने उन प्रश्नोंका वस्तुअशाश्वत भी है (पयोयदृष्टिसे)। दोनों दृष्टिकोणों- स्थितिके अनुसार यथार्थ उत्तर दिया और शिष्याको क्रमशः प्रयुक्त करनेपर और उन दोनोंपर स्थूल की जिज्ञासाका समाधानकरउनकोबौद्धिक दीनतासे दृष्टिसे विचार करनेपर जगत् उभयरूप ही प्रतिभा- प्राण दिया। इन प्रश्नोंका स्वरूप इस प्रकार हैसत होता है। प्रश्न संजय
महावीर १. क्या लोक शाश्वत है? मैं जानता होऊ इसका जानना हाँ, लोक द्रव्यदृष्टिसे शा
तो बताऊँ
अनुपयोगी है श्वत है, इसके किसी भी सत्का
(अनिचय, विक्षेप) (अव्याकृत, अकथनीय) सर्वथा नाश नहीं होता। २. क्या लोक अशाश्वत है ?
___ हाँ, लोक अपने प्रतिक्षणभावी परिवर्तनोंकी दृष्टिसे अशाश्वत है, कोई भी पदार्थ दो
क्षण स्थायी नहीं। ३. क्या लोक शाश्वत और
हाँ, दोनों दृष्टिकोणोंसे क्रअशाश्वत है ?
मशः विचार करनेपर लोकको
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२१० अनेकान्त
वर्ष १० शाश्वत भी कहते है और
अशाश्वत भी। ४. क्या लोक दोनों रूप नहीं
हाँ, ऐसा कोई शब्द नहीं है अनभय है ?
जो लोकके परिपूर्ण स्वरूपको एक-साथ समप्रभावसे कह सके, उसमें शाश्वत और अशाश्वतके सिवाय भी अनन्त रूप विद्यमान हैं अतः समप्रभावसे वस्तु अनभय है, अवक्तव्य है, अनिर्वच
नीय है। संजय और बुद्ध जिन प्रश्नोंका समाधान नहीं एक वादका स्थापन नहीं होता। एकाधिक भेद या करते, उन्हें अनिश्चय या अब्याकृत कहकर अपना विकल्पकी सूचना जहां करनी होती है वहां 'स्यात्' पिण्ड छुड़ा लेते हैं, महावीर उन्हींका वास्तविक पदका प्रयोग भाषाकी शैलीका एक रूप रहा है जैसा युक्तिसंगत समाधान करते है। इसपर भी राहलजी कि मज्भिमनिकायके महाराहलोवाद सुत्तक निम्न
और धर्मानन्द को साम्बो आदि यह कहनेका साहस लिखित अवतरणसे ज्ञात होता है-'कतमा च राकरते है कि संजयके अनुयायिओंके लुप्त होजानेपर हुल तजोधातु ? तेजाधातु सिया अज्झत्तिका सिया संजयके वादको ही जैनियोंने अपना लिया। यह तो बाहिरा ।" ऐसा ही है कि जैसे कोई कहे भारतमें रही परतंत्रता- . अथात तेजोधातु स्यात् आध्यात्मिक है स्यात् बाह्य को ही परतंत्रताविधायक अंग्रेजोंके चले जानेपर है। यहाँ सिया (स्यात) शब्दका प्रयोग तेजाधातके भारतीयोंने उसे अपरतंत्रता (स्वतंत्रता) रूपसे अप- निश्चित भेदोंकी सूचना देता है न कि उन भेदोंका ना लिया है क्योंकि अपरतंत्रतामें भी 'परतंत्रता से संशय, अनिश्चय या संभावना बताता है। श्राध्यापांच अक्षर तो मौजूद हैं ही। या हिंसाको ही बद्ध त्मिक भेदके साथ प्रयुक्त होनेवाला स्यात् शब्द
और महावीरने उसके अनुयायिओंके लग्न होनेपर इस बातका द्योतन करता है कि तेजोधात मात्र अहिंसारूपसे अपना लिया है क्योंकि अहिंसामें
आध्यात्मिक ही नहीं है किन्तु उससे व्यतिरिक्त भी 'हिंसा' ये दो अक्षर हैं ही । यह देखकर तो
बाह्य भी हैं। इस तरह 'स्यादस्ति' मे अस्तिके साथ और भी आश्चर्य होता है कि-आप (पृष्ठ ४८४)
लगा हुआ 'स्यात्' शब्द सूचित करता है कि अनिश्चिततावादियोंकी सूचीमें संजयके साथ
__ अस्तिस भिन्न धम भी वस्तुमे है केवल अस्ति धर्मनिम्गंठनाथपुत्त (महावीर)का नाम भी लिख जाते रूप ही वस्तु नहीं है। इस तरह 'स्यात्' शब्द न है, तथा (पृष्ठ ४६१) संजयको अनेकान्तवादी। क्या शायदका, न अनिश्चयका और न संभावनाका इसे धमकीर्तिके शब्दोंमें "धिग व्यापकं तमः' नहीं सूचक है किन्तु निर्दिष्ट धर्मके सिवाय अन्य अशेष कहा जा सकता?
धर्मोकी सूचना देता है जिससे श्रोता वस्तुको निर्दिष्ट ___ स्यात् शब्दके प्रयोगसे साधारणतया लोगोंको धर्ममात्ररूप ही न समझ बैठे। संशय, अनिश्चय या संभावनाका भ्रम होता है । सप्तभङ्गी-वस्तु मूलतः अनन्तधर्मात्मक है । पर यहातो भाषाकी पुरानी शैली है उस प्रसंगकी, जहां उसमें विभिन्न दृष्टियोंसे विभिन्न विवक्षाओंसे अनंत
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किरण ६]
धर्म हैं । प्रत्येक धर्मका विरोधी धर्म भी दृष्टिभेद से वस्तु में सम्भव है । जैसे 'घटः स्यादस्ति' में घट है
स्याद्वाद
२११
भङ्ग तीन हैं तब इनके द्विसंयोगी भङ्ग भी तीन होंगे तथा त्रिसंयोगी भङ्ग एक होगा। जिस तरह चतुकोटिमें सत् और श्रमतको मिलाकर प्रश्न होता है कि 'क्या सन् होकरके भी वस्तु असत है ?' इसी तरह ये भी प्रश्न होसकते हैं कि १ क्या सत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है ? २ क्या असत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है ? ३ क्या सत् असत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है ? इन तीनों प्रश्नोंका समाधान मंयोगज चार अंगोंमें है । अर्थात्
अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल- भावकी मर्यादासे । जिस प्रकार घटमें स्वचतुष्टयकी अपेक्षा अस्तित्व धर्म है उसी तरह घट व्यतिरिक्त अन्य पदार्थोंका नास्तित्व भी घटमें है । यदि घटभिन्न पदार्थो का नास्तित्व घटन पाया जाय तो घट और अन्य पदार्थ मिलकर एक होजायेंगे | अतः घट 'स्यादस्ति' और ‘स्यान्नास्ति' रूप हैं । इसी तरह वस्तुमे द्रव्यदृष्टि नित्यत्व, पर्यायदृष्टिम अनित्यत्व आदि अनको विरोधा धर्मयुगल रहते है । एक वस्तुमें अनन्त समभङ्ग बनते है । जब हम घटके अस्तित्वका विचार करते तो अस्तित्वविषयक सात भङ्ग होसकते है। जैसे संजय के प्रश्नोत्तर या बुद्धकं अव्याकृत प्रश्नोत्तर में हम चार कोटि तो निश्चत रूप से देखते है - सत, असत्, उभय और अनुभय । उसी तरह गणित के हिसाब से तीन मूलभङ्गोंको मिलाने पर अधिक-से-अधिक सात अपुनरुक्त भंग होसकते हैं । जैसे घड़े के अस्तित्वका विचार प्रस्तुत है तो पहला अस्तित्व धर्म, दूसरा तविरोधी नास्तित्व धम और तीसरा धर्म होगा अवक्तव्य जो वस्तुकं पूर्ण रूपकी सूचना देता है कि वस्तु पूर्णरूपसं वचनके अगोचर है। उसके विराट् रूपको शब्द नहीं छू सकते । अवक्तव्य धर्म इस अपेक्षा है कि दोनों धर्मोको युगपत कहनेवाला शब्द संसारमे नहीं हैं अतः वस्तु यथार्थतः वचनानीत है, अवक्तव्य है । इस तरह मूलमे तीन भङ्ग है
१ स्यादस्ति घटः । २ स्यान्नास्ति घटः । ३ स्यादवक्तव्यो घटः ।
अवक्तव्य के साथ 'स्यात्' पद लगाने का भी अर्थ है कि वस्तु युगपत् पूर्णरूपमें यदि अवक्तव्य है तो क्रमशः अपने पूर्णरूपमें वक्तव्य भी है और अस्ति नास्ति आदि रूपसे वचनोंका विषय भी होती है । श्रतः वस्तु स्याद्वक्तव्य है । जब मूल
(४) अस्ति नास्ति उभयरूप वस्तु है -- स्वचतुय और परचतुष्टयपर क्रमशः दृष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहनेपर |
(५) अस्ति वक्तव्य वस्तु है- प्रथम समय में स्वतप्रय और द्वितीय समयमे युगपत् खपरचत्प्रयपर क्रमशः दृष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहनेपर । (६) नास्ति वक्तव्य वस्तु है - प्रथम समय में परचतुष्टय और द्वितीय समयमे युगवत् स्वपरचतप्रयकी क्रमशः दृष्टि रखनेवर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहनेपर |
(७) अस्ति नास्ति अवक्तव्य वस्तु है - प्रथम तृतीय समयमै युगपत् स्वपरचतुष्टयपर क्रमशः दृष्टि समयमे स्वचतुष्टय, द्वितीय समय मे परचतुष्टय तथा स्वनेपर और तीनोंकी सामूहिक विवक्षा रहनेपर ।
जब अस्ति और नास्तिकी तरह अवक्तव्य भी धर्म है तब जैसे अस्ति और नास्तिको मिलावस्तुका कर चौथा भङ्ग बन जाता है वैसे ही अवक्तव्य के साथ भी अस्ति, नास्ति और अस्तिनास्ति मिलकर पाँचवें, छठवें और सातवें भङ्गकी सृष्टि हो जाती हैं । इस तरह गणित के सिद्धान्त अनुसार तीन मूल वस्तुओं के अधिक से अधिक अपुनरुक्त सात ही भङ्ग हो सकते हैं । तात्पर्य यह कि वस्तु के प्रत्येक धर्मको लेकर सात प्रकारकी जिज्ञासा होसकती है,
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अनेकान्त
विर्ष १०
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सात प्रकारके प्रश्न होसकते हैं अत: उनके उत्तर भी सप्तभङ्गीन्यायको बालकी खाल निकालनेके भी सात प्रकारके ही होते हैं।
समान आवश्यकतासे अधिक बारीकीमें जाना सम___ दर्शनदिग्दर्शनमें श्रीराहुलजीने पाँचवें, छठवें झते हैं। पर सप्तभङ्गीको आजसे अढाई हजार वर्ष
और सातवें भंगको जिस भ्रष्ट तरीकेसे तोड़ा मरोहा पहले के वातावरणमें देखनेपर वे स्वयं उसे समयकी है यह उनकी अपनी निरी कल्पना और अतिसा- मांग कहे बिना नहीं रह सकते। अढाई हजार वर्ष हस है। जब वे दर्शनोंको व्यापक. नई और वैज्ञा- पहले आबालगोपाल प्रत्येक प्रश्नको सहज तरीकसे निक दृष्टि से देखना चाहते हैं तो किसी भी दशनकी
'सत् असत् उभय और अनुभय' इन चार कोटियोंसमीक्षा उसके स्वरूपको ठीक समझ कर ही करनी में गूंथकर ही उपस्थित करते थे और उस समयके चाहिए। वे प्रवक्तव्य नामक धर्मको, जो कि सत्के
भारतीय आचार्य उत्तर भी चतुष्कोटिका हो, हाँ या साथ स्वतंत्रभावसे द्विसंयोगी हुपा है, तोड़कर
ना में देते थे तब जैन तीर्थकर महावीरने मल तीन श्रवक्तव्य करके संजयके 'नहीं' के साथ मेल बैठा
भंगोके गणितके नियमानुसार अधिक-से-अधिक
सात प्रश्न बनाकर उनका समाधान सप्तभनीद्वारा देते हैं और संजयके घोर अनिश्चयवादको हो अनेकान्तवाद कह देते है ! 'किमाश्चर्यमतः परम्' ?
किया जो निश्चितरूपसे वस्तकी सीमाके भीतर ही
रही है। अनेकान्तवादने जगतके वास्तविक अनेक श्रीसम्पूर्णानन्दजी 'जैनधर्म' पुस्तककी प्रस्तावना
सत्का अपलाप नहीं किया और न वह केवल (पृ० ३) में अनेकान्तवादकी ग्राह्यता स्वीकार करके
कल्पनाके क्षेत्रमें विचरा है। जैन कथा-प्रथोंमे महावीरके बालजीवनकी एक मेरा उन दार्शनिकोंसे निवेदन है कि भारतीयघटनाका वर्णन भाता है कि 'संजय और विजय नामके दो परम्परामें जो सत्यकी धारा है उसे दर्शनग्रन्थ लिखत साधुओंका सशय महावीरको देखते ही नष्ट हो गया था, समय भी कायम रखें और समीक्षाका स्तम्भ तो इस लिये इनका नाम सन्मति रक्खा गया था। संभव है बहुत सावधानी और उत्तरदायित्वके साथ लिखयह संजय-विजय संजय वेलठिपुत्त ही हों और इसीके नेकी कृपा करें जिससे दर्शन केवल विवाद और संशय या अनिश्चयका नाश महावीरके सप्तभंगीन्यायसे भ्रान्त परम्पराओंका अजायबघर न बने । वह जीवहुना हो और वेलटिपुत्त विशेषण ही भ्रष्ट होकर विजय नमें संवाद लावे और दर्शनप्रणेताओंको समुचित नामका दूसरा साधु बन गया हो।
न्याय दे सके।
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प्राप्तपरीक्षाका प्राक्कथन (ले०-विद्वद्वर्य पं० कैलाशचन्द्रजी, शास्त्री)
[वीरसेवामन्दिरसे जो हालमें 'प्राप्तपरोक्षा' का मया संस्करण प्रकाशित हुआ है उसी में विद्वान् लेखकने अपना यह विचारपूर्ण 'प्राक्कथन' लिखा है। यह प्राक्कथन तत्व-जिज्ञासुओं और इतिहास-प्रेमियों के लिए खास तौरसे पढ़ने योग्य है। इसमें संक्षेपमें कई उसके विषयोंपर अच्छा और समाधानकारक प्रकाश डाला गया है। हम अपने 'अनेकान्त' के प्रेमी पाठकोंक लिए भी उसे यहाँसे उद्धृत करके यहाँ दे रहे हैं।
-सम्पादक]
आपका अर्थ है-प्रामाणिक, सञ्चा, कभी धोखा अग्नि आदि देवताओंके स्थानमें ब्रह्माकी प्रतिष्ठा न देनेवाला, जो प्रामाणिक है, सच्चा है वही प्राप्त हुई । माण्डूक्य उपनिषदें लिखा है कि 'दो प्रकारहै। उमीका सब विश्वास करते है । लोकमें ऐसे की विद्याएँ अवश्य जाननी चाहिये-एक उच्च विद्या प्राप्त पुरुष सदा सर्वत्र पाये जाते है जो किसी एक और दूसरी नीची विद्या । नोची विद्या वह है जो खास विषयमें प्रामाणिक माने जाते है या व्यक्ति- वेदोंसे प्राप्त होती है और उच्च विद्या वह है जिससे विशेष, समाजविशेष और देशविशेषके प्रति प्रामा- अविनाशी ब्रह्म मिलता है। इस तरह जब वेदोंसे णिक होते हैं । किन्तु सब विषयों में खासकर उन वि. प्राप्त ज्ञानको नीचा माना जाने लगा और जिससे षयोंमें, जो हमारी इन्द्रियोंके अगोचर है, सदा मबक अविनाशी ब्रह्मकी प्राप्ति हो उसे उच्च विद्या माना प्रति जो प्रामाणिक हो ऐसा आप्त-व्यक्ति प्रथम तो होना जाने लगा तो उस उच्च विद्याको खोज होना स्वाही दुर्लभ है। और यदि वह हो भी तो उसको प्राप्तता- भाविक ही था । इसी प्रयत्नके फलस्वरूप उत्तरकाल की जांच करके उसे प्राप्त मान लेना कठिन है। में अनेक वैदिक दर्शनोंकी सृष्टि हुई, जो परस्परमें
प्रस्तुत ग्रन्थके द्वारा प्राचार्य विद्यानन्दने उसी विरोधी मान्यताएँ रखते हुए भी वेदके प्रामाण्यको कठिन कार्यको सुगम करनेका सफल प्रयास स्वीकार करनेके कारण वैदिक दर्शन कहलाये।। किया है।
सर्वज्ञताको लेकर श्रेणी-विभाग-वैदिक परवेदिक दर्शनोंकी उत्पत्ति-प्राचीनकालसे ही म्पराके अनुयायी दर्शनोंमे सर्वज्ञताको लेकर दो पक्ष भारतवर्ष दो विभिन्न संस्कृतियोंका संघर्षस्थल रहा है। मीमांसक किमी सर्वज्ञकी सत्ताको स्वीकार नहीं है। जिस समय वैदिक आर्य सप्तसिंधु देशमें निवास करता, शेष वैदिक दर्शन स्वीकार करते है। करते थे और उन्हें गंगा-यमुना और उनके पूर्वके किन्तु श्रमण-परम्पराके अनुयायी सांख्य, बौद्ध और देशोंका पता तक नहीं था तब भी यहाँ श्रमण संस्कृति जैन सवेज्ञताको स्वीकार करते हैं। इसी तरह श्रमण फैली हुई थी, जिसके संस्थापक भगवान ऋषभदेव परम्पराक अनयायी तीनों दर्शन अनीश्वरवादी हैं, थे । जब वैदिक आर्य पूरवकी ओर बढ़े तो उनका किन्तु वैदिक दर्शनोंमें मीमांसकके सिवा शेष सब श्रमणोंके साथ संघर्ष हश्रा । उसके फलस्वरूप ही ईश्वरवादी हैं। ईश्वरवादी ईश्वरको जगतकी उत्प. उपनिषदोंकी मृष्टि हुई और याज्ञिक क्रियाकाण्डका त्तिमें निमित्तकारण मानते हैं और चूंकि ईश्वर स्थान आत्मविद्यान लिया । तथा इन्द्र, वरुण, सूर्य, जगतकी रचना करता है इस लिये उसे समस्त
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अनेकान्त
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कारकोंका ज्ञान होना आवश्यक है। अत: वे अनादि वे स्वाभाविक गण मंसार-अवस्थामें कमोसे आच्छा अनन्त ईश्वरमें मर्वज्ञताको भी अनादि अनन्त दित होनेके कारण विकृत हो जाते हैं । आत्माका मानत हैं। अन्य जो जीवात्मा योगाभ्यामके द्वारा स्वाभाविक ज्ञान और सुख गुण कावृत होनेके समस्त पदार्थोंका ज्ञान प्राप्त करते है--यानी सर्वज्ञ माथ ही साथ पराधीन भी हो जाता है । जिससे होते हैं वे मुक्त हो जाते हैं और मुक्त होते ही उनका ऐसा प्रतीत होने लगता है कि इन्द्रियोंके बिना श्रासमस्त ज्ञान जाता रहता है। अतः ईश्वर मुकात्मा- त्माको ज्ञान और सुख हो ही नहीं सकता । किन्तु ओमे विलक्षण है । निरीश्वरवादी दर्शनांमें बौद्ध तो ऐसा है नहीं, इन्द्रियके बिना भी ज्ञान और सुख अनात्मवादी है, सांख्य ज्ञानको प्रकृतिका धर्म मानता रहता है। अतः जसे साने को भागमें तपानेसे उसहै, अतः पुरुष और प्रकृतिका सम्बन्ध छूटते ही में मिले हुए मलके जल जाने या अलग होजानेसे मक्तात्मा ज्ञानशून्य हो जाता है । कवल एक जैन- सोना शुद्ध हो जाता है और उसके स्वाभाविक गुण दशन ही ऐसा है जो मक्क होजानेपर भी जीवकी
एकदम चमक उठते है वैसे ही ध्यानरूपी अग्निमें सर्वज्ञता स्वीकार करता है; क्योंकि उसमें चैतन्यको कर्मरूपी मैलको जला डालनपर प्रात्मा शुद्ध हो जाता ज्ञानदर्शनमय ही माना गया है।
है और उसके स्वाभाविक गण अपने पूर्ण रूपमे सर्वज्ञतापर जार-ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकाशमान हो जाते है। आत्माको कर्मरूपी मलसे शुद्ध जीवको सर्वज्ञतापर जितना जोर जनदशेनन मुक्त करके अपने शुद्ध स्वरूपमे स्थित करना ही दिया तथा उसकी मयोदाको विस्तृत किया, दूसरे जैनधर्मका चरम लक्ष्य है, उसीका नाम मुक्ति या किसी दर्शनने न तो उतना उसपर जोर दिया और मोक्ष है। प्रत्येक आत्मा उस प्राप्त करनेकी शक्ति न उसकी इतनी विस्तृत रूप-रेखा ही अंकित की। रखता है जब कोई विशिष्ट आत्मा चार घा बौद्ध त्रिपिटका में बुद्ध के समकालीन धमप्रवत्तकोंकी को नष्ट करके पूर्ण ज्ञाना हो जाता है तब वह अन्य कुछ चर्चा पाई जाती है, उनमें जनधमक अन्तिम जीवोंको मोक्षमागका उपदेश देता है। इस तरह तीर्थकर निग्गठनाथपुत्त (महावीर। की भी काफी एक ओर तो वह वीतरागी हो जाता है और दूसरो चर्चा है। उससे' पता चलता है कि उम समय और पूर्ण ज्ञानी हो जाता है । ऐसा हानेसे हो न तो लोगोंमें यह चर्चा थी कि निग्गठनाथपुत्त अपनेको उसके कथनमें अज्ञानजन्य अमत्यता रहता है । सर्वज्ञ कहते हैं और उन्हें हर समय ज्ञानदर्शन और न राग-द्वेषजन्य असत्यता रहती है। इमीसे मौजूद रहता है। यह चर्चा बुद्धके सामने भी पहुँची स्वामी समन्तभद्रन प्राप्तका लक्षण इस प्रकार थी। इससे भी उक्त धारणाकी पुष्टि होती है। किया है:
अतः यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि प्राप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञ नागमेशिना। जैनदर्शनके सर्वज्ञतापर इतना जोर देनेका कारण भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्या तता भवेत् ॥५॥ क्या है ?
-रत्नक० श्रा। उसका कारण-जैनधर्म आत्मवादी है और आप्तको नियमसे वीतरागी, सर्वज्ञ और श्रागमआत्माको ज्ञान, दर्शन, मुख, वीये आदि गुणमय मा- का उपदधा होना ही चाहिए, बिना इनकं प्राप्तता नता है। तथा उसमे गुण और गरणीकी पृथक और हो नहीं सकती।' स्वतंत्र सत्ता नहीं है । द्रव्य अनन्त गुणोंका अखण्ड यह ऊपर लिख आये हैं कि ईश्वरवादियोंने पिण्ड होनेके सिवा और कुछ भी नहीं है। आत्माके ईश्वरको सर्वज्ञ माना है. क्योंकि वह सृष्टिका रचन १ बुचर्या:पृ. २01.. .. .
यिता है, साथ ही साथ वह जीवको उसके कर्मोंका
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किरण ६]
आप्तपरीक्षाका प्राक्कथन फल देता है, वही उसे स्वर्ग या नरक भेजता है, उसी शुद्धोपयोगाधिकारमें आई गाथामें पढ़ते हैं-'व्यवके अनुप्रहसे ऋषियोंके द्वारा वेदका अवतार होता हाग्नयसे केवली भगवान सबको जानते देखते हैं है। किन्तु जैनदशेन सृष्टिको अनादि मानता है. कर्म और निश्चयसे आत्माको जानते हैं। तो फल देनेके लिये भी किसी माध्यमको उसे आवश्य- उससे यह भ्रम नहीं होता कि कुन्दकुन्द केवलज्ञानीकता नहीं है। उसे तो मात्र मोक्षमार्गका उपदेश देने के
को मात्र आत्मज्ञानी ही मानते हैं। क्योंकि वह तो लिये ही एक ऐसे आप्त पुरुषकी आवश्यकता रहती
कहते हैं कि 'जो मबको नहीं आनता वह एकको जान है जो राग-द्वपकी घाटोको पार करके और अज्ञानके
ही नहीं सकता।' उनके मतसे आत्मज्ञ और सर्वत्र
ये दोनों शब्द दो विभिन्न दृष्टिकोणोंसे एक ही अर्थवीहड़ जङ्गलसे निकालकर मनुष्योंको यह बतलाये
के प्रतिपादक है। अन्तर इतना है कि 'सर्वज्ञ' शब्दकि कैसे उम घाटीको पार किया जाता है और किस
मे सब मुख्य हो जाते हैं, अत्मा-गौण पड़ जाती है प्रकार अज्ञान दूर हो सकता है ?
जो निश्चयनयको अभीष्ट नहीं है। किन्तु 'आत्मज्ञ' आत्मज्ञ बनाम सज्ञ-अब प्रश्न यह हो शब्दमे आत्मा ही मुख्य है शेष सब गौण है । अतः सकता है कि मात्र मोक्षमार्गका उपदश देनेके लिये निश्चयनयसे आत्मा आत्मज्ञ है और व्यवहारनयसर्वज्ञ होनेकी या उस उपदेष्टाको सर्वज्ञ माननेकी संसर्व है। आध्यात्मिक दर्शनमें आत्माको अखक्या आवश्यकता है ? मोक्षका सम्बन्ध आत्मास है एउता, अनश्वरता, अभेद्यता, शुद्धता आदि ही:ग्राह्य अतः उसके लिये तो केवल आत्मज्ञ होना पर्याप्त है। है क्योंकि वस्तुस्वरूप ही वैसा है। उसीको प्राप्त उपनिषदाम भी 'यो आत्मविद् स सर्वविद्' लिखकर करने का प्रयत्न मोक्षमागेके द्वारा किया जाता है। आत्मज्ञका ही सर्वज्ञ कहा है । बौद्धोंने भी हेयोपादय अतः प्रत्येक सम्यग्दृष्ट्रि-जिम निश्चयको भाषामें तत्वक ज्ञाताका.ही सर्वज्ञ' माना है। .
श्रात्मदृष्टिं कहना उपयुक्त होगा-आत्माको पूर्णरूप ___ इस प्रश्नका समाधान दिगम्बर' और श्वताम्बर से जाननेका और जानकर उसी में स्थित होनेका दोनोंके आगमोम एक ही-स शब्दों में मिलता है और प्रयत करता ।लम
प्रयत्न करता है। उस प्रयत्नमे सफल होनेपर हो वह है-'जो एकको जानता है वह सबको जानता वह सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो जाता है। अत: आत्मज्ञताहै। क्योंकि आत्मा ज्ञानमय है और ज्ञान प्रत्येक मेंसे सज्ञता लित होती है। सर्वज्ञतामेंसे आत्मआत्माम तरतमांशरूपमे पाया जाता है । अतः ज्ञान- जसा फलित नहीं होती; क्योंकि मुमुक्षका प्रयत्न रूप अंशी अपने सब अंशांमें. व्याप्त होकर रहता आत्मनताके लिये होता है सर्वज्ञताके लिये नहीं। है। और ज्ञानके अंश जिन्हें ज्ञानविशेष कहा जा
अतः अध्यात्मदर्शनमें केवलीको आत्मज्ञ कहना ही सकता है, अनन्त द्रव्य-पयायोंक झायक है। अतः वास्तविक है. भतार्थ है और सर्पज्ञ कहना अवास्तअनन्त द्रव्य-पयायोंक ज्ञायकस्वरूप. ज्ञानांशास विक है, अभूतार्थ है। भूतार्थ और अभूतार्थका परिपूर्ण ज्ञानमय आत्माको जानना ही सबको जा- इतना हो अभिप्राय है। इस नयदृष्टिको भुलाकर नना है। प्राचार्य कुन्दकुन्दने अपने प्रवचनसारमें यदि यह अर्थ निकालनेकी चेष्टा की जायगी किव्यतर्कपूर्ण श्राममिक शैलोमें आत्माकी सर्वज्ञताका सुन्दर वहारनय जो कुछ कहता है वह दृष्टिभेदसे अयथार्थ
सरज सातन उपपादन किया है। उसक प्रकाः न होकर सवथा अयथ है तब तो स्याद्वादनयशमें जब हम अकेही नियमसार. नामक अन्यके' गभित जिनवाणोको छोड़कर जैनोंको भी शुद्धाद्वतको
योपादयतत्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः। ... अपनाना पड़ेगा । जैनसिद्धान्तरूपी वन विविध __यः प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्व वेदकः ॥-प्र० वा०। भंगोंसे गहन है उसे पार करना दुरूह है । मार्गभ्र
२ प्रवच गा० १-४८, ०६। ३.गा. ३१६। हुए लोगोंको नयचक्रके संचारमें प्रवीण गुरू ही मार्ग
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अनेकान्त
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पर लगा सकते थे। खेद है कि आज ऐसे गुरु नहीं भूत, वर्तमान और भावी तथा सूक्ष्म, व्यवहित और हैं और जिनवाणीके ज्ञाता विद्वान लोग स्वपक्षपात विप्रकृष्ट पदार्थोंका ज्ञान करानेमें समर्थ है । यथाया अज्ञानके वशीभूत होकर अथका अनर्थ करते है, "चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्म व्यवयह जिनवणीके भाराधकोंका महद् दुर्भाग्य है, हितं विप्रकृष्टमित्येवं जातीयकमर्थमवगायतुमलम्" अस्तु ।
[शा०१-१-२] सर्वज्ञकी चर्चाका अवतरण-ऐसा प्रतीत श्रमणसंस्कृति केवल निरीश्वरवादी ही नहीं है होता है कि प्राचार्य समन्तभद्रके समयमें बाह्य किन्तु वेदके प्रामाण्य और उसके अपौरुषेयत्वको विभति और चमत्कारोंको ही तीर्थकर होनेका मुख्य भी वह स्वीकार नहीं करती। जैन और बौद्ध दाशचिह्न माना जाने लगा था। साधारण जनता तो निकोंने ईश्वरकी ही तरह वेदके प्रामाण्य और अपौसदासे इन्हीं चमत्कारोंकी चकाचौंधके वशीभूत रुषेयत्वकी खूब आलोचना की है। अतः जब वेदहोती आई है। बद्ध और महावीरके समयमें भी वादी वेदको त्रिकालदर्शी बतलाते थे तो जैन और उन्हीं की बहुलता दृष्टिगोचर होती है । बुद्धको अपने बौद्ध दार्शनिक पुरुषविशेषको त्रिकालदर्शी सिद्ध करते नये अनुयायियोंको प्रभावित करनेके लिये चमत्कार थे। शवरस्वामीकी उक्त पंक्तियाँ पढ़कर आचार्य दिखाना पड़ता था। प्राचार्य समन्तभद्र जैसे परी- समन्तभद्रकी सवज्ञसाधिका कारिकाका स्मरण क्षाप्रधानी महान दार्शनिकको यह बात बहुत खटकी; वरवस हो आता है। जो इस प्रकार हैक्योंकि चमत्कारोंकी चकाचौंधमें आप्तपुरुषकी
सूचमान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । असली विशेषताएँ जनताकी दृष्टिसे ओझल होती
अनुमेयत्वतोऽन्यादिरित सर्वज्ञसंस्थितिः ॥५॥ जाती थी। अतः उन्होंने 'आप्तमीमांसा' नामसे एक प्रकरण-प्रन्थ रचा जिसमें यह सिद्ध किया कि देवों- भाष्यके सक्षम, व्यवहित और विप्रकृष्ट शब्द का आगमन, आकाशमें गमन, शरीरकी विशेषताएँ तथा कारिकाके सूक्ष्म, अन्तरित और दूराथे शब्द तो मायावी जनोंमें भी देखी जाती हैं, जादगर भो एकार्थवाची हैं। दोनों में प्रतिबिम्ब-प्रतिबिम्बकभाव जादूके जोरसे बहुत-सी ऐसी बातें दिखा देता है जो जैसा झलकता है। और ऐसा लगता है कि एकन जनसाधारणकी बुद्धिसे परे होती हैं। अतः इन दूसरेके विरोधमें अपने शब्द कहे है । शवरस्वामीबातोंसे किसीको प्राप्त नहीं माना जा सकता । आप्त- का समय ई• स० २५० से ४०० तक अनुमान किया पुरुष तो वही है जो निर्दोष हो, जिसका बचन यक्ति जाता है। स्वामी समन्तभद्रका भी लगभग यही और आगमसे अविरुद्ध हो। इस तरह उन्होंने समय माना जाता है। विद्वानोंमें ऐसी मान्यता आप्तकी मीमांसा करते हुए आगममान्य सर्वज्ञता- प्रचलित है कि शवरस्वामी जेनोंके भयसे बनमें शबर को तर्ककी कसौटीपर कसकर दर्शनशास्त्रमें सर्वज्ञकी अर्थात् भीलका वेष धारण करके रहता था इसलिये चर्चाका अवतरण किया।
उसे शबरस्वामी कहते थे। शिलालेखों वगैरहसे स्पष्ट इस प्रसंगमें सर्वज्ञको न माननेवाले मीमांसककी
है कि आचार्य समन्तभद्र अपने समयके प्रखर
ताकिक, वाग्मी और वादी थे तथा उन्होंने जगहचर्चा कर देना प्रासंगिक होगा।
जगह भ्रमणकर शास्त्रार्थमें प्रतिवादियोंको परास्त स्वामीसमन्तभद्र और शवरस्वामी-मीमांसक किया था। हो सकता है कि उन्होंके भयसे शवरवेदको अपौरुषेय और स्वतः प्रमाण मानते है । शव- स्वामीको वनमें शबरका भेष बनाकर रहना पड़ा रस्वामीने अपने शावर भाष्यमें लिखा है कि वेद हो। और इसीलिये समन्तभद्रका निराकरण करने 1. बुचर्या, पृ. २६, ८६ आदि।
1.हिन्दतत्वज्ञानना इतिहास .पृ. ११२।
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किरण ६ ]
का उन्हें साहस न हुआ हो। जो हो, अभी इस विषय में कुछ निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता । किन्तु इतना सुनिश्चित है कि शाबर भाष्य के टीकाकार कुमारिलने समन्तभद्रकी सर्वज्ञता विषयक मान्यताको खूब आड़े हाथों लिया है। पहले तो उसने यही आपत्ति उठाई है कि कोई पुरुष अतीन्द्रियार्थदर्शी नहीं हो सकता । किन्तु चूंकि ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वरको अवतारका रूप देकर पुरुष मान लिया गया था और उन्हें भी सर्वज्ञ माना जाता था अतः उसे कहना पड़ा कि ये त्रिमूर्ति तो वेदमय है अतः वे सर्वज्ञ भले ही हों किन्तु मनुष्य सर्वज्ञ कैसे हो सकता है ? उसे भय था कि यदि पुरुषकी सर्वज्ञता सिद्ध हुई जाती है तो वेदके प्रामाण्यको गहरा धक्का पहुँचेगा तथा धर्ममें जो वेदका ही एकाधिकार या वेदके पोषक ब्राह्मणका एकाधिकार चला श्राता है उसकी नींव ही हिल जावेगी । श्रतः कुमारिल कहता है' कि भाई ! हम तो मनुष्यके धर्मज्ञ होनेका निषेध करते हैं। धर्मको छोड़कर यदि मनुष्य शेष सबको भी जान ले तो कौन मना करता है ?
आप्तपरीक्षाका प्राकथन
जैसे आचार्य समन्तभद्रके द्वारा स्थापित सर्वज्ञ ताका खण्डन करके कुमारिलने अपने पूर्वज शबरस्वामीका बदला चुकाया वैसे ही कुमारिलका खडन करके अपने पूर्वज स्वामी समन्तभद्रका बदला भट्टालने और मय व्याजके स्वामी विद्यानन्दिने चुकाया । विद्यानन्दिने आप्तमीमांसाको लक्ष्यमें रख कर ही अपनी प्तपरीक्षाकी रचना की । जहाँ तक हम जानते हैं देव या तीर्थकर लिये श्रप्त शब्दका व्यवहार स्वामी समन्तभद्रने ही प्रचलित किया है । जो एक न केवल मार्गदर्शक किन्तु मोक्षमार्गदर्शक के लिये सर्वथा संगत है ।
मीमांसा और आप्तपरीक्षा - मीमांसा और परीक्षा में अन्तर है । आचार्य हेमचन्द्रके 1 धर्मशत्वनिषेधस्तु केवलोऽश्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद् विजानानः पुरुषः केन धार्यते ॥
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अनुसार मीमांसा शब्द 'आदरणीय बिचार' का वाचक है। जिसमें अन्य विचारोंके साथ सोपाय मोक्षका भी विचार किया गया हो वह मीमांसा है। और न्यायपूर्वक परीक्षा करनका नाम परीक्षा J इस दृष्टि से तो आप्तमीमांसाको आप्तपरीक्षा कहना ही संगत होगा, क्योंकि आप्तमीमांसा में विभिन्न विचारोंकी परीक्षाके द्वारा जैन श्राप्तप्रतिपादित स्थाद्वादन्यायकी ही प्रतिष्ठा की गई है, जबकि श्राप्तपरीक्षामें मोक्षमार्गोपदेशकत्वको आधार बनाकर विभिन्न श्राप्तपुरुषोंकी तथा उनके द्वारा प्रतिपादित तत्वोंकी समीक्षा करके जैन श्राप्तमें ही उसकी प्रतिष्ठा की गई है । यद्यपि श्राप्तपरीक्षामें ईश्वर, कपिल, बुद्ध, ब्रह्म आदि सभी प्रमुख प्राप्तोंकी परीक्षा की गई है, किन्तु उसका प्रमुख और आद्य भाग तो ईश्वर परीक्षा है जिसमें ईश्वर के सृष्टिकर्तृत्वकी सभी दृष्टिकोणों से विवेचना करके उसकी धज्जियाँ उड़ा दी गई हैं। कुल १२४ कारिकाओंमेंसे ७७ कारिका इस परीक्षा ने घेर रक्खी हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ईश्वरके सृष्टिकर्तृत्व के निराकरण के लिये ही यह परीक्षाग्रंथ रचा गया है। और तत्कालीन परिस्थितिको देखते हुए यह उचित भी जान पड़ता है; क्योंकि उस समय शङ्करके अद्वैतवादने तो जन्म ही लिया था। बौद्धोंके पैर उखड़ चुके थे । कपिल वेचारेको पूछता कौन था । ईश्वर के रूप में विष्णु और शिव की पूजाका जोर था । अतः विद्यानन्दिने उसकी ही खबर लेना उचित समझा होगा ।
विद्यानन्दके उल्लेखोंकी समीक्षा - स्वामी विद्यानन्दने श्राप्तपरीक्षाकी रचना 'मोक्षमार्गस्य नेतार' आदि मंगलश्लोक को लेकर ही की है और उक्त
मंगलश्लोकको अपनी आप्तपरीक्षा की कारिकाओं में ही सम्मिलित कर लिया है। जिसका नम्बर ३ है । दूसरी कारिकामें शास्त्रके आदिमें स्तवन करनेका १ न्यायतः परीक्षण परीक्षा । पूजितविचारवचनश्च मीमांसाशब्दः । प्रमा० मीमां० पृ० २ ।
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२१८ अनेकान्त
[वर्ष १० उद्देश्य बताते हुए उत्तराद्धेमें "इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्रं मंस्थिति:' ही उन्हें अभीष्ट है वही आप्तमीमांमाका शास्त्रादौ मुनिपुङ्गवा" लिखा है। इसकी टीकामें मुख्य ही नहीं, किन्तु एकमात्र प्रतिपाद्य विषय है। उन्होंने "मुनिपुङ्गवाः" का अर्थ "सूत्रकारादयः" इसके बाद अन्तिम ११४वीं कारिका आजाती है किया है। अ.गे तीसरी कारिका, जो कि उक्त मंगल- जिसमें लिखा है कि हितेच्छ लोगोंके लिये सम्यक श्लोक ही है,की उत्थानिकामें भी "किं पुनस्तत्परमे- और मिथ्या उपदेशके भेदको जानकारी करानेके ष्ठिनो गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ सूत्रकाराःप्राहुः""सूत्रकार" उद्देश्यसे यह प्राप्तमीमामा बनाई। पदका उल्लेख किया है। चौथी कारिकाकी उत्थानि- आप्तमीमांसापर अष्टशतीकार भट्टाकलंकदेवने कामें उक्त सूत्रकारके लिये “भगवद्भिः" जैसे पृज्य भी इस तरहका कोई संकेत नहीं किया। उन्होंने शब्दका प्रयोग किया गया है। इससे स्पष्ट है कि आप्तमीमांका अर्थ 'सर्वज्ञविशेषपरीक्षा' अवश्य विद्यानन्दि उक्त मंगलश्लोकको तत्त्वार्थसूत्रकार किया है अतः विद्यानन्दि की उक्त उक्तिका समर्थन भगवान उमास्वामीकी ही रचना मानते है। आप्त- किसी भी स्तोत्रमे नहीं होता। फिर भी आचार्य परीक्षाके अन्तमें उन्होंने पुनः इसी बातका उल्लेख समन्तभद्रके समनिर्धारणके लिये विशेष चिन्तित करके उसमें इतना और जोड़ दिया है कि स्वामीन रहनवाले विद्वानोंने विद्यानन्दिको इस उक्तिको प्रमाण जिस तीर्थोपम स्तोत्र (उक्त मंगलश्लोक) को मीमांसा मानकर और उसके साथमें अपनी मान्यताको (कि की विद्यानन्दिने उसीका व्याख्यान किया। यह उक्त मंगलश्लोक आचार्य पूज्यपादकृत मर्वामिद्धिका स्पष्ट है कि "म्वामिमीमांसित" से विद्यानन्दिका मंगलाचरण है तत्त्वार्थसूत्रका नहीं) संबद्ध करके आशय स्वामो समन्तभद्रविरचित आप्तमीमांसास लिख ही तो दिया-' हो, पर स्वामी ममहै । अर्थात् वे ऐसा मानते हैं कि स्वामी समन्तभद्र न्सभद्रके बारे में अनेकविध ऊहापोहके पश्चात् मुझको की प्राप्तमीमांसा भी उक्त मंगलश्लोकके आधारपर हो अब अतिस्पष्ट होगया है कि वे पूज्यपाद दवनन्दिक रची गई है। किन्तु विद्यानन्दिके इस कथनकी पनि पूर्व तो हुए ही नहीं' । 'पूज्यपादके द्वारा स्तुत प्राप्तक की बात तो दूर उसका संकेत तक भी आप्तमीमांसा समर्थनमें ही उन्होंने आप्रमीमांमा लिखी है यह से नहीं मिलता और न किसी अन्य स्तोत्रस ही वि- बात विद्यानन्दने प्राप्त परीक्षा तथा अष्टसहस्रीमे द्यानन्दिकी बातका समथन होता है। यद्यपि स्वामी सवथा स्पष्टरूपसे लिखी है।' यह कितना साहमपूर्ण समन्तभद्रने अपने आप्तको 'निर्दोष' और 'युक्ति- कथन है। प्राचार्य विद्यानंदने तो पूज्यपाद या उनकी शास्त्राविरोधिवाक' बतलाया है तथा निर्दोष' पदस सवाथसिद्धि टीकाका उल्ल ख तक नहीं किया। प्रत्युत "कर्मभूभृत्भेतृत्व" और "युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्” श्रामपरीक्षामें उक्त मंगलश्लोकको स्पष्टरूपसे सत्रपदसे सर्वज्ञत्व उन्हें अभीष्ट है यह भी ठीक है, दोनोंदी कारकृत बतलाया है और अष्टमहस्रीके प्रारम्भमें सिद्धि भी उन्होंन की है। किन्तु उनकी सारी शक्ति नि:श्रयसशास्त्रस्यादी...... मुनिभिः संस्तुतेन आदि तो "युक्तिशास्त्राविरोधवाक्त्व" के समर्थनमें ही लगी लिखकर स्पष्टरूपस 'मोक्षशास्त्र-तत्त्वार्थसत्रका है । उनका प्राप्त इसलिये आप्त नहीं है कि वह निःश किया है । पता नहीं पं० सुखलालजी जैसे कर्मभूभृतभेत्ता है या सर्वज्ञ है। वह तो इसोलिये दूरदर्शी बहुश्रुत विद्वानने ऐसा कैसे लिख दिया । हो प्राप्त है कि उसका 'इष्ट' 'प्रसिद्ध' से बाधित नहीं सकता है परनिर्भर होने के कारण उन्हें दसरोंने ऐसा होता। अपने प्राप्तकी इसी विशेषता (स्यावाट) को ही बतलाया हो, क्योंकि पं. महेन्द्र कुमारजी न्यायादशाते-दशोते तथा उसका समर्थन करते-करते व चायन न्यायकमदचंद्र भाग २ की प्रस्तावना में 40 ११३वीं कारिका तक जा पहुँचत है जिसका अन्तिम , 'श्र, लकग्रन्थक्रया के प्राक्कथन में। चरण है-"इति स्याद्वादसंस्थितिः।" यह 'स्याद्वाद. २१. २५-२६ ।
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किरण ६ ]
सुखलालजी के उक्त कथनका पोषण किया है। किंतु न्यायाचार्यजी अपनी भूलको एक बार तो स्वीकार कर चुके है । तथापि भारतीयज्ञानपीठ काशीसे प्रकाशित तत्त्वार्थवृत्तिकी प्रस्तावनामे' उन्होंने उक्त मंगलश्लोककी कर्तृकता के सम्बन्धमें अपनी उमा पुरानी बातको संदेहके रूपमें पुनः उठाया है। किंतु यह सुनिश्वित है कि विद्यानन्द उक्त मंगलश्लोकको सूत्रकार उमास्वामीकृत ही मानते थे । खोंके आधारपर स्वामी समन्तभद्रको पूज्यपादके बादका विद्वान तो नहीं ही माना जा सकता ।
श्राप्तपरीक्षाका प्राक्कथन
समन्तभद्र और पात्रस्वामी - प्रारम्भमें कुछ भ्रामक उल्लेखोंके आधार पर ऐसा मान लिया गया था कि विद्यानदि और पात्रकेसरी एक ही व्यक्ति है । उसके बाद गायकवाड़सीरीज बड़ौदामे प्रकाशित तत्त्वसंग्रह नामक बौद्धग्रन्थम प्रवपक्षरूपमे दिगम्बराचायें पात्रस्वामीके नामसे कुछ कारिकाएँ उद्धृत पाई गई । तब इस बातकी खोज हुई और पं० जुगल किशोरजी मुख्तार ने अनेक प्रमाणों के आधारपर यह निर्विवाद सिद्ध कर दिया कि पात्रस्वामी या पात्रकेसरी विद्यानन्द से पृथक् एक स्वतंत्र श्राचाय होगये हैं । फिर भी पं० सुखलालजीने स्वामी समन्तभद्र और पात्रस्वामीके एक व्यक्ति होनेकी सम्भावना की है जो मात्र भ्रामक है क्योंकि पात्रकेसरीका नाम तथा उनके त्रिलक्षणकदर्थन आदि मन्थोंका जुदा उल्लेख मिलता है जिनका स्वामी समन्तभद्र से कोई सम्बन्ध नहीं है। हाँ, मात्र 'स्वामी' पदसे दोनोंका वादरायण सम्बन्ध बैठानेमे इतिहासकी हत्या अवश्य हो जायेगी। विद्यानन्दका समय - प्रस्तावना में विद्वान सम्पादकने आचार्य विद्यानन्दके समय की विवेचना करके एक तरह से उसे निर्णीत ही कर दिया है । अतः उसके सम्बन्ध में कुछ कहना अनावश्यक है ।
इतना प्रासङ्गिक कथन कर देनेके पश्चात् प्रस्तुत १४, ८६ । २ अकलंकग्रन्थत्रयके प्राकथनमें ।
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संस्करण के सम्बन्धमें भी दो शब्द कहना उचित होगा । आप्तपरीक्षा मूल तो हिन्दी अनुवादके साथ एक बार प्रकाशित हो चुकी है किंतु उसकी टीका हिन्दी अनुवाद के साथ प्रथम वार ही प्रकाशित होरही है । अनुवादक और सम्पादक पण्डित दरबारीलालजी कोठिया, जैन सामाजके सुपरिचित लेखक और विद्वान है। आपका दर्शनशास्त्रका तुलनात्मक अध्ययन गम्भीर है, लेखनी परिमार्जित है और भाषा प्रौढ़ किन्तु शैली विशद है । दार्शनिक ग्रन्थोंका अनुवादकार्य कितना गुरुतर है इसे वही अनुभव कर सकते हैं जिन्हें उससे काम पड़ा है। फिर आप्तपरीक्षा तो दर्शनशास्त्र की अनेक गहन चर्चाओंसे ओत प्रोत है । अतः उसका अनुवादकार्य सरल कैसे हो सकता है तथापि कहाँ तक सफल होसके है, इसका अनुभवता पाठक अपनो उक्त विशेषताओंके कारण उसमें अनुवादक स्वयं ही कर सकेंगे । मैं तो अनुवादकको उनकी इस कृति के लिये हृदयसे शुभाशीवाद देता हूँ ।
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अन्तमें उस संस्थाके सम्बन्ध में भी दो शब्द कहना आवश्यक है जिससे प्रस्तुत ग्रन्थ सुन्दररूपमें प्रकाशित हो रहा है । वीरसेवामन्दिर एक ऐसे ज्ञानाराधक तपस्त्रीकी साधनाका फल है जिसे जिनवाणीअधिक हो गई और जिसने अपना तन, मन, धन, की निःस्व सेवा करते-करते अर्ध शताब्दीसे भी सवस्व अपेश कर दिया, फिर भी जो सदा जवान है और ७२ वर्षकी उम्र होनेपर भी उमी लगन, उसी उत्साह और तत्परतासे कार्य में संलग्न है । उसने न जाने कितने आचार्यो और ग्रन्थकारोंको प्रकाशमें लाया है, न जाने कितने भूले हुए प्रन्थरत्नोंकी याद दिलाई है और उनकी खोज की है। दिगम्बर जैनाचार्यों के समय-निर्धारण में उसने अपार श्रम किया है। उसने ऐसी खोजे की हैं जिसके आधार पर उसे विश्वविद्यालयोंसे डाक्टरेट की डिग्रियां मिलना साधारण बात थी। मगर चूंकि वह जैन है, जैनों तक ही उसकी खोज सीमित है, आजके जमानेकी टीपटाप उसमें नहीं है। अतः उसे जैसा श्रेय और
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अनेकान्त
[वर्ष १०
साहाय्य मिलना चाहिए था वह भी नहीं मिला। कोठियाजीकी प्रतिभा और पं. परमानन्दजोकी अन्वेफिर भी वह प्रसन्न है और कायमें रत है। उस षक अभिरुचि चमक उठी है। भगवान् । निस्स्वाथसेवी विद्याव्यसनी नररत्नका नाम है- प्रार्थना है कि मुख्तार सा० शतायु हों और यह जुगलकिशोरजी मुख्तार | उनका सान्निध्य पाकर त्रिमूर्ति जिनवाणीकी सेवामें सदा संलग्न रहे।
ब्रह्मचर्य (प्रवक्ता श्री १०५ पूज्य तुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य)
[सागर-चातुर्मासमें दिया गया वर्णोजीका एक दूसरा प्रवचन ]
'सर्व पदा हस्तिपदे निमग्नाः' हाथीके पैरमें सबके शुक्लपक्षमें ब्रह्मचर्यका नियम ले चुका था । अनजापैर समा सकते है। ब्रह्मचयेके निरूपणसे ही सबका नमें हम दोनोंका विवाह होगया। मैंने उससे निरूपण हो जाता है। 'ब्रह्मचर्य' इस नामसे ही आ- सेवनका अभिप्राय प्रकट किया तब उमने कहा कि नन्द आता है तब उसके पालन करने में क्यों नहीं मेरे तो कृष्णपदमें ब्रह्मचर्यका नियम है। मैं शान्त रह आवेगा। जो अखण्ड असि-धारा-व्रत धारण करता गया। शुक्लपक्षमें स्त्रीने अपना अभिप्राय प्रकट है उसके प्रभावका क्या कहना है ? एक स्त्री कुएपर किया तब मैंने कहा कि मैं शुक्लपक्षमें ब्रह्मचयमे पानी भरने गई । उससे जीवानी नीचे गिर गई। रहनेका नियम कर चका हूँ। स्त्री शान्त रह गई। बेवारी घबड़ा गई । एक साधक पास पहुंचो, हम दोनों प्रारम्भसे ही साथ-साथ रहते है, पर बोली-मेरा यह पाप कसे छूटेगा ? माधने कहा किसीके हृदयमें विकार उत्पन्न नहीं होता । यही कि-"यदि तुम्हारे यहाँ अमिधारा-व्रत धारण असिधारा-व्रत है।' असिधारा-व्रतके प्रभावसे उम करनेवाले स्त्री-पुरुष भोजन कर जायें तो तेरा स्त्रीका काला चन्देवा सफेद होगया। इसमें आश्चयह पाप छूट जाये।" 'अमिधारा-व्रत है क्या ?'- यकी क्या बात है ? अरे ! उसमे ती संसारकी स्त्रीने पूछा। यह उसीस पूछ लेना, पर इतना मै अनन्त कालिमा नष्ट हो मकती है। जिस समय बताए देता हूँ कि जिस दिन तेरा पाप छूट जायगा आपको ब्रह्मचयका रसास्वाद हो जायगा उस समय उस दिन तेरे चोकेका चन्देवा कालेसे सफेद होजाय- आपका आनन्द शब्दों द्वारा नहीं कहा जा सकेगा। गा। उम स्त्रीने अच्छे-अच्छे साधुओंको भोजन यह, जिसे कि आप आनन्द समझते है, अानन्द कराया, पर चन्देवा कालेसे सफेद नहीं हुआ। बीम वर्ष बाद दो स्त्री-पुरुषोंको उमने भोजन कराया पर आप उसमें इतने आसक्त हो रहे है कि कुछ जिससे उसका चन्देवा मफेद होगया। उसने कहते नहीं बनता। पटियां पाड़ ली और मुह पर
या आपके असिधारा-व्रत है ? उन्होंने तेल चपड़ लिया, बस मुन्दरता बढ़ गई । अरे ! कहा 'हाँ' । उसने पूछा- "असिधारा-व्रत जिससे सन्दरता बढ़ती है वह तो तुम्हारे पास है क्या कहलाता है ?" तब उन्होंने कहा-कि 'यह ही नहीं। आप लोग विषयको रोटी-भाजी समझ रहे लड़की, जो आज मेरी स्त्री है, बाल्य अवस्था है, कुछ तो विवेक रखिये। मैं यह नहीं कहता कि आप में किसी आयिकाके पास कृष्णपक्षमें ब्रह्मचयका घर-द्वार छोड़कर बाबा बन जाओ। मेरे कहनेका नियम ले चकी थी और मैं भी एक मनिराजके पास अभिप्राय इतना ही है कि भाप स्वस्त्रीमें संतोष
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किरण ६]
प्रयचर्य
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रक्खें और उसमें भी अपने विषयकी सोमा निश्चित ५००) मासिक मिलन लगे। अब पण्डितजी स्त्रीको करलें। आप लोगोंका ब्रह्मचर्य बाबा लोगोंके ब्रह्मचर्य १००) देने लगे पर वह उन्हें पहिलेको तरह ही खर्च मे कहीं अधिक प्रशंसनीय है। उनके पास तो ब्रह्म- करती रही। पण्डितजीको एक बार राजाने १०००) चर्य-विघातके साधन ही नहीं है पर आप लोग एक हजार रुपये इनाम दिये। सो पण्डितजो ५००) साधनके रहते हुए भी ब्रह्मचर्यकी रक्षा करते हैं। की अच्छो साड़ो आदि शृङ्गार-सामग्री अपनी स्त्रीके श्राप लोगोंकी इस ओर दृष्टि ही नहीं है । यदि होती लिये लाये । स्त्रीने कहा-'यह किस लिये लाये?' पण्डित तो अपने आश्रित रहनेवाली इन स्त्रियोंका मधार जीने कहा-"तुम्हारे लिये।" 'मैं क्या इसके बिना नहीं करते ? ये विलासिताकी ओर बढ़ रही है और आपको अच्छी नहीं लगती ?' 'लगती तो हो'। फिर
आप उन्हें उनके साधन जुटा रहे हैं । आप लोगों यह वेश्याओंका सामान किस लिये लाये"-"और को गोरी चमड़ी मिल जाय मानो स्वर्ग मिल गया । अच्छी लगने लगोगी" | स्त्रीने कहा-“पण्डितजी (रोषमें आकर) मेरे हाथमें सत्ता नहीं है, नहीं तो तुम दो विषयके आचार्य, न जाने तुम्हें इसमें क्या मैं आप लोगोंको एक दिनमें ठीक कर देता। मैं उस आनन्द आता ? मुझे तो खाज खुजलानेके सिवाय गुरुके पास पढ़ा है जिसको स्त्रीका हाल सुनो तो कुछ अधिक नहीं मालूम होता। एक बच्चा होगया आप दंग रह जायें।
है एक और हो जाय फिर मैं आपसे छुटी लू"। पं० ठाकरदासजीके पास में पढ़ता था। उनका या दो वर्ष बाद उसके एक बच्चा और हो दूसरा विवाह हुआ था । पण्डितजीकी उमर चालीस
गया। उसने पण्डितजोसे साफ कह दिया-"यदि वर्षकी थी और उनकी स्त्रीकी उमर सोलह वर्षकी। मझे तंग करोगे तो मैं अन्यत्र चली जाऊँगो । मैं अब वह इतनी मुन्दर थी कि देवकन्या-मी लगती थी । संयमसे रहूँगी”। पण्डितजीने भी कह दियावह जो भी वस्त्र पहिन ले उसे अच्छा लगता था । "श्रच्छा.मैं अब तम्हे बेटी मानता हूँ" और जिन्दपण्डितजीको ५०) मासिक मिलता था। उसमेंसे वे पानी अपनी स्त्रीका १०) मासिक हाथ-खर्च देते थे । स्त्री इतनी उदार थी कि दो दिनमें ही खतम कर देती- मैं उनके पास पढ़ता था। एक दिन उनकी स्त्री किसी पड़ौसीके बच्चेको कपड़ा, किसीको गल्ला बोली- 'बेटा तुम अपने हाथसे रोटी बनाते हो। मैं
आदि भेज देती। पण्डितजीने कहा-'मैं तो तुम्हें बना दिया करूं गो" । मैंने कहा-"मैं छपा पानी देता हूँ तुम यह क्या करती हो ?' वह कहती- पीता हूं । तुम्हारे यहाँ कुछ विचार नहीं" । वह 'मुझे देत तो हो न ? मैं मांगने तो नहीं गई थी, इस बोली-"मैं भी छना पानी पीने लगेंगी"। मैंने पर तो मेरा अधिकार है।' पण्डितजी चुप हो जाते। कहा-"आपके यहाँ धीवरो पानी लाती है। मैं कछ समय बाद पण्डितजीको १००) मिलने लगे। उसके हाथका नहीं पीता"। वह बोली क्या बात वे आगरा चले गए और अब वे स्त्रीको २०) मासिक है ? दो घड़ा पानी में स्वयं ले आऊँगी । मैंने कहादेने लगे, पर उसका वही हाल । दो दिनसे तीसरे "आपके यहाँबाजारका बाटा आता-मैं खाता नहीं"। दिनके लिये एक धेला नहीं बचाती। कोई कहता तो वे बोली-"मैं स्वयं पीस दिया करूंगी" | मेने उत्तर देती कि दो दिन बाद मैं मर गई तो दान करने कहा-“शामको क्या खाऊँगा ? आप लोग तो रात कौन आयगा ?
__को खाती है।" वह बोलों-अच्छा, हम लोग भी जोधपुरके महाराजा पण्डितजीपर प्रसन्न होगर। दिनको ही खा लिया करेंगे । मजबूर होकर मुझे उनके उन्होंने कहा कि-पण्डितजी, यहाँ क्या करते हो? यहाँ भोजन करना मजूर करना पड़ा। भोजन हमारे यहां चलिये । वे जोधपुर चले गये। वहां उन्हें तैयार हुआ । पण्डितजी बैठे। उनसे कुछ दूर मैं बैठा।
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अनेकान्त
[वर्ष १०
पण्डितजी बोले-"इतने दर क्यों बैठे। मैंने भोजन करने लगा। कहा-"आप ब्राह्मण और मैं जैनी, आपकी जातिके भैया! आदमी ही तो वह थी । आप अपनी लोग देख लेंगे तो क्या कहेंगे?" पण्डितजीकी स्त्रो भलाई स्वयं सोचो । संज्ञी पश्चन्द्रिय हो । विचार बोली-"बेटा ! इसकी चिन्ता तुम्हें है या मुझे ?" करनेकी शक्ति तुममें है । फिर बिना विचारका कार्य मैं चुप रह गया और पण्डितजी तथा मैं साथ-साथ क्यों करते हो ?
राष्ट्रकूट गोविन्द तृतीयका शासन-काल
(लेखक-श्री स्थानकवि एम० गोविन्द पै) [अनु०-श्री पं० के० भुजबली शास्त्री]
.00000. पुन्नाटसंघीय आचार्य जिनसेनके हरिवशपुरा- सन् ७८३ से ८१४ तक निर्धारित किया गया है। णकी ग्रन्थप्रशस्तिमे लिखा है
परन्तु यह ठीक नहीं है। क्योंकि इमो तृतीय "शाकेष्वन्दशतेषु सप्तसु दिशं पंचोत्तरेषत्तराम् |
गोविंदके शासनमें १८ वर्ष बीत कर जब १६ वां पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्णनपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम" वर्ष चल रहा था तब "द्वात्रिशदुत्तरेषु सतशतेषु
शकवर्षेषु समतीतेषु प्रात्मनः प्रवर्धमानविजयसंवत्सरेष इस श्लोकाधके 'कृष्णनृपजे' का 'इन्द्रायुधनाम्नि' के ।
अष्टादशसु समतोतेष पोषमासपौर्णमास्यां सोमप्रहणे साथ अवन्य करके और उसका 'शाकेप्वन्दशतषु सोमवारे पुष्यनक्षत्र..." अर्थात् शा० श० ७३२ पौष सप्तसु पंचोत्तरे अथात् श० सं०७०५-३० सन् मास पणिमा सोमवार चन्द्रग्रहणके दिन उत्कीर्ण ७८३-७८४ में नृप कृष्णका पुत्र राजा इन्द्रायुध मणके ताम्रपत्रका काल ठीक ई० सन् ०६ दिमउत्तरमें और राजा श्रीवल्लभ दक्षिणमें राज्य करते
त म्बर ता०२४ सोमवार होता है। इस प्रकार ई० समय, इस प्रकार अर्थ करके, ई० सन् ८०४ के
सन् ८०६ तृतीय गोविंद के शासनका १६ वां वर्ष लक्ष्मेश्वर (धारवाड) के एक कन्नड-शामन' में स्पष्ट सिद्ध होता है। इमीलिये पर्वोक्त हरिवंशपुराण राष्ट्रकूट-वंशके शासक तृतीय गोविन्दका श्रीवल्लभ
७८३-८४ में दक्षिणमे राज्य शब्दके प्राकृत रूप 'श्रीबल्लह' इस उपनामस करनेवाला श्रीवल्लभ सर्वथा ततीय गोविंद उल्लेख किये जानेके कारण, हरिवंशपुराण-मबंधो नही। उपयुक्त श्लोकमें प्रतिपादित श्रीवल्लभ राष्ट्रकूटका तब वह श्रीवल्लभ दसरा कौन हो सकता है ? तृतीय गोविंद ही है, ऐसा निश्चय कर और इस पर्वोक्त श्लोकके 'कृष्णनृपजे' को उपर कहे हुए मुताबिक श्लोकके कथनानुसार यह ई० सन ७८३-७८४ इन्द्रायुधनाम्नि' के माथ अन्वय न करके 'श्रीवल्लभे' में राष्टकटके कणाटकके सिंहासनपर आरूढ था के साथ अन्वय करने पर शा० श० ७०५ ई० सन् ऐसा विचार कर गोविंद तृतीयका शासनकाल ई० ७.३-८४ मे राजा इन्द्रायुध उत्तरमें, नृप कृष्ण १ जैनसिद्धान्तभास्कर भा. १, किरण २-३ पृष्ठ ७४। ३ Historical Inscriptions of Southern २ Fleet: Kanarese Dynasties (FKD)पृष्ठ India (HISI) पृष्ठ ३१, ३८३, FKD, पृष्ठ
ट-वशकशासक तृतीय गाविन्दका श्रीवल्लम में प्रतिपादित इ०सन
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राष्ट्रकूट गोविंद तृतीयका शासनकाल
किरण ६ ]
का पुत्र राजा श्रीवल्लभ दक्षिण में राज्य कर रहे थे ऐसा सीधा अर्थ होता है । इस प्रकार दक्षिण में उस समय शासन करने वाला वह श्रीवल्लभ कृष्ण नृपका पुत्र स्पष्ट सिद्ध होनेसे वह राष्ट्रकूटवंशस्थ प्रथम कृष्णका पुत्र धारावर्ष, कविवल्लभ एवं निरुपम इन उपाधियोंका धारक ध्रुव अथवा धोर (प्राकृतरूप) नामसे पुकारा जानेवाला शासक होना चाहिये, ऐसा सिद्ध होता है । यह धारावर्ष ध्रुव अथवा घोर तृतीय गोविंदका पिता एवं उसके पूर्व शासन करनेवाला पूर्वाधिकारी है ।
ध्रुवका कविवल्लभ उपनाम था इस बातको सभी जानते है । पर क्या इसका श्रीवल्लभ उपनाम भी था ? था । राष्ट्रकूट वंशके रणावलोक कंभराज अथवा कंभदेवनं तृतीय गोविंदके शासनकालमे शक सं० (७) ३० कार्तिक मास पूर्णिमा सोमवार = ई० सन् ८०८ नवम्बर ता० ६ सोमवारको जो दान किया था और जिसका विवरण 'बदनेगुप्ये' के एक ताम्रशासनमे अंकित है; उसमें तृतीय गोविंद के पिता पूर्वोक्त धोर ( पंक्ति ७ ) या ध्रुवको कलिवल्लभ 'निरुपम : कलिवल्लभोऽभूत्' (पंक्ति १६) नाममे सिर्फ लिखा ही नहीं गया है, किन्तु धोरके पुत्र तृतीय गोविंदको 'परमभमहाराजाधिराजपरमेश्वर पृथ्वी वल्लभप्रभूतवर्षश्रीमत्गोविंदराजदेवः धारावर्ष - श्रीवल्लभमहाराजाधिराजस्य पुत्रः' (पंक्ति ४६-५१) ऐसा अ ंकित भी किया गया है ।
हारक
इस प्रकार तृतीय गोविंद के पिता ध्रुवको प्रत्यक्ष
१ Mythic Society's Journal XIV, पृष्ठ २ Mysore Archacological Report, १९२४ पृष्ठ ११२-१५)
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श्रीवल्लभ नामसे उल्लेख किये जानेसे निसंदेह इसका श्रीवल्लभ उपनाम था, यह स्पष्ट सिद्ध होता है।
अत एव जैन हरिवंशपुराण के रचना काल में ई० सन ७८३- ८४ में दक्षिणमे शासन करनेवाला श्रीवल्लभ निसंदेह राष्ट्रकूटशामक धारावर्ष, निरुपम तथा कविवल्लभ उपाधियोंका धारक ध्रुव या धोर ही है, न कि ई० सन् ७६१ मे उसके बाद ही गद्दीपर बैठनेवाला उसका पुत्र तृतीय गोविंद ।
तृतीय गोविंदके बाद ही गद्दीपर बैठनेवाले उसके पुत्र प्रथम अमोघवर्ष नृपतुरंग शिरूरुके शिलालेखका समय शकसं० ७८८ ज्येष्ठ मास अमावास्या आदित्यवार == ई० सन् ८६६ जून ता० १६ आदित्यवार होता है । उस दिन पूर्ण सूर्यग्रहण था ओर वह समूचे भारतवर्षमे दृश्य था । उस समय नृपतु
'गके शासनकालमे ५२वां वर्ष चल रहा था । | शकनृपकालातीतसंवत्सरंगल एलनूरेण्भसेंटनेय (७८८ ) व्ययमेवं सवत्सरं प्रवत्तिसे श्रीमदमोघवर्षनृपतु 'गनामांकितना विजयराज्य प्रवर्धमान संवत्सरंगल् श्रयवतेरहुन् ( २ ) उत्तरोत्तरराज्याभिवृद्धि सलुचिरे'''''''''ज्येष्ठमासदमासेयु श्रादित्यवारमार्ग सूर्य ग्रहणं... ...]
इससे व्यक्त होता है कि नृपतुरंग ई० सन ८१४-१५ मे गद्दीपर बैठा था ।
मी दशामें इसका पिता एवं पूर्वाधिकारी तृतीय गोविद ई० सन ७६१ में राष्ट्रकूट सिंहासनपर आरूढ़ हो ई० सन ८१४-१५ तक राज्य शासन करता रहा यो निस्संदेह सिद्ध होता है। X
1 Indian Antiquary, XII, पृष्ठ २१८ - १९ ।
x 'प्रजासत' के १६४३ के दीपावली विशेषांक में प्रकाशित श्रास्थानकवि एम० गोविंद पैं के कन्नड लेखका
भाषान्तर ।
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डा० कालीदास नागका श्रीलालमन्दिर देहलीम
___ महत्वपूर्ण भाषण
[हालमें स्वतंत्रभारतको राजधानी देहलीमें एक भारत-अमरीकी विश्वसम्मेखन हुआ था, जिसका गोश्य विश्वशान्तिके साथ-ही-साथ एक-दूसरेको संस्कृतिको निकटसे जामना और पारस्परिक सहयोगको भावनाको बदाना था । डाक्टर कालीदास नाग एम.ए., पी.एच.डी. कलकत्ता भी, जो कलकत्ता यूनिवर्सिटीके विश्वविख्यात दार्शनिक तथा यशस्वो वक्ता है, और जिन्हें जैन धर्म एवं जैन संस्कृति से विशेष प्रेम है, इस सम्मेलनमें आमंत्रित थे और भारतीय प्रतिनिधिके रूपमें उसमें उनके अनेक भाषण भी हए थे। २१ दिसम्बर ११४४को श्रीलालमंदिरजीमें भी जैनमित्र मण्डल देहलीकी श्रोरसे प्रायोजित एक सभाम आपका जैनधर्म
और जैन संस्कृतिपर मार्मिक और प्रभावशाली महत्वका भाषण हुमा । यह भाषण जैनधर्मकी वास्तविकताभोंसे जहां भरा हुआ है वहां हमारी आँखें भी खोलनेवाला है। जैनधर्मको वे कितने सम्मान और प्रेमको दृष्टिमे देखते हैं तथा उसे विश्वधर्म एवं स्वतत्र भारतका एक महान धर्म देखनेके लिये कितने उत्सुक हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है। पाठक स्वयं इस भाषणको पढकर अनुभव कर सकेंगे। क्या हमारा जैन समाज डाक्टर नागके इस माषणका हार्दिक स्वागत करता हुआ उनके देहलीमें पहिसा-मन्दिरको स्थापनाके सामयिक तथा उपयोगी सुझावका समुचित और सन्तोषजनक उत्तर देगा?
-स. सम्पादक] जैनधर्मसे मेरा प्रेम
उनको जैनधर्मके विषयमें नहीं-के-बराबर ही ज्ञान
है। यदि आपको इस विषय में कुछ भी सन्देह है मैं आजसे पूर्व भी कई बार देहली आया हूं।
तो आप इस बातका प्रमाण कुछ अजैन व्यक्तियोंदेहलीको इस बातका गौरव प्राप्त है कि यह भूतमें
के साथमे रहकर और उनसे बातचीत करके देख लें।
, हिन्दू तथा मसलमानोंकी राजधानी, हालमें ही अंग्रेजों
यह मेरे जैसे एक व्यक्तिका कहना है जो कि वास्तव की राजधानी और अब स्वतन्त्रता प्राप्त होनेपर वर्त
त में जैनधर्मका हितैषी तथा प्रेमी है । मानमें हमारी राजधानी है। मैं आज आपके समक्ष कोई भाषण देनेको खड़ा नहीं हुआ हूँ। जैसा जैनधर्मकी महानता और व्यापकता कि आपने अपने आप ही कहा है कि देहली भारत- जैनधर्म एक किसी विशेष जाति या सम्प्रदायका को प्रमुख जैन संस्थाओंका केन्द्र है। उमी बातका धर्म नहीं है परन्तु यह संसारके समस्त प्राणियोंका ममक्ष रखते हुए और जैनधर्मक एक सच्चे प्रशंसक अन्तर्गष्ट्रीय तथा सावभौमिक धर्म है। के नाते मैं आपस एक प्रश्न यह पूछना चाहता हूं कि जिस समय आप संस्थाओं के विषय में कहते हैं श्राप देहलीवालोंने कहां तक अपने आपको जैनधर्म तो मेरा कहना यह है कि जैन संस्थाओंका अर्थ सम्बन्धो विषयोस सम्बन्धित रखा है। आपकी जैनधम तथा उसके सिद्धान्तोका नहीं है । एक अपनी जातिके बाहर दूसरी साहित्यिक संस्थाएं संस्थास तात्पय है उसके सदस्योंका नाम | और संस्थाजैनधर्मक विषयमे बिल्कुल कछ नहीं जानती। का नाम सदस्योंके अतिरिक्त और कहीं नहीं जाता।
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किरण ६ ]
हमको जैनधर्मका भलीप्रकार मनन करना है । विदेशों में जैन संस्कृति और जैनधर्मके ज्ञानकी आवश्यकता गत दो वर्षोंसे विदेशों के बहुत हो प्रतिष्ठित नागरिक तथा विद्वान् व अन्वेषक भारतको आनेके इच्छुक है और वह भारतकी संस्कृति का ज्ञान करना चाहते हैं । उनको जैन संस्कृतिका कुछ भी ज्ञान नहीं कराया जाता । वह केवल यहांसे जैन तीर्थंकरोंकी विभिन्न प्रकारकी तथा विभिन्न धातुओं की मूर्तियां अपने साथ ले जाते हैं और उनको वह अन्य अपूर्व वस्तुओं संग्रह के समान रखते हैं । परन्तु वास्तव में हम यह नहीं चाहते कि हमारा यह जैनधमे एक अनोखी वस्तके समान, प्रदर्शनी तथा अजायबघर की वस्तु के समान, समझा जावे। इस सबका कारण यही है कि हमने जैनधर्म तथा इसके सिद्वान्तोंका प्रचार किया ही नहीं है । हमारा समस्त साहित्य हमारी अपनी हो भाषा-नागरी, संस्कृत तथा प्राकृत में है । हमारे साहित्यका एक प्रतिशत भाग भी के संसार की अन्य प्रचलित भाषाओं में नहीं है। जैनधर्म एक समस्त संसारका लोकप्रिय धर्म है और इसका आरम्भ भी इसी भावनामे हमारे तीर्थं करोंने किया था। तीर्थकरों की महान् आत्माओंने संसार के राज्यों को जीतनेकी चिन्ता नहीं की थी । राज्यको जीतना कोई कठिन कार्य नहीं है। सैकड़ों ही राज्य स्थापित होते हैं और विनाश हो जाते हैं। मेरी अपनी आँखोंके समक्ष संसारमें महायुद्ध नं० १ लड़ा गया और आप सब लोगोंके समक्ष महायुद्ध नं० २ हुआ। कितने ही राजे-महाराजे, बादशाह, सभापति तथा अन्य सत्ताधारी इस संसारसे उठा दिये गये। जैन तीर्थंकरोंका ध्येय और जैनधर्मका ध्येय राज्य जीतनेका नहीं परन्तु स्वयंपर विजय प्राप्त करने का है - यह ध्येय एक महान् ध्येय है और मनुष्यजीवन की सार्थकता इसी में है। जैनधर्म बाह्य
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वस्तुको प्रहण नहीं करना सिखाता परन्तु इसके विपरीत यह मनुष्यकी अन्तरिक भावनाओं तथा आन्तरिक जीवनको स्पर्श करता है ।
संसारके दो बड़े बिजेता-अहिंसा और अपरिग्रह
संसारमे मैं सिर्फ दो बड़े विजेता समझता हूं और उनमें सर्व प्रथम विजेता श्रहिंसा सिद्धान्त है। बाकी विजेता झूठे है । महायुद्ध नं० १ में अन्य अन्य जाति और देशोंने विभिन्न विभिन्न प्रकार के बड़े बड़े अस्त्रोंका मनुष्य-संहारके लिये निर्माण किया । एकको विजय तथा दूसरेको पराजय हुई, परन्तु क्या यह बात सत्य है कि विजेताक समस्त शत्रु का सदैव या कुछ कालके लिये भी विध्वंस हो गया ? कुछ ही वर्ष व्यतीत हुए कि दूसरा महायुद्ध आप सबके समक्ष लड़ा गया । इसमें प्रथम महायुद्ध से भी अधिक विध्वंसकारी तोपों व बन्दूकों का प्रयोग हुआ और सबसे अधिक श्राश्चर्यजनक वस्तु - Atom bomb का आविष्कार हुआ जिसके द्वारा एक बारमें ही ७५००० व्यक्तियोंका नाश हो जाता है । ७५००० में अधिक व्यक्ति वह होते जिनका आपसे कोई भी शत्र-भाव नहीं होता है- निर्दोष व्यक्तियोंका खून हो जाता है-स्त्रियाँ और बच्चे अनाथ हो जाते हैं। क्या इस महायुद्वके बाद यह समझा जाए कि विजेताके समस्त शत्रु ओंका नाश हो गया ? नहीं और कदापि नहीं। इस युद्ध में हमने अरबों रुपये खर्च कर डाले। अभी यह युद्ध पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ कि तृतीय महायुद्ध सामने दृष्टिगोचर है । इन तमाम युद्धोंने संसारमें कोई महान् परिवर्तन नहीं किया। यदि संसार में आज किसी वस्तुने महान् परिवर्तन कर दिखाया है तो वह है अहिंसा सिद्धान्त । अहिंसा सिद्धान्तकी खोज और प्राप्ति संसारकी समस्त खोज और प्राप्तियोंस महान् हैं--यह Newton के law of Gravitation स बहुत अधिक महान खोज है मनुष्यका स्वभाव हैं नीचे की ओर जाना । परन्तु जैनोंके तीर्थकरोंने सर्वप्रथम यह बताया कि अहिंसाका
डा० कालीदास नागका देहलोमें भाषण
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२२६ अनेकान्त
[वष १० सिद्धान्त मनुष्यको ऊपर उठाता है। उन्होंने बताया जनताके समक्ष रखनेकी। आज हमारे मन्दिर तथा कि अहिंसा ही सत्य है और संसारका कल्याण तीर्थस्थान भी हैं, हम उनकी पूजा-भक्ति भी करते हैही अहिंसासे हो सकता है।
___ मंदिरोंमें हमारे तीर्थंकर भी है जो कि हम सबकी
आत्माओंको निर्मल करते है । परन्तु यदि किसी अहिंसाके सर्वप्रथम प्रचारक जैन तीर्थकर ।
वस्तुकी कमी है तो वह है हमारा अपना प्रमाद । परन्तु आजके संसारमें सबका यही मत है कि अभी हाल ही जो समस्त भारतवर्षीय विभिन्न अहिंसाके सिद्धान्तका महात्मा बुद्धने आजसे २५०० धर्म सम्बन्धी कान्फ्रन्स हई उसके अन्दर मैं ही एक वर्ष पूर्व सर्व प्रथम प्रचार किया। किसी इतिहासके ऐसा व्यक्ति था जिसने भगवान महावीरका नाम जाननवालेको इस बातका बिलकुल भी ज्ञान नहीं है लिया और यह नाम वहांके अधिकांश व्यक्तियोंके कि भगवान बुद्धसे लाखों तथा करोड़ों वर्ष पूर्व एक लिये नया-सा ही था। नहीं बल्कि अनेक जैन तीर्थंकरोंने इस अहिंसा सिद्धान्तका प्रचार किया। परन्तु यह सब बातें
भारतमें भी जैनधर्मके ज्ञानकी कमी संसारके ज्ञानमें नहीं है। उनको इस बातका बिल. आज हमारे स्कूलोंमें कालिजोंमें विश्वविद्यालयों कुल भी ज्ञान नहीं है कि जैनधर्म बद्धधर्मसे करोड़ों में जैनधर्मका बिल्कुल भी नाम नहीं है। यदि हम वर्ष पूर्वका धर्म है । वास्तवमे इसके लिए उनका कुछ यह चाहते है कि हम जैनधर्मको विश्वमें फैलायें तो दोष भी नहीं है। जोनियोंने इस विषयमें कुछ भी हमको पूर्ण रूपसे सठिन होना पड़ेगा। परिश्रम नहीं किया है । इतिहासके विषयमें तो जैनधमका अस्तित्व ही कुछ नहीं है।
जैनजनगणनापर जोर जैनधर्म भारतका एक प्राचीन धर्म है आजके स्वतंत्र भारतमे मर्व प्रथम पहली जनमैंने अपने मित्र श्रीछोटेलालजी जैन कलकत्ते
। गणना १६५१में होनी है। आप सबका कर्तव्य है कि आप
सब उसमें अपनेको तथा अन्य समस्त व्यक्तियों को जो वालोंके सहयोगसे कितने ही प्राचीन जनक्षेत्रा व जैनधर्मको मानते हों जैन लिखावें। आपका कर्तव्य शिलालेखोंके Slides तैयार करके इस बातको प्रमा
यह नहीं है कि आप अपनको दिगम्बर, श्वेताम्बर णित करनेके प्रयत्न किये है कि जैनधम एक प्रचीनधर्म
या स्थानकवासी जैनके भेदभावको डाले, परन्तु है जिसने भारतकी संस्कृतिको बहुत कुछ दिया है।
आपका कर्तव्य यह है कि आप अपनेको विश्वधर्मपरन्तु आज अभी तक संसारकी दृष्टिमें जैनधर्मका
जैन-धर्म-का अनुयायी समझे। आप अपनेको एक महत्व नहीं दर्शाया गया है, उनके विचारमे यह एक
इतिहासका छात्र समझे। मेरी आपसे यह अपील २० लाख मनुष्योंका छोटा-सा धर्म है। परन्तु यदि
है कि आप इस कार्यमें देहलीको प्रमुख जैन सं. आप सोचेंगे तो आप इस निष्कर्षपर पहुँचेंगे कि
स्थाओं तथा देहलीसे बाहरकी प्रमुख जैन संस्थाओं आपका जैनधर्म एक विशाल धर्म है और आप जैन
से लाभ उठाएँ और उनको इस बात्तके लिये प्रेरित करें नातिको वह महान् धर्म अपने पूर्वजोंस मिला है।
कि वह आपसी भेदभावको मिटाकर सच्च जैनअहिसा
धमके वास्तविक रूपको संसारमें चमका दें। आपका पर जैनियोंका copyright सम्पूर्ण अधिकार है- यह कतव्य है कि आप जैनधर्मको स्वतन्त्र भारतका परन्तु हमारा समस्त साहित्य आज नागरी, सस्कृत एक महान धर्म प्रदर्शित करें। श्राजका भारत राज्य जैनितथा कनाड़ी भाषामें है आवश्यकता हे उस साहित्य योंका गढ़ है । भारतके प्रत्येक कोने-कोनमें जैन जाति को संसारकी समस्त भाषाओंमें प्रकाशित करनेकी और व्याप्त है। यदि आप वास्तव में जनवम व जैनजाति
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डा० कालोदास नागका बेहलोमें भाषण
किरण ६]
की महानता बताना चाहते हो तो आपका यह कर्त्तव्य है कि आप सरकारद्वारा होने वालो जनगणनापर निभर होकर न बैठ जाएं परन्तु उससे पूर्व ही अपनो समस्त शक्ति लगाकर अपनी एक सच्ची तथा महत्वपूर्ण जनगणना कर डालें जिससे आपको सहो तौर पर जैनजातिको संख्या तथा इसकी सामाजिक तथा व्यापारिक क्षेत्र में महानता का पता पड़ जाएगा । हिंसाकी महानता
आजका युग वह है जिसमें 'अहिंसा' शब्दकी एक अपूर्व ही महानता है। इस एक शब्दके पीछे समस्त संसार तुम्हारा साथ देनेको प्रस्तुत है - यह एक शब्द ही तुम्हें संसारमें जीवित रखनेके लिये पर्याप्त है। हम सबको तो पूज्य स्वर्गीय बापूका अत्यन्त ही अनुगृहीत होना चाहिये कि उन्होंने इस श्रहिंमा सिद्धान्तकी भूली हुई महानता को विश्वमें चमका दिया। आज संसारके लाखों प्राणी संसारमे चारों ओर फैली हुई अशान्तिसे दुःखी होकर हिंसा की ओर झुक रहे है और यह एक ऐसा मौका है जिससे आपको लाभ उठाकर अपनी संख्या २० लाखसे तिगुनी, चौगुनी करनी चाहिए। यदि आप इस समय क्षेत्रमें उतर आएँगे तो करोड़ोंका अपनी ओर खेच लेंगे ।
आपको सोचना यह है कि आपको क्या करना है - आपको किस प्रकार अहिंसा - सिद्धान्तका प्रचार करना है । हिंसा के महान् सिद्धान्तको जातीय सिद्धान्तका रूप न देकर आप विश्व-सिद्धान्तकी भांति प्रचार करना सीखें ।
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इस सिद्धान्तके प्रचारके लिये कुछ त्यागकी भावनाको सीखने की आवश्यकता है । जैनधर्मकी विश्वको अपरिग्रह सिद्धान्तकी पूर्व न
आप जैनियोंका दूसरा मुख्य सिद्धान्त 'अपरिग्रह' - त्याग भावना है । परन्तु खेद है कि आपने अपने जीवन में त्यागकी भावनाको नहीं अपनाया है, जिस समय आप इस त्यागकी भावनाको अपनाकर अहिंसाके सिद्धान्तको प्रचार करनेके लिए कटिबद्ध हो जाएंगे उस समय समस्त संसार आपके इन दोनों सिद्धान्तोंके कारण आपके जैनधर्मका श्रद्धालु हो जायेगा ।
देहली में हिंसा मन्दिर की स्थापनाका सुझाव
मैं सबका अनुगृहीत हूं कि आपने मुझे बुलाकर मेरा सन्मान किया परन्तु मेरे हृदय में इस बात का दुःख है कि आप महानुभाव यहाँ आकर विचार सुन जाते हैं परन्तु अपने इस लोकप्रिय धर्मको प्रचार करनेके कार्य में आगे नहीं बढ़ते । अन्तमें आप सबके लिये मेरा एक सुझाव है कि आप इस स्वतन्त्र भारतकी राजधानी देहली नगर में एक विशाल हिंसा - मन्दिरकी स्थापना कर दें जिसके अन्दर आपके अहिंसाकं श्रवतार तीर्थकरों की मूर्तियां विराजमान हों। और उसके साथ ही उसमें एक विशाल केन्द्रीय अहिंसा-पुस्तकालय हो जिसमें श्रहिंसासंबंधी सर्वप्रकारका साहित्य हो, जिसको मनन करके संसारपर आपके जैनधर्मकी अमिट छाप बैठ जाए ।
- अनु० आदीश्वरलाल जैन, एम.ए.,
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सम्पादकीय
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देहली में हिंसा मन्दिरकी स्थापनाका उत्तम सुझाब -
इसी किरण में अन्यत्र डा० कालीदास नागका भाषण मुद्रित हो रहा है । इस भाषण में उन्होंने जैनधर्म और जनसंस्कृति के प्रति जो उच्च और हार्दिक उद्गार प्रकट किये है वे जैनसमाजके जिये ध्यान देने योग्य हैं। उन्होंने कहा है कि- 'जैनधर्म एक प्राचीन धर्म है जिसने भारतको संस्कृतिको बहुत कुछ दिया है । परन्तु आज अभी तक संसारको दृष्टिमें जैनधर्मका महत्व नहीं दर्शाया गया है । उनके विचारमें यह एक २० लाख मनुष्योंका छोटासा धर्म है । परन्तु यदि आप सोचेंगे तो आप इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि आपका जैनधमे एक विशा
धर्म है और आप जैन जातिको वह महान् धर्म अपने पूर्वजोंस मिला है। हिंसापर जैनियोंका Copy Right सम्पूर्ण अधिकार है ।' आगे अपने भाषणको जारी रखते हुए कहा - 'परन्तु यदि किसी वस्तु की कमी है तो वह है हमारा अपना प्रमाद । अभी हाल में ही जो समस्त विश्वकी विभिन्न धर्मसम्बन्धी कान्फ्रेन्स हुई उसके अन्दर
ही एक ऐसा व्यक्ति था जिसने भगवान् महावीर का नाम लिया और यह नाम वहाँके अधिकांश व्यक्तियोंके लिए नया सा ही था।' इससे पूर्व आपने यह बतलाया कि- 'आजके संसार में सबका यही मत है कि अहिंसा के सिद्धान्तका महात्मा बुद्धने श्राज से २५०० वर्ष पूर्व सर्व प्रथम प्रचार किया। किसी इतिहास के जाननेवाले को इस बातका बिलकुल भी ज्ञान नहीं है कि भगवान् बुद्ध से लाखों तथा करोड़ों वर्ष पूर्व एक नहीं बल्कि अनेक जैन तोर्थंकरोंने इस हिंसा सिद्धान्तका प्रचार किया । परन्तु यह सब बातें संसारके ज्ञानमें नहीं है । उनको इस बातका
बिलकुल भी ज्ञान नहीं है कि जैनधर्म बुद्धधर्मसे करोड़ों वर्ष पूर्वका धर्म है । वास्तव में इसके लिए उनका कुछ दोष भी नहीं है । जैनियोंने इस विषयमें कुछ भी परिश्रम नहीं किया है । इतिहासके विषय में जनधर्मका अस्तित्व ही कुछ नहीं है' ।
डा० नाग विश्वके सम्मानप्राप्त विद्वान और भारतीय संस्कृति तथा धर्मोके गम्भीर अध्येता एवं ऐतिहासिक विद्वान माने जाते है। उनके ये जैनधर्मके बारेमें प्रकट किये विचार शत-प्रतिशत तथ्य हैं। जैनधर्मका व्यापक और विशाल रूप । श्राज व्याप्य और संकीर्ण बना हुआ है, इसीसे संसारको इस धर्मके बारेमें कोई जानकारी नहीं है । हमने उन्हें जानकारी करानेका कभी प्रयत्न भी नहीं किया । न अपना उन्हें साहित्य दिया और न ढंगसे अपना पुरातत्व एवं इतिहास बतलाया । अब हमें जागृत होकर संसार के साथ चलना चाहिए और उसे जिस अहिंसा तथा अपरिग्रह सिद्धान्तोंकी जरूरत है उन्हें बताना चाहिए। इसके लिए डा० नागने एक बड़ा ही उत्तम सुझाव उपस्थित किया है वह है देहली जैसे केन्द्रीय स्थानपर 'अहिंसामन्दिर' की स्थापना। उनका यह सुझाव कितना सामयिक और उपयोगी है, इसको बताने की जरूरत नहीं है। आज विश्व शान्तिके लिये लालायित है और उसकी खोज में कृतप्रयत्न है । भारत में विश्वके शान्ति-इच्छुकोंके शान्तिसम्मेलन हो रहे है और इस बातका तेजीमे प्रयत्न किया जा रहा है कि विश्वमें किस प्रकार शान्ति स्थापित की जाय। हाल में हमारे प्रधानमंत्री पं० नेहरूने अपने पड़ोसी पाकिस्तानको एक
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किरण ६ ]
प्रस्ताव भेजा है, जिसमें परस्पर सशस्त्र युद्धको सदाके लिये बन्द कर देनेकी प्रतिज्ञा तथा घोषणा की है। पिछले दो महायुद्धोंने संसारको तबाह कर दिया है और हिंसाके परिणामोंको दिखा दिया है । अतः आज संसारमें यदि शान्ति कायम की जा सकती है तो वह अहिंसा के द्वारा ही को जा सकती है। गांधीजी के प्रयत्नों और कार्योंसे श्राज विश्वका बहु भाग 'अहिंसा' को जानने और उसको जीवनमें उतारनेके लिये उत्सुक है। अतः अहिंसामन्दिरकी स्थापना जैनधर्मके भविष्यको उज्ज्वल बना सकती है ।
सम्पादकीय
गतवर्ष जयपुर कांग्रेस के अधिवेशनको जाते सम हमारे तथा लाला राजकृष्णजी जैनक मनमें भी इस अहिसा मन्दिरको स्थापनाके विचारका सर्व प्रथम उदय हुआ था और २१ दिसम्बर १९४८ को उसकी एक रूपरेखा तैयार की थी, जिसका शीर्षक था 'देहली मे हिंसा मन्दिर की योजनाकी रूपरेखा ।' आज हम उसे उसी रूपमें नीचे दे रहे है । आशा है जैन समाज इसपर पूरा ध्यान देकर उसे कार्यरूपमें परिणत करने के लिए कृतसंकल्प होगा और आजके सुअव सरसे लाभ उठायेगा
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" नाम - 'अहिंसामन्दिर' हो
उद्देश्य- (क) विश्व में हिंसा और अपरिग्रहको भावना और आचरणका प्रसार ।
(ख) अहिंसक सभ्यता और संस्कृतिका सर्वव्यापी प्रचार ।
नियम - (१) १८ वर्ष की अवस्थाका प्रत्येक व्यक्ति स्त्री अथवा पुरुष, जो अहिंसा की भावनाको लिए हुए अष्ट मूलगुणों का धारी हो और जिसका नैतिक स्तर ऊँचा हो, इसका सदस्य हो सकता है ।
(२) देवदर्शन करना प्रत्येक सदस्य के लिये वांछनीय है । यह अहिंसाप्रधान संस्कृतिका प्रमुख चिन्ह है | आदि आदि ।
२. अहिंसा मन्दिर के मुख्य चार विभाग हों:( क ) सर्वोदय तीथं । (ख) अहिंसा - विद्यापीठ । (ग) वीर सेवामन्दिर । (घ) छात्रवृत्तिफण्ड ।
(क) सर्वोदयतीर्थ - इसकी १ लाखकी सुन्दर विशाल विल्डिंग हो, जिसमें वीतरागदेव तीर्थकर महावीर अथवा ऋषभदेव और इतर देवोंकी प्रतिमूर्तियाँ हों और जिनका स्पष्ट विवेक 'मन्ये aj after ga eteा:' आदि पद्योल्लेखके साथ हो । मुख्य द्वारपर ऊपर स्वामी समन्तभद्रका निम्न पद्य अङ्कित रहे
सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं सर्वेध |
युक्त्यनु. इसकी सुव्यवस्था के लिए १ लाखका फण्ड हों । (ख) हिसा विद्यापीठ-पांच लाखकी रकमसे यह स्थापित हो जिसमें उच्च कोटिकी धार्मिक शिक्षा
साथ २ विभिन्न उद्योगों की लौकिक शिक्षाका भी प्रबन्ध हो । योग्यतम पाठक इसके शिक्षक हों। (ग) वीरसेवामन्दिर - - इस विभाग के द्वारा पुरातत्व, इतिहास और साहित्यका संकलन, अन्वेषण तथा निर्माणदि हो। इसके साथ एक विशाल लायब्रेरी रहे जिसमें समप्र भारतीय श्रहिंसक साहित्यका संग्रह हो । देश के कोने-कोने में से साहित्य और पुरातत्वादिका संचयन किया जावे । इसके लिए कम-से-कम ५ लाख द्रव्य अपेक्षित है । (घ) छात्रवृत्तिफण्ड --- - इस फण्डमें १|| लाख सुरक्षित द्रव्य रहे और जिसकी श्रायसे प्रतिवर्ष १० छात्रों को देश और विदेशमें भेजकर विभिन्न प्रकारकी उच्च शिक्षा दिलाई जाय । ये छात्र न केवल देशमें ही अपितु विदेशों में भी जैनधर्मके अहिंसा
१. अहिंसा मन्दिरकी स्थापनाके लिए १५ लाख और अपरिग्रह जैसे सर्वे कल्याणकारी सिद्धान्तोंरुपए आवश्यकीय है ।
का प्रचार करें।
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अनेकान्त
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शेष डेढ़ लाखकी रकमसे विडलामन्दिरकी तरह नहीं मिलता और न उसकी इस प्रकार व्याख्या हो 'अहिंसामन्दिर'को विशाल विल्डिंग बनाई जाय, की है। आज 'हिंदू' शब्द मुख्यतः वेद और ईश्वर जिसमें बाग-बगीचे आदि विशिष्ट और सुन्दरतम (जगत्कर्ता) को माननेवालेके अर्थमें व्यवहृत होता चीजें रहें।
है । सावरकरजीकी व्याख्याको न जनता स्वीकार यह है एक वर्ष पूर्वका हमारा स्वप्न जिसे डा० करती है और न सरकार । अतः जब तक जनता नागके 'अहिंसामन्दिरको स्थापनाके सझावने और सरकार 'हिंदू' की व्याख्याको बदलकर भारतीय' उबुद्ध किया है । क्या हम आशा करें कि यह स्वप्न के अर्थमें उसे स्वीकार नहीं करते हैं तब तक जैनों स्वप्न ही तो न रहेगा और कुछ हो कर रहेगा। को हिन्दुओंमें परिगणित करना किसी भी तरह ___ उक्त रूपरेखा जल्दीमें तैयार की गई थी और उचित नहीं है । जैनधर्म और जैन संस्कृति अपना उसे यों ही डाल दिया गया था । वह अब सुन्दरसे स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं-उनका अपना साहित्य, सुन्दर और महत्वपूर्ण भी बनाई जासकती है । हम पुरातत्त्व, इतिहास, मन्दिर, मृर्तियाँ, आचार-विचार समाजका ध्यान इस ओर आकर्षित करते हैं। मब भिन्न हैं और इसलिये जैनधर्म हिन्दूधर्मका न ..
. अतीतमे अङ्ग हुआ है न वतमानमें है और न भावजैनधर्म हिन्धर्मका अङ्ग नहीं है न आता
' ष्यमें हो सकता है। यह दूसरी बात है कि हिन्दूधर्मरहा है और न हो सकता है जबसे 'हरिजन के माथ हमारे धर्मकी फितनी ही ममानताएँ हैं और मंदिर-प्रवेबिल' बना है और बनकर वह जनताक एक-दसरेके साथ महयोग रखते हैं। सो यह तो सामने आया है तबसे जैनोंको हिंदू और जैनधर्मको धर्मका सामान्य सिद्धान्त है जिमका होना जरूरी हिंदूधर्म बताया जाने लगा है । कुछ पुरान हिंदू नेता- है। आज कोई भी धर्म असहिष्णु बनकर रह नहीं अोंने तो हिंदू' शब्दकी पुरानी व्याख्याको बदलकर सकता और न असहिष्णु बनना कोई धर्म सिखाता एक नयी व्याख्या उपस्थित की है और जैनोंको इस है। अतः सिखों, पारसियों और बौद्धोंकी तरह जैनों व्याख्याके अनुसार हिंदू बतलाया है। वह व्याख्या को हिन्दुओंसे पृथक ही गिनना चाहिये और इसलिये इस प्रकार है:
जो कानून एक धम या वर्गके लिये बनाया जाय उस 'आसिन्धुसिंधुपर्यता यस्य भारतभूमिका। दूसरे धर्म या वर्गपर नहीं थोपना चाहिये। हॉ, पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दूरिति स्मृतः ।। राष्ट्रके हितमें जो कानून बने वह सबपर लागू किया
'अर्थात् सिंधु नदीसे लेकर समुद्र पर्यन्तकी जा सकता है । इस सम्बन्धमें हम किसी दूसरी भारतभूमि जिनकी पितृभू-पूर्वजोंका स्थान और पु- किरणमें विस्तारसे विचार करेंगे। एयभ अर्थात् धर्मसंस्थापक प्रवर्तक, तीर्थ, भाषा पूज्य वर्णीजी पूर्णतः स्वस्थआदिका स्थान है वे सब हिंदू हैं। विद्वान् जानते हैं कि 'हिंदू' शब्द मुसल्मानोंको
२६ दिसम्बर को हमनेएकदम सुना कि राष्ट्रके महान् देन है । वे जब इस देशमें आये तो यहाँके रहने
सन्त और समाजकी विभूति श्री १०५ जुल्लक पूज्य वालोंको वे 'काफिर' के अर्थमें हिंद कहने लगे और गणशप्रसादजी वणी जसवन्तनगरमें बहुत अस्वउनके देशको हिंदुस्तान तथा भाषाको हिंदी। अतः स्थ है और उनकी अस्वस्थता बहुत ही चिन्ताजनक इसीके आधारस अर्वाचीन किसी संग्रहप्रेमी लेखक- है-पैरोंमें शोथ हो गया है और १०४ डिग्री के करीब ने उक्त श्लोक रचकर 'हिंदू' की यह व्याख्या उप- बुखार रहता है । यह सुनते ही हम, पं०परमानन्दजी स्थित की है । किंतु प्राचीन साहित्वमें 'हिंदू' शब्द और बा. जैनन्द्रकिशोरजीके लघुभाई डा. किशोर जैन
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किरण ६]
सम्पादकीय
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उसी दिन सन्ध्याको ४ बजेकी गाड़ीसे जसवन्तनगर होगी कि पूज्य वर्णीजी अब पूर्णतः स्वस्थ हैं और गये । वहां पहुंचते ही स्टेशनपर मालूम हुआ कि आस-पासको जनताको उनके इटावामें विराजपूज्य वर्णाजी वहांसे आज हो उसी अस्वस्थ हाल- मान होनेसे बड़ा धर्मलाभ पहुंच रहा है। इटातमें वैद्य कन्हैयालालजी कानपुर, बा. कपरचन्द्रजी वाके धर्मबन्धुओंका धर्मानुराग प्रशंसनीय है। सभी कानपुर और इटावाके धर्मबन्धुओंके आग्रहसे बन्धु पूज्य वर्णीजीकी परिचर्या में हर-समय तय्यार इटावाको, जो जसवन्तनगरसे करीव १० मील है रहते हैं और आगतोंके आतिथ्यको बड़े प्रेमसे करते हैं
और स्वास्थ्य आदिकी दृष्टिसे सुन्दर जगह है, वा. छोटेलालजी जैन कलकत्ता जयपुरमें विहार कर गये हैं। अतएव हम लोग सीधे इटावा पह'चे। वहां पृज्य वर्णीजीको उसी तरह पाया जैसा जैन समाजके सुप्रसिद्धसेवी और वीरसेवासुना था। पर पज्य वीजीके चित्त तथा चेहेरेपर मन्दिरके अनन्यप्रेमी बा. छोटेलालजी जैन कलजरा भी कोई परिवर्तन नहीं और सदाकी भाँति प्रा- कत्ता डेढ महिनेसे आज कल जयपुरमें अपना इलाज तः ४ बजे उठकर समयसारका प्रवचन करते हुए करा रहे है। अभी हालमें आप बहुत अस्वस्थ हो मिले । सुवह ।। वजे पूज्य वीजीके सद्भावमे मेरा गए थे और जिससे बड़ी चिन्ता उत्पन्न होगई थी। शास्त्र हा। शास्त्र अन्तमें बाबाजीने बतलाया किन्तु प्रसन्नताकी बात है कि अब आप पहलेसे कि यहां खटखटी बाबाका एक संस्कृत विद्यापीठ अच्छे है और तवियत सुधारपर है। पाठक यह है जिसमे हजारों संस्कृतके प्राचीन अर्वाचीन ग्रन्थों जानकर आश्चर्य करेंगे कि उन्हें जैन धर्मसे कितना का संग्रह है और जो देखने योग्य है। बा० सोहनलालजी जैन और पंज यचन्दजी चौधरी हम लोगोंको स्थामें भी आपने जयपुरके प्रायः सभी जैनमन्दिरोंके, उक्त स्थान तथा इटावाके दूसरे प्राचीन स्थानोंको जो कलाकी दृष्टिसे खास महत्व रखते हैं, बा. मोतीदिखानेके लिए ले गए । वास्तव में खटखटी बाबाका लालजी जैन (बा. पन्नालालजी अप्रवाल देहलीके संस्कृतविद्यापीठ देखने योग्य है और जो इस जिले- सुपुत्र) को देहलीसे बुलाकर उनसे चित्र लिवाये हैं का ही नहीं प्रान्तका सबसे बड़ा संस्कृत पुस्तकोंका और जिसमें अधिक परिश्रम होनेसे आप अस्वस्थ भएटार जान पड़ता है और जिसमें बीस हजार
हो गये थे । भगवान् जिनेद्रसे प्रार्थना किश्राप शीघ्र के करीब प्रन्थ संग्रहीत बतलाए गए हैं। हम इसके प्रारोग्य - लाभ करके चिरकाल तक समाजकी तथा इटावाके दूसरे स्थानोंके बारेमें विशेष अगली सेवा करते रहें। किरणमें लिखेंगे। पाठकोंको यह जानकर प्रसन्नता
ह जनवरी १९५०, -दरबारीलाल जैन,
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साहित्य परिचय और समालोचना
मेरी जीवनगाथा - लेखक श्री १०५ चुल्लक पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी, प्रकाशक गणेशप्रसाद वर्णी जैनमन्थमाला, भदैनी, काशी, मूल्य ६) रु० ।
यह भारत की आध्यात्मिक विभूति तथा महान् सन्त पूज्य वर्णीजी द्वारा अपनी कलम से लिखा गया उनका प्रामाणिक जीवनचरित है। पूज्य वर्गीजीको अपनी प्रशंसा नहीं सुहाती और इसलिये वे बार २ प्रेरणा होनेपर भी अपना जोवनचरित लिखना टालते रहे। वे कहते थे कि 'भाई ! कुन्दकुन्द, समन्तभद्र आदि लोककल्याणकारी उत्तमोत्तम महापुरुष हुए जिन्होंने अपना चरित कुछ भी नहीं लिखा । मैं अपना जीवन क्या लिखूं ? उसमें है क्या ?' जब उन्हें जनता ने भारी प्रार्थना और आग्रह के साथ उसे लिखनेके लिये बाध्य कर दिया तो उन्होंने इसे लिखा है । यह जीवनचरित नहीं है, यह तो अपने आपमें एक धर्मशास्त्र अथवा पद्मपुराण है जिसका घर-घर में आबालवृद्धको स्वाध्याय करना चाहिये । इसमें समाजका ५० वर्षका इतिहास निबद्ध है जो आगामी पीढ़ी के लिये बड़ा ही लाभ दायक सिद्ध होगा । पूज्य वर्गीजीने कितनी मुसीबतों और विप
दाको उठाया है और लोकोत्तर पुरुष बन है, यह इसे पढ़कर सहज में मालूम किया जा सकता है और प्रत्येक साधारण पुरुष उससे आत्मविकासकी उत्तम शिक्षा ग्रहण कर सकता है। जनता पूज्य वर्गीजी की बड़ी कृतज्ञ है कि उन्होंने इसे लिखा और जनता का बड़ा उपकार किया । इनके लिखवानेका प्रधान श्रेय श्री . कस्तूर चन्दजी नायककी धर्मपत्नीको प्राप्त है जिन्होंने सत्याग्रहपूर्ण प्रतिज्ञा की थी कि - 'महाराज जब तक आप लिखना शुरू न करेंगे तब तक मैं भोजन न करूंगी।' धन्य है इम महिलाको ! पुस्तक हर-एकके पढ़ने योग्य है। ऐसी पुस्तकोंका लाखोंकी संख्या में प्रचार होना चाहिये । इसके प्रका
शनके लिये ग्रन्थमाला धन्यवादकी पात्र है। मजबूत जिल्द तथा छपाई -सफाई उत्तम ।
२. वर्णी-वाणी - सम्पादक- वि० नरेन्द्र जैन, प्रकाशक उपयुक्त । मू. ४) रु० ।
यह वर्णीजीके आध्यात्मिक प्रवचनों तथा पत्रों आदिका सुन्दर और संशोधित एवं परिवर्धित दूसरा संस्करण है । एक बार यह पहले प्रकाशित हो चुको है और जिसे जनताने बहुत पसंद किया है। यह प्रत्येक के मनन करने योग्य है । इसमें कुछ परिवद्धित विषयोंके शीर्षक भ्रान्तिजनक तथा आपत्तिकारक है । जैसे इम प्रन्थ में एक शीर्षक है 'मोक्षप्राप्ति में उच्च गति आवश्यक नहीं। इस शीर्षकसे दिगम्बर जैन जनताको भ्रम हो सकता है । अतः इसके स्थान में 'आत्मविकास में उच्च गति आवश्यक नहीं' अथवा 'धर्मप्राप्तिमें उच्च गति आवश्यक नहीं' जैसा शीर्षक होना चाहिए था । मजबूत जिल्द छफाई-सफाई उत्तम
३. जेनधर्मका प्राण - लेखक पं० श्रीसुखलालजी संघवी, प्रकाशक जैनसंस्कृतिसंशोधनमण्डल काशी, मूल्य । ) ।
पण्डितजी जैन समाजके माने हुए लेखक एवं चिन्तक विद्वान् है । इस लेखको उन्होंने श्रीरामकृष्णशताब्दीप्रन्थ के नवीन संस्करण के लिये लिखा था, जिसे प्रस्तुत पत्रिका रूपमें उक्त मण्डलने प्रकाशित किया है । यह गुजराती में अनुवादित होकर 'संस्कृति' तथा 'प्रबुद्ध जैन' नामक पत्रोंमें भी प्रकट हुआ है | लेख मननपूर्ण तथा पढ़ने योग्य है ।
४. राजर्षि कुमारपाल - लेखक मुनि श्री जिनविजयजी, प्रकाशक उपर्युक्त मूल्य || ) |
मुनि जिनविजयजी जैन साहित्य और इतिहा मके अधिकारी विद्वान् हैं। उनकी लेखनीसे लिखा गया यह सुन्दर ट्रैक्ट है। इसमें राजर्षि कुमारपाल का वृत्त दिया गया है । यह गुजरातका यशस्वी और
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अनेकान्त
[वर्ष १०
जैनधर्मका बड़ा प्रचारक नरेश हुआ है जो श्राचार्य कदाग्रह न रखते हुए श्रमणसंस्कृतिका प्रचार करना हेमचन्द्रका शिष्य था और जिसने उनकी प्रेरणासे गुज- और साधारण जनतामें सीधी-सादी भाषामें धर्म रातमें जैनधर्मका बड़ा भारी प्रचार किया था। लेख- और संस्कृतिका रहस्य बताना । उद्देश्य उत्तम है। कने इसे सम्राट अशोक जैसा प्रभावक तथा प्रतापी इसके लिये हम सहयोगीका अभिवादन करते हैं नरेश बतलाया है। पुस्तक सुन्दर तथा इतिहासप्रे और पाठकोंसे उसे मंगानेकी प्रेरणा करते हैं। मियोंके कामकी चीज है।
८. वीर इण्डिया-साप्ताहिक पत्र, सम्पा० ५. गजरातका जैनधर्म-लेखक तथा प्रका- डा० नन्दकिशोर जैन, आर० एस०एम०एफ० तथा शक उपयुक्त ही। मूल्य ॥)।
ए. पी. जैन बी० ए०, वीर इण्डिया कार्यालय, लेखकने इसमें बतलाया है कि गुजरातमें जैनों नयाबजार देहली । वार्षिक मूल्य ५) का कैसा और कितना प्रभाव रहा है और जैनधर्म यह पत्र गत अक्तूवरमे निकलना शुरू हुआ वहाँके नगर-नगर तथा गाँव-गाँव में सर्वाधिक व्याप्त है। अभी उसके दो अंक निकले हैं । पत्रका उद्देश्य रहा है। पुस्तक बड़ी ही अच्छी और प्रचार योग्य है। मानवधर्म प्रचार और भारतभरमें जैनसमाजका
६.ज्ञानोदय-मासिक पत्र, सम्पादक मुनि संगठन आदिका है । भावना है वह इसमें सफल हो कान्तिसागर, पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, प्रो० . है. रिपोर्ट-श्रीपार्श्वनाथ दि० जैनमन्दिर महेन्द्रकुमार न्यायाचाय । प्रकाशक भारतीयज्ञान- और धर्मशाला लालपुरा इटावाकी विक्रमसंवत पीठ काशी । वार्षिक मूल्य ६), एक प्रतिका ।।।
१६१३ से २००५ तक तीन जुदी २ रपोटें, प्रकाशक___यह मासिक पिछले जुलाई माहसे उक्त सम्पाद. श्रीमधुवनदासजी जैन प्रबन्धक उक्त संस्था । कोंके सम्पादकत्वमें उक्त ज्ञानपीठ काशीसे प्रकट हा हालमें हम पूज्य वणीजीके दर्शनार्थ इटावा गये है। अब तक इसके सात अट्ट निकल चके है और थे। सौभाग्यसे बा० सोहनलालजी जैन कलकत्ता, जो मेरे सामने है। इसके प्रायः सभी लेख विद्वत्ता- जो अपनी जन्मभूमि इटावा आये हुए थे और पूज्य पुणे और मनन-योग्य हैं। प्रगतिशोल जनताको वर्णीजीकी परिचयाम रत थे, वहाँ मिल गये । हम खासकर विद्वानोंको जैसे पत्रको जरूरत थी प्रायःवैसा दोनों एक दिनके प्रथम परिचयमें ही इतने घुल-मिल ही यह पत्र है। हमें आशा है इसके द्वारा जैनधर्मका गये मानों वर्षाका हमारा-उनका परिचय हो। आप अच्छा और सच्चे रूपमें सर्वाधिक प्रचार होगा। पुरातत्त्व तथा साहित्य-प्रेमी है। आपने हमें उक्त कुछ विषयों में पत्रसे विचारभेद रखते हए भी हम धमशालाकी तीन रिपोर्ट दी जिनसे उक्त संस्थाके सहयोगीका अभिनन्दन और स्वागत करते है। संस्थापक बा० मुन्नालालजी जैनका धार्मिक प्रेम और पाठकोंको इसके ग्राहक बनकर अपनी मानसिक जनसमाजकी जागृतिकी पवित्र भावना जाननेको भूख मिटानेके लिये उसे अवश्य मंगाना चाहिए। मिलती है । धर्मशालाम लोगों को बड़ा लाभ पहुँचता
७. श्रमण-मासिक पत्र, सम्पादक श्री है। इसके आश्रित एक औषधालय भी है जो पं० इन्द्रचन्द्र शास्त्री, एम० ए०, शास्त्राचार्य आदि। ज्ञानचन्द्रजी वैद्यकी अध्यक्षतामें सुचारु रीत्या प्रकाशक मुनि श्रीकृष्णचन्द्राचार्य जैनाश्रम हिन्द- चल रहा है और जिससे हजारों रोगी लाभ ले रहे यनिवर्सिटी बनारस ।
है। एक कन्यापाठशाला भो शहरमें उक्त बाबूजीके यह मासिक भो गत नवम्बरसे ही प्रकाशित ट्रस्ट के व्ययसे चल रही है । ऐसी उपयोगी संस्थाएं हुआ है। इसके तीन अङ्क अब तक निकले है जिन्हें समाजके लिये बड़ो आवश्यक है । बा० मुन्नालालजी देखकर श्राशा होती है कि पत्र अपने उद्देश्यों का धर्मप्रेम प्रशंसनीय है। अवश्य सफल होगा। पत्रका उदश्य है साम्प्रदायिक १० जनवरो १६५०, -दरवारीलाल जैन,
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मद्रवानिमित्तशास्त्र और उसका अनुवाद
-...00....जैन विद्वान् लेखकोंने साहित्यके सभी अङ्गों-सिद्धान्त, दर्शन, नीति, कला, इतिहास, पुरातस्व, ज्योतिष, वैद्यक, काम्य, व्याकरण और मंत्रादि विषयोंपर विपुल ग्रन्थ-रचना की है और भारतीय साहित्यके अमर कोषागारको समृद्ध बनाया है। उनके साहित्यको यदि शेष भारतीय साहित्यमेंसे कुछ क्षणके लिये अलग कर दिया जाय तो भारतीय साहित्य अपूर निष्प्रभ-सा दिखेगा । अनेक पाश्चात्य विद्वानोंने जैनधर्मके साहित्यकी प्रशंसा करते हुए उसकी विपुलता और सर्वाङ्गपूर्णतापर बढ़ा हर्ष व्यक्र किया है। एक प्रख्यात भारतीय विद्वान्ने तो यहां तक अपने उद्गार प्रकट किये हैं कि भारतीय साहित्यमें जो अहिंसक एवं सात्विक श्राचार-विचारको धारा भाई है वह जैन-साहित्यको ऋणी है अथवा जैन साहित्यकी उसपर अमिट छाप है। वास्तवमें जैनाचार्योंने लोक-हितको हमेशा सामने रखा है और यह प्रयत्न किया है कि साहित्यका कोई अङ्ग अपूर्ण या विकृतरूपमें न रहे। उनके साहित्यने अहिसक-रचनामें जो योगदान दिया है वह अपूर्व है। उनके वैद्यक जैसे साहित्यमें मांस, मदिरा और मधुका भी त्याग बतलाया गया है
और जीवनको अधिक शान्त तथा सात्त्विक वितानेका उपदेश किया गया है। इससे नैन-साहित्यको सात्विकता और विशालताका कुछ अनुभव होजाता है।
साहित्यके अनेक विषयों में निमित्तशास्त्र (ज्योतिष) भी एक विषय है और जिसपर भी जैन विद्वानोंने ग्रन्थ लिखे हैं। इन्हीं ग्रन्थों में प्रस्तुत 'भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र' है, जिसका दूसरा नाम 'भद्रबाहु-संहिता' भी है। कहा जाता है कि अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु निमित्तशास्त्रके महापण्डित थे। उन्होंने शिष्योंकी प्रेरणा और प्रश्न करनेपर उन्हें निमित्तशास्त्रका उपदेश किया था । उनका यह उपदेश अर्से तक मौखिकरूपमें चलता रहा और बहुत कासके बाद उसे लिपिबद्ध किया गया। प्रस्तुत अन्य उसी उपदेशका एकांशिक संकलन समझा जाता है। इसके कर्ता कौन हैं और इसे इसरूपमें कब निबद्ध किया गया है ? आदि बातें विचारणीय है जिनपर इस ग्रन्थके स्वतंत्र प्रकाशनके समय ही उसकी प्रस्तावनामें विचार किया जावेगा।
इस ग्रन्थका अनुवाद श्रीजवाहरलालजी जैन वैद्य परतापगढ़ (राजपूताना-मालपा) ने किया है जो इस विषयके विज्ञ और प्रमी है और जिसे उन्होंने दो प्रतियोंके प्राधारसे तैयार किया है। इसके कुछ अध्यायोंको उन्होंने अपने मनवाद सहित 'अनेकान्त में प्रकाशनार्थ कोई सात वर्ष पहले ३१ दिसम्बर १६४२ में मेजा था। किन्तु उसमें संशोधन और सम्पादनकी खास अपेक्षा होने तथा उसके लिये मुख्तारसाहवको अवकाश न मिलनेसे वह 'अनेकान्त' में अब तक प्रकाशित नहीं होसका। हाल में मुख्तारसाहबने उसके सम्पादनका भार मेरे सुपुर्द किया। फलतः उसे क्रमश: 'भनेकान्त' में प्रकट किया जारहा है । यद्यपि मूलग्रन्थ हालमें सिंघी जैन प्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित होगया है किन्त अनवादके साथ वह प्रथम बार ही प्रकाशित हो रहा है। जहाँ तक हुमा, हमने अनवादकके अनुवादको भाषा-साहित्यकी दृष्टिसे सम्पादित तथा संधोधित किया है और उनकी मूल विचारणा ज्यों-को-स्यों रखी है । आशा है पाठकोंके लिये यह बाभप्रद होगा।
-दरबारीलाल कोठिया देखो, प्रन्थको पीठिका।
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भद्रकाहु-निमित्तशास्त्र
(भद्रबाहु-संहिता) हिन्दी-अनुवाद-सहित प्रथम अध्याय
नमः श्रीवर्द्धमानाय सर्वज्ञाय महात्मने । निमित्तांग-प्रकाशाय वस्तुसंज्ञासमन्विते (2) ॥
अर्थ-जो सर्वज्ञ हैं-सर्व पदाथोंके ज्ञाता हैं, महात्मा हैं-विशिष्ट गुणोंके प्रकट होनेसे उच्च आत्मा हैं, निमित्तशास्त्रके प्रकाशक हैं और वस्तुसम्बन्धी सम्यग्ज्ञान (पदार्थज्ञान) से युक्त हैं उन श्रीवर्द्धमान स्वामीके लिये नमस्कार है। ।। १॥
विमल बोध सुधाम्बुधि-चन्द्रिक गुरुपदोदयभूधर-भास्करम् ।
ललितकीर्तिमुदार-गुणालयं भजत भद्रभुजं मुनिनायकम् ॥२॥ अर्थ-जो निर्मल ज्ञानरूण अमृतसमुद्रको बढ़ानेके लिये चन्द्रमाके समान हैं, गुरुचरणरूपी उदयाचलसे उदित होनेवाले सूर्य के सदृश है तथा सुन्दर कीतिसे संयुक्त है और उदारगुणोंके भण्डार हैं उन आचार्य श्रीभद्रबाहुकी उपासना करो ॥२॥ मागधेषु पुरं ख्यातं नाम्ना राजगृहं शुभम् । नानाजन-समाकीर्ण नानागुण-विभूषितम् । ३।।
अर्थ-मगधदेशके नगरोंमे प्रसिद्ध राजगृह नामका एक श्रेष्ठ नगर है, जो नाना प्रकारके मनुष्योंसे व्याप्त है और अनेक गुणोंसे सपन्न है ।।३॥ तत्रास्ति सेनजिद्राजा युक्तो राजगुणैः शुभैः । तस्मिन् शैलेषु विख्यातो नाम्ना पाण्डुगिरिः शुभः ॥४॥ नानावृक्ष-समाकीर्णो नानाविहग-सेवितः । चतुष्पदैः सरोभिश्च साधुभिश्चोपसेवितः ॥५॥
अर्थ-उस राजगृहमें सेनजित् नामका राजा है जो राजाओंके गुणोंसे सम्पन्न है। इस राजगृहमें (पांच) पर्वतोंमें विख्यात पाण्डुगिरि नामका उत्तम पर्वत है जो अनेक प्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त है, अनेक पक्षियोंका क्रीडास्थल है और नाना तरह के पशुओंकी विहारभूमि है तथा अनेक तालावों और ऋषियोंसे उपसेवित है ।। ४,५॥ तत्रासीनं महात्मानं ज्ञान-विज्ञानसागरम् । तपोयुक्त च श्रेयासं भद्रबाहु निरामयम् ॥६॥ • द्वादाशङ्गस्य वेत्तारं निर्ग्रन्थं सुमहायतिम् । वृतं शिष्यः प्रशिष्यैश्च निपुणं तत्ववेदिनम् ॥७॥
प्रणम्य शिरसाऽऽचार्यमूचुः शिष्यास्तदा गिरम् । सर्वेषु प्रीतिमनसो दिव्यं ज्ञानं वुभुत्सवः ॥८॥
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•३६
अनेकान्त
| वर्षे १०
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अर्थ-उस पाण्गिरि पदेतपर स्थित महात्मा, ज्ञान-विज्ञानके समद, तपस्वी. कल्याणमर्ति. रोगरहित, द्वादशाङ्गके वेत्ता, निर्ग्रन्थ, महायति, शिष्यों और प्रशिष्योंसे युक्त, निपुण, तत्वज्ञानी, आचार्य श्रीभद्रबाहको सिर झुकाकर नमस्कार करके मब जीवोंपर प्रीति करनेवाले और दिव्यज्ञानके इच्छुक शिष्योंने उनसे प्रार्थना को-॥ ६, ७, ८॥ पार्थिवानां हितार्थाय भिक्षूणां हितकाम्यया । श्राक्काणां हितार्थाय दिव्यं ज्ञानं ब्रवीहि नः ॥६॥
अथे-हे प्रभो ! राजाओं, भिक्षुओं और श्रावकोंके हित के लिये हमे आप दिव्यज्ञान (निमित्तशास्त्र) का उपदेश कीजिए ॥६॥ शुभाऽशुभं समुद्भूतं श्रुत्वा गजा निमित्ततः । विजिगीषुः स्थिरमतिः सुखं पाति महीं सदा ॥१२॥
अथे-(क्योंकि) राजा निमित्त (निमित्तशास्त्ररूप दिव्यज्ञान) से बतलाये गये अपने शुभाशुभको सुनकर शत्रु ओंको जीतनेका इच्छुक तथा स्थिरबुद्धि (दृढ़ संकल्पी) बनता है और सुखसे सदा पृथ्वीका पालन करता है। तात्पर्य यह कि राजाओंको निमित्तशास्त्रका जानना इसलिये जरूरी है कि उससे वे अपने भावी इष्ट अथवा अनिष्टको मालूम करके प्रजाकी भलोभांति रक्षा करते है और राज्यमें सुख-शान्ति बनाये रखते है ।। १०॥ राजभिः पूजिताः सर्वे भिक्षवो धर्मचारिणः । विहरन्ति निरुद्विग्नाम्तेन राज्ञाऽभियोजिताः ॥११॥
अर्थ तथा धर्मपालक सर्व भिक्षु राजाओंद्वारा पूजित होत हुए और उनकी सेवादिको प्राप्त करते हुए निराकुलतापूर्वक लोकमे विचरण करते है ॥ ११॥ पापमुत्पातकं दृष्ट्वा ययुर्देशान्तरं ततः । स्फीतान् जनपदांश्च व संश्रयेयुरनोदिताः ॥१२॥
अथ--और आश्रित देशको पापयुक्त अथवा उपद्रवयुक्त होनेवाला मालूमकर वहाँसे देशान्तर (दूसरे देश) को चले जाते हैं तथा बिना परप्रेरणाके स्वतंत्रतापूर्वक उपद्रवादिहित सम्पन्न दशोंमे आबसंत है । सो वे भी ऐसा निमित्तशास्त्रके ज्ञानसे ही करते हैं ॥ १२ ।। श्रावकाः स्थिरसंकल्पा दिव्यज्ञानेन हेतुना । संश्रयेयुः परं तीथं यथा सर्वज्ञ-भाषितम् ॥१३॥
अर्थ-तथा श्रावक दिव्यज्ञानको पाकर दृढ़ संकल्पी होते है और सर्वज्ञकथित उत्कृष्ट एवं श्रेष्ठ
आश्रय लेते है। तात्पर्य यह कि श्रावकोंकोदव्यज्ञानसे सर्वज्ञक वचनोंमे दृढ श्रद्धा होती है और उनके विचार दुल-मिल नहीं होते । अतः उन्हें भी निमित्तज्ञानको प्राप्त करनेकी आवश्यकता है ।। १३ ।। सर्वेषामेव सचानां दिव्यज्ञानं सुखावहम् । भिक्षुकाणां विशेषण पर-पिण्डोपजीविनाम् ॥१४॥
अर्थ-यह दिव्य (अष्टाङ्ग निमित्त) ज्ञान सब जीवोंके लिये मुखका देनेवाला है। और साधुओंको तो विशेष रूपस सखदायक है; क्योंकि उनका जोवनाधार श्रावकोंसे प्राप्त भोजनपर निभर है ॥ १४ ॥ विस्तीर्ण द्वादशाङ्गतु भिक्षवश्चाल्पमधसः । भवितारो हि बहवस्तेषां चैवेदमुच्यताम् ॥१५॥
___ अर्थ-द्वादशाङ्गसूत्र तो बहुत विस्तृत है और भिक्षु (साधु) अधिकांश अल्पबुद्धिके धारक होंगे, अतः उनके लिये निमित्तशास्त्र कहिए ॥ १५ ॥
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किरण
भद्रबाहुनिमित्तशास्त्र
२३७
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सुखग्राहं लघुग्रन्थं स्पष्टं शिष्यहितावहम् । सर्वज्ञ भाषितं तथ्यं निमित्तं च ब्रवीहि नः ॥१६॥
अर्थ-जो सरलतासे ग्रहण किया जामके, मंक्षिप्त हो स्पष्ट हो, शिष्यों का हित करनेवाला हो, सर्वज्ञ कथित हो और यथार्थ हो उस निमित्तज्ञानका उपदेश कीजिए । १६ ।। उल्का समासतो व्यासात् परिवेषांस्तथैव च । विद्य तोऽभ्राणि सन्ध्याश्च मेघान् वातान् प्रवर्षणम् गन्धर्वनगरं गर्भान् यात्रोत्पातांस्तथैव च । ग्रहचारं पृथक्त्वेन ग्रहयुद्धं च कृत्स्नतः ॥१८॥ वातिकं चाथ स्वमांश्च मुहूर्ता श्च तिथींस्तथा । करणानि निमित्तं च शकुनं पाकमेव च ॥१४॥ ज्योतिष केवलं कालं वास्तु-दिव्येन्द्रसम्पदाम् । लक्षणं व्यंजनं चिह्न लग्नं दिव्योषधानि च ॥२०॥ बलाऽबलं च सर्वेषां विरोधं च पराजयम् । तत्सर्वमानुपूर्वेण प्रब्रवीहि महामते ॥२१॥ सनितान् यथाद्दिष्टान् भगवन् ! वक्तुमर्हसि । प्रश्नं शुश्रूषवः सर्वे वयमन्ये च साधवः ।।२२।। __ अर्थ-हे महामते ! संक्षेप और विस्तारसे उल्का, परिवेष, विद्य न, अभ्र, सन्ध्या, मेघ, वात, प्रव. पण, गन्धर्वनगर, गर्भ, यात्रा, उत्पात, पृथक पथक ग्रह चार (शुक्रवार, शनिचार, गुरुचार, बुधचार, अंगारक्चार, राहुचार, कंतुचार, सूर्यचार और चन्द्रचार), ग्रहयुद्ध, वातिक (अधकाण्ड), स्वप्न, मुहूर्त, तिथि, करण, निमित्त, शकुन, पाक, ज्योतिष, वास्तु, दिव्येन्द्रसंपदा, लक्षण, चिह्न, लग्न, दिव्यौपध, बलाबल, विरोध और जय-पराजय इन समस्त विषयों का क्रमशः वर्णन कीजिए। हे भगवन् । जिस क्रमसे इन सबका निर्देश किया गया है उसी क्रमसे उनका उत्तर दीजिए। हम सभी तथा दूसरे साधुजन प्रश्नाका उत्तर सुनने के लिये उत्कंठित हैं ।। १७,१८,१६,२०,२१,२२ ।।
इति नैनन्थे भद्रबाहुसंहितायां (भद्रबाहुके निमित्ते) अन्धनसंचयो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥1॥
अथ द्वितीयोऽध्यायः।
-:-:ततः प्रोवाच भगवान् दिग्वासाः श्रमणोत्तमः । यथावच्छास्त्रविन्यासं द्वादशाङ्गविशारदः ॥१॥
अर्थ-शिष्योंके उक्त प्रश्नोंके किये जानेपर द्वादशाङ्गक पारगामी दिगम्बर श्रमणश्रेष्ठ भगवान् भद्रबाहु आगममें जिसप्रकारसे उक्त प्रश्नों का वर्णन निहित है उसप्रकारने अथवा प्रश्नक्रमसे पुनका उत्तर देने के लिये उद्यत हुए ।। १ ।। भवद्भिर्यद्यह पृष्टो निमित्तं जिन-भाषितम् । समास-व्यासतः सर्व तन्निबोध यथाविधि ॥२॥
अथ हे शिष्यो ! आप सबने मेरेसे यह पूछा है कि-'हम लोगोंके शुभाऽशुभ जानने के लिये श्रीजिनेन्द्रदेवने जो निमित्त कहा है उसे कहो।' अतः मैं संक्षेप और विस्तारसे उस सबका यथाविधि वणन करता हूँ, सो मुनो-॥२॥ प्रकृतेर्योऽन्यथाभावो विकारः सर्व उच्यते । एवं विकार विज्ञेयं भयं तत्प्रकृतेः सदा ॥३॥
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२३८ • अनेकान्त
[वर्ष १० अर्थ-हे भिक्षुओ ! प्रकृतिका अन्यथाभाव होना ही विकार कहा जाता है, जब कभी तुमको प्रकृ. तिका विकार जाननेमें आवे तो उसपरसे जानना कि यहाँपर भय होनेवाला है ॥ ३॥ उल्कानां प्रभवं रूपं प्रमाणं फलमाकृतिम् । यथावत्संप्रवक्ष्यामि तन्निबोधाय तत्त्वतः ॥४॥
अर्थ-उल्काओंकी उत्पत्ति, रूप, प्रमाण, फल और आकृति इनका इनके यथार्थ ज्ञानके लिये यथावत् कथन करूँगा ॥४॥ भौतिकानां शरीराणां स्वर्गात्प्रच्यवतामिह । संभवाश्चान्तरिक्षे तु तज्जैरुल्केति संज्ञिता ॥५॥
अर्थ-भौतिक(पृथिवी, जल, अग्नि और आकाश इन पांच भूतोंसे निष्पन्न) शरीरोंको धारण किये हुए देव जब स्वर्गसे इम लोकमें आते है तब उनके शरीर आकाशमें विचित्र ज्योतिरूपको धारण करते है उसे विद्वानोंने उल्का कहा है ॥ ५॥ तत्र तारा तथा धिष्ण्यं विद्य चाशनिभिः सह । उल्काविकारा बोद्धध्या ते पतन्ति निमित्ततः । ६॥
अर्थ-तारा, धिष्ण्य, विद्य त् और अशनि ये सब उल्काके विकार हैं और ये निमित्त पाकर गिरते हैं ॥६॥ ताराणां च प्रमाणं च धिष्ण्यं तद्विगुणं भवेत् । विद्यु द्विशाल-कुटिला रूपतः क्षिप्रकारिणी ॥७॥
___ अर्थ–ताराका जो प्रमाण है उससे दूना प्रमाण (लम्बाईमें) धिष्ण्यका है। विद्युत् नामवाली उल्का बड़ी और कुटिल तथा शीघ्रगामिनी होती है ॥ ७ ॥ अशनिश्चक्रसंस्थाना दीर्घा भवति रूपतः । पौरुषी तु भवेदुन्का प्रपतन्ती विवर्द्धते ॥ ८ ॥ ___अर्थ-अशनि नामकी उल्का चक्राकार होती है। पौरुषी नामकी उरूका स्वभावसे ही लम्बी होती है तथा गिरते हुए बढ़ती हुई जाती है ॥८॥ चतुर्भागफला तारा धिष्ण्यम फलं भवेत् । पूजिता पद्मसंस्थाना माङ्गल्या ताश्च पूजिताः ॥६॥
अर्थ-वारा नामकी उल्काका फल चतुर्थांश होता है, धिष्ण्य संज्ञक उल्काका फल आधा होता है और जो उल्का कमलाकार होती है वह पूजने योग्य तथा मंगलकारी है । ये उल्काएँ पूजित अर्थात् अच्छी एवं पुण्यरूप हैं॥॥ पापा घोरफलं दद्यु : शिवाश्चापि शिवं फलम् । व्यामिश्राश्चापि व्यामिश्रं येषां यैः प्रतिपुद्गलाः१०
अर्थ-पापरूप उल्का घोर अशुभ फल देती है तथा शुभरूप उल्का शुभ फल देती है । और पाप तथा पुण्य मिश्रित उल्का पाप और पुण्य मिश्रित (मिला हुआ) फल प्रदान करती है । इन पुद्गलोंका ऐसा हो स्वभाव है ।। १०॥ इत्येतावत्समासेन प्रोक्त मुल्कासुलक्षणम् । पृथक्त्वेन प्रवक्ष्यामि लक्षणं व्यासतः पुनः॥११॥ मर्थ-यहाँ तक उल्काओंके संक्षेपमें लक्षण कहे, अब पृथक पृथक पुनः विस्तारसे कहता हूँ ॥१९॥
इति उकाललयो द्वितीयोऽध्यायः ।
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किरण ६]
भद्रबाहु-निमित्त-शास्त्र
२३६
अथ तृतीयोऽध्यायः।
नक्षत्रं यस्य यत्पु सस्तूर्णमुल्का प्रताडयेत् । भयं तस्य भवेद् घोरं यतस्तत्कम्पते हतम् ॥१॥
अर्थ-जिस पुरुषके जन्मनक्षत्रको' अथवा नामनक्षत्रको उल्का शीघ्रतासे ताडित करे उस पुरुषको घोर भय होता है । यदि जन्मनक्षत्रको कम्पायमान करे तो उसका घात होता है ॥ १॥ अनेकवर्णनक्षत्रमुल्का हन्युर्यदा समाः । तस्य देशस्य तावन्ति भयान्युग्राणि निर्दिशेत् ॥२॥ ____ अर्थ-जिस वर्ष जिस देशके नक्षत्रको अनेक वर्ण (रंग) की उल्का आघात करे तो उस देश वा प्रामको उग्र भय करनेवाली उसे समझना चाहिए ॥२॥ येषां वर्णेन संयुक्ता सूर्यादुल्का प्रवर्त्तते । तेभ्यः संजायते तेषां भयं येषां दिशं पतेत् ॥३॥ ___ अर्थ-सूर्यसे निकली हुई उल्का जिस वर्णसे युक्त होकर जिस दिशामें गिरे तो उस दिशामें उस सवालको वह घोर भय करनेवालो जानो ॥३॥ नोलाः पतन्ति या उल्काः सस्य सर्व विनाशयेत् । त्रिवर्णा त्रीणि धोराणि भयान्युल्का निवेदयेत्॥४
अथे-यदि नीलवर्णकी उल्का गिरे तो वह सर्वप्रकारके धान्योंको नाश करती है अर्थात उनके नाश होनेकी सचना देती है। और यदि तीन वण की उल्का गिरे तो तीन प्रकारके घोर भयोंको वह बताती है।॥ ४॥ विकीर्यमाणा कपिला विशेष वामसंस्थिता । खण्डा भ्रमन्त्यो विकृताः सा उल्का भयावहाः ॥५॥
अर्थ-विखरी हुई कपिल वर्ण की विशेषकर वामभागमें गमन करनेवाली, घूमती हुई, खण्डरूप एवं विकृत उल्काएँ दिखाई दे तो ये सब भय होनेकी सूचना करती हैं ।।५।। उल्काऽशनिश्च विषायं च प्रपतन्ति यतो मुखाः । तस्यादिशि विजानीयात्ततो भयमुपस्थितम् ॥६॥
अर्थ-उल्का, अशनि और धिष्ण्य जिस दिशामें मुखसे गिरें तो ऐसा जानो कि इस दिशा में भय उपस्थित होगा ॥३॥ सिंह-व्याघ्र-वराहोष्ट्र-श्वान द्वीपि-खरोपमाः । शूल-पट्टिश-संस्थाना धनुर्बाण-गदामयाः ॥७॥ पाश-वज्रासि-सदृशाः परश्वर्द्धन्दुसन्निभाः । गोधा-सर्प शृगालानां सदृशाः शन्यकस्य च ॥८॥ मेषाञ्ज-महिषाकाराः काकाऽऽकृति-वृकोपमाः । शश-मार्जार-सदृशाः पक्ष्योदग्रसन्निभाः ॥६॥ ऋक्ष-वानर-संस्थानाः कवन्ध-सदृशाश्च याः । अलातचक्र-सदृशाः वक्राक्ष-प्रतिमाश्च याः ॥१०॥ शक्ति-लागल-संस्थाना यस्याश्चोभयतः शिरः । सा स्तन्यमाना(!)नागाभाः प्रपन्ति स्वभावतः॥११
अर्थ-सिंह, व्याघ्र (चीता अथवा नाहर), सुअर, ऊंट, तेन्दुश्रा, कुत्ता, गदहा, त्रिशूल, पट्टिश जन्मनपत्रके प्रभावमें नाम नपत्रपरसे विचार करना ।
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अनेकान्त
वर्ष १०
(एक प्रकारका श्रायुध) धनुष, बाण, गदा, फरमा, वन, तलवार, अर्द्धचन्द्राकार कुल्हाड़ी, गोह, सर्प, मियाल, भाला, मेढा, बकरा, भैंसा, कौश्रा, भेड़िया, खरगोश, बिल्ली. अत्यन्त ऊंचे उड़नेवाला पक्षीगिद्ध, रीछ, बन्दर, शिरकटे हुए धड़, कम्हारका चाक, टेड़ी आँखवाला, शक्ति (आयुधविशेष), हल इन सबके आकारवाली और दो शिरवाली तथा हाथीके आकारवाली उल्काएँ स्वभाषसे ही गिरती है ।।७,८, ६, १०, ११ ॥ उल्काऽशनिश्च विद्यु च सम्पूर्ण कुरुते फलम् । पतन्ती जनपदान्त्रीणि उल्का तीव्र प्रबाधते ॥१२॥
अर्थ-उल्का, अशनि और विद्युत ये तीनों विलियां पूरे फलको करती है। इन तीनों (उल्काओ) के गिरनेसे देशवासियोंको तीव्र बाधा होती है ।। ५२ ।। यथावदानुपूर्वेण तत्प्रवक्ष्यामि तत्वतः । अग्रतो देशमार्गेण मध्येनान्तर ततः ॥१३॥ पुच्छेन पृष्ठतो देशं पतन्त्युल्का क्निाशयेत् । मध्यमा न प्रशस्यन्ते नभस्युल्का: पतन्ति याः ॥१४॥
अर्थ-आगमानुसार क्रमशः उनका कथन करता हूँ। यदि उल्का अग्रभागसे गिर तो देशके मागका नाश करती है। यदि मध्यम भागसे गिरे तो देशके मध्यम भागका और पीछे भागसे गिर तो देशके पीछे भागका विनाश करती है । तथा जो उल्का मध्यम है अर्थात् समान-साधारण अवस्था (अग्र, मध्य और पृष्ठ रहित)वाली है और आकाशसे गिरे तो वह प्रशस्त नहीं है ॥ १३, १४ ॥ स्नेहवत्योऽन्यगामिन्यो प्रशस्ताः स्युः प्रदक्षिणाः । उल्का यदि पतेच्चित्रा पक्षिणामहिताय सा ॥१५
अर्थ-किन्तु यदि वह स्नेहयुक्त होती हुई दक्षिणमार्गसे गमन करे तो वह उल्का प्रशस्त है और यदि चित्र-विचित्र रंगकी उल्का वायें मागेस गिरे तो पक्षियोंको अहित करनेवाली जानो। ॥ १५॥ श्याम लोहितवर्णा च सद्यः कुर्यान्महद्भयम् । उल्कायां भस्मवर्णायां परचक्राऽऽगमो भवेत् ॥१६॥
अर्थ-यदि श्याम और लाल वण की उल्का गिरे तो वह शीघ्र महाभयकी सचना करतो है तथा भस्म बणकी उल्का परचक्रका आना बताती है ।। १६ ॥ अग्निमग्निप्रभा कुयोद् व्याधि माञ्जिष्ठ-सन्निभा : नीला कृष्णा च धूम्रा च शुक्ला चाऽसिसमद्य तिः॥ उल्का नीचेः समा स्निग्धा पतन्ती भयमादिशेत् । शुक्ला रक्ता च पीता च कृष्णा चापि यथाक्रमम्।। चातुर्वर्णा विभक्तव्याः साधुनोक्ता यथाक्रमम् ।
अर्य-अग्निकी प्रभावाली उल्का भय करती है। मंजिष्ठ (मजीठ)के समान वणवाली उल्का व्याधि (रोग बीमारी)को करती है । नील, कृष्ण, धूम्र और तलवारके समान द्यु तिवाली उल्का नीच प्रकृति अर्थात् अधम जानना ।स्निग्धा उल्का समप्रकृतिवाली जानना । शुक्ल, रक्त, पीत और कृष्ण इन वर्णोंवाली उल्का क्रमस चार वणों -ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रमें विभाजित करना । सो ये चारों वर्णवाली उल्का क्रमसे ब्राह्मणादि चारों वर्णाको भय होनेकी सूचना देती है ऐमा साधुओंने कहा है। अर्थात् श्वेत वर्णसे ब्राह्मण, रक्तसे क्षत्रिय, पीतसे वैश्य और कृष्णसे शुद्र जानना ।। १७, १८६॥ उदोच्या ब्राह्मणान् हन्ति प्राच्यामपि च क्षत्रियान् । वैश्यान् निहन्ति याम्यां प्रतीच्यां शुद्रघातिनी
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किरण ६] भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र
४१ अर्थ-यदि उल्का उत्तर दिशामें गिरे तो ब्राह्मणोंका घात करती है, पूर्वदिशामें गिरे तो क्षत्रियोंका,
देशामें गिरे तो वैश्योंका और पश्चिम दिशामें गिरे तो शुद्रोंका घात करती है। यहाँ पर ऐसा जानना कि उत्तर दिशा ब्राह्मणोंकी, पूर्व दिशा क्षत्रियोंकी, दक्षिदिशा वैश्योंकी और पश्चिमदिशा शद्रोंकी है। इस विषयका ओर कहींपर भी कथन आवे तो उल्का, प्रह आदि वणे और दिशापरसे चारों वर्गों के विषयपर कल्पना कर फल बताना । इस उल्काध्यायकी संज्ञा इस प्रन्थमें सर्वत्र व्यापक समझना ।। १६ ॥ उल्का रूक्षवणेन स्वं स्वं वर्ण प्रवाधते । स्निग्धा चैवानुलोमा च प्रसन्ना च न बाधते ॥२०॥
अर्थ-उल्का रूक्ष वर्णसे अपने अपने वर्णको बाधा देती है, अर्थात् श्वेत वर्णकी होकर र्याद उल्का रूक्ष हो तो ब्राह्मणोंको बाधाकारक जानो। इस उदाहरण परसे सब वों में घटित कर लेना चाहिये । यदि स्निग्ध और अनुलोम सव्यमार्ग) तथा प्रसन्न उल्का हो तो वह शुभ होनेसे अपने २ वर्ण को बाधा नहीं करतो ॥२०॥ या चादित्यात् पतेदुल्का वर्णतो वा दिशोऽपि वा । तं तं वर्ण निहन्त्याशु वैश्वानर इवार्चिभिः ॥२१॥
___ अर्थ-जो उल्का सूर्यसे किकलकर जिस वर्णकी होकर जिस दिशामें गिरे उस वण और दिशापर से उसी उसी वर्णवालेको अग्निकी ज्वालाके समान शीघ्र नाश करती है॥ २१ ॥ अनन्तरां दिशं दीप्ता येषामुल्काऽग्रतः पतेत् । तेषां स्त्रियश्च गर्भाश्च भयमिच्छन्ति दारुणम् ॥२२॥
अर्थ-यदि उल्का अव्यवहित दिशाको दीप्त करती हुई अग्रभागसे गिरे तो स्त्रियों और उनके गोंको भयानक भय करती है अर्थात् गर्भपात होते है ।। २२ ।। कृष्णा नीला च रूक्षाश्च प्रतिलोमाश्च गर्हिताः । पशु-पक्षि-सुसंस्थाना भैरवाश्च भयावहाः ॥२३॥
अर्थ-कृष्ण अथवा नील वर्णकी रूक्ष उल्का प्रतिलोम (उलटे) मार्गसे अथात् अपसव्यमार्ग (वांये) से गिरे तो निन्दित है । यदि पशु-पक्षिके आकारवाली हो तो भयको करनेवाली जानना ।। २३ ।। अनुगच्छन्ति याश्चोल्का बाह्यास्तूल्काः समन्ततः । वत्सानुसारिणी नामा सा तु राष्ट्र विनाशयेत्२४
अर्थ-जो उल्का मार्गमें गमन करती हुई आस-पासमें दूसरी उल्काओंसे भिड़ जाय वह वत्सानुमारिणी (बच्चेकी आकारवाली) उल्का कही जाती है और ऐसी उल्का राष्ट्रका नाश चित करती है ॥२४॥ रक्ता पीता नभस्युल्कारचेभ-नक्रण सन्निभाः। अन्येषां गर्हितानां च सवानां सदृशास्तु याः ॥२५॥ उल्कास्ता न प्रशस्यन्ते निपतन्त्यः सुदारुणाः । यासु पपतमानासु मृगा विविधमानुषाः ॥२६॥
अर्थ-आकाशमें उत्पन्न होती हुई जो उल्का हाथी और नक्र (मगर) के आकार तथा निन्दित प्राणियोंके आकारवाली होती है वह जहाँ गिरे वहाँ दारुण अशुभ फलकी सूचना करती है । और मृगा तथा विविध मनुष्योंको घोर कष्ट देती है ।। २५, २६ ।। शब्दं मुञ्चन्ति दीप्तासु दिक्ष्वासनकाम्यया । क्रच्यादाश्चाऽऽशु दृश्यन्ते या खरा विकृताश्च या २७ सधूम्रा याः सनिर्धाता उल्का याश्वमनाप्नयः(?)। सभूमिकम्पा परुषा रजस्विन्योऽपसव्यगाः ॥२८॥
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अनेकान्त
[ वर्ष १०
ग्रहानादित्यचन्द्रौ च याः स्पृशन्ति दहन्ति वा । परचक्रभयं घोरं क्षुधाव्याधि- जनक्षयम् ॥ २६॥
अर्थ- जो उल्का अपने द्वारा प्रदीप्त दिशाओं में निकटकामनासे शब्दको छोड़ती-गड़गड़ाती हुई मांसभक्षी जीवोंके समान शीघ्रतासे दिखे अथवा जो उल्का रूक्ष विकृतरूप धारण करती हुई धूमवाली, शब्दसहित, अश्वके समान वेगवाली, भूमिको कंपाती हुई, कठोर - काबरचीतरी, धूल उड़ाती हुई, वायें मार्ग से गति करती हुई, महों तथा सूर्य और चन्द्रमाको स्पर्श करती हुई या जलाती हुई दीख पड़े- गिरे तो वह परचक्रका घोर भय उपस्थित करती है तथा क्षुधाके रोग - श्राकाल पड़ने और मनुष्योंके नाश होनेकी सूचना देती है ।। २७, २८, २६ ॥
२४२
एवंलक्षणसंयुक्ता कुर्वन्त्युल्का महद्भयम् । अष्टापदवदुल्काऽभिर्दिशं पश्येद् यदाऽऽवृताम् ||३०|| युगान्त इति विन्द्यात् तत षड् मासान्नापलभ्यते ।
अर्थ - उपरोक्त लक्षण युक्त उल्का महान भयको करती है । यदि अष्टापद समान दृष्टिगोचर हो तो ऐसा जानो कि छह मास में युगका अन्त ही होनेवाला है ॥ ३०३ ॥
पद्म-श्रीवृक्ष-चंद्रार्क- नंद्यावर्त्त-घटोपमाः ॥ ३१ ॥
वर्द्धमानध्वजाकारा पताका- मत्स्य- कुम्मैवत् । वाजि- वारणरूपाश्च शंख-वादित्र- छत्रवत् ॥ ३२ ॥ सिंहासन- रथाकारा रूप्य पिण्डव्यवस्थिताः । रूपैरै तैः प्रशस्यन्ते सुखमुल्काः समाहिताः ||३३||
अर्थ - यदि पद्म, श्रीवृक्ष, चंद्र, सूर्य, नंद्यावर्त (एक प्रकारका स्वास्तिक), कलश, बढ़ती हुई ध्वजा, पताका, मछली, कच्छप, अश्व, हस्ति, शंख, वादित्र, छत्र, सिंहासन, रथ और चांदीका पिण्ड इनके आकारों तथा रूपोंसे उल्का गिरे तोउसे उत्तम जानना । यह उल्का सबको सुख देनेवाली है ॥३१, ३२, ३३॥ नक्षत्राणि विमुञ्चन्त्यः स्निग्धाः प्रत्युत्तमाः शुभाः । सुवृष्टि ं क्षेममारोग्यं सस्यसंपत्तिरुत्तमाः ||३४||
अथे-र्याद उल्का नक्षत्रोंको छोड़कर गमन करनेवाली-स्निग्ध और उत्तम शुभलक्षणवाली दिखाई दे तो सुवृष्टि, क्षेम, आरोग्य और धान्यकी उत्पत्ति उत्तम होती है ।। ३५ ।।
सोमो राहुश्व शुक्रश्व कंतुर्भीमश्च यायिनः । बृहस्पतिबुधः सूर्यः शौरिश्वबलस्थावरा ॥ ३५ ॥
अर्थ-युद्ध के निमित्त चढ़ाई कर जानेवाला राजा आदि 'यायि' संज्ञासे कहा जाता है, जिस स्थान पर चढ़कर आता है-उस स्थानके रहनेवाले ( राजा आदि) को स्थायी अथवा 'थावर' संज्ञासे पुकारा जाता है। यहां पर यह दिखाते हैं कि-यायिके लिये- चंद्र, राहु, शुक्र, केतु और मंगलका बल जानना और स्थायीके लिये - बृहस्पति, बुध, सूर्य और शनिका बल जानना । इन ग्रहोंके बलाबल परसे याि और स्थायीके बलका विचार करना ।। ३५ ॥
हन्युर्म्मध्येन या उल्का ग्रहाणां नाम विद्युता । सानिर्घाता सधृम्रा वा तत्र विद्यादिदं फलम् ||३६||
अर्थ- जो उल्का मध्य भागसे ग्रहको हने, वह उल्का विद्युत नामकी जानो । यह उल्का निर्धात सहित तथा धूम सहित हो तो उसका फल नीचे भुजिब जानो ॥ ३६ ॥
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किरण ६]
भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र
२४३
नगरेषुपसृष्टेषु नागराणां महद्भयम् । यायिषु चोपसृष्टेषु यायिनां तद्यं भवेत् ॥ ३७॥
अथ-नगरकी व्यूहरचनाके विषे उपरोक्त उल्का गिरे तो नगरवासियों (स्थाई)को महान् भय होता है । यदि यायिके पड़ाव (कटक-शिविर)में गिरे तो यायिवालेको महान् भयका कारण होती है ॥ ३७॥ संध्यानां रोहिणी पौष्ण्यं चित्रा त्रीण्युत्तराणि च । मैत्रं चोल्का यदा हन्यात् तदा स्यात्पार्थिवं भयं ॥
अर्थ-यदि उल्का संध्या कालके विष रोहिणी, रेवती, चित्रा, उत्तराफाल्गुनि, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा और अनुराधा नक्षत्रोंको हने (घाते) तो राजाको भय होता है ।। ३८ ॥ वायव्यं वष्णवं पुष्यं यद्य ल्काभिः प्रताडयेत् । ब्रह्म-क्षत्रभयं विद्याद्राज्ञश्च भयमादिशेत ॥ ३९ ॥
अर्थ-स्वाति, श्रवण और पुष्य नक्षत्रोंको यदि उल्का ताड़ित (घात) करे तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और राजाको भयका आदेश करती है ।। ३६ ॥ यथाग्रहं तथा ऋक्षं चातुर्वण्य विभावयेत् । ___ अथ-जैसे ग्रह हो, अथवा नक्षत्र हों उनपरसं चारों वर्गों के विषयमें ग्रह और नक्षत्रपरसे फलकी वर्णप्रतिकल्पना करना चाहिये। अतः परं प्रवच्यामि सेनासल्का यथाविधि ॥ ४० ॥ सेनायास्तु समुद्योगे राज्ञा विविधमानवाः । उल्का यदा पतन्तीति तदा वक्ष्यामि लक्षणम् ॥४१॥
अर्थ-अब सेनाके विषयमे जो उल्काका शुभाशुभ विधान है वह यहांपर कहा जाता है । सेनाके युद्धके उद्योगके समय जो उल्का गिरतो है उसका लक्षणादि राजाओं और विविध मनुष्योंके लिये यहां कहा जाता है ।। ४०,४१ ।। उद्गच्छत् सोममकं का या ल्का संविदारयेत । स्थानराणां विपर्यासं तस्मिन्न पातदर्शने ॥४२॥
अर्थ-यदि उल्का ऊपरको गमन करती हुई चंद्र और सूर्यको विदारण करे तो स्थावर लाई वासीके लिये वह विपरीत उत्पातोंका दर्शन करानेवाली होती है ॥ ४२ ॥ अस्तं यातमथादित्यं सोमं चोल्का लिखेद् यदा । आगन्तुबंध्यते सेनां यथादिश यथागमम् ॥४३॥
__ अथे-सूर्य और चन्द्रमाके अस्त होनेपर यदि उल्का दिखाई दे तो आनेवाले यायिकी दिशामें आने वाले आगतुक (यायिक)की सेनाका बध होता है । ४३ ।। उदगच्छत् सोममकं वा यद्य ल्का प्रतिलोमतः । प्रविशेनागराणां स्याद्विपर्यासस्तदागते ॥४४॥ ___अर्थ-प्रतिलोम मागेसे गमन करती हुई उल्का उदय होते हुए सूर्य और चन्द्रके मंडलमे प्रवेश करे तो स्थाई लोगोंके लिये विपरीत है अर्थात् अशुभ है, ऐसी ही आनेवाले (यायि)केलिये विपरीत जानो । एषैवास्तमिते उन्का आगन्तूनां भयं भवेत् । प्रतिलोमा भयं कुर्याद्यथास्वं चन्द्र-सूर्ययोः ॥ ४५ ॥
अर्थ-उपरोक्त योगमें चन्द्र-सूर्यके अस्त समय प्रतिलोम मार्गसे गमन करती हुई चंद्र-सूर्य के मण्डलमें आकर उल्का अस्त हो जाय तो स्थाई और यायि एवं दोनोंको भय करनेवाली जानो ।। ४५ ।।
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२४४ अनेकान्त
विर्ष १० उदये भास्करस्योल्का याऽतोऽभिप्रसप्पैति । सोमस्यापि जयं कुर्यादेषां पुरु-सरावृतिः॥४६॥
अर्थ-यदि उल्का सूर्योदय होते हुए सूर्य के आगे और चन्द्र के उदय होते हुए चन्द्रमाके भी आगे गमन करे तथा बाणोंको आवृतिरूप हो तो उसे जयकी करनेवाली जानना चाहिये ।। ४६ ॥ सेनामाभिमुखीभूत्वा यद्य ल्का प्रतिगृह्यते । प्रतिसेनावधं विन्द्यात्तस्मिन्न त्पातदश ने ॥४७॥
अर्थ-यदि उल्का मनाके अभिमुग्व (सामने) होकर गिरती हुई दीखे तो प्रतिसेनाका बध जानो। इस उत्पातके दीखनेका यही फल है ॥ ४७ ॥ अथ यद्य भयं सेनामेकं प्रतिलोमतः । उल्का तर्ण प्रपद्य त उभयत्र भयं भवेत् ॥ ४८॥
अथे-- यदि दोनों मनाओंकी ओर एक एक सेनामे प्रतिलोम (अपसन्य) मार्गसे उल्का शीघ्रतासे गिरे तो दोनों सेनाओंको भय होता है ॥ ४ ॥ येषां सेनासु निपतेदुल्का नीलमहाप्रभा । सेनापतिवधस्तेषामचिरात्सम्प्रजायते ॥ ४६॥
अर्थ-यदि नील रंगकी महा प्रभावाली उल्का जिम सेनामें गिरे तो उस सेनाका सेनापति शीघ्र ही मारा जाता है । ४६ ॥ उल्कासु लोहिताः सूच्माः पतंति पृतनां प्रति । यस्य राज्ञः प्रयुक्तारं कुमारी हंति तं नृपम् ॥५०॥
अर्थ-लाहित वणकी सक्ष्म उल्का जिम राजाकी सेनाके प्रति गिरे उस सनाके राजाका पुत्र 'प्रयुतारम्' अस्त्रसे राजा को मार डालता है।॥ ५० ॥ उल्कास्तु बहवः पीताः पतन्त्यः पृतनां प्रति । पृतनां व्याधितां प्राहरेतस्मिन्नुत्पातदर्शने ॥५१॥
अथ-पोत वर्णकी बहुत उल्का सेनाकं प्रति गिरे तो इस उत्पातके दर्शनका फल सेनामें रोग फैलना है ॥५१॥ संघशास्त्रानुपद्यत (?)उल्का श्वेताः समन्ततः । ब्राह्मणेभ्यो भयं घोरं तस्य सेन्यस्य निर्दिशेत ५२
___अर्थः-यदि श्वेत रंगकी उल्का सेनामे चारों तरफ गिरे तो वह उस सेनाको और ब्राह्मणोंको घोर भयकी सूचना करती है ॥ ५२ ॥ उल्का व्यूहेष्वनीकेषु या पतंती च सायका । न तदा जायते युद्धं परिघा नाम सा स्मृता॥५३॥
अर्थः-बाण या खड्ग रूप तिरछी उल्का सेनाके ब्यूहरचनामें गिरे तो कुटिल युद्ध नहीं होता है, इसको परिघा नामसे स्मरण करते है-कहते हैं ।। ५३ ।।। उल्का व्यूहप्वनीकेष पृष्ठतो निपतन्ति याः । क्षय-व्यय न पीड़यरन्नभयोः सेनयोनृपान् ॥५४॥
अथ-सनाकी व्यूहरचनाके पीछेके भागमे उल्का गिरे तो दोनों सेनाओंके राजाओंको वह नाश और खचंद्वारा कटकी सूचना करती है। उल्का व्यूहेष्वनीकेष प्रतिलोमाः पतन्ति याः । संग्रामेसु निपततां जायन्ते किशुका वनाः ॥५॥
अथः-सनाकी व्यूहरचनामे अपसव्यमार्गसे उल्का गिरे तो संग्राममें योद्धा गिर पड़ते हैं अर्थात् मारे जाते है जिससे रणभूमि केमु (टेसु)के पुष्पसमान रंगवालो होजाती है अर्थात भूमि रक्तसे रंग जाती
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किरण ६ ]
भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र
०४५
उल्का यत्र समायान्ति यथाभावे तथासु च । येषां मध्यान्तिकं यान्ति तेषां स्याद्विजयो ध्र वम् ५६
अर्थ-जहाँ उल्का जिस रूपमें और जब गिरती है तथा जिनके बीचसे अथवा पाससे गुजरती है तो निश्चयसे उनकी विजय होती है ।। ५६ ।। चतुर्दिक्षु यदा पाता उल्का गच्छति सन्ततम् । चतुर्दिशं तदा यान्ति भयातुरमसंघशः ॥५७।।
अर्थ-यदि उल्का गिरती हुई निरन्तर चारों दिशामें गमन करे तो लोग या सेनाका समूह भयातुर होकर चारों दिशामें-तितर-वितर (जहाँ तहाँ पृथक २)हो जाता है-भाग जाता है ॥ ५७ ।। अग्रतो या पतेदुल्का सा सेनां तु प्रशस्यते । तिर्यगाचरते मार्ग प्रतिलोमा भयावहा ॥ ५८ ॥
अर्थ-सेनाके आगेके भागमें यदि उल्का गिरे तो अच्छी है । यदि टेड़ी होकर प्रतिलोम गतिसे गिरे तो मनाको भय देनेवाली जनना ॥ ५८ ॥ यतः सेनामभिपतेत् तस्य सेनां प्रबाधयेत् । तं विजयं कुर्यात् येषां पतेत् सोल्का यदा पुरा ॥ ५ ॥ ___ अर्थ-जिस राजाकी सेनामें उल्का बीचों-बीच गिरे तो उसकी सेनाको कष्ट होता है और आगे गिरे तो विजय होती है ॥ ५ ॥ डिम्मरूपा नृपतये बन्धमुल्का प्रताडयेत् । प्रतिलोमा विलोमा च प्रतिराज्ञो भयं सृजेत् ॥६० ॥
अर्थ-यदि डिम्भरूप उल्का गिरे तो वह राजाके वन्दी होनेकी सूचना देती है और प्रतिलोम तथा अनुलोम उल्का शत्रुराजाओंको भय करती है ॥ ६॥ यस्यापि जन्मनक्षत्रं उल्का गच्छेच्छरोपमा। विदारणा तस्य वाच्या व्याधिना वर्णसंकरैः ॥६१॥
अर्थ-जिसके जन्मनक्षत्रमे वाणसदृश उल्का गिरे तो उस व्यक्तिके लिये विदारण (चोरे जाना) समझना चाहिये और नानावणरूप हो तो उस व्याधिका होना समझना चाहिये ।। ६१ ॥
उल्का येषां यथारूपा दृश्यते प्रतिलोमतः । तेषां तता भयं विन्द्यादनुलोमा शुभागमम् ॥६२॥ ___अर्थ-विलोम (उल्ट) मागेसे जैसे रूपकी उल्का जिसे दिखाई दे उसको भय होगा ऐसा जानना । और अनुलोम गतिस दिखाई दे तो शुभरूप जानना ॥ ६२ ।। उल्का यत्र प्रसर्पन्ति भ्राजमाना दिशो दशम् । सप्तरात्रान्तरं वर्ष दशाहादुत्तर भयम् ।। ६३ ॥
अर्थ-जिस स्थानपर उल्का फैलती हुई दिखाई दे तो वहाँकी जनताको प्रत्येक दिशामें अर्थात दशों दिशाओं में भागना (भ्रमण करना) पड़ता है, यदि सात रात्रि में वो होजाय तो इसका कुछ दोष नहीं, वरना दश दिन पश्चात उपरोक्त भय होता है । ६३ ॥ पापासूल्कासु यद्यस्तु यदा देवः प्रवर्षति । प्रशान्तं तद्भयं विन्द्याद्भद्रबाहुवचो यथा ।। ६४ ॥
अर्थ-पापरूप उल्काके उत्पातमें यदि देव (मेघ) वर्ष जावे(वर्षा होजावे)तो जानो कि भय शान्त होगया है अर्थात् पापरूप फलकी शांति हो गई है। यह भद्रबाहुके वचन जानो ॥ ६४ ॥
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२४६
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अनेकान्त
[वष: यथाभिवृष्याः स्निग्धा यदि शान्ता निपतन्ति याः । उल्कास्वाशु भवेत्क्षेम सुभिक्ष मन्दरोगवान् ॥६
अर्थ-यदि जो उल्का पुष्ट हो, स्थिग्ध हो, शान्त हो और वह जिस दिशामें गिरे तो उ. दिशामें वह शीघ्र क्षेम-कुशल और सुभिक्ष करती है, परन्तु थोड़ा-सा रोग अवश्य होता है ॥६५॥ यथामार्ग यथावृद्धिं यथाद्वारं यथाऽऽगमम् । यथाविकारं विज्ञेयं ततो ब्रू याच्छुभाशुभम् ॥६६॥
अर्थ-जिस मार्गसे, जिस वृद्धिसे, जिस द्वारसे, जिस रूप आगमनसे, जिस विकारस-शुभ शुभरूप उल्कापात हो उस ही प्रकार शुभाशुभ फल बताना ।। ६६ ॥ तिथिश्च करणं चैव नक्षत्राश्च मूहूर्ततः । ग्रहाश्च शकुनं चैव दिशो वर्णाः प्रमाणतः ॥६७॥
अर्थ-उल्कापातका शुभाशुभ फल, तिथि, करण, नक्षत्र, मुहूर्त, प्रह, शकुन, दिशा, वर्ण और प्रमाण (लम्बाई चौड़ाई आदि) परसे बताना चाहिये ॥ ७ ॥ निमित्तादनुपूर्वाच्च पुरुषो कालता बलात् । प्रभावाच्च गतेश्चैवमुल्काया फलमादिशेत् ।।६।।
अथे-निमित्तानुसार क्रमपूर्वक ऊपर दिखाये हुये काल, बल, प्रभाव और गतिपरसे उल्काके फल को दिखाना चाहिये ।। ५८ ॥ एतावदुक्तमुल्कानां लक्षणं जिन-भाषितम् । परिवेषान्प्रवक्ष्यामि ताभिवाधत तच्चतः ॥६६॥
अर्थ-यहाँ तक उक्त प्रकारसे उल्काओंके लक्षण कहे गये, जैसा उन्हे जिनेन्द्र भगवानने कहा है। अब परिवेष (सूर्य, चंद्र, प्रह, नक्षत्रादिकके मंडल) के विषयमें कहा जाता है, सो उसे यथार्थ जानना ॥६॥
॥ इति भद्रबाहुसंहितायां (भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र) तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
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स्वाध्यायप्रेमियों के लिये उत्तम अवसर भारतकी राजधानी देहलीमें वीरसेवान्दिरके तत्त्वावधानमें समाजके जिनवाणीभक्त दानी महानुभावोंकी आर्थिक सहायतासे एक सस्ती जैन प्रन्थमालाकी स्थापना हुई है । प्रन्थमालाका प्रत्येक ग्रन्थ गृहस्थोपयोगी है-स्त्री पुरुष और बच्चोंके लिए उसका लेना बड़ा ही लाभदायक
और अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये प्रत्येक सद्गृहस्थका कर्तव्य है कि वह इन प्रथरत्नोंको खरीदकर जिनवाणीके स्वाध्यायसे आत्म-कल्याण करे । इस ग्रन्थमालासे प्रकाशित ग्रंथोंको प्रायः लागतसे भी कम मूल्यमें दिये जाने की योजना की गई। अभी नीचे लिखे ग्रन्थ छप रहे है। जिन ८ ग्रन्थोंका लागत मूल्य १५) है, वे पूरा सेट लेनेवाले सज्जनोंको लागतसे भी कम मूल्य १२) में
और पद्मपराणको छोड़कर शेष ग्रन्थांका सेट सिर्फ ७) में देनेका निश्चय किया है। जिन्हें इन ग्रंथरत्नोंकी आवश्यकता हो वे ग्राहकोंमें अपना नाम लिखवाकर और अपना मूल्य भेजकर 'वीरसेवामन्दिर श्राफिस ७३३ दरियागंज देहली' से रसीद लेलें। ग्रन्थ जैसे-जैसे तैयार होते
जायेंगे उसी क्रममे वे उनके पास पहुंचते रहेंगे। १ रत्नकरण्डश्रावकाचार--सजिल्द लगभग ८०० पृष्ठ (मूल० समन्तभद्राचार्य, टो० पं० सदासुखदासजी ३) २ मोक्षमार्गप्रकाशक-सजिल्द लगभग ५०० पृष्ठ (पं० टोडरमलजो,)
२॥) ३ जैनमहिलाशिक्षामंग्रह-पृष्ठ २४० . ४ सुखकी झलक-पृष्ठ १६० (पृज्यवणी जोके प्रवचनोंका सुन्दर संकलन) ५ श्रावकधर्म संग्रह-पृष्ठ २४० (पं० दरयावमिह, श्रावकोपयागी पुस्तक) ६ सरलजैनधर्म-पृष्ठ ११२ (बालकोपयोगी पुस्तक) ७ छहढाला-पृष्ठ १०० (पं० दौलतरामजी व पं० बुधजनजी कृत) ८ पद्मपुराण-(सजिल्द बड़ा साइज) पृष्ठ ८०० (मूल० रविपेणाचार्य, टी० पं० दौलतरामजी) ६) अनेकान्तको २००)रु० की अनुकरणीय सहायता
मन्त्री-सस्ती ग्रन्थमाला पुरातत्त्वप्रेमो बाबू सोहनलालजी जैन कलकत्ता
___०७४३३ दरियागंज, देहली। ने न्यायाचार्य पण्डित दरबारोलाल कोठियाकी अनेकान्तको प्राप्त सहायता प्रेरणासे ५० जैनेतर विद्वानों और लायवरियोंको गत किरण नं०३, वर्ष १० में प्रकाशित सहाय'अनेकान्त' फ्री भिजवानेके लिये 'अनेकान्त' को दो ताके बाद 'अनेकान्त' को जो सहयता प्राप्त हुई है सौ रुपयेकी अनुकरणीय सहायता प्रदान की है वह निम्न प्रकार है और उसके लिये दावार महानजिसके लिये उन्हें शतशः धन्यवाद है। आप 'श्रने भाव धन्यवादके पात्र हैं:कान्त' के खोजपूर्ण लेखोंसे बड़े प्रभावित हैं और ५) बा० वसन्तीलालजी जैन, जयपुर उन्हें बड़े ध्यानसे पढ़ते है। आपको उत्कट इच्छा ११) ला० हरिश्चन्द्रजी दरियागंज देहली दीपाहै कि अनेकान्त और उसके लेखोंका भारतके कोने- वलीके उपलक्ष्यमें मार्फत पं० दरबारोलाल कोनेमें प्रचार हो जिससे जैन साहित्य और इति. जैन, कोठिया। हासके सम्बन्धमें जैनतरों द्वारा भूल-भ्रान्तियाँ न ५) स्व० ला० त्रिलोकचन्दजी जैन रईस मुजफ्फ हो सकें। आशा है दूसरे महानुभाव भी बा० सोह- रनगर, स्वर्गवासके अवसरपर निकाले दान, नलालजीका अनुकरण करेंगे और 'अनेकान्त' के मेंसे मार्फत बा०मित्रसेनजी जैन। प्रचारमें मदद पहुँचायेंगे। व्यवस्थापक' अनेकान्त'
व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
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Regd. No. D, 397
वोरसेवामंदिरके प्रकाशन १. अनित्य-भावना-पा०पनन्दिकृत भावपूर्ण ६. उमास्वामिश्रावकाचारपरीक्षा-मुख्तार भी और हृदयमाही महत्वकी कृति, साहित्य-तपस्थी पण्डित पं०जुगलकिशोरद्वारा लिखित ग्रन्थ-परीक्षाओंका इतिहाजुगलकिशोर मुख्तारके हिन्दी-पद्यानुवाद और भावार्थ स-सहित प्रथम अंश । मूल्य चार पाना। सहित । मूल्य चार माना।
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विरचित महत्वका स्तोत्र, हिन्दी-अनुवाद तथा प्रस्ता५. अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पञ्चाध्यायी तथा धनादि सहित । सम्पादक न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाटीसंहिता आदि ग्रन्थोंके रचयिता पंडित राजमल्ल लाल कोठिया । मूल्य बारह पाना । विरचित अपूर्व प्राध्यात्मिक कृति, न्यायाचार्य पंडित ३. शासनचतुस्त्रिशिका-विक्रमकी १३ वों दरबारीलाल कोठिया और पं. परमानन्द शास्त्रीके शताब्दीके विद्वान् मुनि मदनकीर्ति-विरचित तीर्थसरल हिन्दी-अनुवादादिसहित तथा मुख्तार पंडित परिचयात्मक ऐतिहासिक अपूर्व रचना, हिन्दी अनुवाद
जुगलकिशोरद्वारा लिखित विस्तृत प्रस्तावनास विशिष्ट । सहित । सम्पादक-न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाल के मूल्य डेढ़ रुपया ।
कोठिया । मूल्य बारह पाना । उपास्यापक-दीरसवामन्दिर,
___ ३३ दरियागंज, देहली।
HIKARAKHARKARKKAKK
प्रकाशक-परमानन्द जैन शास्त्री, वीरसेवामंदिर ७/३३ दरियागंज देहली, मुद्रक-अजितकुमार जैन शास्त्री,
अकलंक प्रेस, सदरबाजार, देहली।
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कान्त
दर १०1
जनवरी-फर्वरी ११५ कि
% 33
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सम्पादक जुगलकिशोर मुख्तार
सहायक सम्पादक दरबारीलाल न्यायाचार्य
२४७ २४६
२५१
२६०
विषय
लेखक १. शन्तिाजन-स्तवन
[सम्पादक...... २. अहिंसा और सत्याग्रह
| बा. अनन्तप्रसाद जैन, ... ३. मची भावनाका फल
[श्रीवर्णोजी '४. ममझका फेर- : * . . ....
[पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ५. गुणचन्द्र मुनि कौन है ?
[दरबारीलाल जैन, कोठिया ६. पंछी नीड किधर है तेरा ? (कविता)
[श्री विजयकुमार चौधरी ७. मथुग मंग्रहालयकी तीर्थकर मूर्ति
[श्री कृष्णदत्त वाजपेयी .... ८. हिंदूकोडबिल
[बा. माईदयाल जैन, .... ६. इटावा जिलेका संक्षिप्त इतिहास
[श्री गिरोशचन्द्र त्रिपाठी १०. जैन धातु-मूर्तियों की प्राचीनता
[श्रो अगरचन्द नाहटा .... ११. आचार्य विद्यानन्दका समय और स्वामी वीरसेन [बा. ज्यातिप्रसाद जन..... १२. भारतीय जनतंत्रकी स्थापना
[ श्री विजयकुमार चौधरी १३. भद्रबाहु निमित्तशास्त्र
[वंद्य जवाहरलाल जैन, ... १४. पं० मदामुखदासजी
| पं० परमानन्द जैन, शास्त्री ५५. भारतीय जनतंत्रका विशाल विधान
[ श्री विश्वम्भरसहाय प्रेमी २६. सम्राट अशोक के शिलालेखोंकी मर वाणी- [श्री निन्द .. १७. साहित्य-परिचय और समालोचन
[ दरबारीलाल जैन, कोठिया
२०४ २८ २. २६०
१००
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अनेकान्तरस-लहरो मुख्तार श्रीजगलकिशोरजीकी लिखी हुई यह सुन्दर पुस्तक हाल ही प्रकाशित हुई है। इसमें सत्य के प्राणस्वरूप अनेकान्त जैसे गंभीर विषयको ऐसे मनोरंजक ढंगसे समझाया गया है जिससे बच्चे तक भी उसके मर्मको आसानोसे समझ सकें और उन्हें सत्यको परखनेकी कसौटी मिल जाय, वह कठिन दुर्बोध एवं नीरस विषय न रहकर सुगम सुखबोर तथा रसीला विषय बना दिया गया है-बातकी बातमें समझा जा सकता है और जनसाधारण सहजमें ही उसके माधारपर तत्त्वज्ञानमें प्रगति करने. प्राप्तज्ञानमें समीचीनता लाने, विराधको मिटाने तथा लोक-व्यवहारमें सुधार करनेके साथ साथ अनेकान्तको जीवनका प्रधान अंग बनाकर सख-शान्तिका अनभव करनेमे समथे हो सकते हैं।
यह पुस्तक विद्यार्थियोंके लिये बड़े कामकी चीज है, जिन्हें लक्ष्यमें रखकर ही पुस्तकके अन्तमें ।। पृष्ठकी उपयोगी प्रश्नावली लगाई गई है। इसका प्रचार सभी विद्यासंस्थानों एवं घरघरमें पाठ्यपुस्तक, ऐच्छिक विषयको पुस्तक तथा इनामापुस्तक आदिके रूपमें हाना चाहिये और सभी लायब्ररियों-पुस्तकालय अथवा रीडिगरूमोंमें वह रक्खी जानी चाहिये । इस प्रचारको दृष्टिसे ही पुस्तकका अल्प मूल्य चार आने रक्खा गया है। इतने पर भो जो सज्जन विद्या-संस्थाओं मादिमें प्रचार के लिये कमसे कम ५० पुस्तक एकसाथ मंगाएंगे उन्हें २५) की जगह २०) सैकड़ाके हिसाबसे पुस्तकें दाजावेंगी।
दानियोंके लिये शुभ अवसर भोबिधानन्द भाचार्यकी भाप्तपरीक्षा और उसकी स्वोपन संस्कृत टीका हिंदीभाषा-भाषियोंके लिये अभी तक दुर्लभ और दुर्गम बनी हुई थी। वोरसेवामन्दिरने हालमें इन दोनोंको हिन्दी अनुवादादिके साथ प्रकाशित करके उनकी प्राप्ति और उनके झानाजेन करनेका मार्ग सबके लिये सुगम कर दिया है। इस प्रन्यमें बातों को परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयका बड़ा हो सुन्दर मरम और सजीव विवेचन किया गया है
और वह फैले हुए ईश्वरविषयक अज्ञानको दूर करने में बड़ा ही समय है। साथ ही दर्शनशास्त्रकी अनेक गुत्थियोंको भी इसमें खूब खोला गया है। इससे यह ग्रन्थ बहुत बड़े प्रचारकी आवश्यकता रखता है। सभी विद्यालयों-कालिजों, लायरियों और शास्त्रभण्डारों में इसके पहुँचनेकी जहां जरूरत है वहां यह विद्या-ज्यसनी उदार विचारके जैनतर विद्वानोंको भेंट भी किया जाना चाहिये, जिससे उन तक इस प्रन्थको सहज गति हो सके औरवे इस महान् प्रन्थरस्नसे यथेष्ट लाभ उठानेमें समर्थ होसके । इसके लिये कुछ दानी महानुभवों को शोघही आगे आना चाहिये और कमसेकम दस दस प्रतियोंका एक एक सेट खरीदकर अपनी वरफसे उन संस्थाओं तथा विद्वानोंको यह प्रन्थ भेंट करना चाहिये। ऐसे दानी महाशयोंकी सविधाके लिये वोरसेवामन्दिरने कुछ समयके लिए १० प्रतियां ८०) की जगह ६०) में देनेका निश्चय किया है अतः जिन्हेंइस दानके शुभ अवसरसे लाभ लेना हो उन्हें पूरा अथवा आधा मूल्य पेशगी भेजकर और निकटवर्ती रेल्वे स्टेशनके पतेसे सूचित करके प्रन्थोंका पार्सल मंगा लेना चाहिये अथवा जहाँ जहाँ भिजवाना हो वहाँ के पते भेजकर बीरसेवामन्दिर के द्वारा ही भिजवानेका कार्य सम्पन्न करना चाहिये।
मैनेजर 'वीरसेवामन्दिर' प्रन्थमाला
७/३३ दरियागंज, देहली
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: ॐ अहम :
*
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*
स्व-सचातक
विश्व तत्व-प्रकाशक
-मायालाAaATREATE
-
- -
* वार्षिक मूल्य ५)*
* इस संयक्त किरणका मूल्य १)*
।
RELUNL
नीतिविरोधष्यसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्त,
**
-
वर्ष १० किरण ७-८
वीरसेवामन्दिर ( समन्तभद्राश्रम ), ७३३ दरियागंज, देहली / जनवरी-फर्वरी माघ-फाल्गुन, वीरनिवाण-संवत् २४७६, विक्रम संवत् २००६ । १९५०
श्रीपद्मनन्दि-यतीन्द्र-
विचित
शान्ति-जिन-स्तवन
[गत दिसम्बर मासके अन्तिम सप्ताहमें, श्रीमान् बा० छोटेलालजी कलकत्तावालोंसे मिलनेके लिए जयपुर जानेपर, मुझे पं० श्रीचैनसुखदासजी और पं० कस्तूरचन्दजी एम०ए० की कृपासे भामेर-शास्त्रभण्डारके कुछ गुटकोंको देखनेका अवसर मिला। एक गुटकेको देखते हुए 'शान्ति-जिन-स्तवन' नामका एक सटिप्पणस्तोत्र उपलब्ध हुआ, जो श्रीपचनन्दि-यतीन्द्रका रचा हुआ है और इससे पहले अपने परिचयमें नहीं आया था। स्तोत्र सुन्दर तथा कलात्मक जान पड़ा और इस लिए मैंने पं० कस्तूरचन्दजीसे उसकी साधारण कापी करा ली तथा मूलप्रतिसे स्वयं मिलान करके संशोधन आदिका कार्य सम्पम किया। बादको एक दूसरे गटकेमें इस स्तवनकी एक टिप्पण-रहित प्रति भी मिली है। यह स्तबन बरनगर-गिरोन्द्र के अधीश्वर-बड़नगरके पर्वतपर स्थित शान्तिजिनालयके मूलनायक श्रीशान्तिजिनेन्द्रसे सम्बन्ध रखता है, ऐसा इसके अन्तिम पद्यसे जाना जाता है। इसमें सारङ्ग, हरि हंस कीलाल और शिष प्रादि शब्दोंका प्रयोग एकसे अधिक बार किया गया है और वह प्रत्येक बार भिन्न-भिन्न अर्थको लिए हुए है, जैसे 'सारङ्ग शब्दका प्रयोग १६ बार किया गया है और वह क्रमश: सूर्य, चन्द्र, वज्र, खा, हेम, भ्रमर, कुठार, गज, सागर, कामुक, गरुड, मकंट, हंस, अग्नि, अश्व और मृग जैसे सोलह प्रोंमें प्रयुक्त हुआ है और इस तरह यह स्तवन शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कारको अच्छी बटाको लिए हुए है। उपयोगी समझकर आज इसे यहां प्रकाशित किया जाता है। -सम्पादक]
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( शार्दूलविक्रीडित) यः श्रीमानिरूपद्रवं क्षितितलं कृत्वाखिलं सर्वतो, राज्यं प्राज्यगजादिकप्रकमलागेहं च भुक्त्वा चिर । श्रामण्यं समवाप्य केवलमयं ज्योतिः परं प्राप्तवान्, शांति वः स परीपरीतु परमां शांतीश्वरस्तीर्थकृत् ॥
जय परमजिनदेव नयकमलसारंग' । जय भवनजन-कुमुदवन-चारु-सारंगः ॥ जय निखिल-परसमय-नग-दलन-सारंग' । जय घोर-संसार-दृढवैरि-सारंग ॥२।। जय देहवरकान्तिजित-सरससारंग' । जय विमलनिर्वाण-सुखकुसुमसारंग ॥ जय पाप-पादपभिदातिग्मसारंग'। जय विषमरतिवल्लरी-छेद-सारंग ॥३॥ जय नग्ननिर्ग्रन्थ-गुण-रत्नसारंग'' । जय मुक्ति कलकामिनी केल-सारंग ॥ जय विषय-पवनाऽश-बलदमन-सारंग'२ । शम-रज्जु-परिबद्ध-चलचित्त-सारंग ॥४॥ जय भेदविज्ञान-सुतडाग-सारंग । जय जनन-मरणेन्धनाऽशन-ससारंग१५ ॥ संतोष-नियमित-हषोकोघ-सारंग''। जय निरस केतकृताऽमंद-१° सारग१८॥शा हरि-विहित-पद-कमल युगसेव मुनिहस । हरिबिंब-भामंडलाधीश परहस२२ ॥ हरि२ ३ रचित-शष शम-सरसि शुभहंस२ । हरिकृत२५-पदोपासनाचारयुतहस ॥६॥ हरि शोभितासन कथितविशदतरहस। हरि२८-काय निर्वाणपुरपंथनयह स२ ॥ हरि-गीतसंस्तवन भवनत्रयीहंस हरि३२-करणहर शोककर्दम-शमन-हंस ३ ॥७॥ हरि ४ मंडलाकार-मुख विगतकीलाल3' । हरिनाथकृत-पूज वारित-सकीलाल ७ ॥ हरिचंचलाऽसममनोदहन-कीलाल । हरि-राजनुत-तनुरुधिर-विजितकीलाल'१॥८॥ सीता २-समालिंगिता-चारुरस3-सत्र | सीता ५-तरंगावलीवचनगत सत्र ॥ शिव -कलित गुणनिचय पुरुहूततरुमत्र । शिवशंकरादृष्टि -शभपात्र वरसत्र५° ॥६॥ शिवकामहित५१ सत्कलाजानकीराम'२ | शिव"3.निर्मलाशय५४-तमः५५ क्षत्रगणराम ॥ वष५८-नाथ पद्मालयारेवतीराम' । वृष-सेव्य संयमधराधरणनोराम१॥ २०॥ जय वरद बहुलोभ कीचक-सकीनाश | जय दुष्टतरकर्मशमनोद्घकीनाश३॥ पद्माक्ष पद्माभमुख-जित विषमपद्म ४ । जय शान्तिजिन पद्मनन्दीश वरपद्म" ॥११॥
घत्ता गुणगणमणिसिंधोभव्यलोकैकबन्धोरसम-गरिम धाम्नः शान्तिनाथस्य भक्त्या। वरनगर-गिरीन्द्राऽधीश्वरस्य प्रशस्यं । स्तवनमिदमकार्षीत्पद्मनन्दी यतीन्द्रः ॥१२॥
इति श्रीशान्ति-जिन-स्तवनम् ।
पृ.पालनपरणयोः | अस्य धातोः प्रयोगः यह दिवं च ऋकारांतानामीडागमः उभयत्र गणः, चरीकरीतु यथा तथेदमपि रूपं सिद्ध्यति, अतिशयेन पुष्टि नयतु । २ सूर्य । ३ चन्द्र । ४ वज्र । ५ खड्ड । ६ हेम । ७ भ्रमर । - तीक्ष्णकुठार । १ गज। ५० सागर । ११ कामक अथवा मुक्तिहंस्याः क्रीडाहंस । १२ पंचेन्द्रिय-विषम-सर्प बलदमनगरुड । १३ मर्कट । १४ हस। १५ अग्नि | १६ अश्व । १७चंचल । १८ मृग । इन्द्र । २० जिनोत्तम । २१ सूर्य । २२ हे परमारमन् । २३ कृष्ण (1)। २४ राजहंस । २५ सिंह । २६ किरण । २७ धर्म । २८ स्वर्ण । २६ अश्व | ३० इन्द्र । ३१ त्रिलोकीराज । ३२ यमवन्मरणकारिप चन्द्रियहर । ३३ सय । ३४ चन्द्र । ३५ रुधिर ३६ सप । ३७ पाप । ३८ मकट । ३१ जल । ४० चक्र । ४. दूध। ४२ बाशाभ्यन्तरक्षमी। ४३ अंगारो जलं वा। ४४ स्थान । ४५ स्वगंगा। ४६ गतावरण | ४७ कल्याण । १८ कल्पवृषवहानं यस्य अथवा तनं यस्य । ४६ मुक्तिलखकत दर्शन। १० उत्कृष्टचारित्र । ॥ सुखवाधकानां हितकृत । ५२ रामचन्द्र । १३ भो मंगलरूप । ५४ हे शक्लचित्त । २५ प्रज्ञान। २६ सत्रियगण । ५७ परशुराम । ५८ धर्म। ५४ बलभद्र। ६० उत्कृष्ट । ६१ सौरगेय (वृषम)। ६२कर्षक। ६३ कृतांत । ६४ काम | ६५ उस्कृष्टा पमा यस्मात् तस्य सम्बोधनम्।
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हिंसा और सत्याग्रह
( ले०- बा० अनन्तप्रसाद जैन B. Sc., इञ्जीनियर )
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हिंसाका अर्थ यह नहीं है कि अन्यायको चुपचाप सहन किया जाय । अन्याय, अत्याचार, तिकता हिंसकवृत्ति और हिंसाके कारण होनेसे हिंसा करने कराने या बढ़ानेवाले हैं। हिंसा या हिंसा के कारणों का शमन करना, दूर करना या निवा रण करना हो अहिंसा है। जो बातें या कार्य या व्यवस्थाएँ अथवा नीतियां हिंसाको जन्म देती हों या परिपुष्ट करती हों उन्हें शमन न करनेका अर्थ है उन्हें बढ़न देना । संसारमे कोई भी बात या वस्तु एकांगी या अकेली नहीं-सब और सबकुछ एक-दूसरे से घनिष्ठपसे संबन्धित है । एक हिंसक अन्यायको चुपचाप सहन करनेका अथ होगा निकट भविष्यमे या दूर भविष्य में उसके फलस्वरूप होनेवाली बहुमुखी हिंसाको परिस्फुटित होने, फूलने फलने और फैलनेका बीज वपन करना ।
अन्याय, अनैतिकता या अत्याचार स्वयं हिंसा है, इनका विरोध करना अहिंसा है। इनके आगे किसी भी कारणवश सिर झुका लेना या इन्हे चुप-चाप बगैर किसी रोकथाम के होने देना किसो कमजोरीका चिन्ह है न कि क्षमाभाव या अहिंसाका । अहिंसाका गलत भ्रमपूर्ण अर्थ लगानेस ही आज संसार अव्यवस्थाओं एवं दुःखों का घर होरहा है।
मनुष्य कोई भी गलती करता है वह प्रायः अज्ञानके कारण ही है। अतः जानकार व्यक्ति या समाजका कर्तव्य है कि ऐसे अज्ञानसे उत्पन्न बुद्धिद्वारा किया गया कार्य या अनाचार उपदेशादि द्वारा उपयुक्त ज्ञानके प्रकाशसे दूर किया जाय – परन्तु जहां इसतरह काम न सधे वहां विरोध जरूरतके मुताबिक तीव्र या नर्म करना ही कर्तव्य है । संसार
सभीके लिए है- अकेले किसी एक व्यक्तिके लिए न है न होसकता है। सबको जीने रहने और बढ़नेका हक है। यदि कोई इसमें बाधा पहुँचाता है तो वह अनाचार या पाप या गलती करता है उसे रोकना हर एक आदमीका अपना स्वार्थ है । हम एक दूसरेके साथ २ चलकर एक-दूसरे की मदद कर-कराके ही आगे बढ़ सकते है और इसी लिए संसारकी सारी धार्मिक तथा देशोंकी अलग २ राजनैतिक व्यवस्थाएँ है ताकि हम एक दूसरेसे न टकराते हुए बाधारहित मार्ग ( Following the path of best resistance ) द्वारा चलकर अधिक से अधिक सुखशान्ति उपलब्ध कर सकें और अन्ततः उन्नति करते करते परम लक्ष्य तक पहुंचने का साधन या जरिया बनालें और पथ प्रशस्त करलें । ऐसा करके ही कोई अपने कर्तव्यका भी निर्वाह करता है, धर्मका भी साधन करता है, स्वार्थकी भी पूर्ति करता है और पुरुषार्थका भी पालन करता हुआ परमार्थको प्राप्त करता है। इसके विपरीत आचरण ही धर्ममें पाप और शासनव्यवस्थामें दंडनीय घोषित किया गया है ।
मनुष्य व्यक्तिगत या सामाजिक या सामूहिक रूपमें अज्ञान के कारण ही स्वार्थके इस असली तत्त्व को भूलकर भ्रमपूर्ण निम्न स्वार्थे या केवल अकेले पकी बातें सोचने और व्यवहार करने लगता है । यही सारे झगड़ों, संघर्षों और हिंसाओं की जड़ है । इसे विरोध या सक्रिय उपायों द्वारा रोकना ही अहिंसाका पालन करना, संसारका या व्यक्तिका सच्चा कल्याण करना और सुख-शान्तिकी वृद्धि कर नेमें सहायक होना है ।
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२५०
अनेकान्त
[वर्ष १
अन्याय गलतो या शोषण अविरोधित होनेसे कोई नहीं बढ़ सकता-ठोकरें खाकर गिर जायगा आगे २ बढ़ते जाते हैं। यदि कोई बालक गलती या दूसरोंसे टकरा जायगा । संसारमें हर जगह हर करता है तो गुरुजनोंका यह कर्तव्य है कि उसे तरहकी चीजें और लोग है-आदर्श या लक्ष्य तक समझा-बुझाकर (यदि वह उस योग्य हो तो) या पहुंचना है इस बातका ध्यान रखते हुये सांसारिक फुसलाकर अथवा और दूसरे तरीकोंसे भी उसे रोकें सुविधाओं, व्यवधानों और साधनोंका समुचित, नहीं तो नतीजा यह होता है कि वह आगे आगे उन बुद्धिपूर्ण, एवं व्यावहारिक आश्रय अथवा सहारा गलतियोंको ही ठाक समझना हुआ उनका अभ्यस्त लेकर ही हम यहां आगे बढ़ सकते हैं और सफलता या आदी हो जाता है। फिर बादमें शमन या दमन हासिल कर सकते हैं। जरूरत, शक्ति एवं साधनके करना भी कठिन बन जाता है। और वही फिर मुताबिक ही अपनी रीति-नीति और आचार-व्यवसमयके साथ पीढ़ियोंमें रूढिमें परिवर्तित होकर हार रखना उत्तम फल देनेवाला होता है। अकड़समाज एवं धममें स्थान पालेता है। आज भारतीय लता है । आज भारताय पन्थी या अहंकार तो अंधा बनानेवाला और हिंसा
श्री या आई संस्कृतियाँ ही क्यों सारा संसार ही इसीका शिकार त्मक है। अहिंसाका पूर्ण व्यावहारिक पालन ही हो रहा है और यह हिंसा अहिंसाका ठीक भान सबसे ऊचे ध्येय तक किसीको ले जा सकता है। या निश्चय न होनेके कारण ही है।
हॉ, तो एक हिंसामय कार्यको, अन्याय या आदर्श और व्यवहारमें आसमान-जमीनका
__ अनीतिको चुपचाप निविरोध स्वीकार कर लेना
. अंतर है। लोग अपनी भावुकतामें या जोशम या हिंसाकी वृद्धि तो करना ही है साथ ही साथ ऐसा अहंकारमें जानबूझकर या अनजानमें ही इस विभेद
करनेवालेको और अधिक खराब करने में सहायक को भूल जाते है-फिर गलतियां भी करते हैं और .
है। जिसके अनिष्टकी आशंकास हम किसी ऐसी उनके फलस्वरूप होने या मिलनेवाले बुरे नतीजोंके ।
। अनीतिको चुपचाप बर्दाश्त कर लेते हैं सचमुच हम लिए एक दूसरेको दोष देते है या झगड़ते रहते है।
अनजानमें उसकी ही बड़ी भारी हानि करते हैं और आदर्श ऊचासे ऊंचा रखना हमें ऊंचास ऊंचा
विस्तृत या मष्टिरूपमें संसारका भी अकल्याण चढ़ने, बढ़ने या उन्नति करनेकी तरफ प्रोत्साहन देता
करते है और अनर्थ जो इससे आगेके लिए अपने है और उस पर ध्यान रखते हुए हम सचमुच आगे आगे बढ़ते-चढ़ते चले जाते हैं। जिसका कोई लिए और दूसरे सभीके लिए होता है या होजाता है आदर्श हो नहीं-कोई दिशा हो नहीं वह कहां और वह अलग ही है। अतः अन्याय, अनीति, अनै. किधर जायगा या भटकता ही रह जायगा कहना तिकता या ऐसा कुछ भी जहाँ होता हो या होनेकी बड़ा कठिन है । इसी लिए एक आदर्श यो लक्ष्यका संभाबना हो उसका हर तरहस सक्रिय विरोध होना उत्तरोत्तर उन्नतिके लिए परम आवश्यक है। करना हो अहिंसाका सञ्चा पालन है। यदि ऐसा जैसा या जितना उंचा, भव्य और अच्छा श्रादश करने में अन्यायी या अनीतिकत्तो (the evil doer या लक्ष्य होगा वैसा ही उतना ही या उसी मुताबिक कोई भी व्यक्ति, समाज या समुदाय संसारमे अग्र- और तकलीफ भी पहुँचे तो स्वयं उसके कल्याणके सर होगा। जिसका ध्येय ही होगा दिल्लीसे पटना लिए और लोकहितके लिए ऐसा करना अहिंसा तक पहुंचनेका वह कलकत्ते तक कैसे पहुंच सकता ब्रतधारीका कतव्य है। हाँ, ऐसा करने में अन्यायीके है । यह एक छोटा-सा उदाहरण है। नोवनके उद्धार, कल्याण एवं भलाईकी कामना ही सवंदा लक्ष्य, मागे या संग्राममें भी यही बात पूर्ण तौरसे ध्यानमें रखना इष्ट और प्राश होना चाहिये । अन्यालागू है । हाँ, कोरा आदर्शवादी बनकर भी आगे यीके विनाशकी कामना मात्र ही हिंसा है । पर
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किरण ७८] अहिंसा और सत्याग्रह
२५१ उसके सुधारकी कामना, उद्योग या उपाय अहिंसा तो वह दूसरी बात है । समाजमें अधिकतर ऐसा है। भाव शुद्ध होना या अशुद्ध होना ही अहिंसा या ही होता है कि संसारी कार्यों में व्यस्त और यह हिंसाके कारण है। किसो पानीमें पड़े जीवको सोचकर कि कौन व्यर्थका झगड़ा और मझट मोल उसको बचानेकी कामनासे ही पूर्ण सावधानी पूर्वक ले अधिकतर लोग अन्यायको और अनीतिको चुप पानीसे निकालनेकी चेष्टामें ही यदि उसे कुछ तकलीफ चाप देखते रहते हैं और कुछ नहीं करते-कहीं कहीं भी होती है या उसका प्राणान्त तक भी होजाता है राजके नियम या तौर-तरीके भो बाधक होते है। तो वह पूर्ण अहिंसात्मक प्रवृत्ति है । पर किसी जीव- आजको कानूनी दुनिया शब्दोंके अर्थपर कितने को मारनेकी मकाम चेष्टा करनेपर भी यदि वह जीव अनर्थीका किला खड़ा कर देती है और उसमें किसी उपाय या कारण-द्वारा बच जाता है तब भी
न्यायकी जगह अन्याय, सत्यको जगह असत्य और वध करनेकी इच्छा रखनेवाला पूण हिंसाका
अहिंसाकी जगह हिंसाका हो बोलबाला प्राय: सर्वत्र दोषी है।
नजर आता है। हिंसा-अहिंसाके दो एक व्यावहारिक या सांसा- जहां सत्य है वहां अहिंसा है, जहां असत्य है रिक उदाहरण यहां दिए जा सकते हैं-
वहां हिंसा है। आज भी संसार सत्यके ऊपर ही
कायम है। सत्यका परिमाण असत्यसे अधिक है। (१)एक पिता शक्ति एवं साधन संपन्न होता हुआ
1. जितना अधिक सत्य रहेगा शान्ति भी उतनी ही भी यदि अपनी संतानको उपयुक्त शिक्षा समय एवं चारों तरफ रहेगी और जितना अधिक असत्यका उपलब्धिके अनुकूल न दे या न दिला सके वा सन्तान विस्तार होगा अशान्तिकी संभावना भी उतना ही द्वारा आगे चलकर होनेवाली अनीतियों और हिमा- अधिकाधिक बढ़ेगी। सत्य सीधा सादा सरल एवं ओंका मूलकारण होनेसे वह पिता हिंसाका दोषी है। प्रछन्न-सा होनेसे कम-सा लगता है जबकि असत्य भड़
(२) किसी व्यक्तिने मरते समय या जीवनके कदार आकर्षक एवं आडम्बरोंसे पूर्ण होनेसे बड़ा या किसी भी समयमें किसी कारणवश अपनी परी
प्रभावकारी-सा लगता है। फिर भी सत्यकी ही विजय सम्पत्तिका या किसी भागका कोई ट्रस्ट कायम कर हाती
होती है यह निश्चित बात है । सत्यके विद्यमान होनेदिया ताकि उसका सदुपयोग विशेष तरहके लोको
का हमें भास हो या नहीं पर विश्वका नियन्त्रण या पकारक कार्यों में हो सके। बादमें उसका देहान्त
शासन होता उसीसे है। एक छोटा-सा उदाहरण होजाय और टस्टी लोग टस्टकी सम्पत्तिका दरुप- सत्यकी विश्वव्यापकता एवं हर जगह हर समय योग करने लगे तो जानकार लोगोंका यह कर्तव्य है विद्यमानताका कुछ आभास दे सकता है । जैसे एक कि उसे ऐसा करने का
रिकशावालसे एक जगहसे दूसरी जगह तक लेजाने ऐसा विरोध करनेमे यदि उन्हें उस टस्टीका कोप- का किराया किसोने कुछ ते किया। उस निदिष्ट
| भी बनना पड़े या और भी सब लौकिक स्थानपर पहुचकर उस व्यक्तिने रिकशावालेको तें हानियां सहनी पड़ें तो वह प्रसन्नतापूर्वक वगैर वैर- की हुई रकम दे दी और रिकशा वालेने चपचाप भावना या बदलेको भावनाके क्षमाभावपर्वक सहन वगैर हीलो-हुज्जतके स्वीकार करली, यही सत्यका कर । यही अहिंसाका आदर्श है। यदि कोई जान- प्रत्यक्ष नमूना है। हमारे जीवनमें प्रत्येक दिन हर कार व्यक्ति किसी डरसे या कारणवश ऐसा नहीं जगह हर काममि ऐसे न जाने कितने ही उदाहरण करता तो वह उसकी कमजोरी, कमी या कायरता मिलते हैं। हर एक तरहके आदमियों को किसी काम ही है-भले हो वह क्षमा और अहिंसाकी दुहाई दे या चीजके लिए एक ते की हुई रकम दे देने पर वह
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२५२
अनेकान्त
[वर्ष १०
काम हो जाय या बस्तु मिलजाय या काम होजाने वृद्धिमें भी सहायक होकर अपने कर्तव्यका एवं
और वस्तु मिलजाने पर वह रकम दे दी जाय और पुरुषार्थका पालन करते है। कोई हीलो हुज्जत नहो यही ज्वलन्त सत्य है । भले ही अन्याय एवं अनीतिमें एक मादकता है जो मदिराहम इसकी महत्ताका पूर्ण अंदाज न लगा सकें, पर की तरह आदमीको अन्धा और प्रमत्त बना देती हैं इसी सत्यके ऊपर ही हमारी शान्ति और हमारा उसका निराकरण ही सुखशान्तिकी जननी हैसारा सुख निर्भर है । हर काममें या हर बातमें पग- अब यह निराकरण चाहे जैसेहो उसके ऊपर सारा पगपर यदि हीलो हुज्जत होने लगे तो जीवन निभना दारोमदार वर्तमान एवं भविष्यका है। प्रतिहिंसाकठिन ही नहीं असंभव हो जाय।
त्मक या नाशकारी उपायों द्वारा ऐसी बातों, असत्यको जानकर उसको रोकना, उसका विरोध व्यक्तियों या कार्यों का शमन करदेना क्षाणिक या प्र. करना और उसके सुधारके उपाय करना ही सत्या- स्थायी होता है। भीतर ही भोतर आग सलगती रहती ग्रह है । अनीति, अन्याय, अनाचार इत्यादि असत्य है । और समय पाकर भड़क सकती है । पर अहिंसाआचरण है या असत्यके ऊपर निर्भर हैं या असत्य त्मक सत्याग्रह द्वारा अन्यायको दूर कर अन्यायीको बढ़ाते और प्रोत्साहन देते हैं इसलिये इनका को ही सधार देना सर्वदाके लिए जड़को ही खतम सक्रिय विरोध करना ही सत्याग्रह या अहिंसा है। करदेता है। सत्याग्रह और अहिंसा एक ही चीजके कार्य कारण
साधारण-अज्ञान एवं अशक्त-मानव जब श्रासम्बधानुसार अलग अलग दो नाम है। अहिंसा
दर्शकी सर्वोच्चता तक नहीं पहुंच पाता है तो आदर्श है और सत्याग्रह व्यवहार या आचरण है।
उसे झठा समझता या कहता है । "अग र खट्टे है" महात्मा गांधीकी अहिंसा और सत्याग्रह भी अना
वालो बात ही वह करता है। पर सफलता मिले या चार, असत्य और अनीतिका खुलकर विरोध करने
न मिले-व्यवधानोंकी कभी संसार या जीवनमें से ही सिद्ध होते है। दबजाना या चुपचाप सहन नहीं है-चारों तरफ कठिनाइयां रुकावटें एवं विघ्नकरलेना तो हमारी किमी कमजोरीके ही फलस्वरूप बाधाए' तथा अनेक सीमाए प्रतिबन्धया लिमिटेशन्स है। चाहे वह कमजोरी-काम,क्रोध, मान,माया, लोभ भर पडे है फिर भी याद को चाहोना व्यक्ति या कायरता, या मांसारिक प्रतिबन्धोंके कारण हो या समाजको सबम अधिक ऊपर उठाने या लेजाने अज्ञान, निराशा और शक्तिहीनताके कारण हो। वाला है। सभी भारतीय संस्कृतियों-धमसिद्धांतों प्रतिहिंसा या वैर साधन तो हर हालतमें हिंसा है एवं दर्शनोंमें ईश्वरत्व प्राप्तिका चरमोद्देश ही
और उसका फल वैर विरोध एवं अशान्तिको उत्तरो- परम पुरुषार्थ या मानव-कर्तव्य निर्धारित किया त्तर बढ़ानेवाला ही होता है। उसे दूर करनेके लिए गया है । पर संसारमें कितने व्यक्ति हैं जो सचमुच ही अन्यायीका विरोध अहिंसमय तरीकोंसे करना आत्मज्ञान या अत्मलाभ करके मोक्ष पा लेते हैं ? आवश्यक है ताकि हिंसा या अन्याय और अनीति- फिर भी इसे बुरा, गलत या त्याज्य कभी नहीं करार का मूल स्रोत भी अत होजाय और भविष्यके लिए दिया गया। यदि मनुष्य ऊचे किसी बात, विषय उस स्रोतसे होनेवाली या फैलने वाली आशान्ति या जगहमें नहीं चढ़ पाता है तो वह उसकी कमजोरी की संभावना भी समाप्त हो जाय । अन्यायीका सुधार या किसी गलती वगैरहके ही कारण है न कि उसकी करके हम अन्याय को तो समाप्त करते ही हैं अन्यायी असफलताके कारण ऊँचे आदर्शका उपलब्ध होना । का भला भी करते है और अन्ततः लोककल्याणकी ही असंभव सर्वदाके लिये और सबके लिये मान
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किरण ७८]
अहिंसा और सत्याग्रह लिया जाय तो यह तो आत्महत्यावाली निराशता है इसका ध्यान हरसमय रखना आवश्यक है । आत्महुई । हाँ, देश, काल, समय, परिस्थिति आवश्यकता वत् ववभूतानि “यही तथ्य है। यदि चीटी काटनेसे साधन एवं और सभी संबन्धित बातोंका व्यावहारिक हमें तकलीफ होती हो तो हमें यह समझना चाहिए ध्यान रखना हर हालतमें जरूरी है । इसीमें त्रुटि कि दूसरेको भी तकलीफ होसकती है। यदि हम मारा होनेसे या कभी रह जानेसे कोई काम नहीं हो पाता जाना ठीक नहीं समझते तो दूसरेको मारना निन्द्य संसारके सारे संघर्षोंका भी यही मूल कारण है। है। यदि हम अपना एक पैसा फिजूल किसी द्वारा आजसे दो ढाई हजार वर्ष पहलेक बने आचरण लिया जाता हश्रा पसन्द नहीं करते तो दसरोंका भो एवं व्यवहारों या रीति-रिवाजोंको हम अब भी उसी इसतरह पैसा हमारेलिए लेना चोरीअसत्य एवं हिंसा तरह पकड़े हुए और जकड़े हुए है जिसका कोई हद्दा है। अन्याय, अनर्थ, अनीति या अत्याचार चाहे वह हिसाब नहीं। जैसे बहुत दिनों तक गदड़का व्यव.
व्यक्तिद्वारा हो समाजद्वारा हो या सरकारद्वारा हार करनेवाला भिक्षक अच्छा कपड़ा देने पर भा हो सहन करना कायरता या कमजोरी ही है। इसका उसे जल्दी या आसानीसे नहीं त्यागता वही हालत यथाशक्ति विरोध करना ही अहिंसा एवं सत्याग्रह है हमारी होरही है। मिथ्या मोह माया एवं भावुक महात्मा गाँधीकाभी मतलब इसी अहिंसा एवं सत्याभ्रममें हम दिशासे विदिशा होजाते है फिर दुनिया प्रहसे है। पूर्ण क्षमाभाव या पूर्ण अहिंसक तो पूर्ण भरको दोष देने लगते है यह ठीक नहीं अहिंसा और
ज्ञानी ही होसकता है। परन्तु सांसारिक अवस्थाओं में सत्याग्रह हमे ठीक सच्चा मागे प्रदशित करत ह अपनेसे जितना निभ सके उतना तो सभीको लोक-कल्याणकी भावनाकी कसौटीपर किसीभी समय
निभाना सुख शान्तिको बढ़ाने बाला ही है। कसकर किसी सत्याऽसत्यका निर्णय आसानीसे
इसीसे व्यक्तिका, देशका एवं भनवमात्रका कल्याण किया जासकता है यदि मनमें मैल नहो। वास्तवमें
हो सकता है। भावोंको शुद्धता ही अहिंसा और अशुद्धता हो हिंसा
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सही मानाका फल (प्रवक्ता श्री १०५ पूज्य क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचाये ) [सागर-चातुर्मासमें दिया गया वर्णीजीका एक अन्य प्रवचन]
'नहि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति' पढ़ा। उसे सुनकर इन्हें जैनधर्मपर श्रद्धा हुई । 'सज्जन मनुष्य किए हुए उपकारको कभी नहीं सिर्फ अनुमानके विषयमें थोड़ा-मा संशय रह गया भूलते' । यही कारण है कि पञ्चाध्यायीकार अपना इन्होंने क्षुल्लकसे कहा कि-'इसका अर्थ भी समग्रन्थ बनानेके पहले 'अर्थालोकनिदानं यस्य वचस्तं झते है या कोरा तोता रटन्त है ?' क्षल्लकने कहा स्तुवे महावीरम्' इन शब्दों द्वारा उन भगवान महा- कि-'मैं तो विशेष जानता नहीं, यह अष्टशती वीरके प्रति जिनका कि आज तीथे चल रहा है, ले जाओ, इससे आपको सन्तोष होजायगा।' विद्याअपनी भक्ति प्रकट करते हैं।
नन्दने घर जाकर अष्टशतीका अच्छा अवलोकन 'अभिमतफलसिद्धरभ्युपायः सबोधः । किया। उन्हें सब बात ठीक जंची, पर अनुमानके प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्ति रातात् । लक्षणके विषयमें कुछ सन्देह फिर भी बना रहा । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादास्पबुद्धि
सोनेपर रात्रिमे स्वप्न पाया कि तुम्हारे संशयका ने हि कृतम्पकारं साधवो विस्मरन्ति ॥" निर्णय मन्दिरमें जानेपर होजायगा । दूसरे दिन यह कथन भी विद्यानन्द स्वामीका है । आप विद्यानन्द मन्दिर पहुँचे, उन्हें श्रीपार्श्वनाथ स्वामीबड़े भारी विद्वान थे। ब्राह्मण थे। इनके पांचसौ के फणापर निम्न लिखित श्लोक लिखा दिखाशिष्य थे। मीमांसाके अच्छे जानकार थे। एकबार 'अन्यथानुपपनत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । ये किसी जैनमन्दिरके पाससे निकले,मन्दिर बाहर- नान्यथानुपपन्न त्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।।" से अच्छा दिखा । उनकी इच्छा हुई कि भीतर भी
'जहां अन्यथानुपपन्नत्व है वहां अनुमानके तीन जाना चाहिये। साथके शिष्योंने कहा-महाराज ! अमाननेसे क्या प्रयोजन है ? और जहां अन्ययह तो जैन मन्दिर हैं । विद्यानन्दने कहा-'जैन- थानुपपन्नत्व नहीं है वहाँ तोन अङ्गोंके रहनेसे भी मन्दिर हैं तो क्या हुआ ? यह भी तो पत्थरके
क्या होगा ।' श्लोक देखकर विद्यानन्दका सब खम्भोंसे बना हुआ है। मन्दिर तो नास्तिक नहीं
समाधान हो गया। उन्होंने अपने शिष्यों और होता ?' शिष्य चुप रह गए । विद्यानन्द मन्दिरके साथियोंसे कहा-भाई, मेरी तो जिनधर्मपर श्रद्धा भीतर गए। उस समय एक क्षल्लक देवागमका है. मैं इसकी दीक्षा लेता हूँ । अनेक साथियोंके पाठ कर रहे थे। वह बीचमेंसे कुछ कारिकाए पढ़ साथ उन्होंने जैनधर्म स्वीकार कर लिया और देवारहे थे। विद्यानन्दको अच्छी लगीं। उन्होंने कहा- गम तथा अष्टशतीपर अष्टसहस्रीकी रचना की । कि शुरूसे पढ़िये । तल्लकने पूरा देवागम स्तोत्र उन्हीं विद्यानन्द स्वामीन अपने श्लोकवार्तिकमें
१ यह कथा पात्रस्वामीकी है जो विद्यानन्दसे भिन्न लिखा है कि 'अभीष्टसिद्धिका उपाय ज्ञान है। ज्ञान और पूर्ववर्ती हैं। -स०सम्पादक
शास्त्रसे प्राप्त होता है और उसकी उत्पत्ति प्राप्तसे
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किरण ७८]
सञ्चो भावनाका फल होती है अतः वह पूज्य है । इसमें उन्होंने देव, को शास्त्रमें मैंने उससे पूछा-कि अब तो बतलाओ शास्त्र और गुरुके प्रति अपनी भक्ति प्रकट की है। बात क्या थी ? उसने कहा-हमारे यहां चौकाकी मेरा भी पक्का श्रद्धान है कि इस जीवका कल्याण ऐसी रूढ़ि चलो पाती है। तब मैंने कहा-'इस रूढिभक्तिसे ही हो सकता है। शास्त्रोंमें लिखा है कि- को छोड़ो, त्रसजीवोंकी रक्षा करो जिसमें बहुघात न 'एक बार वन्दे जो कोई । ताहि नरक-पशु गति नहिं हो ऐसा भोजन करो तथा चन्देवा आदि जो जीवहोई।।' जो एकबार शिखरजीके दर्शन करले उमे नरक रक्षाके साधन है उन्हें जुटाओ कोरी रूढिमें क्या
और तिर्यच गति नहीं हो सकती। इसका अर्थ है धरा ? बात उसकी समझमें आगई । कि सम्यग्दृष्टिके नरक तथा तिर्यच आयुका बन्ध एक बारको और सुनो। बैशाख सुदी पूनमको मैं होता ही नहीं है उनमें पैदा कहांसे होगा ? और शिखरजो पहुँचा। जब खुरजासे १३ को चलने जिसके भावसहित सम्मेद शिखरजीकी वन्दना लगा तब श्रीमान् सेठ मेवारामजी बोले-'इस गर्मी होगी वह सम्यग्दृष्टि होगा ही। मैं अपनी बात कह- में कैसे यात्रा करोगे ? मैंने कहा-'कौन देख पाया ता हूँ-भैया ! वन्दना करनेका फल किसीको मिले पानी वरष जाय । भैया ! जिस दिन मुझे पर्वतपर चाहे नहीं मुझे तो तत्काल मिला।
जाना था उससे पहले शामको खूब जमकर पानी ___एकबार हम दो श्रादमी शिखरजीको वन्दना वर्षा, मौसम ठण्डा होगया। मैं तीन बजे रातको कर बारह एक बजे नीचे आए । भोजनका कुछ पर्वत पर चढ़ा और सानन्द वन्दना करके लौट सामान नहीं था । दुकानदार के यहाँसे चावल आया। दूसरे दिन मनमें पाया कि परिक्रमा और
और लकड़ी लाए। वहीं धर्मशालामें एक लमेचू देना चाहिये। लोगोंने कहा-कष्ट होगा । मैंने कहारोटो बना रहा था, उसकी लकड़ी कम होगई । मुझ कष्टके लिये तो शरीर है ही फिर कब आता ?' मैं से बोला-एक लकड़ी दे दो, मैं लकड़ी उसके चौके में अपने साथी और एक भोलके साथ परिक्रमाको रख आया ।लकड़ी कुछ बड़ी थी इसलिये चौकसे चल पड़ा। उसी दिन वापिस आजाऊ इस ख्यालसै बाहर निकली रही । वह गुस्सा हुआ-बोला, 'तूने सवेरेसे गया। नीमियाघाट पहुँचा, वहां जाकर मेरी सारी रसोई बेकाम कर दी। मैं कुछ समझा भोजन किया। फिर आगे चला । कुछ दर ही चल नहीं। मैंने कहा-क्या बात है?' वह बोला-कि 'तुम हूँगा कि रास्ता भूल गया। गरमोकी ऋतु, जेठका ने यह लकड़ी चौकेके बाहर निकली रहने दी इस- महीना, ऊपरसे घाम और नीचे ततूरी । जोरकी लिये चौका अशुद्ध होगया, सब रसोई व्यर्थ गई। प्यास लगी जिससे प्राणान्त कष्ट होने लगा । भगमैंने कहा-'भैया पहले कहते तो मैं तोड़कर रख वान् पाश्वनाथकी टोंक दूरसे दिखती थी, मैंने हाथ देता।' अच्छा, यह तो बताओ तुम्हारा यह आटा जोड़कर कहा कि 'भगवन् ! आप तो मोक्ष गए, और शुद्ध है ? उसने कहा-'हां, घरका पिसा हुआ शुद्ध हम लोगोंको कष्ट छोड़ गए। न आप यहां मोक्ष
आटा है। और घी ? घी भी घरका शुद्ध है। तो में जाते न यहां हम लोग जङ्गलमें भटकते । सुनते हैं भोजन कर सकता हूँ ? उसने कहा-टां। मैंने प्रेमसे कि आप संसार-समुद्रसे तारनेवाले है पर मुझे खूब भोजन किया, मेरे साथीने भी किया। बाद में संसारसमुद्रसे अभी नहीं तरना है, अभी तो प्यास उनकी रसोईका सिलसिला लगा कर उन्हें भोजन की अग्निसे शान्त होना है। आया तो आपके दर्शन • कराया । भैया ! वन्दनाका फल किसीको मिले करनेके लिये था, पर मेरी मृत्यु होगी आर्तध्यानसे ।
चाहे नहीं, मुझे तो तुरन्त मिल गया (हंसी)। शाम- मैं आपका ही भक्त हूँ, भक्तोंपर आपको दया नहीं
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अनेकान्त
[ वर्ष १०
व्यर्थ नहीं जाती। ऊपरसे क्रिया करो, समय लगाओ और हृदयमें भक्ति न हो तो उससे क्या लाभ हो सकता है ?
कल्याणमन्दिर स्तोत्रमें कहा है कि'श्रतोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विष्टतोऽसि भक्त्या । जावोऽस्मि तेन जनबांधव ! दुःखपात्रम्
२५६
श्राती । दो चुल्लू पानी मिल जाय इतनेसे ही मेरी रक्षा होजायगी।' हम लोग ऐसा कह रहे थे कि वहीं पास में एक रास्ता फूटो दिखी । मैंने कहा- अब भूले तो हैं ही, चलो इमो रास्ते चलें । सो एक अध फर्लान नहीं गया हूँगा कि एक जलसे लबालब भरा हुआ कुण्ड दिखा। मुझे इतना आनन्द हुआ मानो किसी कंगलाको निधि मिल गई हो । अच्छी तरह पानी पिया। जीमें जी आया। साथी कहने लगा - 'चलो ! अभी बहुत दूर जाना है।' मैंने कहा'भाई ? अब चिन्ता किस बात की ? यहां विश्राम करलो, कल तक पहुँच ही जावेंगे' । विश्रामके बाद शाम को चला, सो भैया ! १५ मिनटमें ही मधुवन आगया । मेरा तो अटूट विश्वास है कि श्रद्धा कभी
समका फेर
यस्मात्क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशन्याः ॥' 'भगवन् ! मैंने आपका नाम सुना, पूजा की, दर्शन किया, समवसरण में भी गया पर हृदयमें आपको धारण नहीं किया। यही कारण है कि अब तक संसारमे भटक रहा हूं । बिना भावके क्या होता ?”
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'अनेकान्त' पत्रके वर्षे १० संख्या ४-५ में 'अर्थका अनर्थ' शीर्षक से पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीका एक लेख प्रकाशित हुआ है । यह लेख 'शूद्र- मुक्ति' शीर्षक से ज्ञानोदय में निकलनेवाले लेखके विरोध में लिखा गया है । लेखके प्रारम्भ में उन्होंने मेरे उस लेखकी भी चर्चा की है जिसके द्वारा मैंने आगम के आधार से यह बतलाया था कि बाह्य सम्पत्तिका मिलना और बिछड़ना कर्मका कार्य न होकर कर्मोदयमें नोकर्म है ।
इस तरह इनके प्रकृत लेखमें मुख्य विवादके विषय तीन हो जाते हैं - १. क्या बाह्य सम्पत्तिका मिलना और बिछुड़ना क्मका कार्य है ? २. क्या शूद्रमुक्ति दिगम्बर परंपरामें मान्य है ? ३. क्या एक पर्याय में गोत्र बदल सकता है ?
पण्डितजीने इन विषयोंकी यथास्थान चर्चा
की है। उनका व्यक्तिगत मत है कि ' एकको सम्पत्ति मिलना और दूसरेका गरीब होना कर्मका कार्य हैं ? दिगम्बर परंपरामे शुद्रमुक्ति मान्य नहीं और एक पयायमें गोत्र नहीं बदल सकता ।
किन्तु मेरा मन्तव्य है कि एकको सम्पत्ति मिलना और दूसरेका गरीब होना यह कर्मका काय
होर व्यवस्थाका फल है, दिगम्बर परम्परामें शूद्रमुक्ति मान्य है और " एक पर्याय में गोत्र बदल १. देखो पचसग्रहकी भूमिका |
२. देखो उनकी लिखी हुई 'जैनधर्म' पुस्तक पृष्४२६३
-३०० ।
३. देखो अनेकान्तकी पिछली किरणों में और अन्यत्र प्रकाशित हुए उनके गोत्रविषयक लेख ।
देखो षष्ठ कर्मग्रन्थकी भूमिका |
४,
२. देखो ज्ञानोदयके ४थे, वे आदि अंकोंमें प्रकाशित मेरा शुद्रमुक्ति शीर्षक लेख ।
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किरण ७-८)
समझका फेरे
सकता है । मैंने इन विषयों के समर्थनमें शास्त्रीय एक पर्यायमें गोत्र बदलता है इस तथ्यको प्रमाण भी दिये हैं।
धवलाकारने स्पष्टतः स्वीकार किया है । सुख-दुखके पण्डितजी स्थितिपालक अतएव चालू रूढिके समान गोत्र जीवका परिणाम है। यह तब भी होता पोषक हैं फिर भी वे इस रायसे सहमत है और है जब जीव विग्रहगति में होता है। ब्रह्माण परंपरादूसरोंको भी ऐसी सलाह देते रहते हैं कि दिगम्बर में गोत्रकी प्राप्ति जहां माता पितासे होती है वहाँ जैन-साहित्यपर ब्राह्मण साहित्यकी और श्वेताम्बर जैन परम्परामें नवीन भवके प्रथम समयकी परिजैन साहित्यपर बौद्ध साहित्यकी छाप पडो है। एक णतिके अनुसार उसको प्राप्ति होती है और कर्मतरफ वे स्थितिपालक होनेके नाते उन तथ्योंसे भूमिमें चारित्रके निमित्तसे वह बदल भी जाता चिपके रहना चाहते है जो ब्राह्मण साहित्यकी देन है। इससे भी यही निष्कर्ष निकलता है कि गोत्रका है और दूसरी ओर व्यक्तिगत चर्चामें वे उदार भी अर्थ रक्तपरम्परासे नहीं है। बने रहना चाहते हैं। इसे समझका फेर नहीं तो हम समझते हैं कि इतने लिखनेसे पण्डितजी और क्या कहा जाय ।
उस तथ्यको सम्यक रीतिसे जान लेंगे जिसका प्रकृत लेखमें सर्व प्रथम पण्डितजीने मेरे द्वारा ।
निर्देश मैने ज्ञानोदयके ४-५ अंकमें किया है। शास्त्राधारसे सिद्ध किये गये गोत्रके लक्षणके दूसरी आपत्ति पण्डितजीने मेरे द्वारा किये गये प्रसंगस 'सन्तान' शब्दके अर्थपर आपत्ति को है। शूद्रत्वाशुचित्वाविभावना संघावणेवादः' के अर्थपर एक आर वे सन्तानका अथे पुत्र-पौत्रपरम्परा करना की है। यह वाक्य सवोथेसिद्धिका है। चाहते है और दूसरी ओर निष्कर्ष निकालते समय अकलंकदेवने राजवार्तिकमें उक्त वाक्यका वे यह भी स्वीकार करते है कि किन्तु कालक्रमसे जो व्याख्यान किया है वह पण्डितजीके शब्दोंमें होनेवाले विभिन्न सन्तानी सदाचारी पुरुषोंके प्रवाह- इस प्रकार है 'ये श्रमण शूद्र हैं, स्नान न करनेसे को परम्परा कहते है।'
इनका अंग मैलसे भरा है, ये गन्दे हैं, निर्लज्ज हमने उनके समस्त कथनपर सावधानी-पूर्वक दिगम्बर हैं।' इस व्याख्यानमें 'शद्र है' स्वतन्त्र विचार किया है। हमारा तो ख्याल है कि वे ज्ञानो- पद है और 'स्नान न करनेसे इनका अंग मैलसे दयक ५वें अंकमें प्रकाशित धवलाके सब उद्ध. भरा है। आदि स्वतन्त्र पद है फिर भी वे रणोंको एक-साथ मिलाकर पढ़ते तो वे एकमात्र अकलंकदेवके वर्णनसे ऐसा निष्कर्ष निकालना यही निष्कर्ष निकालते कि गोत्रके प्रकरण में सन्तान चाहते है कि 'जैन मुनि स्नान नहीं करते, उनका शब्दका अर्थ कालक्रमस होने वाले अनेक सन्तानी वदन मैला कुचैला रहता है, नंगे डोलते थे, बाह्य सदाचारी पुरुषोंका प्रवाह लिया गया है। वे ब्राह्मण- शुद्धिका वैसा महत्त्व उनकी दृष्टिमें नहीं था। जैसा परम्पराके समान गोत्रका सम्बन्ध रक्त-परम्परासे दूसरोंकी दृष्टिमें था, अत: उन्हें शद्र कहा जाता था।' न जोड़ते।
यहां पण्डितजीने लेखनकी जिस कुशलतासे यह तो पण्डितजी जानते ही है कि गोत्रका काम लिया है वह पाठकोंकी दृष्टिसे ओझल रहेगी, उदय केवल मनुष्य पर्यायमें ही नहीं होता। वहां ऐसा हम नहीं मानते। जहां ग्रन्थमें 'ये श्रमण शूद्र
भी होता है जहां रक्तकी परम्परा नहीं चलती। हैं। ऐसा कहनेके बाद 'क्योंकि' पदकी सूचना नहीं • और वे यह भी जानते होंगे कि गोत्रका उदय माता ------ के गभेमें आनेके पहले ही हो जाता है।
१.देखो ज्ञानोदय मंक ५ पृष्ठ ३६८।
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अनेकान्त
[वषे १०
है वहां उन्होंने 'क्योंकि' पदका आशय अपनी ओर है। मालूम पड़ता है कि इतना ही प्रचारित करनेके से जोड़कर अपना मन्तव्य सिद्ध करनेकी चेष्टा की लिए उन्होंने यह लेख लिखा है, क्योंकि उन्होंने है। अपने अभिप्रायकी पुष्टिके लिये मनुष्य क्या जिन आधारोंसे इस लेखका कलेवर बढ़ाया है नहीं करता इसका यह उदाहरण है।
उनमें किसी गंभीर अध्ययनका परिचय नहीं फिर भी पाठक यह मान सकते हैं कि कदाचित
मिलता । मैं यहां यह लिखना कर्त्तव्य समझता हूँ कि दूसरे विरोधी जन जैन श्रमणोंको परिहासमें शूद्र
- पं० जो स्वयं तो 'जैनधर्म' पुस्तकमें 'शूद्रमुक्तिको कहते हों । प्रश्न है तो मार्मिक पर इसका समाधान
दिगम्बर परम्परा नहीं मानती' इस आशयका भी उसी सर्वार्थसिद्धिसे हो जाता है। वहां वैया.
निर्मूल विधान करके जैनधर्मकी आत्मापर आववृत्यके प्रकरणमें संघ शब्दका अर्थ करते हुए
रण डाल रहे है और मुझपर 'चाहे शूद्र हो या लिखा है कि 'चातुर्वर्ण्यश्रमण निवहः संघः' इसका
अन्य कोई जो चरमशरीरी होगा उसेही मुक्ति होगी' अथे है जो गृहस्थ अवस्थामें चारों वर्णके रहे है
यह सिद्धान्ताधारसे विवेचन करनेपर भी अपने ऐसे श्रमणोंका समुदाय । इससे स्पष्ट है कि जिन- मन्तव्य भरने का आरोप कर रहे हैं, किमाश्चर्यमतः दीक्षाका अधिकार न केवल क्षत्रिय, वैश्य और परम्। ब्राह्मणको था अपितु शूद्रोंको भी था।
रही वितण्डावादकी बात, सो इसमें न हमारी अन्तमें पण्डितजीने वातावरणको उत्तेजित
रुचि है और न समय ही। न हम किसीको छेड़ना करनेकी दृष्टिसे 'पं० जी जैन समाजके प्रसिद्ध
चाहते हैं और न किसीक धमकानेसे डरते ही हैं। टीकाकार हैं, आज वे सिद्धान्त प्रन्थों की टीका कर सुधार तो जैनधर्मकी आत्मा है। अनादिकालीन रहे हैं और सर्वार्थसिद्धिकी उनकी टीका वर्णी ग्रन्थ
मिथ्यात्वका सुधार किये बिना सम्यग्दर्शन या मालासे छप रही है। यदि उनमें भी पं० जीने
व्यक्तिकी मुक्ति हो नहीं हो सकती। मैं तो यही अपने इन नवीन मन्तव्योंको इसी प्रकार भरा होगा
भावना करता हूँ कि मानवमात्र सुधारपथका अनुतो उससे जैन सिद्धन्तोंके मन्तव्योंको क्षति पहुंच
गामी बने । इसामें समाजका कल्याण और व्यक्ति
की मक्ति है। जैनाचार्योन सदा जैनधमकी इस सकती है तथा व्यर्थका वितण्डावाद खड़ा हो सकता है इसी भावनासे यह लेख लिखा गया है।' इन
आत्माकी रक्षा है। शब्दोंके साथ अपने लेखको पूर्ण किया है।
-फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, वस्तुतः यही इस लेखके लिखनेका खास लक्ष्य
बनारस।
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गुणचन्द्रमुनि कौन हैं ?
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आचार्य वादिराज ( ई० सन् १०२५ ) ने अपने न्यायविनिश्चयविवरण में एक जगह गुणचन्द्रमुनिका उल्लेख करते हुए लिखा है
'देवस्य शासनमतीच गभीरमेतत् तात्पर्यतः क इव बोद्धमतीवदक्षः । fegree areगुणचन्द्रमुनिर्न विद्यानन्दोऽनवद्यचरणः सदनन्तषीय: ॥
अर्थात् - 'यदि गुणचन्द्रमुनि, अनवद्यचरण विद्यानन्द और सज्जन अनन्तवीर्य (रविभद्र-शिष्य) ये तीन विद्वान् देव (अकलङ्कदेव ) के गम्भीर शासनके तात्पर्यका स्फोट न करते तो उसे कौन समझने में समर्थ था ?'
यहाँ वादिराजसरिने जिन साधुपुरुष गुणचन्द्र मुनिका उल्लेख किया है वे कौन है और उन्होंने कलङ्कदेव के कौन-से ग्रन्थकी व्याख्यादि की है ? शायद यह पद अशुद्ध न हो ? फिर भी इस उल्लेखसे इतना तो स्पष्ट है कि उन्हें अकलङ्कके शासन (वाङ्मय) के व्याख्यातारूपमें एक जुदा व्यक्ति जरूर होना चाहिये ।
विद्यानन्दने अष्टशतीका अष्टसहस्रोद्वारा, अनन्त वीर्यने सिद्धिविनिश्चयका सिद्धिविनिश्चयटीकाद्वारा वादिराजने न्यायविनिश्चयका न्यायविनिश्चयविवरणद्वारा और प्रभाचन्द्रने लघीयस्त्रयका लघीयस्त्रयालंकार ( न्यायकुमुदचन्द्र ) द्वारा अकलङ्कके शासन ( वाङ्मय -प्रन्थों ) का तात्पये स्फोट किया है । प्रभाचन्द्र वादिराजके उत्तरवर्ती हैं और इसलिये 'सगुणचन्द्रमुनि' पदसे प्रभाचन्द्रका तो ग्रहण नहीं किया जा सकता है । अतः इस पदका वाच्य वादिराज ( ई० १०२५) से पूर्ववर्ती कोई अन्य आचार्य १ देखो, वीर सेवामन्दिर सरसाबाको लिखित प्रतिपन्न ३८२ ।
अकलङ्कका व्याख्याकार होना चाहिये। परन्तु अब तक उपलब्ध जैनसाहित्यमें विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, वादिराज और प्रभाचन्द्र इन चार विद्वानाचार्योंके सिवाय अकलङ्कके व्याख्यातारूपमें कोई दृष्टिगोचर नहीं होता ।
यदि सचमुच में 'सगुणचन्द्रमुनि' पदसे वादिराजको गुणचन्द्रमुनि नामके विद्वानका उल्लेख करना इष्ट है जो अकललंकके किसी ग्रंथ व्याख्याकार रहे हों तो विद्वानों को इसपर विचार करना चाहिए और यह स्पष्ट करना चाहिए कि वे किस सामान्य अथवा विशेष परिचयको लिये हुए हैं तथा उन्होंने अकलङ्कके कौन-से ग्रन्थकी व्याख्या अथवा टीकादि की है एवं उनका क्या समय है ?
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध साहित्यअनुसन्धाता पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारका विचार है कि यहाँ 'सगुण' शब्द 'प्रभा' के अर्थमें प्रयुक्त हुआ है और इसलिए 'सगुणचन्द्र' पद से श्र. वादिराज के द्वारा उन्हीं प्रभाचन्द्रका उल्लेख किया गया है जिनका उल्लेख जिनसेनस्वामीने अपने आदिपुराण में किया है और जिन्हें 'कृत्वा चन्द्रोदयं' पदके द्वारा 'चन्द्र' के उदय ( उत्पत्ति) का कर्त्ता अर्थात् न्यायकुमुचन्द्र नामक जैनन्यायप्रन्थका, जो अकलंकदेवके लघीयस्त्रयकी टीका है, रचयिता बतलाया है। उनका मत है कि प्रमेयकमलमार्तण्डके कलां प्रभाचन्द्र और न्यायक मुदचन्द्रके कर्ता प्रभाचन्द्र भिन्न है - दोनों को अभिन्न मानना तब तक ठीक नहीं है जब तक उनकी अभिन्नताके समर्थक प्रमाण सामने न आ जायें । इस सम्बन्धमें उनका एक स्वतंत्र लेख लिखनेका विचार है ।
११-१-५०,
- दरबारीलाल कोठिया
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पंछी, नीड किधर है तेरा १
( श्री विजयकुमार चौधरी, साहित्यरत्न, साहित्यशास्त्री )
( १ )
अनन्तमें,
उड़ता है तू किस किसका तूने लक्ष्य बनाया ? जीवन के सूखे पतझड़ में, किसको नया वसन्त बनाया ? तिमिरावृत इस बीहड़ वनमें, किस तरुपर है किया वसेरा ?
( २ )
तूने अब तक समझ न पाया गतिका अन्त यहाँ नहि होगा !
मृग मरीचिका में कदापि क्यासुरभित नव वसन्त कहिं होगा ? स्वप्नोंकी भित्तीपर क्या कुछ कर सकता है चतुर चितेरा ?
***00)0...
(8)
जीवनमें संघर्ष यहाँ है, तू अब तक क्या समझ न पाया ? सुखमें दुखका रूप छिपा है, दुखने सुख- श्रभास छिपाया । जीवनकी विषमयी विषमताका है यह स्वर्णाभ सबेरा ॥
( ३ )
तू बन उस पथका अनुगामी जिसपर चलकर घर पहुँचेगा ; जीवन, मृत्यु और द्विविधासे बचकर निज सुनीड़ पायेगा ! यहाँ न मोहित हो जाना तू, व्याधोंने है जाल बखेरा !
( ५ )
जहाँ नहीं जग आडम्बर है, मोहक अम्बर है। निस्तब्ध शान्तिमें कोलाहल है ।
ममताका
जीवनकी जहाँ न कोई उस अनन्तमें बसा स्त्रात्म
तेरा
( ६ )
उस अनन्तमें तू अनन्त बन - जिसमें सबका अन्त निहित है । तेरा ही तेरेमें सब कुछ, नहीं बाझका लेश निहित है । जहाँ न कर्म क्रिया कोई है, केवल ज्ञाताका ही डेरा ।
अपना नीड-बसेरा |
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→→→→0000
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मथुरा संग्रहालयकी सं. १८२६ की तीर्थकर मर्ति
(लेo-श्रीकृष्णदत्त वाजपेयी, एम०ए०,
संग्रहाध्यत, पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा)
मथुराके पुरातत्व संग्रहालयमें सफेद संगमरमर दीग या डीग नगर भरतपुर राज्य (अब राजकी बनी हुई एक अभिलिखित तीर्थकर मूर्ति है । इस स्थान प्रांत ) का एक प्रसिद्ध नगर है। बहुत कालमूर्ति (संग्र०सं०बी २५)की ऊचाई १ फुट २६ इंच है। से यह नगर भरतपुर राजाओंके प्रधान केन्द्रोंमेंसे तीर्थकर पद्मासनपर ध्यानमुद्रामें बैठे है । दुर्भाग्यसे एक रहा है। प्रतिमाका सिर नहीं है। हाथोंकी उंगलियां भी कुछ केहरीसिंह या केसरीसिंह भरतपुर नरेश रतनकुछ टूट गई है।
सिहके लड़के तथा ख्यातनामा सरजमलके नाती __ मूर्तिकी चरण-चौकीपर सामने तीन पंक्तियोंका थे। सूरजमलकी मृत्युके बाद उनके दो पुत्र नागरी लिपिमें एक लेख खदा है। लेखकी भाषा
सीमापा जवारसिंह तथा रतनसिंह क्रमशः गहीपर बैठे। संस्कृतान्वित हिंदी है। लेख' इस प्रकार है- उन्हाने थोड़े समय तक ही राज्य किया। रतन
पंक्ति ५-संवत १८२६ वर्षे मिती माघ वदि ७ की मृत्युके बाद उनके तीसरे भाई नवलसिंह अपने गरुवासर दीगनं (न) गरे महा राजे केहरीसिंघ भतीजे केसरीसिंहकी नाबालगोकी अवस्थामें राज्य राजा विजय [राज्ये]
कार्यका संचालन करते रहे। १७६६ ई. के प्रारम्भमें __पंक्ति २-मघ (हा) भी (भ) टारक श्री प्र (पू) केसरीसिंहने राज्यकी बागडोर स्वयं अपने हाथोंज्य श्री महानंद सागर सु (सू ) रिभिस्तदुपद(द) में ले ली। इन्होंने १७७७ ई० तक राज्य किया। शात्पल्लीवाल वंश मगिहा गे )
प्रस्तुत तीर्थकर मूर्ति इनके राज्यके दूसरे वर्ष __पंक्ति ३-त्रे (ब) रसाणानगरवासिना चौधरी (१७७० ई०) में प्रतिष्ठापित की गई। जोधराजेन पतिट्ठा करापितेय
लेखकी दूसरी पंक्तिमें उपदेशकका नाम महा___ इस लेखका तात्पर्य यह है कि-'विक्रम संवत् नंदसागरसूरि दिया हुआ है। मूर्ति-प्रतिष्ठापक १८२६, माघ कृष्ण ७ (%D १८ जनवरी, १७७० ई०) चौधरी जोधराज पल्लीवाल वंश तथा मगिहा गोत्र बृहस्पतिवारको दीग नगरमे महाराजा केहरीसिंहके के कहे गये है। 'पल्लीवाल' शब्द आधुनिक 'पाली. राज्यकालमें,श्री महानंद सूरिके उपदेशसे बरसाणा बाल' का पूर्व रूप ज्ञात होता है। पालीवाल ब्राह्मण नगरके निवासी चौधरी जोधराजने, जो पल्लीवाल वर्तमान राजस्थान तथा मध्यभारतमें काफी संख्या वंश तथा मगिहा(१) गोत्रके थे,इस तीर्थकर प्रतिमाकी में मिलते है। नहीं कह सकते कि लेखका 'पल्लीवाल' प्रतिष्ठा करवाई।
ब्राह्मण वर्णका सूचक है या किसी इतर वर्णका'
हाँ ब्राह्मणोंमें चौधरी शायद ही सुने जाते हों? १ लेखमें छाटे कट( )के अंतर्गत अक्षर पूर्ववर्ती अक्षरों के शुद्ध रूप है। बड़े कट[ ]दरवाले वर्णादि १,२ जैनोंके अन्तर्गत स्वरडेलवाल, अप्रवाल,जसवाल, पूरक हैं, जिन्हें लेख उत्कीर्ण करनेवालेने भूलसे छोड़ पल्लीपाल, परवार, गोलापूर्व,गोलालारे, गोलसिंघारे आदि दिया प्रतीत होता है। -लेखक।
म जातियां हैं जिनका पेशा मुख्यत: व्यापार एवं उद्योग
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अनेकान्त
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तीसरी पंक्तिमें नगरके नामको डा० फोगल हर- साणा पढ़ते है, परन्तु मेरे विचारसे यह बरसाण है और जो देशके समग्र मागोंमें निवास करती हैं। पल्लीवाल'
., है । लेख उत्कीर्ण करनेवालेने पहला अक्षर केवल
. लिखा है । संभवतः उसने भूलसे इसके आगे उन्हीं ८४ जातियों में से एक प्रतिष्ठित जाति है और जो प्रायः
अकारकी मात्रा नहीं लगाई। वर्तमान डीग नगरके भरतपुर, मथुरा, आगरा तथा एटा जिलेमें विशेषत: पाई जाती है। खण्डेलवालों, अग्रवालों, गोलापों श्रादिकी
आसपास हरसाणा नामका कोई नगर नहीं ज्ञात है तरह इस जातिमें भो जैनधर्म और हिन्दूधर्म दोनों धर्मों के
दूसरी ओर बरपाणा (प्रचलित 'बरसाना' ) मथुरा
जिलेका प्रसिद्ध नगर है। यह राधाके पिता वृषभानु अनुयायी पाये जाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं, 'पालीवाल
का गांव कहा जाता है और ब्रज-यात्राके प्रमुख 'पल्लीवाल' का ही पर्यायान्तर हो । इस जातिके पूर्वजोंके
स्थानों में है। यहां वर्षमें कई बार बड़े उत्सव भी जैनधर्म सम्बन्धी प्रभावना और उत्कर्षके अनेक प्राचीन
- होते हैं। अबसे १८० वर्ष पूर्व ( मूर्ति निर्माणका लेख उपलब्ध हैं । पण्डित दोलतरामजी जैसे अनेक जन साहित्यकार इसी जातिके उज्ज्वल रत्न हैं जिन्होंने जन
- समय ) भी यह प्रसिद्ध तीर्थस्थान होनेके कारण
नगरके रूपमें (न कि गाँवके रूपमें ) रहा होगा। साहित्यकी सृष्टि और समृद्धि में बड़ा योगदान किया है।
इसी लिये लेखमें इसे नगर ही कह गया है । १७७० प्रतीत होता है कि ये समग्र जातियां किसी समय या तो
ई० में वर्तमान मथुरा जिलेका अधिकांश भरतपुर जैनधर्मको अनुयायी थी अथवा हिंदूधर्मको मानने वाली थीं । जो हो, किंतु यह तथ्य है कि इन दोनों धर्मोंके अनु
राज्यके ही अंतर्गत था। बरसाना भी इसमें सम्मि
लित था। बरसानाकी डीग नगरसे सीधी दूरी लगयायी सदा एक-साथ रहे हैं और कितनी हो बातों में परस्पर
भग १६ मील है । आदान-प्रदान भी इनमें रहा है।
प्राचीन समय में जातिमें जो प्रमख अथवा मुखिया मखिया माने जाते होंगे और इसलिए उनके नामके साथ होता था वह चौधरी कहलाता था। आज भी जातिके चौधरी उपनाम उक्त मूर्ति लेखमें जुड़ा हुआ है। स०सम्पा० मुखियाको अनेक जगह चौधरी कहा जाता है। चौधरी १ देखिए, डा. फोगल कृत 'कैटालॉग ऑफ दि ऑर्को. जोधराज भी अपनी जातिके और गांवके प्रमुख एवं जॉजिकल म्यूजियम, मथुरा प ७३
NAPAN
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हिन्दूकोडविल
(बा. माईदयाल जैन, बी०ए०बी०टी०)
'हिन्दूकोडबिल' के नामसे प्रायः सभी लिखे जो असफल रहा । उनका विरोध अभी जारी है। पढ़े आदमी परिचित है। आजकल चर्चाका वह पर यह समझना भूल होगी कि सभी सनातन खास विषय बना हुआ है। भारतीय विधान परि- धर्मी इसके विरुद्ध है। उनमेंसे बहुतसे इस विचारके षदमें वह पेश हो चुका है और सिलेक्ट कमेटी उसपर हैं, कि बिलकी अच्छी अच्छी बातें पास की जायें अपना मत दे चुकी है। हमारी वर्तमान सरकार तो और बाकी दोषपूर्ण बातोंमें उचित सुधार, संशोधन उसे आगामी कुछ महीनोंमे ही पास करके कानूनका या परिवर्तन करके पास किया जाय । इसी विचारके रूप देनेपर तुली हुई है।
कुछ सनातनधर्मी नेताओंने, जिनमें गोस्वामी श्री हिन्दू समाज सम्बंधी सभी कानूनोंको इकट्ठा कर गणेशदत्तजी मुख्य हैं, एक संस्था "अखिल भारतीय के और उनमें कुछ नये परिवर्तन करके एक बहुत ही
हिंदू कोड बिल विचार समिति" दिल्ली में स्थापित को
है। इस समितिका विचार यह है कि हिंदूकोडबिल क्रांतिकारी रूपमे यह पास किया जारहा है। इस
के गुण-दोषोंपर विचार किया जाय । जिनपर यह बिलमें लिखी बातोंका सक्षेपमें कुछ परिचय तो
बिल लागू होता है, उनके धर्माचार्यों, नेताओं और आगे दिया जायेगा, पर यहां उसके बारेमे जो हल
विद्वानोंकी एक कान्फ स बुलाई जाय, और उसमे चल और विचारधारायें है, उनका भी कुछ हाल इस बिलपर विचार किया जाय और उसके मतानुदिया जाता है।
सार भारत सरकारसे इस बिलको पास कराया जाय। ___ पास होजानेपर यह बिल हिंदुओंके अतिरिक्त इस समितिका काम संयोजकका-सा है । जैनसमाज जैनों, बौद्धों, और सिखोंपर भी समान रूपसे लागू का सहयोग पानेके लिये इस समितिकी कार्यकाहोगा, इसलिये जैनोंको इसे खूब समझना चाहिये रिणी कमेटीमें श्राचाये श्रीविजयबल्लभ सरिजी,
और इसके बारेमें समयसे पहले ही अपना रवैया, ला० श्रीराजेन्द्रकुमारजी, ला. श्रीतनसुखरायजो, नीति और मत तय कर लेना चाहिये । वरना बिलके श्रीमती लेखवतीजी और इन पंक्तियोंका लेखक भी पास होजानेके बाद शोर मचाने, वावेला करने और है। हमारा प्रयत्न यह होगा कि जैनसमाजके तीनों पछतानेसे कुछ न बनेगा । पर मुझे यह देखकर सम्प्रदायोंके सभी विचारोंके धर्मविद्वानों, नेताओं बहुत खेद होता है, कि हम इस मामलेमें प्रायः और विद्वान् वकीलोंके परामर्शसे जैनसमाजका निश्चिन्त-से बैठे है और हमारी समाजके रवैया और मत इस समितिके द्वारा भारत सरकार तीनों सम्प्रदायों में इसके बारेमें कोई विशेष हलचल तक पहुँचाया जाय और जैनहितोंको रक्षा की जाय । या चर्चा नहीं है।
ऊपरके दो विचारोंके इलावा देशके विद्वानोंके सनातनधर्मी पुराने विचारके कुछ हिंदू स्वामी कुछ और मतोंका सार भी यहाँ दिया जाता है । जो करपात्रीजीके नेतृत्वमे इस बिलका तीव्र विरोध कर कि उपरोक्त समितिमें आये हुए पत्रोंपरसे लिये रहे है । पहले कुछ सत्याग्रह भी उन्होंने किया था, गये हैं।
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अनेकान्त
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कछ नेताओंका विचार है कि हिंदूकोडबिल जिस है जिनमें स्त्रीसम्पत्तिके बारेमें व्यवस्थाएँ हैं। भाग रूपमें पेश होरहा है, उसो रूपमे ज्यों-का त्यों पास सातमें तीन अध्याय और ३१ धाराओंमें उत्तराधिकिया जाय।
कार, वसीयतहीन उत्तराधिकार, और वसीयतद्वारा कुछ नेताओंका मत है कि भारत सरकारको उपलब्ध सम्पत्तिके बारेमें उत्तराधिकार सम्बन्धी ऐसा कोई कानून बनाने और धर्ममें हस्तक्षेप करनेका नियम है। भाग पाठमे १३ धारायें है जिनमें भरणअधिकार नहीं है।
पोषण(गुजारे) और उसकी रकमके बारेमे निर्देश है। कुछ नेताओंका मत है, कि वर्तमान भारत सर- भाग नोमे कुल दो धारायें है जिनमे नियम बनानके कारको ऐसा कानून बनानेका कोई अधिकार आधिकार और हिंदूकाडबिलमे संशाधन और खड
नोंके विषयमें वर्णन है। नहीं है।
भारत सरकारके कानूनो मंत्री माननीय श्री डा० इस बिलमे क्रान्तिकारीपनकी बातें एकपत्नीत्व भीमराव अम्बेडकर का विचार है कि इस सरकारको और एकपतित्व, असवणे विवाह, सगोत्र विवाह, यह कानून बनानेका वैसे ही अधिकार है, जैसे कि विवाहोंकी रजिस्ट्री होना, तलाक, लड़कियोंका पिता पहलेकी हिंदू, मुस्लिम और अंगरेजो सरकारें
म की सम्पत्तिमें अधिकार हाना आदि है। हिंद पोंके लिये पिछले कालमे कानन बनाती रहीं। जैन समाजके सभी पत्रोंको हिंदकोडबिलको पर सरकार उसमें उचित संशोधन करनेको तैयार समझकर उसपर चर्चा करनी चाहिये । और सभी है। वह इसको पास करना देश व हिंदू समाजके प्रतिनिधि संस्थाओं, विद्वानों, नेताओं और वकीलों लिये अत्यन्त आवश्यक समझता है।
को इसपर विचार करना चाहिये। हिदकोबिलका
___ मूल्य बारह आने है और "हिंदूकोडविल तथा उसका श्यक है।
उद्देश्य" का मूल्य चार श्राने है और ये दोनों पुस्तके ___ इस बिलका संक्षेपमें विवरण नीचे दिया नीचे लिखे पतेसे मिल सकती है:
१ डिस्टीट्यूशन अफसर, ___ इस बिल में नौ भाग, सात परिशिष्ट और कुल
पब्लिकेशन्स डिवीजन, १३६ धारायें हैं । पहिले भागमे कुल चार धाराये हैं।
गवनेमेट ऑफ इंडिया, इन धारओंमे बिलका नाम, सीमा विस्तार, काडका
ओल्डसेक्रेटैरियट, दिल्ली । प्रभाव और परिभाषायें श्रादि है। दूसरे भागमें तीन अध्याय और ४७ धारायें हैं। इसमे विवाह,
२ सरकारी पुस्तकोंके एजेंट पुस्तक
विक्रेताओंस। विच्छेद और विवाह सम्बन्धी अधिकारोंकी प्राप्त
आदिके बारमें धारायें है । भाग तीनमे तीन अध्याय जिन महानुभावोंको 'अखिल भारतीय हिंदूकोड २५ धाराय है जो गोदी लेनेसे सम्बन्ध रखती है। बिल विचारसमिति' को कुछ लिखना हो, वह उसके भाग चारमें नौ धारायें हैं और वं नाबालिगपन और पंच श्री लक्षमीदत्त दीक्षित ७/२० दरियागंज, देहली वलीपन (Iniuority and guardianship) के से पत्रव्यवहार करें। या मुझे अपने सुझाव लिखें. बारमें है। भाग पांच में पांच धारायें है जिनमे संयक्त जिन्हें में समिति के सामने रख सकू। परिवारके बारेमें विधान हैं। भाग छहमें तीन धारायें डिप्टीगंज, दिल्ली।
जाता है।
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इटावा जिलेका संक्षिप्त इतिहास
(ले० श्रीगिरीशचन्द्र त्रिपाठी, बी०ए० )
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इटावा जिलेका प्राचीन इतिहास अन्धकारपूर्ण है । परम्परागत विचारधाराके अनुसार कुछ लोग जमुना- चम्बल द्वाबेमें स्थित चक्रनगरको महाभारत का एक चक्र बताते हैं। यह अनुमान सन्देहपूर्ण है । आस-पास के बहुत से पुराने टीले, जिनपर प्राचीन काल में प्रसिद्ध नगर और किले स्थितं थे, अब भी वर्तमान है पर इनकी खोज नहीं हुई। कुदरकोट, मृञ्ज और आसईखेड़ा इनमें अधिक प्रसिद्ध है। १२ वीं शताब्दी मे राजपूतोंने जब मेवों तथा इस्माइली जानको खदेड़ दिया तो वे इन्हीं इलाकों में जाकर बसे । अनुमान किया जाता है कि प्राचीन समय में यह इलाका सेगर नदीके उत्तरमे घने जङ्गलोंसे ढका था । दक्षिणी भागमें जङ्गलसे ढके कितने खन्दक थे जो अब भी इस क्षेत्रके प्राकृतिक सौन्दर्यको बढ़ा रहे है ।
यहांके निवासियोंके विषयमें इतना ज्ञात है कि उनका सम्बन्ध मौर्य तथा गुप्त सम्राटोंसे था । ७ वीं शताब्दी के आरम्भ में यह इलाका हषवर्द्धनके राज्य में था की मृत्यु ( ६४ ई० ) के पश्चात् भारत में अशान्ति थी । कन्नौज में ८ वीं शताब्दीमें जिस साम्राज्य की स्थापना हुई वह १०१८ तक रहा बाद में महमूद गजनीने इसका अन्त कर दिया। मुसलमानों के यहांसे चले जानेके पश्चात् गहरबारोंने यहां राज्य स्थापित किया और यह जिला उनके आधीन था। कुदरकोटमें एक ताम्रपत्र मिला है जो १९५४ में चन्द्रदेव के शासनकाल में लिखा गया था । मूज और आसईखेड़ा के विषय में भिन्न भिन्न मत है। कुछ लोगों का कहना है कि ये वे ही किले है जिनपर महमूद गजनीने ई० १०१८ में हमला किया
था । वरन, कुलचन्दका किला तथा मथुरा लेने के बाद सुल्तान कन्नौजकी ओर बढ़ा और बहुत सम्भव है कि वह इसी जिलेसे होकर गुजरा हो । इसके बाद वह मृञ्जकी ओर बढ़ा। यहांके ब्राह्मणोंने मुसलमानोंका सामना किया पर जब उन्होंने अपने को असमर्थ पाया तो उन्होंने शस्त्र रख दिये । पर इनमें से बहुतसे मारे गए। अब सुल्तान आसईके किलेकी ओर बढ़ा। आसई उस समय हिन्दू वीर चन्दलभोर के अधिकार में था । चन्दल योद्धा था और उसने कन्नौज के रायसे भी युद्ध किया था । इसके किलेके चारों और जङ्गल था जिसमें विपैले सर्प रहते थे ।
महमूद गजनवीकी इस यात्रा से यह पता चलता है कि मूञ्ज और आसई कन्नौज के पूर्व में थे । मुसल मान इतिहासकारोंके वर्णनद्वारा इनको स्थितिका पूर्ण निश्चय नहीं किया जासकता ।
जमुना नदी के तटपर बसा हुआ इटावा नगर प्राचीनकालमें व्यापारका केन्द्र था जब रेल और हवाई जहाजों का प्रचलन नहीं हुआ था तब लोग नौका श्री मे बैठकर नदियोंके सहारे एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा किया करते थे । इस कारण नदियोंके तटपर बसे हुए नगरोंने काफी उन्नति की ।
इस जिलेके सम्बन्धमें प्राप्त ऐतिहासिक सामग्री से पता चलता है कि ब्राह्मणोंका इस जिलेमें काफी प्राधान्य रहा है। कनौजिया, लहरिया, संगिहा, सावण हिनारिया और लहरिया इन ६ घरानोंके ब्राह्मण इस जिलेमें जमींदार किसान और अन्य व्यवसायों द्वारा अपनी जोविका उपार्जन करते रहे है । इन ब्राह्मणों में ६ घरानोंकी अलग अलग जमींदारियाँ
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अनेकान्त
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हैं जिनमें सबसे बड़ी जमींदारी लखनाकी है। प्रभाव जम गया । भदौरिया राजपूतोंको अपने इटावेकी रियासतें
उत्कर्षका अवसर शाहजहांके शासनकालमें
मिला । कुछ लोगोंका मत है कि सातवीं इटावा जिलेमें क्षत्रियोंका काफी बोलवाला रहा
शताब्दीमें भदौरिया राजपत अजमेरकी तरफसे है। इटावा 'गजेटियरसे पता चलता है कि दिल्लीके
आये। कुछ लोगोंका कहना है कि ये चन्दवारके चौहान राजा पृथ्वीराजके वंशज सुमेरशाहने पहले चौहान राजपत हैं जो कालान्तरमें भदौरिया कहपहल इटावाको मेवोंसे छीन लिया। फरुखाबाद लाने लगे । १८०५ मे भदौरिया राजपतोंके मुखियाजिलेमें स्थित छिवरामऊसे लेकर जमुना नदी तट ने अंग्रेजोंके विरुद्ध इटावेमें बगावतकी थी इसके तक ११६२ गावोंपर समेरशाहने कब्जा कर लिया था
कारण उन्हें जिलेसे निर्वासित कर दिया गया। इस प्रकार समेरशाहने परतापनेर, चकरनगर और उन्होंने बड़पुरा नामक गांवमें शरण ली। भदौरिया सकरोलीके चौहान वंशकी नींव डाली। १८५७ में बड़पुराके अपने वंशजोंको इसी कारण आज भी जब भारतमें राज्य क्रान्ति हुई तो विद्रोहियोंका साथ अग्रपूज्य मानते है। देनेके कारण चकरनगर और सकरोलीकी जमींदारी इटावेमें कछवाहा राजपूतोंकी भी काफी संख्या है। अंग्रेजोंने जप्त करली। जसोहन और किशनीकी ये राजपूत औरैया और विधूनामें फैले हुए हैं। इस जमींदारी कालान्तरमें घटती गई और ये बहुत छोटे वंशके एक व्यक्तिने रोहतासगढ़का प्रसिद्ध किला से जमींदार रह गये।
बनवाया था। १५२६ ईस्वीमें कछवाहोंने ग्वालियर दसरो राजपत जाति संगरोंकी है जिसका औरैया राज्यके नरवर नामक स्थानको अपनी राजधानी तहसीलमें बोलवाला है। सेगरोंकी उत्पत्तिके सम्ब- बनाया। कहते है कि इसी वंशके एक व्यक्तिने जयन्धमें कहा जाता है कि ये डि-ऋषिकी सन्तान है। पुर राज्यकी नींव डाली थी। कालान्तरमें नरवरके एक किम्वदन्ती यह भी है कि कन्नौजके गहरवार कछवाहा शासक ग्वालियर राज्यके लहार नामक राजपूत राजा जयचन्द की पुत्री देवकलोके पत्र संगर स्थानमें चले आये और यहीं श्राकर बस गये जिसके
कारण लहारके आसपासका स्थान अभीतक कछवंशके संस्थापक है। देवकलीके नामसे औरैया अकबरके शासनकालकी कौन कहे ब्रिटिश शासन
वाहगढ़ या कछवाह घार कहलाता है। मे भी विख्यात रहा है। अकबरके शासनकालके
रियासत परतापनेर इटावेकी सबसे प्राचीन कागजातोंसे पता चलता है कि वर्तमान जगम्मनपुर जमींदारी है । इस रियासतके २१ मुस्सलिम मौजे के राजा अकबरके समयमें कनवारखेड़ाके राजा इटावा जिलेमें हैं और इस रियासतके कुछ गाँव कहलाते थे और कनवारखेड़ा एक परगना था। जालौन मैनपुरी जिलेमे भी है । परतापनेरके चौहान शासकों जिलेमें जगम्मनपुरसे दो मीलकी दूरीपर ध्वस्त कन- का इटवा, एटा और मैनपुरीमें सदियोतक दबदबा वारखेड़ा आजभी अपने प्राचीन वैभवोंको छिपाये हुए रहा है। कहते हैं सन् ११६३ ईस्वीमें दिल्लीके चौहान ध्वस्त अवस्थामें पड़ा है । इटावेके सेंगर वशके राजा पृथ्वीराजकी मृत्युके बाद करनसिंह सिंहासन शासक भरेह के राजा और रुरुके राजा है। पर बैठे। करनसिंहके पुत्र हमीरसिंहने रणथंभौर. भदौरिया राजपूतोंके सम्बन्धमें बतलाया जाता क किलका नाव डाला। कालान्तरम ।
के किलेकी नींव डाली। कालान्तरमें वे इस किलेकी है कि ये लोग आगरेसे इटावा पाये। मुगल शासकों रक्षामें ही मारे गये। उनके पुत्र उद्धवरावने ६ विवाह की इनपर कृपा थी इस कारण परतापनेर और किये जिससे १८ सन्तानें हुई। उद्धवराव जब मरे मैनपुरीके चौहानोंसे अधिक इन लोगोंका तब राज्यका नामोनिशान मिट चुका था। उनकी
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किरण ७८]
इटावा जिले का इतिहास
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सन्तानें अपने लिये उपयुक्त स्थानकी खोजमें थीं। ममय उसने अंग्रेजोंको बहुत मदद पहुँचायी थी। उन दिनों कानपुर फरुखाबाद, एटा, इटावा और चकरनगरके राजाने विद्रोहियोंका साथ दिया था मैनपुरीमें मेव लोगोंकी तूती बोल रही थी। सुमेरसिंह इसलिये अंग्रेजोंने जुहारसिंहको चकरनगरके कई (जो उद्धवरावके होनहार बेटे थे) ने एक छोटी-सी गाँव भेंट कर दिये थे । १८८६ ईस्वीमें राजा लोकेन्द्रसेनाका संगठन किया और मेर्वापर चढ़ाई करदी। सिंहकी मृत्यु हई और उनके पुत्र मुहकमसिंह गद्दोपर सुमेरसिंहके साथ चौहानोंको सामान्य सेना थी पर बैठे। मुहकमसिंह भी बड़ेशाह खर्च थे। रियासतको मेव उनके सामने न डट सके। सुमेरसिंह, जो राजा व्यवस्था इनके शासनकाल में बहुत खराब होगयी। होनेपर सुमेरशाह कहलाये, ने इटावेको अपनी राज- राजाका चरित्र भी अच्छा न था इस कारण इनकी राजा धानी बनाया और जमुनाके तटपर एक किलेकी की उपाधि भो छीन ली गई । मुहकमसिंह १८६७ में नींव डाली। यह वहो किला है जो इटावके टिकसी मर गये। उनके बादहुक्मतेजप्रतापसिंह परतापनेर मन्दिरके पास ध्वस्तावस्थामें अवस्थित है।
की गद्दीपर बैठे। हुमक्तेजप्रतापसिंह उस समय ___ सुमेरशाहने अपने एक भाई ब्रह्मदेवको राजाको नाबालिग थे। उनकी माने अपने पुत्रको नाबालगीमें उपाधि और राजौरका इलाका देदिया। दूसरे माई रियामतका सब इन्तजाम अपने हाथमें लेलिया अजवचन्द्रको चन्द्रवारका इलाका दिया। सुमरशा और उनकी व्यवस्थासे सन्तुर होकर अग्रेजीने १७ हकी आठवीं पीढ़ीमें प्रतापसिंह हुए जिन्होंनप रता- माच १६० में हकमतेजप्रतापसिंहको फिर राजाको पनेरका किला बनवाया। उनके पांच पीढ़ी बाद
उपाधि प्रदान की। गजसिंह हुए जिनका १६-३ ईस्वीमें देहान्त हुआ।
परतापनेर रियासतके इतिहासके साथ ही चकगजसिंहके चार लड़के थे । गजसिंहने अपनी रिया
रनगर और सहसा तालुकका इतिहास सम्बन्धित सत इन चार पुत्रोंमें बांट दी। सबसे बड़े लड़केका
है। चकरनगर राज्यका नींव सुमेरशाहके भाई नाम गोपालसिंह था जिनके हिस्समें परतापनेरका
त्रिलोकचन्द्रने डाली थी। त्रिलोकचन्द्रको ५ वीं पीढ़ी इलाका पड़ा। गोपालसिंह अभी अभी अच्छी तरह
मे चित्रसिह हुए जिन्होंने राजाकी उपाधि प्रहण की। सम्भल भी न पाय थे कि मुसलमानोंने उनपर
मन् १८०३ में इस राज्यके शासक राजा रामबक्शहमला कर दिया और उनके पास जो कुछ था सब
सिंह थे। इन्हांन स्वाधीन राजा होनेकी घोषणा की छीन लिया।
गोपालसिंहकी चौथी पीढ़ीमें राजा दरयावसिंह और अपने आपको शक्तिशाली बनानके लिये ठग और हए जिन्हें अग्रेजोंने राजाकी उपाधि देकर फिर पर- डाकुओका एक जबरदस्त गिरोह संगठित किया। तापने का राजा बनाया। राजा दरयावमिहके उत्त- अंग्रेज इनसे चिढ़े हुए थे ही उन्होंने रामबक्शसिंहराधिकारी चेतसिंह हए जिनके समयमे राज्यकी की रियासतपर कब्जा करनेक लिये फौजकी एक आर्थिक स्थिति बहुत खराब होगयी जिसके कारण टुकड़ी भेजी। राजा साहबने आत्मसमर्पण नहीं परतापनेर रियासतमें केवल ११ गांव रह गये। किया। वे चम्बल नदीको पार कर जंगलमें चले चतसिंह के बाद उनके पुत्र लोकेन्द्रसिंह रियासतके गये । अंग्रेजोंने रियासतपर कब्जा कर लिया बादमें मालिक हुए पर उनको बुद्धि कमजोर थी इस कारण केवल चकरनगर राजा रामवशसिंहको दे दिया उनकी तथा रियासतको व्यवस्था सब लोकेन्द्रसिंहके और बाकी जमींदारीपर 'प्रजोन कब्जा कर चाचा जुहारसिंहको सौंपी गयी। जहारसिंह अंग्रेजों लिया। सहसोंको १८०६ तक अमेजोने अपने का बहुत कृपापात्र था। १८५७ की राज्यक्रांतिके अधिकार में नहीं किया। चकर नगरके राजाके वंशज
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अनेकान्त
[वर्ष १०
केवल कुछ गांवोंके मालिक रह गये थे । १८५७ की १३० पूर्वी अक्षांश तक फैला है । इसके उत्तर में मैनराज्य-क्रान्तिके अवसरपर उन्होंने अंग्रेजोंकी जोरदार पुरी जिला, पवमें भर्थना तहसील, दक्षिणमे ग्वालिखिलाफत की, इस कारण अंग्रेजोंने उनकी रियासत यरकी सीमा तथा पश्चिमकी मीमा अनिश्चित-सी
को जब्त कर लिया। राजा परतापनेरके चाचा जुहार- है। उत्तर दक्षिण इस तहमालकी श्रीसत लम्बाई सिंह अंग्रेजोंके विशेष कृपापात्र थे, इस कारण चकर २० मील और चौड़ाई २२ मील है । इसका क्षेत्रफल नगरकी जमींदारीका अधिकांश भाग उन्हें दे दिया २७२७६४ एकड़ या ४२६-४ वगेमोल है। गया जिसपर उसके वंशज आजतक कायम हैं। पिछले ३० वर्षोंमें इस तहसीलकी आबादी बढ़ ___ भदावरमें भदौरिया राजपतोंकी तूती बोलती गई है । १८८१ मे यहॉकी आबादी १६३२५१ थी। रही है। बड़पुराके राव हिमचलसिंह बहादुरकी
बादकी गणनामे यह संख्या १६८०२३ हो गई। कामेथसे लेकर कधेसी (पर्गना भथना) तक रिया
१६०१ की गणनामें यहां २१६१४२ जन थे जिनमें सत थी। इनकी रियासत आगरे जिले तक फैली हुई
६६२५१ स्त्रियाँ थी। औसत आबादी ५०७ व्यक्ति थी जिसमें ५६ मुहाल थे। बड़पुरा इनका हेडक्वा
प्रति मील है और यह दूसरे तहसीलोंसे बहुत टर था और नरेन्द्रसिह बड़पुराके रावके नामसे
अधिक है। यदि नगरकी अबादी घटा दी जाय तो विख्यात थे। १८०४ मे जब राव नरेन्द्रसिंहने अंग्रेजों
औमत आवादी केवल ४०८ व्यक्ति प्रति मील के विरुद्ध विद्रोह किया तो अंग्रेजोंने उनकी रियासत
रह जायेगो । धमके हिसाबसे विभाजित करनेपर को डीन लिया। कंवल बडपरा उनके अधिकारमे १६४०१७ हिन्दू, १६६६३ मुसलमान, १९३३ जन. रह गया था। अंग्रेजोंन बादमें उसे भी छीनकर
२०३ भार्य, १६५ ईसाई, १५३ सिख तथा ८ नीलाम कर दिया। बाद में कई पीढ़ियोंके बाद कुछ।
पारसो है । हिन्दुओंमें अहीरोंकी संख्या सबसे गाँव दिये गये जिनपर भदोरियाका अब भी अधि.
__ अधिक है। कार है।
परगनाके रूपमें इटावाका नाम अकबरके समय मलाजनोकी रियासत भी इटाव में है जिसकी स्थापना आता है जब इसमें ७ टप्पा थे जिनके नाम हवेली. परिहार राजपूत जंगजोतन की थी। जब इस राज्यक सतौरा, इन्दवा, बाकीपुर, देहली, जाखन और करराजा महानिह पन्नाक राजासे लड़ते हुये मारे गये हल थे। इममे इन्दवा, जिसको अब कामैथ या बढ़तो उनके लड़के दीपमिह जालोन जिलेक सिद्धपुरा पुरा कहते है, हवेली और सतौरा अब इस तहसोलमें नामक स्थानमे भाग गये थे। दीपसिंहने लाहरके सम्मिलित है। देहली तथा करहल मैनपुरी जिले में राजा और सकरौलीके राजाकी लड़कियोंके साथ मम्मिलित हो गये है।। शादी की। १८५३ मे इन्होंने इटावा जिलेमे ८ गाँव जाखन-जाखन इटावा तहसीलका एक गांव खरीदे और राजाकी उपाधि ग्रहण की। इस छोटी है। उत्तरमै २६-४६ अक्षांश तथा पूर्वमें ७६-५३ पर सी जमीदारी के मालिक मलाजनीके राजा अंग्रेजोंके स्थित है। यह इटावास १८ मील उत्तर-पश्चिम है। बड़े भक्त रहे, इस कारण १८८४ में अंग्रेजोन इनकी १६०१ की गणनाके अनुसार यहांको आबादी राजाकी उपाधिको स्वीकार कर लिया।
२२७५ थी जिनमें प्रमुख राजपूत हैं जो इधर-उधर ___ इटावा तहसील इसी नामके परगनाका वृहत- गांवोंमें फैले है । इनमें नगला, रामसुन्दर, नगलातौर रूप है । यह इस जिलेका पश्चिमी भाग है और प्रमुख है। इस प्राचीन नगरकी स्थिति केवल एक यह २६-३८० अक्षांश उत्तरीसे लेकर २७-१० उत्तरी खेड़ासे ज्ञात होती है जो सौ वर्षसे स्थित है। इसअक्षांश तक तथा ७-४५० पर्वी अक्षांशसे ७६. की प्रसिद्धिका कारण यह है कि प्राचीन बादशाहीके
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किरण ७-८]
इटावा जिलेका इतिहास
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य
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समयमें उसके नामपर तहसीलका नाम पड़ा। १०, ११वीं शताब्दीका कहा जा सकता है । इस पत्र
बकवर-यह एक बड़ा गांव है जो २६-३६ श्र. में लिखा गया है कि हरिवोके पुत्र तक्षदत्तने अपने क्षांश उत्तर तथा ७६.१२ अक्षांश पूर्व स्थित है। यह पिताके स्मरणमें यह ब्राह्मणोंके वासके लिये दिया। इटावासे ५३ मील दक्षिण पूर्व रैया सड़कपर इसमें उन ६ ब्राह्मणोंका नाम है जो वहां रहते थे। स्थित है। १८७२ में यहां की आबादी २६५० थी जिन- राजाके नामका कोई उल्लेख नहीं है, इसकी लिखामें ब्राह्मण और मुसलमान प्रमुख थे। यहां ब्रिटिश बट स्थानीय महत्वकी है। कहा जाता है कि कुदर. अधिकारियों और भारतीयोंके साथ बहुत-सी लड़ा- कोटसे कन्नौज तक एक भूमिगत मार्ग था । इसमार्गइयां हुई।
में जानेका छोटा रास्ता जो अब भी स्थित है पाताल ___कनचौसी तहसील औरैया-यह ग्राम २६-६५ दरवाजेके नामसे प्रसिद्ध है। कोई भी इस मार्ग में नहीं अक्षांश उत्तरो ७६-२६ अक्षांश पूर्व मे स्थित है और गया है। एक कहानी है कि एक फकोरने इसके रहउससे कच्चीसड़क मिली है यह गांव विधनाके राज. स्यको जाननेका प्रयत्न किया। एक वत्ती और खाना पूतोंके अधिकारमें है। यहांके निवासी अधिकतर लेकर और एक लम्बी रस्सी अपने हाथमें लेकर वह मारवाड़ी धनी व्यापारी है।
यहां उतरा।३दिन ३रात यह रस्सी ढीली जाती कोटरा तहसील औरैया-यह गाँव २६-३३ अक्षांश रही और फिर रोक ली गयी। तबसे उस फकोर और उत्तर ७६-३३ अक्षांश पूर्व जिलेके दक्षिणी पूर्वी कोने रस्सीके विषयमें कुछ भी पता न चला।। मे औरैयासे कालपी जानेवाली सड़कपर औरैया वह किला जिसका भग्न अब भी खेड़ापर स्थित से ५ मील तथा इटावासे ४४ मील जमुनाके किनारे है वह अवधके गबनेर अलमास अलीखां जिसकी स्थित है । १८७२ में इसकी आबादी २७०५, १६०१ कचहरी यहां थी, उसके द्वारा बनवाया गया था। में आबादी घटकर २५६३ हो गई। इसमें ब्राह्मणों की इसमें १६ बुर्जियाँ हैं और यह ब्रिटिश सरकारको दे संख्या अधिक है।
दिया गया। पर तबसे इसकी प्रवनति होने लगी। कुदरकोट तहसील विधना-यह एक बड़ा गांव इसमें लगी गोलीक चिह्न अब भी पाये जाते है। है। उत्तरमें २६.४८ अक्षांश उत्तर ७६-२५ अक्षाश पहले यह एक शक्तिशाली स्थान था पर बादमें पूर्वमें स्थित है । इटावासे २५ मील उत्तर-पर्व कन्नौज यह आधा एक नोलके व्यापारीके हाथ बेच दिया जानेवाली सड़कपर स्थित है। यह बड़ा ही पुराना गया जिसने यहाँ एक फैक्टरी स्थापित को। दक्षिणी स्थान है। यहां पानका बाग था। इस सम्बन्ध में भागमें थाना स्थापित कर दिया गया। अब यह एक कहानी कही जाती है कि एक राजा अपनी थाना नहीं रहा। वहां स्कूलकी स्थापना की गई। सेनाक साथ इस स्थानसे जारहा था। उसको रानीके आजकल नगरके कई मकान इसको ईटोंसे बने हैं। कानका कुण्डल यहीं खोगया। स्थानीय देवीके बलसे १८७२ में कुदरकोटकी आबादी २५६७ थी, १६०१ में यह आभूषण शीघ्र ही मिल गया। इसलिये राजाने यह केवल २२२७ रह गई । इसमें जुलाहोंकी संख्या अपनी कृतज्ञता प्रकट करनेके लिये वहीं एक किला अधिक है जो कपड़े बुननेका काम करते हैं ।
दिया। आर तब उसका नाम कुण्डलकोट कदरेल तहसील भरथना-यह गाँव भरथना पड़ा, बादमें यही कुदरकोट होगया।
तहसोलके उत्तरमें २६:५६ अक्षांश उत्तर तथा ७६.५० ___कन्नौज साम्राज्यके समय यह प्रसिद्ध स्थान था। अक्षांश पूर्वमें स्थित है। यह इटाबासे २४ मील तथा १८५७ में पाए ताम्रलेखको लिखावटको देखकर उसे भरथनासे १४ मील दूर-भरथना ऊसराहार सड़क
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अनेकान्त
[वर्ष १०
पर स्थित है १६०१ में यहांकी आबादी ३१५० थी। पुराना कुआँ है जो बड़े ककड़ोंसे बना है। मालूम इसमें अहीर अधिक हैं।
पड़ता है कि ये टुकड़े किसी पुरानी इमारतसे ___ लखना, तहसील भरथना-लखना एक छोटा निकाले गये थे। कस्वा है । यह २६-४० अक्षांश उत्तर तथा ७६-११ इस खेड़ा में बहुतसे फर्स लगे हैं जो आधुनिक पूर्व भरथनासे सहसों जाने वाली रोडपर स्थित है। मकानोंके काममें लाये जाते हैं और जो यहां ३०,४० यह भरथना स्टेशनसे १० मीज तथा इटावासे १४ फीट नीचे तक मिलते हैं । मि० ह्य मने इस स्थानको मील दूर है। यह कस्बा भोगिनीपुर नहर के दाहिने मूञ्ज बताया है जो १०१८ में महमूद गजनीद्वारा किनारेपर स्थित है और इटावाऔरयाकी सड़कसे अधिकारमे कर लिया गया था। २ मील दक्षिणमें है । १८६३ में लखना तहसीलका बाली तहसील भरथना-यह एक बड़ा गांव प्रधान कार्यालय था। उसी बर्ष यह कार्यालय भर- जो २६-४४ अक्षांश उत्तर तथा ७-१७ अक्षाश पूर्व थनामें हटा दिया गया।
इटावास १४ माल पूर्व तथा भरथनास ४ मील है। मूज तहसील इटावा-यह गाँव इटावा-फम्- १९०१ में इसकी आबादी २-४७ थी जिनमें वैश्यों खाबाद रोडके निकट २६-५५ अक्षांश उत्तर ७०-११ और अहीरोंकी संख्या अधिक थी यहांपर प्राचीन अक्षांश पूर्व में इटावासे १४ मील उत्तर-पूर्व में स्थित खेड़ा है जिसके चारों ओर बिनसियाकं चौधरी जय. है । १८७२ में इसकी आबादी ६८४ तथा १९०१ में चन्दद्वारा बनवाई एक प्रचीर है। २६१६ हो गई । अहीर यहाँ अधिक हैं । प्राचीन सम- इटावा जिलेकी भूमि ऐतिहासिक सत्योंको यमें विस्तार तथा ऊंचाईको ध्यानमें रखकर यह खेरा अपने हृदयमें छिपाये पड़ी है। आसई खेड़ा, मृञ्ज, मज प्रसिद्ध स्थान जान पड़ता है। यहाँ के निवासी कुदरकोट और चकरनगरक खंडहरोंमें जैन मूर्तियां कहते है कि यह कौरव और पाण्डवोंका युद्ध स्थल और जैन साहित्यका कितना भंडार पड़ा है यह था। इसका उल्लेख महाभारतमें है कि इस अव- तो कोई अन्वेषो अनुसन्धानकर्ता हो बतला सकता सरपर राजा मुञ्ज जिसका नाम मूर्तध्वज था, अप- है। यदि यू.पी. की सरकार इन ऐतिहासिक स्थानोंकी ने दो लड़कोंके साथ राजा युधिष्ठिरमे नड़ा । इस ओर ध्यान दे तो बहुत-सी अप्राप्य ऐतिहासिक सामग्री सम्बन्धमें अबभी मूर्तध्वजके किलेके दो गुम्बजकी प्राप्त की जासकती है। क्या सरकारका ध्यान इस ओर संकेत कर लोग बताते हैं । खेराके उत्तर में एक ओर जायेगा ?
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जैन धातु-मूर्तियों की प्राचीनता
(ले० श्रीअगरचन्द नाहटा )
वीरवाणीके गत १७-१८३ अंकमें श्रीकमलेश- समयसुन्दर महोपाध्यायके घंघाणी तीर्थ के स्तवनाकुमार लुहाडियाका 'धातुओंकी मूर्तियोंकी दुर्दशा शी- नुमार मं. १६६२ के जे. सु. ११ को घंघाणी स्थानमें षेक लेख प्रकाशित हुआ है । उक्त लेखकी अन्य बातों दुधेला तालाबके खोखरदेहरेके भूमिगृहसे ६५ मूर्तिये पर मुझे विचार नहीं करना है केवल धातुकी मूर्तियों प्राप्त हुई थीं जिनमें तीर्थ कर प्रतिमा ४६ थीं। इनमें की प्राचीनताके सम्बन्धमें उन्होंने जो कुछ उल्लेख मूलनायक पद्मप्रभस्वामीकी मूर्तिपर सम्राट सम्प्रति किया है उसीपर यहां विशेष प्रकाश डाला जारहा ने वीरनिर्वाण स. २०३ के माह सुदी रविवारके है। आपका लिखना यह है कि "आप भारतवर्षको आर्यसहस्तिसूरि प्रतिष्ठित करानेका लेख खुदा था। एक एक मूर्तिका अवलोकन कीजिये आपको कहीं भी दूसरी उल्लेखनीय प्रतिमा अर्जुन नामक श्वेतसोने संवत १६००-१७०० से पहिले (की) कोई धातुकी की पाथ्वनाथ प्रतिमा थी जिसे सम्राट चंद्रगुप्तने मूर्ति दृष्टिगोचर नहीं होगी। यह धातुकी मूर्तियाँ बनावाई थी जिसका उल्लेख इन शब्दों में किया अभी २००-३०० वर्षसे ही प्रतिष्ठित होने लगी है।" गया हैयद्यपि धातुसे यहाँ उनका प्रधान आशय चांदो एवं घीसय तीडोतर वीरथी संवतसबल पंडूर । मोनेको मूर्तियोंसे है पर आगे चलकर पीतलको भी
पद्मप्रभप्रतिष्ठिया, आर्यसुहस्तीसूर । . आपने उसमे सम्मिलित कर लिया है। जहां तक
महातणी शुक्ल अष्ठमी, शुभ महूर्त रविवार । चांदीकी मतियोंका सम्बन्ध है मेरी जानकारीमे
लिपि प्रतिमापूठं लिखी, से यांची सुविचार । बहुत कम ही मर्तियें बनी हैं और वे अधिक प्राचीन मुलनायक धीजोवलि, सकल सकोमल देहोजी । नहीं हैं एवं निखालस सानेकी मूर्तिये तो बहुत ही कम प्रतिमा श्वेतसोनातणा, मोटो अचरिज्य एहोजी । होंगी पर पीतल व सोने आदि सर्व या पंच धातुओं
अरजनपास जुबारिये, अरजुनी पुरि सिणगारोजी के सम्मिश्रणसे बनी धातुको मूर्तियें ही हजारोंकी तीर्थकर तेवीसमो, मुक्तितणो दातारजी ॥ संख्यामें प्राप्त है एवं उनकी प्राचीनता बहुत अधिक
चंद्रगुप्त राजा हुओ, चाणाक्य दिरायो राजोजी । है। परवर्ती उल्लेखोंको सत्य माना जाय तब तो
तिण यह बिब भराबियो, सार्या प्रास्म काजोजी॥ सोनेकी मूर्ति बहुत पुराने समयमें बनती थी, सिद्ध
(विशेष जानने के लिये देखे प्राचीन जैन इतिहास भा. होता है पर ऐतिहासिक दृष्टिसे प्राप्त मूर्तियोंको । ध्यानमे रखकर विचार किया जाय तो भी धातकी ८, मुनि ज्ञानसुन्दरजी प्रकाशित) मूतिये २ हजार वर्ष पुरानी अवश्य हैं।
उपयुक्त वणनसे स्पष्ट है कि सोनेकी धातु प्रतिमा सतरहवीं शतीके श्वेताम्बर विद्वान कविवर करीब २२५० वर्ष पूर्वसे बनती प्रारही है पर खेद है . १ कविवर समयसुन्दरने शत्रुन्जयरासमें लिखा है कि मुसलिम साम्राज्यके अशान्त वातावरणके कारण
'चैत्य करायो रूपातणो, सोना ने विब सारो जी। ये प्रतिमाएं पुनः कहीं भंडारस्थ करदी गई है जिनका अर्थात् भरतक अष्टम वंशजने सोनेका विंब बनवाया था। प्रभो पता नहीं है। वर्तमानमें घंघाणीमें सं०६३७
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२७२
अनेकान्त
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की एक विशाल परिकरवाली धातुप्रतिमा ही मूलनायकरूपमें प्रतिष्ठित है। इसी मन्दिरमें अभी विद्यमान है।
कुछ वर्ष प्राप्त एक विशाल सपरिकर सुन्दर महावीर ___ उपलब्ध सबसे प्राचीन धातुमूर्तियोंमें बड़ौदा प्रतिमा व २ बड़े पीतलके घंट सं० १२३८ के राज्य के पुरातत्व विभागकी ३ एवं महूटीके कोट अवलोकनमें आये है। पार्क मदिरके महन्तके पास १, कुल ४ प्रतिमाए है।
___सबसे बड़ी धातु प्रतिमायेंजैन चित्रकलाके ममज्ञ श्रीयुत साराभाई नबाबके
__ आबूके निकटवर्ती अचलगढ़के श्वेताम्बर जैन लेखानुसार इनमेंसे एक तो ई० की प्रथम शताब्दीकी
मन्दिरोंमें धातुकी ५१ विशल मतियें हैं जिनमें से इसपर लेख भी खदा है जिसमें कल्पसूत्रोक्त चौमख मलनायककी बड़ी मर्तियोंका वजन प्रत्येक वैरिंगणका उल्लेख है। डा० हीरानंदजी शास्त्रोने इसे
का ५२० मनका कहा जाता है। समस्त प्रतिमाओं बौद्ध प्रतिमा १७ वीं सदीकी लिखा था जिसका
का वजन १४४० या १४४४ मन कहा जाता है। प्रतिवाद ब्लौकके साथ जैनसत्यप्रकाश व.५ अ.
मुनि जयंतविजयजीके अनुमार १२० मनवाली ५-६ में प्रकाशित है।
मतिये तो कुभलमेर, डुगरपुरादिसे आई है अतः वैसे गप्तकालकी कई जैन धातु मतिएं उपलब्ध उनका वजन तो पका तोलका (८० रु. सेर ) है है जिनमें एक बीकानेरके चिन्तामणजोक मांदरम है। पर १४४४ मनकी कहावत है। वह गुजरातीवजन इसी मंदिरके भूमिगृहम मीरोहोकी ५०५० धातु (४० रु० सेर ) की होना संभव है। मेरी जानकारी स जिनमें ७-८ शताब्दोकी भी धातुमति हैं। मे इतने वजन वालो धातु मतिये अन्यत्र नहीं है । सोरोही राज्य के बंसतपुरसे प्राप्त व वत्तमानमें पिंड- वैसे सरिकर बड़ी धातु मर्तियाँ श्रावूके मंदिरमें भी वाड़ामें अवस्थित प्राचीन धातुमतियोमे ८ मति ८वीं मिलती है। शतीकी है। इनमेस एक पर सं०७४४ लेख भी ह लहाडियाजीका यह लिखना मही है कि द्रव्यके जिसके सम्बन्धमे मुनि कल्याणविजयजीका लेख
लोभवश इन प्रतिमाओंको उठा लेजानेवाले बहत नागरी प्रचारिणी मभाके त्रैमासिक पत्रक नवीन मिलते हैं। इन पीतलकी प्रतिमाओंको सोनेकी मानसंस्करण भा. १८ अं.२ मे प्रकाशित है।
कर पुराने जमानेमे इनपर भी अत्याचार गुजारा गया बड़ौदा आदिकी प्राचीन धातु मतियोंके सम्बन्ध
था। इसके कतिपय ऐतिहासिक उल्लेख पाठकोंको में भाई नबाबका एक लेख भारतीयविद्या व.१ अं.
जानकारीके लिए यहां दिये जा रहे हैं। २व जैनसत्यप्रकाश व.६ अ.११-१२ में प्रकाशित है, जिज्ञासु उन्हें पढ़कर विशेष जानकारी प्राप्त कर
१. संवत् १६३५ मे तुरसमखानने सीरोहो सकते हैं।
लूटी तब वहाँके जैन मंदिरोंकी १०५० धातुआठवीं नवीं सदीकी कई लेखवाली प्रतिमाएं उन्हें गलाकर मोना निकलवानेके मति हमारे अवलोकनमे भी आई है पर उनमें उद्देश्यसे साथ ले ली और सम्राट अकभरको संवतका स्पष्ट उल्लेख नहीं। केवल लिपि व उनको भेंट किया। दूरदर्शी सम्राटने उन्हें एक कमरे कलाको पिसे हो निर्णय किया गया है। १० वीं में बांध करके रखदेनेकी आज्ञा देदी। फलतः कई सदीकी कई संवतोल्लेखवाली प्रतिमाये भी प्राप्त महीने वे वहीं पड़ी रहीं। श्रावक लोक उन्हें प्राप्त हुई हैं। अभी पालीके शाँतिनाथमन्दिरमें सं०६४४ करनेका विचार करते रहे पर सम्राटके पास जाकर की धातुप्रतिमा देखने में आई एवं गुप्तकालकी एक ले आनेके आत्मविश्वास व साहसकी कमी थी। बड़ी प्रतिमा श्रीभालनगरके महावीरजिनालयके अंतमें बीकानेरके मंत्रीश्वर कमचंद्रने महाराजा
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किरण ७-८]
जैन धातु-भूतियों की प्राचीनता
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रामसिंहजीकी मार्फत उन्हें प्राप्त की और बीकानेरके संघने पार्श्वनाथ प्रभुका जिनालय बनवाके उक्त वासुपूज्य मंदिरमें वे रखी गई । इनमें वासुपूज्य चमत्कारी मत्तिको उसमें स्थापित की हाल ही में में भगवान्की चौवीसी मति तो अब भी मंत्रीश्वरके घर उक्त मूत्तिका दर्शन करके आया हूँ । प्रतिमा गुप्तदेरासरके मंदिर में पूजित है। बाकीकी मूर्तियोंको कालकी मालूम देती है । एक कान कुछ कटा हुआ संख्या अधिक होने व नित्य पूजा करनेको असुभोता है। प्रवाद है कि खानने यह सोनेको हे या पीतल समझ उन्हें स्थानीय चिन्तामणि मंदिरके भूमिगृहमें की परीक्षाके लिये यह हिस्सा कटवाके देखा था। रखी गई है जिन्हें समय समय बाहर निकालकर ३. पिंडवाडेकी जिन आठवीं शतीको धातु पूजा की जाती है। हमने इन सब प्रतिमाओंके लेख मृत्तियोंका उल्लेख ऊपर किया गया है उनक अपने बीकानेर जैनलेखसंग्रह प्रन्थमें दिये हैं।
विषयमें भी मुनि कल्याणविजयजीने लिखा है कि२. मारवाड़का प्राचीन नगर व प्राचीन गुजरात "प्रस्तुत धातु मूर्तियाँ वि० सं० १६५६ में वसंकी राजधानी और श्रीमाल आदि जातियों के उत्पत्ति तगढ़के जैनमन्दिरके भूमिगृहमें थीं जिनका किसीको स्थल, भीनमाल नगरमें पार्श्वनाथप्रभकी सपरिकर पता नहीं था, परन्तु उक्त वषमें भयंकर दुष्कालका मर्ति है, जिसे मुसलमानोंके आक्रमणक समय भयसे
समय था, धनके लोभस अथवा अन्य किसी कारण भूमिगृहमे रख दी गई थी। संयोगवश मकान खोदत से पुराने खण्डहरोंकी तलाश करनेवालोंको इन जैन हुए उस भूमिगृहका पता चला व उसमें से उक्त पार्श्व .
मूर्तियोंका पता लगा। उन्होंने तीन बार मूर्तियोंके प्रतिमा, महावीरके पीतलमय समोवसरण, शारदादि
अंग तोड़कर उनको परीक्षा करवाई और उनके
सुवर्णमय न होनेके कारण मूर्तियोंको वहीं छोड़ ८ विद्यादेवियोंको मूर्तिये प्राप्त हुई । जब उसका
दिया। पता स्थानीय हाकिमको लगा तो उसने अपने सूबेदार यद्यपि उपर्यत उद्धरणोंसे लोभवश धातु मूतिजावालके गजनीखॉनको इसकी सूचना दी। उसने इन योंकी देशा करनेका प्रमाण मिलता है फिर भी जन धातु मतियोंको अपने यहाँ मंगवाकर इन्हें गलाकर मर्तिकलाको दृष्टिसे इन सर्व धातुकी मूर्तियोंका हाथियोंके गलेके घटे बनवानका विचार किया जनम्घ बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। एक ता धातु घसीजने उस बहत समझाया ४हजार रुपए तक घंटे न कर. ता कम है। अतः ये अधिक काल तक सुरक्षित वानेके लिए देनेको कहलवाया पर गजनीखांनने नहीं रहती है, लेख भी साफ खुदते हैं। दूसरे इनको माना और लोभवश लाख रुपये देनेको कहने बनानेमे खर्च कम पड़ता है। इसी कारण ये हजारोंकी लगा । श्रावकलोग निराश होकर आगये और संख्यामें प्राप्त है। छोटो होनेसे हरेक स्थानमें रखने जहाँ तक प्रतिमा प्राप्त न हो विविध अभिग्रह व लाने लेजानेमें भी सुभीता रहता है। कलाकी दृष्टि धारण किये । पर जांगसेठने तो अन्न खाना भी छोड़ से देखा जाय तो जितनी विविधता इनमें पाई जाती दिया। इधर अधिष्ठायकदेवने गजनीखांनको चम- है पाषाणकी मर्तियोंमें नहीं पाई जाती। एकल, कार दिखाया। शहर में मरकीका उपद्रव फैला व कायोत्सर्गस्थित, त्रितीर्थी, पंचतीर्थी, चौवीसी खांनको भी व्याधिने आ घेरा । प्रजाने भी मूर्तियोंको आदि प्रकार तो है ही पर परिकरादि बाह्य उपकरणों में भीनमाल पहुँचानेका अनुरोध किया अतः प्रभुको कलात्मक विशेषताएँ भी हैं। C.P.प्रान्तकी व गुप्तहाथ जोड़ क्षमा मांगकर खानने भीनमाल पहुँचादी। कालकी धातु मर्तिये बहुत ही मनोहर है । खेद है
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इनमेंसे कुछ लेख मूर्तियोंके ब्लाकके साथ हमारे सम्पा- दिव राजस्थानी पत्रिकामें प्रकाशित हैं।
विशेष जाननेके लिये जैनसत्यप्रकाश प० १२-१३ में प्रकाशित स्तवन देखें।
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अनेकान्त
[वर्ष १०
मर्तिकलाकी दृष्टिसे इनका व्यवस्थित अध्ययन म्बर धातु मूर्तियाँ भी बहुत मिलती हैं जिनमेंसे कई अभी नहीं हो पाया। गुजरातके श्रीउमाकांत प्रेमचन्द बहुत विशाल है। बीकानेरके वैदोंके महावीरजीके व शांतिलाल उपाध्यायादि जैनमर्तिकलापर वर्षोंसे मन्दिरमें एक ऐसी ही विशाल परिकरवाली दि० अध्ययन कर रहे हैं पर अभी उनका अनुभव प्रकाश जैन धातु मर्ति हमारे अवलोकनमें आई है । में नहीं आया। साराभाई व मुनि कांतिसागरजीका श्वेताम्बर मन्दिरोंमें कायोत्सर्गस्थित धातुकी विशाल भी अध्ययन सराहनीय है। पर इस सम्बन्धमें शीघ्र मामिलामोसे का जितनाथ ही एक स्वतंत्र ग्रन्थ प्रकाशित होना चाहिये । एक प्रतिमाका ब्लाक जैनसाहित्य मंशोधक खं०३ अ०१ बंगाली विद्वानका अंग्रेजी ग्रन्थ मोतीलाल बनारसी- में एवं कई अन्य मर्तियों के ब्लाक जैनसत्यप्रकाश एवं दास लाहौरने प्रकाशित किया सुना है पर मैंने भारतना जनशिल्पस्थापत्य ग्रन्थादिमें प्रकाशित है। उसे देखा नहीं । जैन समाजको इस परमावश्यक दि० विद्वानों का कर्तव्य है कि वे भी अपने मूर्तिकला कार्यकी ओर शीघ्र ध्यान देना चाहिये।
व शिल्पस्थापत्यका परिचयात्मक कोई ग्रन्थ प्रकामझे श्वेताम्बर मूर्तियोंका ही अधिक परिचय है, शित करवावें। अत: उन्हींपर यहाँ प्रकाश डाला गया है वैसे दिग
प्राचार्य विद्यानन्दका समय और स्वामी कीरसेना
(ले-बा० ज्योतिप्रसाद जैन एम.ए., एल-एल.बी.)
गत दशकमें धवला टीका समन्वित षटखंडागम दकोंनेभी उसे ही मान्य किया । अनेक प्रमाणों एवं साहित्यके सुसम्पादित प्रकाशनने उक्त महाकाय युक्तियोंके आधारपर मुझे वह तिथि कुछ सदोष टीकाके प्रकांड रचयिता 'लोकविज्ञ, वाग्मी, वादि- जंची और गहन गवेषणके उपरान्त मैने उसका वृन्दारक, कविवाचस्पति, सिद्धान्त महोदधिबंधक समय सन् ७८० ई० प्रतिपादित किया। केवल श्री
आदि विशेषणोंसे जिनसेनादि उत्तरवर्ती प्राचार्यो- प्रफुल्लचन्द्रजी मोदीने मेरे मतका हल्कासा प्रतिवाद द्वारा स्मृत वीरसेन स्वामीकी ओर आधनिक विद्वानों किया था। जिसकामैंने अपनी जान पर्याप्त सन्तोका ध्यान बरबस प्राषित कर लिया। उसके पजनक समाधान तुरन्त कर दिया। इसके पश्चात् विद्वान सम्पादक प्रो० हीरालालजीने प्रथम खंडकी मेरा एक अन्य लेख स्वामी वीरसेनके गुरुजनोंके विस्तृत प्रस्तावनामें आचार्य प्रवरके समय और इति
सम्बन्धमें प्रकाशित हुआ और उससे भी मेरे उक्त वृत्ति पर यथाशक्य प्रकाश डाला और उनके द्वारा मतकी पुष्टि हुई। किन्तु यद्यपि मेरे द्वारा निर्णीत धवलाकी समाप्तिका काल सन्०२५६ ई. निधारित २ श्रीधवसका समय-अनेकान्त व०७ कि.12. किया गया।' जयधवला और महाधवलाके सम्पा
३ अनेकान्त ८,१पृ. ३७ । षटखढागम-धवलाटीका १,११,प्रस्तावना पृ०
४ अनेकान्त ८,२०७॥ ५ जना पेन्टीक्वेरी १२, पृ.
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किरण ७८]
आचार्य विद्यानन्दका समय और स्वामी वीरसेन
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तिथिका कोई प्रतिवाद या निराकरण किमी भी विद्यानन्दके विद्यानन्दमहोदय और तत्त्वार्थश्लोकविद्वानने नहीं किया तथापि उसे स्वीकार करनेमें भी वार्तिक जैसे विशालमहत्वपूर्ण प्रन्थोंके वाक्योंको प्रायः सभी विद्वानोंने अभी तक मक अनिच्छा ही उदधत न करें। अस्त. उन विद्वानोंके विद्यानन्दसे प्रकट की है और प्रोफेमरसाहन द्वारा मान्य तिथि- कुछ पूर्ववर्ती ही होनेके कारण वैसा नहीं हुआ। को ही मान्य किये चले जाते हैं। केवल डा० ए. एन. विद्यानन्द के समयको इस प्रकार २० वर्षे आगे उपाध्येने अवश्य ही उसे स्वीकार किया प्रतीत नहीं मिले
तात नहा खिसका लेनके पश्चात् अपने एक अन्य लेख "वीर
। होता। उनका मत है कि वीरसेनकी धवला टीकाकी मेन स्वामीके स्वर्गारोहण समयपर एक दृष्टि"मे' समाप्ति जगत्तगके शासनकालमे (७६४.८०८ ई० कोटियाजाने जयधवलाके मम्पादकों आदि द्वारा के बीच) किमी समय हुई।
अनुमानित वीरसेनकी मृत्युतिथि ८.३ ई० को भो सन् १६४५ में मित्रवर पं० दरबारीलालजी
लगभग २० वर्ष आगे खिसका दिया। इस प्रसंगमें काठियाका विद्यानन्दका समय' शीर्षक एक लेख
कोठियाजीने एक पादटिप्पणीमें मेरे मतकी यह कहप्रकट हुआ था । उसमें उन्होंने अन्य अनेक विद्वान्
कर उपेक्षा कर दी कि "बा ज्योतिप्रसादने धवलाके द्वारा मान्य विद्यानन्दके समय सन् ८१६ ई. को
समय सन्बन्धमे जो नया विचार हाल में प्रस्तुत अमान्य किया था। और अपने मतकी पुष्टिम पं० किया है उसे अभी यहाँ छोड़ा जाता है। इस महेन्द्रकुमारजीके द्विपफ मतसे माग्रह विरोध करते
समयवृद्धि में कोठियाजीने यह हेतु दिया है कि हुए यह हेतु दिया था कि विद्यानन्दने अपनी तत्त्वार्थ
जयधवलाकी समाप्ति-प्रशस्तिके ३५ वें पद्यमें जिनश्लोकवार्तिकमे न्यायवार्तिकतात्पर्यवृत्तिटोकाकार
मनस्वामी कहते हैं कि “यह पुण्यशासन गुरुकी वाचस्पति मिश्रका हो उल्लेख किया है, जिन्होंने कि
आज्ञासे लिखा है। अतः वीरसेनस्वामी सन ८३७ अपना उक्त ग्रन्थ ८४१ ई० में समाप्त किया था। अत: विद्यानन्द का समय ८३५ ई० के लगभग प्रारंभ में जयधवलाकी समाप्तिके समय जीवित थे और होना चाहिये। अपने इस मतकी पष्टिमे आपने एक
उनका स्वर्गारोहण "८२३ में नहीं बल्कि जयधवला तक यह भी दिया था कि “दि विद्यानन्दका ग्रन्थ
की समाप्तिकं ममय (ई०८३७)के कुछ वर्ष बाद रचनाकाल ८१६ ए. डी. के करोब माना जाय तो
हुआ है।" और क्योंकि प्रन्थको गुरु-शिष्य दोनोंने वीरसेन स्वामी (२३ए डी के द्वारा धवला और मिलकर रचा था, दोनों ही उसकी प्रशस्ति लिखनेमें जयधवलामें तथा जिनसेनके द्वारा जयधवला साझेदार थे, गुरुने वृद्धत्वके कारण प्रशस्ति लिख
और श्रादिपराणमें विद्यानन्द या उनके नेका भार विनीत शिष्यपर छोड़ दिया, उनकी तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (८०६ से ८१० ।-डी-) आज्ञानुसार उनको अवस्थितिमे ही उन्हींने दोनोंकी आदि ग्रन्थोंके वाक्योंका उल्लख होना अनिवार्य ओरसे वह प्रशस्ति लिखो। आर सम्भव था । काइ वजह नहीं कि संकड़ा किन्तु उससे अगले ३६ वें पद्यमें स्वयं जिनसेन प्रन्थों और प्रन्थकारों तथा उनके वाक्योंका उल्लेख यह भी कहते है कि "गुरुके द्वारा विस्तारसे लिख करनेवाले वीरसेनस्वामी और जिनसेन स्वामी गये पूर्व भागको देखकर ही मैंने प्रन्थका उत्तर भाग अपनी विशाल टीकाओं-धवला और जयधवलामें लिखा है। इस कथनपरसे जयधवलाके विद्वान
Dr. Pathak's view on Anantviry. सम्पादकों तथा अन्य विद्वानोंने वह अनुमान -as Date Annals BoRI, P 164 jn. २ अनेकान्त ७, ८, पृ०६७।
१ अनेकान्त ८, ३, पृ० १४४ ।
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अनेकान्त
[ वर्ष १०
तब क्या वे उस समय यदि ३०-३५ वर्षके भी रहे हों तो अब सन् ८३७-३८ में लगभग ६० वर्ष के पर्याप्त वृद्वनहीं होगये होंगे ? और क्या जिन सेन की रचनाओं में किसी स्थलपर भी ऐसा स्पष्ट असंदिग्धमं केतमात्रका गुरुवंश ) की गुरुपरम्परायें निर्दिष्ट हरिवशकारके परदादा गुरु भीमसेनके शिष्य तथा शान्तिषेणके गरु जिनसेन प्रतीत होते हैं, जिन्होंने कि वर्द्धमानपुराण और जिनेन्द्रगुण संस्तुति आदि ग्रन्थ रखे होंगे। उल्लेखमें वर्णित विशेषणों का श्रादिपुराणकार के साथ कोई भी एकत्व नहीं है । उस समय यदि वे दीक्षित भी हो गये हों तो अधिक से अधिक १८-२० वर्षके युवक मात्र ही हो सकते हैं। इस हिसाब से भी अमोघवर्षके शासनकाल के मध्य में, ८५० के लगभग उनको मृत्यु होनेसे उनकी आयु ६० वर्ष के लगभग हो जाती है। संभावना तो उनकी ८५० के उपरान्त भी जीवित रहने की है और उस समय भी उनके प्रतिवृद्ध हो जानेका कस्कालीन श्राधारोंमें कोई संकेत नहीं मिलता। दूसरे, जो व्यक्ति ७८३ के पूर्व डी एक यशस्वी एवं प्रसिद्ध ग्रन्थकार तथा प्रौढ प्राचार्यों द्वारा सम्मान प्राप्त हो वह अपने जीवन के श्रेष्ठतम भाग ४०-४५ वर्ष व्यर्थ विना किसी साहित्य सृजनके ही गंवा दे, यह समझ में नहीं आता। इसके अतिरिक्त, सुदूर काठियावाड़के वर्द्धमानपुर में अपने प्रन्थको ७८३ में समाप्त करनेवाले हरिवंशकार उक्त ग्रन्थके प्रारम्भ में ही, जो उसके भी ७-८ वर्ष पूर्व हुआ होगा, दूसरे देश एवं राज्यके एक नवरवक ( इसमें भी शका है) साधुका तो स्वामी विशेषण के साथ ससम्मान उल्लेख करें और उसी प्रदेशवर्ती प्राचार्य विद्यानन्द, महाकवि स्वयम्भू आदि विद्वानों एवं पुराण
कारोंका तथा तत्कालीन अभिलेखोंमें उल्लिखित अनेक महान आचार्योंका जिक्र भी न करें यह असंगत-सा लगता है | बीरसेनके उल्लेखका काव्या तो स्पष्ट है, वे एक महान ग्रन्थकार प्रतिष्ठित प्रौढ प्राचार्य अनेक विद्वानोंके माननीय गरुसम थे। उनके साथ या पीछे जिनसेन का नामोल्लेख मो इस विषय में कोई सहायता नहीं देता । जब एक विद्वान अन्य विशिष्ट विद्वानोंका स्मरया करत
२७६
किया है, जो सर्वथा संगत है कि क्योंकि जिनसेन को प्रन्थका शेष भाग लिखने के लिये गुरुद्वारा रचित पूर्व साहित्यका अध्ययन करना पड़ा था। इससे स्पष्ट है कि गुरुकी मृत्यु बहुत पहिले ही होगई थी । परन्तु कोठियाजी इस प्रश्नक। समाधान इस प्रकार करते हैं कि “क्योंकि गुरुकी मौजूदगी में भी गुरु जैसी पद्धति को अपनाने के लिये जिनसेनने पूर्व भागका देखा होगा तथा वीरसन स्वामीने वृद्धत्वादिकं कारण जयधवलाके अगले कार्यको स्वयं न कर जिनसेनके सुपुर्द कर दिया होगा ।" अतः उन्होंने वैसा कथन किया है ।
अब प्रश्न यह है जब जिनसेन स्वयं यह स्पष्ट कथन कर रहे है कि उन्होंने गुरुद्वारा रचित साहित्यकाअ ध्यन करनेके पश्चात ही उनके द्वारा अधूर छोड़े हुए कार्यको पूर्ण किया। इतना ही नहीं, उन्होंने एक अन्य प्रौढ विद्वान श्रीपाल द्वारा जो सम्भवतया वीरसेनके साहित्य और शैलीस जिनसेन की भी अपेक्षा अधिक परिचित थे, सम्पादित करवाने का भी कष्ट उठाया। इस शेष भागकी रचना में भी उन्हें कुछ कम समय नहीं लगा, उसके लिये कम-से-कम १०-१५ वर्षका समय अनुमान किया जाता है। तो क्या स्वामी वीरसेन जैसे साहित्यिक महारथी निप्रन्थ तपस्वीन अपने जीवन के अंतिम १५-२० वर्ष शिष्य के ऊपर अपना भार डालकर स्वयं वृथा ही गँवा दिये ! मृत्युके लगभग २० वर्ष पूर्वसे ही वे इतन वृद्ध और अशक्त होगये थे ! और जैसा कि हरिवंश के उल्लेख के आधारपर प्राय: समस्त विद्वान् अभा तक यह मानत है कि स्वयं जिनसेन सन ७८३ में एक यशस्वी प्रन्थकर्ता एवं विद्वान थे '
१ इस विषय में मेरा मन तो कई वर्षसे यह रहा है कि हरिवंश में उल्लिखित जिमसेन आदिपुराणकार एवं बीरसेनशिष्य जिनसेन नहीं हो सकते। नामैक्य से ही विद्वान् इस भ्रम में पड़ गये हैं। हरिवंश में स्मृत जिनसेन स्वामी हो उसी ग्रन्थ में दी हुई पुबाट संघ ( अन्धकार
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किरण ७८ ]
भी है, जैसा कि सर्वथा संभव था, कि वीरसेन उस समय जीवित थे अथवा यह कि उनकी मृत्यु निकट पूर्व में ही हुई है ?
जहाँ तक उक्त ३५ वें पद्यका प्रश्न है, यदि उसके 'गुरु' शब्द से अभिप्राय स्वामी वीरसेनका ही और 'पुण्यशासन' पदसे केवल उक्त प्रशस्तिका डी मान लिया जाय तो भी क्या उससे यह आशय
और भी अधिक स्पष्ट एवं सद्भूत रूपमे ध्वनित नहीं होता कि जिस समय वीरसेन स्वामीका अन्त समय निकट था उन्होंने अपने भक्त, प्रतिभाशाली, बालशिष्य जिनसेनको अपने समीप बुलाकर कहा होगा " वत्स, हमारा अन्त समय अब निकट है, जीवनकी आशा शेष नहीं है। हमारे जीवनभरको दीर्घ साधनाका परिणाम ये धवल जयधवल ग्रन्थराज । धवलको हो हम पूर्ण कर चुके किन्तु जयधवलका लगभग एक तिहाई भाग ही रच पाये हैं। हमारे इस अधूरे कार्यको पूर्ण करनेका भार तुभपर है । तुम्हीं इस कार्यका निर्वाह करनेके उपयुक्त प्रतीत होते हो, किन्तु अभी उसके योग्य नहीं हो । हमारे द्वारा रचित धवला तथा जयधवलांशका और यहाँ संगृहीत तत्सम्बन्धित विपुल साहित्यका गंभीर अध्ययन मनन कर लेनेके पश्चात जब इस कायके लिये आवश्यक उपयुक्त प्रौढ योग्यता अपने में अनुभव करो तब इस कार्य को हाथ में लेना और इसको समाप्तिपर उसी प्रकार अपनी प्रशस्ति भी दे देना जैसे कि हमने धवलाके अन्त में दी है। हमारा आशीर्वाद है कि तुम इस काय में सफल होगे । " अस्तु गुरुकी मृत्युके लगभग ५० वर्ष पश्चात प्रायः है तो यह जरूरी नहीं कि वह कालक्रमानुसार ही करे । स्वयं हरिवंशकारने ही इस नियमका स्वयं निर्वाह नहीं किया, आदिपुराणकारने भी अकलंक, ओर श्रीपाल के पश्चात उनसे बहुत पूर्ववर्ती पात्रकेसरिका स्मरण किया । शिलालेखादिकों में भी अन्यन्त्र ऐसा बहुधा हुआ है (देखिये मुख्तार साहबका लेख अनेकान्त १, २, पृ० ६७ ।
श्राचार्य विद्यानन्दका समय और स्वामी वीरसेन
२७७
गुरुकी ही आयुको प्राप्त होकर जिनसेन स्वामी जयधवलाको पूर्ण कर गुरु ऋणसे उऋण हो रहे थे तो वीरसेनस्वामीके उसी वाटनगरस्थ' चन्द्रप्रभ जिनालय के प्रन्थोंसे भरे कक्ष में संभवतया गुरुके ही आसनपर बैठे हुए उन्होंने स्वर्गवासी गुरुकी उम अन्तिम प्रज्ञाका पालन कर अपने आपको अहोभाग्य माना हो ।
होता है कि वे वीरसेन और जिनसेनको विद्यानन्द कोठियाजीके उपरोक्त लेखोंसे तो ऐसा प्रतीत क्योंकि यदि वे आचार्य आगे पीछे होते तो उनके के प्रायः पूर्ण समकालीन बनाये रखना चाहते हैं; प्रन्थोंमें एक दूसरेका उल्लेख होना कोठियाजी के मतानुसार अनिवार्य था, कोई वजह नहीं थी कि ऐसा न होता । किन्तु परस्पर उल्लेखकी बात तो समकालीन रहते भी संभव है जैसा कि स्वयं कोठियाजीने अपने हालके लेख में स्वयं स्वीकार किया
है, परन्तु वहाँ अपने उपरोक्त तर्कके बिल्कुल विपसिद्ध कर दिया है। मालूम होता है नैयायिक विद्वारीत तर्क द्वारा स्वयं ही उल्लेखाभावको संभव भी नोंका तर्क दुधारी तलवार है, जिसका बार दोनों ओर होता है ।
किन्तु क्या यह सच है कि ऐसा कोई उल्लेख ही नहीं हुआ ? विद्यानन्द और जिनसेनने अवश्य ही एक दूसरेका कोई उल्लेख नहीं किया । वीरसेन ने भो विद्यानन्दका कोई उल्लेख नहीं किया, किन्तु क्य । विद्यानन्दने वीरसेनका भी कोई उल्लेख नहीं किया ? किसी प्रतिष्ठित विद्वान् ने यह कथन किया
१ जैना एंटीक्वेरी भाग १५ जिल्द २ पृ० ४६ | इस लेखमें हमने धवल जयधवल के रचनास्थलको सुनिश्चित रूपसे चीन्हा है। उक्त स्थानके विषय में विद्वान अभी तक संशयित एवं अनिश्चित थे । इस लेखमें प्रतिपादित तथ्यों से भी बीरसेन स्वामीके समय सम्बन्धी हमारे मतकी भती प्रकार पुष्टि होती है ।
२अनेकान्त १०, ३, ४० ६१ ।
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अनेकान्त
[वर्षे १०
था कि 'अष्टसहस्रीके अन्तमें विद्यानन्दने वीरसेन जैन अजैन विद्वानोंके खंडन-मंडन तथा उल्लेख स्वामीकी प्रशंसा की है और उन्हें तार्किक-प्रवादि अथवा उल्लेखाभावके आधारपर आपने विद्यानन्द मदवारण कहा है ।' यह उल्लेख तो मेरे पास नोट की पूर्वावधि सुरेश्वर मिश्रका समय (७०८.८२०) किया हुआ है किन्तु दुर्भाग्यसे उसका सन्दभ नष्ट और उत्तरावधि वाचस्पति मिश्रका समय (८४१ ई०) होगया और यह स्मरण नहीं पाता कि कब किस निश्चित करते हुए उनका समय ७७५-८४० निर्णय विद्वानने किस लेख या प्रसंगमें यह कथन किया किया है। इस प्रकार उन्होंने विद्यानन्दकी पूर्वाव. था, हाँ अष्टसहस्रीके' अन्तमे प्रशस्तिरूपसे धिको तो अपने पूर्व निति समयसे ६० वष पीछे निम्नोक्त तीन पद्य अवश्य उपलब्ध होते हैं
लौटा लिया किन्तु उसके अप्रत्यक्ष अधारपर जो श्रीमदकलङ्कशशधरकुल विद्यानन्दसंभवा भूयात् । वीरसेनकी मृत्य तिथिको एकदम बढ़ाकर ८४० के गरुमीमांसालंकृतिरष्टसहस्री सतामृद्ध्यै ॥३॥ लगभग कर दिया था, उसे वहीं रहने दिया। वीरसेनाख्यमोसगे चारुगणानयरत्नसिधुगिरिसततम् अपने मतकी पुष्टिमें कोठियाजीने श्रष्टसहस्रीके सारतरात्मध्यानगे मारमदाम्भोदपचनगिरि गहरयितु ॥२॥ अन्तमें दी हुई उपरोक्त प्रशस्तिके प्रथम और तीसरे कष्टसहस्त्री सिद्धा साऽष्टसहस्रीयमत्र मे पुष्यात् । पद्यको भी उद्धृत किया है । किन्तु वीरसेनके शश्वदभीष्टसहस्री कुमारसेनोक्तिवर्धमानार्था (नर्वा) ॥३॥ उल्लेखवाले उक्त दूसरे पद्यको उद्धृत नहीं किया।
संभव है इस प्रशस्तिके द्वितीय मध्यम-पद्यके उसके सम्बन्धमें आपने लिखा है कि "इन दो पद्यों आधारपर ही वैसा कथन किया गया हो। इस पद्यमें के मध्यमें जो कन्नड़ी पद्य मुद्रित अष्टमहस्रीमें पाया आचार्य विद्यानन्दने स्वामी वीरसेनकी भाग जाता है वह अनावश्यक और असंगत प्रतीत होता प्रशंसा ही नहीं की है वरन उनके स्वर्गस्थ हो जाने- है और इस लिये वह अष्टसहस्रीकारका नहीं का भी स्पष्ट उल्लेख किया है।
मालूम होता।" अपने हाल में ही प्रकाशित लेख 'श्रा० विद्या- कन्नड़ी भाषाका विशेष ज्ञान तो मुझे नहीं है नन्दके समयपर नवीन प्रकाशमे'२ कोठियाजीने वि- किन्तु कन्नड़ी अभिलेखोंके अवलोकनसे जो उसका द्यानन्दके समयसम्बंधी अपने पूर्वोक्त मतको उलट आभास है उससे मेरी ममममें तो यह नहीं पाया दिया है और विद्यानन्दद्वारा वाचस्पति मिश्रके कि इस पद्यमें कौनमा विशिष्ठ कन्नड़ीपन है, शायद उल्लेखसम्बंधी अपनी भूलको स्वीकार करते हुए संस्कृत--कन्नड़ी उभयभाषा विशेषज्ञ इस प्रश्नपर अन्य विद्वानोंद्वारा विद्यानन्दके अनुमानित प्रकाश डाल सकें । मुझे तो इसके आगे पीछेके दोनों समय' को ही प्राय: मान्य कर लिया है। पूर्वापर संस्कृत पद्यों तथा विद्यानन्दके ग्रन्थोंकी सामान्य । अष्टसहस्री निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, ११ । भाषामें और इस पद्यकी भाषा और विन्यासमें कोई
ऊपरी भेद दिखाई नहीं पड़ता वैसे विद्यानन्द पृ०२६५ । - २ अनेकान्त १०,३, पृ०१७।
स्वयं कोटकके निवासी तो थे ही और उसी देशके
गंगवाडि राज्यमे रह कर ही उन्होंने अपने प्रन्थोंकी ३ सी० एम० एफ० (दी क्रानोलाजी श्राफ इंडिया)-१० ई० अकलंकके पूर्व अनुमानित समय श्राधारपर प्रो० पाठक, व सतीशचन्द्र विद्याभूषण७५०ई०, ७८८ ई. के आधारपर; उसी आधारपर विद्याभूषण वा० कामताप्रसाद, पं० महेन्द्रकुमार-मादि-सत्यवाक्यके मख्तारसाहब आदि विद्वान वीं शताब्दीका पोर्द्ध प्राधारपर-१६, प्रो. हीरालाल-उसी आधारपर ८ वी अष्टसहस्रोमें कुमारिल (७००-७६०) के उल्लेखोंक शताब्दीका अन्त अथवा नवींका प्रारंभ, इत्यादि ।
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किरण ७-८1 आचार्य विद्यानन्दका समय और स्वामी वीरमेन
२७६ रचना की थी। यह पद्य केवल मुद्रित अष्टसहस्रीमें ऐसे कथनके प्रक्षिप्त होनेकी कोई संभावना भी नहीं ही पाया जाता है यह बात भी तभी कही जा सकती है, क्योंकि इसमें जिस घटनाका उल्लेख है उसके है जब अष्टसहस्रीकी समस्त उपलब्ध प्रतियोंकी तुरन्त उपरान्त तो उसके प्रक्षिप्त होनेकी संभावना जाँचपड़ताल कर यह निर्णय कर लिया जाय कि प्रा. शायद हो भी सकती है सो भी स्वयं ग्रन्थकारद्वारा चीनतम एवं प्रामाणिक प्रतियोंमेंसे किन किनमें यह ही, अन्यथा ऐसी बातको लेकर किसी असम्बपद्य है और किनमे नहीं। रही उसके अनावश्यक धित आचायके असंबन्धित ग्रन्थम किस
और अमंगत होने की बात सो प्रशस्तियों में कोई व्यक्ति द्वारा पीछेस घटा बढ़ो करनेका शायद निश्चित क्रमिक विषयविवचन तो होता नहीं।
एक भी दृष्टान्त नहीं मिलेगा । धवला-जयपहले पद्यमे वे अपना, अपने ग्रन्थका तथा अपने
धवलादिमें जिनऐनादि द्वारा ऐसा किया आदर्श अकलंकदेवका गुरुरूपमे' नामोल्लेख
जाता तो शायद अमंगत न भो होता। और फिर करत है, तोसरे पद्यमें उक्त ग्रन्थको रचनामे आचार्य
यदि वह घटना उक्त ग्रन्थको समाप्तिके लगभग कुमारसेनकी साहाय्यके लिये उनका आभार प्रदशित
३० वर्ष बाद की हो, जैसा कि कोठियाजी का करते है, और दसरे पद्यमें एक ऐसी ताजा घटनाकी
मत है, तो इस असंगत अनावश्यक अन्यभाषामें
निबद्ध क्षेपकको इस प्रकार एक असंबन्धित ग्रन्थमे सूचना देते है जिसने उनके हृदयको अत्यधिक
प्रविष्ट करनेका कष्ट भला कोई क्यों करेगा ? अतः प्रभावित किया था और जो तत्कालीन जैन इतिहास
इम पक्षक अष्टमहस्रीकी प्रशस्तिका मौलिक अङ्ग मे अधिक महत्वपूर्ण थी। उसी समय अथवा
तथा स्वय विद्यानन्दकी कृति होनेमें कोई सन्देह कुछ ही पूर्व समीपस्थ राष्ट कूट राज्य के निवासी
नहीं है, और इससे स्पष्ट हो जाता है कि अष्टसहमहान धवलादिक ग्रन्यांक प्रसिद्ध रचयिता, साथ मीको समानिस कुछ ही पूर्व स्वामी वीरसेन स्वगस्थ ही विद्यानन्दकी स्वयंको प्रवृत्तिके अनुकूल उद्भट हा थे। वाग्मी और वादिवृन्दारक भी, स्वामी वीरसन जैस
इमी पद्यकी दमरो पंक्तिका 'मार' शब्द और प्रथम वयोवृद्ध महान आचार्यकै स्वर्गस्थ होनेकी सूचना पटाकी प्रथम पंक्तिकाशशधर'शब्द भी ध्यान देने मिलती है, तब उसका उल्लेग्द न किया जाना अमं- योग्य है जिनके सम्बन्धमे मैं आगे प्रकाश डालूगा। गत हाता या किया जाना ? ग्रन्थ समाप्त हो ही दमक पर्व कोठियाजीकी अन्य कुछ शंकास्पद युक्तियों चुका था, उसका विषय भी ऐसा नहीं था कि कही का भी विवेचन करलेना उचित होगा। अन्यत्र उसमे ऐसी सूचना खप सकती, अतः एक (१) कोठियाजीन विद्यानन्दका समय ७७५परम साधीवत्मल महान आचायेका एक अन्य ईनित किया है, किन्तु इससे यह स्पष्ट और भी अधिक महान आचायक निकट निधनका नही होता कि यह उनका ग्रन्थरचनाकाल है या पूण अपने ग्रन्थकी उसी समय लिखी जानेवाली प्रशस्ति मनिजीवन है अथवाजन्मसे मृत्यु पर्यंत पूर्ण जीवन है में उल्लेख कर देना कम-स-कम उसके लिये तो और कमारसनका समय ७५० अनुमन करत हुए अनावश्यक हाना नहीं चाहिय था । अत्तु, जब इस उसे विद्यानन्दकी पूर्वावधि ठहरात हे दूसरी आर पद्यकं अष्टसहस्रोकारका होनमे बाधक चारों हेतु सुरेश्वर मिश्र ७८८ ८२०) को, साथ ही ७७६में उन्हें
हो निस्सार सिद्ध हो जाते है तो उसके उन्हींकी कुमार अवस्थाको भी प्राप्त हुया नहीं बताते और • कृति होनेमे भी कोई आपत्ति नहीं रहनी चाहिये। ७.३मे उनका बालक होना प्रतिपादन करते हैं। और ऐसे हो उल्लेखोंक श्राधारपर विद्वान उन्हें
. . चकि श्लोकवार्तिककी रचना ८१० में निश्चित
चकि. अकलंकका साक्षात शिष्य समझने लगे।
करत हैं इससे एसा प्रतीत होता है कि आपके मता
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२८०
अनेकान्त
|वर्षे १० नसार विद्यानन्दका प्रन्थ-रचना काये ८०० के सुरेश्वर उनके प्रधान शिष्य और सहयोगी थे, वे पश्चात् ही प्रारंभ हुआ। आपका यह कथन भी इम ८४० के लगभग तक भले ही जीवित रहे हों किन्त बातकी पुष्टि करता है कि क्योंकि आदिपुराणकार ७८०-८८ के लगभग भी वह एक वयस्क साहित्यिक जिनसेनकी वृद्धावस्थाके समय ऐसा हा इसीलिए एवं कार्यकत्ता होसकते हैं। इन दोनों उन्होंने इनका कोई उल्लेख नहीं किया किन्तु हमारे तिथि प्रकट करनेवाला कोई तत्कालीन निश्चित भागामी विवेचनसे यह स्पष्ट हो जायगा कि उनका अभिलेखीय या साहित्यिक प्रमाण तो है नहीं इसके प्रन्थरचनाकाये ७७५ ई०के लगभग ही प्रारंभ हुआ अतिरिक्त, अपने पूर्व रचित ग्रन्थमें भो विद्वान होना चाहिये।
किसो ऐसे समकालीन. ममवयस्क, निकट क्षेत्रीय इस अनुमानमें केवल सुरेश्वर मिश्र ही एक तथा समान विषयके विद्व नकी किसी महत्वबाधा हैं। कोठियाजीने सुरेश्वर मिश्रका समय पूर्ण उक्ति या मतको पीछे से दुहराते समय भी स्थान जो ७८८-८२० कथन किया है वह वास्तवमें सुरेश्वर दे सकता है जिसके आम्नाय या मत परम्पराका के गुरु शंकराचार्यका है। शंकराचार्यके समय खंडन-मंडन एवं पालोवना उसका इष्ट विषय हो । सम्बन्धी जो अनेक विभिन्न मत है उनमें बहुमान्य (२) वाचस्पति मिश्रका समय ८४१ निश्चित मत ८८-८२० इ० है । और इसीपरसे श्री पी०बी० मानकर विद्यानन्द द्वारा उसकी असमालोचनाके अणेने सुरेश्वरका कायकाल ८००-८४०३० निधारित आधारपर उनको उतरावधि ८४०ई० निवारित करन किया है । विद्यानन्द सुरेश्वरके उत्तरवती तो थे ही में भी बाधा है। वाचस्पति मिश्रने उद्यातकरके न्यायनहीं किन्तु समवालीन रहत भी यदि उन्होंन सुरेश्वर वार्तिकपर अपनी तात्पर्यवृत्ति टोका लिखनेके उपरान्त के प्रन्थके उद्धारण दिये है तो उनका रचना काल ८०० जो न्यायमचीनिबंध लिखा है उसमें उसने २८ से पूर्व प्रारंभ हुआ नहीं दीख पड़ता ' परन्तु अन्य वत्मर (शक) अर्थात् सन् ८४१ ई. को तिथि दी प्रबल एवं पुष्ट प्रमाणकि विरोधम यह बाधा इसलिए है। उससे पूर्व वह तीन ग्रन्थोंकी और रचना कर नहीं खड़ी रहती कि प्रथम तो होसकता है कि विद्या- चुका था। अपने प्रथम प्रन्थमें ही उसने जयन्तभट्ट नन्दद्वारा सुरेश्वरका नगण्यसा मतोल्लेख उसी प्रकार का अपने गरुरूपमें उल्लेख किया है। अब भ्रमपर्ण सिद्ध होजाय जैसा कि वाचस्पतिमिश्रका जयन्त वाचस्पति मिश्रके चाहे प्रायः समकालोन भी हा है। दूसरे शंकराचार्य ८८ से ८२० तक अवश्य हो तथापि विद्यानन्दद्वारा उन दोनोंके उल्लेखाभावक रहे यह तो शायद कहा जासकता है किन्तु व ७८८ धारपर विद्यानन्दकी उत्तराधि ८२५ ई. से ऊपर १५.२० वर्षे पूवमे भी एक प्रतिष्ठित प्राचार्य नहीं थ, जानकी संभावना नहीं है। यह नहीं कहा जासकता। वस्तुत: ऐसा अनुमान
(:) कुमारसेनका समय जो ७५० ई. अनुमान करनेके पर्याप्त कारण हे ८८ मे ता व कांचीम बोद्धा किया गया है वह भी भ्रामक है। यह उनको के सामूहिक निकामनके प्रधान निमित्त बन थे।
पूर्वावधि तो होसकती है पर उत्तरावधि नहीं । ७८०.८ में उनको ख्याति चरम सीमाको प्राप्त थी।
७३ में हरिवंशकार जब उनका स्मरण वीरसेनक १५० केलाशचन्द्र-न्याय कु.च, भाग,प्रस्तावना। साथ माथ कर रहे हैं तो उस समय वीरसेनको
२ तत्त्वविन्दुको रमास्वामी शास्त्रा कृत भमिका । संभव है अन्य विज्ञान मुरेश्वरका समय भी ७८८-८२० भाँति कुमारसेन भी जीवित होमकते हैं बल्कि जैमा ही मानते हों' जैसा कि काठियाजीक संदमसे प्रकट
विद्यानन्दके प्रावासस्थल श्रीपुर और शंकर होता है।
२ हमारा लेख-अकलंक अनुतिक महाराज हिम सरेश्वरक शृगेरीमठमें कुछ मीलोंका ही अन्तर था। शीतब-जे.के. एच० भार० एस०।
२५. महेन्द्रकुमार-अनेकान्त २,१, पृ० ६।।
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किरण ७८] प्राचार्य विद्यानन्दका समय और स्वामी वोरसेन
२८१ कि स्वयं कोठियाजी द्वारा उद्धृत हरिवशके वाक्यसे नहीं है कि विद्यानन्दने विद्यानन्दमहोदय, तत्वार्थझलकता है कि उस समय गरु कुमारसेनका यश श्लोकवार्तिक तथा अष्टसहस्रीको क्रमशः रचना की सर्वत्र फैल रहा था। तथा जैसा कि विद्यानन्दकी और उनके पश्चान प्राप्तपरीक्षा; युक्त्यनुशासनाउक्त प्रशस्तिके तीसरे पद्यसे स्पष्ट ध्वनित होता है कि लङ्कार, प्रमाणपरीक्षाकी । सत्यशासनपरीक्षा. पत्रउनकी अष्टमहस्त्री कमारसेनकी उक्ति (प्रत्यक्ष वाचनिक परीक्षा तथा श्रीपुरपार्श्वनाथ स्तोत्र भी इन्हीं की माहाय्य) से वर्द्धमान हुई,इस विषय में मन्देह प्रतीत रचनाएं हैं। इनमेंसे विद्यानन्दमहोदय अनुपलब्ध नहीं होता कि वे उस ममय जीवित थे। अन्य विद्वान है और अन्तमें उल्लिखित तीन रचनाओं में कोई वैसा भी इस कथनसे प्रत्यक्ष सहाय्यका ही आशय लेते हैं। नामोल्लख बताया नहीं जाता। जब कमारसेन ७८३ में जीवित थे तो उसके १०-१५ युक्त्यनशासनकी अन्तिम प्रशस्तिमें दो बार वर्ष और बाद तक भी वे जीवित रहे हों इसमें क्या 'श्रीसत्यवाक्याधिप:' पद पाया है, प्रमाणपरीक्षा बाधा है ? यदि अष्टसहस्रा:००ई०के पूवकी रचना के मङ्कलपद्यमें 'सत्यवाक्याधिपः पद मिलता है ठहरती है तो उसमें उनका प्रत्यक्ष माहाय्य मिलना और आप्तपरीक्षाके १२३ वें श्लोकमें 'सत्यवाक्य' पूर्णतया संभव है धारवाड़ जिलेके मलगडस्थानस्थ शब्द प्रयुक्त हुआ है। विद्यानन्दके ये समस्त पद जिनालयके शिलालेखमे राष्टकट नरेश कृष्णवल्लभ प्रयोग श्लिष्टरूपमें ही हुए है और उनके एकाधिक (कृष्ण द्वि०) द्वारा सन् ६०२-१०३ ई० में सेनवंशी अर्थ बनते है । वास्तवमें विद्यानन्दने प्रमाण परीक्षा कुमारसनके शिष्य और वीरसेनक शिष्य कनकसन सत्यशासनपरीक्षा आदिमें स्वयं अपना नाम भी को क्षेत्र प्रदान किये जानेका उल्लेख ह २ । यदि इन श्लिष्ट रूपमें ही दिया है । इसोम मुख्तारसाहब कनकसेनके दादागुरु कमारसन हमारे ही कुमारसेन आदि विद्वान उक्त सत्यवाक्य शब्द को विद्यानन्दका हा ता उनका समय ८०० ई० के लगभग हो ही उपनाम. उपाधि अथवा विशेषण ही मानते थे । सकता है । ऐसा प्रतीत होता है कि य कुमारमेन किन्तु बा० कामताप्रसाद, प्रा. हीरालाल, पं०महन्द्र वीरसेन स्वामीके सधमो अथवा प्रारंभिक शिष्य कुमार और अब काठियाजी भी उस गंगवशक एक और जिनसेन स्वामीकं बड़े गुरुभाई तथा वीरसेन नरेश विशेषक नामका सूचक अनुमान करते हैं । द्वितीयके गुरु थे। डा० उपाध्ये द्वारा प्रकाशित सन- वस्तुतः एक लेखकद्वारा लगातार अपन कई अन्यो वंशकी पट्टालिमे धवलादिक कर्ता वीरसेन जिनमेन एक ऐसे पदविशेषका प्रयोग जो एक तत्कालीन एव
आदि के साथ जिन वृद्ध कुमारसेनका उल्लेख मिलता तत्पदेशी नरेशक नामका भी सूचक हो निरा संयोग है व भी ये ही कुमारसंन प्रतीत होते है । मात्र ही नहीं हो सकता। विद्यानन्द गंगवाड़िके ही (४) अब रह जाती है बात विद्यानन्दको रचना
निवासी थे इस बातकी पुष्टिमे प्रमाणोंका अभाव आम तत्कालीन नरेशांका नामोल्लेख करना नहीं है और उस कालमे केवल गगवशमं ही सत्यकि उनका तथा उनके प्रन्थों की रचनाका समय
वाक्य उपाधि धारी नरेशोंक होनेका पता चलताइजिन निश्चित रूप कर देते है । इस विषय में कोई मतभेद
की संख्याचार है किन्तु इन सत्यवाक्यांमस,सत्यवाक्य
द्वितीय भी मन ८०० इ० में मिहानारूढ़ हुआ था, १ हारवश-५-३८-'गुरो: कुमारसेनस्य यशो अजितात्मक विचतिः
अतः श्रीपुरुष मुत्तरसका पौत्र, शिवमार द्वि० सैगोत २E. I-I 9116121901011 का भतीजा और उत्तराधिकारी तथा विजयादित्य F. Fireet.
अनेकान्त ३, १५ पृ. ६३० । ३J.A.-X1,2 P. 1.
२ अनेकान्त १२, पृ.६.
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२८२ अनेकान्त
[वर्ष १० रत्न विक्रमका पुत्र गंगनरेश राचमल्ल मत्यवाक्य चलता'। यह पाश्वजिनालय श्रीरंगपुर पट्टन प्रथम परमानदि जिसका शासनकाल ८१५ से ८५० के उत्तरमें वर्तमान नानमंगल तालुकेके भीतर श्रीपुर ई० तक रहा विद्यानन्दद्वारा उल्लिखित सत्यवाक्य नामक स्थानमें विद्यमान था, और इसे पल्लवाधिराज था इसमें कोई सन्दह नहीं रहता।
की पौत्री तथा परमगुल निगुडगजकी धर्मपत्नी तत्वार्थश्लोकवातिककी अन्त्य प्रशस्तिमें उन्होंने कण्डच्छी देवीने निर्मित कराया था । देपरहल्लो इसी प्रकार 'शिव' पद प्रयोग किया है। उसमे उल्लि- ताम्रपत्र भी श्रीपुरके इम भव्य जिनालय के निर्माण खित 'शिवसुधाधारावधानप्रभुः', 'मज्जनताऽऽय:' का उल्लेख करता है । श्रीपुरुष मुत्तरसके गज्यके तथा 'तीव्रप्रतापान्वितः' आदि नाम एवं गुण-सूचक ५० वें वषका एक ताम्रशासन सन् ७७६ ई० में उक्त पदप्रयोगोंके प्रसंगसे यह स्पष्ट हो जाता है कि गंगनरेश द्वारा इसी जिनालयको उदार दान दिये उनका अभिप्राय शिवमार नामक गंगनरेशसे है जो जानेका वर्णन करता है। इसी दानपत्रमें जो उक्त श्रीपरुषके पुत्र एवं उत्तराधिकारी शिवमार द्वितोय जिनालयके निमोण के थोड़े काल पश्चात हो लिखा
गोतके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हो सकता। गया है, नन्दिमंघक चन्द्रन्द्याचाय तच्छिष्य कमारकोठियाजीने भो कई एक अच्छी युक्तियों एवं तर्को नन्दि, तच्छिष्य कीत्तिनन्दि एवं तच्छिष्य वि द्वारा ऐमा हो सिद्ध किया है, जिसमें कछ भी अनौ- चन्द्राचार्यका भी नामोल्लेख हा है। या चित्य या असंगति नहीं दीख पड़ती।
प्रतीत होता है कि नन्दिसघके इन आचार्योंका उक किन्तु ठीक उन्हीं युक्तियों और तकौक बलपर श्रीपुर स्थानस विशेष एव स्थायी सम्बन्ध था। ये अष्टसहस्रीकी अन्त्य प्रशस्तिक दृमरे 'मध्यम) विमलचन्द्र अकलङ्कदेवके सधमा पुप्पण के विद्यापद्यकी द्वितीय पंक्तिमे प्रयुक्त 'मार' शब्दको श्री- शिष्य विमलचन्द्र ही प्रतीत होते है, जिनके कि परुषके द्वितीय पुत्र मारमिह दुगामार एयरप्प लोक- दादागुरु कुमाग्नन्दि वीरसेनस्वामीके विद्यागक त्रिनेत्रका जो कि शिवमारके पश्चात कुछ काल तक एलाचायेके भी गुरु थे, और जिनका कि उल्लेख गंगवाडिका राजा रहा था, सूचक मानने भा कोइ स्वयं विद्यानन्दने अपनी प्रमाण परीक्षामे 'तदुक्तं आपत्ति नहीं होनी चाहिये। वैसा होना विद्यानन्द कुमारनन्दिभट्टारकः' के साथ उनके कुछ श्लोक की शैलीके सवथा उपयुक्त ही है। ओर 'सत्यशासन
१ बगरप्रांतस्थ बेसिन जिलेके सिरपुर स्थानमें परीक्षा के नामसे ही सत्य शब्द होनेसे यह संभव अन्तारक्ष पाश्वनाथका एक भव्य दिगम्बर जिनालय लगहै कि उमकी रचना सत्यवाक्यक हो शासनकालमें
भग ५३००ई० का है जिसमें १४०६ का एक सस्कृत शिलालेब भी है (T W Haig-some Inses.
from Berav I.21) प्राय: विद्वानोंको इस मन्दिर विद्यानन्दका श्रीपुरपाश्वनाथम्तोत्र भी गंग- के साथ उपरोक्त श्रीपुरपाय जिनालयका भ्रम होजाया राज्यमें स्थित श्रीपुजिनालयके श्रीपार्श्वनाथको करता है। लक्ष्य करके रचा गया था इसमे कोई मन्दह नहीं है, २ B. L. Rice- My. cg. P. 39, Report क्योंकि ऐसा एक जिनालय गंगराज्यकी सोमा ।
A.S Mysore-1914. भीतर ही और स्वयं तत्कालीन गंगनरेशों द्वारा ३ Rice-Coorg Inses.-E.C.-T. थामस पजित उस समय विद्यमान था, तथा उस प्रदेशमें
फाक्स (the pollivas-jras-18:3221) ने भी एक
पल्लव राजकुमारी कुण्डब्वे द्वारा श्रारंगपुर (श्रीरगपट्टन) और उसके आस-पास दूर-दूर तक उस समय ही के उत्तरमें सन् ७७६-७७ के लगभग एक भब्य जिनालय नहीं उसके सौ-दो-सौ वष इधर-उधर भी इस नाम के निर्माणका उल्लेख किया है। के किसी अन्य जिनालयके होनका पता नहीं L. ricc-I.A.-II p. 155-161
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किरण ] आचार्यविद्यानन्दका समय और स्वामी वीरसेन
२८३ उद्धृत करते हुए किया है । क्या आश्चर्य है कि समय शंकराचार्यने पल्लवराज्यकी सीमाके भीतर ये विमलचन्द्राचार्य ही विद्यानन्दके दीदा गुरु हों शृंगेरीमें अपना प्रथम एवं प्रधान पीठ स्थापित किया
और इसी तत्कालीनकर्णाकस्थ नन्दिसंघसे ही था और उसका संचालक एवं प्रबन्धक उन्होंने अपने उनको सम्बन्ध हो । उनके नामका नन्द्यन्त पद तथा प्रधान शिष्य सुरेश्वर मिश्रको नियुक्त किया था। विमलचन्द्र के उल्लखके थोड़े समय पश्चात ही उसी यह स्थान श्रीपुरके बहुत ही निकट दक्षिणकी ओर श्रीपुर स्थानके साथ उनका प्रत्यक्ष संबंध होनेसे और अवस्थित था । उस समय कांचीके बौद्धोंने ब्राह्मण इस अनुमानके विरोधी किसी स्पष्ट प्रमाणका सद्भाव धर्मके साथ विशेष उत्पात मचा रक्खा था। अतः न होनेसे इसे ठीक ही माननेका प्रलोभन होता है। शंकर और सुरेश्वरने शृंगेरीपीठको प्रधान केन्द्र ऐसा प्रतीत होता है कि उक्त दानपत्रके कुछ ही प. बनाकर पल्लव प्रदेशके बौद्धोंके विरुद्ध जोरदार श्वात् विमलचन्द्राचार्यका या तो स्वर्गवास हो गया जिहाद छेड़ दिया और अन्ततः ७८८ ई. में उन्हें अथवा वे अन्यत्र चले गये और विद्यानन्दने स्वयं सामूहिक रूपमें कांचीसे निर्वासित होकर लंकाक उसे अपना स्थायी निवासस्थान बना लिया। और कैन्डो नामक स्थानमें जाकर बसनेपर मजबूर कर उक्त जिनालयके पार्श्वजिनेन्द्र के प्रथम दर्शनके समय दिया । किन्तु जैनोंके साथ भी यद्यपि शंकरका ही उन्होंने अपना प्रसिद्ध स्तोत्र रचा। यह घटना सैद्धान्तिक एवं दार्शनिक विरोध था तथापि उनके श्रीपुरुषके राज्यकालकी सन् ७७६-७७ की ही प्रतात साथ उसका और उसके अनुयायियोंका सामाजिक होती है। श्रीपुरशब्दमें श्रीपुरुषका नामांश आ ही मोहा द्र ही बना रहा। अतएव इससे स्पष्ट प्रतीत जाता है और किमो अन्य नरेशकी और उसमें संकेत होता है कि शृगेरी मठकी स्थापनाके प्रायः सायली भी नहीं है। उनके गुरु विमलचन्द्रका नाम भी, साथ स्याद्वादविद्यापति आचार्य विद्यानन्दने भी यदि उनके ग्रन्थोंका इस दृष्टिसे अवलोकन किया उसके समीपस्थ श्रीपुरमें अपना अडडा जमाया। जाय तो संभव है कहीं न कहीं श्लिष्टरूपमे अवश्य शंकराचार्य आदिका वहाँ जमाव ही उनके भी वहीं मिले, विशेषकर उनके प्रार्थामक महान ग्रन्थ विद्या- जमनेमे प्रेरक हुआ, और बहुत संभव है कि विद्यानन्दमहोदय में उनका उल्लेख होनेकी अधिक संभा- नन्दके महान व्यक्तित्व, उत्कृष्ट सौजन्य, अद्ध त वना है। विद्यानन्दद्वारा श्रीपरको उसो समयके विद्वत्त्व एवं उद्भट वाग्मिता एवं तार्किकताके प्रभाव लगभग अपना निवास स्थान बना लिये जानेका नेहो शंकराचार्य के विद्वष रूपी विषसे तत्कालीन समथन एक अन्य दिशास भी होता है। प्रायः इसी --------
L. Rice-Mysore (revised ed.) p (३०)न्याय कु० च. भाग १, प्रस्तावना पृ० ११३, 408.409. इन्हों पुष्पषेणके एक शिष्य वादीसिह अपर नाम परवाद मल्ल थे जो 'शत्रभय कर' कृष्ण प्रथम (७५६-७७२) के
२ देखिये संदर्भ १८।। समकालीन थे, गद्य चिन्तामणिके रचयिता और प्राप्तमी- ३ उसी नागमंगल तालुकेके कम्बदहल्ली स्थानकी मांसाके स्रष्टसहस्त्रीसे पूर्व टीकाकार थे । पात्रकेसरि, अक- शान्तिनाथ बसदिमें प्राप्त लगभग १००० वर्ष पूर्वके एक लंक और श्रीपालके साथ साथ आदि पुराणकारने इनका अभिलेखके अनुसार स्वयं शवोंने जनोंको कतिपय विशेषाभी स्मरण किया है। पार्श्वनाथ चरितमें भी इनका स्मरण धिकार प्रदान किये थे। (Report A. S. Mysore किया गया है। उद्धरवत्ती कनसेन वादिराज, अजितसेन, 1915,G. B.P. 13)स्वयं अंगेरीमें कई जैनमंदिर वाभसिह, सोमदेव शिष्य वादिराज आदि सर्व प्राचार्य थे वहाँकी पार्श्वनाथ वसदिमें प्राप्त १५६१ का जनउनसे भिन्न हैं। डा० सालतोर इन वार्दाभसिंह को विमल- अभिलेख उक्त स्थानमें प्राप्त अभिलेखोंमें सर्व प्राचीन है। चन्द्रसे अभिन्न प्रकट कर रहे हैं। (M. G.P.36) (Ilid 1916,j B. P. 135, वीं शदीमें जनों जो सम्भव है।
और शैवोंमें मेल था (6. Bno74)
इन्ही पुष्पा शत्रुभय चिन्तामणिकरा पात्रकेसान इन
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अनेकान्त
[ वर्ष ०१
जैनधर्मको रक्षाकी बल्कि उसे सौहाद्रमें परिणत कर पूर्वी चालुक्योंकी शक्ति प्रवृद्धमान थी। इस प्रकार दिया ।
उपरोक्त विवेचनके उपरान्त अब विद्यानन्द एवं उनकी रचनाओंके समयको और ठीक ठीक निश्चित करनेके लिये तत्कालीन इतिहास पर भी एक दृष्टि डाल लेना आवश्यक है ।
Eat शताब्दीके मध्य में दक्षिण भारतके राजनीतिक क्षेत्रमें तीन ही प्रधान शक्तियाँ थीं-गंग, पूर्वीचालुक्य और राष्ट्रकूट। इनमें से राष्ट्रकूट शक्ति द्र तवे सर्वाधिक शक्तिशाली एवं विस्तार प्राप्त होती गई । श्रीपुरुषका राष्ट्रकूटोंके साथ निरन्तर द्वन्द्व बना रहा। सन ७६८ में राष्ट्रकूट कृष्ण प्रथमने श्रीपुरुषकी राजधानी मान्यपुरपर भी कुछ समयके लिये अधिकार कर लिया था, किन्तु श्रीपुरुषने उसे पुनः शीघ्र ही प्राप्तकर लिया था । ७७६-७७ के लगभग श्री पुरुषकी मृत्यु होगई अथवा उसने राज्य त्याग कर दिया । उसके तीन पुत्र थे- शिवमारसैगोत जो अपने पिता के समय, सन् ७५४ में हो कदुम्बुरका प्रान्तीय शासक था और उसके पश्चात शिवमार द्वितोय सैगोतके नामसे सिंहासनारूढ हुआ। दूसरा पुत्र मारसिंह दुग्गमार एयरप्प था जो अपने पिताके समय कोवलनादका प्रान्तीय शासक था । तीसरा पुत्र विजयादित्य रणविक्रम था जिसका पत्र गंगनरेश रायमल्ल सत्यवाक्य प्रथमके नामसे प्रसिद्ध हुआ ।
सन् ७२६ ई० में शिवमार प्रथम नवकामका पौत्र श्रीपुरुष मुत्तरस पृथ्वीकोंगुरिण परमानद प्रजापति मूल गंगवंशकी पश्चिमी शाखामें गंगराज्य का अधीश्वर हुआ । उसके राज्य के ५० वर्ष तकके अभिलेख मिलते हैं और इस प्रकार उसने सन् ७७६-७७ तक राज्य किया इस विषय में प्रायः समस्त विद्वान् एक मत हैं । वह परम जैन था किन्तु अन्य धर्मोके प्रति भी उदार एवं सहिष्णु था, ब्राह्मणादिकों को भी उसने दान दिये थे । साहित्य में भी उसकी रुचि थी, हस्तियुद्धप्रणालीपर उसने गजशास्त्र नामक ग्रंथ रचा था । वह भारी योद्धा था और उसका प्रायः समस्त जीवन युद्धोंमें ही व्यतीत हुआ था। उसके दीर्घ शासनकालने वैजयन्तीके चीन चालुक्य वंशका अस्त और नवोदित राष्ट्रकूट शक्तिका उदय देखा । कांचीके पल्लव भी हतप्रभ होगये थे किन्तु वेंगीमें
७७७ के लगभग जब शिवमार द्वि० गद्दीपर बैठा तो उसके भाई मारसिंहने उसके विरुद्ध विद्रोह किया, वह स्वयं राजा होना चाहता था, किन्तु सफल न हो सका और पूर्ववत् कोवलनादका हो शासक बना रहा । पिताके दीघशासनकालके कारण इस समय ये दोनों भाई भी औरङ्गजबके पुत्रोंकी भाँति प्रायः वृद्ध हो चले थे । इधर कुछ समय के लिये राष्ट्रकूट- गंग द्वन्द्व भी शान्त होगया था, जिस का कारण यह था कि राष्ट्रकूट स्वयं अन्तरकलह में
१ केवल प्रो० नरसिंहमाचर उन्हें प्राप्त एक अन्य श्रभिलेखके श्राधारपर राज्य काल की अन्तिम सीमा ७८८ ई० निर्धारित करते हैं (M. A. R - 918 para 16). किन्तु यदि उनका अनमान किसी प्रशमें ठीक भी हो तो भी ७७६ के पश्चात् श्रीपुरुषके राज्य करते रहने की कोई सभावना नहीं । यह हो सकता है कि उस वर्ष उसकी मृत्यु हुई हो और वह तक भी जीवित रहा हो, किन्तु ७७६-७७ में वह राज्यकार्यसे अलग अवश्य होगया । वह एक परम जैन था, २० वर्ष राज्य कर चुका था, श्रतिवृद्धि हो चुका था श्रतः संभवतया राज्य एवं उल गृहस्थका त्याग कर उसने अपना शेष जीवन श्रीपुर आदि किसी तीर्थस्थानमें रत रहते हुये विताया हो । इस वंशक कई अन्य राजानोंने भी ऐसा किया है नरसिंहराजपुर से प्राप्त ताम्रपत्रों में श्रीपुरुष और उल्लेख शिवमार दोनोंके द्वारा एक जैनमन्दिरको दान देनेका है (j. B. P. 143 )।
हुए थे। राट्रकूट नरेश गोविन्द द्वि० प्रभूतवर्ष विक्रमालोक (७७२ - ७७६ ) के विरुद्ध उसके भाई ध्रुव
१ गंगों की प्राचीन राजधानी तलकांड या ताक्षवनगर थी और नवींन अथवा उप राजधानी मान्यपुर थी ।
२ ]. A-X||, 6 P. 5, W.j P. 174M., uy. cg. P. 39, 55.
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किरण ७८] प्राचार्य विद्यान्नन्दका समय और स्वामो वीरसेन ने विद्रोहका मा खड़ा कर दिया था । गोविन्दने का गुबो ताम्रपत्र भी गंगराज्यकी सीमाके भीतर ध्रवके विरुद्ध गंगनरेशसे सहायता मांगो। वगि, कां- हो लिखाया गया कहा जाता है। चूकि मारसिंहने ची.मालवमादि नरेशोंके साथ शिवमारने भी गो- ध्रवका विरोध नहीं किया था, अतः राष्टकटोंने उसे विन्दकी सहायता की। किन्तु ध्रवने इन सबको परा- शेष गंगवाडिपर अपना अधिकार स्थापित कर लेने स्त कर दिया, गोविन्दका भी संभवतया उस युद्ध में दिया और वह तलकांडमें राज्य करने लगा। शिव अन्त होगया और सन् ७७६ ई. में भ्रव धारार्ष मार अवश्य ही उससे रुष्ट था और अपने दसरे
भाई विजयादित्यको अपना स्थानापन्न तथा उत्तरानिरूपम श्रीवल्लभ राष्टक्ट मिहासनपर आरूढ़ हुआ। माम्यखेट उस समय राष्टकूटोंकी राजधानी नहीं थी, धिकार वनाना चाहता था (वह स्वयं निस्सन्तान था).
किन्तु शत्रके हाथों बन्दी रहनेके कारण उसकी एक उस नगरका तो उस समय अस्तित्व भी नहीं था।
न चलो। इधर मारसिंहने भी अपने आपको प्रकउस समय उनकी राजधानी संभवतया एलोराके
टतः पूर्णपसे राजा घोषित नहीं किया। अपने एक निकट सोलुभंजन थी और नासिकके निकट मयूरखं
अभिलेखमें तो अपने लिये युवराज शब्द ही प्रयुक्त डी नामक दुर्गमें ध्रवने अपनी प्रधान छावनी स्थापित
किया' । ७८४ के पश्चात् शिवमारका शेष अधिकांश की ' । उसने अपने सुयोग्य ज्येष्ठ पत्र जगत्तङ्ग गो
जीवन राष्ट्रकूटोंके बन्दीगृहमें ही बीता और कमसेकम विन्द तृतीय प्रभूतवर्षको युवराज पदपर विधिवत
८०० ई. तक मारसिंह ही गणराज्यका वस्ततः अभिषिक्त कर उसे राजधानीका. छावनीका तथा
स्वामी बना रहा। यह राजा भी जैनधर्मका परम राज्यका अन्य समस्त आन्तरिक कारभार सौंप दिया
भक्त था। तलवाडके अंजनेय नामक जिनालयको और स्वयं अपने पूर्व शत्रओंके, जिन्होंने कि उसके
प्रदत्त दानके लिये वह प्रसिद्ध है। इस दानपत्र में विरुद्ध गोविन्द द्वि० की सहायता की थी, दमनमें
कोई तिथि नहीं दी हुई है; किन्तु कुछ विद्वान् इसे तत्पर हुआ । अपने छोटेसे शासनकाल में इन समस्त
७६० के लगभगका और कुछ ६ वी शताब्दीके राजाओको भीषण युद्धोंमें उसने करारी हार दी। प्रारम्भका मानते हैं । वीरसेनके गुरु एलाचार्यका गंग शिवमार भी स्वभावत: उसका कोपभाजन
भी वह भक्त रहा था और उनकी मृत्यु संभवत: बना. अतः सन् ७८४ के लगभग ध्रवने शिवमारको उस समय हुई थी जब वह अपने पिताके शासनयद्ध में पराजित कर अपना बन्दी बना लिया । एक कालमें कोवलनादका शासक था। उसने और भी शिलालेखका कथन है कि 'ध्रुव घार धारावषे निरु- धर्मकार्य किये हैं। इसी गंग मारसिंहके एक अधीपम कलिवल्लभ उद्धतेजसने उस पराक्रमी उद्धत नस्थ सर श्रोविजय द्वारा मन् ७६७ में एक गंगनरेशको पराजितकर बन्दी बना लिया, जो पहले जिनालय निर्माणका भी उल्लेख मिलता है । अपने कभी किसी अन्य व्यक्तिके द्वारा विजित नहीं हुआ मन्ने ताम्रपत्र में जो सन ७७ का है, मारसिंह था। गंगराजधानो मान्यपुरपर राष्ट्रकूटांका अधि- अपने भाई शिवमारकी भी प्रशंसा करता है, उमे कार होगया और उसी समय सन् ७८४ में ध्रुवके गजाष्टकका कर्ता और पातञ्जलिके एक प्रकरण पुत्र जगत्तुग गोविन्द तृतीयने मान्यपरके जिनालयको -
मन्ने ता. प.-E.C.9 ml 60. जलमंगल नामक ग्राम प्रदान किया । ध्रुव धारावर्ष ।
२J.A.X|| P.b., M. A. R. 1932 १J. A.X12P.51.
P.250-41. इस जिनालयको संभवतया ७५०में गोव२J.A.-XII, P.35., जैन शिलालेख पय्यने बनवाया था। संग्रह पृ. ७६
३ Goianot-122 ३ Rice-mses. SR. B.G.-P.71.
.E.C.9 me 60 वास्तव में शिवमार भी परम .M.J.-P. 88.,J.AAI 22.36. जैन भक्त था उसने मन्दिर निर्माबादि भनेक धर्म कार्य किये
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फणिसूतमतका परिज्ञाता कहता है । उसे विपत्तियों से ग्रस्त बताता है जोकि उसके बन्दी जीवनका सूचक है। किन्तु साथ ही उसके द्वारा वल्लभेन्द्रके साथ हैहय चालुक्य मित्र संघपर विजय प्राप्त करनेका उल्लेख भी करता । ऐसा मालूम होता है कि उस समय राष्ट्रकूटोंका वेंगिके साथ युद्धारम्भ हो जानेसे गोविन्द ने उसे अस्थायी रूपसे मुक्त कर अपनी सेनाओंके साथ शत्रुओं के विरुद्ध युद्ध मे भेजा हो जिसमे कि शिवमारने अद्भुत पराक्रम दिखला या हो । तथापि जैसा कि मारसिंहके गंजम ताम्रपत्र से' प्रकट हैं जिसे राइस साहब ८०० ई० का मानते है ८०० ई० तक तो शिवमार अपना राज्य पुनः प्राप्त कर नहीं सका था । उसके कुछ काल पश्चात् ही शिवमारकी पूर्व सहायता से प्रसन्न गोविन्द तृतीयने पल्लवराजकी सिफारिशपर उसे मुक्त कर दिया और उसका राज्य भी वापस लौटा दिया। जगत्तुंग के कदम्ब ताम्रपत्रका कथन है कि शिवमार राष्ट्रकूटों और पल्लवों द्वारा पुनः अपने सिंहासनपर बैठाया गया था। इस समय पूर्वी चालुक्य विजयादित्य द्वितीय भीम (७६६ ८४३ ) के साथ गोविन्दका द्वादश वर्षीय युद्ध आरम्भ हो गया था। यह युद्ध भी शिव मारकी इस मुक्ति निमित्त कारण हुआ, गोविन्द को अब गंगों की सहायताकी बड़ी आवश्यकता थी । क्योंकि गोविन्द के भाई स्तम्भ द्वारा मन्ने ताम्रपत्र ८०२ मे लिखाया गया था और क्योंकि यह द्वादश वर्षीय राष्ट्रकूट चालुक्ययुद्ध अमोघवर्षके समय तक (८१५ ई० तक चलता रहा था । अतः शिवमारने ८०३ ई० के लगभग अपना राज्य पुनः प्राप्त किया । इस बार शिवमारको राष्ट्रकूटों और पल्लवांकी भी सहायता प्राप्त होनेसे मारसिंहको उसका विरोध करने का साहस नहीं हुआ । उसने तलकार को खाली कर गंगराराज्यके उत्तरीपूर्वी भाग- कोलर प्रदेश में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया और वहीं
अनेकान्त
| वर्ष १० आगेसे वह तथा उसके वंशज पृथ्वीपति अपराजित आदि सन् ६५० के लगभग तक तलकाडके मूल गंगवंशसे पृथक् एवं स्वतंत्र रहकर राज्य करते रहे । अपनी स्वयंकी परेशानियोंमें उलझा हुआ होने के कारण शिवमारने भी इसपर विशेष ध्यान नहीं दिया। राष्ट्रकूटों के प्रतिशोध की अग्नि उसके हृदयको जला रही थी, वह चैनसे न बैठ सका और गोविन्द की सहायता करनेके बजाय उसके विरुद्ध ही उसने युद्ध छेड़ दिया । इस विश्वासघात से गोविन्द चिढ़ गया और उसने गंगराज्यपर आक्रमण कर शिवमारको पराजित करके फिरसे बन्दा बना लिया। यह घटना ८०५-६ को है, क्योंकि चामराजनगर से प्राप्त ८०७ ई० के ताम्रपत्र के अनुसार गोविन्द तृ० के भाई एव प्रतिनिधि रावलोक कम्ब्बराजने जो तालवन नगरमे अपनी विजयी संनाकी छावनी डाले पड़ा था, अपने पुत्र शंकर गणको प्रार्थना पर उक्त तालवनपुर (गंगराजधानी) की श्रीविजय वसदिक लिये कुन्दकुन्दान्वय के कुमारनन्दी भट्टारककं प्रशिष्य और गुरुएलाचार्य के शिष्य वर्धमान गुरुको वदनगुप्प नामक ग्राम प्रदान किया था । ऐसा प्रतीत होता है कि अबकी बार शिवमारका शेष जीवन राष्ट्रकूट बन्दीगृहमें ही बीता, किन्तु अपने इस २-३ वर्षके अल्प मुक्तिकाल ही इस दुर्घटनाकी आशंका उसअपने दूसरे भाई विजयादित्य रणविक्रमको अपना उत्तराधिकारी एवं स्थानापन्न पहिले से ही नियुक्त कर दिया था । गल्लियादपुर ताम्रपत्र र काभी यही कथन है कि शिवमारने अपने अनुज विजयादित्यको गद्दी पर बैठा दिया था। इससे स्पष्ट है कि शिवमार उस समय बन्दी था और विजयादित्य अपने गये हुए गंगवाड़ि राज्यको राष्ट्रकूटोंसे पुनः प्राप्त करने में प्रयत्नशील रहा । किन्तु अपने जीवन में उसे राज्य प्राप्त करने और गंगनरेश बननेका अवसर न मिल सका। इस बार राष्ट्रकूटोंने एक अन्य गंगसदार
E.C IV SR. 161 P. 143. M.J.P-36-37, E.C. IX nu 61 P. 43, इसमें गोविन्द तृ० द्वारा १२ प्रसिद्ध नरेशोंको परा
M.A.R.-13 P. 3., J. A.XII 2 P.5 E.C. 12 NG. 129.
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आचार्य विद्यानन्दका समय और स्वामी वीरसेन
किरण ७-८ ] चागिराजको 'अशेषगंगमण्डलाधिराज' अर्थात् अपने प्रतिनिधिरूप में गगप्रदेशका शासक नियुक्त किया था जैसे कि गुचिताम्रपत्र' प्रकट हैं । इसी चागिराज के भानजे विमलादित्य चालुक्य के ऊपर से यापनोय संघके विजयकीर्त्तिके शिष्य अककीत्तिने शनि के दुष्प्रभावको नष्ट कर दिया था, इस कारण उक्त गुरुसे प्रसन्न होकर चागिराजने अपने अधीश्वर गोविन्द तृतीय जगत्तरंग प्रभूतवपेसे प्राथना करके उससे अकेकीर्त्तिका उनकी यापनीय वसदिके लिये उदार दान दिलवाया था। यह दानपत्र कदंबताम्रशासनके नामसे प्रसिद्ध है और गाविन्द के जीवनका अन्तिम अभिलेख है। चूंकि यह स्वयं गंगराजधानी तलकाडमे लिखा गया था और उसमे उसी गरके यानी संघको दान दिया गया था, वह तलकाडताम्रपत्र' भी कहलाता है, और इसकी तिथि ४ दिसम्बर सन् ८५३ हैं । डा. अल्तंकर का मत हैं कि इसके कुछ ही उपरान्त (१४ मे) गोविन्द तृतीयको मृत्यु हुई। इसमें स्पष्ट है कि =१४ ई० तक गंगवाड़पर राष्ट्रकूटोंका ही अधिकार था ।
राष्ट्रकूटोंके सम्बन्धमे हम यह देख ही चुके है कि वने ७६३ तक राज्य किया था क्योंकि उसका अन्तिम अभिलेख दौलताबादताम्रपत्र ७६३ ई०का है और गोविन्द वृत्तीयका सव प्रथम अभिलेख ७६४
पैठना है अतः गोविन्द जगत्तुंग ७६४ में =१४ तक राज्य किया । सन् ८०४ का वर्ष बहुत घटनापूर्ण रहा ! राष्ट्रकूट सिंहासनपर गोविन्द तृतीयका पड्वर्षीय बालक पुत्र अमोघवर्ष प्रथम नृपत्तुंग नाना प्रकार की बाह्य एवं आन्तरिक विप त्तियों से घिरा हुआ आरूढ़ हुआ | गंग मारसिंहकी
१ E.C. 1 2 GB. 1 EJ. V uo P. 338-31 ३ 1.A. XII P. 1
Altekat-R.T P. 69.
५ श्रमो वर्षका ताप के पथ २६ २७३० में कथन है कि उसका जन्म सरभौन ( सोलुभंजन ) में सन् ८०० की वर्षाऋतु उसके पितान राजधानीमें ही बिताई थी (E. 1. XVIII P. 346., R. T. P. 68)
२८७
भी इसी वर्ष मृत्यु हुई और उसका पुत्र पृथ्वीपति प्रथम अपराजित उत्तरी गंगराज्यका स्वामी हुआ । शिवमारकी मृत्यु संभवतया इसके कुछ पूर्व ही राष्ट्रकूटबन्दीगृह में हो गइ थी और इसी वर्ष विजयादित्य भी मर गया अतः तलकाडमें उसका पुत्र गंगनरेश राचमल्ल प्रथम सत्यवाक्य परमानदि जिसका कि विवाह पल्लव राजकुमारीके साथ हुआ था राजा हुआ। । गाविन्द तृको मृत्युके साथ हो गंग वाडियर राष्ट्रकूटों का आधिपत्य भी समाप्त हो गया । इस प्रकार ये तीन राजपरिवर्तन एक साथ सन् ८१४-१५ में हुए और तीनों ही नवीन नरेश अमोघवर्षे प्रथम (८१५-८७६) पृथ्वीपति प्रथम ( ८१५-८५३), सत्यवाक्य प्रथम (८०५-८५० ) चिरकाल तक प्रायः समकालीन रहे ।
उपर्युक्त विवेचन एवं ऐतिहासिक तथ्यों पर ध्यान देने से सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य विद्यानन्दने ७७६-७७ के लगभग गंगराज्यकी पूर्वी सीमाके भीतर श्रीपुरके पार्श्वजिनालयको अपना स्थायी निवास स्थान बनाया और अपने गुरु नन्दिसंघके विमलचन्द्रचार्यका उत्तराधिकार संभाला उसी समय उन्होंने श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्रकी रचनाकी तत्पश्चात विद्यानन्दमहोदयको रचा और ७८४ ई० के लगभग शिवमार द्वितीयके शासनकालमें ही तत्त्वार्थश्लोकवातिकको समाप्त किया । अष्टसहस्रो की रचना उन्होंने ७८५ से ८०० के बीच किसा समय की ( संभवतया ७६०-६१ मे), युक्त्यनुशासनालङ्कार को उन्होंन ८५५ के लगभग पूर्ण किया और उसके पश्चात् आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा तथा सत्यशासनपरोक्षा की क्रमशः रचना की । सन् ८२५ के लगभग तक उनका ग्रन्थरचनाकाय समाप्त होगया, पत्रपरीक्षा एक संक्षिप्त गोरण-सो रचना है जो संभवतथा अष्टसहस्री और युक्त्यनुशासनके बीच रची गई । इस प्रकार उनका कायकाल अथवा साहित्यिक जीवन ७७५ ८५ ई० तक तो निश्चित रूपसे माना जासकता है । ७६४ सं ८०७ तक के १४-१५ वर्ष उस प्रदेशमे बड़ी अराजकता, अव्यवस्था
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अनेकान्त
| वष १० एवं अशान्तिके थे, इसीलिये उस बीचमें कोई विशेष पहले होनेवाले राष्ट्रकूट नरेशोंक अभिलेखोंमें साहित्यिक कार्य किया जाना कठिन दीख पड़ता है, भी उनके अपने लिये धवल शब्द का प्रयोग हुश्रा संभव है उस बीचमें वे स्वयं जैनेतर ब्राह्मण बौद्धा- प्रतीत नहीं होता । ध्रवके समयसे ही गविरुद दिक विद्वानोंके साथ शास्त्रार्थ एवं वादविवादमे रूप में इसकी प्रवृत्ति हुई प्रतीत होती है । अतः यह व्यस्त रहे हों।
माननेका प्रलोभन होता है कि विद्यानन्दका 'शशधर' इसी प्रसंगमें, अष्ट सहस्रोकी रचनातिथिको पद भी श्लिष्टरूपमे व धारावर्षकी ओर ही संकेत और अधिक सीमित एव सनिश्चित करने के लिये कर रहा है जो कि उस ममय गंगराज्यका विजेता उसकी अन्त्य प्रशस्तिके प्रथम पद्यकी प्रथम पंक्ति एवं अधिराज था। एक तत्कालीन महापराक्रमी का 'शशधर' शब्द महत्वपूर्ण है जिसपर प्रकाश विजेता तथा जैनधमभक्त मम्राटको उमी काल में डालना शेष है । स्वयं ध्र व धारावर्षकी भोरम्यूजियम उसके लिये सर्व प्रचलित एवं जनतामें प्रकाशित प्लेट' (ताम्रपत्र) जो शक ७०२ अथात सन् ७२० ई. विशिष्ट विशेषणस सचित करना कुछ भी असंगत की है और जो न केवल उसका उस वर्ष(धवलाटीका नहीं है । ध्रुव, गोविन्द, अमोघवर्ष आदि जैनधम की समाप्तिके समय) राष्ट्रकूटसाम्राज्यका निविवाद क भक्त और जैनाचार्यों एवं विद्वानोंके आश्रयदाता एकाधिपति होना प्रमाणित करती है बल्कि डा. थे इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं है। ध्र के लिये अल्तेकरके शब्दोंमें हरिवंश (७८३) में उल्लिखित धवल शब्दके बहुल प्रचलित प्रयोगके कारण ही और दक्षिण देशाधिपति श्रीवल्लभका भी ध्र वके साथ क्योंकि वह शब्द साथ हो यश, कीत्ति जैसे सुन्दर निश्चित रूपसे भिन्नत्व सिद्ध करती है. उसके भावके विशेषणरूपमे ही प्रयुक्त होता था. स्वामी पद्य २३ में ध्रवके अपने लिए 'शशधरकनिकनिभं वोरसनने भी अपने ग्रन्थोंके नाम धवल, जयधवल यस्य यशः'शब्दोंका प्रयोग हुआ है. और अमोघवष आदि रक्खे, उसमें क्या आश्चर्य के तीन संजान ताम्रपत्रोंमेसे प्रथम ताम्रपत्रके १५मे अतः विद्यानन्दकी अष्टसहस्री ध्र वकी मृत्युतिथि पद्यमें भी ध्र वर्क लिए 'शशिकरधवला यस्य कत्तिः ७३ के पूर्व ही अथोत् ७६०-६३ के बीच किमी ममय समन्तात'...शब्दोंका प्रयोग हुआ है । उक्त सजान पूर्ण हुई । उम समय कुमारसेनका प्रत्यक्ष साहाय्य ताम्रपत्रों में अमोघवर्षे आदि अन्य किसी भी नरश भी उन्हें प्राप्त होना पूर्णतया संभव है । श्लोकवार्तिक के लिए 'धवल' शब्दका प्रयोग नहीं हुआ । ध्रुवमे के पश्चात ६-७ वषका समय उसके लिये पर्याप्त भी . Bhor huscumulite pe oy dhuana ह। और इमप्रकार उमम वारसन ।
है। और इमप्रकार उममें वीरसन स्वामीके स्वर्गस्थ E.IXXII-182.,
होनका स्पष्ट उल्लेख उनकी मृत्युतिथि सम्बन्धी मेरे २ R. T. P. 421.
निष्कर्ष ६० ई० की आश्चर्यजनक रूपमें प्रबल पुष्टि ३E. I-IVIII 2026 P. 095ig करता है।
लखनऊ, ता० १३-१२-४६ ।
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भारतीय जनतन्त्रकी स्थापना
(ले० श्री विजयकुमार चौधरी )
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हमारे भारतीय जनतन्त्रकी स्थापना विश्वको महानतम घटनाओं मे से एक है। एक हजार वर्षकी पराधीनताके बाद आज उसने अपनेको सर्वसत्तासम्पन्न लोकराज्य घोषित कर दिया है। अब वह पूर्णरूप ने उन्मुक्त और अपनी चतुर्मुखो उन्नति करने के लिये पूर्ण स्वाधीन है । इतने लम्बे समय तक भारतको पराधीनताकी अच्छेय जञ्जीरों में जकड़ा रहना पड़ा। इस समय तक सम्राट चन्द्रगुनके स्वर्ण युगको स्मृति भी उसके हृदय में धुंधली सी पड़ गई थी। अब फिर हमारे देशमें उस स्वर्णिम युगका नूतन विहान उदित हुआ है । भारतकी ३५ कोटि जनताको अब उद्बोधित होने का समय गया है ।
यह सब देश के उन अगणित शहीदोंके वलिदानका फल है जिनके प्रति आज हमारे मस्तक श्रद्धासे नत होजाते हैं, जिन्होंने बापूके द्वारा प्रदर्शित सत्य अहिंसा के मागपर चल अपने जीवनको न्योछावर कर दिया। हमें इस बात का गर्व है कि यह युगान्तरकारी परिवर्तन वापके बताये मार्ग हिंसा और सत्यपर चलनेसे ही सुलभ हुआ है। इतनी बड़ी रक्तहीन क्रान्तिसे जिसका मूल, शाखा और पत्तियां सब प्रायः शांति से सम्बद्धित हों, किसी भी देशमें नहीं हुई। इस क्रांति शान्तिके सुन्दर समन्वयने ही हमारी स्वतन्त्रताको अर्जित किया है ।
पराधीनता १ हजारवर्ष के लम्बे समय में भारतको अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। पहले पहल मुगल सम्राटोंके कठोर धर्मोन्मादने भारतीय जनताके हृदयको तोड़ दिया था । आशा मूलक सम्पूर्ण वृत्तियां इन शासकों के शासनने समाप्त कर दी थीं। जोवनको समरसता और सौष्ठव प्रायः विच्छिन्न हो चुके थे । उस समय देशके अगणित नौजवानों और नौनिहालों को कठोर एवं एकदलीय धार्मिक नीतिका शिकार होना पड़ा।
जजिया जैम करोंने भारतीय आत्माको जैसे कुछ आघात पहुँचाये उनसे हमारे सामाजिक जीवन की उर्वराशक्ति प्रायः नष्ट-सी हो गई। इसके पश्चात् विदेशी श्वेतांगजातिने भी इसे अपना स्वार्थका विषय बनाया और उसके नैतिक जीवनके साथ आर्थिक जीवनको भी तहस-नहस कर दिया । सौभाग्य से देश में कांग्रेस-राष्ट्रीय महासभाकी स्थापना हुई जो अनेक आघात प्रतिघातों में से गुजरती हुई अन्तमे वापूके नेतृत्त्वद्वारा ही स्वतन्त्रताको प्राप्त करने में सफल हुई
२१ वर्ष पूर्व इस राष्ट्रीय महासभाने रावीके तट पर भारतीय लोक राज्यका संकल्प किया था, जो गत २६ जनवरीका पूर्ण हो चुका। इससे भारत ही नहीं सारा विश्व प्रभावित हुआ है और वह भी भारतके इन्हीं अहिंसा तथा सत्यके सिद्धान्तों पर चलकर शान्तिके स्थापनमें कृतप्रयत्न है ।
भारतीय जनतंत्र के नव-निर्मित विधानमें जा विशेषतायें है, विश्वास है कि उनसे भारतीय जनता सुखी और सम्पन्न बन सकेगी और एक हजार वर्ष का म्रियमाण जीवन पुनरुज्जीवित हो उठेगा । भारतीय संविधानके प्रारूप या लक्ष्यसे ही इससे इस बात की पुष्टि होजातो है जिसकी प्रस्तावनामे कहा गया है कि - 'हम भारतके लोग भारतको एक सम्पण प्रभुत्व-सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने तथा उसके समस्त नागरिकोंको सामाजिक राजनैतिक और प्रार्थिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासनाकी स्वतन्त्रता प्रतिष्ठा और श्रवसरकी समता प्राप्त कराने तथा उन सबमें व्यक्तिकी गरिमा और राष्ट्रकी एकता सुरक्षित करने वाली वन्धुता बढानेके लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस सम्विधान सभामें एतद्द्वारा इस सम्विधानको गोकृत अधिनियमित और श्रात्मार्पित करते हैं ।" कहना चाहिए कि अब भारतको जनता अपने विधानद्वारा अपनो स्वतन्त्रताका पूर्णच नुभव कर सकेगी, और अपनी चतुमुखी उन्नति के लिये
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एक निश्चित सुदृढ़ कार्यक्रम अपनायेगी जिससे उसकी अस्थियों में फिरसे रक्त संचार होकर नवीन जीवनका अनुभव होसके । भारतके विधानमें जनता के वे मौलिक अधिकार सुरक्षित हैं जिनके द्वारा सामाजिक, वैयक्तिक, आर्थिक, एवं राष्ट्रीय उन्नति होसकती है- उसमें सबको अपनी विचाराभिव्यक्तिद्वारा सामाजिक और राष्ट्रीय उन्नति करने का अधिकार दिया गया है। सामाजिक जोवनकी प्रधानता के साथ २ वैयक्तिक जीवनकी प्रधानता भी उसमें स्वीकार की गई है। और सबको अपनी उचित आजीविका, उचित विचार और उचित भाषण करनेका अधिकार है | एक निश्चित संगठन बनाने
अधिकार है । विधानकी मुख्य विशेषता समता है, सम्विधानमें जाति-पांति और धमके हिसाब से
ऊंच-नीच का भेद नहीं करके सबको समान अधिकार प्रदान किये गये है। इससे हमारे सामाजिक जीवन के वे विरोधी तत्व दूर होजावेंगे जिनके द्वारा भारत की आत्मा विनष्ट-सी हो चुकी थी और जिनके द्वारा राष्ट्रको अनेकों बार धक्के खाने पड़े हैं ।
भारतकी भावी नीतिपर प्रकाश डालते हुए हमारे माननीय राष्ट्रपतिने जो भाषण भारतीय संसद में दिया है उससे हमार देशका गौरव स्वयं बढ़ जाता है। उन्होंने बतलाया है कि 'हम सम्पूर्ण देशोंके साथ सहयोग करना चाहते हैं। हमारी मध्यस्थताको नीति ढुलमुल नीति नहीं अपितु वह एक दृढ़ आधारपर स्थित है जिसपर चलकर दुनिया का वातावरण शान्त किया जासकता है।' उनके भाषण के ये वाक्य कितने मामिक है कि 'अब भारतमे न कोई राजा है और न प्रजा, या तो सब राजा है या सब प्रजा । इन वाक्योंका स्मरण करते हुए हमें गांधीजी के रामराज्य की कल्पना साक्षात् दिखाई दन लगती है । राष्ट्रपतिन गणराज्य की स्थापना के उन मूल कारणोंपर प्रकाश डाला है जिससे यह महानतम कार्य हो सका है । उन्होंने बतलाया कि 'सदुद्देश्य, सत्काय और सत्यनिष्ठा ही भारतीय गणतन्त्रकं
अनेकान्त [ वर्ष १० सुदृढ़ स्तम्भ हैं ।' सचमुच हमें जितने अधिकार मिल चुके हैं उनसे कहीं अधिक हमारे ऊपर उत्तरदायित्व भी बढ़ गये है, यदि हमारे उद्देश्य और हमारे कार्य सत्यनिष्ठामं नहीं होते तो हम यह सब खो बैठेंगे। भारत शान्तिको कितना पसन्द करता है। इस बात का पता राष्ट्रपति के उन शब्दोंसे चलता है जिनमें उन्होंन कहा था कि गान्धोजीके देशमें सेनापर किये गये इतने खचसे क्या काम ? जब कि अन्यदेश 'उद्रजन' के अन्वेषणमे एड़ी-चोटीका पसीना बहा रहे है तब हमारे राष्ट्रपतिके ये विचार कितने सुन्दर और कितने आत्मबलसे पूणे है । भारत की नीति प्रतिस्पर्द्धात्मक नहीं होगी और जहांतक हो सके विश्वमैत्री में सहायक होगा ऐसी आशा आज एशिया ही नहीं विश्वके समस्त राष्ट्र वर रहे हैं । सांस्कृतिक दृष्टिसे हमारा देश विश्वके राष्ट्रोंका गुरु है यह निविवाद है। त्याग, तपस्या, श्रात्मसयम और सत्यनिष्ठापर ही भारतकी संस्कृतियों का निर्माण हुआ है और राजनीति में इन विशुद्ध संस्कृ तियों का समुचितरूप से उपयोग किया गया है । यही कारण है कि भारतकी राष्ट्रीयतामे शान्ति एवं आत्मसंयमकी एक प्रच्छन्न धारा बही है और आज उसका माग प्रकाशित होने को है ।
हमारा दायित्व है कि हम राष्ट्रनिर्माण के कार्यों में सत्यनिष्ठा के साथ निस्वार्थ भाव से लग जावें । सबसे पहले आर्थिक समस्यायें हमारे सामने है जो हमारे परिश्रमपर ही सुलझ सकती हैं । हमारा देश आज आर्थिक दृष्टिसे अत्यधिक पिछड़ा हुआ है । हमारा कर्तव्य है कि हम उसे उन्नत बनावे | राजनैतिक विकास तो सामाजिक एवं आर्थिक विकासका साधनमात्र है । देशकी मांग है अधिक परिश्रम करो और अधिक उत्पन्न करो । आर्थिक क्रान्ति हो हमारे देशको सर्वोन्नत बना सकती है और यही आज की हमारी देश सेवा है ।
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भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र
चौथा अध्याय
अथाऽतः संप्रवक्ष्यामि परिवेषान् यथाक्रमम् । प्रशस्तानप्रशस्तांश्च यथावदनुपूर्वतः ॥१॥
अर्थ-उल्काऽध्यायके बाद अब परिवेषों (मण्डलों) का पूर्वपरम्परानुमार यथाक्रमसे कथन करता हूँ । वे परिवेष दो प्रकारके है-१ प्रशस्त और २ अप्रशस्त अर्थात शुभ और अशुभ ।।१।। पञ्च प्रकारा विज्ञेयाः पञ्चवर्णाश्च भौतिकाः । ग्रह-नक्षत्रयोः कालं परिवेषाः समुपस्थिताः ॥२॥
अर्थ-पाँच वर्णों और पांच भूतों (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और श्राकाश) की अपेनासे परिवेष पांच प्रकारके जानना चाहिये । ये परिवेष ग्रह और नक्षत्रोंके कालको पाकर होते हैं ॥२॥ रूक्षाः खण्डाश्च वामाश्च क्रव्यादायुधसन्निभाः । अप्रशस्ताः प्रकीय॑न्ते विपरीता गुणान्विताः॥३॥
अर्थ-जो चन्द्रमा, सूर्य, प्रह और नक्षत्रोंके परिवेष (मण्डल-कुण्डल) और रूक्ष (रूखे), खण्डित (अपूर्ण), टेड़े (ति), क्रव्याद (मांसभक्षी जोव अथवा चिताकी अग्नि) और आयुध (शस्त्र) के समान होते है वे अप्रशस्त, अशुभ, है और इनसे विपरीत शुभलक्षणवाले प्रशस्त (शुभ) है ॥३॥ 'रात्री तु संप्रवक्ष्यामि प्रथमं तेष लक्षणम् । ततः पश्चाद्दिवा भूयस्तन्निबोध यथाक्रमम् ॥४॥
अथे-आगे हम पहले रात्रिमें होनेवाले परिवोंके लक्षण और फलको बतलाते हैं । तदनन्तर दिनमें होनेवाले परिवेषोंके लक्षण और फलको कहेंगे । क्रमशः उन सबको ध्यानसे समझे ॥४॥ क्षीरशंखनिभश्चन्द्र परिवेषो यदा भक्त । तदा क्षेमं सुभिक्ष' च राज्ञो विजयमादिशेत् ॥॥
अथे-चन्द्रमाके इर्द-गिर्द दूध अथवा शंखके सदृश परिवेष हो तो क्षेम-कुशल और सुभिक्ष होता है और राजाकी विजय होती है || सापिस्तैलनिकाशस्तु परिवेषो यदा भवेत् । न चाकृष्णाऽतिमात्रं च महामेघस्तदा भवेत् ॥६॥
अर्थ-यदि घृत और तैलके वर्णका चन्द्रमाका मण्डल हो और वह अति सफेद न हो तो महामेष
होता है अथात् भारी वर्षा हाती
रूप्य-पारापताभश्च परिवेषो यदा भवेत् । महामेघास्तदाऽभीक्ष्णं तर्पयन्ति जलमहीम् ॥७॥ अर्थ-चांदी और पारापत अर्थात क
त अथोत कबूतरके समान प्राभावाला चन्द्रमाका परिवेष हो तो महामेष निरन्तर जल वर्षाद्वारा पृथ्वीको तृप्त कर देते हैं अर्थात् झर लग जाती है-लगातार कई दिन तक पानी वरसता रहता है ।जा इन्द्रायुधसवर्णास्तु परिवेषो यदा भवेत् । संग्रामं तत्र जानीयाद्वपं चापि जलागमम् ।।८।।
अर्थ-यदि अमुक दिशामें इन्द्रधनुषके समान वर्णवाला चन्द्रमाका परिवेष हो तो उस दिशामें संग्राम (युद्ध)का होना और जलका भो वषेना जानना चाहिये ।।८।।
१२ रात्रि में चन्द्रमा, ग्रह तथा नक्षत्रोंका और दिनमें सयका परिवेष होता है।
किसी भी प्रकारका निमित्त प्राप्त हो, चाहे वह शुभ हो अथवा अशुभ, उसका फल उसी स्थानपर होता है। ऐसा भी मत है कि द्वादश योजनप्रमाण स्थानपर अर्थात् ४८ कोशके घेरेमें उसका फल प्राप्त होता है।
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२६२
अनेकान्त
1 वर्ष १०
कृष्णे नीले वं वर्ष पीतके व्याधिमादिशेत् । रूक्षे भस्मनिभं चापि दुवृष्टिर्भयमादिशेत् ||६||
अर्थ — काले और नीले वर्णका चन्द्र-मण्डल हो तो निश्चयसे वर्षा होती है। यदि पीले रंग का हो तो व्याधि ( महामारी) का प्रकोप होता है । यदि रूक्ष (रूखा) और भस्म (राख) के सदृश हो तो दधृष्ट अर्थात वर्षा नहीं होती और उससे भय प्राप्त होता है अर्थात् जलवर्षा न होकर वायु, धूलि आदिकी वर्षा होती है । और यह भयसूचक है | ॥
यदा तु सोममुदितं परिवेषो रुग्णद्धि हि । जीमूतवर्ण-स्निग्धश्च महामेघस्तदा भवेत् ॥ १०॥
अर्थ - यदि चन्द्रमाका परिवेष उदयप्राप्त चन्द्रमाको अवरुद्ध करता है - ढक लेता है और वह मेचके समान तथा स्निग्ध चीकना हो तो महामेघ होता है अर्थात उत्तम वृष्टि होती है ||१०|| अभ्युन्नतो यदा श्वेता रूक्षः सन्ध्या - निशाकरः अचिरेणैव कालेन राष्ट्र' चौरैर्विलुप्यते ॥११॥
अर्थ- - उदय होता हुआ संध्याके समयका चन्द्रमा यदि श्वेत और रूक्ष वर्णके परिवेष युक्त हो तो देशको शीघ्र चोरोंके उपद्रवका भय होता है अर्थात् देशको चारोंसे हानि होती हैं ।। १५ ।।
चन्द्रस्य परिवेषस्तु सर्वत्रं यदा भवेत् । शस्त्र जनक्षयं चैव तस्मिन् देशे विनिदिशेत् ॥ १२ ॥
अर्थ-यदि सारा रात (उदयसे अस्त तक) चन्द्रमाका परिवष रहे तो उस देशमें शस्त्रका गिरना अर्थात् युद्धका छिड़ना और जनताका नारा सूचित होता है ||१२||
भास्करं तु यदा रूक्षः परिवेषो रुणद्धि हि । तदा मरणमाख्याति नागरस्य महीपतेः || १३||
अर्थ - यदि सूर्यका परिवेष रूक्ष हो और वह उसे ढक ले तो वह नागरिक लोगों तथा राजाक मरणको बदलाता है ||१३|| आदित्य-परिवेषस्तु यदा सर्वदिनं भवेत् । क्षुद्भयं जनमारिश्च शस्त्र कोपं च निर्दिशेत् ||१४|| -सूर्यका परिवेष सारे दिन बना रहे तो क्षुधाका भय, मनुष्योंका महामारीसे मरण और युद्धका कोप होता है ||१४||
हरते सर्वस'स्यानां मीतिर्भवति दारुणा । वृक्ष- गुल्म- लतानां च वर्त्तनीनां तथैव च ॥ १५॥
अर्थ-तथा सब प्रकारके धान्योंका नाश होता और घोर ईति (प्राकृतिक भीति) होती है और वृक्षों, गुल्मों-झुरमुटों, लताओं तथा पथिकोंको हानि पहुँचती है ||१५||
यतः खण्डस्तु दृश्येत ततः प्रविशते परः । ततः प्रयत्नं कुर्वीत रक्षणे पुर - राष्ट्रयोः ॥ १६॥
अर्थ - उपरोक्त सारे दिन के सूर्य परिवेषका जिस ओरका परिवेष खण्डित दिखाई दे उस दिशामे परचक्रका प्रवेश होता है, अतः नगर और देशकी रक्षा के लिये उस दिशा में रक्षाका प्रबन्ध करना चाहिये १६ रक्तो वा यदाभ्युदितं कृष्ण पर्यन्त एव च । परिवेषा रविं रुन्ध्याद्राजव्यसनमादिशेत् ||१७||
अर्थ - यदि रक्त अथवा कृष्णवर्ण पर्यन्त चार वर्णवाला सूर्यका परिवेष हो और वह उदित सूर्य को रोके - श्राच्छादित करे तो कष्ट सूचित करता है ||१७||
यदा, त्रिवर्णपर्यन्तं परिवेषां दिवाकरम् । तद्राष्ट्रमचिरात्कालाद् दस्युभिः परिलुप्यते || १८ ||
अर्थ-यदि सूर्यका तीन वर्णवाला मण्डल सूर्यको ढक ले तो डाकुओं द्वारा देशका शीघ्र नाश होता है || १८ ||
१ दम्ती और तालवी दोनों सकारांका प्रयोग होता है । २ ईलियाँ छह प्रकारकी हैं— अतिवृष्टि, अनावृष्टि, टिङो. मुषक, तोता. स्वचक्र और परचक्र । ३ श्वेत व रहित चार वर्ण ।
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किरण ७८ ।
भद्रबाहु निमित्तशास्त्र
२६३
हरितो नीलपर्यन्तः परिवेषा यदा भवेत् । आदित्यं यदि वा सोमे राजव्यसनमादिशेत् ॥ १६ ॥ अर्थ-यदि हरे रंग से लेकर नीले रंग तक सूय अथवा चन्द्रमाका मण्डल हो तो राजाको कष्ट होता है ||१६||
दिवाकरं बहुविधः परिवेषो रुणद्धि हि । भिद्यते बहुधा वापि गवां मरणमादिशेत् ॥ २०॥
अध-- यदि नाना वणवाला सूर्यका मण्डल हो अथवा खण्ड-खण्ड अनेक प्रकारका हो और वह सूर्य को ढक ले तो गायों का मरण सूचित करता ||२०||
sad शीघ्र ं दिशश्चैवाभिवर्धते । गवां विलोपमपि च तस्य राष्ट्रस्य निर्दिशेत् ॥ २१ ॥
अर्थ - जिम दिशामे सूर्य परिवेष शीघ्र हटे और जिस दिशा में बढ़ता जाय उस दिशा के राष्ट्रकी गायोंका लोप होता है अर्थात् जिस दिशा की तरफ बढ़ े उस दिशाके देशकी गायोंका नाश होता है ॥ २५ ॥ शुमाली यदा तु स्यात्परिवेषः समन्ततः । तदा सपुर. राष्ट्रस्य देशस्य रुजमादिशेत् ॥ २२ ॥
अथ सूर्यका परिवेष यदि सूर्यके चौतरफा हो ता नगर, राष्ट्र और देश आदिके मनुष्य महामारी में पीडित होते है || २३॥ ग्रह-नक्षत्र-चन्द्राणां परिशेषः प्रगृह्यते । अभीच्णं यत्र वर्तेत तं देशं परिवज येत् ||२३||
अर्थ - प्रह' ( सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध. गुरु, शुक्र, शनि), नक्षत्र २ (२८ आश्विनि आदि) और चन्द्रमाका निरन्तर परिवेष बना रहे और वह इस रूप में ग्रहण हो तो उस देशका परित्याग कर देना चाहिये, क्योंकि वहाँ शीघ्रतासे भय उपस्थित होता है || २३ ॥
परिवेषा विरुद्धेषु नक्षत्रेषु ग्रहेषु च । कालेषु वृष्टिर्विज्ञ या भयमन्यत्र निर्दिशेत् ||२४||
अर्थ- वर्षाकालमे यदि यहीं और नक्षत्रोंके जिस दिशा में परिवेष हों तो वहां वृष्टि होती है और अन्य स्थान में भय होता है अथवा दूसरे प्रकारका भय सूचित होता है ||२४||
शक्तिर्यदा गच्छेत्तां दिशं त्वभियोजयेत् । रिक्ता वा विपुला चाग्रे जयं कुर्वीत शाश्वतम् ||२५|| अर्थ - खाली अथवा भरी हुई शक्ति (बादल) जिस दिशा की ओर अम गमन करे तो उस
दिशामें शाश्वत जय होती है ||२५|| यदा शक्तिश्येत परिवेष- समन्विता । नागरान् यायिनो हन्युस्तदा यत्नेन संयुगे ||२६||
अर्थ - यदि परिवेष सहित अभ्रशक्ति (बादल) दिखे तो चढ़कर आनेवाले शत्रुद्वारा नगरवासियोंका युद्ध में नाश होता है, अतः यत्नसे रक्षा करनी चाहिये ||२६|| नानारूपो यदा दण्ड: परिवेषं प्रमति । नागरास्तत्र वद्ध्यन्ते यायिनां नात्र संशयः ||२७||
8
अर्थ - यदि अनेक वर्णवाला दंड परिवेषको मर्दन करे तो चढ़कर आनेवाले शत्रुद्वारा नगरजनों (थाइयों) का नाश होता है, इसमें संशय नहीं है ||२७||
त्रिकोटिर्यदि दृश्येत परिवेषः कथञ्चन । त्रिभागशस्त्रबद्धोऽसाविति निर्ग्रन्थशासने ||२८||
अर्थ - तीन कोनेवाला परिवेष कदाचित् देखने में आवे तो युद्ध में तीन भाग सेना शस्त्रसे मारी जाती है ऐसा निग्रन्थ शासन में बतलाया गया है | रक्षा
१,२ इसका मतलब यह नहीं है कि सबके मण्डल एक ही साथ हों श्रर्थात् किसी भी ग्रह-नक्षत्रके मण्डल होते रहें | अनु० । ३ दंडाकार - दण्डाकृति होकर परिवेषका मर्दन करे |
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२६४
अनेकान्त
[वर्ष १० चतुरस्रो यदा वापि परिवेषः प्रकाशते । क्षधया व्याधिभिश्चापि चतुर्भागोऽवशिष्यते ॥२६॥
अर्थ-यदि चार कोनेका परिवेष दिखाई दे तो क्षुधा और रोगोंसे मरण होकर शेष चतुर्थ भाग (जन संख्या) रह जाती है ।।२।।
अर्धचन्द्र-निकाशस्तु परिवेषो रुणद्धि हि । आदित्यं यदि वा सोमं राष्ट्र' संकुलतां व्रजेत् ॥३०॥ ____ अथे-अर्द्धचन्द्राकार परिवेष चन्द्रमा अथवा सूर्यको ढके तो देश व्याकुलतायुक्त (भयवान) होता है ॥३०॥ प्राकाराट्टालिकाप्रख्यः परिवेषो रुणद्धि हि । आदित्यं यदि वा सोमपुररोधं निवेदयेत् ॥३१॥
अथे-कोट और अट्टालिकाके सदृश परिवेष यदि सूर्य और चन्द्रमाको अवरुद्ध करे तो पुर (नगर)घेरेमें पड़ जाता है, ऐसा कहना चाहिये ॥३१॥ समन्ताद्वध्यते यस्तु मुच्यते च मुहुमुहुः । संग्राम तत्र जानीयान् दारुणं पर्युपस्थितम् ॥३२॥
अर्थ- चौतरफसे सूर्य अथवा चन्द्रमाके परिवेष हों और वह बारबार होवे और विखर जावे तो वहांपर घोर संग्राम होता है ॥३२॥ यदा ग्रहमवच्छाद्य परिवेषः प्रकाशते । अचिरेणैव कालेन संकुलं तत्र जायते ॥३३॥ ___ अर्थ-यदि परिवेष ग्रहको पाच्छादित करके दिखाई दे तो वहांपर शीघ्रतासे सब आकुलतामय हो जाते है ॥३३॥
यदा राहुमपि प्राप्त परिवेषो रुणद्धिहि । तदा सुवष्टिर्जानीयाद् व्यधिस्तत्र भय भवेत् ॥३४॥ ___ अथे-यदि परिवेष राहुको भी ढक ले अर्थात् घेरेके भीतर राहु ग्रह भी भाजाय तो अच्छी वृष्टि होती है परन्तु वहां व्याधिका भय बना रहता है॥३४॥ 'पूर्वसन्ध्या नागराणामागतानां च पश्चिमा । अर्धरात्रे तु राष्ट्रस्य मध्याह्न राज्ञ उच्यते ॥३५॥
अर्थ-पूवकी सन्ध्याका फल स्थाई रहने वाले नागरिकोंको होता है, पश्चिमकी सन्ध्याका फल आगन्तुक (चढ़कर आनेवालों) को होता है, अधेरात्रिका फल देशभरको होता है और मध्याह्नका फल राजाको बतलाया गया है ।।३।। धूमकेतुच सोमं च नक्षत्रच रुणद्धि हि । परिवेषो यदा राहु तदा यात्रा न सिद्ध्यति ॥३६॥
अर्थ-यदि परिवेष धूमकेतू (पुछल्ला तारा), चन्द्रमा, नक्षत्र और राहुको आच्छादित करे तो चढ़कर आने वाले राजाकी यात्राकी सिद्धि नहीं होती ॥३६॥ यदा तु ग्रहनक्षत्र परिवेषो रुणद्धि हि । अभावस्तस्य देशस्य विज्ञ यः पयुपस्थितः ॥३७॥
अर्थ-यदि परिवेष ग्रह और नक्षत्रोंको रोके तो उस देशका अभाव होजाता है अर्थात् उस देशमें संकट आजाता है ॥३७॥ त्रीणि याऽत्रावरुद्ध्यन्ते नक्षत्रं चन्द्रमा ग्रहः । व्यहाद् जायते वर्षमासाद्वा जायते भयम् ॥३८॥
अर्थ-यदि नक्षत्र चन्द्रमा और ग्रह इन तीनोंको एक-साथ परिवेष अवरुद्ध करे तो तीन दिनमें वर्षा होती है अथवा एकमासमें भय उत्पन्न होता है ॥३८॥ १इस श्लोककी स्थिति यहां शंकास्पद है जो विचारणीय है क्योंकि उसका सन्ध्या अध्याय में, जो आगे कहा जावेगा, होना संगत। -अनः।
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किरण ७८ ]
भद्रबाहु निमित्तशास्त्र
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उल्कावत् साधनं ज्ञ ेयं परिवेषेषु तन्वतः । लक्षणं सम्प्रवच्यामि विद्य तां तान्निबोधत ॥ ३६ ॥ अर्थ- परिवेषों का लक्षण और फल उल्काके समान सिद्ध करना चाहिए अर्थात् जनना चाहिए । अब विजलीके लक्षण कहते हैं सो उन्हें अच्छी तरह जानो ॥ ३६ ॥
इति मन्ये भद्रबाहुके निमित्ते परिवेषवभो नाम चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः ।
पांचवां अध्याय
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अथातः संप्रवच्यामि विद्य तां नामविस्तरम् । प्रशस्ता चाप्रशस्ता च यथावदनुपूर्वतः ॥ १ ॥
अर्थ - अब विजली के नामादिका पूर्वाचार्यानुसार विस्तारसे कथन करते हैं। वह विजली दो तरह की है- प्रशस्त अर्थात् शुभ फल देनेवाली और अप्रशस्त अर्थात् अशुभ फल देनेवाली ||१|| सौदामिनी च पूर्वा च कुसुमोत्पलनिभा शुभा । निरभ्रा मिश्रकेशी च क्षिप्रगा चाशनिस्तथा ॥२॥ एतासां नामभिर्वर्षं ज्ञ ेयं कर्मनिरुक्तितः । भूयो व्यासेन वच्यामि प्रणिनां पुण्यपापजाम् ||३||
अर्थ — सौदामिनी और पूर्वा विजली यदि कमलके पुष्प समान हो तो वह शुभ अर्थात् शुभ फल देनेवाली है । वह विजली असे रहित - निरभ्रा, देवाङ्गनाके समान मिश्रकेशी, जल्दीसे गमन करनेवाली क्षिप्रगा और वके समान हो वह अशनि नामसे कही जाती है । वर्षा करनेवाली है अतः वर्ष भी कही जाती है । इस विजलीके नाम इसकी क्रियानिरुक्तिसे जानना, जैसे इसको तडित भी कहते हैं । अब विजली के विस्तारपूर्वक फल, लक्षण आदि कहे जाते हैं जो जीवों के पाप-पुण्यके निमित्तसे होते हैं ॥२३॥ स्निग्धस्निग्धेषु चाषु विद्युत् प्राच्या जलावहा । कृष्णा तु कृष्णामागेंस्था वातवर्षावहा भवेत् ४
अर्थ - चिकने बादलसे उत्पन्न विजली स्निग्धा कही जाती है। यदि वह पूर्व दिशाकी हो तो अवश्य बर्षा करती है । यदि काले बादलसे उत्पन्न हो तो वह विजली कृष्णा कही जाती है और वह वायुकी वषा करती है अर्थात वायु बहुत चलती है । यहां पर 'कृष्ण' शब्द अग्निवाचक है अतः अग्निकोणके मार्ग में स्थित विजली ‘कृष्णा' नामसे कही जातो है । उसका फल वायुवर्षा है । "बहिः शुष्मा कृष्णवर्मा शोचिउषर्बुधः" इति अमरकोषे पाठः ||४||
अथ रश्मिगताऽस्निग्धा हरिता हरितप्रभा । दक्षिणा दक्षिणा वाती कुर्यादुदकसंभवम् ||५||
अर्थ - जिस विजली की रश्मि चली गई है अर्थात् जो बिना रश्मिको विजली है वह स्निग्धा कही जाती है और हरित प्रभावाली बिजली हरिता कही जाती है, दक्षिण में गमन करनेवाली दक्षिणा कहलाती है। इनसे जल वरसता
||५||
रश्भिवती मेदनी भाति त्रिद्य दपरदक्षिणे । हरिता भाति रोमांचं सोदकं पातयेद्बहुम् ॥६॥
अर्थ - पृथ्वीपर प्रकाश (चमक) करनेवाली - रश्मिवती, नैऋत्य कोण में गमन करनेवाली हरित और बहुत रोमवाली बिजली-बहुत जलको देनेवाली है ||६||
अपरेण तु या विद्यच्चरते चोत्तरामुखी । कृष्णाभ्रसंश्रिता स्निग्धा सापि कुर्याज्जलागमम् ॥७॥
अर्थ - पश्चिम दिशामें प्रकट होनेवाली, उत्तरमें मुख करके गमन करनेवाली, काले बादलोंसे निकलनेवाली और स्निग्धा (चिकनी) ये चारों विजलियां जलके आनेकी सूचना देती हैं ॥७॥
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२६.
अनेकान्त
| वषे १० अपरोत्तरा तु या विद्युन्मंदतोया हि सा स्मृता । अर्थ-वायव्यकोणकी विजली थोड़े जलको देनेवाली जानना चाहिए ।
उदीच्यां साव्ववर्णस्था रूक्षा तु सा तु वर्षति ॥८॥ ___ अर्थ-उत्तर दिशाकी विजली चाहे किसी भी वणकी क्यों न हो; अथवा रूक्ष भो हो तो भी वर्षा को करने वाली जानना चाहिये ।।८।। या तु पूर्वोत्तग विद्य द् दक्षिणा च पलायते । चरत्यय च तिर्यस्था सापि श्वेता जलावहा ॥४॥
अर्थ-ईशान कोणकी विजली तिरछी (टेडी) होकर पर्वमें गमन करे और दक्षिणमें जाकर छिप जाय तथा वह श्वेन रंगकी हो तो वह जल की देनेवाली है ॥३॥ तथैवोयमधो वापि स्निग्धा रश्मिमती भृशम् । सघोषा चाप्यघोषा वा दिन सर्वासु वर्षति ॥१०॥
अर्थ-तथा ऊपर अथवा नीचे जानेवालो चिकनी बहुत रश्मि (किरण) वाली शब्द करतो हुई अथवा शब्द न करतो हुई विजली सवत्र वर्षाको करनेवाली जानना ॥१०॥
इस प्रकार दिशापरसे फल बताया। अब षटऋतुपरसे फल बताते हैंशिशिरे चापि वर्ष ति रक्ता पीताश्च विद्य तः । नीला श्वेता वसन्ते न वर्षन्ति कदाचन ॥११॥
अर्थ-यदि शिशिर ऋतु (माघ-फाल्गुन) में नील और पीले रंगको विजली हो तो वर्षा होती है और वसन्त (चैत्र-वैशाख) में नोल और श्वेत रंगकी विजली हो तो कदापि वषो नहीं होती ॥१शा हरिता मधुवर्णाश्च ग्रीष्मे रूक्षाश्च निश्चलाः । भवन्ति ताम्रगौराश्च वर्षास्वपि निरोधकाः ॥१२॥
अर्थ--हरे रंगकी, मधुके रंगकी, रूक्ष और स्थिर विजली ग्रीष्म ऋतु (ज्येष्ठ-आषाढ़) में चमके तो वर्षा नहीं होती तथा इसी तरह वर्षा ऋतु (श्रावण- भादव ) में ताम्रवण की विजली चमके तो वह भी वर्षाको रोकनेवाली है॥१२॥
सारदीनाभिवषन्ति नीला वर्षाश्च विद्यु तः । हेमन्ते श्याम-ताम्राऽस्तु तडितो निर्जला स्मृताः १३ ___ अर्थ-शरद ऋतु (आश्विन-कार्तिकी में नील और वर्षा नामकी विजली चमके तो वर्षा नहीं होती है और हेमन्त (अगहन-पौष) ऋतुमें यदि श्याम और ताम्रवर्णकी बिजली हो तो जल नहीं वरसता ॥१३॥ स्तारक्त'षु चानेषु हरिताहरितेषु च । नीलानीलेषु वा स्निग्धा वर्षन्तेऽनिष्टयोनिषु ॥१४॥
अर्थ-रक्त अथवा अरक्त, हरित अथवा अहरित और नील अथवा अनील बादलोंमें यदि स्निग्धा विजली चमकती है यद्यपि वे बादल अनिष्टसूचक भी हों तो भी अवश्य वर्षा होती है ।।१४।। अथ नीलाश्च पीताश्च रक्ताः श्वेताश्च विद्यु तः। एतां श्वेतां पतत्यूद निद्य दुदकसंप्लवाम्॥१॥
अर्थ-अब विजलीके वर्ण कहते हैं कि नील, पीत, रक्त और श्वेत वर्णकी विलियोंमेंस श्वेत रंग की विजली ऊपर गिरे तो पृथ्वीपर जल ही जल हो जाता है ॥१॥ वैश्वानरपथे' विद्यु व श्वेता रूक्षा च विद्य तः । विद्यात्तदाऽशनिष रत्तायामग्नितो भयम् ॥१६॥
अर्थ-वैश्वानर पथ (अग्निकोण दिशा) में प्रकट हुई श्वेता और रूक्षा नामकी विजलियाँ विद्य त कही जाती है । ये तथा अशनि वृष्टिको करती है । रक्त वणकी विजली अग्निका भय करती है ॥१६।। यदा श्वेता च वृक्षस्य विद्यु छिरशि संचरेत् । अथवा ग्रहयोर्मध्ये वातवर्ष सजेन्महत् ॥१७॥
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किरण ७८ भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र
२६७ अर्थ-यदि श्वेत रंगकी विजली वृक्षके ऊपर गिरे अथवा दो गृहोंके मध्यमेंसे होकर गिरे तो बहुत वायुसहित वृष्टि होती है ॥१७॥ अथ चन्द्राद्विनिष्क्रम्य विद्य न्मंडलसंस्थिता । श्वेताऽभ्रा प्रविशेदक विद्यादुकसंप्लवम् ॥१८॥
__ अथ-यदि चन्द्रमण्डलसे निकल कर श्वेत अभ्रयुक्त विजली सूर्य-मण्डलमें प्रवेश करे तो उसे बहत वर्षाको करने वाली जानो ॥१८॥ अथ सर्याद्विनिष्क्रम्य रक्ता समलिना भवेत् । प्रविश्य सोमं वा तस्य तत्र वृष्टिर्भयङ्करा ॥१६॥
अर्थ-यदि सर्यमण्डलसे निकल कर रक्त वर्णकी मलीन विद्य त् चन्द्रमण्डलमें प्रवेश करे तो वहाँ भयङ्कर वातवृष्टि होती है । अथात् भारी वायु चलता है ॥१६॥ विद्य द्विद्य द्यदा भूत्वा ताडयत् प्रविशत्तदा । अन्योन्यं वा लिखेयातां वर्ष विन्द्यात्तदा शुभम् ॥२०॥
अथ-विजली विजलीसे ही ताडित होकर एक दूसरेमें प्रवेश करतो हुई दिखाई दे तो शुभ जानना अर्थात् वृष्टि करने वाली जानना ॥२०॥ राहुणा संवृतं चन्द्रमादित्य चापसव्यतः । कुर्याद्विद्य द् यदा साधा तदा सस्य न रोहति ॥२१॥
अर्थ-राहद्वारा चन्द्रमा और सय अपसव्य मागसे ग्रहण (असित) किया गया हो और वे अभ्रसे (बादलसे ) ढके हों और उस समय उनसे विजली निकले तो धान्य नहीं उगते ॥२१॥ नीला ताम्रा च गौरा च श्वेता चाभ्रान्तर चरेत् । सघोपा मन्दघोषा वा विद्य दुदकसप्लवम् ॥२२
__ अर्थ-तील, ताम्र, गौर और श्वेत बादलोंसे विजली का संचार हो और वह भारी गर्जना अथवा थोड़ी गर्जना युक्त हो तो अच्छी वृष्टि होती है ॥२२॥ मध्यमे मध्यमं वर्ष मध्यमे अधर्म दिशेत् । उत्तमं चोत्तमे मार्गे चरन्तीनां च विद्य ताम् ॥२३॥
___ अर्थ-इस श्लोकका तात्पर्य ऐसा होना चाहिए कि आकाशके मध्यम मार्गसे गमन करनेवाली विजली मध्यम वर्षा करने वाली जानना और जघन्य मार्गसे जघन्य (अल्प) वषो करनेवाली तथा उतम मार्गसे गमन करनेवाली उत्तम वर्षा करनेवाली जानना । ॥२३॥ वीथ्यन्तरेषु ' या विद्यु च्चरतामफलं विदुः । अभीक्ष्णं दर्शयेच्चापि तत्र दूरगतं फलम् ॥२४॥
__ अर्थ-यदि विजली वीथीके (चन्द्रादिकक मार्गके) अन्तरालमें सन्चार करे तो उसका कोई फल नहीं होता । यदि बार बार दिखाई दे तो उसका फल दूर जाकर होता है ॥२४॥ उल्कावत्साधनं ज्ञयं विद्य तामपि तच्चतः । अत्राभ्राणां प्रवक्ष्यामि लक्षणं तमिवोधत ॥२५॥ ___ अर्थ-विजलियोंकी उत्त्काकी तरह सिद्धि समझना चाहिए। अब आगे अभ्रों (बादलों) के लक्षण और फलको बताते हैं उन्हें यथावत् जानना ।।२५।।
इति नेनन्थे भद्रबाहुके निमित्त विद्यु ल्लक्षणं पञ्चमोऽध्यायः ।
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छठा अध्याय
अप्राणां लक्षणं कृत्स्नं प्रवक्ष्यामि यथाक्रमम् । प्रशस्तमप्रशस्तं च तनियोधत तत्त्वतः ॥१॥
अथ-बादलोंकी प्राकृतिके लक्षण यथाक्रमसे कहता हूँ। वे दो तरहके हैं-एक शुभ और दूसरे अशुभ ।।१।। स्निग्धाण्यभ्राणि यावंति वर्षदानि न संशयः । उत्तरं मागेमाश्रित्य तिथौ' मखे यदा भवेत् ॥२॥
अर्थ-चिकने बादल अवश्य वर्षा करते हैं इसमें कुछ संशय नहीं, और उत्तरदिशाके आश्रित बादल प्रात:काल अवश्य वर्षा करते हैं । ।।२।। उदीच्यान्यथ पूर्वाणि वर्षदानि शिवानि च । दक्षिणान्यपराणि स्युः समूत्राणि न संशयः ॥३॥
अर्थ-उत्तर और पूर्व दिशाके बादल सदा उत्तम वर्षा करते हैं और दक्षिण तथा पश्चिमके बादल मत्रके समान थोड़ी-थोड़ी वर्षा करते हैं, इसमें कुछ संशय नहीं। ॥३॥ कृष्णानि पीत-ताम्राणि श्वेतानि च यदा भवेत् । तयोनि शमासृत्य वर्षदानि शिवानि च ॥४॥
अर्थ-यदि बादल पीले, तांबे, और श्वेतवर्णके हों तो वे यह सचित करते है कि उत्तम वर्षा होगी।
अप्सराणां च सत्वानां सदृशानि चराणि च । सुस्निग्धानिच यानि स्यर्वष दानि शिवानि च ॥५॥ ___अर्थ-यदि बादल देवांगनाओंके और प्राणियों के सदृश आचरण करें अर्थात् विचरें और चिकने हों तो वे शुभ है और उनसे उत्तम वर्षा होती है ।।५॥ शुक्लानि स्निग्धवर्णानि बिन्दचित्रघनानि च । सद्यो वर्ष समाख्यान्ति तान्यभ्राणि न संशयः॥६॥
अर्थ-शुक्ल (श्वेत) वर्ण के बादल स्निग्ध सचिक्कण), बिन्दु समान विचित्र (लौकिकमें तीतरवर्णी) हों तो तत्काल वर्षाको करते हैं । शकुनैः करणैश्चापि संभवन्ति शुभैयैदा । तदा वर्षच क्षेमं च सुभिदं च जयं भवेत् ॥७॥
अर्थ-शुभ शकुन और अन्य शभ चिन्हों सहित यदि बादल हों तो वे वर्षा करते हैं तथा क्षेम. कुशल, सुभिक्ष और राजाकी विजय सूचित करते हैं ॥७॥ पक्षिणां द्विपदानां च सदृशानि यदा भवेत् । चतुष्पदानां सौम्यानां तदा विन्द्याज्जयं वदेत ॥८॥
अर्थ-सौम्य पक्षियोंके सदृश, सौम्य द्विपदों (मनुष्यों अथवा हंसों आदि) के सदृश और सौम्य चतुष्पदों (हाथी आदि पशुओं) के समान बादल हों तो उन्हें विजयको देनेवाले समझना चाहिये । यहांपर 'सौम्य' विशेषण है अतः इमसे यह तात्पर्य है कि बादलोंकी जो यह प्राकृति बतलाई गई है वह क्रूर प्राणियों जैसी न होकर सौम्य स्वभाववाले हस्ति, घोड़े, बैल, हंस, मोर, सारस, तोता, मैना, कोयल आदिकी तरह है। यदा राज्ञः प्रयाणे तु यान्यप्राणि शुभानि च । अनुमार्गाणि स्निग्धानि तदा राज्ञो जयं वदेत् ॥६॥
अर्थ-राजाके प्रयाण (चदाई) के वक्त यदि शभरूप बादल हों और वह मार्गानुसार (प्रयाण के अनुसार) गमन करते हों तथा वे चिकने हों तो उस यात्रामें राजाकी विजय होती है ॥ (क्रमशः)
। यहां तिथिका प्रात:काल प्रर्य किया गया है, क्योंकि तिथि नाम दिनका है और दिनका मुख प्रात:काल है।
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पंडित सदासुखदासजी
(ले० पं० परमानन्द जैन शास्त्रो, )
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पण्डितजीको जोवन घटनाओंका और उनके कौटुम्बिक-जीवनका यद्यपि कोई विशेष परिचय उपलब्ध नहीं है तो भी जो कुछ टीका ग्रन्थों में दी गई संक्षिप्त प्रशस्तियों आदि परसे जाना जाता है उसमें पण्डितजीको चित्त वृत्ति, सदाचारता आत्मनिर्भयता, अध्यात्मरसिकता, विद्वत्ता और सच्ची धार्मिकता पद पदपर प्रकट होती है । आपमें संतोष और सेवाभाव की पूरी स्प्रिंट थी और आपका जिनवाणी प्रति बड़ा भारी स्नेह था, जिसके देश देशा
डेराज कब हुए और उनकी वंश-परम्परा क्या न्तरोंमं प्रचार करनेकी आवश्यकताको आप बहुत है ? इसका कुछ भी पता नहीं चल सका ।
पण्डितजीके वंशमें आज भी मूलचन्द्र नामके एक सज्जन मौजूद है। आपके मकानमे एक चैत्यालय है, जो जयपुरमें चौकड़ी मोदीखाना मणिहारों के रास्तेमे स्थित है | पं० सदासुखदासजीने अपना कोई जीवन परिचय नहीं दिया; किन्तु अर्थप्रकाशिका - टीकाकी प्रशस्तिमे निम्न पंक्तियों द्वारा अपना और अपने पिताजीका नाम तथा गोत्र आदिका उल्लेखमात्र किया है। साथ ही आत्मसुख की प्राप्तिकी इच्छा भी व्यक्त की है, जैसा कि निम्न पंक्तियोंसे स्पष्ट है:
वीसवीं शताब्दी के हिन्दी साहित्यकारों में पंडित सदासुखदासजीका नाम खास तौर से उल्लेखनीय है । आपने अनेक गद्यात्मक हिन्दी टीका ओंका निर्माण किया है । आप जयपुर के निवासी थे । आपके पिताका नाम दुलीचन्द और गोत्रका नाम कालीवाल था । माताका नाम मालूम नहीं हो सका, आपका वंश 'डेडराज' के नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त था, इसी कारण आपको 'डेडाका' के नामसे भोपुकारते थे।
डेडाराजके वंशमाहि इक किचित् ज्ञाता, दुलीचन्दका पुत्र काशलीवाल विख्याता । नाम सदासुख कहे आत्मसुखका बहु इच्छुक, सो जिनवाणी प्रसाद विषयतै भए निरिच्छुक ॥ आपका जन्म जयपुरमे संवत् १८५२ के लगभग हुआ था, क्योंकि पण्डितजीने स्वयं रत्नकरण्डश्रावकाचार की टीका में अपनी आयुके ६८ वर्ष व्यतीत होनेकी सूचना की है और उस टीकाको सं० १६२० में बनाकर समाप्त किया है।
१ अडसठ बरस जु श्रायुके, वोतं तुम आधार । शेष श्रायु तव शरण, जाहु यही मम सार ॥ १७ ॥
ही ज्यादा अनुभव किया करते थे। इसीसे श्रापका अधिकांश समय शास्त्र- स्वाध्याय, सामायिक, तत्वचिन्तन, पठन-पाठन और ग्रन्थों की टीम अथवा अनुवादादि प्रशस्त कार्यों में ही व्यतीत होता था । आप राजकीय प्राइवेट संस्था (कापड़द्वारे) में कार्य करते हुए भी मांसारिक देह-भोगों से बराबर विरक्ति का अनुभव किया करत थे । भागों में आसक्ति अथवा अनुरक्ति जैसी कोई बात आपसे नहीं थो; प्रत्युत इसके उदासीनता संवेद और निर्वेद की अनुपम भावना आपके चित्तमे घर किये हुए थी और स्वपरके भेद-विज्ञानरूप आत्म-रसके आस्वादनकी सदा लगन लगी रहती थी; फिर भी शास्त्रोंके प्रचारकी ममता आपके हृदयमें अपना विशिष्ट स्थान रखती थी ।
यहां यह बात खास तौरसं नोट करने लायक है कि पण्डितजीके कुटुम्बीजन यद्यपि बीसपंथकं अनुयायी थे; फिर भी पण्डितजी स्वयं तेरा पथक पूर्ण अनुयायी थे। जिसका कारण उनके गुरु पं० मन्नालालजी और प्रगुरु प० जयचन्दजी छावड़ा आदिक विचारोंका उनपर प्रभाव बालशिक्षा समयसे ही पड़ना शुरू हो गया था, युवा प्रौढ़ाव
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अनेकान्त
| वर्ष १०
स्थामें उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होता चला गया। उस विभागमें कार्य करनेवाले अन्य व्यक्तियोंके वेततथा जिनवाणीके सतत अभ्यासकी साधनाने उसे नमें तिगुनी चौगुनी तक वृद्धि हो चुकी थी। आपकी
और भी सुदृढ़ बना दिया था। तेरापन्थ और वीस- इस सन्तोषवृत्तिक कुटुम्बो जनभी कायल थे, उसके पंथके विकल्पों और उनसे होनेवाली कटुताका कारण उनका बड़ा आदर करते थे। रौद्ररूप भो यद्यपि कभी कभी सामने आजाता था आपके एक शिष्य पं. पारसदासजी निगोत्या फिर भी आप अपनी चित्तवृत्तिको अस्थिर नहीं होने ने अपनो 'ज्ञानसूर्योदय नाटककी' टीकामे पंडित देते थे, यों ही सहज भावसे वीसपथके रीति-रिवा- जीका परिचय देते हुए उनके विषयमं जो विचार व्यक्त जों तथा भट्टारकाय प्रवृत्तियोंके प्रतिकूल अपने किये है उनसे पंडितजीकी आत्मपरिणति, चित्तवृत्ति मन्तव्योंका प्रचार करते थे और शुद्ध तेरापंथ और दैनिक कर्तव्यको झांकाका अच्छा पता
आम्नायको शक्तिपर पुष्ट भी करते थे। रत्नकरण्ड- चल जाता है। वे पद्य इस प्रकार हैश्रावकाचाकी टीकामें भी वीस पंथका निरसन पाया 'लौकिक प्रवीना तेरापंथ मांहि लीना, जाता है फिर भी वह उभय पंथके अनुयायियों द्वारा
मिथ्या बुद्धि करिछीना जिन बातम गण चीना है। उपादेय बनी हुई है । इसका कारण पण्डितजीकी
पढ़े ओ पढ़ावै मिथ्या अलटकू कढ़ावै, आन्तरिक विशद्धि ही है। वे कलह और विसंवाद
ज्ञान दाना देय जिन मारग बढ़ावै है। आदि अप्रशस्त कार्योमें अपना योग दान देना
दीसे घर वासी रहें घरहूतै उदासी, उचित नहीं समझते थे । शास्त्र प्रवचनम भी वस्तु
जिन मारग प्रकाशी जग कीरत जग भासी है। तत्त्वका विवेचन इम रूपसं करते थे कि श्रोता जन
कहां लौ कहीजे गुणसागर सुखदासजूके, कभी भी उनसे असन्तुष्टिका अनुभव नहीं करते थे।
ज्ञानामृत पीय बहु मिथ्या-तिस-नामी है।शा पडितजी अपने समय और पर्यायक मूल्यको सम- जिनवर प्रणीत जिन आगमे सूक्ष्मदृष्टि, झते थे इसीकारण वे अपने समयको व्यर्थ नहीं
जाको जस गावत अधावत नहिं सृष्टि है। जाने देते थे, किन्तु धमसाधनादि प्रशस्त कायोम
मंशय-तम-भान संताप-सरमान रह, उस व्यतीत करना अपना कर्तव्य समझत थे। आपके
सांचौ निज पर-स्वरूप भाषत अभीष्ट है। अनेक शिष्य थे, जो आपकी प्रेरणा और पठन
ज्ञान दान बढ़त अमोघ छ पहर जाके, पाठनकी सुविधासे सुयोग्य विद्वान बने थे। उनमे पं.
आशाका वासना मिटाई गुण इष्ट है। पन्नालालजा संघी, नाथूलालजी दोशी और पं.पारस
मुखिया सदीव रहे ऐसे गण दुलभ, दासजी निगोत्याके नाम खास तौरसे उल्लेखनीय है।
पारस, आजमाई सदासुखजू पर दृष्टि है ।।२।। आपमें सहनशीलता कूट-कूटकर भरी हुई इन पद्योंमें उल्लिखित दिन चर्यास स्पष्ट मालूम थी और चित्तवृत्तिमे अपार सन्तोष था। आजी- हाता है कि पंडितजी को ज्ञान गोष्टी अथवा तत्व विका निमित्त जो कुछ भी मिल जाता था चर्चासे कितना अनुराग था और वे अपने समयको
आप उसीसे अपना निवाह कर लते थे, पर उस व्यथ नहीं जाने दते थे किन्तु उसे स्व-परके हितअधिक की चाह-दाहमें जलना प्रायः समझते थे। साधनमें व्यतीत करते थे। उनका घरभी विद्याका कहा जाता है कि आपको राज्यकीय संस्था जिसका केन्द्र बना हुआ था और ज्ञान पिपासुजन वहाँ नामोल्लेख उपर किया जा चुका है, सिर्फ आठ या ज्ञानामृतका पान कर अपनी अज्ञानतृषाके सन्ताप दस रुपया महीना वेतन मिलता था और वह बरा- को मिटाया करते थे। इस तरह पंडितजीका छह बर चालीस वर्ष तक उसी प्रमाण में मिलता रहा- पहरका समय तो बहुत ही आनन्द और ज्ञानाराधना उसमें आपने कभी कोई वृद्धि नहीं चाही जब कि के साथ व्यतीत हो रहा था।
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किरण ७-८] पंडित सदासुखदासजी
३०१ सेवा-कार्य
तामै जिन चैत्याल लसैं, अप्रवाल जैनी बहु वसैं ५३ यों तो पं० सदासखदासजीका मारा ही समय बहुझाता तिनमें जुरहाय, नाम तासु परमेष्ठिसहाय । जैनधर्म और समाजकी सेवा करते हुए व्यतीत
जैन प्रन्थमें रुचि बहकर,मिथ्या धरम न चितमें धरे १४ हा है। पर उनका विशेष सेवा कार्य महान ग्रन्थों
सो सस्वारथ सूत्रकी, रचो वचनिका सार । की टीका कार्य है जिसे उन्होंने निःस्वार्थ भावसे नाम जु अथेप्रकाशिका, गिणती पांच हजार ॥ १५ सम्पन्न किया है। उनका यह टीका कार्य संवत्
सो भेजी जयपुर विर्षे, नाम सदासुख जास ।
सो पूरण ग्यारह सहस, करि भेजी तिन पास ॥१६ १९०६ से संवत १९२१ तक हुश्रा है इस १५ वर्षके
अग्रवाल कुलश्रावक कीरतचन्द्र ज ारे माहिसुवास । अर्से में उन्होंने ७ ग्रन्थोंकी टीकाएं बनाई हैं ।
परमेष्ठी सहाय तिनके सुत, पिता निकटकरि जिनके न म इस प्रकार है:
। शास्त्राभ्यास ॥१७॥ भगवती आराधना, तत्त्वार्थसत्र, नाटक समय
कियो ग्रंथ निज परहित कारण, लखि बहु रुचि मार, अकलंक स्तोत्र, मृत्यु महोत्सव, रत्नकरण्ड
जगमोहनदास। श्रावकाचार और नित्यनियमपूजा संस्कृत।
तत्त्वारथ अधिगमसु सदासुख, रास चहुँ दिश __ इन सब कार्योंसे पंडितजोकी विद्वत्ता और सेवा
अर्थप्रकाश ॥१८॥ कार्यकी प्रशंसा केवल जयपुर तक ही सीमित नहीं इन सब उल्लेखोंसे पंडितजीके सेवा भाबी जीवरही; किन्तु वह जयपुरसे बाहर पारा आदि प्रसिद्ध नकी झोंकीका बहुत कुछ चित्र सामने आ जाती है। नगरों तक पहुँच चुकी थी। चुनांचे आरा-निवासी अन्तिम जीवन और समाधिमरण पंडित परमेष्ठीसहाय जी अग्रवाल ने अपने पिता कीरत- पंडितजीका यह सुखद जीवन दुर्देवसे सहन चन्द्रजी के सहयोगसे जैन सिद्धान्तका अच्छा ज्ञान नहीं हुआ। और उनके अन्तिम जीवन में एक ऐसी प्राप्त किया था और बड़े धर्मात्मा सज्जन थे, और उम
दुखद घटना घटी, जिसकी स्वप्नमें भी किसीको समय आरामें अच्छे विद्वान समझे जाते थे। उन्होंने
कोई कल्पनाही नहीं हो सकती थी। पर उन्हें अपना माधर्मी श्री जगमोहनदासकी तरवाथ विषयके जानने
वृद्धावस्थामें इष्ट वियोग-जन्य असह्य दुःखकी वेदकी विशेष अभिरुचि देखकर स्व-परहितके लिये अर्थ
नाको सहसा उठाना पड़ा। अर्थात् उनके एक मात्र प्रकाशिका' नामकी एक टीका पांच हजार श्लाक
इकलौतेसुपुत्र गणेशीजालजोका वीस वर्षकी अल्पाय प्रमाण लिखी थी और फिर उसे संशोधनादिके लिये
म ही अचानक स्वर्गवास हो गया। गणेशीलालजीका जयपुरके प्रसिद्ध विद्वान पं. सदासुखदासजीके पडितजीने केवल पालनपोषण ही नहीं किया था पास भेजा था। पंडित सदासुखदासजीने संशाधन किन्तु पढ़ा लिखाकर सुयोग्य विद्वान भी बना दिया सम्पादनादिके साथ उस टीकाको पल्लवित करते हुये था। और समाजको उनकी सेवाका सुयोग्य अवसर ग्यारह हजार श्लोक प्रमाण बनाकर वापिस आरा प्राप्त होने ही वाला था कि कालने उसे बीच में ही कवभेज दिया था। इस टीकाके सम्पादनकायमें उनका जित कर लिया। जो पंडितजी की आशालताओंका पूरे दो वषका समय लगा था। और उसे उन्होंने केन्द्र बना हुआ था और पंडितजी उसे अपना उत्तसं० १६१४ में वैशाख शुक्ला ररिवारके दिन पूर्ण राधिकार सोपकर सर्व प्रकारस निश्चिन्त होकर किया था। यह टीकाभो बहुतही प्रमेय-बहल, सरल अपना शेष जोवन शांतिसे व्यतीत करना चाहते थे। तथा रोचक है। जैसा कि उक्त ग्रन्थकी प्रशस्तिके पर विधिन बीच में ही रंगमे मंग कर दिया। फलतः निम्न पद्योंमे प्रकट है
परिणाम वही हुआ जो होना था। इस असह्य "पूरवमें गंगातट धाम,अति सुन्दर पारा तिस नाम। दखद घटनाका आपके जीवनपर बहुत प्रभाव पड़ा।
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अनेकान्त
[वर्ष १० उससे पंडितजीका उपयोग अब किसीभी कार्यमें ग्रन्थभी बनाए हैं, परन्तु अभी तक देश-देशान्तरोंमें नहीं लगता था और न चित्तमें पूर्व जैसी स्थिरताहो उनका जैसा प्रचार होना चाहिये था वैसा नहीं थी। यद्यपि अन्तस्तलमें आत्म-विवेककी किरण हुआ है और तुम इस कार्यके सर्वथा योग्य हो, तथा अपना प्रकाश कर रही थीं और वे कभी कभी जैनधर्मके मर्मको भी अच्छी तरह समझ गए हो, उदित होकर सान्त्वनाकी अपूर्व रेखा सामने ला अतएव गुरु दक्षिणामें तुमसे केवल यही चाहता हूँ देती थीं, परन्तु चित्तमें वास्तविक शान्ति नहीं थी। कि जैसे बने तैसे इन ग्रन्थोंके प्रचारका प्रयत्ल करो यद्यपि पंडितजी अपनी दैनिक क्रियाओंका अनुष्ठान वर्तमान समयमें इसके समान पुण्यका और धर्म भी करते थे फिरभी उनमें पहले जैसी सरसता की प्रभावनाका और कोई दूसरा कार्य नहीं है।" और उल्लासकी आभा दिखाई नहीं देती थी। यह कहनेकी आवश्यकता नहीं कि पंडितजीके पंडितजी संसारकी परिवर्तनशीलतासे. और कर्म-• सुयोग्य शिष्य संधीजीने गुरुदक्षिणा देनेमें जराभी बन्ध तथा उससे होनेवाले कटक परिणामसे तो पाना कानी नहीं की। और आपने अपने जीवन में परिचित हो थे । अतः जब कभी वे वस्तु-स्थितिका
राजवातिक, उत्तर-पुराण आदि आठ प्रन्थों पर विचार करते थे तब कुछ समयके लिए उनकी वह भाषा वानकाए' लिखी है और सत्ताईस हजार चिन्ता दूर हो जाती थी; परन्त मोहोदयसे पुत्रके
श्लोक प्रमाण 'विद्वज्जनबोधक' नामक ग्रंथकाभी गुणोंका स्मरण आतेही वह पुनः व्यग्र हो उठते थे।
निर्माण किया है इसके सिवाय 'सरस्वतीपूजा' आदि यद्यपि उनके इस दुःखमें उनके शिष्य और मित्र
कुछ पुस्तकें भी लिखी है तथा अन्यसाधर्मी भाइयों तरह तरहसे सान्त्वना देनेका उपक्रम करते थे,
की सहायतासे एक 'सरस्वतीभवन' की स्थापना की और पंडितजी भी जब ज्ञान और वैराग्यकी विवे
थी, जिससे मांग आने पर ग्रन्थ बाहर भेजे जाते थे
इस कार्यका आप अपन गुरुकी अमानत समझत चना करते थे तब वे इतने आनन्द-विभोर होजात थे कि मानो उन्हें अपनी इष्ट वियोगावस्थाका
थे और उसका जीवनपर्यन्त तक निवोह करते रहे । भान ही नहीं है। इसी बीच उनके एक शिष्य
आपका पं० सदासुखदासजीम वि० सं०५६०७ स्व० सेठ मूलचन्द जी सोनी पंडितजीको जयपुर के मध्यवर्ती किसी समय साक्षात्कार हुआ था। अजमेर लेगये-वहां उन्हें कुछ अधिक शान्तिका पन्नालालजी रतनचन्द्रजी वैद्य दूनीवालोंके सुपुत्र थे अनुभव हुआ और कुछ समय के बाद उनकी चित्त और वे पन्नालालजीको पढ़ा लिखा कर सुयोग्य परिणति पूर्व जैसी होगई इससे उनके शिष्यों तथा
विद्वान बनाना चाहते थे, अस्तु पंडितजीके सदुपदेश मित्रों आदिको भी संतोष हुआ।
से ही संघोजीकी चित्तवृत्ति पलट गई और धर्मअजमेर में कुछ समय ठहरने के बाद पडितजीको ग्रन्थोंके अभ्यासको ओर उनका चित्त विशेषतया अपना इस पयोयके अन्त होनेका भान होने लगा उत्कंठित हो उठा, और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि मैं अतः सेठजीने जयपुरसे उनके प्रधान शिष्य पं०
आजसे रात्रिको १० बजे प्रतिदिन आपके मकान पर पन्नालालजी संघीको अपने पास बुला लिया। उस आकर जैन धर्मके ग्रन्थोंका अभ्यास एवं परिशीलन समय पंडित सदासुख दासजीने पंडित पन्नालालजी किया करूगा। जब संघीजी अपनी प्रतिज्ञानुसार स अपनी हादिक अलाषा व्यक्त की और कहा पंडित सदासुखदासजीके मकानपर रात्रिक १० बज कि “अब मै इस अस्थायी पर्यायसे विदा होता पहुँचे तब पंडितजीने कहा कि आप बड़े घरके हैहूँ। मैंने और मुझसे पूर्ववर्ती पंडित टोडरमल्लजी सुखिया है-अत: आपसे ऐसे कठिन प्रणका निर्वाह जयचन्द्रजी और पन्नालालजी आदि विद्वानोंने कैस हा सकेगा उत्तरमे संघीजीने उस समय तो कुछ असीम परिश्रम करकं अनेक उत्तमोत्तम ग्रंथोंकी नहीं कहा पर वे नियम-पूर्वक उनके पास पहुँचत सुलभ भाषावनिकाए बनाई है और अनेक नवीन १ विद्वज्जनबोधक प्रस्तावना पृ० ६-७ ।
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किरण ७-८1 भारतीय जनतंत्रका विशाल विधान
३०३ रहे और धामिक ग्रन्थोंका अभ्यास कर जैनधमके हे भगवति तेरे परमाद, मरणसमै मति होहु विषाद । तत्त्वोंका परिज्ञान प्राप्त किया।
पंच परमगुरु पद करि ढोक, संयम सहित लहूँ परलोक" पंडितजीको जब अपनी इस अस्थायी पर्याय चुनाँचे पडितजीने अपने शिष्योंके सहयोगसे के छूटनेका आभास होने लगा, तब उसी अपने शरीर का परित्याग समाधिमरण पूर्वक समय सर्व संकल्प विकल्पोंका परित्याग कर समा- अजमेग्में संवत् १६२३में या १४२४ के प्रारंभमें धिमरण करानेकी भावना शिष्योंसे व्यक्त को। यद्यपि किया था। पर उमफी निश्चित तिथि का प्रामाणिक समाधिमरण करनेको उनकी यह भावना संबत उल्लेख न मिलनेसे उसे यहाँ नोट नहीं किया गया। १६०८ में समाप्त होने वाली भगवती आराधनाकी इस तरह पंडित सदासुखदासजीका समय वि० टीका प्रशस्तिके निम्न दोहों में पाई जाती है जिससे सम्वतको १६ वीं शताब्दो उत्तराधं और २० वीं यह सहजही जाना जाता है कि वे अपनी इस शताब्दी पूर्वाध है। क्योंकि पंडितजीने अपनी पहली अस्थायी पर्याय का परित्याग कषाय और शरीरकी टोकाका निर्माण सं० १९०६ मे ५४ वर्षको अवस्था कृशन-पूर्वक शांतिके साथ करना चाहते थे। और के लगभग शुरू किया था और उसे दो वर्षमें बनासंयमसहित परलोक पानेको उनको अपनी कामना थी। कर समाप्त किया था। आपको यह टीका प्रौढ़ाव
"मेरा हित होनको और, दीखे नाहिं जगतमं ठौर। स्थामें लिखी गई है। और सब टीकाएं इसके बादकी यातैभगवति शरण जुगही, मरण अराधन पाऊं सही ही रचनाएं हैं।
भारतीय जनतन्त्रका विशाल विधान
(ले० विश्वम्भरसहाय प्रेमी)
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लगभग तीन वर्षके कठिन परिश्रमक उप- संचालनका काय आरम्भ करें। अपने इसी भाष. रान्त भारतीय विधान परिषदने २६ नवम्बर १९४६ मे अपने जनता-जनादेनके प्रति उचित सम्मान को भारतीय प्रजातन्त्रका विधान बनानेका दुस्तर प्रकट करते हुये भारतके ग्रामीण लोगोंमें अपना कार्य पूर्ण कर दिया। इस संविधानके द्वारा भारत विश्वास प्रकट किया था, जो वास्तवमें भारतको को सवाधिकारपूर्ण प्रजासत्तात्मक जनतन्त्र घोषित जान हैं, और नये मतदाताओं में जिनकी संख्या किया गया है। भारतीय संविधानके इस स्वरूपका सर्वाधिक है। निर्देश विधान परिषद के अध्यक्ष डा. राजेन्द्रप्रसाद अपने इस भाषणमें आगे चलकर डा० राजेन्द्रने अपने उस भाषणमें किया था, जो उन्होंने २६ प्रमादने यह भी कहा कि "भारत लोकतन्त्र प्रणानवम्बरको संविधानको अन्तिम स्वीकृति होत समय लीसे बहुत पुराने समयसे परिचित है, परन्तु यह दिया । आपने कहा था-"आइये, हम अपने विश्वा- लोकतन्त्र छोटा था । अब जिस ढंगका लोकतन्त्र सके साथ सत्य और अहिंसाके साथ, अपने भारतमें होने जा रहा है. वैसा पहिले कभी न थाहृदयमें साहम भर कर और अपने ऊपर परमात्मा यद्यपि तब और मुगलकालमें भी साम्राज्य था जो की छत्रछाया मानकर अपने इस स्वतन्त्र भारतके देशके बड़े भागमें फैला था। यह पहला ही अवसर
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३०४
अनेकान्त
है कि जब छोटे-से-छोटा और गरीब से गरीब नागरिक भी इस महान देशका जो कि दुनिया के सबसे बड़े राज्यों मेंसे है, राष्ट्रपति हो सकता है। यह मामूली बात नहीं है ।” महात्मा गाँधीजी ने तो यहां तक कहा था कि मैं चाहता हूँ कि एक योग्य हरिजन लड़की भारतकी प्रथम राष्ट्रनत्रा हो ।
इसमें भारतीय संविधानको राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक पृष्टभूमिक दशन मिल जाते है । संविधानकी राजनीतिक पृष्ठभूमि भारतीय संविधानकी प्रस्तावनाको पढ़नेसे स हो जाता है कि देशकी सरकारको सम्पूर्ण प्रभुता भारतकी जनता से प्राप्त होती है । सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक न्याय, विचार, विश्वास, तथा धार्मिक पूजाविधिकी स्वतन्त्रता नागरिकता के अधि कारों और विकास के अवसरामं समानता तथा ऐसा भ्रातृत्व जिसमे व्यक्तिका सम्मान हो और राष्ट्रकी एकता बनी रहे—यही तो प्रजासत्ताक शासन प्रणालोकी मुख्य विशेषताएं है यह समी विशेषताएं भारतीय संविधानकी प्रस्तावनामै उनक मुख्य उद्देश्योंके रूपमे रखदी गई है। विधानको जनतन्त्रात्मक इसलिए भी कहा जायेगा कि भारतक प्रधान अधिशासकका कोइ पद पैतृक अधिकार से प्राप्त होने वाला पद न होकर योग्यता तथा चुनाव के द्वारा मिलने वाला पद होगा ।
यहां हमे भारतोय संविधानको तुलना संयुक्तराष्ट्र अमेरकाके विधानसे करनेपर एक विचित्रताका पता चलेगा। दोनों हो संविधान संघीय ढाचेके हैं और दोनोंमें प्रधान अधिशासक जनता द्वारा निर्वा चित राष्ट्रपति होगा । किन्तु भारतीय संविधान में इस बातका प्रयत्न किया गया है कि इकाइयोंके मामले में सभी आधारभूत बातों में एक सदृशता लाई जावे, जिससे भारतीय संघ सरकार सुदृढ़ हो सके । यद्यपि भारतीय संविधानका रूप संघीय होनेके कारण उसमें द्विविध व्यवस्था होनी चाहिये थी, परन्तु देशके शासन मे दृढ़ता लानेके लिये आधारभूत बातोंमें एक सदृशता रखी गई है। उदाहरण के लिये
। वर्ष १०
अन्य संघीय संविधानोंके विपरीत भारतीय संवि धानमं द्विविध नागरिकता नहीं रखी गई है। सारे संघक लिये केवल एक भाररतीय नागरिकका विधान किया गया है और राज्यांके लिये कोई पृथक नागरिकता नहीं रखोगई है। इसी प्रकारसे दीवानी और फौजदारी कानूनों और न्याय व्यवस्था मे भी एकता संघको दृढ़ बनानेका एक साधन है । भार तोय संविधानको एक और विशेषता यह भी है कि किसी भी राज्यको संघसे प्रथक होने अथवा अपना संविधान स्वयं बना लेने का अधिकार नहीं दिया गया है ।
भारतीय संविधानकी एक और विशेषता यह भी रखो गई है कि आवश्यकता पड़ने पर उसका संघीय स्वरूप समाप्त हो सकता है और एकात्मक विधान के रूप मे व्यवहारमे लाया जा सकता है। साधारण परिस्थितियामें इस प्रकारका कदम उठाये जानेका कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगा | परन्तु युद्ध कालमे अथवा किसी भी राष्ट्रीय संकट के समयमे सारा देश एकात्मक राज्य के रूप बदला जा सकता है ।
संविधान में व्यक्तिका स्थान
भारतीय संविधानकी सबसे बड़ी विशेषता यह हैं कि उसमें व्यक्ति अधिकारों की बड़ी विशद और विस्तृत घोषणा की गई । संभवत: संसार भरक किसी भी विधान में इस प्रकारकी विशद घोषणा नहीं की गई है इसके दो कारण समझमे आते हैं । भारतम सामाजिक असमानता इतनी अधिक रही है, और इमी असमानता के आधारपर शोषण इतन दिनों तक चला है कि निम्न वर्गक कहे जाने वाले शाषितोंको प्रत्येक प्रकारका संरक्षण और आश्वासन दिया जाना आवश्यक था । ऐसामी लगता है कि भारतीय विधान निर्माताओंके सामने अमेरिकाके संविधानका उदाहरण भी मौजूद था । वजाय इसके कि भारत के सर्वोच्च न्यायालयको व्यक्तिक मूल अधिकारोंकी व्याख्या करने का अवसर दिया जाता, संविधान में हो इन मूल अधिकारोंकी घोषणा कर
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किरण --] भारतीय जनतंत्रका विशाल विधान
३०५ दी गई है। संविधानके द्वारा व्यक्तिको दिये गये २३वीं धारामे मानवका क्रय-विक्रय तथा बेगार अधिकार मुख्य रूपसे निम्न है
अपराध बनाये गये है और २४वीं धारामें कहा गया (१) समानताका अधिकार।
है ५४ वर्षको अवस्थासे कमका कोई बालक फैक्टरी (२) स्वतंत्रताका अधिकार |
या खान अथवा किसी खतरनाक कार्य में नहीं (3) शोषण के विरोधका अधिकार ।
लगाया जायगा। (४) धार्मिक स्वतंत्रताका अधिकार ।
धारा २५ से ३० तक में धार्मिक, सांस्कृतिक (५) सांस्कृतिक तथा शिक्षा संबंधी अधिकार । तथा शिक्षासम्बन्धी अधिकारोंका उल्लेख किया (६) सम्पत्तिसम्बन्धो अधिकार ।
गया है। (७) वैधानिक संरक्षणका अधिकार ।
३१वीं धारामें इस मौलिक सिद्धांतको प्रगट संविधान में यह भी कह दिया गया है कि किया गया है कि कानूनी तरीकके सिवाय, अन्य इन मौलिक अधिकारोंका सिद्धांत रूपमें विरोध किमी तरीकसे किसी भी व्यक्तिको उसकी संपत्ति करनेवाला कोई भी कानून यदि राज्यको धारासभा स वंचित न किया जायगा । जिस किसी भी संपत्ति स्वीकृत भी करेगी तो वह कानून व्यवहारमें नहीं का अधिकार या स्वामित्व सार्वजनिक हितके लिये लाया जा सकेगा। विधानकी १४वों धारामें कानूनके लिया जायगा, उसकी क्षतिपति की जायगी। आगे प्रत्येक व्यक्तिको समानताकी गारण्टी दी गई धारा ३२ में वह संरक्षण दिये गये है जिनके है। धमे, विश्वास अथवा रंगके आधारपर किसी द्वारा व्यक्तिके मौलिक अधिकारोंकी गारंटी दी गई भी प्रकारका भेद-भाव राज्य के कामांमें नहीं किया है। संविधान द्वारा प्रदान किये गये अधिकारोंको जायगा । यह सब कुछ होते हुए भी बिधानको १७वीं कार्यान्वित करानेका उत्तरदायित्व देशके सर्वोच्च धारामे अछूतपनक कलंक को मिटानक लिये विशेष न्यायालयको दिया गया है, जो सदैव इस बातके रूपस व्यवस्था की गई है और इस प्रकारसे व्यक्ति लिए सजग रहेगा कि व्यक्ति के मौलिक अधिकारों पर की समानताक अधिकारको पूर्ण रूपस पुष्टि कर दो कोई भी कुठाराघात न हो सके।
१६वीं धागमें नागरिकोंको भाषण करने तथा संविधानकी सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि विचार प्रगट करने, एकत्र होने तथा संस्थायें बनान, भारतीय संविधानके चतुथे खंडमें राष्टनीतिके आवागमन, निवास, सम्पत्ति प्राप्त करने, रखन तथा आदेशात्मक सिद्धांतोंकी घोषणा की गई है। इसमें हस्तांतरित करन, कोई भी उद्योग, धधा, व्यवसाय कहा गया है कि राज्य जनताकी सुख-सुविधाको या आजीविका अपनानेकी स्वतंत्रता दी गई है। बढ़ानेके लिये सदा यत्नशील रहेगा और उसके लिये हवियसकापसक सिद्धांतको विधानकी २०वा तथा वह इस प्रकारकी मामाजिक व्यवस्था पैदा करेगा, २१वीं धारामे निहित कर दिया गया है, जिसमें कहा जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय गया है कि किसी भी व्यक्तिको बिना कानूनी काय- प्रत्येक व्यक्तिको प्राप्त हो सके। विशेष रूपसे राज्य वाहीकं उसकी स्वतंत्रतासे वंचित नहीं किया जा इस बात के लिये यत्नशील रहेगा कि प्रत्येक नागरिक सकता । २२वीं धारा द्वारा व्यक्तिकी मनमाना गिर- को वह चाहे स्त्री हो या पुरुष आजीविका प्राप्त पतारी और अनिश्चित काल तककी नजरबन्दीक करनेका अधिकार होगा। विरुद्ध व्यवस्था की गई है। इसमें यह भी कहा गया इसी खंडमें यह भी कहा गया है कि राज्य है कि नजरबन्द त्तिोंको अपनी इच्छाके अनुसार देखेगा कि देशके उत्पादक साधनोंके स्वामित्व और किसी भी कानूनी सलाहकारसे सलाह लेनेका नियन्त्रणका इस प्रकारका बंटवारा हो जिससे सब अधिकार रहेगा।
का अधिक-से-अधिक लाभ और कल्याण हो सके।
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अनेकान्त
वर्ष १०
इसीमें कहा गया है कि आर्थिक व्यवस्था ऐसी न का उल्लेख नहीं किया गया है। संविधानने न त हो जाय जिससे कुछ व्यक्तियोंके हाथोंमें सारी देशको समाजवादो बनाया है और न साम्यवादी। संपत्ति केन्द्रित हो जाय और आम जनताका उससे पूजीवादो व्यवस्थाभो संविधान में नहीं की गई है। अहित हो।
इस मंविधानके प्रति की गई समाजवादियों की यह आदेशात्मक व्यवस्था भारत के लिये नई आलोचनाका मल आधार यही है कि कायेरूपमें चीज नहीं है। वास्तवमें यही चीजें थीं जिनके लिये इसके द्वारा पंजीवादका पिष्टपेषण होता रहेगा। कांग्रेस इतने दिनोंसे आजादीका संघर्ष चलाती रही उनका कहना है कि काँग्रेसने सदैव कुटीर, उद्योगों, राजनैतिक स्वतंत्रता उस समय तक बेकार है जब
खादी आम व जनताका नाम लेते-लेते भी पूजीपतितक जनताको आर्थिक रूपमें स्वतंत्रता और समा- गोंको बल प्रदान किया है। इस प्रकारको आलोनता प्राप्त न हो। जो मौलिक अधिकार और
चना केवल सहानुभूति की कमीके कारण ही हैं। सिद्धांत इस संविधानमें रखे गये है उनमें बहुत .
विधानमें इस बात की पूर्ण गुजाइम रखी गई है कि से करांची कांग्रेसके प्रस्तावमें निर्धारित किये जा चुके थे। कांग्रेसके कई चनावघोषणा-पत्रों में भी उनका
जनताको इच्छाओंके अनुकूल देश किसीभी आर्थिक उल्लेख किया जा चुका है। कई इसमेसे ऐसे आधा
व्यवस्थाको अपना सके। यदि अधिकांश जनमत रभूत सिद्धांत भी है जिनको राष्टपिता महात्मागांधी देशमें समाजवादो या माम्यवादी अर्थव्यवस्था राष्ट्रीय कार्यक्रमका आधार समझत थे। एक प्रकार चाहता है तो उस जनमतका प्रतिनिधित्व करने वाली से यह कहा जा सकता है कि पिछले पचास वर्पोमें सरकार इसी संविधानके ढांचेमें रह कर देशमें जिन अधिकारों तथा सिद्धांतोंके लिये हमारे राष्टने वैमी हो आर्थिक व्यवस्था ला सकती है। वह किसी अपना स्वाधीनता-संग्राम चलाया उन्हीं अधिकारों भी उद्योगका राष्टीयकरण कर सकती है। युक्तऔर सिद्धांतोंको इस संविधान में विशेष स्थान दिया प्रान्तमें जिम ढंगसे जमींदारी उन्मूलन किया जा गया है।
रहा है वैसे ही अन्य राज्यों में भी सरकार और भूमि ऊपर कहा जा चुका है कि इस मंविधानमें व्य- जोतने वालोंके बीच मध्यवर्तियोंको हटायाजा सकता क्तिके अधिकारोंकी इतनी विशद व्याख्या इस कारण है और यदि आम जनता चाहे तो यहांभी रूसके आवश्यक हुइ है क्योंकि सामाजिक रूपमें यहांकी .
म यहाका ढंगकी सामहिक कृषिकी व्यवस्थाकी जा सकती है। जनताका एक काफी बड़ा भाग पददलित रहा है।
यह एक दुर्भाग्यकी बात है कि प्रत्येक देशमें किसान और आर्थिक रूपमें उससे भी बड़ा भाग शोषित
के असन्तोपका लाभ उठाकर लोग क्रान्ति किया करते होता रहा है, इसी कारण समाजके इस अंगके लिये और फिर क्रान्तिके सफल हो जानेपर किसानकी संविधान में विशेष व्यवस्था की गई है। परिगणित जातियों और पिछड़े हुये कबीलों तथा कुछ अन्य
वैयक्तिक स्वतन्त्रता छीनकर उसे सामूहिक कृषिपिछड़े हुये क्षेत्रोंके लिये सविधानके पांचवें शालामें मजदूर बननेके लिये भेज दिया जाता है। छठे परिशिष्टमे शासनप्रबन्धकी विशेष व्यवस्था
भारतका किसान वैयक्तिक स्वतन्त्रताका सबसे बड़ा
पक्षपाती है। जिस गतिसे युक्तप्रान्तमें जमींदारी मिलती है । परिगणित जातियों और पिछड़े हुये
उन्मलनका कार्य चल रहा है, यदि उसी गतिसे अन्य कबीलोंके लिये दस वर्ष तक जन-संख्याक आधार पर केन्द्र तथा राज्योंकी धारासभाओंमें सीटें सुर
स्थानों में से भी जमींदारियाँ हटा दी गई तो फिर क्षित की गई है।
किमानका असन्तोष दूर हो जायगा और भारत
__ में साम्यवादी अथवा तानाशाही क्रान्ति सफल नहीं सहानुभूतिशून्य आलोचना
हो सकेगी। इस संविधानमें किसी विशेष आर्थिक व्यवस्था
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किरण -- भारतीय जनतंत्रका विशाल विधान
३०७ मूल इकाइयोंमें स्वायत्त शासन फि भारत विदेशियोंके इतने आक्रमणोंको अपनी संविधानकी २० वीं धारा अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रामव्यवस्थाके कारण ही झेल सका है। यदि है। इसमें कहा गया है कि "सरकार गांव-पंचायतें .
उसका प्रामसंगठन इतना शक्तिशाली न होता तो संगठित करनेका यत्न करेगी और उन्हें ऐसे अधि
प्रत्येक विदेशी आक्रमणके बाद देश तहस-नहस हो कार और सत्ता प्रदान करेगी जो गाँव-पंचायतोंक
गया होता । इतनी उच्च कोटिका स्वायत्त शासन स्वायत्त शासनकी इकाइयोंके रूपमें कार्य करनेके
सम्भवतः विश्वके किसी भी विधानमें : नहीं लिये प्रयोजनीय हों।" यह भी वह मौलिक सिद्धान्त
रखा गया है। रूसमें भी व्यक्ति और आधारहै जिसके लिये कांग्रेस इतने दिनोंसे प्रयत्नशील थी।
भूत इकाइयोंको इतने विस्तृत अधिकार नहीं दिये कांग्रेस तथा महात्मा गांधीजीका विश्वास था कि
गये हैं। वहां तो पार्टी-मैशीन इतनी शक्तिशाली है सच्ची स्वतन्त्रता तभी कार्यान्वित हो सकती है जब
कि वहांका सम्पूर्ण विधान देखनेमें संघीय और पूर्ण कि नीचेके स्तरपर की इकाइयां-अर्थात हमारे
रूपसे जनतंत्रात्मक होते हुए भी वहां एकच्छत्र तानाग्राम-स्वतन्त्र जनतन्त्रके रूपमे बनाये जा सके।
शाही शासन संभव हो सका है । भारतीय संवियह कोई नवीन बात नहीं है। गोस्वामी तुलसी
धानमें आधारभूत इकाइयों, अर्थात् प्रामोंको स्वादासी मंथराको हम कहते हुए सुनते है-"को यत्त शासन देते समय चनावप्रणाली ऐसी रखी गई नृप होउ हमे का हानी"। इसका अभिप्राय यह
है कि किसी भी समय किसी दल-विशेषको संविनहीं था कि इस देशकी आम जनताको राज्य और
धानकी आत्माकं विपरीत उसे तानाशाही विधानमें राज्यनीतिसे कोई सरोकार नहीं था, बल्कि इसका बदलनेका अबसर न मिल सके। एकमात्र अभिप्राय यही था कि सारे दशमें पंचायतों अन्तमें सभी बातोंको ध्यानमें रखते हुए कहा का ऐसा जाल फैला हुआ था और उनके अधिकार जा सकता है कि भारतीय संविधानके अन्तर्गत जनता
विस्तृत थे कि आम जनताको इस बातका की आशाओं और आकांक्षाओंके अनुकूल विकास कभी पता भी नहीं चलता था कि केन्द्र में कितने और प्रगतिकी पूर्ण गुंजाइश है। भारी परिवर्तन हो गये हैं। सच्चाई तो यह भी है
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सम्राट अशोक के शिलालेखोंकी अमरवाणी
(श्री निर्द्वन्द )
महाराज अशोक से तो सभी परिचित हैं। उन्हींका चक्र हमारी राष्ट्रीय ध्वजामें विराजमान है । उन्होंने समय समय पर जो शिलायें बनवाई थीं, और उनपर उनके जो धार्मिक उपदेश लिखे हुये हैं, वे विचारणीय हैं, अतः कुछ शिलाओंके लेख नीचे दिये जाते है ।
प्रथम लेख - यह पवित्र शिलालेख महाराजाधिराज प्रियदर्शिनद्वारा लिखा गया है ।
“यहाँ (राजधानी में ) कोई पशुबलिदान के लिये न मारा जाए। न त्योहार मनाए जाएं। क्योंकि प्रिय दर्शिन राजा उनमें बहुत से दोष देखता है। कोई कोई त्योहार बड़े बुरे हैं, वे नत्रों के सामने भी न पड़ें।
पहले प्रियदर्शिनके भोजनालय मे बहुतसे जो वत पशु कढ़ी बनानेके लिये मारे जाते थे ।
पर अब, जब यह पवित्र शिलालेख लिखा जा रहा है, केवल तीन पशु अर्थात दो मोर और एक मृग प्रतिदिन मारे जाते हैं, और कभी कभी यह भी नहीं ।
ये तीनों भी भविष्य में न मारे जायेंगे ।" द्वितीय लेख -- “ मनुष्य तथा पशुओंके सुखके
लिए प्रबन्ध |
महाराज प्रियदर्शिन के राज्य में और आधोनस्थ राज्यों जैसे चोला, पांडया, सातिया पुत्र कोलपुत्र, तथा अन्य स्थानों में राजा प्रियदर्शिन की ओरसे दो प्रकार के उपाय ( औषधालय) किये गये है । एक पशुओंके लिये और दूसरा मनुष्योंक लिये । औषधियोंकी जड़ी बूटियाँ जो मनुष्य और पशुओं को लाभ पहुँचा सकती हैं प्रत्येक स्थानों पर जहां नहीं होती है, भेज दी गई हैं और उत्पन्न कराई गई हैं।
उसी प्रकार से कन्द तथा फल, जहां कम थे वहां भेजे और उगाये गये है ।
सड़कों के किनारे पेड़ लगा दिये गये हैं और मनुष्य और पशुओं के हेतु कुएं' खुदवाये गये हैं ।" तृतीय लेख - महाराजा प्रियदर्शिन इस प्रकार से कहते हैं -
"मैं अपने राज्य के तेरहवें वर्ष में निम्न घोषणा करता हूँ
मेरे राज्य में प्रत्येक स्थानपर कर्मचारी कर वसूल करनेवाले प्रबन्ध करनेवाले, प्रति पांचवें वर्ष एक साधारण सभा किया करें जिसमें दया धर्मके नियमों की घोषणा के अतिरिक्त यह कहा जाय कि मां बापको आज्ञा मानना अच्छा है, मित्रों, सम्बन्धियों, ब्राह्मणों, साधुओंके साथ नम्र व्यवहार करना अच्छा है । जोवनकी पवित्रताका आदर करना अच्छा है । भाषा (बोल-चाल) की तीव्रता तथा
फक्कड़पनको दूर करना अच्छा है ।
उपदेशकगण इन बातों का विवरण लेखों द्वारा तथा अपने श्राचार द्वारा प्रजाको समझा दें ।
चतुर्थ लेख - सैकड़ों वर्ष बीत होंगे, बहुत समय से जीवोंकी हिंसा करना, पशुओं पर अत्याचार सन्तोंका अपमान करना चला आया है । करना, सम्बन्धियोंका निरादार करना, ब्रह्मण-साधु
पर अब महाराजा प्रियदर्शिन दयाशस्त्र से, युद्ध के नगाड़े बजाकर नहीं, वरन दयाकं नगाड़ े बजाकर, जब कि जनता रथों, घोड़ों तथा आतिशवाजीके दृश्यों को देख रही है, राजा प्रियदर्शिन इस बातकी, जो मैकड़ों वर्षोंसे नहीं हुई, दया धर्मकी रक्षाके, लिये घोषणा करता है कि पशुओंका हनन बन्द हो, उन
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किरण ] सम्राट अशोकके शिलालेखोंकी अमरवाणी
३०६ पर अत्याचार न किये जायें। ब्राह्मण, सम्बन्धियों ठीक है मनुष्य अपनी इच्छाओं और अपनी साधुओंका आदर किया जाए। माता-पिता तथा आकांक्षाओंमें अस्थायी है। बड़ोंकी श्राज्ञा मानी जाए।
कळ धर्मावलम्बी कलका पालन करेंगे और कुछ अब बहुत-सी अन्य रीतियों द्वारा दयाका प्रचार थोडेका ही। कुलका तो पालन करना सदाचारी हो रहा है । और राजा प्रियदर्शिन उममें वृद्धि करने पुरुषों के लिये भी असम्भव है क्योंकि जितेन्द्रिय का यत्न करेगा।
बनना, मनको पवित्र करना, उदार तथा कृतज्ञ बनना __ महाराजाधिराज प्रियदाशनके लड़के, पोते, पर- प्रत्येकका कार्य नहीं है।" पोते संसारके अन्त तक इस कार्य में वृद्धि करेंगे और
छठा लेख-"प्राचीन समयमें राजा, महाराजा दयाधर्मी तथा सदाचारी बनकर दयाका प्रचार करेंगे। क्योंकि दयाका पालन करना व्यभिचारियों
भ्रमणके हेतु जब निकलते थे, तब आनन्द प्राप्त
करना विशेषतया मृगयाद्वारा मन बहलाना उनका का काम नहीं है। __इस विषयकी उन्नति तो अच्छी है पर पहन
काम था। अच्छा नहीं है।
__पर प्रियदशिन गजा अपने राज्यके ग्यारहवें इस लेखका उद्देश्य यही है कि मनुष्य इसकी वर्ष सत्य ज्ञानकी खोजके लिये निकला उसने दया वृद्धि करें और अवनति करके दुःख न पावें।" धर्मका प्रचार किया, ब्राह्मण और साधुओंका
यह महाराजा प्रियदर्शिनकी आज्ञासे उसके श्रादर करना बताया, बड़ोंकी भाशा माननेको कहा, राज्यके तेरहवें वर्षमे लिखा गया है।
दयाधर्मपर विवाद किए, और उसकी घोषणा की। पञ्चम लेख
इस प्रकार प्रियदर्शिनको आनन्द प्राप्त करनेकी नियमका पूर्ण पालन करना ।
और ही रीति है जो प्राचीन रीतिसे सवथा भिन्न है। "महाराजा प्रियदर्शिनकी इच्छा है कि प्रत्येक स्थान में प्रत्येक धर्मके पुरुष इसका पालन करें, क्यों- आशा है राजा और प्रजा इन शिलालेखोंसे कि वे सब जितेन्द्रिय बनना और मन पवित्र करना कुछ लाभावन्ति होंगे। चाहते है।
'नवयुग'
"
ख-इसी किरणमें अन्यत्र श्री अगरचन्दजी नाहटाका 'जैन धातु-मूर्तियोंकी प्राचीनता' शीर्षक एक लेख मुद्रित हो रहा है। उसमें प्रापने अनेक धातु-मूर्तियों को पहली-दसरी प्राति शता. हिदयोंका भी होना उल्लेखित किया है। वह विचारणीय है और विशेष प्रकाशको अपेक्षा रखता है। अतः उन जेखोंका फोटो तथा अन्य सहायक साधन सामग्री प्रकाशमें लाना चाहिये।
-स० सम्पादक।
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साहित्य-परिचय और समालोचन जीवन-साहित्य-(विश्व-शान्ति अंक) अहिंसक पूर्ण लेख प्रकाशित हैं और जो सभी पठनीय हैं। नवरचनाका प्रमुख मामिक पत्र, सम्पादक श्री जीवनसाहित्यका प्रत्येक अंक महत्वका होता है किंत हरिभाऊ उपाध्याय तथा श्री यशपाल जैन, प्रका- यह अक पिछले सभी अंकों और विशेषांकोंसे भी शक सस्ता साहित्य मण्डल, नई देहली, वार्षिक अच्छा बन पड़ा है और जिसके लिये उसके सयोग्य मल्य ४), इस अंकका शा)।
सम्पादकोंको धन्यवाद दिये बिना नहीं रहा जा प्रस्तुत मासिक विगत ग्यारह वर्षोंसे प्रकाशित
सकता। होरहा है । यह हिन्दीके उच्च कोटिके पत्रोंमें प्रमुख ज्ञानोदय- (विश्व-शांति अंक), श्रमणसंस्कृतिका
और अहिंसक नव रचनाका अप्रतिनिधि पत्र है अप्रदूत मासिक, सम्पादक मुनिकांतिसागर, पं० गांधीजीके सत्य और अहिंसा सिद्धान्तोंका प्रचार फूलचन्द्र सिद्धांतशास्त्री, प्रो. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, करनेवाला यह खास पत्र है । भारतने सदा ही इस अंकके सहायक विष्णुप्रभाकर । प्रकाशक भारविश्वको शान्तिका मार्ग दिखाया है । ढाई हजार तीय ज्ञानपीठ काशी । वार्षिक मूल्य ६), इस अंकका वर्ष पूर्व भगवान महावीर और भगवान् बुद्धने ११)। संसारको जिन सिद्धान्तोंका उपदेश देकर विश्वमें यह मासिक भारतीय ज्ञानपीठ काशोसे उक्त शान्ति तथा सुखकी समृद्धि की थी आज उन्हीं सुयोग्य सम्पादकोंके सम्पादकत्वमें गत जुलाई माससिद्धांतोंका पुन: गांधीजीने विश्वको उपदेश देकर से प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत अक उसका विश्वशान्तिका मार्ग प्रशस्त किया है । गत दिनों देशक शांति विशेषांक है। इसमें देश-विदेशके प्रख्यात विभिन्न भागोंमे विश्वके शान्ति-इच्छुकोंके शान्तिः कोई ३३ विद्वानोंके महत्वपूर्ण लेख निबद्ध हैं और सम्मेलन हुए थे और उन्हें बापूके मागेद्वारा शांति जो ध्यानसे पढ़ने योग्य हैं। ये सभी लेख विश्व-शांति स्थापित होना बतलाया गया था। इस अंकमें उसी की दिशा बतलानेवाले है। यदि इस प्रकारका उद्देश्यकी पूर्तिका प्रयत्म हुआ है । इसमें देश-विदेश साहित्य देश-विदेशके कोने-कोनेमें पहुँचे तो कोई क आचार्य विनोवा, डा०राजेन्द्रप्रसाद, श्री अरविंद. असम्भव नहीं कि दुनिया उन्हें न पढ़े और पढनेपर श्री माताजी, श्री होरेस अलेक्जेण्डर, महात्मा भग- उनपर कोई असर न हो । ऐसे साहित्यकी सृष्टि वानदीन, श्री काका कालेलकर, श्री किशोरलाल जहाँ हिन्दीके भण्डारको समृद्ध बनाती है वहाँ घ. मशरूवाला, श्री हरिभाऊ उपाध्याय, डा०प्रफ. पाठकोंको मानसिक स्वस्थ एवं आल्हादकारक भोजन ल्लचन्द्र घोष, श्री राजकुमारी अमृतकौर, श्री दादा भी प्रदान करती है । पत्रके सुयोग्य सम्पादकों और धर्माधिकारी, डा० कैलाशनाथ काटजू , श्री बनारसी- ज्ञानपीठ काशीका यह सामयिक प्रयत्न सराहदास चतुर्वेदी, श्री जैनेन्द्रकुमार, श्री कमलनयम नी है। बजाज, श्री एस. जी. वैरिंगटम, श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री, स्वामी सत्यभक्त, श्री यशपाल जैन, श्री डा.
दरियागंज, देहली। दरबारीलाल जैन, वासुदेवशरण अग्रवाल जैसे ४२ विद्वानोंके विचार.
१७ फरवरी १६५०,
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प्राप्तपरीक्षापर डा० ए.एन. उपाध्ये एम.ए. को सम्मति जैन समाजके प्रख्यात साहित्यसेवी डा. ए. एन. उपाध्ये एम.ए., प्रोफेसर राजारामकालेज कोल्हापुर ने वीरसेवामन्दिरसे प्रकाशित प्राप्तपरीक्षाके नवीन संस्करण पर न्यायाचार्य पं.दरबारीलाल कोठियाको प्रतिकी पहुंच भेजते हुये अपनी शुभ सम्मति भेजी है । उसमें आपने लिखा है
'आप्तपरीक्षाकी प्रति मुझे मिल गई। श्रापकी प्रस्तावना सरसरी निगाहसे मैंने पढ़ ली है। वह बहुत व्यवस्थित, विद्वत्तापूण और साम्यग्दृष्टि से लिखी गई है। आचार्य विद्यानन्दोके बारेमें भापकी प्रस्तावना एक व्यापक और प्रामाणिक निबन्ध है । आप्तपरीक्षा की यह श्रावृत्ति जैनन्यायका अभ्यास करने वालोंके लिये बहुत उपकारक होगी। इसमें मुझे कुछ भी सन्देह नहीं है। मैं आपका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। और आगे आपसे बड़े २ प्रन्थोंका विद्वत्तापूण सम्पादन होनेको आशा रखता हूँ।'
व्यवस्थापक, 'वीरसेवामन्दिर स्वाध्यायप्रेमियोंके लिये उत्तम अवसर भारतको राजधानी देहलीमें वीरसेवामन्दिरके तत्त्वावधानमें समाजके जिनवाणोमक्त दानी महानुभावोंकी आर्थिक सहायतास एक सस्ती जैन प्रन्थमालाकी स्थापना हुई है। प्रन्थमाला. का प्रत्येक प्रन्थ गृहस्थोपयोगी है-स्त्री पुरुष और बच्चोंके लिए उसका लेना बड़ा ही लाभदायक और अत्यन्त धावश्यक है। इसलिये प्रत्यक सद्गृहस्थका कत्तब्य है कि वह इन प्रन्यरत्नोंको खरीदकर जिनवाणीके स्वाध्यायसे आत्म-कल्याण कर । इस ग्रन्थमालासे प्रकाशित ग्रंथोंको प्रायः लागतसे भी कम मूल्य में दिये जाने की योजना की गह । अभी नीचे लिखे प्रन्थ छप रहे हैं। जिन ८ प्रन्यांका लागत मूल्य १५) है, वे पूरा सेट लेनेवाले सज्जनोंको लागतसे भी कम मूल्य १२) में
और पद्मपुराणको छोड़कर शेष ७ ग्रन्यांका सेट सिर्फ ७) में देनेका निश्चय किया है। जिन्हें इन ग्रंथरत्नोंकी आवश्यकता हो वे ग्राहकोंमें अपना नाम लिखवाकर और अपना मूल्य भेजकर 'वीरसंबामन्दिर आफिस ७३३ दरियागंज देहली' से रसीद लेलें । प्रन्थ जैसे-जैसे तैयार होते
जायेंगे उसी क्रमसे वे उनके पास पहुंचते रहेंगे। १ रत्नकरण्डश्रावकाचार-सजिल्द लगभग ८०० पृष्ठ (मूल समन्तभद्राचार्य, टी०५० सदासुखदासजी ३) २ मोक्षमार्गप्रकाशक-सजिल्द लगभग ५०० पृष्ठ (पं० टोडरमलजो,) ३ जैनमहिलाशिक्षासंग्रह-पृष्ठ २४० ४ सुखकी झलक-पृष्ठ १६० (पूज्य वीजोके प्रवचनोंका सुन्दर संकलन) ५ श्रावकधम संग्रह-पृष्ठ २४०(पं०दरयावसिंह, श्रावकोपयागी पुस्तक) ६ सरलजैनधर्म-पृष्ठ ११२ (बालकोपयोगो पुस्तक) ७ छहढाला-पृष्ठ १०० (पं० दौलतरामजी व पं० बुधजनजी कृत) ८ पद्मपुराण-(सजिल्द बड़ा साइज) पृष्ठ ८०० (मूल० रविषेणाचार्य, टो० पं० दौलतरामजी) ६)
मन्त्री-सस्ती ग्रन्थमाला नं० ७३३ दरियागंज, देहली।
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Regd. No. D, 397
वोरसेवामंदिरके प्रकाशन र अनित्य-भावना-मा० पचनन्दिकृत भावपूर्ण ६. उमास्वामिश्रावकाचारपरीक्षा-मुल्तार भी
औरदयग्राही महत्वकी कृति, साहित्य-तपस्वी पण्डित पं०जुगलकिशोरद्वारा लिखित प्रन्य-परीक्षाओंका इतिहाजुगलकिशोर मुख्वारके हिन्दी-पद्यानुवाद और भावार्य स-सहित प्रथम अंश । मूल्य चार पाना । सहित । मूल्य चार माना।
७. विवाह-समुद्देश्य-पंडित जुगलकिशोर २. प्राचार्य प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थसूत्र-सरब- मुख्तारद्वारा रचित विवाहके रहस्यको बतलानेवाली संपियनषा सूत्र-ग्रन्य, पं. जुगलकिशोर मुख्तारकी और विवाहोंके अवसरपर वितरण करने योग्य सुन्दर एं सुबोध हिन्दी-ग्याल्यासहित । मूल्य चार पाना। कृति । मूल्य पाठ पाना । ३. न्याय-दीपिका-(महत्वका सर्वप्रिय संस्क
ना पकाशन, रण)-अभिनव धर्मभूषण विरचित न्याय-विषयकी १. आप्नपरीक्षा-म्वोपजटीकामहित-( अनेक सुबोध प्राथमिक रचना । न्यायाचार्य पं. दरबारीलाल विशेषताओंसे विशिष्ट महत्वपूर्ण अभिनव संस्करण) कोठियाद्वारा सम्पादित, हिन्दी-अनुवाद, विस्तृत (१०१ तार्किकशिरोमणि विद्यानन्दस्वामि-विरचित प्राप्तविषयपृष्ठकी) प्रस्तावना, प्राकथन, परिशिष्टादिसे विशिष्ट, की अद्वितीय रचना. न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाल ...पृष्ठ प्रमाण, लागत मूल्य पाँच रुपया। विद्वानों, कोठियाद्वारा प्राचीन प्रतियोंपरसे मंशोधित और सम्पा., छात्रों और स्थाध्याय-प्रेमियोंने इस संस्करणको बहुत दित, हिन्दी-अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना, और समाजके पसन्द किया है। इसकी थोड़ी ही प्रतियाँ शेष रही हैं। बहश्र त विद्वान पंकैलाशचन्द्रजी शास्त्री द्वारा लिम्बित
शीघ्रता करें। फिर न मिलनेपर पछताना पड़ेगा। विचारपणा प्राक्कथन तथा अनेक परिशिष्टोंसे अलङ्क,त. 1 ४. सत्साधुस्मरणमङ्गलपाठ-अभूतपूर्व सुन्दर २०४२६/८ पेजी माइज, लगभग चार-सा पृष्ट प्रमाण,
और विशिष्ट सङ्कलन, सकलयिता पंडित जुगलकिशोर लागत मूल्य पाठ रुपया। यह संस्करण प्रकाशित मुख्तार । भगवान महावीरसे लेकर जिनसेनाचार्य हो गया है। मपर्यन्तके २१ महान् जैनाचार्योंके प्रभावक गुणस्मरणोंसे ..श्रीपुरपार्श्वनाथ-स्तोत्र-उक्र विद्यानन्दाचार्य.. युक्र । मूल्य पाठ पाना ।।
विरचित महत्वका स्तोत्र, हिन्दी-अनुवाद तथा प्रस्ता५. अध्यात्मकमलमार्तण्ड–पञ्चाध्यायो नथा वनादि सहित । सम्पादक-न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाटोसंहिता आदि ग्रन्थोंके रचयिता पंडित गजमल्ल लाल कोठिया । मूल्य बारह माना। विरचित अपूर्व प्राध्यात्मिक कृति, न्यायाचार्य पंडित ३. शासनचतुस्त्रिशिका-विक्रमकी १३ वों दरबारीलाल कोठिया और पं. परमानन्द शास्त्रीके शताब्दीके विद्वान् मुनि मदनकीर्ति-विरचित तीर्थसरल हिन्दी-अनवादादिसहित तथा मस्तार पंडित परिचयात्मक एतिहासिक अपूर्व रचना, हिन्दी अनुवादजुगलकिशोरद्वारा लिखित विस्तृत प्रस्तावनासे विशिष्ट । सहित । सम्पादक-न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाल मस्य डेढ़ रुपया।
कोठिया । मूल्य बारह पाना। व्यवस्थापक बीमामन्दिर,
७३३ दरियागंज, देहली। * XYHYyixxxsMMSRAMMXxxx प्रकाशक-परमानन्द जैन शास्त्री, वीरसेवामंदिर ७/३३ दरियागंज देहली, मुद्रक-अजितकुमार जैन शास्त्र.
अकलंक प्रेस, सदरबाजार, देहली।
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किरण
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सम्पादक जुगलकिशोर मुम्तार
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३१३
१२३
-: विषय-मची :विषय १. शम्भुम्नोत्र
[सम्पादक ..... .. • अपभ्रश भाषा के दो महाकाव्य और कविवर
[पं. परमानद शास्त्री नयनन्दी ३. पुरातन जैन शिल्पका मंक्षिप्त परिचय [६० बालचन्द्र एम.ए. ... ४ प्रकाश
[वा० जुगलकिशोर कागजी ५. कतिपय प्रकाशित ग्रन्थोंकी अप्रकाशित
[श्री अगरचन्द्र नाहटा .... प्रशस्तियां ६. अन्यत्र अप्रकाशित अजित प्रभुचरित्र | श्री अगरचन्द्र नाहरा .... ७. भद्रबाहु निमित्त शास्त्र
[यग्र जवाहर लाल जैन .... ८. पतितपावन जैनधर्म
[पू.स. गणेशप्रसाद जी वर्णी ६. भगवान महावीर
[डा गोरी जी भार्गाव १०. पूज्य वर्गीजीका पत्र
[२. परमानंद शाम्बी ११. मंजट पदका बहिष्कार
[डा हागनाल जैन . मंजद शब्द का निष्कासन
[पं. परमानन्द शास्त्री १३. श्री अगरबन्द नाहटा के लेग्व पर नोट (पं० परमानंद शास्त्री
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भ्रातृ-वियोग! अपने और वीर सेबामन्दिरके बहुत बड़े प्रेमी श्रीमान् बाबू छोटेलालजी और बाबू नन्दलालजी जैन कलकचा अभी तक मातृ-वियोगके दुःखसे शान्त नहीं हो पाये थे कि ढाई महीनेके भीतरही उनके बड़े भाई गुलजारीलालजीका भी, ५६ वर्षकी अवस्थामें चैतवदि १२ बुधवार वा० १५ फर्वरीको दिनके ११॥ बजे देहावसान होगया! आप कुछ अर्सेसे नमे आदिकी बीमारीके कारण अस्वस्थ चल रहे थे
और कई महीने तक बा० छोटेलालजीके साथ जयपुर रहकर इलाज कराते रहे हैं। जयपुरसे कोई एक महीना पहलेही स्वस्थसे होकर कलकत्ता पहुंचे थे कि वहीं कालने उन्हें आ धर दवाया! मरनेसे पहले बा० छोटेलालजीसे मिलकर कुछ कहनेकी उनकी बड़ी इच्छा रहो परन्तु दुर्दैव अथवा प्रबल होनहारके पशपा० छोटेलालजी समय पर पहुँच नहीं सके, जिसका उन्हें बड़ा ही दुःख तथा खेद है। उनके पत्रस मालूम हुआ कि भाई गुलजारीलालजी अन्त समयमें २५ हजार स्याद्वाद महाविद्यालय काशीको दान कर गये हैं और भी कुछ दान उन्होंने किया होगा जिसका हाल अभी तक मालूम नहीं हो पाया । इम दुःखके अवसर पर बाबू साहषान, मृतात्माकी धर्मपत्नी और अन्य कुटुम्बी जनोंके प्रति मेरो तथा बीरसेवामंदिरपरिवारकी हार्दिक समवेदना है । साथही मृतात्माको परलोकमें सुखशान्तिकी प्राप्तिहो ऐसी प्रान्तरिक भावना है।
जुगलकिशोर मुख्तार
पितृ-वियोग! अनकान्त के प्रेमी पाठक, पटनाक बाबू अनन्तप्रसादजी जैन बी० एस-सी. इंजिनियरके शुभ नामसे भने प्रकार परिचित हैं। श्राप कुछ अर्सेसे अनेकान्तमें बराबर लिखते रहते हैं और अच्छे निर्भीक
या खदार विचारके ममाजसेवी विद्वान् है। हाल में आपके पत्र यह मालूम करके बड़ा अफसोस हमा कि आपके पू. पिताजीका देहान्त २७ फर्वरीको दिनके दो बजे छपरा जिला सारनमें अपने बड़े पुत्र मा० जिनवरप्रसाद वकील के पास होगया है ! देहावमानके समय आपकी अवस्था प्रायः ७८ वर्षकी थी। पत्रपरसे यह भी मालूम हुआ कि आप जैन-धर्मके अनन्य श्रद्धालु, प्रगतिशील विचारवाले, पक्क नेशनलिस्ट, उच्च शिक्षाके बहुत बड़े प्रेमी और एक साधु प्रकृतिके सद्गृहस्थ थे। बहुत वर्ष पहले जब कि लघुपुत्र बा• अनन्तप्रसादकी अवस्था दो वर्ष कीही थी, आपकी पत्नीका देहान्त होगया था और
आपने पुत्रोंकी हितसाधनाकी दृष्टि से अपना दूसरा विवाह नहीं कराया था। आपका मरण बड़ी शान्तिके साथ 'अहन्त, सिद्ध, सोऽहं' तथा 'शुद्धचिद्रूपोऽहं' का ध्यान करते हुए हुआ है। इस पितृ-वियोगके अवसर पर बाबू माहबके दुःखमे समवेदना व्यक्त करते हुए हम मृतात्माके लिये परलोक में सुख-शांति की हार्दिक भावना करते हैं।
सम्पादक
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* वार्षिक मूल्य ५ ) ★
विश्व तत्य-प्रकाशः
अने
वर्ष १० किरण ६
: ॐ अहंम :
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नीतिविशेषध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् ! परय्यागमस्य वीजे भुवनैकगुरुर्जयत्यनेका
वस्तु तत्त्व-संघोतक
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★ इस किरणका मूल्य ॥) ★
मार्च १६५०
वीर सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम ), ७/३३ दरियागंज, देहली चैत्र शुक्ल वीरनिर्वाण-संवत् २४७६, विक्रम संवत् २००७
मुनिश्रीरत्न कीर्ति-विरचित-
शम्भु-स्तोत्र
| यह शम्भुस्तोत्र मुझे हालमें, जयपुरक श्री बड़ा मन्दिरजीके शास्त्र भण्डारका निरीक्षण करते हुए, एक जीर्णशीर्ण गुटकेपरसे ता० ६ मार्च सन् १९५० को उपलब्ध हुआ है। इसके कर्त्ता मुनिरत्नकोति हैं जेसा कि अन्तिम पद्यसे जाना जाता है, और उन्होंने अपने गुरु आदिका कोई परिचय साथमें नहीं दिया इसलिये यह बात अभी अन्वेषणीय ही है कि ये कौनसे रत्नकीर्ति मुनि हैं । प्रस्तुत स्तोत्र बढ़ा सन्दर, प्रपन्न, गम्भीर और अलंकारों तथा भावोंसे परिपूर्ण है । इसमें जिस शम्भुका जिन विशेषणोंके साथ स्तवन किया गया है वे उस शंभुका बोध करानेके लिये पर्याप्त हैं जो कविका इष्ट स्तुत्य भगवान् है और जिसके विषयमें बार बार यह कहा गया है कि ऐसे (सच्चे) शंभु वे लोग प्रणाम नहीं कर पाते हैं जो पुण्यहीन हैं—उसकी पूजा बन्दनाका सस्सौभाग्य पुण्यथानोंको ही प्राप्त होता है । [पुण्यहीन तो नामादि की कुछ समानताओं के कारण किसी दूसरे ही शंभु की उपासना किया करते हैं ] । कवि वह वन्दनीय शंभु युगादिदेव श्रीवृषभनाथ भगवान् (आदिनाथ) है, जिसकी भक्तिपूर्वक श्राराधमासे संसारी जीब संसारके दुःख समुद्र से पार होकर श्रनुपमस्खस्वरूप अद्भुत सिद्धिको प्राप्त होते हैं। इस स्तोत्रमें लोकप्रसिद्ध शंभु (महादेवनामक रुद्र) के कितनेही कथित विशेषणोंको किस चतुराई एवं सावधानी के साथ अपने इष्ट शंभुमें यथार्थताको दृष्टिसे घटित किया गया है वह विद्वानोके देखने जानने और मनन करने की वस्तु हैं। इस स्तोत्रका एक अच्छा हिन्दी
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मनवाद विशेषणपदोंका यथार्थ स्पष्टीकरण और दोनों शंभुषोंमें उनकी तुलना करता हुश्रा प्रकट होना चाहिये। गटके में यह स्तोत्र बहत कुछ अशुद्ध लिखा हुआ हैं स-श, न-ण, ब-ब, जैसे अक्षरोंके प्रयोगका ठीक विवेक न करके बहुधा एकके स्थान पर दूसरा अक्षर लिखा गया है और भी व्याकरण सम्बन्धी कुछ प्रशद्धियां पाई गई हैं जिन्हें प्रायः लिखने तथा मम्पादनके समय यथा शक्ति. ठीक किया गया है। श्राशा है पाठकों को यह स्तोत्र रुचिकर होगा और वे इससे यथेष्ट लाभ उठायेंगे-सम्पादक]
(उपेन्द्र वनादयः) निगकृताऽशेष विपक्ष-वर्ग विभावितानेक सुधम-मार्गम् । निरंजन शान्तमनेकमेकं न पुण्यहीना विनमन्ति शम्भुम् ॥१॥ निरम्बरं नित्यमहं विमोहं प्रमाणनिष्णातमतिप्रणतम् । पुरत्रय-ध्वंसहुताशनाढ्य न पुण्यहीना विनमन्ति शम्भुम।।२।। युगादिदेवं पुरुषोत्तमोत्तमं पिंगद्य तित्रावृत-खप्रमाणम । . हैमद्य ति चन्द्रमरीचिशोभं न पुण्यहीना बिनमन्ति शम्भुम् ॥३। सदावदातापरवक्त्र शोभं शोभालयं तर वलयं विभायम् । सुराऽसुरप्रार्थितसिद्धिहेतु न पुण्यहीना बिनमन्तिशम्भुम् ॥४॥ वृषाश्रयं वृष्यविधानकायं वृष्यापहाध्यानममानबोधम् । वषेशवंद्य वृषभं सनातनं न पुण्यहीना बिनमन्ति शम्भुम् ।।५।। त्रिलोचनं चित्रतनु विदीश समस्तदेवात्मकमष्टर तिम् । दुरक्षरक्षतपाविधानं न पुण्यहीना विनमन्ति शम्भुम् ॥६॥ भुजंगसेव्यं भुवनत्रयेश जितान्तकं मन्मथमानघातम् । भव्यांबुजानीकविबोधनेनं न पुण्यहीना विनमन्ति शम्भुम ७ स्याद्वादविद्याविभवैकमूलं कुमार्गनिर्नाशनलोललीलम् । दक्षाध्वरध्वंसकर वरेण्यं न पुण्यहीन। विनमन्ति शम्भुम् ॥८॥ नगात्मजास्थानचिरन्तनष्ट लोकाप्रबासं भुवनकवासम् । गुणाष्टक व्यक्ति तकात्यकृत्यं न पुण्यहीना विनमन्ति शम्भुम् ।।६।।
(शार्दूलविक्रीडितम) भक्या ये प्रणमन्ति निर्मलधियः शम्भ भवाम्भोनिधेः । संततु मुनिरत्नकीतितपदां सिद्धि प्रांत्यद्भ ताम् । आदौ राज्यमनेकसौख्यनिचयं भुक्त्वा प्रदायार्थिने, नानारत्नधनानि दैन्यविसरे धूलीजलान्यादरात् ॥१०॥
KK122K2KX2KZNAK2KZN28282828282K2KUK76%
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अपभ्रंश भाषाके दो महाकाव्य और कविवर नयनन्दी
( लेखक - पं० परमानन्द जैन शास्त्री )
1101
हुआ
भारतीय भाषाओं में संस्कृत और प्राकृतकी तरह अपभ्रंश भाषाका भी साहित्यसृजनमें महत्वपूर्ण स्थान रहा है । वह हिन्दीकी जननी है इसमें किमी भी विचारवानको विवाद नहीं हो सकता । इस भाषा में प्रचुर साहित्य रचा गया है और उसका अधिकांश भाग जैन कवियोंकी लेखनीसे प्रसूत है यद्यपि इस भाषा का कितनाही प्राचीन बहुमूल्य साहित्य नहीं मिलता, फिर भी आज इसका जो महत्वपूर्ण साहित्य उपलब्ध है उसे देखते हुये यह निस्संकोचरूपसे कहा जा सकता है कि वर्तमान हिन्दी भाषा जो आज राष्ट्र भाषा बनने जा रही है उसके उद्गमका प्रधान श्र ेय अपभ्रंश भाषा और उसके सिक साहित्यिक जैन विद्वानोंका ही प्राप्त है। यह भाषा कितनी कोमल, ललित, मरस और माधुयं युक्त है इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं, इसके रसिक विद्वान उसकी महत्तासं स्वय परिचित हैं । आज मैं इस लेख द्वारा अपभ्रंश भाषाके दो महा काव्यों का संक्षिप्त परिचय पाठकों के समक्ष रखनेका उपक्रम कर रहा हूं। ये दनों ही काव्य-प्रन्थ अपने आपमें परिपूर्ण हैं और एकहो कविकी उज्ज्वल प्रतिभास द्योतक है और अभीतक अप्रकाशित हैं। ये संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश भाषाके विविध छन्दों उपमाओं और अलंकारों आदिकी दिव्य छटा से अलंकृत है । इनमें काव्योचित वे सभी गुण विद्यमान है जिन्हें काव्य शास्त्री अपने अपने ग्रन्थों 'चुन चुन कर रखनेका प्रयत्न करते हैं।
में
कविने अपने ग्रन्थों में अर्थ गाम्भीर्य युक्त कविता
की प्रशंसा करते हुए उसकी महत्ता व्यक्त की है और छुद्र कवियोंकी स्खलित पदरचना में उनकी असमर्थता की ओर संकेत किया है। इतनाही नहीं बल्कि काव्यके आदर्शको बार बार व्यक्त करते हुये लिखा है कि रस और अलकारसे युक्त कविकी कवितामें जो रस मिलता है वह न तरुणिजनोंके विद्रुमसमान रक्त अधरमे, न आम्रफलमें, न ईखमें न अमृतमें, न चन्दन मे, और न चन्द्रमामें ही मिलता है। जैसा कि उसके निम्न पदसे प्रकट है:
'यो संजादं तरुणि अहरे विद्र मारक्तसोहे | णो साहारे भमियभमरे व पुढच्युडंडे । गोपोसे हले सिहिणे चन्दणे णेव चन्दे | साल का सुक भणिदे जं रसं होदि कव्वे ॥” यदि इस लोकप्रिय भाषाके इन अप्रकाशित समस्त ग्रन्थोंका आधुनिक ढंग से प्रकाशन हो जाय तो उससे न केवल हिन्दी भाषाके इतिहासकी सृष्टि होगी, किन्तु तत्कालीन विलुप्त इतिवृत्त के संकालन में भी बहुत कुछ सहयोग एवं सहायता मिल सकेगी । इन काव्य प्रन्थोंके नाम सुद सण चरिउ, (सुदर्शन चरित) और 'सयलविहि विहारणकव्व' (सकलविधि विधान काव्य ) है । इन दोनोंही प्रन्थों और उनके कतोदि विषयका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करना ही इस लेख का एक मात्र लक्ष्य है ।
प्रथम प्रन्थ सुदर्शन चरितमें पंचनमस्कार मंत्र का फल प्राप्त करने वाले सेठ स दश ेन के चरित्रका चित्रण किया गया है । चरित्र नायक वणिक श्रेष्ठ हैं उसका चरित्र अत्यन्त निर्मल तथा मेरुवत् निश्चल
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३१४
अनेकान्त
[वर्ष १०
है उसका रूप लावण्य इतना चित्ताकषक था कि द्वारा सदशनको राजमहलमें पहुंचा देता है। सुदउसके बाहर निकलते ही यातजनोंका समूह उसे शनके राज महलमें पहुँच जानेपर भी अभया १ देखनेके लिये उत्कंठित होकर बाहर मकानोंका छनों अपने कायमें असफल रह जाती है-उसको मनोद्वारों तथा झरोखोंमें इकट्ठा हो जाता था, क्योंकि कामना पूरी नहीं हो पाती। इससे उसके चित्तमें वह कामदेवका कमनोय रूप जो था। साथमें वह असह्य बेदना होती है। और यह उसे अपने अपगुणज्ञ और अपनी प्रतिज्ञाके सम्यक्पालनमें अत्यन्त मानका बदला लेने को उतारूहो जाती है और अपहद था धमाचरण करने में तत्पर था। मब में नी कुटिलताका मायाजाल' फैलाकर अपना समिष्ट भाषी, मानव जीवनको महत्तासे परिचित था कोमल शरीर अपने हो नखोंसे रुधिर-प्लावित कर और था विषय-विकारोंसे विहीन ।
डालती है और चिल्लाने लगती है कि दौड़ो लोगो कथाभाग प्रन्थका कथा भाग बड़ा ही सुन्दर और आक... ग्रन्थमें निहित अभया और सुदशनके विचारोंकी र्षक है, वह इस प्रकार है:
तुलना भी मनन योग्य है और उसका कुछ अंश इस अंग देशके चम्पापुर नगरमें, जहां धाड़ीवाहन ।
प्रकार है:राजा राज्य करता था-वैभव-सम्पन्न ऋषभदास
सुइ दंसशु चिनइ उन्बरेमि, श्रेष्ठ का एक गोपालक था जो गंगामें गायोंका पार
__ अभया चिाइ सुदरु रमेमि । करते समय पानीके वेगसे डूबकर मर गया था और
सुहदसशु चिन: कम्मणासु, मरते समय पश्चनमस्कार मंत्रकी आराधनाके फल
___ अभया चितइ सुरयाहिलासु । स्वरूप उसी सेठके यहां पुत्र हुआ था, उसीका नाम
सुहृद सगु चितइ णागलाहु, सुदशन रक्खा गया । सुदर्शनको उनके पिताने सब
अभया चितइ हुउ अण्ण-डाहु । प्रकारसे सुशिक्षित एवं चतुर बना दिया और उस- . सुहृदंगु चितइ मोक्वमन्गु, का विशाह सागरदत्त सेठकी पुत्री मनोरमास कर दिया
अभया चितइ भुजइ ण भोगु। अपने पिताकी मृत्युके बाद वह अपने कार्यका विधि
सुहृदंमा चिसद खमि कम्मु, वत संचालन करने लगा। सुदर्शनक रूपकी चारों
अभया चितइ महु किउ अहम्मु । और चर्चा थी उसके रूपवान शरीरको देखकर उस मुहृदंसणु चितह जगु अणिच्चु, नगरके राजा धाड़ी वाहन को रानो अभया उस पर
__ अभया चितइ महु पत्तु मिच्चु । आसक्त हो जाती है और उसे प्राप्त करनेकी अभि- घत्ता-सुर्दसण चिंतइ हियए अवदरेमि अडयण साइस
अदमयकल्लाणहि सहिउ रे जीव अरुहु बाराहम ३१ यहां भेजती है, पण्डिता दासी रानीकी प्रतिज्ञा सन- २. वीयंदयार सूई मुहेहि, फाडिउ सरीरु णियकररुहेहि । कर रानीको पातिव्रत धर्मका अच्छा उपदेश करती घण यण सहति लोहियविलित्त, णं कणयकुभधुतिणणसित्त है, और सुदर्शनको चरित्र-निष्ठाकी ओर भी वच्छलएस हत्यहिं हणंति' । संकेत करती है, किन्तु अभया अपने विचारमें निर
उहिय हयास लहु इय भणन्ति । चल रहती है और पण्डिताको उक्त कार्य की पूतिके
धसमुसलु परं गणरत्त चित्त, लिये खास तौरसे प्रेरित करती है । पडिता सुदर्शनके ।
महयाइहिं डिएण डंकहि पहुत्त । पास कईवार जाती है और निराश होकर लौट घता-महु लडङ्गइ वणिवरेज, एयई गंजियइं पलोयहो । पाती है पर एक बार वह दासी किसो कपट-कला जास समारइ ता मिलेवि' अहो भावहो णे चितइ तावहि
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किरण] अपभ्रंश भाषा के दो महाकाव्य
३१५ मुझे बचाओ! मुदर्शनने मेरे सतोत्वका अपहरण कविने स्वयं अपने काव्यके आदर्शका उल्लेख किया कियाहै। राज कमवारी सुदर्शनको पकड़ लेते हैं और है:राजा अज्ञानता वश क्रोधित होकर रानाके कहे अनुः कामल वयं उदार छंदाणुवर गहारमस्वट्ठ। सार सुदर्शनका सूलीपर चढ़ानेका आदेश दे देता है हिय इच्छिह सोहग्ग कस्स कलत्तच इह कव। पर सुदर्शन व्रतनिष्ठाकी महत्तासे विजयी हाता प्रथमें अनेक स्थलों पर अनेक सुभाषित तथा है-एक देव प्रकट होकर उसको रक्षा करता है। देशी कहावतोंका उल्लम्ब भी किया गया है उनमें राजा धाड़ीवाहनका उस यंतरसे युद्ध से यहां पाठकों को जानकारोके लिये एक दोहा उल्लेख होता है और राजा हार जाता है। नीचे किया जाता है:
और स दर्शनकी शरण में पहुंचता है। राजा "करे कंकणु किपारिसे दोसए" हाथ कंगनको पारसी क्या घटनाके रहस्यका ठोक हाल जानकर अपने कृत्य "एक हत्थे तालंकिं वज्जह किंमार वि पंचमु गाइज्ज" पर पश्चात्ताप करता है और सुदर्शनका राज्य देकर ताली क्या एक हाथसे वजती है, ताडनसे क्या विरक्त होना चाहता है; परन्तु सदशन संमार- पांचवा स्वर गाया जाता है। भोगोंसे स्वयं ही विरक्त है, वह दिगम्बर दीक्षा 'पर उपदेश.दितु बोह जाणइ' परको उपदेश देना बहुत लेकर तपश्चर्याद्वारा कर्मममहका विनाशकर मुक्त जानते हैं। हो जाता है। सुदर्शनका तपस्वी जीवन छदोंकी भरमार तो इस काव्य ग्रंथ की अपनी बड़ा सुन्दर रहा है और उसे कवि व्यक्त करनेमें विशेषता और मौलिकता है इस तरह यह काव्य पृण सफल रहा है। अभया और पडिता दामीभी ग्रन्थ अनेक विशेषताओंसे परिपूर्ण है और अपआत्मघात कर मर जाती है और अपने कमानुसार
भ्रश भाषाके अभ्यासियांक लिये बड़े कामकी चीज कुगतिमें जाती है। इस तरह इस ग्रन्थमें पंचनम
है। इसका प्रकाशन शीघ्र होना चाहिए । कार मत्रके फलको महत्ता बतलाई गई है।
कवि नयनन्दीने सुदर्शन चरितको रचना धारा
_ नगरोमें स्थित जिनवर विहार मे रहते हुए वि. सं. ___ प्रस्तुत प्रन्यमें बारह सन्धियां हैं जिनमें सदर्शन
११००मे राजा भोजदेवके राज्य कालमें की थी। के चरितको अंकित किया गया है । सुदर्शनका चरित
जेसा कि उमक निम्न वाक्यांसे प्रकट है। अत्यन्त उज्वल और आदर्श है इसलिये अनेक
आराम गाम-पुरवर-णिवेस, सुपसिद्ध अवंतीणाम देख ग्रन्थकारोंने उसे निवद्ध किया है। परन्तु इमकाव्य
सुरवई पुरिम्व वित्रुहमगिट्ठ, नहिं अस्थिधार सपरीगरिह प्रन्थमें कविकी कथन शैली, रस और अलंकागेकी
रणि दुद्धर परिवर सेलवज, रितुए वासुर जणिम पुट, सरस कविता, शान्ति और वैराग्य रस तथा
चोज्ज। प्रमंगवश कलाका अभिव्यंजन, नायिकाके भेद ऋतु तिहयण णारायणामिरि णिक उ, ताहि सारथइपुगमु भोय देड वर्णनोंका और उनके वेष भूषा आदिका चित्रण, और मणिगण पह पम्मिय गभस्थि, तहि जिणवरु बद्ध विहारुमत्यि यथास्थान धर्मोपदेश आदिका मार्मिक विवेचन तथा शिव विस्कम कालही ववगएस, एयारह संबच्छर सएस । गुण इस काम्य ग्रन्थकी अपनी विशेषताके निर्देशक तहि केवल चरिउ अमच्छोण, रणयंणदी विरहबित्थरेण है और कविकी आन्तरिक भद्रता तथा निर्मल प्रतिभा जो पदह सणहभावह लिहेह, सोसासयसुहु अधिरब लहेद के मंद्योतक है।
कवि नयनदीकी दूसरी महत्त्वपूर्ण कृति सयल यह प्रन्थ एक सुन्दर महाकाव्य है, प्रथमें भाषा और विहि विहाण कम्ध है जिसमें अनेक विधि-विधानों भावोंका सजीव चित्रण कलाकारकी विशेषता है आर आर आराधनाओंका समुल्लेख अथवा विवेचन
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अनेकान्त
३१६
किया गया है । प्रन्थमें ५८ संधियां हैं। प्रन्थकी यह सं० १५८० की लिखी हुई है जो सुन्दर एवं सुवोध्य अक्षरों में लिखी गई है और जिमकी पत्र संख्या ३०४ है ग्रन्थ भट्टारक महेन्द्रकोति आमेरके ज्ञान भंडार में सुरक्षित है। इस ग्रंथकी आद्यप्रशस्ति बड़ी ही महत्वपूर्ण है, उसमें ग्रन्थरचना और गुरुपरम्परा के साथ अपने समसमयवर्ती तथा अपनेसे पूर्व वर्ती अनेक जैन जैनेतर कवियों का नामोल्लेख किया गया है जो ऐतिहासिक दृष्टिसे बड़े महत्वका है प्रन्थ इस समय सामने न होनेसे उसका विस्तृत परिचय देना संभव नहीं है, हां इतना कहने में कुछभी आपत्ति नहीं कि ग्रन्थ विशालकाय है उसमें विविध विवर्त्तित है और अपभ्रंशके रड्ढा आदि सौसे अधिकांसे अलंकृत हैं साथही ललितकाव्य ग्रंथों जैसी विशेषताएं उमको अपनी मौलिकता को निर्देशक हैं । कविकी प्रतिभाका ग्रन्थमें खूब उपयोग
है और उससे विकी चमत्कारिणी लेखनीका सहज ही में भान होजाता है। ग्रंथ कितना सरल और चित्ताकर्षक है यह उसके पढ़नेसे ही सम्बन्ध रखता है । प्रथके अंत में कोई प्रशस्ति नहीं है, यह निम्न पुष्पिका वाक्य हो उसकी समाप्तिका सूचक जान पड़ता है:
मुणिवर यदी सचिब पसिद्धे सयल विहिषिहाणे एत्थ कन्वे सुभव्वे । अरिह पमुह यत्त्वस्तुमाराहणा पण फुड संधी अट्ठावरण ममोति ।। ग्रन्थ अपने आपमें परिपूर्ण तो है ही उसकी महत्ता उसके अध्ययन और मननसे स्वतः ही ज्ञात हो जाती है और महाकाव्याँसे उसकी समता भले प्रकार की जा सकती है । इस अप्रकाशित ग्रन्थके प्रकाशन से जहां अपभ्रंश भाषा ज्ञान भंडारकी अभिवृद्धि होगी वहां हिन्दी भाषाक विकासपर भी काफी सामग्री संचितकी जा सकेगी। साथही यह भी मालूम हो सकेगा कि ११ वीं शताब्दी में हिन्दी भाषा का रूप किस अवस्था तक विकसित हो चुका था ।
[ वर्ष १०
ग्रन्थरचना और समयादिका निर्देश
को रचनाका निर्देश करते हुए लिखा है कि बारा कविवर नयनन्दोने-सकल-विधि-विधान काव्य नगरी में नमि नामका एक ठाकुर था जो सव प्रकार से सम्पन्न था उसन त्रेलोक्य कोर्तिस्वरूप एक सुप्रसिद्ध सिंह मुनि निवास करते थे जो जिनशासनरूप विहार बनवाया था । उमो विहारमे आचार्य हरिनगर के तोरण, वाग्दवो रूपा तरंगो के लिये मगर मच्छ थे और जिनको तपः श्रा बहुतांका मन चुगतो थी । इन्होंके समाप मुनि नयनन्दोभी रहते थे जिनका वाणी कोमल था और जिनका चित्ताभिलाष प्रस्फुटित हारहा था। तब आचाय हरिसिंहने कहा कि निर्दोष काव्य की रचना करो | नयनन्दोने अपनो लघुता प्रकट करते हुए अपनो असमर्थता व्यक्तको और वह कि मुझे छंद अलंकार, काव्य करण और साहित्या दिका विशेष ज्ञान नहीं है तब आचाय श्राने हंसते हुए उत्तर दिया कि तुममे शीघ्रकविता करन की प्रति मा तो है अथात् आप जल्दो ही अच्छी कविता कर सकते है आचाय हरिसिंहकी प्रेरणासही इस काव्यप्रन्थको रचना हुई है ।
ग्रन्थ में पर- अपरवर्ती तथा समकालीन जिन विद्वानों का उल्लेख किया गया है उनके नाम इस प्रकार है: - वररुचि, वामन, कालिदास, कौतूहल, चा, मयूर, जिनसेन, वारायण श्राष, राजशे वर जसचन्द्र, जयराम, जयदेव पालित्त ( पादलिप्त १) पाणिनो प्रवरसेन, पातञ्जलि पिंगल, बोरसेन, सिंह नंदि, सिंहभद्र, गुणभद्र, समन्तभद्र, अकलक, रुद्र, गोविंद, दंडी भामह भारवि, भरह चउमुह, स्वयंभु पुष्पदन्त, श्रीचन्द्र, प्रभाचन्द्र, और श्रीकुमार, जिन्हें 'सरस्वती कुमार' भो सूचित किया है। जैसा कि उनक निम्न प्रशस्ति वाक्योंसे प्रकट है:भरणु जएगा वक् बम्मीय वासु, ares नाम कविकालियाम् । काऊहलु बाणु मऊरु सुरु,
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करण.]
अपभ्रंश भाषा के दो महाकाव्य
३१७
जिणसेण जिणागम कमलसूरु।
सारकी टीका अभी तक नहीं प्राप्त होसकी। रन वारायणु बग्णाविय वियट्ट ,
करएड श्रावकाचार एव वृहत्स्वयंभूस्तात्र और सिरिहरिम रायसेहरु गुणट्ट,। समाधितंत्रादि पर भी इनकी टोकाएं प्रकाशित हो असइंधु जए जयराम णामु,
चुकी है ये नयनन्दीके गुरुभाई थे। यह भी जयदेउ जणमगाणंद कामु ।
विक्रमकी ११ वीं शताब्दोके उत्तराधके विद्वान हैं। पालित्तउ पाणिणि पवरसेणु.
इन्हान सकल-विधि-विधान काव्यकी श्राद्य प्रशस्ति पायंर्जाल, पिंगलु वीरसेणु ।
मे प्रभाचन्द्रका उल्लेख किया है। सिरिसिंहणंदि गुणसिंह भद्द,
कविवर नयनन्दी उक्त ग्रन्थका निमोणभी अव. गुणभद्द गुणिल्लु समंतभह ।
न्ति देशको उस सप्रसिद्ध धारा नगरीमें किया है अकलकोव समवाईम बिहादि,
जो उस समय अवन्ती देशको राजधानी थी और कामद्द रुद्द गाविद'दंडि ।
जिसमें परमारवंशी राजा जयसिंह राज्य करता था मम्भुर भारहि भाहवि महंतु,
जो 'भोज' इस नामसे लोकमें सर्वत्र विश्रत था। उस चउमुह सयभु कइ पुप्फयंतु ।
समय धाग नगरी जनधनसे संकीर्ण और कला. घत्ता-सिरिचंद पहाचंद वि विबुह
कौशलमें अद्वितोय थी। धारा-नरेश जितना पराक्रमी गुण गणदि मणोहरु ।
और प्रतापी था उतना हो वह विद्या-व्यसनी कइ मिरिकमारु मरमइ कुमम,
भी था। धारा उस समय संस्कृत विद्याका केन्द्र बनी कित्ति विलासिण सेहरु॥॥
हुई थी। वहां विद्यासदन अथवा सरस्वतीपाठइन विद्वानों में उल्लग्वित श्रीचंद्र और प्रभाचन्द्र शाला नामक एक विद्यापीठ था जिसमें सदर भी समकालीन विद्वान हैं उनमे श्रीचन्द्र वला
देशोंके विद्या-रसिक अपनी ज्ञान पिपासा को शान्त कारगणके आचार्य श्रीननिके शिष्य थे जो लाल करने जाते थे । राजा भोजदेवकी अनेक उपाधियां बागर संघमें हुए हैं। इन्होंन मामरमेन मैद्धान्तिकसे थीं जिनमे कुछ उपाधियाँ उसके विद्याप्रेम. क्षात्रतेज महापुराणके विषम- पद्योंका विवरण जानकर और और दयालुता आदि सद्गणोंकी परिचायक हैं: मल टिप्पणका अवलोकन कर उत्तर पुराणके टिप्पण 'सरस्वतो कठाभरणदेव रणरंगमल्ल' तिहुवण की रचना सं० १०८०में की है। और पुराणसार भी तरायणभुवलभाण' परमेसर, और अत्थीजणणिहाल सं०१०८० या १०५ की रचना है: किन्तु पद्म-चरित इन उपाधियोंसे उसके महत्वका भी सहजमें ही भान टिप्पणको पंडित प्रवचनसनसे सनकर वि० सं० हो जाता है। राज भोज अपनी प्रजाका प्यारा शा१०८७ में बनाया है।
सक था । धारा उज्जैन और अवन्ति देशके पासप्रभाचन्द्र उक्त मणिक्य नन्दीके शिष्य थे और पासका इलाका उस समय जैन साधुओंका विहारन्यायशास्त्रके महा पंडित थे । इन्होंने माणिक्यन स्थल बना हुआ था-वहां अनेक तपस्वी मुनिपुंगव न्दी के परीक्षामुखपर और अकलंक देवके लघीय आचाये और विद्वान् श्रात्मामें साधनाका अभ्यास स्त्रयपर विशाल टीकाओंका निर्माण किया है इनके करते हुए जगतके कल्याणकी निष्काम भावना अतिरिक्त और भी अनेक टीका ग्रन्थ लिखे हैं। श्रा
से प्रेरित होकर उन्हें. सन्मार्गका उपदेश देते थे चाये कन्दकन्दके समयसारादि प्राभृतत्रय पर टीका और जैन संस्कृतिके प्राणभूत अनेक शास्त्रों की लिखी गई है जिनमें पंचास्ति काय और प्रवचनसार रचना भी करते थे। उस समय धारा में विशाल की टीकाएं तो मेरे देखने में आई हैं। परन्तु समय ज्ञान भंडार थे, जिन में धार्मिक माहित्य और
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अनेकान्त
[किरण
दार्शनिकादि ग्रन्थोंका अच्छा संग्रह रहा होगा। पर परम्परायें चाल थीं जिनमें एक परम्परा पद्मनन्दी,
आज उनका कहीं पता भी नहीं चलता । विक्रमको विष्णुनन्दी, विश्वनन्दो, वृषभनन्दी, रामनन्दी, १०वीं शताब्दी से १३ वीं शताब्दी तक धारा और त्रैलोक्यनन्दी, माणिक्य नन्दी, और नयनन्दीकी थी। उसके पास-पास के प्रदेशोंमे जैन विद्वानोंका अस्ति- और दूसरी परम्परा वह है जिसका उल्लेख ११ वों त्व और उनकी रचनाओंका ममुल्लेख इसबातका शताब्दीके विद्वान श्रीचन्दने अपने ग्रन्थों में तथा सचक है कि वहां उक्त समयमें जैनधम वा जैन श्राचार्य महासनके प्रद्य म्नचरितकी प्रशस्तिमें और संस्कृतिका प्रचार सुचारु रूपपे चल रहा था सम्बत् दुवकुण्डके शिलालेखमें पा जाता है, जिसका १० में आचार्य देवसेनने धाराके पाश्वनाथ चैत्या- संबंध लाडवागणके विद्वानोंसे है। यह वागडसंघलयमें निवास करते हुए दर्शन-सारकी रचना को थी का ही एक भेद है। इस संघमें अनेक विद्वान हुए काष्ठा संघके आ० अमितिगतिने सं०१०५ से १०७३ है। देवसेन, दुलभसेन, अवरसेन, शांतिषेण, विजतकके मध्यवर्ती समयमें अनेक ग्रन्थोंकी रचना की यकीति, श्रीनन्दी, श्री चन्द्र मागरसेन, महाप्लेन, है। यह मुजको सभाके सभारत्न विद्वानोंमे से थे। गुणाकरसन जयसेन आदि। इनके अतिरिक्त तीसरी लाट बागड गणके प्रसिद्ध आचार्य गुणाकर सेनके परम्परा काठामघसे संबंध रखती है जिसमें धम शिष्य महासेनाचायने प्रद्य म्न चरितकी रचना सं0. परीक्षादि ग्रन्थोंके कतो अमितगति हुए है। १०३१ से १०६६ केमध्यवर्ती किसी समयमें कोहै श्रा
इन सब उल्लेखांसे धारा नगरीकी महत्ताका सिन मुजद्वारा पूजित थ इनके सिवाय और सहज ही आभाम हो जाता है। अनेक विद्वान अपने अस्तित्वसे धारा नगरीको सुशो- उपरकी उल्लेखित गुरू परम्परासे तथा ग्रंथकता भित करते थे जिनके शुभ नामों आदि का अभी हमें के अन्य उल्लेखोंसे यह स्पष्ट है कि नयनन्दीके गुरु ठीक पता नहीं है ' (इसी तरह श्री चन्द्र प्रभाचन्द्र का नाम माणिक्यनन्दी था जो लोक्यनन्दीके शिमाणिक्यनन्दी, श्री नन्दी, सागरमन और प्रवचन
व्य थे यह माणिक्यनन्दी वही माणिक्यनन्दी है सेन आदि अनेक विद्वानोंका उल्लेख उपलब्ध है।
जो सुप्रसिद्ध परीक्षामुख नामक न्याय-सत्र ग्रन्थके (ये सब विद्वान् भोजदेवके समाकालोन है।) की यह न्याय शास्त्रके महाविद्वान् थे, कविन
दूव कुण्डके शिलालेखसे ज्ञात होता है कि राजा स्वयं निम्न पद्योंद्वारा अपने गुरुका और अपना भोजदेवकी मभामें पंण्डित अम्बरसन आदि विद्वा- परिचय दिया है। नोंसे बाद करन वाले सेकड़ों विद्वानोंको आचाय पच्चव-परोक्ख पमाणणीर, शान्तिषेण ने शास्त्रार्थ में पराजित किया था
__णय तरल तरंगालि गहीर। सदशन चरितकी प्रशस्तिमें ग्रन्थकारने जो वरसत्तभंगि कल्लोलमाल, अपनी गुरु परम्पराका उल्लेख किया है उससे स्पष्ट
जिण सासणसरिणिम्मल सुसाल । जात होता हैकि उम हमय धारामें विद्वानों की कई पडिय चूडामणि विबुह चंदु, १प्रास्थानाधिपती बुधादिविगणे श्रीभोजदेव न.पे, सभ्ये
माणिक्कणदि उप्पण्णु कंदु । प्वंवरसेन पंडित शिरोरत्नादिषुधन्मदान् । योने- [१५] दिढ बुद्धि कठिण कंटयपयंड, कान् शतसो अजेष्ट पटुता भीष्टोद्यमो धादिनः । शास्त्रांभो
तेहा तुहुं हुउ सीसु गुणस्थ दंछ। निधि पारगोभ बदतः श्रीशांतिषेणो गरुः ।।
तम्भन विमल सम्मत्त सदत्लु, एपिप्राफिका इंडिका भाग २ पृ. २३७-२४०
(शेष टाइटिलके तीसरे पृष्ठ पर)
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पुरातन जैन शिल्प का संक्षिप्त परिचय
(ले० श्री बालचन्द्र जैन एम० ए०, साहित्यशास्त्री )
मूर्ति
भारत की शिल्पकला का प्रामाणिक इतिहास मोहेंजोदरो तथा सिंधु सभ्यता युगसे मिलता है । इस युगका समय पुरातत्व विषय के पंडितोंने ईसा से करीब ३००० वर्ष पूर्व निश्चित किया है। इस युग के केन्द्रोंकी खुदाई में बड़ी संख्या में मृति, मिट्टी के खिलौने, मोहरें आदि अनेक प्रकारके शिल्प
प्राप्त
हुए है । ध्यान से अध्ययन करनेपर मोहेंजोदरोके मूतिविज्ञान पर हमें जैन संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट प्रतीत होता है । अनेक टीकरों पर बैल हाथी आदि अंकित है और यदि इनका आधार जैन तीर्थकरोंके चिन्ह हों तो कोई शक नहीं। अनेक नग्न पुरुषमूर्तियाँ भी इन्हीं स्थानों से प्राप्त हुई हैं और वे ठीक उसी प्रकार को हैं जैसे कि पिछले कालकी तीर्थकरों की खड़ी मूर्तियां । मोहेंजोदरोंसे एक और महत्वपर्ण मूर्ति मिली है जिसे श्री राधाकुमुद मुकर्जी शिव के पशुपति रूपकी मूर्ति मानते है । उक्त मूर्ती का विषय ध्यान है और इसमें एक व्यक्ति ध्यानस्थ बैठा है। उसके दोनों हाथ दोनों घुटनो पर स्थित है और नीचे अनेक परस्पर विरोधी पशु एकत्र है । मृतिके मस्तक पर त्रिशृङ्ग बना है। श्री राम कृष्णादासजी इस मूर्तिको बुद्धमतिका पूर्वरूप मानते हैं। मेरा विनम्र निवेदन यह है कि उक्तमूर्तिपर जैन प्रभाव अवश्य होना चाहिए। जिस चिन्ह को श्री मुकर्जी ने त्रिशूल माना है वह त्रिरत्न चिन्ह हो सकता है, आगे चलकर जिसका स्थान त्रिछत्रने ग्रहण कर लिया । ध्यान और योग जैन संस्कृति का अंग ही था और जैन आगमोंमें साधनाका वर्णन करते हुए यह उल्लेख किया गया है कि परस्पर विरो
धी
पशू
भी साधकके पास आकर अपना वैरभाव भूल जाते 1
मूर्ति बनाने का उद्देश्य या तो किसी स्मृतिको बनाए रखना होता है अथवा किसी अमूर्त भावको मूर्तरूप देना । साहित्य ग्रन्थोंमें देवकुलोंका वर्णन हैं जहां राजाओंकी मृत्यु के पश्चात् उनकी मूर्ति स्थापित की जाती थी । पुरातत्व विभागको एक ही स्थानपर एक वंशके अनेक राजाओं की मूर्तियां प्राप्त हुई है जिनसे उक्त कथन प्रमाणित हो जाता है।
दो मतियां विशेष महत्वकी है। एक तो अजात-शत्रुकी और दूसरी नदि वधनकी । भारतीय इतिहास मे इन दोनों सम्राटोंका स्थान विशेष महत्वका है। अजातशत्र की मूर्तिपर स्व० काशीप्रसाद जायसवालन कुणिक नाम पढ़ा था जो जैनप्रन्थोसे समर्थित हैं । इस प्रकार हम देखते है कि ईसासे ६ शताब्दी पूर्व भी इतनी सुन्दर और इनीची ८८) मूर्तियाँ बनती थीं जिनकी गढ़न सम्राट के अनुरूप ही प्रभावक और रोबीली है ।
नंदिवर्धन जैन धर्मका अनुयायी था । वह भी एक प्रतापी सम्राट था। अपने राज्यकालमे उसने मगध साम्राज्य का विस्तार किया और कलिंगको भी अपने अधीन कर लिया। वलिंगकी जीत में वह अपने साथ वहां से अनेक निधियां तो लाया ही पर साथ में कलिंगकी प्रसिद्ध जिन मूर्ति भी ले आया था जिसे पीछे खारवेल ने मगध विजय कर वापस लाकर अपने देशके गौरवको पुनः जगाया श्री राय कृष्णदासजीने लिखा है कि ५ वीं शती
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३२०
अनेकान्त पू० में जैन मूर्तियां बननेका यह अकाट्य प्रमाण एकत्र कर उनका तख्ता उलट दिया। राज सेनापति
पुष्य मित्रने शासन अपने हाथोंमें ले लिया और मौर्यकालमें कला अधिक विकसित होगई थी ब्राह्मणवादका जोर फिरसे बढ़ा । इतनेपर भी और सारनाथके चौमुखे सिंह जैसी वस्तुयें बनने श्रमण सस्कृति किसी तरह अपना बचाव करती लगी थीं। इस कालकी कला राज्याश्रित थी और अनेक केन्द्रोंमें कलाकी साधना करती रही। इस कांच सरीखे चमकने वाले श्रोपसे अनायास ही युगकी कला लोक कला है। राज्यसे उसे कोई प्रश्रय पहिचान ली जाती है। इस कालके बने सभी शिल्पों प्राप्त न था। में चुनारके पत्थरका उपयोग हुआ है और उस साँची और भरहुत की बौद्ध-कला शङ्गोंके ही पर इतनी घुटाई की गई है कि वह कांच जैसा चम- युग की है। मथुरामें जैन कलाका प्राधान्य बढ़ा कदार बन जाए।
किन्तु वह राज-धर्म से अछूती न रह सकी। सांची मौर्यवंशके शासक अपना निजी धर्म पालते और भरहुत के स्तूपों जैसा ही विशाल जैसा स्तूप हुए भी अन्य धमों के प्रति समष्टि थे। उन्होंने मथुरा में बनाया गया और उसकी पूजा होने लगो पशुहिंसा, यागहिंसा और ऊंच-नीच के भेद-भाव इसके तोरणों पर अनेक प्रकार की मर्तियाँ खोदी को कानूनी तौर पर निषिद्ध कर दिया था पर किसी गई और उनके साथ साथ अन्य लौकिक विषय धर्मके मौलिक सिद्धान्तों अथवा विचारोंपर कभी भी चित्रित किए गए। कोई आक्षेप नहीं किया और न उनकी क्रियाओंपर दक्षिण-पूर्व में महामेघवाहन खारवेलका उदय इसी ही कोई प्रतिबन्ध लगाया। सम्राट अशोक और युगमें हुआ और उसका प्रभाव उत्तर पश्चिमतक उसके पुत्र दशरथ ने आजीवक भिक्षुओं जो जैन फैल गया। मगध विजय तो उसने की हो पर विदेशी भिक्षओं जैसे नग्न रहते थे और वैसा ही आचार आक्रमण भी उमके भयसे रुक गया। विजय के पालते थे-को कार्यानषिद्याके लिये अनेक गुफाएं उपलक्ष्यमें कमारी उसनेपर्वत वतमान उदयगिरि खंडदान की थीं।
गिरि पर अनेक गुफाएं एवं गुफामंदिर बनवाए ___ अशोकका पौत्र सम्प्रति जैन था और अशोकके इन गुफामंदिरों की मतियोंकी मतिकला अपने दंग ही समान सार्वभौम शासक था। वह कशल शासक की निराली है और वह की कलासे प्रभावित था और अशोकके शासन काल में भी शासनको नहीं है। बाग डोर उसीके हाथमें थी। अनेक ऐसे उल्लेख कुषाण काल में पहुंच कर मथुराकी कला सम्पन्न मिलते है जिनसे विदित होता है कि राजकोष की हो चकी थी। इस कालमे सुन्दरसे सुन्दर जैन रक्षाके लिये उसने अशोकके सम्राट होते हुए भी मतियां बनी जो पद्मासन कायोत्सग दोनों आसनों उसकी आज्ञाओं और उसके द्वारा स्वीकृत दानको में मिलती हैं। पद्मासन मतियोंकी परम्परा मोहेंरद कर दिया था। जैन धर्म के प्रचार के लिये इसने जोदरोंसे चली आरही था और जैन क्षेत्रमें बराकछ उटा नहीं रखा। पटना म्यजियम में प्रदर्शित बर उक्त प्रकारकी मर्तियां बनरहीं थीं। इन्हीके जैन मतियों पर ठीक वही ओप है जो मौययुग आधारपर हो अब अन्य मूर्तियां बनने लगी थीं। के अन्य शिल्पपर है । ये मूर्तियां सम्प्रति कालीन बद्ध मूर्ति तीर्थकर मर्ति का अनुकरण थी। मथुरा होनी चाहिये, क्योंकि मौयवंशके शासनके साथ कलाकी मूर्तियां लाल चित्ते दार पत्थरकी हैं। ही ओपनेकी यह कला सदाके लिये लुप्त हो गई। और उन पर लेख भी खुदे है। इस कालकी अभि
मौर्य राजाओंकी समष्टि कट्टर पन्थियोंको न लिखित सर्बतो भद्रिका । प्रतिमाएं भी ध्यान देने योग्य रुची और जातिमदके अंधोंने धीरे-धीरे शक्ति हैं जो प्राय खड्गासन हैं।
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पुरातन जैनशिल्पका संक्षिप्त परिचय
गुप्तकाल में आकर मूर्तिकला प्रौढ़ हो चुकी थी और विकासके उच्चतम शिखर पर पहुंच चुकी थी और अनेक सुन्दर, सुडौल, समानुपात एवं भावपूर्ण मूर्तियां इस युग में बनीं । कुषाणकाल का सादा प्रभामंडल अब अलंकृत बनाया जाने लगा था और उसमें हस्तिनख, मणिबंध तथा अन्य बेल बुटे सजाये जाते थे । इस कालकी सैंकड़ों मृतियां मथुराकी खुदाई में प्राप्त हुई हैं । उत्थित पद्मामनसे ध्यानमुद्रामें स्थित किसी तीर्थङ्करकी मूर्ति उक्तकाल की जैनमूर्तियों में सर्वोत्तम है। इस मूर्ति तो लेख कोई हैं और न कोई चिन्ह ही । इस लिए यह निणय नहीं किया जा सकता कि यह किस तोको मूर्ति है।
उदयगिर (भेलसा) की पहाड़ी में गुहा नं २० मे पार्श्वनाथकी एक मूर्ति खुदी है जिस के बगल मे एक लेख भी है। यह गुफा कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में निर्मित हुइ थी। बेसनगरसे प्राप्त एक तीर्थङ्कर मूर्ति और दूसरा पार्श्वनाथका फरणयुक्त मस्तक ग्वालियर के पुरातत्व संग्रहालय मे प्रदर्शित है । कुमारगुप्तके समय के एक अन्य लेख से विदित होता है कि उक्त कालमें आदिकर्ताओं (आदिकर्तृन) की मूर्तियां दान की गई थी।
पूर्व मध्यकाल में भी यही क्रम जारी रहा, पर धीरे-धीरे श्रलङ्कारोंकी वृद्धि होने लगी और कला मे कृत्रिमताने स्थान पकड़ लिया । मध्यकाल में जैन मूर्तियाँ अत्यधिक संख्या में बनीं। ऐलोराके जगन्नार्थसभा, इन्द्रसभा आदि गुहामन्दिरोंकी मूर्तियां - जिनमे से महावीर बाहुबलि, पार्श्वनाथ मुख्य है - इस कालके उत्तम नमूने है । यहां इन्द्र और इन्द्राणी की मूर्ति इतनी स्वाभाविक एवं तदनु रूप है कि लोगोंने इन्हींके नाम पर उक्त गुहाका नाम इन्द्रसभा रख दिया। उक्त गुहामें इन्द्र ऐरावत पर और इन्द्राणी सिंह पर आसीन हैं। इसी प्रकार उत्तर मध्यकाल में चंदेलों, परमारों आदि राजवंशों का प्रभाव बढ़ा और इनके प्रश्रयमें जैन धर्मका प्रचार भी हुआ । मध्य भारत तथा दक्षिण में इस
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कालके मन्दिर और मूर्तियां बहुतायत से मिलते हैं।
अब कलामें कोई नवीनता न आसकी और वह बूढ़ी हो चुकी थी। बस पुराना अनुकरण ही चल रहा था । कहीं कहीं उत्तर में दक्षिणकी कला का अनुकरण किया जा रहा था। इस काल में देवगढ़ खजुराहो आदि स्थानोंपर अनेक मन्दिर और मूर्तियां निर्मित हुई ।
दक्षिणकी मूर्तियां और मन्दिर भी इस काल की विशेषता है । श्रवणबेलगोलाकी विशालकाय गोमटेश्वर बाहुबली की मूर्ति मूर्तिकलाका अद्वितीय नमूना है । यह मूर्ति एक ही पत्थरको है और एक पहाड़ी पर स्थित है । इतनी सुन्दर और ऊची मूर्ति अन्यत्र कहीं नहीं पाई गई ।
ग्वालियर के किलेको उत्तुंग मूर्तियां १५ व १६ वीं शती की है और वे पूरे किले में भीतर और बाहर इतनी संख्या में काटी गई हैं कि उनसे उस कालमें जैन धर्मका अत्यधिक प्रचार होना प्रमा णित होता है।
धातु मूर्तियां
धातुमूर्तियां हर प्रकार से सुरक्षित मानी जाती थीं । पत्थर तो टूट भी सकता था, उस पर चिट्टे पड़ जाते थे, वर्षा और गर्मी के प्रभावसे वह दरक भी जाना था। पर धातु मूर्तियों में यह दोष न था, और इसलिये १०-११ वीं शती से लोगों की रुचि इस और बढ़ी और वे अत्यधिक संख्या में बनाई गई। ब्राह्मण और बौद्ध मूर्तियां भी धातुओं बनने लगी थीं और दक्षिणके धातुकार इसमें विशे
दक्ष निकले । धातु की जैन मूर्तियोंमें प्रायः तीन विन्ह, छत्र, पार्श्वचर आदि साथमें बने रहते हैं । या पांच जिन खड्गासन में मिलते हैं और उनके
मन्दिर
ऊपर मूर्तियों के बारेमें लिखते समय स्थानस्थानपर मन्दिरोंके वारे में भी संकेत कर दिया गया है । जब मर्तियां बनने लगीं तो उनकी रक्षा और उनपर छाया की भी आवश्यकता प्रतोत होने
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लगी। धूप और पानीसे उनको रक्षा आवश्यक थी बौद्धोंको भाँति जैनोंमें भी स्तपों और चैत्यों
आर इसलिये मूतिगृह बनाये जाने लगे। अनेक की पूजा प्रचलित थी, यह मथुराके विशाल स्तूपसे मर्तियोंपर बड़े बड़े छत्ते भी पाये जाते है जिनका प्रमाणित हो गया है। यह नहीं कहा जा सकता कि उद्देश्य रक्षा ही प्रतीत होता है। पूर्व कालके जैनोंने स्तप पूजा बौद्धोंके अनुकरण पर प्रारम्भ की मन्दिर शिखरहीन होते थे और उनपर छत रहती क्योंकि मथराके स्तूपकी प्राचीनता उसी काल तक थी। इन मन्दिरों में प्रदक्षिणा मार्ग, गर्भगृह आदि जाती है जिस कालमें बौद्धों में स्तूप पूजा प्रचलित भी बनाये जाते थे। धीरे-धीरे शिखर शैलीका थी। यह स्त प उतना ही कलापूर्ण था जितने बौद्ध प्रादुर्भाव हुआ और पीछे तो शिग्वर-निर्माणमें ही स्तूप और इसमें बौद्ध स्तूपके सभी अङ्ग-तोरण, कारोगरीका प्रदर्शन किया जाने लगा। दक्षिणके वदिका आदि सुन्दर रूपमें विद्यमान थे। मन्दिर विशेष अलंकृत हैं। खजुराहोके मन्दिरोंमें स्तूपका मूल अभी तक विद्वानोंके विवादका भी कलाके अलंकृत रूपके दशन होते है । आबूके विषय बना हुआ है । किन्हींका मत है कि यह मन्दिरोंका तो कहना ही क्या। पूरा मन्दिर संग- प्राचान यज्ञशालाप्राक
प्राचीन यज्ञशालाओंका अनुकरण है जबकि दूसरे मरमरका है और इसकी छतपर जो कारीगरीकी इस बुद्धके उलट कर रखे गये भिक्षापात्रके आधार गई है उसे देखकर दांतों तले अंगुली दबानी पड़ती
पर निर्मित मानते हैं। कभी कभी विशिष्ट पुरुषोंके है। मानस्तम्भकी रचनाका सुन्दर उदाहरण एलोरा स्मारक रूपमें भी स्तृप बनते थे और उनमें उनके की इन्द्रसभा गुहा है जिसको कारीगरो देखने योग्य अस्थि-फूल रखे जाते थे। पर यह आवश्यक नहीं है। भारतीय मन्दिर-निर्माण कला शिखरनिर्माण __ था कि सभी स्तुप ऐसे हों। सारनाथके धमेख स्तृप कलाका अध्ययन वेपर शैली नागरशली, द्रविड़
और चौखण्डी स्तुपमें कनिंघनको कुछ भी प्राप्त शेली आदिको ध्यानमें रख कर किया जाना
नहीं हुआ था। चाहिये।
चैयोंक बारेमें भी यह भ्रम फैला हुआ है कि
वे चिताभूमि पर बनाए जाते थे। पर सच बात ऐसी गुहा, स्तूप, चैत्य और आयागपट्ट
नहीं है। चैत्य उसे कहा जाता था जो चिने जाते हों मौय सम्राट और उमके पुत्र दशरथकी बनवाई
और वे प्रायः ईट के बनते थे।। बराबर पहाडीको कड़े तेलिया पत्थरकी आजोबक
आयागपट ट चौग्लूटे पत्थरके पट्ट होते थे। भितओं को दानकी गई श्रोपदार गुफाए, गुहा
इन पर चैत्य, स्तप आदिकी रचना की जाती थी निर्माण कलाका प्रथम उदाहरण हैं। कलिंग सम्राट
और ये पजाके काममें आते थे। मथराकी खुदाई महामेघवाहन खारवेलकी खर्डागार और उदय में अनेक आयागपटट प्राप्त हये है जो मथुरा और गिरिकी गफाए', उदयगिरि (भलसा) की गुहा नं० लखनऊके संग्रहालयोंमे प्रदशित है। मथरा संग्र२०, एलोराकी इन्द्रसभा, जगन्नाथ सभा आदि
हालयका क्यू २ नम्बरका आयागपट्ट विशेष गुफाएं तथा पश्चिम भारतको अन्य जैन गुफाएं महत्त्व का है जो मथराके विशाल स्तूपकी अनुजे नोंमें प्रचलित गहा निर्माण के सुन्दर नमूने कृति अनुमानित किया गया है। इस पर इस्वी १ हैं। एलोराकी गफाएं तो चित्रित भी है और उनमें ली शती पर्वका एक छह पंक्तियोका लेख है ऐसे रंगोंको काममें लाया गया है जो आज भी जिससे विदित होता है कि वसु नामकी एक वेश्या अपने पूर्वरूपमें जैसेके तैसे हैं। छतपर चित्रित ने इसे दान में दिया था। लखनऊ संग्रहालय में कमलका नीला रंग इतना अधिक चमकीला है प्रदर्शित अनेक भायागपट्ट मथराके प्राचीन स्तप जैसे वह आधुनिक चित्रण हो।
की बनावट पर प्रकाश डालते हैं।
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प्रकाश
उपसंहार
पुरातन जैन शिल्प का संक्षिप्त परिचय उपरोक्त पंक्तियों में कराया गया है। इससे हमें भली भांति ज्ञात हो जाता है कि पुरातन कालमें जैन संस्कृति भारत के कोने कोने में अपना प्रभाव जमाये हुये थी और जैनोंके लिये वह युग सम्मान एवं गौरवका
युग था ।
भारत के सभी सांस्कृतिक केन्द्रों का अभी पूर्ण अध्ययन नहीं हो पाया है और न उन स्थानों की
"प्रकाश"
( ले० - श्री जुगल किशोर जी कागजी )
अन्धकारमय
प्रकाशके अभाव में संसार एक देखने में आरहा है। जड़ पदार्थ स्वयं अन्धकारमय है अतः बिना किसी प्रकाशकी सहायता के प्रकाश
नहीं आते और जबतक किसी प्रकाशके संबंध मे नहीं तब तक अन्धकारमय हुए पड़े रहते हैं । और अन्धकार फैलाते रहते हैं
प्रकाशका सम्बन्ध मिलते ही फैला हुआ अन्धकार तुरन्त नष्ट होजाता है और पदार्थ स्पष्ट देखने में आजाते है
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पूर्णरूपेण खुदाई ही की जा सकी है। जैन केन्द्रों पर तो कुछ भी काम नहीं हुआ। सरकार के पास इतना द्रव्य नहीं कि वह सब काम अपने हाथमें सके जब तक कि जनता उससे सहयोग न करे। यदि वह कभी कुछ करती भी है तो जैन केन्द्रोंका नम्बर बहुत पीछे पड़ जाता है । यह तो जैन समाज के ध्यान देनेका विषय है कि वह अपने सांस्कृतिक केन्द्रों तथा पुराने ढोंकी खुदाई कराकर अपने प्राचीन गौरवको दुनियां के सन्मुख उपस्थित करे काश जैन समाज इस ओर ध्यान देता ।
श्राक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु, सूर्याशुभिन्नमिव शावंरमन्धकारम् ।
यह महिमा यह शक्ति उसकी है जो स्वयं स्पष्ट रीतिसे प्रकाशित है और अपने प्रकाशके द्वारा अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करदेता है ।
सूर्य, चन्द्रमा, तारागण, दीपक, मोमबत्ती, विजली श्रादिक पदार्थ स्पष्ट बता रहे हैं कि यह हमारा ही उपकार है कि तुम हमारीही सहायतासे
संसार में अपना मूल्य प्रकट करनेमें समर्थ हो सकेहो हो सकोगे और हो रहे हो ।
कांच की परख अन्य प्रकाशके द्वाराही की जाती है शीशेमें स्वयं प्रकाशकी शक्ति नहीं, प्रकाश से सहायता लेकर स्वयं प्रकाशमान दीखने लगता है प्रकाश लेने अथवा लेकर देनेकी शक्ति तो काँचमें मौजूद है परन्तु स्वयं प्रकाशित होनेकी अथवा दूसरोंको प्रकाशित करनेको शक्ति नहीं है ।
ज्ञानं यथ । त्वयि विभाति कृतावकाशम्, नैवं तथा हरिरादिषु नायकेषु । तेजो महामणिषु याति यथा महत्वम्, वं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ॥
विना बाह्य प्रकाशके अंधकार अवस्थामें सभी पदार्थोंका एकसा मूल्य "अंधकार" ही अंधकार अनुभव-गोचर होता है। चाहे सोना हो चाहे मिट्टी, चाहे मनुष्य हो चाहे विर्यष्च, चाहे कीड़ा हो या टिड्डी-कुछभी क्यों न हो सभी पदार्थ
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अनेकान्त
अंधकार में मिलकर स्वयं अंधकारमय बन जाते हैं किसी भी पदार्थका स्वरूप वर्ण, आकार, सुन्दरता, कुरूपता, घटियापन व बढ़ियापन, हेयता अथवा उपादेयता किसी में भी अन्तर नहीं रहता ।
यहां ऐसा प्रतीत होता है कि संसार में पदार्थ दो तरह के हैं
9 बे जो स्वयं प्रकाशमान हैं।
२ वे जो स्वयं प्रकाशमान नहीं हैं किन्तु प्रकाशमान के सम्बन्धमें आकर प्रकाशित होजाते हैं। इस प्रकार हमें वस्तु स्वरूपका भली भांति पता चल रहा है कि हमारा शरीर, दूसरोंका शरीर हमारी वस्तुएं अथवा दूसरोंकी वस्तुएं जिनको हम प्रकाशकी सहायता में देखते रहते है और आपस मे लेन-देन करते रहते हैं मिलाते व विछुड़ाते रहते है सभी का वास्तविक स्वरूप तो अंधकारही है प्रकाश के हटते व अन्धकारके फैलतेही सबही समान अकारथ हैं, बेकार हैं, खोए हुएके समान है जिन को विना प्रकाशकी सहायतामें हम सम्भाल अथवा खोज तक नहीं सकते अत्यन्त अंधकारको अवस्था में हाथो हाथ नहीं दीखता औरकी तो बात ही क्या है ।
ऐसी अवस्था में किस वस्तुका घमण्ड करें जो स्वयं प्रकाश-हीन, प्रभाहीन व निमुल अवस्थाको प्राप्त है ?
क्या प्रकाशकी सहायता से प्रकाशमें आनेवाले पदार्थ मूल्यवान व सारकजा सकते हैं? क्या उनमें किसी प्रकारकी कारीगरी उनके असली स्वभावको बदल सकती है ? क्या इस प्रकारके पदार्थोंमें की गई चिन्ता कुछ लाभदायक होसकती है ?
अन्धकारयुक्त पदार्थ तो स्वयं अन्धकारमय हो रह सकते हैं अपना स्वरूप नहीं बदल सकते वह दूसरे प्रकाशमानकी शक्तिसे प्रकाशमें भलेही श्री जावें किन्तु उससे उन पदार्थोंको क्या लाभ ? सहारा हटते ही फिर जैसे के तैसे । हमारी सारी शक्ति न अन्धकारसे युक्त पदार्थोंमें लग रही है, उनके साथी हमारा सारा व्यापार होरहा है उनही
को हमें पहिचान होरही है उन ही पदार्थोंके साथ हमारा सारा बुद्धि-बल उपयुक्त हो रहा है इसीकारण हम अभी तक अपनी आत्माकी शक्तिका भान नही करसके हैं।
हमने यहीं पहिचाना है कि सूर्य आदिक ही बस्तु के प्रकाशित करने में सहायक होसकते है इस कारण उनकोही इष्ट देवता मान लिया है और इसी प्रकारको मिथ्या कल्पनाओं द्वारा इनके प्रकाश से देखने में आनेवाली वस्तुओंको हो अपने लिये लाभदायक श्रद्धान कर लिया है। उनके विषय में हा ज्ञान और उनकी प्राप्ति के उपायोंमे प्रयत्न किया है यही मिथ्या श्रद्धान ज्ञान व चारित्र है ।
समस्त वस्तुओं को स्वयं अपनी शक्तिके द्वारा समस्त कालमें अनुभव करने वाली शक्ति स्वयं आत्मामें विद्यमान है किन्तु इस और तनिक भी ध्यान नहीं दिया है ।
जितने भी शरीर धारी प्राणिमात्र छोटे-से-छोटे व बड़े-से-बड़े जो संसार में सवत्र भरे हुये है उन सभी प्रत्येक आत्मा में इस ही प्रकार की शक्ति छिपी हुई है ।
अपनी मिथ्या कल्पनाके कारण इसी तरह दूसरे पदार्थोंके सहारेको लेकर भयभीत हुए आप अपनेको गौरा व अन्य को मुख्य मान रहे है ।
इसी तरह अगणित जन्म व मरण कर चुके हैं दूसरों का ही भरोसा सहारा अथवा दूसरों पर ही निर्भर अपनेको मानकर वेहाल होरहे है, स्थिरता व शान्ति को कभी प्राप्त नहीं होसके हैं ।
सूर्य अस्त होनेके पश्चात रात्रि में किसी कारण वश दीपक आदिकके बुझ जाने की अवस्था में हम भयभीत होजाते है-वेचैन होजाते हैं अस्थिर हो जाते हैं दुखी होजाते हैं।
रोशनोकी दशामे हमारो शान्ति व काम काज सव रोशनीकी ही शक्ति पर निर्भर रहते है; अपने ऊपर नहीं अपनी श्रात्माकी शक्तिपर नहीं ।
यह पराधीन दशा हमारे लिये किसप्रकार सदा रहने वाली शक्तिको प्राप्त करा सकती है ?
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प्रकाश
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यह सयं चन्द्र व दीपकका प्रकाश स्वयं भी बालू रेतके पेलनेके समान अथवा कुएं के रहटके पुणे नहीं जो सदा काल अपने प्रकाशसे सब समान है। ढलती फिरती छाया, चलती-फिरती हवा प्रकाशित करसके । काल-भेदके कारण सर्य चन्द्र चंचल लक्ष्मी व चंचल मन सब हवामें महल बनाने को उदय व अस्त होना पड़ता है बादलोंके की बातें हैं। सब कुछ करा कराया जरा सी देरमें द्वारा छपना पड़ता है, राहके द्वारा प्रसित किये बदल जाता है। जाते है, प्रकाशकी हीनता व अधिकताको प्राप्त होना इसप्रकार देह वलसारका वास्तविक विचार पड़ता है, प्रातः काल, मध्यान्ह व सायं कालमें भिन्न करना और हर पदार्थको उसकी असली दशासे भिन्न दशाको प्राप्त होना पड़ता है प्रतिदिन अपने लेकर उसकी कुल विकृत हुई अथवा विकृत की गई प्रकाशके समय में हीनता व अधिकता करनी पड़ती अवस्थाओंपर ध्यान देनेसे भेद-विज्ञानकी ज्योति है, दीपक तनिक सी हवासे बझ जाता है तेल और जागृत होती है। वत्तीके सहारेसे जलता है-इनमें भी एक समान जिस भलके कारण संसारमें आज तक दुःखी स्थिरता नहीं दीखती फिर इन द्वारा प्रकाशित पदार्थ हो रहे है उस भलका पता लगाना और फिर उसकिस प्रकार संसारके प्राणियोंसे स्थिर भेद भावसे प्रकारकी भूलमें न फंसना यही मनुष्य पर्यायको प्राप्त रहित सुख ष आनन्द को उत्पन्न करसकते हैं ? करनेका वास्तविक फल है। इसी से मनुष्य जन्म इसी कारण संसारमे सभी प्राणी दुखी हैं।
अन्य एकेन्द्रियसे लेकर पञ्चेन्द्रिय सेनी पशु अथवा "दाम विना निधन दुखी तृष्णा बश धनवान" देव व नारकी पर्याायोंसे उत्तम है । इसप्रकारका
यदि हम अपने लिए वास्तविक सदा रहनेवाली विचार व विवेक बुद्धि जीवमें मनुष्य पयोयमें ही शान्ति चाहते है तो हमको अपना मार्ग बदलना जागृत होती है। पड़ेगा। वम्बई जानेकी इच्छा रखने वाला पथिक मनुष्यका कर्तव्य है कि वह विचार करे व अनुयदि कलकत्तेकी लेनपर चलता रहेगा तो वह इष्ट भव करे कि मेरी आत्मा जो सदैव से दुःखी जीवन स्थानसे दूरही दूर होता जावेगा और उसका सारा व्यतीत कर रही है उसका कारण वह स्वयं तो नहीं परिश्रम व्यर्थ ही जावेगा।
है। जिस प्रकाशकी उसको आवश्यकता है-जिस पदार्थों को सदाकाल प्रकाशित करने की शक्ति न निर्भयता व शक्तिकी उसे जरूरत है वह ज्या पसीने सूर्य में है, न चन्द्र में, न दीपक मे है, न किसी अन्य पास नहीं है । जरा उसको अपने आपमें ही खोजमे है। उनके मासे पदार्थभी सदा एकसे नहीं कर तो देखो। 'बगल में छोरा गांवमें खोजा' क्या दीखते यहभो दोष है। सूर्य आदिकी चालके साथ यही बात तो नहीं ? वस्तुकी अच्छाईका आकारबदलता रहता है, किसी सत्गुरु बार बार प्रन्थोंमें आत्माका सत्य स्व. को कोई चीज कम बढ़ दिखाई देती है । कम-बढ़ पन रूप बता चुके हैं किन्तु वह सत्य प्रतीत नहीं हुआ एक दूमरे की अपेक्षा कृत होता रहता है। समस्त उसका कारण अनादि कालसे लगा हुआ मिथ्यावस्तुएंभी एक समयमें दृष्टिगोचर नहीं होती, चिराग श्रद्धान ही तो है। तले तो अन्धेरा ही रहता है । वस्तुए निकट होनेपर जरा ठहरो समझो समझने का अभ्यास करो भी वहुधा दिखाई नहीं देती।।
यह कालिमा जो आत्मापर चढ़ी हुई है उसको हल्की इससे अनभव होता है कि संसारमें देखने में
करते जाना है पश्चात् सत्गुरुओं की बात समझमें
ले जाना पनात मनगर __ आने वाली समस्त वस्तुएं अधूरी हैं निस्सार हैं- अवश्य आने लगेगी इसमें घबरानेकी बात नहीं।
सार रहित हैं-विश्वासको पात्र नहीं, श्रद्धान, ज्ञान अपनी आत्माका श्रद्धान यही है इसीप्रकार है, व आचरणकी पात्र नहीं। इनके साथ सारा परिश्रम और नहीं और प्रकार नहीं आत्माका ज्ञान कि आत्म
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अनेकान्त परम ज्योति स्वरूप है, समस्त मोह रूपी अन्धकार वाह्य प्रकाश तभी तक सहारा मात्र होना चाहिये के दूर होने पर समस्त पदार्थोंको युगपत् तीनों जबतक अपना प्रकाश प्रकट न हो। सीढ़ी तभी तक कालकी समस्त पयोयों सहित जैसाका तैसा जानने उपयोगी है जब तक ऊपरी जोने पर न पहुंच जाय । वाला है। किसी दीपक आदि प्रकाशक पदार्थोके समस्त बाह्य साधनोंको एक सहायक मात्र ही समझ अधीन नही अपितु प्रकाशक होकर स्वयं प्रकाश रूप कर उनके छोड़नेमें रुचि व अभ्यास करते रहना है, चित्का स्वरूप प्रकाशमय हो तो है, अथ च चाहिये और निज की क्तियोंको पकड़ कर उनपर अनन्त सुखी है और अनन्त बलके कारण निर्भय है पूर्ण विश्वास करते हुए अपनी अनन्तज्ञान-अनन्त इसप्रकार की शक्तिको प्रकट करने का अभ्यास- निर- दर्शन ज्योतिको जगाना चाहिये । प्रश्न हो सकता न्तर अपनी समस्त मन वचन काय सम्बन्धी क्रिया- है कि प्रकाश-प्रकाशमें किस भांतिका भंद है? लौओंको रोककर अपने आत्माके अन्दर करो। किक प्रकाश व आत्मिक प्रकाशमें क्या अन्तर है ?
यह ही तो वास्तविक प्रकाश है समस्त जीवोंके क्रिया भी एकसी दीखती है-उत्तर यह है कि एक लिये प्रकाशका एक मात्र मार्ग है ऐसा श्री जिनेन्द्र- प्रकाशाभास है जो कुछ समय पश्चात् नष्ट हो जाता देवने अपनी दिव्य वाणीके द्वारा उपदेश दिया है। दूसरा प्रकाश है जो सदा बना रहता है जिसे हम - इसी प्रकारका प्रकाश प्राप्त करने वाले मनुष्य पूर्ण आनन्द भी कह सकते है क्योंकि जब यह आत्म परमात्मा होते है जो संसारके समस्त प्राणियोंको प्रकाश चमकने लगता है तभी आत्मिक आनन्दानुअपने समान शक्ति वाला जानकर शक्तिको अपेक्षा भवकी प्राप्ति होता है सखाभास तो अन्धेके समान उनको अपने समान देखते हैं।
अन्धा है बेभरोसे है पराधीन है क्योंकि विषय-जन्य इसीप्रकार के प्रकाशको प्राप्त करने वाले अभ्या
है। किन्तु श्रात्मस्थ सख स्वाधीन है निरन्तर रहने सी मनुष्य अपनी आत्मामें शान्तिको स्थापित करते
वाला है। किसी के द्वारा नष्ट होने वाला नहीं और रहते है और दूसरे जीवोंको भी सुखके निमित्त बन न ही किसी को नष्ट करने वाला है। जाते है।
अपने प्रकाशमें आप मग्न हो जाते हैं अपनी त्वामध्यय विभुचिन्त्यमसंख्यमाद्यं, आत्माका दर्शन प्राप्त करते हैं और यही आत्माके
ब्राह्मणमीश्वरमनन्तमनङ्गकेतुम् । उज्वल होनेका प्रमाण है। प्रत्येक मात्मा स्वयं प्रका
योगीश्वर विदितयोगमनेकमेक, शमान शक्तिमय है।
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः।
STAKA
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afare Fatशित ग्रन्थोंकी अकाशित मशस्तियाँ
( ० श्री अगरचन्द नाहटा )
9:0:6<<<
प्राचीन ग्रन्थोंके सम्पादनका कार्य बड़ा श्रमसाध्य व जिम्मेवारीका है। कुशल सम्पादकके हाथों ग्रन्थके गौरव की अभिवृद्धि होती है और अकुशल के हाथ पड़ने से उसका मूल महत्वभो जाता रहता है । सच्चे जौहरीके हाथ जवाहरात वास्तविक मूल्य व शोभा पा सकता है, कुशल जड़िया उन्हें उपयुक्त रीतिसे 'सुन्दर आकारमें जड़ित करके उनकी शोभा मे अतिशय वृद्धि कर देता है । यही बात सुयोग्य संपादकके हाथ प्रन्थरत्नकी होती है; मुद्रण-युगके प्रारम्भ में प्राचीन ग्रन्थोंका प्रकाशन जोरोंसे हुआ, पर उस समय वैज्ञानिक संपादन-पद्धतिकी जानकारी नहीं होने से उनकी उपयोगिता काम चलाऊ से आगे न बढ़ सकी । वास्तवमें प्रकाशकोंका उहश्य जनताके हाथोंमें उन्हें पहुँचा देना हो था । इस समय योग्य व्यक्ति के सम्पादन में ग्रन्थका प्रकाशन होनेसे अशुद्धियें नहीं रह पातो थी. यही उसको विशेषता थी । इधर पाश्चात्य विद्वानोंने एकही ग्रन्थ की प्राप्य अनेक प्रतियोंके आधारसे पाठान्तरोंके साथ बहुत श्रम-पूर्वक प्राचीन अनेक प्रन्थोंका सम्पादन कर आदर्श उपस्थित कर दिया और उनके अनुकरण द्वारा हमारे देशमें भी इधर कई वर्षोंसे प्राचीन ग्रन्थोंका सम्पादन बहुत सुन्दर रूपमें होने लगा है।
किन्तु हमारे कई प्रकाशकोंने प्राचीन ग्रन्थोंके सम्पादनमें प्रामाणिकताको भी भुला दिया प्रतीत होता है। लोक भाषाके प्राचीन प्रन्थोंको तो प्रकाशन के समय वर्तमान समयके उपयोगी या
सुबोध
बनाने के लिये भाषा में परिवर्तन कर प्रन्थोंको रूपान्तरित कर दिया। पर उनका दृष्टिकोण उन ग्रन्थों को लोक-भोग्य बनाना था अतः वह क्षम्य समझा जासकता है । पर कई प्रकाशनोंने प्रन्थकारके नामादि
- सूचक प्रशस्तियोंको भो उड़ा दिया है, यह सर्वथा अक्षम्य अपराध है। कई बार तो हस्तलिखित नतियोंके लेखकों द्वारा ही ऐसा किया गया पाया जाता है, उसके लिये तो प्रकाशक जिम्मेवार नहीं है । यद्यपि उसी प्रन्थकी प्रत्यन्तरों को एकत्र कर प्रन्थ सम्पादन किया जाता तो वह त्रुटि नहीं रह पाती, पर कभी कभी उसकी अन्य प्रति कहां कहाँ प्राप्य है ? जाननेमें नहीं आता व ज्ञात हो भा आय तो उसे प्राप्त करनेमें कठिनाई होती है । श्रतः उसके लिये प्रकाशकोंको दोष नहीं दिया जा सकता । पर कहीं कहीं ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसा प्रकाशकोंने जानबूझ किया है तो दोषकी सीमा नहीं रह जाती । यद्यपि ऐसे प्रकाशनोंमें प्रायः प्रस्तावनादि कुछ नहीं होती, और होती है तो उसमें कहांकी व कबकी लिखित प्रतिके आधारसे इसका सम्पादन किया गया है ? उल्लेख नहीं रहता । श्रतः निश्चितरूपसे तो नहीं कहा जा सकता कि प्रन्थकार सम्बन्धी प्रकाशित- प्रशस्ति उनको प्राप्त प्रतिमें थी या नहीं, पर वैसी बात एक प्रन्थके लिये न होकर कई प्रन्थोंके लिये समानरूपसे लागू होती है तब प्रकाशक या सम्पादक जानबूझकर ही वैसा किया है, यह सहजमें ही अनुमान किया जा सकता है ।
अपराध
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अनेकान्त
(वर्ष १०
जामनगरके पं० होगलाल हमराज जैन श्वे. श्यक है। इसी प्रमंगसे प्रकाशित प्रत्येकबुद्धचरित कान्फरेन्सकी ओरसे जैमलमेरादि जाकर वहांके को देखना प्रारम्भ किया तो पं० हंसराजका ज्ञानभंडारस्थ प्रतियों को सूची बनाई एवं पचामों प्रकाशित निर्मायक प्रत्येकबद्धचरित प्रकाशित ग्रन्थोंको प्रकाशमें लाकर उन्हें सर्व माधा- उससे अभिन्न हो प्रतीत हुआ। इससे मनमें बड़ा रणकेलिये सुलभ बनाया उसकेलिये तो वे धन्य- खेदहा कि पहले ज्ञान न होनेसे व्यर्थहो प्रतिवाद के पात्र हैं पर उन्हें उक्त कार्य जैसी योग्यता व लिपि कराने आदिमें समय एवं अर्थकी बरबादी प्रमाणिकतासे करना चाहिये था, वैमा किया हुआ हुई। खैर! जिम बंडल में उक्त प्रकाशित प्रति थी, प्रतीत नहीं होता। जैसलमेर भंडारकी सूची बनाने उसमें पंडितजीके प्रकाशित अन्य ग्रन्यों को भी देखा, में असावधानी रखने के कारण पचासों भल भ्रान्ति- तो उनमें भी रचयिताके नामादिका निर्देश नहीं मिला। योंकी परम्परा बढ़ी एवं कई प्रन्थोंकी प्रशस्तियां प्रका अतः हस्तलिखित प्रतियोंसे मिलान किया तो अन्य शित न करनेसे उनके रचियताओंके सम्बन्धमें अन्धेर ३-४ ग्रन्थों के भो रचयिताआका पता चल गया । इसी कर दिया गया। यहां आपके कतिपय ऐसेही ग्रन्थों अन्वेषणको पाठकांके सामने यहाँ उपस्थित की प्रशस्तियां प्रकाशितकी जा रही है जिनसे उनके किया जा रहा है। अन्तकी एक प्रशस्ति सागरानन्द वास्तविक ग्रन्थकारोंका भलीभांति निर्णय हो जाय। सूरि जीसपादित श्रीपाल चरित्र प्रवचूर्णिकी है, वह
गत वर्ष मेरे भ्रातृ-पुत्र भंवरलालका बनारम भी प्रकाशित संस्करणमें नहीं दी गई थी। अतः जाना हुआ और वहांक पू० हीराचंद्रसूरिजी के हस्त- यहां दे दो जा रही हैलिखित ज्ञानभंडारका अवलोकन कर उसने कति- १.प्रत्येकबुद्धचरित्र-इसे पं. हीरालाल हंसपय ग्रन्थों के नोटम लिये। मेरे कलकत्ते जानेपर राजने अपने जैन भास्करोदय प्रिन्टिग प्रसमें मुद्रित उसने मुझे उन्हें बतलाया तो कई ग्रन्थ मुझे अन्यत्र- कर १६७६ में प्रकाशित किया है। ग्रन्थ संस्कृत अप्राप्त होनेके कारण महत्वके प्रतीत हुए। उनमें से भाषामें पद्यबद्ध है। पत्राकार पृष्ठ ३५४ में ग्रन्थ जिनवर्द्धनसूरिका प्रत्येक बुद्धचरित्र भी एक था। भंडार समाप्त होता है । ग्रन्थके चार प्रकाश हैं, प्रकाशकने उसने पूरा नहीं देखा था। अतः उसे देखने व वहां ग्रन्थकारके नाम-सूचक कहीं भी प्रशस्ति नहीं दी है जाके अवलोकन-कार्य पूरा करनेकी इच्छा हुई। और न कहीं सचना ही दी गई है पर बनारसके इधर महावीर जयन्तीकेलिये वैशालीका निमंत्रण आ० होराचन्द्र सूरिजीके संग्रहकी प्रतिसे मिलानेपर मिला और वहां जानेपर बनारस भी जाना हो यह काव्य १५ बी शतीके खरतरगच्छाचार्य जिनवर्द्धगया । अवसर पाकर मैंने उक्त भंडारके अवशिष्ट नसरि-रचित सिद्ध होता है। प्रशस्तिसूचक पंक्तियां प्रन्थभी देख डाले व प्रत्येकबुद्धचरित्रकी तो प्रेस प्रत्येक प्रकाशके अन्त में प्राप्त हैं जो निम्न प्रकार है। कापी करानेके लिये सूरिजीसे अनुरोध कर प्रति भी प्रति १७ वी सदोके प्रारम्भकी लिखित है। साथ ले आया। प्रति लौटानेकी अवधि कम मिली इति श्रीप्रत्येकबद्रचरित्र श्रीखरतरगच्छाअतः प्रतिलिपि करनेका कार्य कलकत्ते में मिश्रीमल लंकारसार श्रीजिनराजसरिंगणधरप श्रोजिन जी पालेरेचा व बीकानेरमें गोविन्दप्रसादजीद्वारा वर्द्धनसूरिविरचिते करकंडवणनो नाम प्रथम
। कराया गया। नकल पण हा जानपर विचार प्रस्तावः॥शा श्लो-३३ हुआ कि यह अलभ्य काव्य प्राप्त हुआ है अतः २. इति श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनराजसूरिपट्टे इसका परिचयात्मक एक लेख तैयार करना आव. श्रीजिनवर्द्धनसूरिविरचिते श्रीप्रत्येक बुद्धचरित्र
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किरण 7
द्विमुखराजर्षिवर्णनोनाम द्वितीय प्रस्तावः । श्लोक २४३ ३. इति श्रीखरतरगच्छालंकारसार (श्रीजिन)राज सूरिगणधर पट्ट श्रीजिनवद्धनसूरिविरचिते तृतीप्रस्तावे नमिप्रथम द्वितीयभवबर्णनो प्रथमप्रकाशः । श्लो. २८८
नाम
कतिपय प्रकाशित ग्रन्थों की अप्रकाशित प्रशस्तियां
४ इति श्रीखरतरगच्छालंकार सारश्रीजिनराजसूरिगणधर पट्टे श्रीजि नवद्धनसूरिविरचिते तृतीयचतुथ भवन
श्री प्रत्येकबुद्धचरित्र नाम द्वितीयप्रकाशः । श्लोक ७०२
५. इति श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनराजसूरिपट्टे श्रीजिनवर्द्धनसूरिविरचिते श्री प्रत्येक बुद्धचरित्र तृतीय (प्र०) नमि पंचमषष्ठमभववणनो नाम तृतीय प्रकाशः | ३|| श्लोक ८८४
६. इति श्रीखरतरगच्छाधिराज श्रीजिनराज सूरिपट्टे श्रोजिनबद्धनसूरिविरचिते प्रत्येकयुद्ध चरित्र तृतीय प्रस्तावे नमिसप्तमभववर्णनो नाम चतुर्थ प्रकाश श्लोक
जैसा कि उपर्युक्त उद्धरणोंसे स्पष्ट होता है प्रकाशित एवं हस्त लिखित प्रतिमें ३ प्रत्येक बुद्धोंका ही चरित प्राप्त है जबकि प्रत्येक बुद्ध ४ हैं। नभगति नामक चतुर्थ प्रत्येक बुद्धकी कथा इसमें नहीं है अतः इस कथा की मूल प्रतियोंका अन्वेषण आवश्यक है । जैनरत्न कोष के अनुसार इसकी अन्य प्रतियें १ भडार कर इन्स्टीट पूना २ विमलगच्छउपाश्रय अहमदा बाद में है उन्हें देखके निर्णय करना है कि उनमें भी ३ प्रत्येक बुद्ध केही चरित्र हैं या चौथेका भी नाम है ।
२ नरवर्मचरित्र - इसे उक्त पंडितजीने सं० ४६६६ में (६२ पृष्ठोंका) प्रकाशित किया था। इसमें यद्यपि प्रशस्ति दी हुई है पर प्रन्थकारका नामोल्लेख नहीं है । सं १६६१ के लगभग वाज्ञोतरेके भावहर्षीय भंडारकी प्रतियोंका अवलोकन करते हुए इस ग्रन्थ की एक सुन्दर एवं प्राचीन प्रति उपलब्ध हुई जिसमें ग्रन्थकार के नाम सूचक निम्नोक्त प्रशस्ति उपलब्ध हुई जिससे इसके रचयिता खरतरगच्छीय विनय
३२६
प्रभोपाध्याय सिद्ध होत है जिसके रचयिता गौतम राम बहुतही प्रसिद्ध हैं ।
"सं० ४५२ वर्षे श्रीविनयप्रभोपाध्यायैः श्री स्तंभनपुर स्थिते सम्पक्कसाराचके हिनरवर्म नृप कथाः । ४६४ | शुभं भवतु । पत्र १०
२. गौतम पृच्छ । वृत्ति - इसकी पंडितजो ने प्रकाशित (१२६ पृष्ठोंवाली) तीमरो श्रावृत्ति मेरे संग्र हालय मे हैं; उसमें प्रशस्ति आदि प्रन्थकार सम्बन्धी कुछभी उल्लेख प्राप्त नहीं है, जबकि हमारे संग्रहकी उक्त वृत्तिकी हस्तलिखित प्रतिमें निम्नोक्त प्रशस्ति हैं। उसकी रचना स्व० मतिवर्द्धनने सं० १७३८ मगसिर मे जयतारणमे की सिद्ध होती है ।
पंडितजी ने मूलग्रन्थकी गा. ६४ वीं देकर व्या ख्या-सुगमा करके छोड़ दिया है, तब हमारी प्रतिमें व्याख्या इस प्रकार है
व्याख्या-अष्टचत्वारिंशत् प्रश्नैः चतुषष्ठिगथा प्राज्ञता श्रीवीरेण भगवता श्री सिद्धान्त मध्ये सवि स्तरं प्रश्नं कथितमस्ति परमत्र प्रन्थे गौतमेन संक्ष ेपेण अथः मणितंः एतदर्थं यः शृणोति वा पठति तस्य पुरुषस्य पापं न भवति पुण्यभावो भवति पश्चान्मोक्ष सुखं भुनक्ति श्रवः भव्यलोकैरियं गौतम - पृच्छा पठनीया श्रोतव्या एवं ।
श्री जिनहर्षरिया सुशिप्याः पाठकावराः । श्री सुमतिमाश्च तच्छिष्य मंतिवर्द्धनैः ॥१॥ पाठक पद संयुक्तः कृता चेयं कथानिका । श्रीमद् गौतम पृच्छाया सुगमा सुखबोधिका ॥२॥
सिद्ध 'रामो मुना' चन्द्र' 'वर्षेऽस्मिन् मार्गशीर्षके । श्रीमत्यां जगतारण्यां नगर्यां च शुभे दिने || ३ || इति श्री गौतम पृच्छायाः सुगमा वृत्तिः संपूर्णा । ग्रंथा ग्रन्थ २६८३ । पत्र ३४
४. विक्रमचरित्र (पंचदडकथात्मक) इसे पंडित जीने सं० १६६८ में प्रकाशित किया है। प्रस्तुत संस्करण में कहीं भी प्रन्थकारका नामनिर्देश नहीं पाया जाता, जब कि स्थानीय ज्ञानभंडारस्थ प्रतिसे * अकानां वामतो गतिः
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[वर्ष १०
मुद्रिता क्षमा कल्याणकै र्विहितेति प्रघोषः " परन्तु प्रशस्ति नहीं दी है, अतः यहाँ दी जाती है
३३०
अनेकान्त
मिलाके देखा गया तो वह साधुपूर्णिमा गच्छीय रामचन्द्रसूरिरचित ही है। सं० १४६० के माघसुदी १४ को स्तभती प्रस्तुत प्रन्थ रचा गया है जैसा कि निम्नोक्त प्रशस्तिसे स्पष्ट है ।
सुभाषितानि पूर्वे च कवीनां रचितानिषचां । सत्य काव्यमुख्याणि शतानि पंचमुग्धकैः ॥ २२॥ श्री साधुपूर्णिमापक्षका ने कल्पपादपाः । श्रीमद भयदेवाख्याः सूरयो गुणभूरयः ॥२३॥
पाद प्रसादेन मया मूर्खेण निर्मितिः । ग्रन्थो विद्वज्जन शोध्यः कृपां कृत्वा ममोपरि ॥ २४ ॥ श्रीमद्विक्रमकालश्च खं निधी रत्न संख्या । वर्षे माघे सिते पक्ष शुक्लचतुदशीदिने ॥२२॥ पुष्य स्तीर्थे रामचन्द्रसूरिणा । narataयकारि प्रबंधो जनरंजकः ॥२६॥ यावद्भूधरसागरौ रविशशी संभूभु वस्तारकाः धर्माधर्मविचारक निपुणां यावज्जगद्राजते । वाषद्विक्रमभूपराज विलसत्कीर्त्तिप्रमाभिश्चितो । ग्रन्थोऽयं जिनशासन' सहृदयां चिसे चिरनन्दवात् ॥ २६ श्लोकेनुष्टपा संख्या ज्ञ ेया लेखनकोविदैः । पंच विंशति सार्द्धानि शतानि संति संख्यय ॥२८॥ एवं प्रस्तावे ५८७ ग्रन्थामन्थ २५५० अक्षर ३१ । श्रीविक्रमादित्य नरेन्द्र श्रीपंचद ड छत्र चरित्र समाप्त।
॥
५. श्रीपालचरित्र अवचूर्णि - सूरत के सुप्रसिद्ध देवचन्द्र लालभाई पुस्तकों द्वारा मन्याँक ६३ के रूप में सं० १८८० के रूपमें प्रकाशित हुआ है । उपोद् घात में आनन्दसागर (सागरानन्द) जीने इसकी अवचूर्णिकेलिये लिखा है कि "परमत्रावचूर्णिर्या
वर्षे नन्दगुहास्यसिद्धिवसुधा संख्ये शुभे चाश्विने । मा निर्मलचंद्रके सुविजयाख्यायां दशम्यां विथों । पूज्यश्री जिनहर्षसूरिगणभृत् सद्धर्मराज्ये मुद । श्री श्रीपालनरेन्द्र चारुचरिते व्याख्या समन्तात् कृता ॥ १ ॥ श्रीमन्वो जिनभक्तसूरि गुरवश्चांद्र कुले जज्ञिरे ।
या जिल्लाभरि मुनिपाः श्रीप्रीतितः सागराः । तच्छिष्यामृतधमं वाचकवरा स्तेषां विनेयक्षमाकल्याणाख्य सुपाठकेन सुधियां चैतः प्रसत्यै सदा ॥२॥ युग्मम् स्व प्रशिष्यस्य प्राशस्य ज्ञाननंद मुनेः कित्न |
महा लिखितोर्थोयं वीकानेरपुरे मुदा || त्रिभि: सम्बंध:
इति श्री श्रीपाल चरित्रस्य संक्षेप व्याख्या प्रायस्त्रीणि सहस्राणि साधिका द्वाविंशति ३०२२ सूत्र सख्या १५५० उभयमलनेन ४५७२ संख्या ज्ञातव्या ।
किसी किसी प्रन्थकी प्रतियोंमें प्रतिके लेखक द्वारा लिखित प्रन्थका कुछ विशेष परिचय लिखा हुआ पाया जाता है जो अन्य प्रतियोंमें नहीं मिलता । उदाहरणार्थ पं० हीरालाल प्रकाशित हर्षकुं जरके सुमि
चरित्र में ग्रन्थकारके गच्छ व गुरुका उल्लेख नहीं है जब कि जैसलमेर के तपागच्छीय भंडारकी उक्त ग्रन्थकी प्रतिमें खर तर श्री जिनहर्षसूरि राज्यजयकीर्तिमहोपाध्यशिष्यहर्ष कु जरोपाध्यायप्रकृतदान रत्नोपाख्याने लिखा पाया जाता है ।
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अन्यत्र अमाप्त अजितमझ करित
(लेखक-अगरचन्द नाहटा)
जैनधर्मके उद्धारक एवं प्रचारक तीर्थकर माने पौराणिक चरित्र-ग्रन्थमें भ. ऋषभदेव, शांतिनाथ जाते हैं उनकी संख्या भरत एवं ऐरावतक्षेत्रकी अपेक्षा कुथुनाथ, एवं अरनाथका चरित्र उपलब्ध होता है। २४-२४ मानी जाती है। जिस क्षेत्रमे हम निवास भरतादि चक्रवर्तियोंका चरित्र भी इसमें उल्लेखकरते हैं वह दक्षिण भरतक्षेत्र कहलाता है और नीयरूपसे मिलता है। ततपश्चात शीलांकाचार्य अभी अवसर्पिणी काल चलरहा है उनमें ऋषभादि रचित चउपन्न महापुरुष-चरित्रमें ५४ महापुरुषोंका चौवीस तीर्थकर हो चुके हैं। इनके जीवन-चरित्र चरित्र है। पर किसीभी तीर्थङ्करका स्वतन्त्र चरितसम्बन्धी कतिपय घटनाओं का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थ १२ वीं शतीके पहलेका उपलब्ध नहीं है। * जैनागमोंमें पाया जाता है जिनमे से आचारांग
उपलब्ध साहित्यमें खरतरगच्छीय गुणचन्द्रगणि में भ० महावीरके साधक जीवन, समवायांगमें
(देवभद्राचार्य) एवं नेमिचन्द्रमरिके चरितकाव्य सब २४ तीर्थङ्करोंकी कतिपय घटनाओं, ज्ञातासत्र में
से प्राचीन हैं । सं. ११३६ में इन्होंने वीर चरित की मल्लिनाथका जीवन-चरित जम्बूद्वीप पन्नत्तिमें
प्राकृत पद्यवद्ध रचना की। ऋषभदेव, उत्तरा ध्ययनमें नेमिनाथ सम्बन्धी उल्लेख महत्वपूर्ण हैं। मूल श्रागमोंके पश्चात् आवश्यक
सं. ११३६ से श्वेताम्बर सम्प्रदायमें तीर्थङ्करोंके नियुक्तिमें २४ तीर्थङ्करोंका चरित्र कुछ विस्तारसे स्वतन्त्र जीवनचरितोंका निमोण प्रारंभ होता है। संग्रहीत पाया जाता है परवर्ती चणियों एवं वृत्तियों इसी शताब्दी व परवर्ती शतीमें बहुतसे ऐसे ऐसेही में वह क्रमशः विस्तृत होता गया है स्वतन्त्र ग्रन्थों ग्रन्थ रचे गये हैं। पाठकों को इसका आभास में ४-५ वीं शतीके वसुदेव हिंडी नामक सर्वप्रथम निम्नोक्त तालिकासे भली भांति मिलजायगा। स१०६० सूराचार्य
नाभेय नेमि चरित द्विसंधान स११३६ महावीर चरित
गुणचंद्रगणि (देवभद्रसरि) स११३८ पाटण
नेमिचन्द्रसूरि सं.११६०
आदिनाथचरित (म० ११-१२) वर्षमान सूरि स.१९६०
शांतिनाथ चरित प्रा०प्र० १२१०० देवचन्द्रसूरि सं.११६८ पार्श्वनाथ चरित प्रा० (८०००)
देवभद्रसरि स.११७५
मल्लिचरित प्रा०प्र०५४४५ वृहटिप्पणिकाके आधारसे जिनरस्नकोष व जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास पृ०२०७ मे सम्बत् ११. लिखा है पर काम्य प्रास्त नहीं है इसके निर्माणका उल्लेख प्रभावकचरित्र में भी है अत: इसकी खोज प्रावश्यक है।
जैनेश्वरम्
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अनेकान्त
[वर्ष १० स११७८ चंद्रप्रभ चरित प्रा०प्र०६४००
उ० यशोदेवसरि स.१९७२
जयसिंहराज्ये श्रेयांसचरित (गा० ६५८४ हरिभद्राचार्य (बृहद्गच्छ) सं. ११६३ दीवालो (आशावल्लि) मुनिसुव्रतमुनि श्री चन्द्रसूरि
(प्रा० गा० १०८४४) स. ११६६
मा० सु० मंडलिपुर सुपार्श्वचरित लक्ष्मणगणि
(गा०८००० श्लोक १०१३८) प्रकाशित स.११६६ से ११२३ समतिचरित (प्रा० मुख्य)
सोमप्रभ कुमारपालराज्ये
(ग्र०८६२१) नाभेयनेमिद्विसंधानकाव्य
हेमचन्द्रसरि
(वृहद्गच्छ) मल्लिचरित्र
हरिभद्रसरि (वहु प्राकृत प्र० ६३.०)
चन्द्रप्रभचरित स. १२१६ का० स० १३ सो० (पाटण) नेमिचरित्र (प्रा० प्र० ००३२) स. १२१६ अनन्तनाथचरित
नेमिचन्द्रमरि (गा० १२०००) स.१२१८ पार्श्वचरित सं.
भावदेवमूरि (म०६४००-६७७४) १२२५ लगभग मुनिसुवतरित
मुनिरत्नहरि (सं० प्र०५५८५) १२३३ नेमिचरित
रत्नप्रभसरि (प्रा० गद्य पद्यमय प्र० १२६००) पद्मप्रभचरित
देवसूरि
(जालिहर गच्छ) १२६४ सोमेश्वरपुर चन्द्रप्रभारत
देवेन्द्रसूरि (सं० प्रा० प्र०५३.५)
(नागेन्द्रगच्छ) १२७६ दीवाली पार्श्वचरित
माणिक्यचन्द्रसरि (दव कूपक) (संप्र०५२७८)
(राजागच्छ) शांतिचरित १२८५ लगभग पार्श्वचरित
विनयचन्द्रसरि (मुनिसुव्रतचरित प्र०४५५२) १२८६
मल्लिनाथचरित महाकाव्य १२६४ मुनिसुव्रतचरित
पनप्रभस रि कुथुनाथचरित
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किरण ]
अन्यत्र अप्रात अजितप्रभु चरित स. १२६६ पाटण वासुपूज्यरित
वर्द्धमानसूरि (सं० प्र०५४६४)
(ही. हं० प्रकाशित) सं १३०२ चन्द्रभचरित
सर्वानंदसरि (म०६१४१)
पाश्वचारत से १३१७ शांतिचरित स.
पौ अजितप्रभ स.रि (ग्र०४६११ १३२२ शांतिरित स. (४८८५)
मुनिदेवसरि १३३२ श्रेयांमचरित स
मानतुगाचार्य (म० ५१२४) इस लेख में जिस अजितप्रभुचरितका परिचय स्वतन्त्र चरित काव्य अद्यावधि जानने में नहीं दिया जारहा है वह इसी समयके लगभगकी आया कुछ वर्ष हुए बीकानेरके जैन ज्ञानभंडारोंकी रचना है अतः यहीं तक स्वतन्त्र तीर्थकर-चरितों सची बनाते हुए स्थानीय बड़े उपाश्रयके बृहद ज्ञान की सचो दीगई हे। कुछ अनिश्चित पर इस बीचके भंडारके अंतर्गत जिनहषरिभंडारमें एक अजितअन्य ज्ञात चरितग्रंथ इसप्रकार है।
प्रभु चरितकी उपलब्धि हुई है अतः प्रस्तुत लेखमें
उसका परिचय प्रकाशित किया जा रहा है। प्रतिका ग्रंथनाम ग्रन्थकार उल्लेख
प्रथम पत्र प्राप्त न होनेसे प्रारंभके १४ श्लोक प्राप्त ५ वासुपूज्यचरित चंद्रप्रभ (प्रा. ८०००) पाटणभंडार
नहीं होसके। ग्रंथके अन्तमें प्रन्थकारकी प्रशस्ति भी (हेम सूर्यादि संशोधित) मृची पृ. १४०।४२ नहीं है केवल सर्ग-समाप्तिमें लेख-प्रशस्ति पाईजाती २ शान्तिचरित माणिक्यसूरि उल्लेख वृहत् टिप्पणका है उससे ग्रन्थके रचयिता श्री पद्मप्रभाचायके शिष्य (म५५७४)
देवानन्दसरि सिद्ध होते है। काव्यका अपर-नाम ३श्रेयांसचरित देवभद्रसरि (राजगच्छ) पाटण भंडार आनन्दाङ्क लिखागया है, यह ७ सर्गात्मक है । यद्यपि (पाटणमें रचित)
प्रशस्ति नहीं होनेसे ग्रंथकारके गच्छ एवं संवत ४ पद्मप्रभचारत देवभद्रशिध्यसिद्धसेनसूरि जिनरत्नकोष
का उससे निर्णय नहीं होता, पर जैनसाहित्यनो (इनमें नं. २ मंभवतः उपयुक्त माणिक्यसूरि
सक्षिप्त इतिहास के पृ० ४४४ में सं.१३२० में पौ० रचितसे अभिन्न हो, मेरा श्वेताम्बर साहित्यसे
। चन्द्रप्रभसूरि धर्मघोष, भद्रेश्वर, मुनिप्रभ, रत्नप्रभ अधिक परिचय होनेसे तीर्थकरचरित सम्बन्धी .
चन्द्रसिंह, देवसिंह, पद्मतिलक, देवचन्द्र, पद्मप्रभ श्वेताम्बर ग्रंथोंको ही ऊपर सची दीगई है मैं दिगम्बर विद्वानों से अनुरोध करूंगा कि वे अपने साहि सूर
सूरि शिष्य देवनंद अपर नाम देवमूर्तिके रचित
क्षेत्र समास व स्वोपज्ञ वृत्तिका उल्लेख है । प्रस्तुत त्यकी सूची शीघ्र ही प्रकाशित करें ताकि उनके
चरितमें उल्लिखित गुरुनामकी समानता को देखते साहित्यका यथास्थान व यथासमय उपयोग किया
हुए क्षेत्रसमासके रचयिता इनसे अभिन्न प्रतीत होते जाता रहे।
है । अतः आपका गच्छ पूनमिया व समय स०१३२० इसके पश्चात् भी आज तक प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश व लोक भाषामे तीर्थङ्करोंके चरित-प्रन्थ बनाने के लगभग का निशचत होता है पाठकोंकी जानकारी का क्रम चालूही है पर अजितनाथ स्वामीका कोई के लिये अजित प्रभु-चरितके आदि-अंतके साथ श्राव
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३३४ अनेकान्त
[किरण : श्यक जानकारी यहां दी जारही है यदि अन्यत्र कहीं ग्रन्थानं. ४५६ अक्षर १२ अदितः ३४२४ अक्षर इसकी प्रति किसी सज्जनके पास हो तो मुझे सूचित पत्रांक १०८ A पंचमसग अतः श्लोक २३१ । करने की कृपा करें। संभव है उसमें ग्रन्थकारकी इति स्त्रीदुश्चरित्रविरक्ताशोकभद्र ऋषिचरित्रगोभित प्रशस्ति भी प्राप्त होजाय । प्रारंभके १४ श्लोक सगरनन्दनस्वेच्छाबिहारश्रीअष्टापदतीर्थवंदनवर्ण नोप्राप्त होनेसे प्रस्तुत प्रति भी पूर्ण करा ली जायगी। नाम पंचमसर्गः प्र०.२३७ अ०४ आदित:३६६१ ।
देवानन्दसूरि-रचित अजितप्रभुचरित प्रारंभ- पत्रांक १३१B षष्ठ सर्गन्तश्लोक ८१७ इति सगर प्रतिका प्रथम पत्र न मिलनेसे आदिके १४ श्लोक नंदन निधन वसमतीदृष्टान्तपूर्वकतत्पूर्वभवपंचेद्रिय नहीं मिलसके। आदि- अर्हनपादांबुजध्यानवर्जिता मोहतजिता।
दुविपाकसूचककथापंचकमयप्रभुदेशना चक्रवर्तिदीक्षा
वर्णनो नाम षष्ठः सर्गः: प्र०८२२ अ०१६ आदितः अजितं कृत्व तोप्याश्रु। नयंति नृभवं यथा १५
४४८३ १०२१ पत्र प्रथमसर्गअन्त-श्लो. १२३५ ।
पत्रांक १३८B सप्तममग अंतः- श्लोक २४८ इति इति श्री पद्मप्रभाचार्यचरणराजीवचंचरीकश्रीदेवा
श्री पद्मनभाचायचरणराजीवचंचरीकश्रीदेवनंदसूरिनन्दसूरिविरचितेश्रीअजितप्रभुचरिते आनन्दांके महा.
विरचिते श्रीअजितप्रभुचरिते आनंदांके महाकाव्ये दृढ़ कान्येमंगलकलशचंपकमालानागकेतूक्तरगडूकषिदृष्टां- सम्यक्त्वयुद्धभटवृत्रांतप्रस्तावागत अमर दत्तभायोताविभौवितफलदानशीलतपोभावना स्वरूपचतुविधि कथाननिरूपणोनाम सप्तमसर्ग:प्र०२५१ आदित धर्मप्ररूपणोनांमप्रथमः सर्गः ।
४७३४ अ०२१। ग्रन्थान१२४२ अ. २४ पद छः । पत्र ६८B द्वि० सर्ग
अन्तश्लोकअन्तश्लोक१००६ इति श्रीपद्मानंदांके महाकाव्येलक्ष्मी १वध २ स्त्री ३ विषय ४ शरीर ५ वैरस्य स चक श्री आनंदयन् भव्यजनांबुजालीसगोतरापास्ततमसमहः पति १ कोतिचंद्र २ अगडदत्त ३ मध विद शशि- जिनेश सूरो निजपादचार:पवित्रयामास महींसमंतान प्रभा ५ ख्यात अविरति स्वरूप निरूपक जिनपालित
२४८। जिनरक्षित दृष्टांतगर्भित भगवन-पूर्वभववर्णनो नाम लेखन प्रशस्तिश्री अन्चलगच्छेश्रीधर्ममूर्तिसरिविजयद्वितीय सर्गः ॥६।। ग्रन्था० १०१३ अक्षर २८ सर्गद्वये राज्ये आचार्यश्रीकल्याणसागरसरितत्शिष्यवाःश्रीसौ. २२५६ अ० २०
भाग्यमूतिलिखिते भद्र भ०।। ___ पत्रांक EE A तृतीय सगे अन्त-श्लोक ७०७ (पत्र १६८ प्रति पृष्ठ पंक्ति १३ से १६ प्रति पंक्ति इति प० काव्ये च्यवनजन्मदीक्षाज्ञानकल्याणवणेनो अक्षर ३८ से ४२) बीकानेर वृहतज्ञानभंडारके नाम तृतीयसर्गः। श्री प्रन्थान० ७१० अ० १ आदितः जिनहर्षसरि भडार नं० १० में)। २६६४ अ० २१ ए०प०
पत्रांक १०२ A चतुर्थसगअन्त श्लोक ४५८। इति इनको प्राचार्य पद १६४४ में मिला व धर्म मूर्ति सूरि सगरक्रिदिग्विजयधमित्रदृष्टांतचक्रिपूर्व भवोपेत १६७० तक विद्यमान रहे अतः प्रस्तुत मूर्तिका लेखन प्रभुदेशनाचक्रिसुतोत्पन्न वर्णनोनाम चतुथे सर्गः। श्री १६४६ से १६७. के बीच में हुश्रा सिद्ध होता है।
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भद्रकाहु-निमित्तशास्त्र
(गत किरणसे आगे)
स्थायुधानां सचानां हस्तिनां सदृशानि च । यान्यग्रतो प्रधावन्ति जयमाख्यान्त्युपस्थितम् ॥१० ___ अर्थ-रथ (गाड़ी. बग्घी मोटर विमान) तथा प्रायुध (तलवार आदि) रूप और हाथी आदि प्राणियोंके सदृश बादल राजाक आग श्रागे गमन करें तो वे उसकी जयको सचित करते हैं ॥१०॥ ध्वजानां च पताकानां घण्टानां तोरणस्य च । सादृशान्यग्रतो यान्ति जयमाख्यान्त्युपस्थितम् ११
अर्थ-ध्वजा पताका घण्टा और तोरण आदि शुभ (अष्ट मंगल द्रव्य-आठ प्रातिहार्य ) रूप प्राकृतिवाले बादल राजाके प्रयाणसमय आगे आगे गमन करें तो उनसे राजाकी विजय सूचित होती है शुक्लानि स्निग्धवर्णानि पुरतः पृष्ठतोऽपि वा । अभ्राणि दीप्तरूपाणि जयमाख्यान्त्युपस्थितम् १२
अर्थ-श्वेत और चिकने बादल राजाके आगे अथवा पीछे चमकते हुए गमन करें तो विजय लक्ष्मी उसके सामने उपस्थित रहती है अर्थात् युद्ध में उसे विजय मिलती है ।।१२।।। चतुःपदानां पक्षी (क्षि)णां क्रव्यादानां च दंष्ट्रिणाम् । सदृशप्रतिलोमानि वधमाख्यान्त्युपस्थितम् १३
अर्थ-चौपायों (ऊट भंसा, सुअर, गधा, आदि) और मांसभक्षी कर पक्षियों (गीध, काक बगुला, बाज, तीतर आदि) तथा दांतवाले हिंसक प्राणियोंके आकार वाले बादल राजाको युद्धके लिये गमन समयमें प्रतिलोमगति (अपमव्यमार्ग) से गमन करते हुए दिग्वाई दें तो राजाका घात अथवा परा• जय होती है ॥१३॥ असि शक्ति-तोमराणां खड्गानां चक्रचर्मणाम् । सदृशप्रतिलोमानि संग्रामं तेषु निदिशेत् ॥१४,
___ अर्थ-तलवार, त्रिशूल, भाला बी, खड्ग, चक्र और ढालके समान श्राकार वाले और उल्टे मार्गसे गमन करनेवाले बादल युद्धकी सूचना करते है ॥१४॥ धनषा कवचानां बालानां सदृशानि च । खण्डान्यभ्राणि रूक्षाणि संग्रामं तेषु निदिशेत ॥१५॥
अथे-- धनुषाकार, कबचाकार, वाला (अश्व और हस्तिकी पूछडी) के सदृश तथा खण्डित बादल हों एवं रूक्ष भी हों तो उनसे संप्रामकी सूचना होती है ॥१५॥ नानारूपप्रहरणैः सर्वे यान्ति परस्परम् । संग्राम तेषु जानीयादतुलं प्रत्युपस्थितम् ॥१६॥
अर्थ-नाना प्रकारके रूप धारण कर सघ बादल परस्परमें श्राघात प्रतिघात करें तो वे घोर संग्राम सूचक है ऐसा जानना चाहिए ||१६|| . अभ्रवृक्ष समुच्छाद्य योऽनलोमसमं व्रजेत् । यस्य राज्ञो वधस्तस्य भद्रबाहुवचो यथा ।१७।।
अर्थ-जड़से उखड़े हुये वृक्षके सदृश जो बादल गमन करते हुए दिखते है वे राजाके वधको सूचना
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३३६
अनेकान्त
[ वर्षे १० करते हैं ऐसा भद्रबाहुका वचन है ॥१॥
बालाभ्रवृक्षमरणं कुमारामात्ययोर्वदेव । एवमेवं च विज्ञयं प्रतिराज्ञां यदा भवेत् ॥१८॥ ___ अर्थ-वृक्षके पौधेसे वाल्यावस्थाके राजाका मरण, तरुणवृक्षसे मंत्रोका मरण जानना चाहिए। अथत जो बादल छोटे वृक्षके समान दिखाई दें उनसे यवराजका और जो बडे वृक्षके सदृश दिखाई दें उनस मंत्री का मरण सूचित होता है । इसी प्रकार शत्रु राजाओंके सम्बन्धमे जानना चाहिए ॥१८॥ तियक्ष यानि गच्छन्ति रूक्षाणि च धनानि च । निवर्जयन्ति तान्याशु चमू सवा सनायकाम् १६
अथ-जो अभ्र मेघ) तिरछे गमन करते हों, रूक्ष हा और सान्द्र (धन) हों तो उनस नायक सहित समस्त सेनाके युद्धसे लौट जाने या परडमुख होजानेकी सूचना मिलतो है ।।१६।। अभिद्रवन्ति घोषेण महता यां चमू पुनः । सविद्य तानि चाभ्राणि तदा विन्द्याच्चमूवधम् ॥२०
अथ-जो वादल जिस सेनापर भारी गर्जना करते हुए वर्पते हैं तथा विजली सहित होत है तो उस सेनाका नाश सूचित होता है ॥२०॥ रुधिरोदकवर्णानि निम्बगन्धानि यानि च । ब्रजन्त्यभ्रााण अत्यन्तं संग्राम तेष निर्दिशेत् ॥२१॥
अर्थ-रुधिरके वर्णवाली वृष्टि हो और निम्ब जैसी गन्ध हा तथा बादल गमन करते हुए हां तो यह सब युद्ध होनेका निर्देश करते हैं ॥२१॥ विस्वर रवमाणाश्च शकुना यान्ति पृष्ठतः । यदाऽभ्राणि सधूमानि तदा विन्द्याद् भयं महत ॥२२॥
___ अथे-जो बादल शकुनरूप होकर पीछेमे आवे चाहे व शब्द महित हों यह न हों और धूम जैसे आकारको लिये हर हों तो महान भय सचित होता है॥२२॥ मलिनानि विवर्णानि दीप्तायां दिशि यानि च । दीप्तान्येव यदा यान्ति भयमाख्यान्त्युपस्थितम् २३
___अर्थ मलिन तथा वणरहित बादल दीप्त दिशा (जिस दिशामें सर्य हो उस , में हों तो वे भय सूचित करते है ।।२।।
सग्रहे चापि नक्षत्र ग्रहयुद्ध ऽशुभंतिथो । सम्भ्रमन्नि यदाऽभ्राणि तदा विन्द्यान्महद्भयम् ।। २४ मुहूते शकुन वापि निमित्त वाऽशुभे यदा ,सम्भ्रमन्ति यदाऽभ्राणि तदा विन्द्यान्महद्भयम् ॥२॥
अथ-अशुभ ग्रह नक्षत्र, ग्रहयुद्ध, तिथि मुहूते शकुन, और निमित्तके सद्भावमे बादलोंका भ्रमण हो (बादलोंका उठाव हो ) तो जानना चाहिये कि बहुत भारो भय हाने वाला है ॥२४॥२५॥ अभ्रशक्तियतो गच्छेत्तां दिशां चाभियोजयेत् । विपुला क्षिप्रगा स्निग्धा जयमाख्याति निर्भयम् ॥२६॥
अथ-भारी शीघ्रगामी और स्निग्ध बादल जिस दिशामें गमन करें तो उस दिशामें वे यायीराजा की विजयकी सूचना करते हैं । ॥२६॥
यदा तु धान्यसंघानां सदृशानि भवन्ति हि । अम्राणि तोयवर्णानि सस्यं तेष समृद्ध्यते ॥२७॥
अर्थ-यदि बादल धान्यके समूहके सदृश, जलके वणवाले दिखाई दे तो धान्यकी बहुत पैदावारी होती है ॥२७॥ चिरागान्यनुलोमानि झुक्लरक्तानि यानि च । स्थावराणीति जानीयात् स्थावराणां च संश्रये ॥२८॥
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किरण भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र
३३७ अर्थ-विरागी अनुलोम गतिवाले तथा श्वेत और रक्तवर्ण वाले बादल स्थिर होतो वह स्थाईके लिये जानना अर्थात् चढ़कर आनेवाला यायी स्थाई रहने वालोंका आश्रय लेता है ॥२८॥
क्षिप्रगानि विलोमानि नीलपीतानि यानि च । चलानीति विजानीयाच्चलानां वा समागमे२६
अर्थ-शीघ्रगामी प्रतिलोमगतिसे चलनेवाले, पीत और नील वणके बादल चल जानना चाहिए और वे यायोके लिय ममागमकारक है ॥२६॥ स्थावराणां जयं विन्द्यात्स्थावराणां द्य तिर्यदा। यायिनां हि जयं विन्द्याच्चलामाणां धु तावपि ३०
अर्थ-जो बादल स्थावरों क अनुकूल द्य ति आदि चिन्हवाले हों तो उस परसं स्थायियोंकी जय जानना और यायीक अनुकूल द्य ति आदि हों तो यायोकी विजय जानना । अर्थात् बादलों परसे ऊपर जा फल स्थाई और यायोके लिये बतलाया गया है उसपरसे जैसा कुछ अभाशुभ दीखे बताना चाहिये या जानना चाहिये ॥३०॥ राज्ञा तत्प्रतिरूपस्तु ज्ञ यान्यभ्राणि सर्वशः। तत्सर्व सफलं विन्द्याच्छुभं वा यदि वाऽशुभम् ॥३१॥
अर्थ-यांद राजाको बादल अपन प्रतिरूप (सदृश) जान पड़ें तो उनसे अच्छा या बुरा दोनों तरहका फल जानना चाहिये ॥३२॥
इति नैनन्थे भद्रबाहुके निमित्ते अनलक्षणं नाम षष्टोऽध्यायः समाप्तः ।
सातवां अध्याय
अथाऽतः-सम्प्रवक्ष्यामि संध्यानां लक्षणं नतः । प्रशम्नमप्रशस्तं च यथा तत्वं निबांधत ॥१॥
अर्थ-अब संध्याओंके लक्षण कहेजात है वे दो तरह के हैं प्रशस्त और अप्रशस्त । उद्गच्छमाने चादित्ये यदा संध्या विराजते । नागाणां जयं विद्यादस्त गच्छति यायिनाम् ॥२
अथ-सूर्योदयक समयकी संध्या नागरोंको और सूर्यास्तकं समयकी संध्या यायी (चढ़कर आने वालों) के लिए जय देने वाली जानना ना
उद्गच्छमाने चादित्ये शुक्ला संध्या यदा भवेत् । उत्तरण गता सौम्या प्रामणानां जयं विदुः३
अथ-सूर्योदयके समय यदि श्वेतरंगकी संध्या होवे और वह उत्तर दिशामे हो तथा सौम्य हो तो ब्राह्मणों के लिए जय-दायक है ॥शा
उद्गच्छमाने चादित्ये रक्ता संध्या यदा भवेत् । पर्वेण च गता सोम्या क्षत्रियाणां जयावहा ४
अर्थ-सर्योदयके समय लाल वर्णकी संध्या होवे श्रार वह पर्व दिशामें आश्रय करे तथा सौम्य हो तो क्षत्रियोंको जय देने वाली जानना ।।४।।
उद्ग छमान चादित्ये पीता संध्या यदा भवेत् । दक्षिणेन गता सौम्या पैश्यानां सा जयावहा
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३३८ अनेकान्त
[वष १० अर्थ-सूर्योदय के समय पीत वर्णकी संध्या याद होवे और वह दक्षिण दिशाका आश्रय करे तथा सौम्य होवे तो वैश्योंकेलिये जयदाई है ॥५॥
उद्गच्छमाने चादित्ये कृष्णसंध्या यदा भवेत् । अपरेण गता सौम्या शूद्राणां सा जयावहा ६
अर्थ-- सूर्योदय के समय कृष्ण वर्णकी सन्ध्या यदि हो और वह पश्चिम दिशाका आश्रय करे तथा सौम्या हो तो शूद्रोंके लिये जयकारक जानना ।।६॥
संध्योत्तरा जयं राज्ञः ततः कर्यात्पराजयम् । पर्वा क्षमं सुभिक्षं च पश्चिमा च भयंकरा ॥७॥
अर्थ-उत्तर दिशाकी सध्या राजाके लिये जय सूचक है, और दक्षिण दिशाकी सध्या पराजय सूचक जानना पूर्व दिशाकी सध्या क्षेमकुशल और सुभिक्षकारक जानना। पश्चिम दिशाकी सध्या भयंकरा जाननी ॥७॥
आग्नेयी अग्निमाख्याति नैऋती राष्ट्रनाशनी । वायव्या प्रावषं हन्यादीशानी च शुभावहा ॥८॥ अर्थ- चारों दिशाकी संध्याका फल कहकर अब चारों विदिशाओंकी मध्याका फल दिखाते है। १ अग्निकोगकी सध्या अग्नि भय करती है। नैऋत्य दिशाको सध्या देशका नाश करने वाली है। ३ वायु कोणकी सध्या वर्षाकी हानि करती है । ४ ईशान कोणकी सध्या शुभ जानना । एवं संपत्कराय षु नक्षत्रेष्वपि निर्दिशेत् । जयं सा कुरुते सन्ध्या साधकेषु समुत्थिता ॥६॥
अर्थ-इसी प्रकार सम्पत्तिका लाभ आदि कराने वाले नक्षत्रों में भी निर्देश करना चाहिये वह संध्या साधक के जय करने वाली है। तात्पर्य यह कि साधक पुरुषको नक्षत्रों में भी शुभ संध्याका दिखाइ देना जयको देनेवाला है ।
सन्ध्याल क्षणम उदयास्तमनेऽर्कस्य यान्यभ्राण्यग्रता भवेत् । सप्रभाणि सरश्मीनि तानि संध्या विनिदिशेत् ।।
अर्थ-सूर्यके उदयास्तके ममय बादलोपर जो सूर्य की प्रभा पड़तो है उस प्रभासे बादलोंमें नाना प्रकारके वर्ण (रंग) उत्पन्न हो जाते है उसी को मध्या कहते है ॥१०॥
अभ्राणां यानि रूपाणि सौम्यानि विकृतानि च । सर्वाणि तानि संध्यायां तथैव प्रतिवारयेत ।।
अर्थ - अभ्र (बादल) अध्यायमे जो उनके अच्छे और बुरे रूप दिखाए गये है वह सब इस संध्या अध्यायमें लागूकर लेना चाहिये ॥१शा
एवमस्तमने काले या संध्या सर्व उच्यते। लक्षणं या तु संध्यानां शुभं व यदि वाऽशुभम् ॥१२
अर्थ-ऊपर सूर्योदयकी संध्याका लक्षण और फल शुभ वा अशुभ कहा गया है वही सब लक्षण सूर्यास्त कालकी संध्याके विषै जैसे कुछ शुभ वा अशुभ हो जानना ॥१२॥
स्निग्धवर्णमती संध्या वर्षदा सर्वशोः भवेत । सर्वा वीथिगता चापि सुनक्षत्राविशेषतः ॥१३॥
अर्थ-स्निग्ध वर्ण (चिकनी) सध्या वर्षाको देनवाली है वाथियोंमें प्राप्त और विशेषकर शभ नक्षत्रों वाली सध्या वर्षाको करती है ॥१३॥
पूर्वरात्रपरिवेषा सविद्य त्परिखायुता । सरश्मी सर्वतः संध्या सद्यो वर्ष प्रयच्छति ॥१४॥
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किरण |
भदबाहु-निमित्तशास्त्र
३३६
अथ - पूर्व रात्रि अगली रात्रि गई रात्रि) को परिवेष होवे और परिखायुक्त बिजली होवे, और सब ओर रश्मिसहित संध्या होवे तो तत्काल वर्षा देती है ||१४||
प्रतिमूर्यागमस्तत्र शक्रचापरजस्तथा । संध्यायां यदि दृश्यन्ते सद्यो वर्ष प्रयच्छति ॥ १५ ॥ अथ – प्रतिसु का आगमन हो, वहां पर इन्द्रधनुष रजका सध्या के विषे दिखाई दे तो तत्काल वर्षा होती है ||१५||
संध्यायामेकश्मिं तु यदा सृजति भास्करः । उदितोऽस्तमितो वापि विन्द्याद्वर्षमुपस्थितम् ॥ १६ ॥ अर्थ - संध्या में सूर्य उदय या अस्तके समय में एकरश्मिवाला दिखाई दे तो वर्षा होती है ॥ १६ ॥ आदित्यपरिवेषस्तु संध्यायां यदि दृश्यते । वर्षं महद्विजानीयाद्भयं वाऽथ प्रवर्षणे ॥१७॥ अथ –सौंध्यामें सूर्यके परिवेष दिखाई दे तो भारी वर्षा होती है, अथवा भय होता है ॥१७॥ त्रिमंडलपरिक्षिप्तो यदि वा पञ्चमंडलः । संध्यायां दृश्यते सूर्यो महावर्षस्य संभयः || १८ || अर्थ –यदि सूर्य सौंध्यामें तीन मंडल अथवा पांच मंडलसे घिरा हुआ दिखाई दे तो महा वर्षाका होना संभव है ||१८||
द्योतयंती दिशः सर्वा यदा संभ्या प्रदृश्यते || महामेघस्तदा विन्द्याद्भद्रबाहुवचो यथा ॥१६॥ अर्थ—सब दिशाओं मे प्रकाशमान झलझलाटयुक्त संध्या दिखाई दे तो बड़ी भारी वर्षा होती हैं, यह भद्रबाहुके वचन हैं ॥१०॥
सरेस्तडागप्रतिमा कूपकुम्भनिभा च या । यदा दृश्यति सुस्निग्धा सा संध्या वर्षंदा स्मृता | २० | अर्थ-सरोवर, तलाव, प्रतिमा, कूप और कुम्भ सदृश स्निग्ध संध्या यांद दिखाई दे तो वर्षा होगी
ऐसा जानना ||२०||
धूम्रवण बहुच्छिद्रा खण्डपापममा यदा । या संभ्या दृश्यते नित्य' सा तु राज्ञो भयङ्करा ॥२१॥
अर्थ - धूम्रवर्णवाली, छिद्र युक्त खण्ड (टुकड़े टुकड़े) रूप, संध्या यदि नित्य दिखाई दे तो वह राजाको भयकारक है ||२१|| द्विपदाःश्चतुश्पदाश्च क्रूरा पक्षिणश्च भयङ्कराः । सन्ध्यायां यदि दृश्यन्ते भयमाख्यान्त्युपस्थितम् २२
अर्थ - क्रूर स्वभाव वाले द्विपद, चतुष्पद, और पक्षिगण के सदृश बादल यदि संध्याकाल में दीखें तो भय उपस्थित हो जाता है ||२२||
अनावृष्टिभयं रोगं दुर्भिक्षं राजविद्रवम् । रूक्षायां विकृतायां च संध्यायामभिनिर्दिशेत् ॥ २३ अर्थ — संध्या में बादल रूक्ष और विकृतरूप दिखाई दें तो अनावृष्टि, भय, रोग दुर्भिक्ष और राजा का उपद्रव होता है ||२३|| विंशतिर्योजनानि स्युविंद्य ुद्भाति च सुप्रभा । ततोऽधिकं तु स्तनितं पंचयोजनिका सन्ध्या वायुवर्षं च दूरतः । त्रिरात्र सप्तरात्रञ्च सद्यो वा अर्थ — विजलीका परक्का बीस २० योजन (८० कोश = १६० माईल) परसे अधिक दूर से बादल दिखाई देते हैं। संध्या पांच योजन (बीस कोश-४० मील)
से
यत्र व दृश्यते ॥२४॥ पाकमादिशेत् ||२५||
दिखाई देता है इससे भी दिखाई देती है। वायु
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३४०
अनेकान्त
[वर्ष १०
और वर्षा दूरसे दिखाई देती है । उपरोक्त चिन्हों का पाक काल (फल) तीन रात अथवा सात रात्रि में तथा तत्काल भी होता है ॥२४॥२५॥ उन्कावत्साधनं सर्व सन्ध्यायामभिनिर्दिशेत् । अतः परं प्रवक्ष्यामि मेघानां तन्निबाधत ॥२६॥
अर्थ-उल्काअध्यायवत् सध्या का सब कथन जानना चाहिए। अब आगे मेघांके लक्षण और फल बताये जाते हैं उन्हें भले प्रकार सममें ॥२६।।
इति नै ग्रन्थे भद्रबाहुके निमित्ते सध्यालक्षणं सप्तमोध्यायः ।।७।।
आठवां अध्याय अतः परं प्रवक्ष्यामि मेघानामपि लक्षणम् । प्रशस्तमप्रशस्तं वा यथावदनुपूर्वशः ॥१॥
अर्थ-अब मेघोंके उत्कृष्ट शुभाशुभ लक्षण कहे जाते हैं ॥१॥ यदांजननिमो देवः शान्तायां दिशि दृश्यते । स्निग्धो मंदगतिश्चापि तदा विन्द्याज्जलं शुभम्॥२॥
अर्थ-यदि अंजन (काले सुरमे) के समान गहरे काले मेघ पश्चिम दिशामें दिखाई देवें और वे चिकने तथा मन्द-गतिवाले चाहे शीघ्र गतिवाले होवें तो बहुत जल को वर्षाते हैं ॥२॥
पीतपुष्पनिभो यस्तु यदा मेघः समुत्थितः । शांतायां यदि दृश्येत स्निग्धो वर्ष तदुच्यते ॥३॥
अर्थ-पीलेपुष्प के समान सचिक्कण स्निग्ध) पश्चिम दिशामें मेघ स्थित हों तो वर्षाको करते है। रक्तवर्णो यदा मेघः शान्तायां दिशि दृश्यते । स्निग्धो मन्दगतिश्चापि तदा विन्द्याज्जलं शुभम्।४
अर्थ-लाल वर्ण के मेघ चिकने और मंदर्गात वाले पश्चिम दिशामें दिखाई दे तो बहुत जलको देने वाले जानना चाहिए |४|| शुक्लवर्णो या मेघः शान्तायां दिशि दृश्यते । स्निग्धो मदगतिश्चापि निवृत्तः स जलावहः ।। ___अर्थ-श्वेत वर्ण के स्निग्ध और मंदगति वाले मेघ पश्चिम दिशामे दिखाई दें तो व जितना कुछ जल उनमें होता है वर्षा कर निवृत्त हो जाते हैं ॥५॥ स्निग्धाः सर्वेषु वणेषु स्वां दिशं संश्रिता यदा । स्ववर्ण विजयं कुर्य दिक्ष शांतासु ये स्थिताः ॥६॥
अर्थ-पश्चिम दिशामें स्थित मेघ स्निग्ध हों तो सब वर्गों को जय करने वाले हैं, यदि अपने अपने वर्णके अनुसार अपनी अपनी दिशामें स्निग्धमेघ स्थित हों तो वणीनुसार जय को कहते हैं ।।६।। जातिब्राह्मण क्षत्रिय
वैश्य जातिवर्णश्वेत रक्त पोत
कृष्ण जातिदिशा- उतरदिशा पूर्वदिशा दक्षिणदिशा पाश्चिमदिशा यथा स्थितं शुभं मेघमनुपश्यन्ति पक्षिणः । जलाशया जलधरास्तदा विन्द्याज्जलं शुभम् ॥७॥
अर्थ-शुभ मेघ जैस स्थित हों यदि वह बादल पक्षि गण रूप तथा जलाशयरूप दिखाई दें तो अच्छा जल वर्षाते है ॥णा
१.२ मुद्रित भद्रबाहुसंहिता में यह पग उपलब्ध नहीं है। -सम्पादक
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किरण ]
भद्रबाहु निमित्तशास्त्र
[३४१
taraare ये मेघाः स्निग्धनादाश्च ते सदा । मंदगाः सुमुहूर्ताश्च ये सर्वत्र जलावहाः ||८||
अर्थ - चिकने वर्णवाले (लोचन प्रिय) मुलायमशब्द वाले, मंदगति वाले, और उत्तम मुहूर्त के मेघ सर्वत्र जल वर्षाते हैं ||८||
सगधगंधायेमेघाः सुस्वरा स्वादुसंस्थिताः । मधुरोदकाश्च ये मेघाः जलाय जलदास्तदा ॥६॥ अर्थ-सुगंध के समान गंधवाले, मनोहर गर्जनावाले, स्वादु रस वाले, मीठे जलवाले मेघ जलको वर्षा है || ||
मेघा यदाऽभिवर्पति प्रयाणे पृथ्वीपतेः । मधुरा मधुरेणैव तदा संधिर्भविष्यति ॥ १० ॥ अर्थ- - राजाक चढाई के समय मधुर (मनोहर ) तथा मधुर शब्द वाले, मेघ वर्षा करें तो होकर परस्पर सधि हो जाती है ॥ १०॥
युद्ध न
पृष्ठतो वर्ष'तः श्रेष्ठ ं अग्रतो वियङ्करम् । मेघाः कुर्वन्ति ये दूरे सगर्जितसविद्युतः ॥११॥
6
अर्थ - राजाके प्रयाग के समय यदि मेघ दूरी पर गर्जना और विजलो सहित दृष्टि करें और पृष्ठ भागपर हों तो श्रेष्ठ जानना, यदि अप्रभाग में करें तो विजयको करने वाले जानना ||११|| मेघशब्देन महता यदा निर्याति पार्थिवः । पृष्ठतो गर्जमानेन तदा जयति दुर्जयम् ॥१२॥ अर्थ-यदि राजाके प्रयाण समय पीछेके मार्गसे मेघ बड़ी भारी गर्जना करें तो जो नहीं जीता जाय ऐसे दुर्जेय (स्थान या शत्रु) को जीतता है || १२||
मेघशब्देन महता यदा तिर्यक् प्रधावति । न तत्र जायते सिद्धिरुभयोः परिसैन्ययोः | १३ ||
अथ यदि वह सन्मुख या पृष्ठ भागमें भारी गजेना न कर तिर्यक् (बाई दाई) भाग में गर्जना करे तो दोनों (स्थाई और यात्री) सेनाओं को सिद्धि प्राप्त नहीं होती है || १३||
मेघा यत्राभिवर्षन्ति स्वधावारसमन्ततः । सनायका विद्रवते सा चमूर्नात्र संशयः ॥ १४ ॥
अर्थ – यदि मेघ जिस स्थानपर मूलधार पानी वर्षावें, वहांवर नायक और सेना एवं दोनों द्रवित हो जाते हैं, अर्थात् रक्तसे रजित हो जाते है इसमे कुछ संशय नहीं जानना ||१४|| रूक्षा वाताः प्रकुर्वैन्ति व्याधयो विष्ठुगन्धितः । कुशब्दाश्च विवर्णाश्च मेघावर्ष' न कुर्वते ।। १५ ।। अर्थ - रूक्ष वायु विष्ठाके गंधकी हो तो व्याधिको करती है । कुशब्द और वण वाली हो तो मेघ वर्षा नहीं करते ||१५|| सिहश्रृगाल- मार्जाराः व्याघ्रमेघाः द्रवन्ति ये । महता भीमशब्देन रुधिरं वर्षन्ति ते वनाः ||१६|| अर्थ- जो मेघ, सिंह, सियाल, बिल्ली, चीता की आकृतिवान होकर वर्षे और बड़ी भारी शब्दतो बहुत रुधिरकी वर्षा करते हैं || १६ ||
पक्षिणश्चापि क्रव्यादा वा पश्यन्ति समुत्थिताः । मेघास्तदापि रुधिरं वर्ष वर्षन्ति ते घनाः ॥१७॥
अर्थ-यदि पक्षी के समान मेघ गर्जना करें अर्थात् उड़ते हुये पक्षीकी आकृति वाले तथा मांसभक्षी गृद्ध आदि की तरह दिखाई देतो रुधिर की वर्षा करते हैं ||१७||
अनावृष्टिभयं घोरं दुर्भिक्ष ं मरणं तथा । निवेदयंति ते मेघा ये भवन्तीदृशा दिवि ॥ १८ ॥
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अनेकान्त
[ वर्ष २०
अर्थ:- ऊपर दिखाये हुये लक्षणवाले मेघ अनावृष्टि, घोरभय, दुर्भिक्ष मृत्युको करने वाले जानने ।। तिथौ मुहूर्ते करणे नक्षत्रे शकुने शुभे । सम्भवन्ति यदा मेघाः पापदास्ते भयङ्कराः ॥ १६ ॥
अर्थ-अशुभ तिथि, मुहूर्त, करण, नक्षत्र और शकुन में यदि मेघोंका संभव हो तो वे मेघ भयंकर पाप फलको देनेवाले जानना ||१६||
३४२
एवंलक्षणसंयुक्ताश्चमू ं वर्षन्ति ये घनाः । चमू सनायकां सर्वा हन्तुमाख्यांति सर्वशः ॥२०॥
अर्थ - उपरोक्त दिखाए हुये लक्षणवाले मेघ सेना पर बहुत वर्षा करें तो सेना और उसके नायक सब ही मारे जाते हैं अर्थात् उनका सर्वनाश होता है ||२०|| रक्तपांशुः सधूम वा क्षौद्र ं केशाऽस्थि शर्कराः । मेघा वर्षदित विषये यस्य राज्ञो हतस्तु सः ॥ २१ अर्थ - लोही, धूलि, धूम्र, मधु, केश, अस्थि और खांडके समान मेघ वर्षा करें तो देशका राजा मारा जाता है ||२१||
क्षारं वा कटुकं वाऽथ दुर्गंधं सस्यनाशनम् । यस्मिन् देशे ऽभि वर्षन्ति मेघा देशो विनश्यति ॥ २२
अर्थ - जिस देशमें धान्यको नाश करनेवाले क्षार ( लवण रस), कटुक ( चरपरा रस ) और दुर्गन्धित रसको मेघ वर्षा करें तो उस देशका नाश होता है ||२२||
प्रयातं पार्थिवं यत्र मेघो वित्रास्य वर्षति । वित्रस्यो वध्यते राजा विपरीतस्तदापरे ||२३||
अर्थ - राजाके प्रयाणके समय त्रासयुक्त मेघ वर्षे तो राजाका त्रास युक्त बध होता है, यदि त्रासयुक्त वर्षा नहीं हो तो ऐसा नहीं होता ||२३||
सर्वत्रैव प्रयाणे च नृपो येनाभिषिच्यते । रुधिरादिविशेषेण सर्वघाताय निदिशेत् ||२४||
अर्थ - राजाके चढाई के समय वर्षासे देश सिंचन हो और विशेषतः रुधिरादिसं हातो सबोंक घातक
संभावना है ||२४||
मेघा सविद्युतश्चैव सुगंधा सुस्वराश्च ये । सुवेषाश्च सुवाताश्च सुधियाश्च सुभिक्षदाः || २५॥
अर्थ-बिजली सहित, सुगंधित, मधूर स्वरवाले सुन्दर वर्ण और आकृतिवाले, शुभ घोषणावाले और अमृत समान वर्षा करने वाले मेघों को सुभिक्षका देनेवाला जानना चाहिए ||२५||
नोट- यह स्मरण रहे कि निमित्तोंका शुभाशुभ फल वहीं होता है जहां वे मिलते है, सारी दुनियां
में नहीं ।
अभ्राणां यानि रूपाणि संध्यायामपि यानि च । मेघेषु तानि सर्वाणि समासाद्व्यासतो विदुः । २६ । अर्थ - बादलों और संध्याका, मेघों का, जैसा कथन किया वैसा सब कथन संक्षेप अथवा विस्तार से मेघों में भी समझना चाहिए ||२६||
उल्कावत्साधनं ज्ञ ेयं मेघेष्वपि तदादिशेत् । अतः परं प्रवच्यामि वातानामपि लक्षणम् ||२७|| अर्थ - इस मेघवर्णन अध्यायका भी उल्काकी तरह पूर्ववत् साधन करना चाहिए अब वायुको वहने का लक्षण और फल कहते है ||२७||
इति नैप्रन्थे भद्रबाहुके निमित्ते मेघनामाष्टमोऽध्यायः ॥
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पतितपावन जैनधर्म
( लेखक - पूज्य तु० गणेशप्रसाद जी वर्णी ।)
मड़ावरा से चलकर हम लोग श्री० पं० मोतीलाल जी वर्णीके साथ उनके ग्राम जतारा पहुँचे। वहां पर आनन्द से भोजन और पं० जी के साथ धम चचा करना यही काम था ।
यहां पर एक जैनी ऐसे थे जो २५ वर्षसे समाज के द्वारा बहिष्कृत थे । उन्होंने एक गहोई औरत रख ली थी उसके एक कन्या हुई उसका विवाह उन्होंने एक विनैकावालके यहां कर दिया था । कुछ दिनों के बाद वह औरत मर गई और लड़की अपनो सुसराल में रहनी लगी । जातिसे बष्कृित होनेके कारण उन्हें लोग मन्दिर मे दर्शन करनेके लियेमी नहीं आने दिन थे और जन्मसं हो ज ेन धर्मके संस्कार होनेके कारण अन्य धममे उनका उपयोग लगता नहीं था । एक दिन हम और पं० मोतीलाल जो तालाब में स्नान करने के लिये जा रहे थे मार्गमे वह भी मिलगये । श्री वर्णी मोतीलालजी से उन्होंने कहा कि क्या कोई ऐसा उपाय है कि जिससे मुझे जिनन्द्र भगवान के दर्श नोको आज्ञा मिल जावे ? मोतीलालजी बोले- भाई यह कठिन है तुम्हें जातिय खारिज हुये २५ वर्ष हो गये तथा तुमन उसके हाथम भोजन भी खाया है अतः यह बात बहुत कठिन है।
हमारे पं मोनालालजी वर्णी अत्यन्त सरल थे उन्होंने ज्योंकी त्यों बात कह दी। पर मैंन वर्णीजा से निवेदन किया है कि क्या इनसे कुछ पूछ सक ना हूं? आप बाले - हां जो चाहो सो पूछ सकते हो। मैंने उन आगन्तुक महोदय से कहा - अच्छा यह बताओ कि इतना भारी पाप करनेपर भी तुम्हारी जिनेन्द्र देव के दर्शन की रुचि कैसे बनी रही ?
वह बाल - पण्डितजी ! पाप और वस्तु है तथा म कचि होना और वस्तु है । जिस समय मैन उस औरतको रक्खा था उस समय मेरो उमर तोम
की थी, मै युवा था, मेरी स्त्रीका दहान्त हो गया मैन बहुत प्रयत्न किया कि दूसरी शादी हो जावे, मैं
यद्यपि शरीर से निरोग था और द्रव्य भी मेरे पास २००००) से कम नहीं था। फिर भी सुयोग नहीं हुआ, मन में विचार आया कि गुप्त पाप करना महान् पाप है इसको अपेक्षा तो किसी औरतको रख लेना अच्छा है । अन्तमें मैंने उस औरतको रख लिया। इतना सब होने पर भी मेरी धर्मसे रुचि नहीं घटी। मैंन पञ्चोंसे बहुतही अनुनय विनय किया कि महाराज ! दूरसे दशन कर लेने दो परन्तु यही उत्तर मिला कि मार्ग विपरीत हो जावेगा । मैंने
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कहा कि मन्दिर मे मुसलमान कारोगर तथा मोची आदि तो काम करनके लिये चले जावे। जिन्हें जैन धमकी रामात्र भी श्रद्धा नहीं परन्तु हमको जिनेन्द्र भगवानक दर्शन दूर से ही प्राप्त न हो सकें- बलिहारा है आपका बुद्धिको काम वासना के वशीभूव होकर मेरी प्रवृत्ति उस आर हो गई इसका अर्थ यह नहीं कि जैन धर्मसे मेरी रुचि घट गई ।
कदाचित् आप यह कह कि मनकी शुद्धि रक्खा दर्शनस क्या लाभ हाता तो आपका यह कोई उचित उत्तर नहीं है। यदि कंवल मनकी शुद्धि पर ही आप लागोका विश्वास हैं तो श्री जैन मन्दिरोंके दशनांक लिये आप स्वयं क्यों जाते हैं ? तीर्थ-यात्राके व्यर्थ भ्रमण क्यों करते हैं ? और पवकल्याणक प्रतिष्ठा आदि क्यों करवान है ? मनका शुद्धि ही सब कुछ हैं ऐसा एकान्त उपदेश मत करो, हम भी जैन-धम मानते है । हमने औरत रखला इसका अर्थ यह नहीं कि हम जैनीही नहीं रहे। हम अभीतक श्रष्टमूल गुण पालत हैं, हमने आज तक अस्पतालका दवाई का प्रयोग नहीं किया किसी कुदेवको नहीं माना, अनछना पानी नहीं पिया, रात्रि भोजन नहीं किया, प्रतिदिन गर्माकार भत्रकी जाप करते है, यथा-शक्ति दान देते है तथा सिद्धक्षेत्र श्री शिखरजी की यात्राभा कर आये है..इत्यादि पब्चोंसे निव
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दन किया परन्तु उन्होंने एक नहीं सुनो, यहीं उत्तर मिला कि पञ्चायती सत्ताक' लोप हो जावेगा । मैंने कहा- मैं तो अकेला हूँ; वह रखली औरत मर चुकी है लड़की पराये घर की है आप सहभोजन मत कराइये परन्तु दर्शन तो करने दीजिये । मेरा कहना अरण्यरोदन हुआ - किसीने कुछ न मुना वही चिरपरिचित रूखा उत्तर मिला कि पञ्चायती प्रतिबन्ध शिथिल हो जायेगा ....... यह मेरी आत्म-कहानी है । मैंने कहा- आपके भाव सचमुच दर्शन करने के है ?
अनेकान्त
मैं 'अवाक् रह गया पश्चात् उससे कहा- भाई साहब ! कुछ दान कर सकते हो न ?
वह बोला जो आपको आज्ञा होगी शिरोधार्य करूंगा। यदि आप कहेंगे तो एक लंगोटी लगाकर घर से निकल जाऊंगा परन्तु जिनेन्द्र-देव के दर्शन मिलना चाहिये क्योंकि यह पञ्चम काल है इसमे विना अवलम्बनके परिणामों की स्वच्छता नहीं होतो आजकल के लोगों की प्रवृत्ति विषयोंमें लीन हो रही हैं । यदि मैं स्वयं विषय में लोन न हुआ होता तो इनके तिरस्कारका पात्र क्यों होता ? श्राशा है आप मेरी प्रार्थना पर ध्यान देने का प्रयत्न करेंगे। पञ्चलोगोंक जाल में आकर उन कंसी बात मत बोलना ।
मैंने कहा- क्या आप विना किमो शतके सङ्ग ममेरकी वेदी मन्दिर में पधार सकते है ? उन्होंने कहा- हां इसमें कोई शंका न करिये मैं १०००) का वेदो श्री जी के लिये मन्दिर मे जड़वाऊंगा और यदि पचलोग दर्शनको आज्ञा न देंगे तो कोई आपत्ति नहीं करूंगा, यही भाग्य समभूगा कि मेरा कुछ तो पैसा धर्मकार्य में गया ।
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होकर चले गये। मैंने कहा - अमुक व्यक्ति १००० की मगमर्मर की वेदिका मन्दिर में जडवाना चाहता है आपको स्वीकार है ।
इसके अनन्तर मैंने घर जाकर सम्पूर्ण पब्च महाशयों को बुलाया और कहा कि यदि कोइ जैनी जाति से च्युत होने के अनन्तर बिना किसी शर्तक दान करना चाहे तो आप लोग उसे क्या ले सकते हैं ? प्रायः सबने स्वीकार किया। यहां प्रायः से मत लब यह है कि जो एक दो सज्जन विरुद्ध थे वे रुष्ट
उनका नाम सुनते हो बहुत लोग फिर विरोध करने लगे, बोले- वह तो २५ वषसे जातिच्युत है अनर्थ होगा आपने वहां कि आपत्ति हम लोगों पर डाली ।
मैंने कहा- कुछ नहीं गया, मैंने तो सहजही में कहा था। पर जरा विचार करो - मन्दिरको शोभा हो जावेगो तथा एक का उद्धार हो जावेगा । क्या आप लोगोंने धमका ठेका ले रक्खा है कि आपक सिवाय मन्दिर में कोई दान न दे सके। यदि कोइ अन्य मतवाला दान देना चाहे तो आप न लेवेगे ? लिहारी है आपकी बुद्धि को ? अरे ! शास्त्रमें तो यहां तक कथा है कि शूकर सिंह नकुल और वानरसे हिंसक जीव भी भुक्तिदान की अनुमोदना भागभूमि गये । व्याघ्रोका जीव स्वर्ग गया, जटायु पक्षी का जीव स्वर्गे गया, बकरेका जीव भी स्वर्ग गया, चाण्डालका जीव स्वर्ग गया, चारों गतिक जीव सम्यग्दृष्टि हो सकते है, तियंञ्चोंके पञ्चम गुणस्थान हो सकता है। धर्मका सम्बन्ध आत्मास है न कि शरीरसे, शरीर तो सहकारी कारण है, जहां आत्माकी परिणति माहादि पापोंसे मुक्त हो जाती है वहीं धमका उदय हो जाता है। आप इसे बेदिका न जड़वाने देंगे परन्तु यह यदि पपांग विद्यालयम देना चाहेगा तो क्या आपके वर्णी जी उस द्रव्यको न लेवेंगे और वही द्रव्य क्या आपके बालकोंके भाजन में न आवेगा ? उस द्रव्यसे अध्यापकोंको वेतन दिया जावेगा तो क्या वे इनकार कर देवेंगे ? अत: हठ की छोड़िये और दया कर आज्ञा दीजिये कि एक हजार रुपया लेकर जयपुर से बंदी मगाई जावे ।
सबने सहर्ष स्वीकार किया और वेदिका लाने तथा जड़वाने का भार श्रीमान् मोतीलाली वर्णीक अधिकारमें सापा गया। फिर क्या था उन जातिच्युत महाशय के हर्ष का ठिकाना न रहा। श्री वर्णी
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किरण]
पतितपावन जैन धर्म
जी जयपुर जाकर वेदी लाये। मन्दिरमें विधिपूर्वक लगे कि यह इन्हीं का कर्तव्य है जो आज इस श्रादवेदीप्रतिष्टा हई और उमपर श्रीपाश्वप्रभकी प्रतिमा मी को इतना बोलने का साहस हो गया। विराजमान हुई।
मैंने कहा-भाई साहब ! इतने क्रोधको भावमैंने पमहाशयोंमे कहा देखो मन्दिर में श्यता नहीं। धोती के नीचे सब नंगे हैं. आपलोग जब शद तक आ मकत है और माली रात दिन रह- अपने कृत्यों पर विचार कीजिये और फिर स्थिर सकता है तब जिसने १०००) दिये और जिमके द्रव्य चित्तसे यह सोचिये कि आप लोगों की नियमहीन से यह वेदी प्रतिष्ठा हई उमीका दर्शन न करने दिये पश्चायतने ही आज जैन जातिको इस दशामे जावें यह न्याय विरुद्ध है। आशा है हमारी प्रार्थना ना दिया है। बेचारे जेनी लोग दर्शन तक के लिये पर आप लोग दया करेंगे।
लालायित रहते है। कल्पना करो किसोने दस्साके सब लोगों के परिणामों में न जाने कहांसे निर्मलता साथ सम्बन्ध कर लिया तो इसका क्या यह अर्थ आ गई कि सबने उमे श्री जिनेन्द्र देवके दशन करने हुआ कि वह जन-धमकी श्रद्धासे भी च्यत हो को आज्ञा प्रदान कर दी। इम आज्ञाको सुनकर वह गया श्रद्धा वह वस्तु है जो सहसा नहीं जाती शा. तो आनन्द ममुद्र में डूब गया। आनन्दसे दर्शन कर स्त्रों में इसके बड़े २ उपाख्यान है-बड़े बड़े पातकी पञ्चोंसे विनय-पूर्वक बोला-उत्तराधिकारी न होने भो श्रद्धाके बलसे ससारसे पार हो गये श्री कुन्द से मेरे पामको सम्पत्ति राज्यमे चली जावेगी अतः कुम्द भगवान ने लिखा हैमुझे जातिमें मिला लिया जावे ऐसा होनेसे मेरी दसण भट्टा भट्टा दसणभट्ठस्स पत्थि णिवाणं सम्पत्तिका कछ सदुपयाग हो जायगा।
सिझान्ति चरियभट्टा दंसाभट्टाण सिझति ॥ यह सनकर लोग आगबबूला हो गये और मुल. अर्थात जो दर्शन से भ्रष्ट है व भ्रष्ट है जो दर्शन मलाते हुए बोले-कहां तो मन्दिर नहीं आ सकते से भ्रष्ट है व निर्वावाके पात्र नहीं। चारिखसे जा थे अब जातिमे मिलनेका होसला करने लगे । अगु- भ्रष्ट है उनका निवाण (मोक्ष) हो सकता है परन्तु ली पकड़ कर पोंचा पकड़ना चाहते हो
जो दर्शन भ्रष्ट हैं वे नवोणलाभसे वखित रहत है। वह हाथ जोड़ कर बोला-आखिर आपकी
प्रथमानुयोगमें ऐसी बहत मी कथायें आती है जाति का हूँ, आपके ही सदृश मेरे संस्कार है कार- जिनमे यह बात सिद्ध की गई है कि जो चारित्रसे ण पाकर पतित होगया, क्या जो वस्त्र मलिन हो किन पापी मयात तिने
गिरने पर भी सम्यग्दर्शनसे सहित हैं वे कालान्तर जाता है उसे भट्रोमे देकर उज्वल नहीं किया जाता मे चारित्रके पात्र हो सकते है जैसे माघनन्दि मनि यदि आप लोग पतितको पवित्र करनेका मागेरोक ने कुम्भकार की बालिकाके माथ विवाह करलिया लेवेंगे तो आपकी जाति कैसे सुरक्षित रह सकेगो ? तथा उसके महवासमें बहुत काल विताया -वर्तन मैं तो वृद्ध ह, मृत्यु के गालमे बैठा है, परन्तु यदि आदि का अवा लगाकर घोर हिमा भी श्राप लागों की यहा नीति रही तो कालान्तरमें श्राप दिन मुनि-सभा में किसी पदार्थ के विचारमें सन्देह की जाति का अवश्यम्भावी हास होगा जहां माय न हुआ तब आचार्यने कहा इमका यथार्थ उत्तर माघहो सिर्फ व्यय ही हो वहां भारी से भारी खजाने का नन्दी जो कि कुम्भकारकी बालिका साथ आमोद अस्तित्व नहीं रह सकता। आप लोग इस बात पर प्रमोदमे अपनी प्रायु विता रहा है, दे सकेगा। विचार कीजिये कंवल हठवादिता को छोड़िये। एक मनि वहां पहुँचा जहाँ कि माघनन्दी मुनि कम्भ
मैंने भी उसकी बात में बात मिलादी । पञ्च कारके वेशमें घर-निर्माण कर रहे थे और पहुंचते लोगों ने मेरे ऊपर बहुत प्रकोप प्रकट किया। कहने हो कहा कि मनिसंघ में जब इस विषयपर शङ्का
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उठी तब आचार्य महाराजने यह कह कर मझे आपके पास भेजा है कि इसका यथार्थ उत्तर माघनन्द ही दे सकते हैं। कृपा कर आप इसका उत्तर दीजिये ।
इन वाक्योंको सुनते ही उनके मनमे एक दम विशुद्धताकी उत्पत्ति हो गई और मनमें यह विचार आया कि यद्यपि मैंने अधमसे अधम कार्य किया है फिर भी आचार्य महाराज मुझे मूनि शब्द से सम्बोधित करते हैं और मेरे ज्ञानका मान कर ते हैं कहां है मेरी पीछी, और कमण्डलु ?
यह विचार आते ही उन्होंने आगन्तुक मुनिसे कहा कि मैं इस शङ्काका उत्तर वहीं चलकर दूँगा और पीछी कमण्डलु लेकर वनका मार्ग लिया । ari प्रायश्चित्तविधि शुद्ध होकर पुन: मुनिधममें दीक्षित हो गये ।
बन्धुवर ! इतनी कठोरता का व्यवहार छोड़िये गृहस्थ अवस्था में परिग्रहके सम्बन्धसे अनेक प्रकारके पाप होते हैं। सबसे महान् पाप तो परिग्रह ही है फिर भी श्रद्धाको इतनी प्रबल शक्ति है कि समन्तभद्र स्वामी ने लिखा है
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । अनगारी गृही श्रेयान् निर्मोहो माहिनो मुनेः ॥ अर्थात् निर्मोही गृहस्थ मोक्ष मार्ग में स्थित है और मोही मन मोक्ष मार्ग में स्थित नहीं हैं। इससे सिद्ध हुआ कि मोही मुनिकी अपेक्षा मोह-रहित गृहस्थ उत्तम है। यहां पर मोह शब्दका अथ मिध्या दशन जानना । इसोलिये आचार्योंने सब पापोंस महान पाप मिध्यात्वको हो माना है। श्री समन्तभद्र स्वामी और भी लिखा है कि
नहि सम्यक्त्वसमं किचित्रैकाल्ये त्रिजगत्यति । श्रयोऽश्रेयश्च मिध्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥ इसका भाव यह है सम्यग्दर्शन के सदृश तीन काल और तीन जगत मे कोई भी कल्याण नहीं अर्थात् सम्यक्त्व आत्माका वह पवित्र भाव है जिसके होते ही अनन्त संसार का अभाव हो जाता
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है और मिथ्यात्व वह वस्तु है जो अनन्त संसार का कारण होता है अतः महानुभावो ! मेरे पर नहीं पर दया करो और इसे जाति में मिलाने की आज्ञा दी जाए।
इन पञ्चमहाशय मे स्वरूपचन्द्र जी बनपुरया बहुत ही चतुर पुरुष थे वे मुझसे बोले- आपने कहा को आगम प्रमाण तो वैसा ही है परन्तु यह शुद्धि-प्रथा चली आ रही है उसका भी स ंरक्षण होना चाहिये । यदि यह प्रथा मिट जावे तो महान
शनैः शनै: ही कार्य होता हैनथ होने लगेगे अतः आप उतावली न कीजिये
कारज धीरे होत है काहे होत अधीर ।
समय पाय तरुबर फलै केतिक सींचो नीर || इसलिये मेरी सम्मति तो यह है कि यह प्रांत भर के जैनियों को सम्मिलित करे उस समय इनका उद्धार हो जावेगा।
प्रान्तका नाम सनकर मै तो भयभीत हो गया क्योंकि प्रान्तमे अभी हठ वादी बहुत है परन्तु लाचारथा अब चुप रह गया ।
आठ दिन बाद प्रान्तके दो सौ आदमी सम्मि लित हुए भाग्य स हठवादी महानुभाव नहीं आये अतः पञ्चायत होने में कोई बाबा उपस्थित नहीं हुई अन्तमे यह निणय हुआ कि यदि यह दो पंगत कच्ची रसोई की देवें तथा २५० ) पपौरा विद्यालय की और २५० ) जतारा मन्दिर को प्रदान करें तो जातिमें मिला लिये जावं ।
मैंने कहा- अब बिलम्ब मत कीजिये कलही इनकी पतंग ले लीजिय ! सबने स्वीकार किया, दूसरे दिन से सानन्द पंक्ति भोजन हुवा और ५०० ) दण्ड के दिये। उसने यह सब करके पञ्चों की चर
रज सिरपर लगाई और सहस्रों धन्यवाद दिये। तथा बीस हजारकी सम्पत्ति जो उसके पास थी एक जैनी का बालक गोद लेकर उसके सिपुर्द करदी इस प्रकार एक जैन का उद्धार होगया और उसकी सम्पत्ति राज्य मे जानेसे बच गई।
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भगवान महावीर
( डा० श्री गोपीचंद भागेव, प्रधान मंत्री, पूर्वी पंजाब )
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वीर वे होते हैं जो संसार अन्याय और अज्ञान को मिटाने के लिए अस्त्र शस्त्रों का प्रयोग कर अमर होते हैं; परन्तु जब उनके अस्त्र शस्त्र धीमे पड़ जाते हैं और उनमें शक्ति नहीं रहती जिसके कारण वे विवश हो जाते है, तब महावीर आया करते हैं, वे किमो तलवार से लड़ा नहीं करते, व किसी पर तोर नहीं छोड़ा करते परन्तु प्रपनी तपस्या के तेज से सबको शान्त कर देन है और वह कार्य जा वीरों की प्यासी तलवार पूरा नहीं कर सकती वह इनकी दिव्य मूर्ति किया करती है, उसम शक्ति होती है, धम होता है और धम के कारणोंमें विजय लक्ष्मा लेटा करती है, आज स्वतन्त्र भारत वासी हम धन्य है जिन्हें वीर का नहीं बल्कि महावीर का जन्म दिवस मनाने का अवसर मिला, पूज्य बापूने रक्त हान कान्ति द्वारा भारतके बन्धनोंको काट कर संसार दिखा है कि महावीर के रत्नोंका कितना मूल्य हैं।
हिमाके सन्देशवाहक महावीरका जन्म देनेका सौभाग्य सिद्धार्थका प्राप्त हुआ आजम २५४८ वर्ष एव जब कि हिंसाकं अन्धकार और दुख से भरे बादल ओले बरसाकर इस भारत की फुलवारा को बरबाद कर रह थे, उस समय अहिंसा का यज्ञ करने वाला आया और यह फुलवाड़ी बरबाद होने से बच गई ऐसा हुआ ही करता है, आज भी उसका नाटक खेला जा रहा है, जिसके नायक बनने का सौभाग्य पूज्य बापूने पाया और महावीर के रत्नोंकी ज्योति एक बार फिर संसारको दिखा कर उसीमें मिलने वाला निर्वाण पदवी को प्राप्त किया, वे महावीर बने और ये महात्मा ।
त्याग जीवनका रस है और महावीर अथवा महात्मा बननेके लिए इस रस को पी वीर शनि
प्राप्त करना नितान्त आवश्यक है महावीरने घर बार छोडा और त्यागकी पदवी प्राप्तकी १३ वर्ष की घोर तपस्याके बाद जब अपनेको सुधार चुके तो भारतका सुधार करने के लिए उन्होंने पारबेनाथ सम्प्रदायका सुधार किया और जैनमतको इन रत्नोंसे सुसज्जित कर सुधार क्षेत्रोंमें अग्रसर किया इस प्रकार ये महावोरसे महावीर वर्धमान हो गए और ७२ वर्षके उपरान्त इस प्रकार शान्ति के पिपासुओं को प्यासको बुझाते हुये पटना जिले में निर्वाण प्राप्त कर गए।
स्वामी महावीर ने हमें तीन अमुल्य रत्न प्रदान किए जिनमें सत्यकी ज्योति थी और विश्वास, ज्ञान और कम क ३ भिन्न भिन्न रंग थे जिनको अपना कर प्रत्येक आदमी निर्वाण प्राप्त कर सकता है जो कि अहिसाके द्वारा मिल सकती हैं सबसे पहिला रत्न सत्य विश्वास है आज इस रत्नको प्राप्त करे और नताओं में विश्वास करें इसका विश्वास प्राप्त करनेके लिए साप्रदायिकता के मलको उतारना होगा जब तक ज्ञानका प्रकाश न होगा तब तक यात्रा सफल नहीं हो सकती ज्ञान भी मचा होना चाहिए, फिर हम प्रकाश 'धव' की सहायता कमकी नौका द्वारा इस सागरको पार कर सकते है कौनमी नोका सच्ची है जो मार्ग के मध्य मे हमे धोका न देगी, यह बोध तभी हो सकता है जब कि ज्ञान सच्चा हो जिससे हम सागरको पार कर सकते है, वह नौका कहीं डूब न जाय इसलिए हम क्षण-क्षण हिंसाके पाप से बचने के लिए अहिसा का पल्ला पकड़ते हैं ।
हिम पहिला यम है जो कि यज्ञका पहिला मार्ग हैं, अर्थात अहिंसा के बिना कोई सत्य, अस्तेय ( चोरी करना ब्रह्मचये तथा अपारिग्रह- लालच न
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करनाकी सीढी पर नहीं चढ सकता, हिमा पहिली सीढा है और आधार भी, इसीलिए महापुरुषोंन इसे सबसे पहिले गिना आज भी यदि संसारको संकटसे कोई वस्तु बचा सकती है तो वह स्वामी महावीर और पूज्य बापू जी की दी हुड अहिंसा ही है श्राश्रो आज इसके नायकको जयन्ती मनाते समय व्रत धारण करे कि हम इस अहिंसा
पूज्य वर्णीजीका पत्र
11:1:1
- पूज्य वर्सेजीका पत्र 'जैन गजट' 'वीर इंडिया' और जैन मित्रादि पत्रोंमें प्रकाशित हो चुका उसका विवादास्पद अंश इस प्रकार है :
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को जिसके लिए उन्होंने अपना अमूल्य जीवन दिया हम भी उनके पथ पर चलतहुए इस अहिंसा के लिए हर प्रकारका बलिदान देनेके लिए तैयार हो तभी हम सच्चे अर्थोमं महावीर जयन्ती मना सकते है, आओ उनके आदेशोंका अपने जीवन में घटा कर संसारको अपने जीवनसे ही उनकी जयन्तीका सन्देश दें।
“ अस्तु, यह जो शूद्र समस्याका श्रांदोलन हो रहा है इसमें समाज का महती हानि उठानी पड़ेगी । किन्तु कौन कहे, सुनने वाला कौन ? सत्याग्रहक यहां करनेसे लाभ क्या ? इतनी निर्मल परिणति बनाओ जो जगत् स्वय तुमसे मागे पूछे ! अहिंसा की उपासना करना तो सीखते नहीं । श्रहिंमा धम हमारा है यह ध्वनि क्यों ? यदि तुम्हारा है तब क्या नहीं पालन करत ? कवल कहने से क्या लाभ ? विचारा तो सही धमे तो वह वस्तु जिसके उदय में कोई गंगादि अंश भी नहीं रहता । शुद्ध द्रव्य रह जाता है। फिर शूद्रको मन्दिर जानका अधिकार नहीं ? मेरा तो यह विश्वास है कि मन्दिर अनेक अधिकार भलेही न हो किन्तु आंशिक मोक्ष का अधिकारी जैसे आप लोग है वह भी है उच्च कुल में पैदा होनेमे धर्मात्मा हो यह नियम नहीं और यहभी नियम नहीं जो मन्दिरमे जानम धम हो सकता है। धर्म तो आत्माकं निर्मल भावोंसे सम्बन्ध रखता है ।
अस्पृश्य भो तो प्राणी है। मझी है वे भी मदाबारी होसकत हैं । पञ्चलब्धियों में देशनालब्धि क्या हम जैनों के वास्ते ही है। कहां तो यह कहना कि जैनधर्म सार्वजनिक हैं और कहां यह हठ यदि
शूद्र लोग मन्दिर आगए तब न जाने क्या होगा ? क्या होगा ? कुछ न होगा। मन्दि रोम देशनाका प्रबन्ध करो और उन्हें समझाओ धर्मका मर्म तो यह है पहले अनाम बुद्धि छोड़ो । पश्चात् प पापोंका त्याग करो पश्चात् विधि-विहित धमोचरण करो । सो तो कुछ है नहीं हम सत्याग्रह करके दिखा देंगे। जो वर्तमान सरकारको अन्ततोगत्वा झुकना ही पड़ेगा इत्यादि
यह पत्र कितना मूल्यवान है उसका यह अंश हा हमें जागृत करनेक लिये पर्याप्त है और जैनधर्म के सर्वादय तीर्थका प्रतीक है, वह कितना उपयोगी और सामयिक है । हम पत्रके विचारोंस पूर्णतः सहमत है । जिन्होंने पूज्यवर्गीजीक आध्यात्मिक पत्र पढ़े है व उनकी महत्ता स्वयं परिचित हैं। आपके पत्र जहाँ वस्तुस्थितिके निःशंक होते है वहाँ व अध्यात्म की चर्चा में सराबोर भी रहते है और मुमुक्ष प्राणियों के उत्थान में एक साधक गुरुका कार्य भी करत है । अस्तु, पत्रकी महत्ता और उसके औचित्यका ध्यान न रखने वाले किन्हीं तिलोकचन्द्र जैन और निरंजनलाल आदिने पत्रकी आलोचना करते हुए उन्हें सिद्धान्तसे अनभिज्ञ तक लिखनेका दुःसाहस किया है और उनकी पावन - श्रद्धा पर भी आक्रमण किया है। यद्यपि उनका यह आक्रमण कषाय और अन्धश्रद्धा के साथ तात्त्विक विचारसे रहित है उसमें सौजन्यताका
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संजद पद का बहिष्कार
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किंचित् भी समावेश नहीं है। उसमें उनकी उथली आपको उनके नीच कार्य अथवा पापसे घृणा है श्रद्धाका सहजहा भान हाजाता है और यह स्पष्ट तो उनकी आत्मासे तो घृणा नहीं होनी चाहिये। जान पड़ता है कि व जैनधमेका एक कूजम बंद कर किन्तु उन्हें उनकी भूल सुमाकर पावन बनानेका केवल वैश्यों तक ही सोमित करना चाहते हैं। और प्रयत्न करना चाहिये। क्या जैनधर्म पतितों-मिथ्यायह भूल जाते है कि जैनधर्ममे जहां तिर्यंच भी दृष्टियों तथा पापियोंके पावन करने के लिये नहीं संयमका साधन कर आत्मकल्याण करते है वहां हैं यदि है तो फिर दूसगेको धर्मसाधनसे रोकनेका मनुष्योंका तो बातही क्या है ? क्या उन्हें पशओं किसको अधिकार होसकता है। अस्तु, तिलोकचन्द जी जितना भी अधिकार प्राप्त नहीं है। निरंजनलालजी और निरंजनलालजीने पूज्य वर्णीजी पर जो आक्षेप
आगम प्रमाणसे यह बतलाने की कृपा करें कि क्या करनेका जघन्य प्रयत्न किया है और निरंजनलाल तीर्थकरोने जैनधर्मका उपदेश केवल उच्च कलवाले जी ने तो सभ्यता और शिष्टताकी सीमाका भी वैश्योंके लियेही दिया है ? यदि नहींतो फिर आपको
उल्लंघन किया है उसके लिये उन्हें अपनी भूल कवल शूद्रोंसे ही इतनी घृणा क्यों ? क्या वे मानव स्वीकार करते हुए पूज्य वीजीसे क्षमायाचनाके नहीं है और क्या वे अहिंसादि मत्कायों द्वारा साथ अपने शब्दांको वापिस लेना चाहिये। अपना आत्म-विकास नहीं कर सकते । अगर
परमानन्द जैन
'संजद' पद का बहिष्कार ( डा० हीरालाल जैन, प्रोफेसर, नागपुर महाविद्यालय )
जैनमित्र ता.२माचे ६५० के अंकमें प्रका- पाठ चला आयाहै उमको वैसा हो रखना, उसमें शित हुआ है कि मनि शांतिसागर जी महाराजने कोई घटा बढ़ी या परिवर्तन नहीं करना। हाँ जहां षटखंडागम जीवडारणकी सत्प्ररूपणा सत्र ६३ मेंसे श्रावश्यक हो वहां अर्थ चाहे जैसा अपनी समझ 'मंजद' पदको हटा देनेकी अनुना देदी है। इस वरुचिक अनुसार बैठा लेना। धवला माहित्यक परिवर्तनका कारण यह बतलाया हैकि- यिता प्रकाण्ड विद्वान् श्राचार्य वीरसेन स्वामीन भो
"उक्त सूत्रमे संजद पद रहनेसे भविष्यमें हजा- यहो किया । उम्त सूत्रका मेजद युक्त पाठतो उनके गें वष तक द्रव्यस्त्राके मोक्ष जानेका दिगंबर सिद्धा- सन्मुख भी था, और उनको वह खटकता भी था । न्त के विरुद्ध बहुत भागे दोष उस शास्त्रमें बना रहे. तोभी उन्होंने उसे हटाने की धृष्टता नहीं की, याप गा, जो कि एक बड़े धाखे की बात होगी, हमने वेचाहते तो उसे अधिक अच्छी तरह हटा सकते थे, संजद शब्दके बारे में दोनों पक्षोंके विद्वानांके और उनमें इतनी योग्यता भा थी कि इस परिवर्तनका लेख पढ़े है। गतवर्ष जब पं० माणिकचन्द्र जी न्यया- सिद्धांतकी दृष्टिस ममस्त ग्रंथ मे भी निभा लेते। चाये हमारे पास आय थे, उन्होंने भी वहा कहावतमान रूपमे षटखंडागम सूत्र रचना ऐसी नहीं था कि ३ सूत्र द्रव्यस्त्रोका विधान करता है इसलिय है कि उममे कंबल उक्त सूत्रमे से सजय शब्द हटा उसमे सजद शब्द नहीं होना चाहिये । इत्यादि.
कर स्त्री मुक्तिका प्रसंग टाला जासके। उसी सत्प्रहमारे प्राचार्योंकी साहित्यिक सेवाका आजतक रूपणा विभाग में ही अगले सुन्न १६४-१६५ में फिर यह क्रम रहा है कि प्राचीन परंपरासे भतका जैसा वही संजद पद ग्रहण करके मनुष्यनीक चौदहों गुण
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अनेकान्त
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स्थानोंका प्रतिपादन किया गया है। आगे द्रव्य क्षेत्र ते हुये ६३ सूत्र में संजर पद छोड़ा नहीं जा सकता स्पर्शन श्रादि समस्त प्ररूपणाओं में भी मनुष्यनीके चाहे वह फिप्ती प्रतिमें प्रभादसे. कषायसे, अज्ञानसे चोदहों गुणस्थान बतलाये गये है।
व अन्य किमीभी कारणसे छोड़ भलेही दिया जाय । धवला टोकाकी तो परिस्थिति यह है कि सत्त
कुछ लोगोंको यह धारणा है कि ६३ सूत्रमे रूपणा के ६३ सूत्र में मजेद' पद ग्रहण किये बिना
मनुष्यनो पद द्रब्यस्त्रोका बोधक है, इसलिये उस उसकी टोकाकी कोई सार्थकता नहीं रहतो। इसी सत्र में 'संयत पद दिगंबर मान्यताका विरोधो है, व सत्प्ररूपणाके आधार पर खड़े किये गये आलापा
अन्यत्र मनुष्यनी भावस्त्री का बोधक होनेसे वहां धिकारमें धवलाकारने मनुष्यनीके न कवल चौदहाँ
'संयत'पद मान्यता-विरोधो नहीं है किंतु यह उनकी गुणस्थान ग्रहण किये है, किंतु एक एक गणस्थानकी
भ्रांति है। मनुष्यना शब्दका इस प्रकार अर्थ-भेद अलग अलग व्यवस्थाका विवरण भी दिया है। इसी
षट खंडागमके भीतर नहीं बन सकता। सत्प्ररूपपरम्परानुसार गोम्मटसार जैस शास्त्रोमे भी मनुष्य
णा आदि प्रधिकारोंका परस्पर ऐसा मंबंध है कि नीके सवत्र संयतपद स्वीकार किया गया है। ऐसी
प्रथम प्ररूपणामें जिन जावोंके जिन गुणस्थनाका परिस्थिति में केवल मूत्र १३ में से संयत पद हटा
मद्भाव बतलाया गया, उन्हीं जीवोंका उन्हीं गुण देने से सिवाय एक गड़बड़ी उत्पन्न करनेक और क्या
स्थानों में प्रमाणादि निरूपण द्रव्य, क्षेत्र प्रादि प्ररूलाभ होगा?
पणाओं में किया गया है। यह बात धबलाकारने यदि केवल उक्त सूत्रमे 'संजद' पद न रहनम
द्रव्य प्रमाण प्ररूपणाके प्रारम्भमे हो बहुत स्पष्टतास मनुष्यनीके छठे आदि गुणस्थानाका निवारण हो
बतला दी है। यदि ऐमान होतो शास्त्र में यह विर. सकता, तो धवलाके संपादकोंको उनके सम्मुख निपत्ति उपस्थित हो जायगी कि जिन जीवोंके जो उपस्थित हस्त लिखिति प्रतियों में उक्त पदका अभाव गुणस्थान बतलाये उनकी मख्या आदि नहीं कही होने पर भी उसकी स्थितिका अनुमान न और जिनकी संख्या आदि बतलायी उनमें उन गुण लगाना पड़ता। उनका वह अनुमान ही इस बात का स्थानीका मत्व ही नहीं दिखलाया। ऐसी टि व प्रमाण है कि षटखंडागमक पूवापर प्रमंगोको देख- विनिपत्ति षट खंडागम में आगममे असंभव है
'संजद' शब्दका निष्कासन अभी हाल में ना० १६.२.५० को गजपंथातीर्थ ने आजतक अपनी प्राचीन परम्पराको अतण्य पर षटखण्डागमके उस 'मजद' शब्द के बहिष्कार कायम रक्खा है और अपने विचागस प्रतिकल का आडे आचार्य श्री शांतिसागरजीन देदिया है। विषयका सामंजस्य भी बैठानका यथामाध्य प्रयत्न आचार्य महागजन षटखण्डागमकं ताम्रपत्रों और किया है। पर कोई भी शब्द उस ग्रंथसे पृथक करने मुद्रित प्रतियोंमेसे 'मजद' शब्द निकालनका जो का दु माहस नहीं किया है जैसाकि आचार्य यह अवांछनीय आदेश दिया है उससे जैन समाज शांतिसागरजीने किया है । यह उनकी मर्वथा में एक भारी क्षोभ उत्पन्न होगया है और अन्धकी अनाधिकार चेष्टा है। कोईभी व्यक्ति किसीभी ग्रथप्रामाणिकता सदाके लिये मन्देहास्पद बन गई है। कार की कृति मे से कोई भी वाक्य या शब्द निका
दिगम्बर पागम अब तक अपनी प्रामाणिकता लनेका अधिकार नहीं रखता, फिर द्वादशांगके के लिये प्रसिद्ध रहा है और उसके प्रसारक आचार्यों एकांशके वेत्ता पुष्पदन्त भूतबलि आचायके पटे.
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किरण]
श्री अगरचन्दनाहटाके लेख पर नोट
३५१
खण्डागम सूत्रमेंसे 'संजद' पदके निष्कासनकी महापुराण प्रसिद्ध ही है। इनमें चतुमुखके प्रन्थ उपघोषणा कर देना तो एक बहुतही बड़े दुःसाहसकी लब्ध नहीं हैं। इनके अतरिक्त सं० ६१० में महाबात है और उसके द्वारा समाजके उन मान्य एवं कवि असगने महावीर-चरित और शान्तिनाथ प्रतिष्ठित विद्वानोंकी भारी अवहेलना कीगई है चरितकी रचनाकी है जिसकी प्रतियां अनेक ज्ञानजिन्होंने सागर में विद्वपरिषदके अवसर पर आगम भंडारोंमें स रक्षित हैं। कविवर पद्मकीर्तिने स. प्रमाणोंसे सिद्ध करके यह निर्णय दिया था कि हमें पार्श्व-पुराणकी रचना अपभ्रंश भाषामें की षटखण्डागमक ६३ सूत्रमें 'संजद' पदके रहते हुए है यह प्रन्थ आमेर आदिके भंडारों में है महाकवि भी द्रव्यस्त्रीकी मुक्ति सिद्ध नहीं हो सकती ऐसी वीरने जम्बृस्वामि चरितकी रचना वि० सं० १०७६ स्थितिमें दो वर्षके बाद ताम्र पत्रादिका कार्य पूरा में की है। और इनके पिता देवदत्तने शांतिनाथका होने पर उसमेंसे 'मजद' पद निकालनेकी घोषणा चरित भी लिखा था जो उपलब्ध नहीं है। खोज फरना आगमकी प्रामाणिकता को खतरेमें करने पर और भी अनेक पराण तथा चरित ग्रन्थों डालनेके सिवाय और कुछ अर्थ नहीं रखता। अतः के उल्लेख प्राप्त हो सकेंगे। इन सब उल्लेखोंसे स्प. समाजके श्रीमानों तथा विद्वानोंको इस अनर्थक है कि दिगम्बर सम्प्रदायमें दशमी ११वीं शताटालनेका शीघ्रातिशीघ्र जोरदार प्रयत्न करना दोसे पूर्व सातवीं आठवीं और नौवीं शताब्दियों चाहिये और षटखण्डासे निकाले हुए उस 'संजद' में पराण तथा चरित ग्रन्थों का निमोण हो चुका था वाले ताम्र पत्रको पुनः प्रविष्ट कराना चाहिये। और यह रचना कार्य बाद में भी चलता रहा है। और
पं. खूबचन्दजी शास्त्रीने जो उक्त संस्थाकी १३ वी १४ वी १५वीं १६ वीं शताब्दियोंके अनेक ममितिके मदस्य थे उमो समय अपना त्याग पत्र चरित पराण प्रन्थ विविध भाषाओं में लिखे गये देकर अपने प्रात्म मम्मान की रक्षा की है।
है। पर श्वेताम्बर सम्प्रदायमे स्वतन्त्र तीर्थकर चरित
परमानन्द जैन १२ वीं शताब्दीमे पूर्व नहीं रचे गये यह नाहटाजी श्री अगरचन्दनाहटाके लेख पर नोट क वतेमान लेखसे स्पष्ट है।
परमानन्द जैन दिगम्बर माहित्यमें शठ शाल कीय महापुरु
(३९८ वें पृष्टका शेषांश) पीक जीवन परिचयको व्यक्त करने वाले अनेक
सयल विहिणिहाणु सकव्व कमलु । प्रन्थ १२ वीं शताब्दीमं पूर्व रचे गये है। प्राचाय बधगय-मिच्छत तमोह-दोसु, यतिवृषभको 'निलोय पएणत्तो' में चौवीम तीर्थ
धम्मत्थ काम कमणीयकोसु । करों और बारह चक्रवर्तियों आदिके चरित्रकी मह
मकाइय मलसंगम विरामु, त्वपूर्ण सामग्री विद्यमान है। आचार्य वीरसेनके
दयधम्म रमारामाहिराम । शिष्य जिनसेन और पुन्नाट संघीय जिनसेन द्वितीय
सावयवयहसावलि वियास, के महापुराण और हरिवंशपुराण तो प्रसिद्ध हो
परमेट्ठिपंचपरिमलपयासु। है और कवि परमेष्ठीका गद्य-पुराणका उल्लेख भी केवलमिरिकार्मािणकयविलास, निहित ही है भले ही वह आज समुपलब्ध न हो।
सम्गा पवग्ग सुहरस पयास । और आचार्य गुणभद्रका उत्तरपुराण भी प्रसिद्ध ही मुणिदाणकंद मयरंद वरिसु, है। चरित प्रन्यों में जटासिंहनन्दीका बरांग-वरित
बुहयण महुयर मणुदिएण हरिस । रविषेणका पद्म-चरित और स्वयंभूदेव, चतुर्मुख प्रन्थकाने गुरु माणिक्यनन्दीको महापण्डित एवं पुष्पदन्तके पउमचरिउ हरिवंश पुराण और बतलानेके साथ साथ उन्हें प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणरूप
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मेश शेशक मी ऐसा था
(विजयकुमार चौधरी, साहित्यरत्न )
मेग शैशव भी ऐसा था, स्मृतियां साकार हुई। बाल वृन्दके दिव्य स्मित में, चिन्तायें सब दूर हुई ।। एक निम्ब तरुवरके नीचे खेल रहे थे बच्चे चार ।
नंगे तन थे धूल-धूसरित, कितने प्रिय कितने सुकुमार ।। (१) मनके भीतरकी उज्वलता,
कभी कभी लड़-भिड़ जाते थे, मुखपर स्वतः झलकती थी।
अपनी जोत जताने को । बाल-सुलभ वह उनको क्रीड़ा.
हार स्वयं स्वीकार न करते, सबको प्यारी लगती थी ।
अपनी संप मिटानेको । हंमते, थे मुस्काते थे वे,
दौड़-दौड़में ठोकर खाकर अपनेमें होकर अलमस्त ।
यदि कोई गिर पड़ता था । आंख मिचौनी में ही उनकी,
लज्जित होकर उठ तुरन्त, छिपी हुई थी खुशी समस्त ।। (२)
वह झटसे दौड़ लगाता था। (३) तुतलाती मृदु वाणी में, जब वे सम्भाषण करते थे। सुनने वाले सहृदय जनके, मनको पुलकित करते थे। खेल-खेल में नये खिलौने, कितने तोड़ दिये उनने ।
'भीतर क्या है की जिज्ञामा, स्वयं शान्त करली उनने ।। (४) पांव डाल कर गीली बालू
उनका खेल हुआ आकर्षण सं घरका निर्माण किया ।
मेरे आकर्षित मनको । 'अाविष्कारिणि शक्ति स्वयं
'मैं भी बालक हूं' विचारने, मानसमे सही प्रमाण दिया।
भुला दिया था उन सबको ।। अपने कठिन परिश्रमका फल,
मैं भी भल गया अपने को, कितना मोठा होता है ।
लखकर उन सब की क्रीड़ा । मिलता प्रमाण वाजक जब,
पुलकित मन हो गया तभी, निजकी कतिपर इठला देताहै। (५)
औ' भूल गया मनको पीड़ा ।। (६)
( ३५१वें पृष्ठका शेषांश) जलसे भरे और नयरूप चांचल तरंगममूहसे गंभीर, सम्यक्त्वी , पंच परमेष्टोका भक्त, धर्म अर्थ और काम उत्तम समभंगरूप कल्लोलमालासे भूषित तथा रूप पुरुषार्थ युक्त तथा शंकादिक मलसे रहित स्वगोजिन शासनरूप निर्मल वालाबसे युक्त और पंडितों अपवर्गरूप सखरसका प्रकाशक सूचित किया। काममणि प्रगट किया है। और अपनेको निमल
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वोर सेवामन्दिर को प्राप्त सहायता अनेकान्तकी गत किरण न०३ में प्रकाशित सहायताके बाद वीरसेवामन्दिरको जो सहायता प्राप्त हुई है वह क्रमशः निम्न प्रकार है और उनके लिये वातार महानुभाव धन्यबादके पात्र हैं।
२०) जैन समाज कोडरमा (हजारीबाग) नंदीश्वर विधानके उपखर में मार्फत ५० गोविंदराय जैन ८) दि. जैन समाज बाराबंकी, मार्फत ना० कन्हैयालाल जैन। १२॥) जैन युवक मंडली ललितपुर ऋषभजयन्तीके उपलक्ष मार्फत वैद्य इन्द्रजीत आयुर्षेवाचार्य ।
४०111)
अधिष्ठावा वीरसेवामन्दिर
स्वाध्यायप्रेमियोंके लिये उत्तम अवसर भारतको राजधानी देहलामें वीरसेवामंदिरके तत्त्वावधानमें समाजके जिनवाणीमत दानी महानुभावोंको आर्थिक सहायतासे वोरसे सस्ती जैन ग्रन्थमालाकी स्थापना हुई है। प्रन्थमालाका प्रत्येक प्रन्य गृहस्थोपयोगी है-स्त्री पुरुष और बच्चोंके लिए उसका लेना बड़ाही लाभदायक और अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये प्रत्येक सद्गृहस्थका कर्तव्य है कि वह इन प्रन्थरत्नोंको खरीदकर जिनवाणोके स्वाध्यायसे
आत्म-कल्याण करें। इस ग्रन्थमालासे प्रकाशित प्रथोंको प्रायः लागतसे भी कम मुल्यमें दिये जानेकी योजनाकी गई है । अभी नीचे लिखे ग्रन्थ छप रहे हैं। जिन ८ ग्रन्थोंका लागत मूल्य १५) है, वे पूरा सेट लेनेवाले सज्जनोंको लागतसे भी कम मूल्य १२) में और पद्मपुराणको छोड़कर शेष ७ प्रन्यका सेट सिफ .) में देने का निश्चय किया है। जिन्हें इन प्रथरत्नोंकी आवश्यकता हो वे ग्रहकोंमें अपना नाम लिखवा कर और अपना मल्य भेजकर 'वीरसेवामंदिर आफिस ७३३ दरियागंज देहली से रसीद ले लें और छपे हुए छह ग्रंथ भी ले ले शेष प्रन्थ जैसे-जैसे तैयार होते जायेंगे उसी कमसे वे उनके पास पहुंचते रहेंगे। १ रत्नकरण्डश्रावकाचार-सजिल्द लगभग ८००पृष्ठ (मूल० समन्तभद्राचार्य, टी० ५० सदासुखदासजी ३) २ मोक्षमागप्रकाशझ-सजिल्द लगभग ५०० पृष्ठ (पं. टोडरमलजी) ३ जैनमहिलाशिक्षासंग्रह-पृष्ठ २४० ४ सुखकी एक झलक-पृष्ठ १६० (पूज्य वर्णीजीके प्रवचनोंका सुन्दर संकलन) ५ श्रावकधर्म संग्रह-पृष्ठ २४०(पं०दरयावसिंह सोधिया भवकोपयोगी पुस्तक) ६ मरजैनधर्म-पृष्ठ ११२ (बालकोपयोगी पुस्तक) ७ छहढाला-पृष्ठ १०० (पं० दौलतराम जी व पं. बुधजनजी कृत) ८ पद्मपुराण-(सजिल्द बड़ा साइज पृष्ठ ८००(मूल. रविषेणाचार्य, टी० ५० दौलतरामजी)
मन्त्री-वीरसेवामंदिर सस्ती ग्रन्थमाला
नं. ३३ दरियागंज, देहली।
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वीरसेवामंदिरके प्रकाशन
१. अनित्य - भावना - प्रा. पद्मनन्दिकृत भावपूर्ण और हृदयग्राही महत्वकी कृति, साहित्य-तपस्वी पण्डित जुगलकिशोर सुतारके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित। मूल्य चार आना ।
-सरल
२. आचाय प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थ सूत्रसंक्षिप्त गथा सूत्रप्रन्थ, पं० जुगलकिशोर मुख्तारकी सुबोध हिन्दी-व्याख्यासहित । मूल्य चार श्राना ।
३. न्याय - दीपिका - ( महत्वका सर्वप्रिय संस्करण ) - अभिनव धर्मभूषण विरचित न्याय-विषयकी सुबोध प्राथमिक रचना। न्यायाचार्य पं० दरवाराला कोठियाद्वारा सम्पादित, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत (१०१ पृष्ठकी ) प्रस्तावना, प्राकथन, परिशिष्टादिमे विशिष्ट, ४०० पृष्ठ प्रमाण, लागत मूल्य पाँच रुपया । विद्वानों, छात्रों और स्वाध्याय-प्रेमियोंने इस संस्करणको बहुत पसन्द किया है। इसको थोड़ी हो प्रतियाँ शेष रही हैं । शीघ्रता करें। फिर न मिलनेपर पछताना पड़ेगा ।
४. सत्साधुस्मरणमङ्गलपाठ - अभूतपूर्व सुन्दर और विशिष्ट सकलन, सङ्कलयिता पंडित जुगलकिशोर मुख्तार | भगवान महावीर से लेकर जिनसेनाचार्य पर्यन्तके २१ महान् जैनाचार्योकि प्रभावक गुणस्मरणांम युक्र । मूल्य आठ थाना ।।
५. अध्यात्मकमलमार्तण्ड – पञ्चाध्यायी तथा लाटमंहिता आदि ग्रन्थोंक रचयिता पंडित राजमल विरचित पूर्व श्रध्यात्मिक कृति, न्यायाचार्य पंडित दरबारीलाल कोठिया और पं० परमानन्द शास्त्रीके सरल हिन्दी अनुवादादिसहित तथा मुख्तार पंडित जुगलकिशोरद्वारा लिखित विस्तृत प्रस्तावना विशिष्ट । मूल्य देव रुपया ।
Regd. No. D, 397
६. उमास्वामिश्रावकाचारपरीचा - मुख्तार श्री पं० जुगलकिशोरद्वारा लिखित ग्रन्थ- परीक्षाओंका इतिहा म सहित प्रथम श्रंश मूल्य चार थाना ।
७. विवाहसमुद्देश्य - पंडित जुगलकिशोर मुख्तारद्वारा रचित विवाहके रहस्यको बतलानेवाली और विवाहोंके अवसरपर वितरण करने योग्य सुर कृति । मूल्य आठ श्राना ।
नये प्रकाशन
१. आमपरीक्षा - स्वोपज्ञटीका सहित - ( अनेक विशेषता विशिष्ट महत्वपूर्ण अभिनव संस्करण ) तार्किक शिरोमणि विद्यानन्दस्वामि-विरचित प्राप्तविषयकी अद्वितीय रचना, न्यायाचार्य पण्डित दरवारीलाल कोठिया द्वारा प्राचीन प्रतियांपरसे संशोधित श्री सम्पा दि, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना, और सनाजक बहुश्र ुत विद्वान पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री द्वारा लिखित विचार प्राकथन तथा अनेक परिशिष्ट लन २०x२६/८ पंजी साइज, लगभग चार-सां पृष्ठ प्रमाण, लागत मूल्य आठ रुपया यह सस्करण प्रकाशिन है।
२. श्री पुरपार्श्वनाथ स्तोत्र - उम्र. विद्यानन्दाचार्यfarer महत्वका स्तोत्र, हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तानादि सहित | सम्पादक- न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाल कोरिया । मूल्य बारह धाना ।
३. शासनचतुस्त्रिशिका - विक्रमको १३ शवाजी विद्वान् सुनि मनका विरचित तीर्थपरिचयात्मक ऐतिहासिक पूर्व रचना, हिन्दी अनुवाद महिन | सम्पादक- न्यायाचार्य पण्डित stationer कोटिया मृत्य बारह आना ।
व्यवस्थापक- वीरसेवामन्दिर,
७/३३ दरियागंज, देहली ।
प्रकाशन - परमानन्द जैन शास्त्री, बीरसंयामंदिर ७/३३ दरियागंज वली, मुद्रक - अजितकुमार जैन शास्त्री
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अनेकान्त
मम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार
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विषय....रचा :--
विषय
लेखक
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३५३
. १. अहन्नुतिमाला
| सम्पादक . हरिजन-मदिर-प्रवेशक सम्बन्धमे मेरा स्पष्टीकरण
| श्रीगणेशप्रसादजी वर्णी ३. संजदका बहिष्कार
| डा० हीरालाल ४. मौर्य माम्राज्यका संक्षिप्त इतिहास
( पं० बालचन्द ५. मानागिरिका वर्तमान भटटारक गटीका इतिहाम
[40बालचन्द ६. चेकोस्लोवकिया
| बा• माईदयाल ७. हिन्दी जैन साहित्यके कुछ अज्ञात कवि- । बा. ज्योतिप्रसाद ८ महाकवि रइधू
| पं० परमानन्द
३७१ .
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समाचार केन्द्रीय मंत्रिमंडलमें एक जैन मंत्री दोनों हाथ नहीं हैं। इसी लिये वह अपने दाहिने श्रीमान बा. अजितप्रसाद जी जैन एम० एल०ए० परकी उङ्गलियों से कलम पकड़ कर बहुत सुन्दर सहारनपुरको अभी भारतसरकारके केन्द्रीय मंत्रीमंडल लिखता है और बहुत जल्दी लिखता है। कनड़ीमें में श्री मोहनलाल सकसेना स्थान पर नियुक्त किया वह अन्तिम परीक्षा पास कर चुका है। बीजापुर में गया है। बधाई।
अध्यापकी प्राप्त करनेका प्रयत्न कर रहा है । गर्दन पैर से लिखने वाला
और कंधे के बीच लगाम पकड़कर घड़सवारी भी कर्नाटकके सीमावर्ती एक गावमें शंकरापा
करता है। नामक एक नवयुवक रहता है जिसके बचपनसे ही
स्वाध्यायप्रेमियों के लिये उत्तम अवसर भारतकी राजधानी देहली में वीरसेवान्दिरके तत्वावधानमें समाजके जिनवाणीभक्त दानी महानुभावोंकी आर्थिक सहायतासे एक सस्ती जैन प्रन्थमाला की स्थापना हुई है। ग्रन्थमाला-का प्रत्येक प्रन्थ गृहस्थोपयोगी है-स्त्री पुरुष और बच्चोंके लिए उसका लेना बड़ाही लाभदायक और अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये प्रत्येक सदगृहस्थका कर्तव्य है कि वह इन ग्रन्थरत्नोंको खरीदकर जिनवाणीके स्वाध्यायसे आत्म-कल्याण करे। इस सस्तीका ग्रन्थमालासे प्रकाशित निम्नलिखित प्रन्थोंका लागत मूल्य १५) है, वे पूरा मंट लेने वाले सज्जनों को लागतसे भी कम मूल्य १२) में और पद्मपुराणको छोड़कर शेष ग्रन्थोंका सेट सिर्फ७)में देनेका निश्चय किया है। जिन्हे इन ग्रन्थरत्नोंकी आवश्यकता हो व प्राहकों में अपना नाम लिखाकर और अपना मूल्य भेजकर बोरसेवामन्दिर आफिस ७३३ दरियागज देहली से रसीद लेलें। पद्मपुराण क सिवाय सभी ग्रन्थ छपकर तैयार है। पद्मपुराण प्रेसमे छप रहा है। १ रत्नकरण्डश्रावकाचार-सजिल्द लगभग ८०० पृष्ठ(मूल० समन्तभद्राचार्य, टी. पं० सदासुखदासजी ३) २ मोक्षमार्गप्रकाशक-सजिल्द लगभग ५०० पृष्ठ (प० टोडरमलजी)
२॥) ३ जैन महिलाशिक्षासंग्रह-पृष्ठ २४० ४ सुखकी झलक-पृष्ठ १६०( पूज्यवर्णीजीके प्रवचनोंका सुन्दर संकलन ) ५ श्रावकधर्म संग्रह-पृष्ठ २४० (पं० दरयावसिंह,श्रावकोपयागी पुस्तक) ६ सरलजैन धर्म-पृष्ठ ११२ (बालकोपयोगी पुस्तक) ७ छहढाला-पृष्ठ ५०० (पं० दौलतरामजी व प० बुधजनजी कृत) ८ पद्मपुराण-(सजिल्द बड़ा साइज ) पृष्ठ ८०० ( मल रविपणाचाये, टी० पं० दौलतरामजो) ६
40.
मन्त्री-वीरसेवामदिन सस्ती ग्रन्थमाला,
नं०७४३३ दरियागंज, देहली।
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ॐ अहम
4
बस्ततत्त्व-सघातक
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-PAPTURERA
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
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* वार्षिक मूल्य ५)*
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नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकःसम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्त,
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*
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वर्ष ५० किरण१०
वीरमेवामन्दिर ( समन्तभद्राश्रम ), ७/३३ दरियागंज, दहली वैशाख शुक्ल, वीनिवाण-मंवत् २४७६, विक्रम संवत् २००७
श्रीमाघनन्दि ति विरचिता
अहेन्नतिमाला [यह स्तनि जयपुरके बडे मन्दिरके उसी-जीण शीर्ण गटक परमे उपलब्ध हुई है जिसपरसं अनेकान्तकी गत किरण में प्रकाशित 'शम्भस्तोत्र की उपलब्धि हुई थी। इस स्ततिक, जिसका नाम अन्तिम पद्यपरमे 'अईन्नतिमाला' पाया जाता है, सामने आते ही खयाल उत्पन्न हुआ कि शायद यह स्तुति वही हो जो जैनसिद्धान्त भास्करक प्रथम वर्ष की किसी किरण मे कोई ३१ वर्ष पहिले प्रकाशित हुई थी परन्तु जयपुर में भास्करकी उस वर्षकी फाइल न मिलपकनेक कारण मिलान आदिकी दृष्टि से स्तुतिको १०मार्च सन १९५० को नोट कर लिया गया। इसके याद एक दूसरे गुटको दूसरी प्रति भी मिल गई, जो पहली प्रतिसे शुद्ध जान पड़ी और इसलिए उसके पाठ भेदोंको नोट किया गया । हाल में मास्कर 'क प्रथम वर्षकी थी किरणको देखनेसे मालूम हा कि यह स्तुति उपमें एक ऐतिहासिक स्तुति के नाम प्रकाशित
है और इसे कर्णाटकदेशमे प्राप्त उन माघनन्दि प्राचायका कृति बतलाया है जो दैवयोगमे अपना मुनिपद छोड़ कर
अत्यन्त सुन्दर कुम्हारकी कन्याके माथ विवाह करने लिए वाध्य हए थे। साथ ही,यह भी प्रकट किया है कि वह कुम्हार के घर रहते जब घड़ा (मटकादि) बनानेको बैठते थे तो उसपर थपकी लगाते समय इस प्रकारके स्तुति श्लोकोंको बना बना कर गाया करते थे। यह सब बात कहां तक ठीक है इसक विचारका यहां अवसर नहीं है। हां, इतना जरूर कहना होगा कि स्तुति बड़ी सुन्दर तथा मावपूर्ण है, आदि अन्तक दोनों पोंको छोडकर शेष पद्य ऋषभादि चतुर्विंशति तीथरोंकी स्तुतिको लिए हए बड़े ही रसोले हैं और वे घड़ेपर थपको लगाते हुए गाए बजाए जा सकते हैं। भास्कर में यह स्तति किपने हा प्रशद्ध रूप में प्रकाशित हुई थी जिमसे अनेक स्थलों पर अर्थ को संगति
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ठाक नहीं बैठती आज उक्त दोनो प्रतियों के आधार पर इसे प्रायः शुद्ध रूप में प्रकाशित किया जाता है - सम्पादक ( शार्दूलविक्रीडितम )
वन्दे तानमरप्रवेकमुकटप्रोत्तारुणप्रस्फुरधाम- स्तोम विमिश्रितापदनखाभीषूत्करा रेजिरे । येषां तीर्थंकरेशिनां सुरसरिद्वारिप्रवाहो यथा, दिव्यदेवनितंबिनीस्तन गलत्काश्मीरपूरान्वितः ||१|| वृषभं त्रिभुवनपति शत-बन्धं मन्दरगिरिमिव धीरमनिन्द्यम् । वन्दे मनमिज-गज-मृगराजं राजित-तनुमजितं जिनराजम् || || संभव दुज्वल गुणमहिमानं संभवजिनप्रतिमप्रतिमानम् । अभिनन्दनमानिन्दित लोकविद्याऽऽलोकित-लोकाऽलोकम ॥ सुमतिं प्रशमित कुन समूह निर्दोलिताखिलक मे समृहम् । बन्दे त पद्मप्रभदेवं देवाऽसुर-नर-कृत-पदसेवम् ॥४॥ सेवक मुनिजनसुरुतरुपार्शवं प्रणमामि प्रथितं च सुपार्श्वम ॥ त्रिभुवनजननयनोत्पलचन्द्र चन्द्रप्रभमवर्जित तन्द्रम ||४|| सुविधि विधु-धवलोज्वलकोति, त्रिभुवनपतिनुतकीर्तित मृतिम । भूतलपति नुतशीतल नार्थ, ध्यान- महाइनल हुतर तिनाथम ॥५॥ स्पष्टानन्तचतुष्टय-निलयं, श्रेयोजिनपतिमपगतविलयम | श्रीवसुज्यतं नुतपादं भव्यजन-प्रिय-दिव्य निनादम् ॥६॥ कोमलकमलदलायतनेत्रं विमलं केवलशम्य सुक्षेत्रम | निर्जित-कन्तुमनन्तजिनेशं वन्द्र मुक्तिव धूपरमेशम ||७|| धम्मं निर्मलशमापन्न' धर्म्म-परायण जनताशरणम् । शान्ति शांतिकरं जनतायाः भक्तिभर-कम-कमलनतायाः ॥ कन्धु' गुणमणिरत्नकरण्डं संमाराम्बुद्धि-तरण- तरण्डम् | श्रमरीतंत्र - चकोरी-चन्द्र अरपरमं पद-विनुत-महेन्द्रम ॥ ॥ उद्धत - मोह-महामटमल्लं मल्लिफुल्लशरं प्रतिमल्लम । सुत्रतमपगत- दोषनिकायं चरणाम्बुजन्तदेव निकायम ॥१०॥ नौमि नर्म गुणरत्नममुद्र योगि-निरूपित-योगसमुद्रम | नील- श्यामल-कोमल - गात्र' नेमिस्वामिनमेनोहात्रम ||११|| फणि-फण मण्डप-मण्डित-देहं पार्शवं निजहिनगत संदेहम | वीरमपार पवित्र चरित्र कर्म महीरुह मूललवित्रम् ||११|| संसाराऽप्रतिमप्रतिबाधं परिनिःक्रमणं केवलबोधंम् । वन्दे मन्दर मस्तक पीठं कृतजन्माभिषवनुतपीठे ॥१२॥ [ घत्ता ]
अननु-गुण-निबद्धामहेतां माघनन्दी (न्दि ) त्रति-रचित- सुवर्णाऽनेकपुष्प-व्रजानाम् । म भवति नुतिमालां यो विधत्ते स्वकण्ठे, प्रियपतिरमर श्री मोक्षलक्ष्मी वधूनाम् ॥
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हरिजन-मन्दिर प्रवेश के सम्बन्क्में मेरा स्पष्टीकरण
[ ले०-- क्ष० श्रीगणेशसाद जी वर्णो, न्यायाचार्य ]
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जब से हरजन मन्दिर प्रवेशचचो चली कुछ मे भी परिवर्तन हुआ । एक दिन ऐसा भी था जो लोगोंने अपने स्वभाव या पक्षविशेषकी प्रेरणा से दिनमे दश बार पानी और पांच बार भोजन करते हरिजन मन्दिर प्रवेशकं विधि-निषेधसाधक आन्दो- भी सोच न करते थे वे आज एक बार हो भोजन लनोंको वित-अनुचित प्रोत्साहन दिया। कुछ और जल लेकर सन्तोष करते हैं। कहने का तात्पय लोगों को जिन्हें आगमक अनुकूल किन्तु अपनी यह है कि सामग्रीक अनुकूल प्रतिकूल मिलने पर यथेच्छाके प्रतिकून विचार सुनाइ दिये, उन्होंन पदार्थमे तदनुसार परिणमन होत रहते है। आज कहना आरम्भ किया कि "वर्णीजी हरिजनमन्दिर जिनको हम नीच पतित या घृणित जातिके नामसे प्रवशकं पक्षपाती है," इतना ही नहीं दलविशेष पुकारत उनकी पूर्वअवस्थाको वर्णव्यवस्था प्रारम्भ और पक्षविशेषका आश्रय लेकर अपनी स्वार्थ होनेके समय को सोचिए और आजकी अवस्थासे साधना के लिये, यथा तथा आगम प्रमाण भी उप तुलनात्मक अध्ययन कीजिये, उस अवस्थासे इस स्थित करते हुए मेरे प्रति भी जो कुछ मनमें आया अवस्था तक पहुंचने के कारणोंकी यदि विश्लेषण ऊटपटांग कह डाला, इससे मुझे जरा भी रोप नहीं कियाजाय तो यही सिद्ध होगा कि बहुसंख्यक वर्गकी परन्तु उन सम्भ्रान्त जनों के निराकरण के लिये स्पष्टी तुलना में उन्हें उनके उत्थानमे साधक अनुकूले कारण करण आवश्यक है, यद्यपि इसमें न तो पक्षपातो नहीं मिले, प्रतिकूल परिस्थितियोंन उन्हें बाध्य बननकी इच्छा है न विरोधी बनने की। परन्तु किया, फलतः ६० प्रतिशत हिन्दू जनतामे से २०-२५ आत्माकी प्रबन्न प्रेरणा सदा यही रहती है कि जो प्रतिशत इस जातिको विवश दुश्नि देखनेका दुभाग्य मनमे हो वह वचनांसे कहो, यदि नहीं कह सकत हुआ, उनकी सामाजिक राजनैतिक आर्थिक एवं तब तुमने अबतक धर्मका मर्म ही नहीं समझा, धार्मिक सभी समस्याएं जटिल होती गई, उनकी माया छल, कपट, वाक्प्रपंच आदि वंचकताके दयनीय दशापर सुधारकोंको तरस आया, इन्हीं रूपान्त त्यागपूर्वक जो वृत्ति होगी वही गांवीजोन उनके उद्धारकी सफल योजना सक्रिय की, धार्मिकता भी कहलायेगी । यही कारण है कि इस क्योंकि उनकी समझ में यह अच्छी तरह श्राचुका विषय मे कुछ लिखना आवश्यक प्रतीत हुआ । या कि यदि उनको सहारा न दिया गया तो कितना ही सुनार हो, कितना ही धर्म प्रचार हो, राष्ट्रगीताका यह काला कलंक धुल न सकेगा । वे सदाक लिये हरिजन (जिनके लिये हरिका सहारा हो और सब महारोंके लिये असहाय हों), ही रह जायेंगे । यही कारण था कि हरिजनोंके उद्धारके जिये गांधीजीन अपनी सत्य साधताका उपयोग किया, विश्वके साधु सन्तों से जोरदार शब्दों मे आग्रह किया, धर्म किसा को पैतृक सम्पत्ति नहीं, यह स्पष्ट करते हुए उन्होंन
हरिजन और उनका उद्धार
अनन्तानन्त आत्माएं हैं परन्तु लक्षण सबके नाना नहीं एक ही ह । भगवान् उमास्वामनि जीवका लक्षण उपयोग कहा है, मंद अवस्था प्रमुख है, अवस्था परिवर्तित होती है एक दिनको बाल की अवस्था परिवर्तित होत होत आज वृद्ध अवस्थाका प्राप्त हो गए हैं यह तो शरीर परिवर्तन हुआ, आत्मा
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अनेकान्त
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हरिजन उद्धार के लिये सब कुछ त्याग दिया, सब नया ही है । घृताकी तो बात ठीक ही है लोग उसे कुछ कार्य किया. दूसरोंको भी ऐसा करने का उपदेश पंक्तिभोजन और सामाजिक कार्यों में सम्मिलित दिया। हमार भागममे गृद्ध पक्षीको व्रती लिम्बा नहीं करते, व मनुष्य नीच जातिमे उत्पन्न होते हैं है, मृत्यु पाकर कल्पवासी देव होना भी लिखा परन्तु यदि वह धमको अंगीकार कर लेता है तो है, यही नहीं किन्तु गमचन्द्रजीके भ्रातृ-मोहको उम सम्मानको दृष्टिम देखा जाता है, उसे प्रामादर करनमें उसका निमित्त होना भी लिखा है। णिक व्यक्ति माना जाता है। यह तो यहांके मनुष्यां
आधुनिक युगमे हरिजनोंका उद्धार स्थिति- की बात है किन्तु जहान कोई उपदेष्टा है और न करण कहा जा सकता है। धर्म भी हमारा पतित मनुष्योंका सद्भाव है उस स्वयं भूग्मण द्वोप और पावन है,यदि हरिजन पतित ही है तो हमारा ममुदमे प्रख्यात तियेच मछलो मगर तथा अन्य विश्वाम है कि जिस जैनधर्मक प्रबल प्रतापसे यम- स्थलचरजीव भी व्रतो होकर स्वर्गके पात्र होजाते हैं, पाल चाण्डाल जैम मदुगतिके पात्र हो गये है उमसे तब कर्मभूमिके मनुष्य बनी होकर यदि जैनधर्म इन हरिजनोंका उद्धार हो जाना कोई कठिन कार्य पालें तब आप क्या रोक सकत हैं ? आप हिन्द नहीं है।
न बनिये यह कौन कहता है ? परन्तु हिन्दू जो उच्च
कुलवाले है वे यदि मुनि बन जावें तब आपको क्या वैश्य कौन, शूद्र कौन ?
आपत्ति है ? हिन्दु शब्द का अर्थ मरी समझमे धर्मजननशन सम्पादकने मरं लेखपर शूद्रांक म सम्बन्ध नहीं रखता जैसे भारतका रहने वाला विषयमे बहुत कुछ लिम्बा है, आगम प्रमाण भी भारतीय कहलाता है इसी तरह देशविशेषकी अपेक्षा दिए है, प्रागमकी बातको तो मैं सादर स्वीकार यह नाम यहा प्रतीत होता है। जन्ममे मनुष्य एक करता हूं; परन्तु आगमका अर्थ जा आप लगावें सदृश उत्पन्न होते है किन्तु जिनको जैसा मम्बन्ध वही ठीक है, यह कैसं कहा जा सकता है। श्री मिला उमी तरह उनका परिजन होजाता है। भगवान १०८ कुन्दकुन्द स्वामीने तो यहा तक लिखा है। आदिनाथके समय तीन वर्ण थे, भरतने ब्राह्मण तं एयवहा दाएहं अप्पणा सविडवण ।
वणकी स्थापना को यह आदिपुराणसे विदित होना जदि दाएज्ज पमाणं चुकिज्ज इलं ण घेत्तन्वं ॥ है। इससे सिद्ध है कि इन तीन वर्णमेसे ही ब्राह्मगा
उस एकत्वविभक्त आत्माको मै आत्माक हए, मलम तीन वर्ण कहां सेआए, विशेष ऊहापोह निज-विभव द्वारा दिग्वलाता हूँ, जा मै दिखलाऊ से न तो आपही अपनको वैश्य सिद्ध कर सकते तो उसे प्रमाण स्वीकार करना और जो कहीं पर है और न शूद्र कौन थे यह निर्णय ही आप दे चूक-भूल-जाऊ ता छल नहीं ग्रहण करना। सकते हैं। आगममे लिम्बा है जो अस्पशे शूदम स्पश हो
शूद्रांके प्रति कृतज्ञ बनिए जावे तब स्नान करना चाहिये, अस्पर्श क्या अस्पश जैनदर्शन सम्पादक ने आगे लिखा है कि जातिमें पैदा होनेसेही होजाता है। तब तीन वर्षों में- आचार्य महाराज दयाल हैं, तबक्या वह शुद्र उनकी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वश्यमे-पैदा होनेसे मभीको दयाके पात्र नहीं हैं। लोगअपनी त्रुटिको नहीं देखते उत्तम होजाना चाहिये ! परन्तु देखा यह जाता है लोगांका जो उपकार शूद्रोंस होता है अन्यसे नहीं कि यदि उत्तम जातिवाला निंध काम करता है होता, यदि वे एक दिनको भी कूड़ा-घर शौचगृह तब चाण्डाल गिना जाता है, उससे लोग घृणा आदि स्वच्छकरना बन्द करदें तबपता लग जावेगा। करते है। गान्धीजीके हत्यारे गौड़सका उदाहरण परन्तु उनके साथ आप जो व्यवहार करते है यदि
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किरण १०
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अर्हन्नुतिमाला
उसका वर्णन किया। जाय तो प्रवाद चल पड़े। वे तो आपका उपकार करते हैं परन्तु आप पंक्ति भोजन जब होती है तब अच्छा अच्छा माल अपने उदरमें स्वाहा कर लेते हैं और उच्छिष्ट पानीसे सिश्चित पत्तलों को उनके हवाले कर देते हैं ! अच्छे अच्छे मालतो आप वा गये और सड़े गले या आने काने पकड़ा देते हैं उन विचारोंको इमपर ही हम श्रार्ष पद्धतिकी रक्षा करते है बलिहारी इस दयाकी, धर्म धुरन्धर की !!
शूद्र भी धर्मधारण कर व्रती होसकता है। यह तो सभी मानते है कि धम किसीकी पैतृक सम्पत्ति नहीं चतर्गतिक जीव सम्यक्त्व उपार्जनकी योग्यता रखते है. भव्यादि - विशेषण से सम्पन्न होने चाहिए। धर्म वस्तु स्वतः सिद्ध है और प्रत्येक जीव में है, विरोधी कारण पृथक होने पर उसका स्वयं विकास होता है और उसका न कोई हतो है और न दाता ही है । इस पंचम काल में उसका पूर्ण विकास नहीं होता, चाहे गृहस्थ हो चाहे मुनि हो गृहस्थोंमं सभी मनुष्यामं व्यवहार धर्म का उदय हो सकता है यह नियम नहीं कि ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य ही उसे धारण करे शूद्र उससे वंचित रहे । गृद्ध पक्षो मुनिचरणों में लेट गया । उसके पूर्व भव मुनिने वर्णन किये, सीता रामचन्द्रजी को उसकी रक्षाका भार सुपुर्द किया, जहां कि गृद्धपक्षी हो जावे, वहां शूद्र शुद्ध नहीं हो सकते यह बुद्धि नहीं आता। यदि शूद्र निद्य कार्यो को त्यागदेवे और म यदि खाना छोड़त्रे तब वह व्रती होसकता है मंदिर
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की स्वीकृति देना न देना आपकी इच्छा पर है परन्तु इस धार्मिक कृत्य के लिये जैसे आप उनका बहिष्कार करते हैं वैसे ही कल्पना करो यदि वे धार्मिक व्रत के लिये आपका बहिष्कार करदें या असहयोग करदें तब आप क्या करेंगे? सुनार गहना न बनावे, लुहार लोहेका काम न करे बढई हल न बनावे तो लोधो कुरमी आदि खेती न करें, धाबी वस्त्र प्रक्षालन छोड़ देवे, चर्मकार मृत
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पशु न हटावे, वसोरिन सौरीका काम नकरे। भंगिन शौचगृह शुद्ध न करे, तब संसार में हा हा कार मच जावेगा, हैजा, प्लेग चेचक वाय जैसे भयंकर रोगों का आक्रमण हो जावेगा । अतः बुद्धि से काम लेना चाहिये, उनके साथ मानवताका व्यवहार करना चाहिये, जिससे वह भी सुमार्ग पर आजावें । उनके बालक भी अध्ययन करें तब आपके बालकों के सदृश वे भी बी० ए०, एम० ए०, बैरिष्टर हो सकते है, संस्कृत पढें तब आचार्य हो सकते हैं फिर जिस तरह आप पंच पापका त्याग कर व्रती बनते है यदि वे भी पंच पाप त्याग दें तब उन्हें बती होनेसे कौन रोक सकता है ? मुरार मे एक भंगी प्रतिदिन शास्त्र श्रवण करने आता था, संसार से भयभीत भी होता था, मांसादिका त्यागी था, शास्त्र सुनने में कभी भूल करना उसे सहन न था ।
धर्म किसी की पैत्रिक सम्पत्ति नहीं
पात्र
आप लोगोंने यह समझ रक्खा है कि हम जो व्यवस्था करें वहो धर्म है । धर्मका सम्बन्ध आत्मद्रव्य से है न कि शरीर मे । हां, यह श्रवश्य है कि जब तक आत्मा असंज्ञी रहता है तब तक वह सम्यग्दर्शनका पात्र नहीं होता, संज्ञी होते ही धर्मका पात्र हो जाता है, श्रार्षवाक्य है कि चारों गति वाला मंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव इस अनन्त संसार के घातक सम्यादर्शनका हो मकता वहाँ पर यह नहीं लिखा कि अस्पर्श शूद्र या हिंसक सिंह या व्यन्तरादि या नरकके नारकी इसके पात्र नहीं होते, जतता को भ्रम डालकर हर एकको बावला और अपनेको बुद्धिमान कर देने को शक्तिमान नहीं । आप जानते हैं संसार में जितने प्राणी हैं सभी सुख चाहते हैं और मुखका कारण धर्म है; उसका अन्तरंग साधन तो निज में है फिर भी उसके विकासके लिए बाह्य साधनकी आवश्यकता है जैसे घटोत्पत्ति मृतिकासे ही होती है और फिर कुम्भकारादि बाह्य साधनों की श्रावश्यकता अपेक्षित है, स्व अन्तरंग साधन
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अनेकान्त
वर्ष १०
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तो आत्मामें हो है फिर भी बाह्यसाधनों की बात कर सके, निमित्त तो अपना काम करेगा उपाअपेक्षा रखता है। बाह्य साधन देव गुरु शास्त्र है। दान भी अपना ही काम करेगा। आप लोगोंने यहाँ तक प्रतिबन्ध लगा रक्खा है बन्दर घुड़कीसे काम नहीं चलेगा कि अस्पर्श शूद्रको मन्दिर पानेका भी अधिकार एक महाशय श्री निरंजनलालने जैनमित्र अंक नहीं है, उनके पानेसे मन्दिरमें अनेक प्रकारके २० मे तो यहां तक लिखा कि "तुम्हारा क्षुल्लक पद विघ्न होनेकी सम्भावना है। यदि शान्तभावसे छीन लिया जावेगा" मानों आपके ही हाथमें धमकी विचार करो तब पता लगेगा कि उनके मन्दिर सत्ता प्रागई है। यह मंजद' पद नहीं जो मन चाहा
आनेसे किसी प्रकारकी हानि नहीं अपि तु लाभ हटवा दिया, शास्त्रपरम्परा या आगमके विच्छद ही होगा। प्रथम तो जो हिंसा आदि महा पाप करनेमे जरा भी भय नहीं किया। जैनदर्शनके संसारमें होते हैं यदि ये अस्पर्श शूद्र जैन धमको सम्पादकने जो लिखा उसका प्रत्युत्तर देना मेरे अंगोकार करेंगे तब यह पाप अनायास ही कम ज्ञानका विषय नहीं; क्योंकि मैं नतो भागमज्ञ हूँ हो जायंगे । आपकी दृष्टिमें ये भले हीन हो, परन्तु और न कोई सबका ज्ञाता परन्तु मेरा हृदय यहसाक्षी यदि दैवात जैन हो जावें तब आप क्या करेंगे? देता हैकि मनुष्यपयायवाला जा भी वाहे, वह कोईभी चाण्डालको भी राजाका पुत्र चमर ढोलते देखा जातिका हो, कल्याणमार्गका पथिक हो सकता है, गया एसी जो प्रसिद्धि है क्या वह अमत्य है? शूद्र भी मदाचारका पात्र है। हां, यह अभ्य बात है अथवा क्या योही श्रीसमन्तभद्रस्वमीने रत्नकरण्ड कि आप-लोगों द्वारा जो मन्दिर निर्माण किये गये श्रावकाचारमे लिखा है:
है उनमे उन्हे मत आने दो और शासकवर्ग भी सम्यग्दर्शनसम्पन्नतमपि मातंगदेह जम। भापके अनुकूल सा कानन बनाद; परन्तु जो सिद्ध देवाः दवं विदर्भस्मगूढागागन्तगैजसम् ।। क्षेत्र है, कोई अधिकार आपको नहीं जो उन्हें यहां
आत्मामे ऐसो अचिन्त्य शक्ति है जिस तरह जान से रोक सके । मन्दिरक शास्त्र भले ही आप आत्मा अनन्त संसारक कारण मिथ्यात्व करने में अपने समझकर उन्हें न पढने दे: परन्तु सावनिक समथ है उसी तरह अनन्त संसारके बन्धन काटनमें शास्त्रागार पुस्तकालय, वाचनालयों में तो आप भी समर्थ है। श्राप विद्वान हैं जो आपकी इच्छा हो उन्हे शास्त्र पुस्तक समाचारपत्रादि पढनेसे मना सो लिख दें। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि यदि नहीं कर सकते । यदि वह पच पाप छोड़ देवे और कोई अन्य व्यक्ति अपने विचार व्यक्त करता उसे रागादिरहित श्रात्म का पूज्य मान, भगवान पररोकनेकी चेष्टा करें, आपकी दया तो प्रसिद्ध है. हन्तका स्मरण करें, तब क्या आप उन्हें ऐसा करने हमें इसमे कोई आपत्ति नहीं। आप सप्रमाण यह से रोक सकते है ? जो इच्छा हो सो करो। लिखिये कि अस्पर्श शूद्रोंको चरणानुयोगकी आज्ञासे मुझे जो यह धमकी दी है कि “पीछी कमण्डल धर्म करनेका कितना अधिकार है, तब हम लोगों- छीन लेगें। कौन डरता है ? सर्वानुयायो मिलकर का यह वाद जो आपको अचिकर हो शान्त हो चयो वन्द करदा, परन्त धर्ममे हमारी जो अटल जावेगा। श्री पूज्य आचार्य महाराजसे ही इस व्यव- श्रद्धा है उसे आप नहीं छोन सकते। मरा हृदय स्थाको पूछ कर लिखये जिसमें व्यथ विवाद आपकी इस बन्दर घुड़कीसे नहीं डरता। मेरे हृदयन हो। केवल समालोचनासे काम न चलेगा शुद्रोंके में दृढ़ विश्वास है कि अस्पशे शूद्र सम्यग्दर्शन विषयमें जो कुछ भी लिखा जावे सब सप्रमाण ही और ब्रतोंका पात्र है। मन्दिर प्रानेजानेकी लिखा जाये । कोई शक्ति नहीं,जो किसीके विचारांका बात आप जाने । या जो श्रीपूज्यश्राचाय
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किरण १०]
वर्णी जी का स्पष्टीकरण महाराज कहें उसे मानो। दि अस्पशे का सम्बन्ध है तब आप लोग उसको दवा गट गट पोते हैया शरीर से है तब रहे, इसमें आत्माकी क्या हानि नहीं ? फिर क्यों उससे स्पर्श कराते हैं ? आपस है और यदि अस्पर्शका सम्बन्ध आत्मासे है तब तात्पर्य बहुमत जनतासे है। आज जो व्यक्ति पापजिसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर जिया वह अस्पशे कर्ममे रत हैं वे र्याद किसी प्राचार्य महाराजके कहां रहा। मेरा तो यह विश्वास है कि गुण- मान्निध्य को पाकर पापोंका त्याग कर देवें तब क्या स्थानोंको परिपाटीमे जो मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती धमात्मा नहीं हो सकते ? प्रथमानयोगमें ऐसे बहत है वह पापी है। तब चाहे वह उत्तम वर्णका से दृष्टान्त है। व्याघ्रोने सुकौशलस्वामीके उदरको क्यों न हो, यदि मिध्यादृष्ट है तब परमाथेसे पापी विदारण किया और वही श्री कीर्तिधर मुनिके उपही है। यह सम्यक्त्वी है तब उत्तम आत्मा है। देशसे विरक्त हो समाधिमरण कर स्वर्ग लक्ष्मीकी यह नियम शूद्रादि चारों वर्णोपर लागू है। परन्तु भाक्ता हुई। अतः किसीको धमसेवनसे वंचित व्यवहारमे मध्यादर्शन सम्यग्दर्शनका निर्णय बाह्य रखने के उपाय रच कर पापके भागी मत बनो। श्रावरणांस है अतः जिसक आचरण शुभ हैं वही हम तो मरल मनुष्य है आपकी जो इच्छा हो उत्तम कहलात है, और जिनके आचरण मलिन कहला प्राप लोग हो धमके ज्ञाता और आचरण है बे अघन्य कह है । तब एक उत्तम कुलवाला यदि करने वाले रहो । परन्तु ऐसा अभिमान मत करो अभय भक्षण करता है, वेश्यागमनादि पाप करता कि हमारे सिवाय दुमरे कुछ नहीं जानते। "पोलो है उस भी पापी जीव मानो और उस मन्दिर मन कमण्डल छीन लेंगें" इससे हम भय ही क्या भाने दो; क्योंकि शुभ आचरणमे ही पतित अस्पशे क्यों कि यह तो बाह्य चिन्ह है इन के कार्य तो और असदाचारी है। यदि सदाचारी है तब वह कोमल वस्त्र और अन्य पात्रसे भी हो सकते हैं। प्रापके मतसे व श्री प्राचायमहाराजकी आज्ञास पस्तक छीननेका आदेश नहीं है। इसमे प्रतीत भगवान के दर्शनका अधिकारी भले ही न हो; परन्त होता है कि पुस्तक ज्ञानका उपकरण है वह आत्मोपंचम गुणस्थानवाला अवश्य है। पाप त्यागकोही प्रतिमें सहाई है, उसपर किसोका अधिकार महिमा है। केवल उत्तम कलमं जन्म लेनेसेही व्यक्ति
नहीं। तथा आपने लिखा कि आचार्य महाराजसे उत्तम हो जाता है ऐसा कहना दुराग्रह ही है । उत्तम प्रायश्चित लेकर पदकी रक्षा करो। यह समझमें कुल की महिमा सदाचारसे ही है, कदाचारसे नहीं। नहीं आता। जब हमे अपने आचरणमें आत्मविनीच कुली भी मलिनाचारस कलंकित है। उसमे श्वास है, चारित्रकी निर्दोषता में श्रद्धा है तब मास खात है, मृत पशुओंका ले जात है आपक प्रायश्चित्त की बात मोचना भी अनावश्यक प्रतीत शौ वगृह साफ करत है, इससे आप उन्हें अस्पर्श होती है। जैनदर्शनकी महिमा तो वो ही आत्मा कहते है। सच पछा जाय तो आपका स्वय स्वोकार जानता है जो अपनी आत्माको कषायभावोंसे करना पड़ेगा, कि उन्हें अस्पर्श बनाने वाले आप रक्षित रखता है । यदि कषायवृत्ति न गई तब बाहर ही हैं। इन कार्यो से यदि वह परे हो जाये तो मुनि प्राचार्य कुछ भी बननेका प्रयत्न करे सब क्या आप उन्हें तब भी अस्पर्श मानले जावेंगे? एक नाटकी या स्वांग धारण करना ही है। वह दमरों बुद्धिमें नहीं आता कि आज एक भंगी यदि ईसाई का तो दूर रहे अपना भी उद्धार करनेके लिये पत्थर होजाता है और वह पढ़ लिख कर डाक्टर हो जाता की नौका सहश है। .
गणेशप्रसाद वर्णी इटावा
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संजदका बहिष्कार (ले० डा० हीरालाल जैन, नागपुर )
[गतकिरण से आगे] सूत्र ६३ में से 'संजद' पद हटाने से सबसे बड़ा कर रहे है, अत एव उनमे साहित्यिक, मैद्धान्तिक व विस्मय मुझे यह हो रहा है कि आखिर तामपत्रों ऐतिहासिक सच्चाई नहीं है। और इस कलंक का द्वारा रक्षा कौनसे आगमकी हुई ? आजसे तोन धीरे धीरे समस्त दिगम्बर साहित्य पर दुष्प्रभाव पड़े as पर्व जब मुझे शोलापुरमें शान्तिसागरजी तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। महाराजके दर्शन हए थे, तब अनेक चर्चाओं में यह भी चर्चा आई थी कि मनुष्यनी व मजद'
___ यहां पर संस्कृत साहित्यक इतिहास का वह आदिकी व्यवस्थामे हमारा भले ही मतभेद हो,
प्रसंग याद आता है जब गत शताब्दीमें फ्रान्सक किन्तु तामपत्रोंद्वारा तो मडविद्री में सुरक्षित प्रासंध
प्रसिद्ध विद्वान वोल्टेयरके हाथमे यजुर्वेद को एक ताडपत्रारूढ़ आगमकी रक्षा की जा रही है, जाली प्रति पहुच गई । पहले तो उन्होने उसकी खूब अत एव जो पाठ उन ताडपत्रों में उपलब्ध है उसे प्रशंसा की । किन्तु जब यह बात प्रकट हुई कि वह छोडनेका हमे कोई अधिकार नहीं। अन्य चर्चाक प्रति शुद्ध प्राचीन पाठानुसार नहीं है तब पाश्चात्य सम्बन्धमें मत-भेद होने पर भी वहां उपस्थित संसार भरके विद्वानोंमे यह लहर उत्पन्न हुई कि विद्वानोंमे इस सम्बन्धमे कोई मत भेद-नहीं पाया
ब्राह्मणों का समस्त साहित्य ही झूठा, जालो और गया था।
अनैतिहासिक है। तत्पश्चात हजारों प्रयत्न करने
पर भी पश्चिममें यह अविश्वासकी भावना आज __ सबसे बड़े दुःखकी बात तो यह है कि आगम तक भी पर्णतः नहीं मिटाई जा सकी। के परम्परागत पाठमें इस प्रकार अपनी रुचिक अनुसार परिवर्तन करके उन ताम्रपत्रांपर सदेव दिगम्बर समाज और उसके माहित्यके मामर्य के लिये अप्रामाणिकताके कलंकका टीका लगाया को देखते हए हमारे प्राचीनतम व मर्वोपरि प्रमाण जा रहा है। ताम्रपत्रोंकी यदि कोई सार्थकता थी तो आगममें इस प्रकार कुछ लोगों द्वारा अपनी रुचि यह कि वे जीर्ण-शीर्ण ताडपत्रोंके पाठकी चिर- अनुमार पाठ-परिवर्तनकी इस प्रवृत्तिसे उनकी काल तक सुरक्षा कर सकेंगे, और हमे फिर ताड़ भावी प्रतिष्ठाक सम्बन्ध मे बड़ो श का उत्पन्न हो पत्रोंक क्रमशः नष्ट होनेसे उतनी चिन्ता नहीं होगी रही है। केवल यह जानकर कुछ सन्तोष होता है किन्तु विद्वत्ममाज अब यह जान रहा है कि ये ताम्र किभक्तोंकी उस समाज में कोई ऐप विवेकी विद्वान पत्र ताइपत्रोंके पाठकी रक्षा नहीं करते. किन्त भी थे जिन्होंने उक्त प्रवृक्तिका विरोध किया और आज कल के भक्तोंकी रुचि-मात्रका अनुकरण अपने पद से स्तीफा दे दिया।
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मौर्य साम्राज्यका संक्षिप्त इतिहास
(ले०-बालचन्द्र जैन एम० ए० )
चन्द्रगुप्त मौर्य
गलाम नहीं देख सकता था। उसने सिकन्दरकी
माम्राज्य-लिप्साके प्रति विरोध प्रकाश किया जिसमे चन्द्रगुप्त मौर्य के पूर्वजोंका कुछ पता नहीं
सिकन्दर उसपर गए होगया और चन्द्रगुप्तको यहाँ चलता । मौय मोरियका संस्कृत रूप है। मोरिय
में प्राण बचाकर भागना पड़ा। तक्षशिलामें ही उसे जातिका परिचय हमें बुद्ध और महावीर के समय
बाह्मण चाणक्य मिला। वह भी नंदराजसे में भी मिलता है। मौर्यपुत्र या मोरियपुत्त भगवान
असन्तुष्ट था। दोनों ही धुनके पक्के थे। जैन, महावीरके ग्यारह गणधरोंमे से एक थे। चन्द्रगुप्त बौद्ध और हिन्द सभी अनुतियां चाणक्यको इसी मौर्य जातिका था। पिछली दन्तकथामे उसे
मगधका मिहासन हथियानेमे चन्द्रगुप्तका सहायक मुग नामक दासीका पुत्र कहकर मौर्य नामकी
मानती है। माथकता बताइ जान लगी। वस्तुत: उक्त दन्तकथा में कोई तथ्य नहीं है और न इस प्रकारका काई
चन्द्रगुप्तने पंजाबमें ही सैन्य-संघटन किया
और पश्चिमकं प्रान्त जीतता हुआ पूर्वमें क्रमशः प्राचीन उल्लेख ही मिलता है। विष्णुपुराणकी
पाटलिपुत्र तक चढ़ पाया। वहां भयानक और घमाटीकामे पहली बार यह बात उठाई गई है। मुद्रा
सान युद्ध के पश्चात चन्द्रगुप्त विजयी हुआ और राक्षस नाटकमे भी पता चलता है कि वह नन्दक
कौटिल्य (चाणक्य ) ने मगध के सिंहासनपर उसका वंशका था। स्पष्ट है कि किसी कारण विशेषमे ही
अभिषेक किया । महापंश टीकामें एक कथा चन्द्रगुप्तको नीचकुलीन प्रचारित करनेके उद्देश्यस
मिलती है। चन्द्रगुप्त और चाणक्यने धननम्दसे यह कथा गढ़ी गई । सत्य तो यह है कि वह मारिय- हारकर भागते एक वृदियाके घरमे शरण ली । जातिका क्षत्रिय था।
बुढ़ियाने अपने बेटेको खानेके लिये एक रोटी दो चन्द्रगुप्त महत्वाकांक्षी यवक था। अंतिम नंदराजा किन्तु उसने उसे बीचस कुतर-कुतरकर सारी रोटी धननंदसे उसका प्रारंभिक विरोध था और वह खराब कर दी। बुढ़िया यह देखकर लड़केको डांटते उसके साम्राज्यको उखाड फेकनके लिये प्रयत्नशील हुए बोली कि मूर्ख, रोटी कोनोंसे तोड़ । चन्द्रगुप्त था। इसी उद्देश्यको लेकर वह तक्षशिलामें सिकन्दर और चाणक्य जैसी मूर्खता कर सारी रोटी खराब से भी मिला था। नन्दसाम्राज्यको नष्ट करने में वह
मत कर। चन्द्रगुप्त और चाणक्य के लिये यह सामसिकन्दरको सहायता चाहता था लेकिन सिकन्दरसे
यिक शिक्षा थी। उन्होंने साम्राज्य के मध्यमें हलचल उसकी पटी नहीं। मिकन्दर समूचे भारतपर अपना
मचानकी अपेक्षा कोनोंस आक्रमण करनेका सबक आधिपत्य चाहता था पर चन्द्रगुम अपने देशको
सीखा और पहले पश्चिमी प्रान्तोंकी विजय की तब
पूर्बकी ओर बढ़े। इसप्रकार ३२२ ई० पू० मगधका १. चन्द्रगतं नन्दम्य व शुदायां मुरायां जातं मोर्याणां
सिंहासन मौर्योक अधिकार में आगया। चाणक्य प्रथमम् ।..
२. कोटिल्य एव. चन्द्रगुप्त राज्येऽभिषेक्ष्यति ।
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अनेकान्त
। वर्ष १०
चन्द्रगुप्तका प्रधान अमात्य हुआ और उसने अर्थ- -काबुल, हेगत, कन्दहार और कलात-चन्द्रगुप्त शास्त्रकी रचना की। चन्द्रगुप्तने सारे भारत देशको को सौप दिय। इमप्रकार सीधे हिन्दुकुश तक चन्द्रसंगठित किया और नवीन शासनप्रणालीको बुनि. गुप्तका साम्राज्य विस्तृत हो गया। नंदोंका पूरा याद डाली। उसके दरबारम रहनवाले यूनानी दूत साम्राज्य पहले ही चन्द्रगुपके अधिकारमें आ चुका मेगास्थनीजने अपनी पुस्तक इडकामे तत्कालीन था। सुगष्ट में उसका राष्ट्रिक पुष्यगुप्त वैश्य शासनव्यवस्था, सैन्यसंघटन, रातिरिवाजों तथा उसकी ओरसे शासनकर रहा था । दक्षिणमें चन्द्रगुपकी जीवनचर्या आदिके सम्बंधमे विस्तृत कर्णाटक प्रान्तमें तो उसकी मृत्यु ही हुई थी। इम सुचनाएं दी है। वह पुस्तक यद्यपि नष्ट हो चुकी है प्रकार चन्द्रगुप्त सुसंगठित भारतका प्रथम सम्राट पर अन्य लेखकोंकी कृतिगमें उसक जा उद्धरण बना। इतना विस्तृत साम्राज्य तो मुगल औरंगजेबका मिलत है उनसे चन्द्रगुल और उसकी शासनव्यवस्था भी न था। आदिके सबंधमें श्रच्छो जानकारी प्राप्त हाती है। सधिको स्थायी बनाने के लिये चन्द्रगुप्त और सेल्यूकस निकाटोरकी चढ़ाई और हार सेल्यूकसके बीच वैवाहिक संबंध भी हुआ। यूनाना
लेखक इस सम्बन्धक विषयमे स्पष्ट नहीं लिखत सिकन्दरकी मृत्यु ( ३२३ ई० पू०) के अनंतर किन्तु पौराणिक अनुश्रुति इसका समर्थन करती है।' उसके सेनापति आपसमें लड़ते भिड़ते रहे । उनमें चन्द्रगुप्तने भी भेंट में अपने ससुरको ५०० हाथी से अपने सभी प्रतिद्वन्द्वियोंके विरुद्ध सफल होकर दिये, यूनानियोंने जिनका उपयोग अपनी पिछली सेल्यूकस पश्चिमी और मध्य एशियाका सम्राट बन लड़ाइयोंमे किया। इसी समयसे भारतको राजगया और उसने सीरियाको अपनी राजधानी धानी पाटलिपुत्रमे यूनानियोंका एक दूत रहने लगा। बनाया। वह सीरियाका सम्राट् कहलाता था। चन्द्रगप्तके समय में मेगास्थनीज उस पदपर विजयी होनेके नाते उसने निकाटोर या विजेताकी अधिष्ठित था। उपधि प्रहण की थी।
__ चन्द्रगुप्त मौर्य के सिक्के सिकन्दरके पैर पलटते ही भारतके जिन पश्चिमी
__एलनकी ब्रिटिश म्यूजियमके भारतीय सिकोंकी प्रदेशोने चागपके नायकत्वमें स्वाधीनता प्राप्त कर मचीक दमर प्रकारके पचमार्क सिक्के जिनपर पांच ली थी और अब जो चन्द्रगुप्तके अखिल भारतीय
चिन्ह मिलते हैं, मौर्यकालीन मिक्के है। ये मार साम्राज्यके अंग बन चुके थे, उन्हें फिर वापस
उत्तर भारत और पाकिस्तानमें पेशावरसे मेदनीपुर अपने माम्राज्यमें मिलाने के लिये सेल्यूकसने लगभग
नक प्राप्त होते हैं। इनमें ६०./. चांदी है जो अर्थ३०५ ई० पू० में बड़ी सेनाके साथ भारतपर चढ़ाई
शास्त्र अनुसार कार्षापणकी तौल है। इन सिकों में कर दी। इधर चन्द्रगुप्त भी अब तक अच्छो
तक अच्छी तरह से जिन सिकोपर पहाड़ी पर अर्धचन्द्र चिन्ह
तरह जमचका था और सदा सावधान भी रहता था। अतिप य ही
अकित है व अवश्य ही चन्द्रगुप्तक सिक्के है। नसकी विशाल और व्यवस्थित सनान यूनाना पालकी में प्राप्त चन्द्रगुप्तके महलक सेनाकं दिल दहला दिये और विजेतासेल्यूकस चन्द्रगुप्तके सामने विजित होकर आया। पीछे १. चन्द्रगप्तस्तस्य सुतः पौरसाधिपतेः सुताम् ।। दोनों पक्षों में संधि होगई और संधिको शतोंके सुलूवस्य तथोद्वारा गावनों बौद्धतत्पर। ॥ भविष्यअनुसार सेल्यकसने अपने साम्राज्य चार प्रान्त, पुराण २१६४३ । पेरोपिनीसेडी, एरिया, एखोमिया और गदरोसिया २ एलनः एश्यटडिया पृ० सा।
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किरण ]
मौर्य साम्राज्य का संक्षिप्त इतिहास
खंभों, वहीं से प्राप्त मिट्टोके तीन बर्तनों, अशोकके छोटे मोटे उलटफेरके साथ इस प्रसंगका वर्णन है। मारनाथ स्तंभके पाससे प्राप्त सिकों और रामपुरवा अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामीको निमिक्तझानसे स्तंभके पाससे प्राप्त सिकोंपर भी यह चिन्ह विदित हुआ कि उत्तर भारतमें शीघ्र ही भीषण मिला है। पहाडीपर अर्धचन्द्र चन्द्रगुप्त मौर्यका अकाल पड़नेवाला है और ऐसे भीषण ममयमें राजचिन्ह था। स्वर्गीय डाक्टर काशोप्रसादजोका मुनिधर्मका पालना कठिन हो जावेगा। इसलिये वे मत था कि पहाडीपर चन्द्र चन्द्रगप्तका उपलक्षण अपने शिष्य-संघको लेकर दक्षिण की ओर चल दिये। है और अर्धचन्द्र चन्दका तथा पहाड़ी गुत्तका बोधक चन्द्रगुप्त भी उनका शिष्य होकर उन्हीं के साथ है। (चन्दगुत्त चन्द्रगप्तका प्राकृत रूप है)
दक्षिणको चला। भद्रबाहूस्वामोकी आयु अत्यल्प
शेष रही थी अतः वे कर्णाटक प्रदेशके श्रवणवेल्गोला चन्द्रगुप्त मौर्य जैन था
नामक स्थानमे ठहर गये। संघ अागे धुर दक्षिण जैन अनुश्रति एक स्वरसे चन्दगप्त मौर्यको तक चला गया। अपने गुरुकी वैयावत्तिके लिये जैन कहती है। उसके अनुसार चन्द्रगुप्तने चौबीम
चन्द्रगुप्त उन्हींके साथ रह गया और उसने उनके
श्रीतम समय तक उनकी संवा की । भद्रबाहुके परस एकच्छत्र शामन किया। फिर अपने पुत्र
पश्चात् उसी स्थानपर सल्लेखनापूर्वक उसकी मृत्यु बिन्दुमारको राज सौंप २६८ ई० पू० में वह भद्रबाहु का शिष्य होकर कर्णाटक चला गया और वहीं
यह तो है साहित्य प्रन्थों में प्राप्त उल्लेख । मल्लेखनापूर्वक उसकी मृत्यु हुई। टामस साहबका कथन है कि मेगास्थनीजके कथनमें भी ऐसा प्रतीत
इसके अतिरिक्त उत्कीर्ण लेखोंसे भी इस प्रसंगकी
पुष्टि करनेवाले प्रमाण मिलते है। किंवदन्ती है कि होता है कि चन्द्रगप्तने ब्राह्मणों के सिद्धान्तके विपक्ष में श्रमणोंक उपदेशको अंगीकृत किया था। इतना
श्रवणवेल्गोलाकी चन्द्रगिरि पहाडीका नामकरण
चन्द्रगुप्तसे संबंधित होनेके ही कारण हुआ है और तो निश्चित है ही कि चन्द्रगुप्त ब्राह्मणधर्म नहीं
वहां की प्राचीनतम वदि चन्द्रवसदिका भी चन्द्रगुप्त मानता था। स्वयं हिन्दू भविष्यपुराण उसे बौद्ध.
से संबंध है। चन्द्रगिरि पहादीकी भद्रबाहुगुफामें तत्पर कहता है। लेकिन चन्द्रगप्न के बौद्ध होनेकी
आज भी चन्द्रगुप्तके चरणचिन्ह स्थित हैं । यही स्थान चर्चा न तो बौद्ध अनुश्रतिमें ही मिलती है और न
चन्द्रगुप्तके समाधिमरणका स्थान है सेरिंगपट्टके दो अन्यत्र कहीं। भविष्यपुराणने गलतीसे उसे बौद्ध
उत्कीर्ण लेखोंमे उल्लेख मिलता है कि कल्वप्पुशिखर कह दिया है, क्योंकि उसके लेखकके लिये बौद्ध और (चन्द्रगिरि) पर महामुनि भद्रवाहु और चन्द्रगुप्त जैन दोनों ही समान और विपक्षी थे और वह उन्हें चरणचिन्ह हैं। श्रवणवेधगोलाके अनेक लेख एक मानता था। विपक्ष होने के नात दोनों ही उसके इस कथाको स्मरण करते और दुहराते हैं। वहांके लिये एक बराबर थे।
सबसे प्राचीन लेखमें भी इस प्रसंगका उल्लेख है।' दूसरी और अनेक जैन ग्रन्थ और उत्कीर्णलेखों
पार उत्काणलेखों- तथा अनेक अन्य लेखों में भी भद्रबाहु और उनके में चन्द्रगुप्तके भद्रबाहुका शिष्य होकर माधु शिष्य चन्द्रगुप्तका उल्लेख है। अवस्थामें मरणका उल्लेख मिलता है। हेमचन्द्रका परिशिष्ट पर्व, हरिषेणका बृहत्कथाकोश, देवचन्द्रका १.५०० जिल्द ३, मेरिंगपट्ट क्रमांक १४७, १४८ । राजावलिकथे, भट्टारक रत्ननंदिका भद्रबाहु चरित्र, ..ए.. जिल्द २, श्रवणबेलगोला क्रमांक ११ चिदानंदकविका मुनिवंशाभ्युदय, आदि पन्धों में ३... जिल्द २, अवयवेल्गोला क्रमांक 10,1८,५४, भद्रबाह और चन्द्रगप्तकी कथा मिलती है जिसमे १०,०८पादि।
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अनेकान्त
[वर्ष १०
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चन्द्रगप्त मौर्यका जैन होना अब सभी विद्वानों उपयुक्त कारण उसका राजपाट त्याग देना ही प्रतीत ने मान लिया है। बहुत पहले ही डाक्टर ल्यमन होता है। और डाक्टर हानले श्रुतकेवली भद्रबाहकी दक्षिण
बिन्दमार अमित्रघान यात्रा स्वीकार कर चुके थे। टामस साहब भी चन्द्रगप्तको जैन कहनेवाले लेखोंके प्रमाणोंको
चन्द्रगुप्तने जब राजपाट छोड़कर कणोटक बहुत प्राचीन और सन्देहरहित मान चके थे। प्रवास किया तो ई०५० में रमका बेटा निन्दस्वर्गीय डाक्टर काशीप्रसाद जायसवालने लिखा सार पाटलिपुत्रके सिंहासन पर बैठा । इमके जीवन है कि मेरे अध्ययनने मुझे जैन प्रन्थोंकी ऐतिहासिक
की महत्वपूण घटनाएँ कुछ भी बात नहीं। चन्द्रगुप्त वार्ताओंका आदर करनेको बाध्य किया है। कोई
जैसे प्रतापी बापका बेटा और अशोक जैसे धर्मकारण नहीं कि हम जैनियोंके इस कथनको कि
विजयो बेटेका बाप होनेके कारण इस संबंधी
इतिहासको लोग भूल बैठे। तारानाथके इतिहासमे चन्द्रगुप्त अपने जीवनके अन्तिम भागमें राजपाट त्याग जिनदीक्षा ले मुनिवत्तिसे मृत्युको प्राप्त हुए, .
फिर भी कुछ सूचनाए मिल हो जानी हैं। उमके
अनुसार चाणक्य कुछ समय तक इसका भी अमात्य न मानें ।' श्रवणवेल्गोलाके लेखोंका सम्पादन
रहा था। यूनानी लेखकोंने जिस नामसे इसका करनेवाले राइस साहबका भी यही मत था । ५ व्ही
उल्लेख किया है वह अमित्रघातका अपभ्रंश प्रतीत स्मिथने भी अपनी पुस्तकके छिले संस्करण मे
होता है। इसके दरवारमें यूनानी दूत डेइमेकम और चन्द्रगप्तको जैनधर्मावलम्बी मानलिया है। उसने
मिस्रक राजा टालेमी फिलाडेल्फसका दूत डामोनिसस लिखा है 'जैनियोंने सदैव उक्त मौर्य सम्राटको
रहते थे। एक किंवदन्ती हे कि बिन्दुसारने सीरिया बिम्बसारके समान जैनधर्मावलम्बी माना है और
के राजा एन्टिओकस सोटरको लिखाकि आप मुझे उनके इस विश्वासको झूठा कहने के लिये कोई 1
कुछ अजीरें, अंगूरी शराब और एक दानिक उपयुक्त कारण नहीं है। इसमे जरा भी संदेह नहीं
खरीदकर भेज दें अन्तिोकने शराब और अजीर कि शैशुनाग, नन्द और मौर्य राजवंशोक समय में तो भज दी पर दार्शनिक भेजनेमें असमर्थता प्रकट जैनधर्म मगध प्रान्तमें बहुत जोर पर था। ....... ...... करते हुये संदेश भेजा कि यनानी कानून दार्शनिक उसके (चन्द्रगप्त) राज्यको त्याग करने व जैविधि नीति नीता। के अनुसार मल्लेखना द्वारा मरण करनेकी बात
दिव्यावदानमे इसके राजकालमें दो वार तक्ष. सहज ही विश्वसनीय होजाती है।........
शिलाके विद्रोही होनेका उल्लेख मिलता है। पहली चन्द्रगुप्त मिहासनारूढ़ होने के समय नरूण अवस्था
बार कुमार अशोक विद्रोह शान्त करनेके लिये भेजा में ही था और चौबीम बरमके पश्चात् भी उसकी
गया। तक्षशिलाके पोरोंने साढ़े तीन योजन आगे अवस्था पचामसे नीचे ही होगी। अतः (राजनैतिक
आकर उसका स्वागत किया और कहा “न हम इतिहास से) इतनो जल्द उमकं लुप्त हो जानेका
कुमारके विरुद्ध हैं और न राजा विन्दुसारक पर १. वियना पोरियटल जरनल जिल्द पृष्ट ३८२। दुष्ट अमात्य हमारा परिभव करते हैं।" २.६०ए० जिल्द २१ पृष्ट ५६-६० ।
___ बिन्दुसारके धर्मके बारेमें कोई सीधा उल्लेख ३. जैनिज्म प्रार अर्ली फेथ भाफ अशोक : पृ० २३ ।
नहीं मिलता। पर अन्य उल्लेखों और प्रमाणोंके ५. ज. वि. मोरिसो० जिल्द ३ ।
.. आक्सफोर्ड हिस्ट्रो आफ इंडिया तृतीयसंस्करण पृष्ट ५. ए.क. जिल्द २. प्रस्तावना ।
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किरण ]
मौर्य साम्राज्यका संक्षिप्त इतिहास
- - आधार पर उसका जैनधमावलम्बी होना सिद्ध चार वरस बाद स्थान-स्थान पर उसने जो धर्महोता है।' बिन्दुसारका राज्यकाल २५ बरषों का लिपियां लिग्ववाई उनपर जैनसिद्धान्तोंकी गहरी था। कहीं कही इम २८ बरस तक राजा रहनेके छाप है। शिलाफलकों और शिलास्तंभों पर धर्मभी उल्लेख मिलत है।
लिपियां और आदेश खुदवानेका इमका विचार प्रियदर्शी अशोक
मौलिक था यद्यपि इसस पूर्व फारसके दाराने भी
चट्टानों पर श्राज्ञाए खुदवाइ थीं।' अशोक पिताके राज्यकालमें ही अवन्ती और तक्षशिलाका शासक ग्रह चुका था। उसके बाद
उनसे ऐमा विदित होता है कि स्वयं बौद्ध होते ई०पू०७३ में वह सम्राज्य का अधिकारी हआ। हुए भी अशोक अपनी प्रजाका जिस धर्मके ग्रहण राज्यप्रापिके चार वष पाछे उसका अभिषेक हआ। करनेकी सलाह देता था वह बौद्धधर्म नहीं बल्कि
सभी धर्मों का सारस्वरूप एक नया ही धर्म था। विजय को । कलिग उस समयका प्रबल और शक्ति- अशाकके धमके तत्त्व पाप न करना, बहुत कल्याण शाला राज्य था। उसने डटकर अशाकका मुकाबला करना, दया, दान, सत्य, शौच, प्राणियोंका वध न किया। इस युद्ध में एक लाख सैनिक मर या आहत करना, जन्तुओंको व्यर्थ हिंसा न करना, झाति, हुये और डेढ़ लाख कैद किये गये। युद्धक पीछे फैलने ब्राह्मण और श्रमणोंके प्रति उचित व्यवहार करना, वाली बीमारियोंसे इससे भी कई गुने व्यक्ति मरे। मातापिताकी सेवा सुश्रषा करना, गुरुजनोंकी पूजा इससे दुखो हो अशोकन कलिगविजयके अनंतरही करना, प्राणियों के प्रति संयम पूर्वक बरताव करना, अपनी नीति मर्वथा बदलदी। यद्धमे हुये प्राणिवध- श्रमणों और ब्राह्मणोंको दान देना ये सभी भारतीय से उमकी आत्मा कांप उठी और अब वह उसके धर्मोक निचोड़ हे आचार्य नरेन्द्रदवने लिखा है कि सहस्रांश विनाशसे भी दुखी हो उठता था। महा- अशोकका धर्म बौद्धधर्म नहीं है, वह प्रायोंकी वंशमे अशोकको अपने हर भाईयोंका हत्यारा कहा समान सम्पत्ति है। ऊँच नीच का भेदभाव अशोक है। लेकिन अपने पांचवें लेखम अशोक अपने न दूर कर दिया था ।' समाज और यज्ञ उसने भाईयोंक सद्भावका जिकर करता है। सभवतः बद कर दिय थे क्योंकि उनमे प्राणियोंकी विहिंसा उसके प्रारंभिक अबौद्ध जीवनको कलुषित चित्रित होती थी। वह सभी जातिक मनुष्योंके प्रति दण्डकरनेके लियेही बौद्धग्रन्थकारोंका यह प्रयत्न है। समता और व्यवहार समताका सिद्धान्त बरतता अशोक जन्मस हो बौद्ध न था। अपने पूर्व
१. एताय अथाय इय धंमलिपी लेखापिता किंति चिरं जीवनम वह जैनधमाबलम्बी था। कलिंगविजयके
तिस्टेय इति तथा च मे पुत्रा पोताच प्रपोत्राच १. अश्वघोष ने बिन्दुसारके संबंधमें लिखा है-बिन्दुसारो
अनुवरतां सर्व लोकहिताय । ब्राह्मणभहो अहोसि स ाह्मणानं ब्राह्मयाजातीयपाषानं
ठा लेख । सप्तम स्तंभ लेख च पंडरगपरिभाजकान' (पडरंगपरिभाजक माजीव.
रूपनाथ लघु शिलालेख मादिमें भी। कनिगन्यादीनं) निच्चभट्ट पत्यापेसि ।
२. अशोकके धर्मलेखः भूमिका पृष्ठ । २. अशोक का १३ वां लेख।
३. यि इमाय कालाय जंबुढीपसि अमिसा देवा हस ते ३. वेभातिक भातरो सो हन्त्वा एकनकं सतं ।
दानि मिसा कटा। सकले जंबुदीपस्मिं एकरज्जं अपापुणि ।
रूपनाथ लघु शिलालेख । ४. जैनिज्म भार अली फेथ श्राफ अशोक, टामस लिखित। ४. इध समाजो न कतम्याः पहला देख।
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था।' उमने सालमें आधे से ज्यादा दिन पशुओं का वध निषिद्ध कर दिया था । और वह सभी मनुष्यों को समान एवं अपने पुत्र जैसा मानता था। ऐसी बात नहीं है कि वह प्रजासे ही धर्मकृत्य करनेकी प्रेरणा करता हो लेकिन स्वयं भी उसी प्रकार आचरण करता था पशुओं और मनुष्योंके लिये उसने अलग अलग अस्पताल खोल रखे थे तथा औषधियां बांटता रहता था । उसने सड़कों पर वृक्ष लगवाए और कुए खुदवाए । इसीप्रकारके अन्य अनेक कार्य जो पशुओं और मनुष्यों के उपयोगके थे, उसने किये ।" उसके धमोचरण से प्रभावित हो पड़ोसी राजेभी धर्मका आचरण करने लगे थे। अपने साम्राज्य में इन सब कार्यों की देखरेखके लिये अशोकने अलग अलग कर्मचारियों को दौरा करने की आज्ञाएं दे रखीं थीं।
सभी धर्मो के प्रति समान दृष्टि
अनेकान्त
[ वर्ष १०
पूजा ।' उसकी धारणा थी कि सभी मत समय और भावशुद्धि की कामना करते है । इसलिये वह स्वयं ब्राह्मणों, श्रमणों और स्थविरोंके दर्शनके लिये धर्मयात्रा करता था और लोगों से धर्मवृद्धि के संबंध में पूछता था । वह सभी मतके माधुओं की पूजा करता और उन्हें दान तो देता ही था पर उसकी अपेक्षा उनकी सारवृद्धिको अधिक श्रेयस्कर समझता था। * यह सारवृद्धि यद्यपि कई प्रकारसे हो सकती थी पर अशोककी दृष्टिमे उसका मूल था बचोगुप्ति अर्थात् अपने मतकी प्रशंसा तथा दूसरे मतकी निंदा न करना । अन्य मतोंका अपकार और निंदा करना अशोक अच्छा नहीं समझता था । उसका विचार था कि अपने मत की कोरी प्रशंसा तथा दूसरे मतकी गहो न करने वाला व्यक्ति अपने मतको वृद्धि तो करता ही हैं साथ ही साथ अन्य मतोंका उपकार भी करता है। और जो इसके विपरीत करता है वह अपने मतको तो कमजोर बनाता ही है, साथ ही साथ परमतका अपकार भी करता है जो यह सोचकर कि मैं अपने मत की दीपना करता हूँ, अपने मतकी प्रशंसा और दूसरे मतकी गर्दा करता है वह तो और भो
अशोक की सबसे अधिक प्रशंसनीय और अनु*ग्णोय नीति थी उसकी धर्म-सहिष्णुता और सर्वमत
१. ४था स्तंभलेख ।
२श्व स्तंभलेख 1
३. सवे मुनिसे पजा मम । कलिंगलेख ।
४. रात्रो द्वे चिकीछे कता मनुसचिकीछा च पसुचिकीड़ा च, प्रोढानि च यानि मनुसोपगानि च पसोपगानि च तत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि मूलानि च फलानि च यत यत नास्ति सर्वत्र द्वारापितानि च रोपापितानि च पंथेसु कृपा व खानापिता aat च रोपापिता प्रतिभोगाय समनुसानं ।
२ रा शिक्षा लेख ।
५. ७वां स्तंभलेख देखें जहां अशोक अपने किये कार्योंका लेखा देता है शिलालेख ।
1
६. १३
• सर्वत विजिते मम युता च राजुक व प्रादेसिके पंचसु वासेसु अनुसंधानं नियातु एतायेव प्रथाय । ३ रा शिलालेख ।
१ सवपाडा पि मे पूजिता विविधाय पूजाया । छटा
स्तंभलेख | देवानपिये पियदसि राजा सवपाडा नि च पवजितानि च घरस्तानि च पूजयति दानेन विविधाया च पूजाय । १२ वां शिलालेख
२. देवानंपियो पियदसि राजा सर्वत इछति सबै पाडा वसेयु सवे ते समय व भावसुधिं च इति । ७ व शिक्षालेख ।
३८ शिलालेख ।
४.
.............न तु तथा दाम व पूजा व देवान पियो मंजते यथा किति सारवडी अस सवपाडान' |
१२ वां शिलालेख |
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किरण []
मौय साम्रज्यका संक्षिप्त इतिहास
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अपने मतको हिंसा करता है।'
कारीगरीका अनुपम नमूना है और उमपर कांच अशोक कहता है कि इसलिये समवाय अच्छा जैसी चमकती पालिस है। लेख की चौथी और है। कैसा समवाय ? कि अन्यमतोंके धर्म सुनो पाँचवी पंक्तिमें विभिन्न मतोंके लिये धर्ममहामात्र
और सेवन करो। मेरी तो यह इच्छा है कि सभी नामक अधिकारी नियुक्त किये जानेका उल्लेख है। मतवाले बहुश्रुत हों और कल्याणकारी हों।' मैं निर्मन्थों (जैन साधुओं) के लिये भी अशोकने एक दान और पूजाको उतना नहीं मानता जितना कि धर्ममहामात्रकी नियम्ति की थी। धर्ममहामात्रोंके सभी मतोंकी अधिकसे अधिक सारवद्धिकी कामना संबंधमे अशोकने लिखा है कि मेरे धर्ममहामात्र भो करता हूँ, यह समाचार उमने सनी मत वालों तक सन्यासियों और गृहस्थोंके बहुत प्रकारके कार्यो पहुँचा दिया था। और इसी उद्देश्यको लेकर उसने और अनुग्रह करनेमें नियुक्त है। मैंने उन्हें मंघमें, धर्ममहामात्र स्त्रो-अध्यक्ष-महामात्र ओर वजभूमक ब्राह्मणांमे, आजीविकोंमे, निग्रन्थोंमे तथा विभिन्न तथा अन्य अधिकारियों की नियुक्ति की थी जिसका सम्प्रदायांमे नियुक्त किया है। संघसे अशोकका फल यह हुआ कि स्वमतकी वृद्धि होनेके साथ संकेत बौद्धसंघकी ओर है। जो भमण नहीं थे वे धर्मकी वृद्धि भी हुई।
ब्राह्मण कहलाते थे। आजीविक उस समयका एक निर्ग्रन्थोंके लिये धर्ममहामात्रकी नियुक्ति प्रमुख सम्प्रदाय था। इसके साधु दिगम्बर जैन (संयह लेख क्रमांक २)
साधुओं जैसी हो क्रियाएँ और आचार पालते थे दिल्ली स्थित सप्तम स्तंभ लेख में अशोक अपने तथा उन्हीं जैसे नग्न रहते थे। इस सम्प्रदायका किये कार्योका लेखा उपस्थित करता है। यह स्तंभ आदिसंस्थापक मंखलिपुत्र गाशालक था। जैन
भागमोंमें आजीविय, बौद्धग्रन्थोंमें आजीवक और १. एवं करु प्रात्पवासंडं च पत्यति परपास
वराहमिहिरके वृहत् जातकमें आजीविक या आजीउपकरोति, तदंभथा करोतो प्रात्पपासंदं च बणति
विन्नामस इस सम्प्रदायका उल्लेख मिलता है। परपासढस च पि अपकरोति, योहि कोचि प्रात्पपासंग
दक्षिणके एक उत्कीणेलेखमें आजीवक शब्द पूजयति परपास वा गरहति सवं प्रात्पपासंद
दिगम्बर जैनोंके लिये प्रयक्त हुआ है। अशोक भतिया, किति, प्रात्पपासंड दोपयेम इति, सोच पुन तथा करोतो मात्पपास
और उसके उत्तराधिकारी दशरथने भदन्त आजी
वाढतरं उपहनाति। १२ वां शिलालेख ।
विकोंको गुफाएं दान की थीं। निगंठ या निर्ग्रन्थ २ते समवायो एव साधु, किंतु मंत्रमंत्रस्य चमं सुणारु. जैन साधुओं के लिये कहा गया है। प्राचीन प्रच्चोंच सुसुसेरु च । १२ वा शिलालेख ।
में भगवान महावीरका निगंठ नातपुत्तके नामसे ३ एवं हि देवान पियस इला किंति, सबपासा बहन ता उल्लेख मिलता है। अशोकके समयमें जैनसाधु और
चमसु कलाणागमा च असु । १२ वा शिक्षालेख। उनके संघ बड़ी संख्यामें धर्मसाधन करते और ४. बेच तत्र तते प्रसना तेहि वतरवं, देवान पियो नो कराते थे ऐसा इस लेखसे भलीभांति विदित होता
तथा दानं व पूजा व मंत्रते यथा किंति सारवडी अस है। लेखमें अभ्य सम्प्रदायोंके लिये भी धर्म-महामात्र
सर्वपास डान' बहका १२ वा शिलालेखा नियक्त किये जानेका उल्लेख है। वहां मत या १. एताय प्रथाय व्यापता धंम महामाता इथीमासमहामाता
प पचभूमिका च ममे च निकाया, अय' पतस .. हुल्श: साउथ इंडियन इंस्किप्सन्स जिन्द.पू.८८। संयभात्पपासवरि होति धमस दीपना। २. हुश: का... जिद बराबर और नागाणुको १२ शिलालेख।
पहाड़ियों के वेख।
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अनेकान्त
[वर्ष १०
सम्प्रदायके लिये पाषंड शब्द का प्रयोग हुआ है। इडिकेरं जिल्द १ पृष्ठ ५३० तथा अन्य अनेक ग्रन्थों में पाषंड शब्द पहले मत या सम्प्रदायके अर्थमें प्रयुक्त प्रकाशित हो चुका है। होता था पर पीछेसे इसका प्रयोग छल या इसी
सम्प्रति
सम्प्रात कोटिके बरे अर्थ में किया जाने लगा। उसका संभाव्य ३६ वर्ष धर्मराज्य करमेके पश्चात् २३२ इ० पू० कारण यह था कि पहले यह शब्द ब्राह्मणेतर सम्प्र
में अशोककी मृत्यु हुइ और उसका पोता सम्प्रति दायोंमें प्रयुक्त होता था इसलिये ब्राह्मणोंने तिरस्कृत
या सम्पदी उसका उत्तराधिकारी होकर पार्टीलपुत्रकरने के उद्देश्यसे उसे गलत अर्थमें प्रयोग करना
के सिंहासनपर अभिपिक्त हुआ। बौद्धग्रन्थों से प्रारंभ कर दिया। मनुस्मतिमें एक श्लोक है:
पता चलता है कि अशोकके राजा रहते हुएभी कितवान कृशीलवान कुरान पाषण्डस्थांश्च वास्तवमें शासनकी बागडोर यवराज सम्प्रतिके
___ मानवान। हाथमें थी। अशोकने एक बार भिक्षसंघको एक विकर्मस्थान शौण्डिकांश्च क्षिप्रं निवासयेत् लम्बी रकम दान की और उसे खजानेसे दे देनकी
पुरात् ॥ आज्ञा दी किन्तु युवराज सम्प्रतिने अमात्योंको ऐसा इसकी टीकामें कुल्लू कभटने लिखा है, पाषंड = करनेसे रोक दिया।' आगे उसी प्रसगकी कथासे अतिस्मतिबाह्यव्रतधारा। इसस हमारे उपरोक्त कथन यह भी विदित होता है कि अशोकके पीछे सम्प्रति को पुष्टि ही होती है। धर्ममहामात्र वे अमात्य होत ही पार्टीलपुत्रके मिहामन पर बैठा । भिक्षुसंघको थे जो धर्म-संबंधी कार्यों की देखरेख करते थे। दानको गई रकम न मिल सकनेके कारण अशोक पिछले कालमें इसी प्रकार के पुरोहित नामक अमात्य ने दुखी होकर मृत्यु समय सारी पृथ्वी भिक्षुसंघको की नियुक्त होने लगी थी। देवानपिय या देवानां- दान करदी । अशोकको मृत्यके बाद अमात्योंने प्रिय अशोककी उपाधि थी । यह उसके उत्तरा- दानकी शेष रकम भिक्षुमंघको चुकाकर उससे पृथ्वी धिकारी दशरथके लेखों में भी मिलती है। सिंहलका खरीदकर संप्रतिको सिंहासन पर बिठाया।' राजा तिघ्य भी देवानांप्रिय कहलाता था। एक जैन और बौद्ध दोनों ही अनुभूति सम्प्रतिको पाली व्याकरणमें ' क्व गतासि त्वं दवानीपय कुनालका पुत्र कहती है और दोनों के ही अनुसार तिस्स' प्रयोग भी मिलता है । इन सब उदाहरणोंसे कुनाल अपनी विमाताके छलसे युवराज अवस्थामें विदित होता है कि यह कोई असाधारण ही अंधा कर दिया गया था। जिससे उसका उपाधि थी जिसे साधारण राजे धारण नहीं कर सकते अभिषेक नहीं हा। जैन अनीति में सम्प्रतिको थे। लेकिन पीछेसे इसेभी निम्न अर्थमं प्रयुक्त किया राज्य मिलने के संबंधमें तीन मत है । एक तो यह कि जाने लगा। पाणिनिके एक सूत्र 'षष्ठ्या आक्रोशे" कुणाल ने प्रध अवस्थामें उसके लिये अपने पितामे पर कात्यायनने वार्तिक लिखा है 'दवानांप्रिय इति
१. तस्मिंश्च समये कुनालस्य संपदी नाम पुत्रो-युवराज्ये च मर्खे अन्यत्र देवप्रियः इति । इस गलत प्रयोगके । लिये भी श्रमणों और ब्राह्मणोंका पारस्परिक दुभाव
प्रवर्तते ....... | दिव्यावदान। .
तत्पत्रिः संपदी नाम लोभान्धस्तस्य शासनम् । ही जिम्मेदार है।
दानपुण्यप्रवृत्तस्य कोशाध्य औरवारयत् ॥ सप्तम स्तंभलेखको भाषा पाली और लिपि -क्षेमेन्द्र कृत अवदानकरूपलता। ब्राझी है। वह बुलर द्वारा एपिमाफिया इ डिफा २. अमात्यैः चतस्रः कोटयो भगवछासने दया पृथिवी जिल्द २ पृष्ठ २४५, हुल्श द्वारा कार्पस ईस्क्रप्सन्म निष्क्रीय संपदी राज्ये प्रतिष्ठापिता । दिव्यावदान ।
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किरण]
मौर्य साम्राज्य का संक्षिप्त इतिहास
३६६
राज्य मांगा और अशोकने उसकी प्रार्थना स्वीकृत यह ठीक नहीं है। जैन ग्रन्थोंसे विदित होता है कि कर सम्प्रतिको राज सौंप दिया। दूसरा मत यह है मंप्रति उज्जयिनी और पार्टीलपत्र पर एक साथ हो कि सम्प्रतिको जन्म लेते ही पितामह अशोकसे राज्य गज करता था और वह समूचे भारतका स्वामी मिल गया था और तीसरे मतके अनुसार उसे था। ऊपर हम यह भी देख आये हैं कि बौद्धग्रन्थ कुमारभक्ति में उज्जयिनीका राज्य मिला था। अस्त. पाटलिपुत्र में उसका अभिषिक्त होना कहते हैं। इतना तो निश्चयपूर्वक ज्ञात किया जा सकता है
मम्प्रति और जैनधर्म कि सम्प्रति प्रारंभसे ही युवराज था।
जैन श्राचार्य सुहस्तिने धर्मोपदेश देकर सम्प्रति हिन्द पुराणों का क्रम इससे भिन्न है और वह का जन बनाया। इमके बाद सम्प्रतिने जैनधर्मक जैन और बौद्ध ग्रन्थोंसे विपरीत है। वायु पुगण प्रचारके लिये वही और उतना ही कार्य किया कुनालको अशोकका उत्तराधिकारी कहता है और जितना अशोकने बौद्धधर्मके प्रचारके लिये किया कुनालक बेटे का नाम बन्धुपालित तथा बन्धुपालितक था। वह भी अशोकके समान धर्मविजयी राजा उत्तराधिकारीका नाम इन्द्रपालित बताता है। था। और उसने उत्तर पश्चिमके अनार्य देशों में विष्णुपुगणम अशोकके बाद सुयशका नाम है और प्रचारक भेजे तथा वहां जैन विहार स्थापित
और उसके राज्यके वष आठ कहे है जिन्हे अन्य कराय। इसी परंपराके अनुसार पीछे आचार्य पुराणों में कुनालके गज्यवर्ष कहा गया है। इसी
कालक वहो मंदश लेकर शकोंके बीच पहुंचे थे। पुगणमे सुयशक बाद अशोकके पाते दशरथका
मम्प्रतिन मैकड़ो स्मारक और मदिरोंका निर्माण गज्य कहा गया है और उसके बाद मम्प्रतिका।
कराया था। पटना मग्रहालयमें प्रविष्ट होते ही मत्स्यपुराणमें भी दशरथके बाद सम्प्रतिका नाम
बाएं ओर दर्शकोंको नग्न प्रतिमाका एक धड़ है । बौद्ध-डौतहास लेखक तारानाथ कुणालको
दिखाई देता है जो निश्चित ही किमी जैन तीर्थकर अशोकका उत्तराधिकारी और उनके बेटे को
की प्रतिमाका ण्डित भाग है। इस प्रतिमा पर विगताशोक लिखता है। स्वगीय डाक्टर काशीक वही कांच-जैमा चमकदार पालिस है जो प्रमाद जायसवाल ने पुराणोंक प्राधारपर अशोकक प्रियदर्शी गजा अशोकके स्तंभों तथा मौयकालीन पीछे कुणालका गज्य और उसके पीछे अशोक अन्य शिल्पा पर है। चूकि यह पालिस मौययुगदोनों पौत्रों, दशरथ और सम्प्रतिका क्रमशः गजा की अपनो विशेषता है-उसके साथ आई और होना स्वीकार किया है। पर वह जैन और बोद्ध उमौके साथ समाप्त होगई-इसलिये उक्त प्रतिमाअनुश्रनियोंके सवथा विपरीत पड़ता क्योंकि उनके खंडके मोयकालीन होनेमे कोई संदह नही रह अनुसार अशोकक बाद सीधा सम्प्रतिका राज्यकाल जाता है। यह प्रतिमा अशोकके शिल्पोंकी भांति श्रा जाता है । म्वीकृत गणनाके अनुमार अशोकका चूनारक पत्थरको है। उसपर आज भी चमकनेवाली मत्य २३२ ई० पू० में हुई और जैनगणना के अनु- यह पालिस काई मसालेकी पालिस नहीं है बल्कि मार वही संप्रतिके राज्याभिषेकका समय है। इस पत्थरका घोंटकर ही इतना चिकना और चमकदार प्रकार दोनों गणनाएं यहां आकर मिल जाती है।
बना दिया गया है कि वह आज भी कांच जैसा कुछ विद्वानोंका मत है कि अशोकके बाद चमकता है। उक्त प्रतिमाका क्रमांक ८०३८ हे और साम्राज्यक दो टुकड़े हो गए थे। दशरथपूर्वका राजा यह २ फुट २।। इच उची है। यह सन १९३७ में हुआ और सम्प्रति पश्चिमीयाने अवन्ती का । पर विहार प्रान्तके कुमराहर गांव से प्राप्त की गई थी।
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३७०
अनेकान्त
[वष १०
___ जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है, अशोकका पौत्र पश्चिम में यवनोंका जोर बढ़ने लगा। और इधर सम्प्रति जैनधर्मका अनन्य प्रचारक और महान् दक्षिणमें आंध्र और कलिंगक राजवंश शक्तिशाली निर्माता था। इसलिये यह प्रतिमा या तो स्वयं हो चूके। अशोकके समय मे दबी ब्राह्मणों की उसके द्वारा निर्माण कराई गई हागी अथवा उनके विद्रोह-भावनाको आग समय पाकर अब सुलग राज्यकालमे किसी अन्य व्यक्ति द्वारा निर्माण कराई उठी । अशोककी दण्डसमता, व्यवहारममता, गई होगी। इसप्रकार हम देखते है कि उक्त प्रतिमा ऊंच नीच का भेद हटाने, यज्ञ याग बंद कर देने भारतवर्षकी अब तक प्राप्त ममस्त मूर्तियोंमे प्राचीन- आदिकं कारण ब्राह्मणवादके समर्थक लोग रुष्ट तम है। इस प्रतिमाके साथ हा एक अन्य छोटी हो गए थे पर मुह न बोल पाते थे। अब साम्राज्यप्रतिमा भी पटना मंग्रहालयमे सुरक्षित है। उसपर की शक्ति शिथिल होते ही उन्होंने अवसर पाकर वैसी ही प्रोजदार ओप है इलिय वह भा प्रजा और सेना को वरगलाना प्रारंभ कर दिया। मौर्यकालीन है।
यह विद्रोह यहां तक बढ़ा कि ई० पू०१८ या १८५ सम्प्रतिके पीछे
में सेनापति पुष्यमित्रने अंतिम मौय सम्राट वृह
द्रथकी हत्या कर डालो और स्वयं साम्राज्यका सम्प्रतिके बाद मौर्य राजे विशेष प्रसिद्ध नहीं स्वामी बन बैठा। धार्मिक असहिष्णुताका यह रहे। दिव्यावदानमें सम्प्रतिका बेटा वृहस्पति, उदाहरण इतना अधिक गर्हगीय था कि पिछले उसका बेटा वृषसेन और उसका बेटा पुण्यधमा लेखक वाणने ऐसा करने वाले पुमित्रको घृणाकहा गया है। विष्णपुराण और वायुपुराणमे पूर्वक अनार्य और उसके इस कायका बलपूर्ण, शालिशकका नाम मिलता है और उसकी सत्ता नमकहरामा और स्वामिघास-जैसा महापाप कहा गार्गीसंहिताक युगपुराणसे भी सिद्ध होती है। है। वहां उसे राष्ट्रमर्दी और धर्मवादो किन्तु वास्तवमे [लेखकके अप्रकाशित ग्रन्थ 'जेन उत्कीणे लेग्व' अधार्मिक कहा गया है, क्योंकि वह श्रमणपर पराका की प्रस्तावनास । अनुयायी था।
१ प्रज्ञादुर्बलं च बलदशन-व्यपदेशदशिनाशेषसंन्य: __ क्रमशः साम्राज्य शिाथिल होने लगा। मुदृरके मेनानीरनार्या मीर्यवहदथं पिपेष पुप्पमित्र: प्रान्त साम्राज्यसे अलग होने लगे। उधर उत्तर- स्वामिनम्-याणकृत हर्षचरित ।
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सोनागिरकी वर्तमान भट्टारक गद्दीका इतिहास
(ले. श्री बालचन्द्र जैन, एम० ए०)
भट्टारक श्री विश्वभूषण भट्टारक श्री सुरेन्द्रभूपण भट्टारक श्री लक्ष्मीभूषण (इनके पदारूढ़ होनेका समय सं. १६३० भट्टारक श्री मुनोन्द्रभूषण
भधारक श्री मुनोन्द्रभूषणके तीन शिष्य थे। और प० भगवानदास । पं०त्रजलाल, प. जिनसागर और पं० देवसागर। भट्टारक श्री सरेन्द्रभूषणके बाद भट्टारक श्रो इनमेंसे पं० त्रजलालजी दीक्षित होकर आचार्य चन्दभषणजी गहीके अधिकारी बनाए गए । विजयकीतिके नामसे ख्यात हुए। उनके दो उपर उल्लिखित आचार्य विजयकीर्तिजी के शिष्य शिष्य थे। पं० भागीरथ और पं० परसुख । उन भागीरथजोके शिष्य प० हीरानंदजी हैं। इनके दोनोंके भी क्रमशः प. होरानन्द ओर ५० मेघराज शिष्य हए सात ५० प्यारेलाल, पं०छोटेलाल, पं. इस प्रकार दो शिष्य हुए।
लक्ष्मणदास, प. चतुर्भुज, पं. मदनमोहन, पं. महारक श्री मुनीन्द्र भूषण के दूसरे शिष्य प० सीताराम और प० परमानन्द । इनमेसे प० परमाजिननागर उनके पीछे गद्दोंपर बैठ और भट्ठारक श्री नन्द तथा प. प्यारेलाल श्राज्ञाभंग तथा अन्य जिनेन्द्रभूषणके नाम प्रसिद्ध हुए । तीसरे शिष्य अपराधोंके कारण पृथक किए गये। और 40 प'. देवसागर भट्टारक श्री जिनेन्द्रभूषणके चतुभुजजीको भट्टारक चारुचन्द्रभूषणके नामसे के बाद भट्टारक श्रो दवन्द्रभूपणके नामसे गद्दोपर गद्दोपर बिठाया गया। उनके शिष्य हुए तीन, पं० बैठे। उनके छह शिष्य थे, प० निहालचन्द पं० रूप विद्याधर ५० हरपेण और पं० भागचन्द्र । इनमें चन्द्र.40 नैनसम्ब, १० सरूपचन्द, पं० काकचन्द में पहरपेण भट्रारक हरेन्द्रभूषण के नामसे गद्दी
और पदवचन्द । इनमेंसे प नैनसख गह पर पाबैठ। उनके मात शिष्य थे। ५० नन्दकिशोर, बैठे और भट्टारक श्री नरेन्द्रभूषण के नाम से प्रसिद्ध मोतीलाल प० सरजमल, पं0 जानकीप्रसाद, हए । इन भट्टारक श्री नरेन्द्रभूषणक तीन शिष्य थे, चिरौंजालाल, प. चन्द्रदत्त और प० श्राछे१५० जवारजी, प. २ मोतीलालजी, और लाल । ५० अालाल तो श्राज्ञाभंगके दोषमे पहले मूलचन्द्रजो। ५ मृलचन्द्रजीके भी दो शिष्य थे, ही निकालदिए गए थे और 4 जानकीप्रसाद संवत् 4लालचन्द्र और प० देवचन्द्र । ५० मोतीलाल १८ मे भट्रारक श्री जिनेन्द्रभूषणके नाममे गद्दी जी नाबालिग थे अतः गद्दी कुछ ममय तक सुनो पर अभिषिक्त हुए। पर उनका स्वर्गचास होजाने रही। पीछे पछांहके ब्रह्मचारी खुशालचन्दको के कारण हरेन्द्रभूषणजी के अन्य शिष्य प. भट्टारक श्रीसरेन्द्रभूषण के नामसे उस गद्दीपर चन्द्रदत्त मंवत २००१ में भट्टारक चन्द्रभषणके अभिषिक्त किया गया। उनके तीन शिष्य हुए नामसे गद्दीपर बिठाये गये और वे आज भी उक्त प मल्लजी. प. पूजाजी और प० बालचन्द्रजी। गहीके अधिकारी हैं। इसमेंसे बालचन्द्रजोके दो शिष्य हुए पं० मोहनलाल
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चेकोस्लोकोकिया
(ले० बा० माईदयाल जैन बी. ए., बी. टो.)
मध्य यरुपमें चैकोस्लोवेकिया एक छोटा सा ओंमें हो न रहनी चाहिये, बल्कि उनके द्वाग माधास्वतंत्र राज्य है जिसकी जनसंख्या कोई एक करोड़. रण जनतामे सौन्दर्य-प्रम और सुरुचि फैलाई जानी के लगभग है। भारतवर्ष उम देशके राजदूता. चाहिये। वासकी तरफसे क्वीन्सवे, नई दिल्लीमे एक
इम सांग्कृतिक समारोहको देखनेकी हमारी मांस्कृतिक समारोह २६ फरवरी सन् १९५० से बडी इच्छा थी और समारोहक अंतिदिन ५ माचे ५ मार्च तक हुआ। इसका उद्घाटन भारतकी को सायंकाल उस देखने गये। वहां दो बड़े कमरों म्वास्थ्यमंत्रिणी माननीया श्रीमती अमृतकौरने किया। में कोह पौन चारमौक लग-मग चित्र, फोटो, पुस्तके आपने अपने संक्षिप्त पर सारगभित व्याख्यानम मितिपत्र, पोस्टर, पत्रिकाए', खिलौने, कांच और कहा कि हम भारत-वासियोंको चेकोस्लोवेकियाकी सस्कृतिसे बहुत कुछ सीखना है। यद्यपि चेको
चीनीकी वस्तुए और बढ़िया कपड़े के नमूने रखे
। चित्रांमे बड़े बड़े कला-विशारदाकी कृतियास स्लोवेकिया एक छोटासा तरुण देश है, तो भी वहां- लेकर स्कूलांक विद्याथियों तककी चित्रकारोक के निवासो यूरूपके अत्यन्त सभ्य और संस्कृत
_ नमूने थे। पुस्तकोंमें भगवद्गीता, शकतला, वेदों जातियोंमेसे है। आपने आगे कहा कि चेकोस्लोव
की ऋचाओं और स्व० रवीन्द्रनाथ की गीतांजलिकिया और भारतको संस्कृतियों और कलाओंमे
के चेक भाषामे अनुवाद उल्लेग्वनीय थे। बहुत समानता है, और संसारमें बहुत कम ऐसे देश है जहां भारतीय विचार-धाराओं और साहित्य समारोहकी एक महिला प्रबधक श्रीमती पकोसीका इतना अध्ययन होता है, जितना कि चेकोस्लोवे- म बात चीत करने पर चकास्लोवकियाक बारेमें कियामें । श्रीमती अमृतकौरने कहा कि यद्धसं बहुत सो दिलचस्प बातें मालूम हुई। उन्होंने बताया पीड़ित संसारमें संकृति हो ऐसी वस्तु है, जो लोगों कि चेकास्लावकियामें लिखनपढ़नकी आयुका का आपसमें मिलाने, उनमें सद्भावना और प्रेम पैदा कोई भी पुरुष स्त्री, लड़का लड़की अशिक्षित नहीं है करने. और मेल-जोल बढ़ाने का काम करती है। और वहां प्राइमरी शिक्षा ही नहीं कालेज तककी शिक्षा
चेकोस्लोवेकिया के राजदूतने अतिथियों मुफ्त है। उन्होंने यह बात भी बताई कि उनके देशस्वागत करते हुए कहा कि भारतीय चित्रों और की राजधानीमें नौ ऐसे विद्यालय हैं जहां पर पूर्वी साहित्य में चेक लोगों की बड़ी रुचि रहती है और भाषाओंकी शिक्षाका प्रबन्ध है और वहां संस्कृत, सैकड़ों चक विद्यार्थी कोई न कोई भारतीय भाषा बंगला, हिन्दी आदि का अच्छा प्रबन्ध है। चेकोस्लोहर वर्ष पढ़ते हैं और चेकोस्लोवेकिया की राजधानी वेकियाके गांव साफ सुथरे होते हैं और वहांकी प्रेग में कोई ही ऐसा सप्ताह बीतता होगा जब कि गाये खूब दूध देती है। वहां जनताका राज है। भारतके सम्बन्धमें कोई व्याख्यान न होता हो। आपने बड़ी शिष्टता और सौजन्यके साथ समारोहआपने इस बात पर जोर दिया कि ललित वलाओं
में अपने देश और चेक जातिक बार में बहुत सी का जन साधारण में प्रचार करना चाहिये। आपने बात बताई। सचमुच हम भारतवमी इस देशसे बताया कि ललित कलाएं चंद महलों व मदनशाला- बहुत कछ सीख सकते हैं।
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हिन्दी जैन साहित्यके कुछ अज्ञात कवि
(ले०-ज्योतिप्रसाद जैन, एम० ए० एल एन० बी०, लखनऊ) प्रस्तुत शीर्षकके अन्तर्गत हिन्दीके कुछ ऐसे १० रविवारकी लिखी हुई है किन्तु उसमें लिपि सं० प्राचीन जैन सहित्यकारोंका परिचय करना इष्ट है मिटगया है पर इन्ही जुगीमलकृत अन्य दोप्रन्थोंकी जिनका कि कोई उल्लेख न पं. नाथूगम जी प्रेमीके प्रतिलिपि में एकका संवत १९०६ है और दूसरीका हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास में हुआ है और १६१४ । अतः इस प्रतिनिपिका संवत भी लगभग न बा. कामताप्रसादजीक हिन्दी जैनसाहित्यका यही होना चाहिये। इस प्रन्धकी एक प्रतिलिपि सं. संक्षिप्त इतिहासमे । तथा जहाँ तक मझे ज्ञान है १६१५ की लिखी हुई पंचायती मंदिर देहली के प्रन्थ प्रायः अन्य में भी अभी तक उनपर कोई प्रकाश भंडारमें भी है (अनेकान्त व०४, कि० १०पृ०५६५ नहीं पड़ पाया है। हिन्दी साहित्य के माधुनिक पथके अन्तमें दी हुई प्रशस्तिमें कविने अपना इतिहासकारोंके मतानुसार सं० ११२० (सन १८६३ परिचय इस प्रकार दिया है-हाडा राजपूतोंकी ई.) के पूर्वका काल हिन्दीका प्राचीन युग माना राजधानी दी नगरमें उस समय राजा बुधसिंहका जाता है और उसके बादका काल आधुनिक युग राज्य था। उस भव्य नगरमें मलसंघ सरस्वती कहलाता है। अतएव प्राचीन सहित्यकारोंसे अभि गच्छ की कुन्दकुन्द थाम्नाय में भट्रारक जगतकीति प्राय सं० १९२० के पर्व होने वाले कवियों और पट्टामीन थे। नगरमें पंडित धादिका, श्रावक श्राविका लेखकों आदिसे है।
आदिका बड़ा ममूह था । वहाँके पार्श्वनाथ
चैत्यालय में पं०तुलसीदास नित्यप्रति शास्त्र प्रवचन १. कवि दौलतराम पाटनी
करते थे और सबही साधर्मियों को निरन्तर धर्ममें ये दौलतराम अनेक गदा वनिकाओंके रचयिता रद करते रहते थे। उस नगरमें एक माह जयपुर (बसवा)निवासी पं० दौलतराम काशलीवाल भामाघर हो गये थे जिनके पुत्र धनपाल थे। (सं० १७७७-१८२६) तथा छहढाला और अनेक धनपालके पुत्र चतुर्भुन थे। इन चतुर्भुज के ही पुत्र अध्यात्मरस-पूरित पद विनतियों के रचयिता कवि दौलतराम थे । कविने अपने दो पुत्रों-हरदैसासनो निवासो पल्लीवाल जातीय त्यागी बाबा राम और सदारामका भी नामोल्लेख किया है। दौलतराम दोनों ही विद्वानों से भिन्न और पूर्ववर्ती इनकी जाति खंडेलवाल थी और गोत्र पाटनी था। विद्वान थे । इन्होंने अपने विधान-रासोको बृदी गढ़में उस समय अनेक धमात्मा धर्मचर्चा रचना संवत .७६७ आमौज शुक्ल दशमी वार करते थे, अच्छी शैली थी जिसमें कवि और उनके गुरुवार के दिन बेदी नगरमें की थी। यह रचना पत्र भी अच्छा भाग लेते थे।" इन दौलतरा अठाई रासा छदाम है और इसकी टेक है- कोई अन्य प्रन्थभी रचा है या नहीं. यह बात नहीं. "तो वरन करो भवि जैनका" कुल छन्द २८१ हैं दीके हाहावीर बुद्धसिंह रावल भनिरुद्धसिंह
और लेबन संख्या ८५ है। लखनऊ चौकक के पत्र थे और सन् १७०६ (सं० १७६३) में गदी पंचायती मदिरक भडारकी प्रति नवाबगंज निवासी पर बैठे थे। औरङ्गजबकी मृत्युके बाद सन् १.०८ जुग्गीमल श्रावक पल्लीवाल द्वारा भादों बदि में लड़े जाने वाले जाजम उके उत्तराधिकार युद्धमे
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अनेकान्त
बुद्ध सिंहने और बके ज्येष्ठ पुत्र मुअज्जम ( बहादुरशाह) का पक्ष लिया और उस युद्ध में बहाहुरशाहकी विजय प्राप्ति तथा दिल्ली सिंहासन पर अधिकार करनेमें हाड़ा वीर बुद्धसिंह ही प्रधान कारण हुए थे, अत एव नये सम्राटने इन्हें 'राम्रो राजा' की उपाधि से विभूषित किया। बहादुरशाह की मृत्यु के पश्चात फरुखसियर के राज्यकाल में मुगल
के शासन सूत्र के प्रधान संचालक सैयद भाई हो गये। मुगल सम्राट के ये मन्त्रीद्वय बुद्धसिंहसे रुष्ट हो गये. उधर जयपुर नरेश सवाई जयसिंह से भी उनका वैमनस्य हो गया । अस्तु. बूंदीपर कराया आक्रमण हुआ और सन् १७२३ (मं० १७८०) में बुद्ध सिंह हाथसे उनका राज्य और राजधानी निकल गये । बुद्धसिंह सन् १७३८ तक जीवत रहे और बूंदी को पुनः प्राप्त करनेके लिये उन्होंने अनेक बार प्रयत्न किये किन्तु सफल नहीं हो सके। उनकी मृत्यु के उपरान्त उनके पुत्र उम्मेदसिंहका फिर से बूंदी पर अधिकार हुआ ।
कवि काशीदास रचित -
''भाषा सम्यक्त्व कौमुदी' चौपाई बंधकी एक प्रति लखनऊ चौक, चूड़ीवाली गली के दि० जैन पंचायती मंदिर के भंडार में है । इसकी पत्र संख्या ११८ और श्लोक संख्या ४३३६ है, रचनाकाल संवत् १७-२ और लिपि संवत् १६०४ है । ग्रन्थारंभ में 'श्रीगणे शायनमः' पदलिपिकार भवानीप्रसाद त्रिपाठोकीकृति प्रतीत होती है । ग्रन्थका आरम्भ इसप्रकार होता है:"श्री गणेशायनमः, श्री जिनाय नमः । अथ भाषासम्यक्त कौमुदी लिप्यते
ॐकार बिंद संयुक्ता नित्यं धायंति योगिना वर्द्धमान जिन बंदों पांय, पितासिद्धारथ त्रिशला माय । कनक शरीर शोभै प्रभुणों, सिंघलछनकर सोभाव ।। प्रन्थ के मध्यभाग स रचना का उदाहरण इस प्रकार है-
'जंबूदीप है अति अभिराम,
"
[ वर्ष १०
विस्तर योजन लाष सुठाम । पट पर्वत तामहि अति चंग,
रया खचित अति श्रंग उतंग | तामहि भरत घेत अतिसार,
षट बंड मंडित है अतिसार । गंगा सागर बह दुकूल,
विजे नामि करि विहज्यो मूल 1 तामह मगध देश विसतार,
पुण्य तीरथ करि सोधै सार । गंग यमन करि सोभित सोइ,
सब विधि पावन कोने नोइ ।” ग्रन्थ के अन्त में कवि ने जो प्रशस्ति दी है उसमें अपar at saar नामोल्लेख ही किया है किन्तु अपने आश्रयदाता और प्रेरक जगतरामजी का पर्याप्त परिचय दे दिया है, यथा
गुरु गुण सील प्रसाद जान,
भई कथा यह सब परवान । जगतराय हित कविता करी,
रवि ज्यों भूमंडल तिगे । अग्रवाल है उत्तम ग्याति,
सिंघल गोत जगत विष्यात माईदाल मही में जानिये,
तातिय कमला सम मानिये । तांत अति सुन्दर वरवीर,
उपजे दाऊ गुण सायर धीर । दाता भुगता दीन दयाल,
श्री जिनधर्म सदा प्रतिपाल । रामचंद नंदलाल प्रवीन,
सब गुण ग्वायक समकित लीन । सद्दिर गुद्दाणा वासी जोइ,
पाणीपंथ आई सोइ | रामचंद सुत जगत अनूप,
जगतराय गुण ग्यायक भूप । तिन यह कथा ज्ञान के काज,
वरण आठौं ममकित साज |
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किरण १.]
हिन्दी जैन साहित्य के कुछ अज्ञात कवि
इनके पितामहका नाम माईदाम था जो गुहानेके जगतराय सुत अति निपुण,
निवासी थे। माईकासके दो गुणवान धर्मात्मा पुत्र टेक चन्द सुषरासि ।
रामचन्द्र भोर नन्दलाल थे जो गुहाना छोड़ पानीपत गंग यमुन ज्यों घिर सदा,
में आ बसे थे। इन रामचन्द्र के पुत्र राजा जगतराय कहि कवि कासीदास ॥
थे । जगतरायके पुत्र टेकचन्द थे। राजा जगतराय विक्रमकि संबन ते जानि,
अपने कुटम्ब सहित प्रागरे में रहने लगे प्रतीत ___ सत्रह सै वाईस बषान । होते है और ऐसा जान पड़ता है कि वे औरंगजेब माधव माम उजियारो सही,
के दबार मे किमी उच्च पद पर प्रतिष्ठित थे । कविने तिथि तरसि भू मुत मी लहा। जगतरायका जो प्रशंसा की है और उनके पुत्र टेकता दिन ग्रन्थ संपूरण भयो,
चन्दको भी जो आशीर्वाद दिया है, उससे विदित समति ज्ञान मकज तरु बयो। होता है कि कवि काशीदास राजा जगतरायके
आश्रित थे। उस समय अनेक कवि विभिन्न राजा साहि जहां अवनीति भूप,
रईमों और सदारोंके आश्रयमें रहते थे, उनकी प्रेरणा विद्यमान विधि कृत गत रूप । पर प्रथ रचना करते थे। यह भी सम्भव है कि तासुत औरग माहि सुजान,
काशीदास टेकचन्दके शिक्षक भी हों और पिता पुत्र विजयराज भवति बलवान। के ज्ञानार्श उनकी प्रेरणा पर इन्होंने इस प्रन्थकी तासु प्रसाद भई यह मही,
रचना की हो। बादशाह शाहजहांके सम्बन्धमे इति मीनि कोई व्यापी नहीं। कविन जो सरु लेख किया है कि "विद्यमान विधिकृत महर आग मे जु यह कथा भासषपान । गत रूप" वह बड़ा महत्वपूर्ण है। सन् १६५८ में
जगतराय हित जय करी, बढ़। ज़ श्रायक ल्यान ।। और गजेब अपने भाइयोंकी हत्या करके और अपने मर्माकत ज्ञान समाज को यह कांप गुणपानि पिता शाहजहांको आगरके किलेमे बन्दी बनाकर कासी कविता यो कहै पढ़ते बढ़े जु ज्ञान ॥ दिल्लीके सिंहासन पर बैठा था। ग्रन्थकी रचनाके
इति श्रीमन्महाराज श्रीजगागय जी विस्था समय सं० १७.२ (सन् १६६५ ई.) में शाहजहां तायां सम्यक्त-कौमुदी-कथायां अधम कथानकम् जीवित तो था किन्तु भाग्यने उसे जिस परिवर्तित सम्पूर्ण"
दशामें अर्थात् स्वयं अपने ही पुत्रके हाथों बन्दी उपरोक्त प्रशस्तिम विदित होता है कि इम जीविनमे ला रक्खा था उसी अवस्था में था। वस्तुतः रचयिता कोई कवि कासीदास है जिन्होंने संवत् शाहजहांकी मृत्यु इस ग्रन्थकी रचनाके ८-६ मास १७२२ चैत्र शुक्ल त्रयोदशी शनिवारके दिन आगरा पश्चात्, जनवरी सन १६६६ मे हुई थी। 'विजयराज नगरमें यह प्रन्थ पूर्ण किया था। इस ग्रन्थ की भपति बलवान' शब्द औरङ्गजेबके लिये उपयुक्त ही रचना कविने जगनगय नामक किसी राज्य- है। मान्य सज्जन के लिए की थी जो कि संभवतया, खंद है कि ग्रन्थकत्ताने अपने आश्रयदाताका गजा' की उपाधिसे विभूषित थे । जनतराय के लिये तो परिचय दिया किन्तु अपना कुछ भी परिचय प्रशस्ति में 'भूप' शब्दका तथा पुष्पिकामे 'श्रीमन्म- नहीं दिया, बल्कि सरसरी दृष्टिसे देखने पर तो यह हाराज' पदका प्रयाग यही सूचित करता है। भी भ्रम हो सकता है कि इसक रचयिता जगतराय जगतरायकी जाति अग्रवाल और गोत्र सिहल था। ही होंगे। किन्तु कविका स्वयंका दो बार स्पष्ट नामो
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अनेकान्त
[वर्षे १०
उल्लेख, प्रशस्तिके अन्तमें आश्रयदाता जगतरायकी यदि ये जगतराय कवि काशीदासके आश्रय जय मनाना और कल्याण-कामना करना तथा दाता राजा जगतरायसे भिन्न कोई अन्य तत्कालीन पुष्पिकामें भी जगतरायके प्रसङ्ग से 'विरचितायां' विद्वान नहीं हैं, तो हो सकता है कि ये दोनों 'सभ्यपदका प्रयोग करना इस बातको निर्विवाद सूचित क्त्व कौमदी' एकहीहों और जंसा ऊपर संकेत किया करता है कि जगतरायने इस प्रन्थको रचा नहीं, था गया है जगतरायके भ्रममे उसका कत्तो समझ रचवाया था और इसके कर्ता कवि काशीदास लिया गया है। यदि यह बात ठोक सिद्ध हाती है थे जिनकी वृत्ति भी कविता करना ही था। तो उक्त पद्मनन्दि पच्चोसो और पागम विलासभी
बा. कामताप्रसादने अपने हिसा . के सभवतया जगतरायकृत न होकर काशीदास अथवा संक्षिप्त इतिहास' पृ० १७. पर किन्हीं जगतराय .
जगतरामके किसी अन्य (राम या रामदास नामक) अथवा जगतराम द्वारा सं० १७.१ में पद्यनन्दि आश्रित कविकी रचनाएं हो सकती हैं। पच्चीसी छन्दबद्ध रची जानेका उल्लेख किया है। उपरोक्त काशोदासकृत सम्यक्त्वकौमुदीकी लखभागमविलास और सम्यक्त्व कौमुदी भी उन्हींकी नऊ वाली प्रति किसी भवानीप्रसाद त्रिपाठोने सं. रचनाए बताई हैं। किन्तु जो उनकी कविताके नमूने १६०४ आषाढ़ शुक्न १५ भौमवारको देहलीके का पद दिया है उसमें कविकी छाप 'राम' अथवा अन्तर्गत हिसार पट्ट पर प्रतिष्ठित काष्ठासंघ माथुर. 'रामदास' रूपमें है, यथा
गच्छके किसो भट्टारक जी के आदेशसे लिखकर 'रामदास प्रभु जहां मागत हैं, मुक्ति सिखरको राज समाप्त की थी।
जमनानगर में मन्दिर को अनिवार्य आवश्यकता। श्री १०५ चल्लक स्वामी निजानन्दजी महाराज चलता रहेगा। अब ऊपरको मंजिल में मन्दिर व भगत सुमेरचन्द जी वणी पब्जाबका दौरा करते बनाना बाको है। जो दानी सज्जन इस इस पुण्य हुए जमनानगर भी पधारे थे वहां की परिस्थत कार्य में सहयोग देना चाहें वे सेक्रेटरी श्री महावीर देखकर अपने विचार प्रगट किए हैं कि जमनानगर दिगम्बर जैन मन्दिर अब्दुल्लापुर, जिला अम्बाला (अब्दुल्लापुर जिला अम्बाला) की जनसमाज को भेज सकते है। नितप्रति देवदर्शन करनेको लालायित है परन्तु यह स्थान ३० पी० रेलवे य. पी. व पंजाब धनके अभावके कारण मन्दिर का काम अधूग की सरहद पर स्थित है इसके अतिरिक्त यहांपर पड़ा हुआ है। जिसके लिए बीस हजार की जमीन शुगर मिल्ज, घीका मिल, कागज की मिले, लकड़ी लाला पन्नालालजी सुन्दरलालजी जैन सुपुत्र लाला की बड़ी मन्डी व बर्तनों के कारखानों के कारण बलदेवदासजी जगाधरी वालों ने दान कर दी थी बाहर मे साधमो बन्धु भगवत् दर्शनसे वंचित रहते जिसमें नीचे की मंजिल में नौ दुकानें भी उक्त हैं इसलिए इस कार्यकी पूर्ति शीघ्र ही हानेकी महानुभावों की तरफसे बन कर तैयार हो चुकी है। परम आवश्यकता है। उनके किराए की भामदनीसे एक जैन पाठशाला
दयासिन्धु भगत जयचन्द और मन्दिर जी में पूजा प्रक्षाल का खचे बराबर
सहारनपुर
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महाकवि रइध
( लेखक-पं० परमानन्द जैन, शास्त्री ) महाकवि रइधू विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दीक रत्त- तन विद्वान होनेका स्पष्ट आभास मिलता है और रार्धक विद्वान थे। आप जैन मिद्धान्तक ममेज्ञ विद्वान उनकी चमकती हुई प्रतिभाका सहजही पता चले होने के साथ साथ पुराण साहित्यके अच्छे पंडित
जाता है । साथ ही उनके द्वारा निर्मित प्रन्थराशिका थे। प्राकृत तथा संस्कृतके समान अपभ्रशभाषा पर
देखने तथा अध्ययन करनेमे कविवरकी विद्वत्ता आपका अच्छा अधिकार था। इस भाषामे आपकी और उनकी काव्य-प्रभाका भी यथेष्ट परिचय मिल डेढ़ दर्जन से भी अधिक कृतियाँ आज उपलब्ध जाता है। ग्रन्थकारने यद्यपि अपना कोई खाम है जो यत्र तत्र ज्ञान भंडारामे सुरक्षित है। उन्हें परिचय देनेकी कृपा नहीं की, और न जीवन सम्बदेखनेमे पता चलता है कि वे कितनी जल्दी न्धी खास घटनाआका उल्लेख ही किया है, जिससे अपभ्रशभाषामें कविता कर सकते थे। कविता उनक बाल्य जीवन, शिक्षा, शिक्षागुरु और गुरुमरल तो है ही पर मरमता और मधुरतामे कम परम्परा आदिक सम्बन्धमें विशेष प्रकाश डाला नहीं है। पदलालित्य भी कम देखनमें नहीं पाता जाता, परन्तु ग्रन्थ प्रशस्तियोंम जा कुछ भी संक्षिप्त भावोंकी अभिव्यंजकता तो उदात्त एवं निष्कपट है परिचय अंकित मिलता है उन्हीं परस सारमपमे
और आपकी भाषामें हिन्दी भाषाके विकासको कुछ परिचय नीचे दिया जाता है:झांकीका अपूर्व दर्शन होता है। अस्तु, कविकी
वंश-परिचय उपलब्ध रचनाओंम संस्कृत भाषाकी कोई स्वतंत्र कविवर रइधू संघाधिप देवगयक पौत्र और रचना समुपलब्ध नहीं हुई और न उसके रच जाने हरिसिंघके पुत्र थे, जो विद्वानोंको आनन्ददायक थे। का कोई स्पष्ट मंकत ही मिलता है, परन्तु फिर भी और माताका नाम विजयसिरि' 'विजयश्री' था, जो उनके प्रथोंकी संधियोंमे, ग्रंथानमाणम प्रेरक रूपलावण्यादि गुणोंमे अलंकृत होते हुए भी शील भव्यभावकोंक परिचयात्मक और आशीवादात्मक संयमादि मद्गुणांम विभूषित थी। कविवरकी कितने ही संस्कृत पद्य पाये जाते है जिनमे ग्रन्थ
जाति पद्मावती पुरवाल थी और कविवर उक्त निर्माणम प्ररक उन भव्यांके लिये मंगल कामना
पद्मावती कुलरूपी कमलोंको विकसित करने वाले की गई है । उन पद्यांपर दृष्टि डालनस उनक संस्कृत
दिवाकर (सूर्य) थे जैमा कि 'सम्मइचग्जि' ग्रन्थ
की प्रशस्तिक निम्नवाक्योंसे प्रकट है:यः सत्यं वदति वतानि कुरुते शारु पठत्यादरात्,
पोमावद कुल कमल-दिवायक, मोहं मुञ्चति गच्छति स्वममयं धत्ते निरीह पदं ।
हरिसिंघ बुहयण कुल श्राणंदणु । पापं लुम्पति पाति जीवनिवहं ध्यानं समालम्वत,
जस्म धरिज रइच बुह जायउ, मोऽयं नन्दनु माधुरेव हरसी पुष्णाति धर्म सदा ।।
देव-सत्य-गुरु-पय-अणुगयउ ।। -सिद्धचक विधि (श्रीपालचरित)सधि . कविवरन अपने कुल का परिचय 'पोमावहकुल' यः सिद्धान्तरसायनैकरसिका भक्तो मुनीनां सदा, और पोमावइ 'पुरवाडम' जैसे वाक्यांद्वारा ढानेच चतुविधेन विधिना सघस्य संपोषकः । कगया है । जिसमें वे पद्मावती पुरवाल नामक कुलमें जानात्येव विशुद्धनिर्मलमतिदेहात्मनार तरं,
समुत्पन्न हुए थे। जैन समाज में चोरामी उपमो श्री नन्दतु नंदनैः सममहो सेमाख्यसाधुः क्षिती । जातियों के अस्तित्वका उल्लेख मिलता है उनमे
-पार्षपुराण संधि कितनी ही जातियों का अस्तित्व आज नहीं मिलता;
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3७८
अनेकान्त
[वष १०
किन्तु इन चौरासी जातियोंमे ऐसी कितनी ही उप. पूज्यपाद । देवनन्दी ) को पद्मावती पुरवाल जातियां अथवा वंश है जो पहले कभी बहुत कुछ लिखा है, परन्तु प्राचीन ऐतिहामिक प्रमागम समृद्ध और सम्पन्न रहे है। किन्तु आज वे उतन उनका पद्मावतो-पुरवाल होना प्रमागिन नहीं ममृद्ध एव वैभवसम्पन्न नहीं दीखते, और कितने होता, कारण कि देवनन्दी ब्राह्मण कुल में समुत्पन्न ही वंश एवं जातियां प्राचीन समय में गौरवशाली हुए थे। रहे हैं किन्तु आज उक्त संख्यामे उनका उल्लेख भी जाति और गोत्रोंका अधिकांश निकास अथवा शामिल नहीं है। जैसे धर्कट १ आदि । निमोण गांव, नगर और देश आदिक नामों परम
इन चौरामी जातियोंम पद्मावतीपुरवाल भी एक हुअा है। उदाहरगा के लिए मांभरके श्राम-पामक उपजाति है, जो आगरा, मैनपुरी, एटा, ग्वालियर बघेग स्थानसे बघरवाल, पालोम पल्लीवाल
आदि स्थानों में श्राबाद है. इसकी जनसंख्या भी वण्डेलासे खण्डेलवाल, अग्रोहामे अप्रवाल, कई हजार पाई जाती है। वर्तमानमे यह जाति जायम अथवा जैमसे जैमवाल और ओमासे बहत कुछ पिछड़ो हई है तो भी इसमें कई प्रतिष्ठित श्रीमवाल जातिका निकाम हा है। तथा चंदेरी विद्वान है। आज भी समाज मेवाके कायमे लगे के निवासी होनस चन्दैरिया, चन्दवाडस चान्दुहा है। यद्यपि इस जातिके विद्वान अपना उदय वाड या चांदवाड और पद्मावती नगरीये पद्मावब्राह्मणाम बतलात है और अपनका दवनन्दी तिया आदि गोत्रों एव भरका उदय हैंा है। इसी (पज्यपाद) का सन्तानीय भी प्रकट करत है, परन्तु तरह अन्य कितनी ही जातियांक मम्बन्धी प्राचीन इतिहामस उनकी यह कल्पना कबल कल्पित हा लेखां, ताम्रपत्रों, मिक्को, ग्रन्थ प्रशस्तिया ओर जान पड़ती है। इसके दो कारण है। एक तो यह
ग्रन्थों आदि परस उनक इतिवृत्तका पता लगाया कि उपजातियोंका इतिवृत्त अभी अन्धकार में है जो
जा सकता है। कुछ प्रकाशमें आ पाया है उसके आधारम उमका
उक्त कविवाक प्रन्याम उल्लिग्वित 'पामावइ' अस्तित्व विक्रमकी दशमी शताब्दीमे पूर्वका ज्ञात
शब्द स्वयं पद्मावती नामकी नगरी का वाचक है। नहीं होता, हो सकता कि वे उससे भी पूर्ववर्ती रहा
यह नगरी पूर्व समयमे खूब समृद्ध थी उसकी इस हो, परन्तु बिना किसी प्रामाणिक अनुसन्धानक इम
समृद्धिका उल्लेख ग्बजुराहोकं वि० सं० १०५२ क मम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा मकता।
शिलालेखमे पाया जाता है, जिसमें यह बतलाया पट्टावली वाला दूसरा कारण भी प्रामाणिक
गया है कि ये नगरी ऊचे-ऊच गगनचुम्बी भवनों प्रतीत नहीं होता, क्योंकि पदावलीम श्राचार्य
एवं मकानातोंसे सुशोभित थी, जिसकं राजमार्गों 1. यह जाति जैन समाजम गौरव-शालिनी रही है। मे बड़े बड़े तेज तुरंग दौड़त थे और जिसकी इसमें अनेक प्रतिष्ठित श्रीसम्पन्न श्रावक और विद्वान चमकती हुई स्वच्छ एवं शुभ्र दीवार श्राकाशसं हुप है जिनकी कृतियां आजभी अपने अस्तित्वस भूतल बातें करती थी। जैसाकि उक्त लेखक निम्न पद्योंस को पमलंकृत कर रही हैं। भविष्य दत्त कयाक कर्ता प्रकट है:बुध धनपाल और धर्म परीक्षाके कर्ता बुध हरिषेणने भी सोधुत्तंग पतग लंघन पथ प्रोगमालाकुला अपने जन्मसे 'धर्कट वश को पावन पिया है। हरिषेण शुभाभ्र कप पाण्डुरोच्च शिखरप्राकारचित्रा (म्ब) रा ने अपनी धर्मपरीक्षा वि० सं० १०४५ में बना कर प्रालेयाचचन शृगन्नि (नि) भशुभप्रासादसमावती ममाप्त की हे। धर्कट वंशक अनुयायी दिगम्बर श्वेताम्बर भण्यापूर्वमभूदपूर्वरचना या नाम पद्मावती ॥ दोनों ही सम्प्रदायोंमें रहे हैं।
स्वगत गतुरंगमोदगमधु (खु) रक्षोदादजः प्रो [] त,
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किरण १.]
महाकवि रइधू
यस्यां जीन(ण) कठोर बभु(स्त्र?)मकरो कर्मोदराभं नम.। के साथ पद्मावती पुरवालोंका सम्बन्ध जोड़नेका मत्तानेककराल कुम्भि करटप्रोस्कृष्टवृष्ट्या [द भु] व। प्रयत्न किया था । और पं० बखतराय के 'बुद्धितं कर्दम मुद्रिया क्षितितलं तांब. (ब)त किं मस्तुमः ॥ विलाम' के अनुमार सातवां भेद भी प्रकट किया
--Epigraphica Indira VLIP 149 है। हो सकता है कि इस जातिका कोई मम्बन्ध
इस समुल्लेग्व परमे पाठक महजही में पद्मावती परवारोंके माथ भी रहा हो; किन्तु पद्मावती नगरीके विशालताका अनुमान कर सकते हैं। पुरवालोंका निकाम परवारोंके मत्तममूर पद्माइम नगरीको नागराजाओंकी राजधानी बननका वतिया से हुआ हो, यह कल्पना जीको नहीं भी सोभाग्य प्राप्त हुआ था और पद्मावती काति- लगती और न किन्हीं प्राचीन प्रमाणोंसे उसका पुरी तथा मथुरामें नौ नागराजाओंके राज्य करने समथन हो होता है और न सभी 'पुरवाडवंश' का उल्लेख भी मिलता है।। पद्मावती नगरीक परवार ही कहे जा सकते हैं। क्योंकि पद्मावती नागराजाओंके सिक्के भी मालवेमे कई जगह पुरवालोंका निकास पद्मावती नगरीके नामपर हुआ मिले है । ग्यारहवीं शताब्दीम रचित 'सरम्वती है। परवारोंके सत्तममूरसे नहीं आज भी जो लोग कंठाभरण' में भी पद्मावती का वर्णन है और कलकत्ता और दहली आदिम दसरे शहरोमं चल मालती-माधवमे भी पद्मावतीका कथन पाया जान है उन्हे कलकतिया या कलकत्तवाला, दहलवी जाता है जिसे लेखवृद्धिक भयम छोड़ा जाता है. दिल्लीवाला कहा जाता है, ठीक उसी तरह परवारी परन्तु खेद है कि आज यह नगरी वहां अपने उम के सत्तममर 'पद्मावतिया की स्थिति है। रूपमे नहीं है किन्तु ग्वालियर राज्यमे उसके स्थान गांवके नाम परसे गोत्र कल्पना कैसे की जाती ‘पर 'पवाया' नामक एक छोटासा गाव बसा हा थी इसका एक उदाहरण पं. बनारसीदासजी है, जो कि दहलीम बम्बई जाने वाली रेल लाइन के अधकथानकसं ज्ञात होता है और वह इम पर 'देवा' नामक स्टेशनसे कुछ ही दर पर स्थित प्रकार है:-मध्य प्रदेशक रोहतकपुरके निकट है। यह पद्मावती नगरी ही पद्मावती जातिक
'बिहोली' नामका एक गांव था उसमे राजवंशो निकामका कारण है। इस टिम वर्तमान
राजपूत रहते थे; वे गुरु प्रसादसे जैनी हो गए और 'पवाया' ग्राम पद्मावती पुरवालोके लिए विशेष
उन्होंने अपना पापमय क्रिया-काण्ड छोड़ दिया महत्वकी वस्तु है। भले ही वहा पर प्राज
उन्होंने णमोकार मन्त्रको माला पहनी. उनका कुल पद्मावती पुरवालोंका निवाम न हो, किन्तु उसके
श्रीमाल कहलाया और गोत्र बिहोलिया रकमा आम पाम तो आज भी वहां पद्मावतीपुरवालो
गया। जैसाकि उसके निम्न पद्यांस प्रक्ट है:का निवास पाया जाता है। ऊपरके इन सब
याही भरत सुखेतमें, मध्यदेम शुभ ठांउ उल्लेखों परसे ग्राम नगदिक नामों पर उप
बमै नगर रोहतगपुर, निकट बिहोली-गाउ || ८ जातियांकी कल्पनाको पुष्टि मिलती है।
गांर बिहोलाम बमै, राजवस रजपूत ।
ते गुरुमुख जैनी भए, त्यागि करम अघभून ॥ ६ श्रद्धेय पं० नाथूरामजी प्रेमीन 'परवारजानिक - इनिहाम पर प्रकाश' नामके अपने लेखमें परवारों
१. दखो, अनेकान्त वर्ष ३ किरण . .
२. मात खाप परवार कहावै, तिनक तुमको नाम सुनाव । १. नवनागाः पद्मावत्यां कांतीपुर्वा मधुसयां, विष्णु पु. अठसत्रखा पुनि है चामक्खा, तेसस्वा पुनि है दोसक्स्वा । अंश... २४ ।
सोरठिया अरु गांगज जानी, पद्मावतिया मत्तम मानी ।। २. देखो, गजपूतानका इतिहास प्रथम जिल्ट पृ.२१.
-बुद्धिविलास
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३८.
अनेकान्त
[वर्ष १०
पहिरी माला मत्रकी, पायो कुल श्रीमाल। कि उक्त ग्रन्थकी प्रशस्तिक निम्नवाक्योंसे प्रकट है:-- थाप्यो गोत्र बिहालिया, बीहाली रखपाल ॥ १०॥ सिरिपोमावइपरवालवसु, यंदउ हरिसिंघु सघवी जासुसंसु
इसी तरह उपजातियां और उनके गोत्रादिका घत्ता-बाहोल माहणसिह चिरुणंदउ इह निर्माण हुआ है।
रहबू कवि तीयउ वि धरा । कविवर रइधू भट्टारकीय पं० थे और तात्का- मोलिक्य समाणठ कलगुण जाणउ लिक भट्टारकोंको वे अपना गुरु मानत थे, और
गंदउ महियाल सो वि परा भट्टारकोंके साथ उनका इधर उधर प्रवास भी यहां पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना हुआ है और उन्होंने कुछ स्थानामें कुछ समय चाहता हूँ कि मेघेश्वर चरित ( आदिपुगण ) की ठहरकर कई प्रन्थोंकी रचना भी की है, ऐसा सवत १८५१ की लिखी हुई एक प्रति नजीबाबाद उनकी प्रन्थ-प्रशस्तियोंपरसे जाना जाता है। वे जिला बिजनौरके शास्त्र-भंडारमें है जो बहुत ही प्रतिष्ठाचार्य भी थे और उन्होंने अनेक मूर्तियोंकी अशुद्ध रूपमे लिखी गई है जिसके काने अपनेको प्रतिष्ठा भी कराई थी। उनक द्वारा प्रतिष्ठित एक आचार्य सिंहसेन लिया है और उन्होंने अपने मृतिका मतिलेख आज भी प्राप्त है और जिससे को संघवीय हरिसिंघका पुत्र भी बतलाया है। यह मालूम होता है कि उन्होंने उसका प्रतिष्ठा सं० सिंहमनक मादि पुराणक उम उल्लेख पग्मे ही
४६७ मे ग्वालियरक शाम राता डगरसिंहके पं० नाथूरामजी प्रेमीने दशलक्षण जयमालाको राज्यमं कराई थी, वह मूति आदिनाथकी है। प्रस्तावनाम कवि रइधका परिचय कराते हुए
कविवर विवाहित थे या अविवाहित, इमका फटनोटमे श्री पंडित जुगाकशोरजी मुख्तारकी कोई स्पष्ट उल्लेख मेरे देखनमें नहीं पाया और न रइधूको लिहसेनका बड़ा भाई मानने की कल्पना कविने कहीं अपनेको बालब्रह्मचारी ही प्रकट किया को असंगत ठहराते हुए रइधू और मिहमेन को है इससे तो वे विवाहित मालूम होते हैं और जान एक ही व्यक्ति होनकी कल्पना की है। परन्तु पड़ता है कि वे गृहस्थ- पंडित थे; और उस समय प्रेमीजीकी भी यह कल्पना मंगत नहीं है, और व प्रतिष्ठित विद्वान गिन जात थे। ग्रन्ध-प्रणवनमें न रहध सिंहसेनका बड़ा भाई ही है किन्त रखध ना भेटम्बरूप धन या वस्त्राभूषण प्राप्त होत थे और सिंहसेन दोनों भिन्न भिन्न व्यक्ति हैं. सिंहसन वही उनकी आजीविकाका प्रधान आधार था।
अपनेको 'आरिय' प्रकट किया है जब कि बलभद्रचरित्र ( पद्मपुराण ) की अन्तिम रइधन अपनेको पंडित और कवि ही सूचित प्रशस्तिके १७वें कडवकके निम्नवाक्योंसे मालम किया है। उस आदिपुराण की प्रतिको देखने होता है कि उक्त कविवरके दो भाई और भी थे, और दूसरी प्रतियों के साथ मिलान करने से यह जिनका नाम बाहोल और माहणमिह था। जैसा सुनिश्चित जान पड़ता है कि उसके कर्ता कवि रइध
* संबत् १४६७ वर्ष बैसाख........ शके पुनर्वस ही है, मारे प्रन्थके केवल आदि अन्त प्रशस्तिमें नक्षत्रं श्रीगोपाचलदुर्गे महाराजाधिराज राजा श्रीडंग
ही कुछ परिवर्तन है। [डूंगरसिंहराज्य ] सवर्तमानो नि] श्रीकाष्ठासंघे माथूग
शेष ग्रन्थका कथा भाग ज्योंका त्यों है उसमें कोई न्वये पुष्करगणे भट्टारक श्रीगुण कीतिदेव तत्पद यश:
अन्तर नहीं, ऐसी स्थितिमे उक्त प्रादिपुराणके का कीर्तिदेव प्रतिष्ठाचार्य श्री पंडित र तेषां प्रामाये रइधू कवि ही प्रतीत होत है, सिहसेन नहीं। हॉ, अग्रोतवंशे गोयल गोत्रं साधु ......। देखो, ग्वालियर यह हो सकता है कि सिंहसेनाचार्यका कोई दूसरा गजिटियर जिल्द.
दखो, दशलपण की प्रस्तावना।
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किरण 10]
মাৰি ধু
३८.
ही ग्रन्थ रहा हो, पर उक्त ग्रन्थ 'सिंहसेनारिय' जिन चरिउ'की अन्तिम प्रशस्तिमें मुनि यश:का नहीं किन्तु रइधू कविकृत ही है। मम्मइ जिन कीर्तिक तीन शिष्योंका उल्लेख किया गया है चरिउकी प्रशस्तिमें रइधुने सिंहसेन नामक एक खेमचन्द, हरिषेण और ब्रह्म पाल्ह (ब्रह्म श्रीपाल)। मनिका और भी उल्लेख किया है और उन्हें गुरु उनमे उल्लिम्बित मुनि ब्रह्मपाल हो ब्रह्मश्रीपाल जान भी बतलाया है और उन्होंक वचनसे सम्मइ जिन पड़ते है। अबतक सभी विद्वानोंकी यह मान्यता चरिउकी रचना की गई है। घता
थी कि कविवर रइधू भट्टारक यशःकीर्तिके शिष्य "तं याणि वि गृरुणा गच्छहु गुरुणाइ सिंहसण मुणे । थे किन्तु इस समुल्लेख परसे वे यश-कीतिक न परुप ठिउ पडिउ सील अस्वं डिउ भणिउ तेणतंर्ताम्म खणि५ होकर प्रशिष्य जान पड़ते है।
कविवरन अपने ग्रन्थोंमें भट्टारक यशःकीति गुरु परम्परा
का खुला यशोगान किया है और मेवेश्वर चरितकी कविवरन अपने ग्रथांमे अपने गुरुका काई
प्रशस्तिमें तो उन्होंने भटारक यशःकीतिके प्रसाद परिचय नहीं दिया है और न उनका स्मरण ही
म विचक्षण होने का भी उल्लेख किया है। सम्मत्त किया है। हां, उनके ग्रंथोंमे तात्कालिक कुछ भट्टा
गुण णिहाण ग्रन्थमे मुनि यशःकोर्तिको तपस्वी रकों के नाम अवश्य पाये जाते है जिनका उन्होंन ।
भव्यरूपी कमलोंको संबोधन करनेवाला सूर्य, और श्रादर के माथ उल्लेख किया है । पद्मपुराण की
प्रवचन का व्याख्याता भी बतलाया है और उन्ही. आद्य प्रशस्तिक चतुर्थ कडवक की निम्न पंक्तियाम, प्रसादस अपनेको काव्य करने वाला और उक्त ग्रन्थके निर्माणमे प्रेरक माहू हरसी द्वारा जा पापमल का नाशक बतलाया है। जैसाकि उसके कवि र इधूक प्रति कहे गए है उनमें रइधको 'श्री
निम्न पद्योंसे स्पष्ट है:पाल ब्रह्म आचायक शिष्य रूपसं संबोधित किया गया है। साथ ही साहू सोढलके निमित्त 'नाम
__ तह पुणु सतष तावातवियंगो,
___ भग्व-कमल-स'बाह-पयंगो। पुराण' करच जान और अपन लिए रामचरितक
रिच्चो भासिय पवयण अगो, कहनकी प्रेरणा भी की गई है जिससे स्पष्ट मालूम
चंदिवि सिरि जसकिति असगो। होता है कि रइधृक गुरु ब्रह्म श्रीपाल थे, जो उस
तासु पसाए कम्नु पयासमि, ममय आचायके उपपदस विर्भापत थ व वाक्य
धासि वि हिउ कलिमल णिण्णामि ॥ इस प्रकार है:
इसके सिवाय यशो चरित्रमें भट्टारक कमलभी रहधू पडिउ गुण णिहाणु, पामावह वर घसहं पहाण ।
कीर्तिका भी गुरु नामसे स्मरण किया है। सिरिपाल बम थायरिय सीम, महु बयणु सुणहि भो
बुह गिरीस।
निवास स्थान और समकालीन राजा सोढल णिमित्त महु प्राण, घिरयउ उहं कह जण
कविवर रइधू कहाँके निवासी थे, और वह बिहिय माणु।
, मुणि जसकित्ति हु सिस्स गुणायरु, तं राम चरित धि महु भणेहि, लक्षण समेड इय मणि
खेमचंदु हरिसेणु तघायरु ।
मुणेहि । मणि पाल्ह बंभुए मदहु, प्रस्तुत ब्रह्म श्रीपाल कवि रइधू के गुरु जान
तिरिण घि पाषहु भारु णिकंदह । पड़ते है, जो भट्टारक यशःकीतिके शिष्य थे। सम्माइ
-सम्म चरिड प्रशस्ति,
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अनेकान्त
स्थान कहां है । और उन्होंने प्रन्थ-रचनाका यह महत्वपूर्ण कार्य किन राजाओंके राज्यकाल में किया है यह बात अवश्य विचारणीय है । यद्यपि कवि अपनी जन्मभूमि आदिका कोई परिचय नहीं दिया, जिससे उस सम्बन्ध में विचार किया जाता फिरभी उनके निवास स्थान आदिके सम्बन्धमें जो कुछ जानकारी प्राप्त हो सकी है उसे पाठकों की जानकारी के लिए नीचे दिया जाता है:
उक्त कविके ग्रन्थोंसे यह पता चलता है कि वं ग्वालियर में नेमिनाथ और वर्द्धमान जिनालय में रहते थे और कवित्तरूपी रसायन निविसे रसाल थे, ग्वालियर १५ वीं शताब्दी में खूब समृद्ध था, उस समय वहां पर देहलीके तोमर वंशका शासन चल रहा था । तोमर वंश बड़ा ही प्रतिष्ठित क्षत्रिय वंश रहा है और उसके शासन कालमें जैनधर्म को पनपने का बहुत कुछ आश्रय मिला है । जैन साहित्य में ग्वालियरका महत्वपूर्ण स्थान रहा है । उस समय तो वह एक विद्याका केन्द्र ही बना हुआ था, वहां की मूर्तिकला और पुरातत्वकी कलापूर्ण सामग्री आज भी दर्शकोंके चित्तको अपनी ओर आकर्षित करती हैं ' उसके समवलोकनम ग्वालियरकी महत्ताका सहज ही भान हो जाता है | कविवरने स्वयं सम्यक्त्व-गुण-निधान नामक ग्रन्थ की आद्य प्रशस्ति में ग्वालियरका वर्णन करते हुए वहांके तत्कालीन श्रावकोंकी चर्याका जो उल्लेख किया है उसे बतौर उदाहरण के नीचे दिया जाता है:
तहुरजिन महायण बहुधा,
३८२
गुरु-देव-सत्थ विषयं विश्र । जांद वियक्खण मणुव सव्व,
धम्मागुरत्त वर गलिय-गन् ।
जहि सत्त वसव-चुय साधयाई,
शिवसहिं पालिय दो-दह-वबाई |
सम्म सण - मणिभूसियंग,
थ्विोभामिय पचयण सयंग ।
दारापे-ि
freeली,
जिण महिम महुच्छव खिरुपवीण । Party अप्पारुह पवित्त,
जिण सुत्त रसायण सवण तित्त । पंचम दुस्पम् श्रइ-विसमु- कालु,
धम्मभाणे
[ वर्ष १०
मिल वि तुरिङ पविहिउ रमालु । जे कालु लिंति,
वयारमंतु श्रहणि गुणति ।
संसार-महाव-वडण-भीय,
स्सिक पमुह गुण वराणणीय । जहि पारायण दिढ सील जत्त,
वर वर
दाणे पेसिय गिरु तिविह पत्त । तिय मिमेण लच्छि अवयरिय एस्थ
गयव ण दीसह का वि तेत्थ । करण्याहरण एहि, मंडित सोहि मणि जडेहि । जिह्वण- पृथ उच्छाह चित्त,
भव-त-भोयहि णिच्च जि विरन्त । गरु देव पाप पंयाहि लोगा,
सम्म सणपाल पवीण | पर पुरिस सबंधव सरिम जांहि,
ग्रह - खिसु पडिवरिणय श्यि मरणादि । कि वर्णामि तहिउ पुरिम हारि
जहि डिंभ वि सग वमरणा बहारि । पहिं पर्वाहि पोसहु कुति,
घरि घरि चच्चरि जिण गुण थुगांति । साहम्मिय वत्थू कि वहति,
पर अवगुण भर्पाई गुण कहति । एरिसु सावयहिं चिहियमाणु,
मीस रजिण हरि बदमाशु | fa जा रद्दधू कवि गुणालु,
सुकक्ति रसायण - रिसालु ||५|| इन पद्यों पर दृष्टि डालने से उस समयक ग्वा लियरकी स्थितिका सहज ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है । उस समय लोग कितने धार्मिक सच्चरित्र और
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किरण १०]
महाकवि रइधू
३३
-
अपने क्तव्य का यथेष्ट पालन करते थे यह जानने श्रीधरके संस्कृत भविष्यदक्तरित्र और अपभ्रशअनुकरण करनेकी वस्तु है।
भाषाके सुकमालचरित्रकी प्राप्त हुई हैं। इनके सिवाय ग्वालियरमें उम समय तोमरवंशी राजा एंगर 'भविष्यदा पंचमीकथा' की एक अपूर्ण लेखक सिंहका राज्य था। डूंगरसिंह एक प्रतापी और प्रशस्ति कारजाके ज्ञान भंडारकी प्रतिसं प्राप्त हुई है। जैन धर्म में आस्था रखने वाला शासक था। उसने इंगरमिहने वि० सं०१४८१ से सं १५१० या इसके अपने जीवित कालमें अनेक जैन मूर्तियोंका निमाण कछ बाद तक शामन किया है। उसके बाद राज्यकराया वह इस पनीत कार्यको अपनी जीवित सत्ता उसके पत्र कीतिसिंहके हाथमे श्राई थी। अवस्थामे पूर्ण नहीं करा सका था जिस कविवर रडधन राजा इंगरसिंहके राज्यकालम उमके प्रिय पुत्र कीतिमिह या करणमिहने पूरा किया तो अनेक ग्रन्थ रच ही है किन्तु उनके पत्र कीतिसिह था। राजा हूग मिहके पिता का नाम गणेश या के राज्यकालमे भी सम्यक्त्व कौमुदीकी रचना की गणपतसिंह था। जो वीरमदेवका पुत्र था। हूगर है। ग्रन्थ का न उक्त प्रन्थकी प्रशस्तिमें कीर्तिसिह मिह राजनीतिम दन, शत्रओंके मान मर्दन करनम का परिचय कराते हय लिखा है कि वह तोमर कुल ममर्थ, और क्षत्रियोचित क्षात्र तेजमें अलंकृत था।
रूपी कमलोंको विकसित करने वाला सूर्य था और गुण समूहसे विभूषित, अन्यायरूपी नागांक विनाश
दुवार शत्रओंके संग्रामसे अतृप्त था और अपने करने में प्रवीण, पंचांग मत्रशास्त्रमे कुशल, तथा असि
पिता डंगरसिंहके समान ही राज्यभारको धारण कप अग्निसे मिथ्यात्व-रूपी वंशका दाहक था, करने में समर्थ और बंदी-जनोंने जिस भारी अथ जिमका यश सब दिशाओम व्याप्त था, राज्य-पट्टस त किया था और जिसकी निर्मलयपी लता अलंकृत विपुल भाल और बलसं सम्पन्न था। एंगर
लोकमे व्याप्त हो रही थी, उस समय यह कलिचक्रमिहकी पट्टरानीका नाम चंदाद था जो अतिशय
वर्ती था जैसा कि उक्त ग्रन्थ प्रशस्तिके निम्न वाक्यों रूपवती और पतिव्रता थी। इनके पुत्र का नाम
से प्रकट है:कीर्तिसिंह या कीर्तिपाल था, जो अपने पिताके
तोमरक्लकमलवियास मित्त, दुवारवैरिसंगर अतित्त समानही गुणज्ञ, बलवान और राजनीति में चतुर
डूंगरणिव रज्जधरा ममस्थु, दीयण समप्पिय भूरि भत्थु था। डूंगरसिंहने नरवर के किले पर घेरा डाल कर
चउराय विज्जपालण अतदु, जिम्मल जसदल्ली भुषणकंद अपना अधिकार कर लिया था। शत्रलोग इसके
कालचक्कट्टि पायणिहाणु, मिर्शिकासिधु महिवइ. प्रताप एवं पराक्रमसे भयभीत रहते थे। जैन धर्म
पहाणु। पर केवल उसका अनुराग ही न था किन्तु उसपर
-सम्यक्त्व कौमुदी पत्र र नागौर भंडार अपनी परी आस्थाभी रखता था फलस्वरूप उसने कीतिसिंह वीर और पराक्रमी था उसने अपना राज्य जैन मतियोंकी खुदवाईमे महसों रुपये व्यग किये अपने पितासे भी अधिक विस्तृत किया था। वह थे। इससे ही उसकी आस्थाका अनुमान किया जा दयालु सहृदय था जैनधर्मके ऊपर उसकी विशेष पकता है।
आस्था थी । वह अपने पिताका आज्ञाकारी था इंगरसिंह सन् १४२४ ( वि० सं० १४८१) मे उसने अपने पिताके जैनमुतियोंके खुदाइ के ग्वालियरकी गद्दी पर बैठा था। इसके राज्य समय अवशिष्ट कार्य को पूरा किया था। इसका पृथ्वीके दो मर्तिलेख संबत १४६७ और १५१० के प्राप्त पाल नामका एक भाई और भी था जो लड़ाई में है। संवत १४८६ की दो लेखक प्रशस्तियां-40 विबुध मारा गया था। कीतिसिंहने अपने राज्यको यहां
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अनेकान्त
वर्ष १०
तक पल्लवित कर लिया था कि उस समय उमका सन १८७८ में हु0 नशाह दिल्ली के बादशाह राज्य मालवेके समकक्षका हो गया था। दिल्लीका बहलोल लोदोमे पराजित होकर अपनी पत्नी और बादशाह भी कीर्तिसिंहकी कृपाका अभिलाषी बना सम्पत्ति वगैरहको छोड़ कर भागा और भागकर रहना चाहता था। सन १४६५ (वि० सं० १५६२) ग्वालियरमें राजा कीतिसिंहकी शरणमे गया में जौनपुरके महमूद शाहके पुत्र हुसैनशाहने था। तब कीतिसिंहने धनादिसे उसकी सहायता ग्वालियरको विजित करनेके लिये बहुत बड़ो सेना की थी और कालपी तक उसे सकुशल पहुँचाया भी भेजी थी। तब से कीतिसिंहने देहली बादशाह था। इसके समयक दो नख सन १४६८(वि. मं. बहलोल लोदीका पक्ष छोड दिया था और जौनपुर १५२५) और सन १४७३(वि० सं० १५३०) के मिले वालोंका सहायक बन गया था।
हैं। कीतिसिंहकी मृत्यु सन १४७६ (बि० स० १५३६)
मे हुई थी। अत: इसका राज्य काल मंवत १५१० क , सन १४५२ (वि. सं १९०६) में जौनपुरके सुलतान
बाद से सं० १५३६ तक पाया जाता है। इन दोनों महमद शाह शी और देहली के यादशाह बहलोललोदी
के गज्यकाल मे ग्वालियरमें जैनधर्म खूब पल्लविन के बीच होने वाले संग्राममें कीतिसिंहका दूसरा भाई पृथ्वोगन महमदशाहके मेनापति फतहखां हावी के हुआ। हाथ से मारा गया था। परंतु कविचर रहधूके प्रथोंमें ३ देखो, बोझाजी द्वाग सम्पादित टाह राजस्थान हिन्दी कोर्तिसिंह के दूसरे भाई पृथ्वीराजका कोई उल्लेख पृष्ट २५४ नहीं पाया जाता।
-देखो टाड राजस्थान पृ. २४. स्वर्गीय महामना गोरीशंकर हीराचन्द जी श्रोझा कृत गवालियर कतवर वाली टिप्पणी। २ बहलोल लोदी दहलीका बादशाह था उसका राज्य काल सन १४५१ (वि० सं० १९०८) से लेकर सन १४८६(वि० सं०:५४६) तक ३८ वष पाया जाता है।
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एक प्रख्यात विद्वानका स्वर्गारोहण
श्रीमान ५० देवकीनंदन जो शास्त्री दिगम्बर जैन समाजके प्रखर्यात विद्वान थे। स्व० प्रातः स्मरणीय गुरु पं. गोपालदास जी वरीयाके आप गणनीय शिष्य थे, सिद्धान्त शास्त्रके अच्छे ज्ञाता थे। पू० गुरु जीके स्वर्गवास हो जाने पर 'जैनसिद्धान्त विद्यालय मुरेनाकी दशा नाजुक हो गई थी उस समय आप विद्यालयको स्थिति दृढ़ बनाने के लिये विद्यालय में स्वल्प वेतनपर ही अध्यापन कार्य करते रहे। फिर कुछ वर्षे पीछे कारंजा गुरुकलमें पढ़ाने चले गये वहां पर उच्च कोटिके सिद्धान्त ग्रन्थ पढ़ाते रहे गुरुकुलसे अनेक स्नातक निकले।
वहीं पर पंचाध्यायी ग्रन्थकी भाषा टीका की। बहांसे फिर आप श्रीमान सरसेठ हुकमचन्द जी को स्वाध्याय करानेके लिये इंदौर पहुंचे। इंदौर में आप कई वर्ष रहे। वहां पर आप रक्तचाप (ब्लड प्रेसर) रोगसे आक्रान्त हो गये। अभी कुछ दिन तक रुग्ण रहकर गत १३ मई शुक्रवार को प्रात: साढ़े आठ बजे स्वर्गवास हो गया।
आपके दो विवाह हुए थे पहली पत्नीसे केवल पुत्री हुई दूसरी पत्नी से ६ पुत्र ३ पुत्रियां हुई हैं जो मौजूद है।
पंडित जी अच्छे व्याख्यानदाता थे आपकी वाणीमें प्रभावशाली रस था आपके शास्त्रप्रवचनमें आनन्द आता था आपने परवार सभाको अपने प्रयत्नसे उठा कर खड़ा कर दिया था।
आपके वियोगमे जैन समाजकी बहुत क्षति हुई है। अनेकान्त परिवारकी ओरसे सनके कुटुम्बियोंके साथ ममवेदना प्रगट की जाती है और कामना है कि आप की आत्माको शान्ति प्राप्त हो।
दो अन्य गणनीय पुरुषोंका निधन । फीरोजपुर छावनी निवासी. ला० डालचन्द एण्ड सन्ज फर्मके मालिक श्रीमान ला० तुलसीराम जी जैन रईसका स्वर्गवास हो गया है। आपने पिता जी के स्मारकरूप डालचन्द जैन हाईस्कूल तथा डालचन्द जैन कालेज स्थापित किया था। आप अच्छे प्रभावशाली, शिक्षाप्रेमी, धार्मिक महानुभाव थे।
कोल्हापुर निवासी श्रीमान् श्रारणा बाबा जी लट्ठ दक्षिण प्रान्तमें एक प्रसिद्ध महानुभाष थे। बाप अनेक वर्षों तक कोल्हापुर राज्य के प्रधान मंत्री रहे, तथा कांग्रेसी मंत्रीमंडलके समय बम्बई सरकारके अर्थसचिव (फाइनेन्स मिनिष्टर) बनाये गये थे, अच्छेशिक्षित शिक्षाप्रेमी नेता थे। आप दोनों महानुभावों के असमय वियोगसे दि. जैन समाजकी बहत क्षति हुई है।
-प्रकाशक अनेकान्त का अागामी अङ्क अनेकान्तकी आगामी ११.--१२ वी किरण संयुक्त रूपसे प्रकाशित होगी। पाठक महानुभाव नोट कर लेवें।
-प्रकाशक
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Regd. No. D, 397
वोरसेवामंदिरके प्रकाशन १. अनित्य-भावना-पा० पद्मनन्दित भावपूर्ण, ६. समास्वामिश्रावकाचारपरीक्षा-मुख्सार 4
और दयप्राही महत्वको कृति, पं० जुगलकिशोर जुगलकिशोर द्वारा लिखित प्रन्थ-परीक्षाओं का इति *मुख्तारके हिन्दी-पद्यानुवाद और भावार्थ सहित । हाससहित प्रथम अंश । मूल्य चार आना। मूल्य चार माना।
७.विवाह-समुद्देश्य-५० जुगलकिशोर मुख्तार २.पाचार्य प्रभाषन्द्रका तत्त्वार्थमत्र-सरल द्वारा रचित विवाहके रहस्यको बतलानेवाली औरत नया सूत्र-ग्रन्थ, पं.जगलकिशोर मख्तारकी हिन्दी-विवाहोंके अवसरपर वितरण करने योग्य मुन्दर भ्याख्यासहित । मल्य चार आना।
कृति । मूल्य पाट थाना। ३. न्यायदीपिका-(महत्वका मत्रिय मस्क.
नएकाशन वरण)-अभिनव धमभूषण विरन्ति न्याय-विषय
की सुबोध प्राथमिक रचनाम्यायाचार्य पं.दरवारी. १. अप्रमीक्षा-स्वोपजटीकासहित- ( अनक लाल कोठियाद्वारा सम्पादित, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत विशेषताओंमे विशिष्ट महत्वपूर्ण मंस्करण ताकि-.: र (१०१ पृष्ठकी) प्रस्तावना, प्राक्थन, परिशिष्टादिस कशिरोमणि विद्यानन्दस्वामि-विरचित आप्रविषयविशिष्ट, ४००पृ० प्रमाण, लागत मल्य पाँचण्या की अद्वितीय रचना न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल, विद्वानों, छात्रों और स्वाध्याय प्रेमियों ने इस संस्करण कोठियावाग प्राचीन प्रतियोपरम मंशोधिन और को बहुत पसन्द किया है।
मम्पादित, हिन्दी-अनुवाद, विस्त प्रम्नावना, और ४. सत्साधुस्मरणमङ्गलपाठ-प्रभूतपूर्व सुन्दरममाजक वहश्रत विद्वान पं०कैलाशचन्दनी शास्त्री.. और विशिष्ट सङ्कलन, सङ्कलयिता 40 जगलकिशोर द्वारा लिखित प्राक्कथन तथा अनेक परिशिम मुख्तार । भगवान महावीरसे लेकर जिनसेनाचार्य अलंकृन २०४:६/- पेजी माइज, चार-मो पृष्ठ पर्यन्तके २१ जैनाचार्यों के प्रभाव गणस्मरणोंस प्रमागा, लागत मूल्य पाठ रुपया रक्त । मूल्य पाठाना।।
२.श्रीपुर पार्श्वनाथ- स्तोत्र-विद्यानन्दाचार्य * ५ अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पञ्चाध्यायी तथा विरचित महत्वका स्तोत्र, हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्ता.
लाटीसंहिता आदि ग्रन्थोंके रायना प० गजमल्ल वनादि सहित । सम्पादक-न्यायाचार्य पं. दरवा.* विरवित भाभ्यात्मिक कृति, न्यायाचार्य पं०लाल कोठिया । मूल्य बारह आना। दरबारीलाल काठिया और पं. परमानन्द शास्त्रीके ६.शासनचस्त्रिशिका-- विक्रमको ५३ वा मरल हिन्दा-अनवादादिसहित तथा मुख्तार पं० शताब्दीके विद्वान मुनि मदनकीति विरचित ताथएजगलकिशोरजी द्वारा लिखित विस्तृत प्रस्तावनाले परिचयात्मक एतिहासिक अपूर्व रचना, हिन्दी विशिष्ट । मूल्य डेद रुपया
अनुवाद-सहित । मल्य बारह माना।
XXXKARE
HRXXX
व्यवस्थापकधीग्मकामन्दिर,
.२५ दरियागंज, दडल।।
प्रकाशक-परमानन्द जैन शास्त्री, वीरसेवा मदिर ७/३३दरियागंज दहनी. माक-प्रजितकूमार जन शास्त्रा,
अकलंक प्रेस, सदरबाजार, देहली।
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सनकान्त
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार
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iiomutteintamannuMinutrAINIKernama
विषय-मी विपय
मेखक
पृष्ठ १. मन्दालसा--स्तोत्र शुभचन्द्र
[सम्पादक
... ... ३८५ २. ऐलक-पद-कल्पना(११ वी प्रतिमाका इतिहास) [ श्री जुगलकिशोर मुख्तार
३८७ ३. आर्योंसे पहलेकी संस्कृति
[गुलाबचन्द्र चौधरी, एम० ए० व्याकरणाचार्ष ४०३ ४. हर्षकीर्ति सूरि और उनके प्रथ
| श्री अमरचन्द नाहटा
... ...४०७ ५. भद्रबदाहुनिमित्तशास्त्र ( सानुवा) [अनु० वैद्य जवाहरलाल जैन ... ...४१३ ६. मूल में भूल
[बा० आनन्दप्रसाद जैन B, Sc. Eng. ४२१ ७. जेसलमेर के शास्त्र भडार की छानबीन [सम्पादक
४२५ ८. कलकत्ताके जैनोपवनमे वृक्षारोपणसमारोह [तुलमीराम जैन
.... .... २ है प्रमेयरत्नमाला का पुरातन टिप्पण
[पं० हीरालाल जैन शास्त्री
४२६ १०. चिट्ठा हिमाच 'अनेकान्त' दशम वर्ष
४३१ ५१. मोहनजोदड़ो की कला और श्रमण संस्कृति [श्री वायू जयभगवान एडवोकेट ... ४३३ १२. सम्पादकीय
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अनुकरणीय शास्त्रदान श्रीविद्यानन्द आचार्यकी प्राप्तपरीक्षा और उनको स्वोपल-संस्कृत-टीका हिन्दी भाषा-भाषियोंके लिए अभी मक दुर्लभ और दुर्गम बनी हुई थी। वीरसेवामन्दिरने हालमें इन दोनोंको ही हिन्दी अनुवादादिके साथ प्रकाशित करके उनकी प्राप्ति और उनसे ज्ञानार्जन करनेका माग सबके लिए सुलभ कर दिया है। इस प्रन्थमें प्राप्तोंकी परीक्षा-द्वारा ईश्वर-विषयका बड़ा ही सुन्दर सरस और सजीव विवेचन किया गया है और वह फैले हुए ईश्वर-विषयक अज्ञानको दूर करनेमें बड़ा ही समर्थ है। साथ हो दर्शनशास्त्रकी अनेक गुत्थियोंको भी इसमें खूब खोला गया है। इससे यह प्रन्थ बहुत बड़े प्रचार. की आवश्यकता रखता है। सभी विद्यालयों-कालिजों. लायबोरियों और शास्त्र-भण्डारोंमें इसके पहुँचनेकी जहाँ जरूरत है वहाँ यह विद्या-व्यसनी उदार विचारके जैनेतर विद्धानों को भेंट भी किया जाना चाहिये, जिससे उन तक इम ग्रंथनकी सहज गति हो सके और वे इस महान शास्त्रसे यथेष्ट लाभ उठाने में समर्थ हो सकें। इसके लिये कुछ दानी महानुभावों को शीघ्र ही आगे आना चाहिये और दस दस बीस बीस प्रतियाँ पक साथ खरीदकर उन संस्थाओं तथा विद्धानोंको यह प्रन्थ भेंट करना चाहिये। अपनी इस विज्ञप्तिको पाकर कलकत्ताके सेठ सोहनलालजी फर्म मुन्ना लाल द्वारकादासने, और सेठ बैजनाथ जी सरावगी ( फर्म जोखीराम बैजनाथ ) ने ग्रन्थकी बीस२ प्रतियाँ खरीद कर दान करने की स्वीकृति दो। बादको सेठ सोहन लाल जो ने श्री.वी.आर.सी. जैन कलकत्ताको भी २० प्रतियां खरीदने की प्ररेणा की और उनके भी रुपये अपने रुपयोंके माथ भिजवा दिये । इस महान् शास्त्रदानकेलिए तीनों ही सज्जन बहुत धन्यवादके पात्र हैं और उनका यह उत्तम दान-कार्य दूसरोंके लिये अनुकरणोय है। मेठ बैजनाथजीने अपनी प्रतिया अनेक स्थानोंके जिन मन्दिरोंको भिजवाई हैं। बीस प्रतियाँ एक साथ लेने वालोंको यह ग्रन्थ प्रचार की दृष्टि से १६०) को जगह १००) में दिया जाता है और २० मे कम प्रतियाँ लेने वालोंको पौने मल्य में । जो सजन प्रतियाँ खरीद कर उन्हें वीर मेवामन्दिरकी माफतही इच्छित स्थानोंको भिजवाना चाहेंगे उन्हें प्रत्येक प्रतिके लिए बारह मानके हिसाबसे पोष्टेज खर्च भी साथमें भेजना होगा। आशा है दानी महानुभाव और उद्यापनादि में प्रवृत्त होने वाली महिलाए दोनों हो शीघ्र इस महान शास्त्र के दानकी ओर अपना लक्ष्य केन्द्रित करेंगे।
पुरातन-जैनवाक्य-सूची तय्यार पुरातन-जैन वाक्य-सूचा (प्राकृत पद्मानुक्तपणी , जो वर्षों से सादिकी झझटोंके कारण खटाईमें पड़ी हुई थी और जिसको देखने के लिए विद्वान लोग बहुत उत्कंठित हो रहे थे, वह अब छप कर तय्यार हो चुकी है। बाइंडिंगका काम समाप्त होते ही सबसे पहले यह उन ग्राहकोंको उमी १२)रु० मूल्यमें अपना पोस्टेज लगाकर भेजी जावेगी जिनका मूल्य पेशगी आचुका है। शेषको पोस्टेजके अलाबा १५)रु में दी जावेगी और उसमें भी उन ग्राहकोंको प्रधानता दी जावेगी जिनके नाम पहलेमे ग्राहक-श्रेणी में दर्ज हो हैं। चूँकि इस प्रन्थकी कुल ३०० प्रतियाँ ही छपी है अत: जिन्हें लेना हो शीघ्र ही अपना आडर भेजना चाहिये-विलम्ब करनेसे बादको यह चीज नहीं मिल सकेगी। ग्रन्थ ३६ पौंडके उत्तम कागज पर छपा हैं. बड़े साइजके ५२४ पृष्ठों को लिए हुए हैं मुख्तारश्री जुगलकिशोरजीकी गवषेणापूर्ण महत्वकी १७० पृष्ठकी प्रस्ताव नासे अलंकृत है, प्रस्तावनाका उपयोग बढ़ानेके लिए १० पेजके करीबकी नाम-सूची भो साथमें जगी हुई है। इसके अलावा अंग्रेजी में डाक्टरए० एन० उपाध्ये एम०ए० कोल्हापरकी प्रस्तावना (Introduction) और डा० कालीदास नाग एम० ए० कलकत्ता के प्राक्कथन (Foreword) से भी विभूषित है।
मैनेजर 'वीरसेवामन्दिरग्रन्थमाला ७/३३ दरियागंज, देहजी :
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ॐ अहम्
+
+
धस्ततत्त्वासघातक
।
विश्वतत्त्व-प्रकाश
* वार्षिक मूल्य ५)*
3
.. ★ इस किरणका मूल्य १)*
SHA
ANDuradAMIRLREALI
IA नीतिविरोधष्वंसी लोकव्यवहारवर्तक सम्यक् ।।
परमागमस्यबीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्त ।
+
+
.
वर्ष १० । वीरसेवामन्दिर ( समन्तभद्राश्रम ), ७/३३ दरियागंज, देहली किरण ११-१२ ज्येष्ठ, आषाढ़ वार-संवत् २४७६, विक्रम संवत् २००७
मई-जन
१६५०
मन्दालसा स्तोत्र
[यह स्तोत्र जयपुरमें स्थित आमेर-शास्त्र भंडारके गुटकों का निरीक्षण करते हुए गत जनवरी मासमें गुटका नं० ३६ परसे उपलब्ध हुआ था। यह अपने अन्तिम पद्यपर से श्रीशभचन्द्र निर्मित जान पड़ता है। इसमें संसारसे भयभीत एवं अध्यात्म-रसिक मन्दालसा रानीके उस स्तोत्रको समाविष्ट किया गया है जिसे वह अपने पुत्रों को पालने में झलाते आदि समय उन्हें सम्बोधन करके कहा करती थी और इस तरह उनमें अध्यात्मविषय के उच्चतम संस्कार डाला करती थी । नतीजा यह होता था कि उसके पुत्र युवावस्थाको प्राप्त होनेके पूवही जरासा निमित्त पाकर संसारसे विरक्त हो जाते थे और जिनदीक्षा ले लेते थे। इसके कुछ भावकी सूचना पद्य नं0 में की गई है। कहते है एक बार मन्दालसाकी सासने बहूसे कहा कि तेरे सब पुत्र वयस्क होने के पूर्व ही दीक्षित हो जाते हैं ऐसा न कोई गुरुमंत्र उन्हें सिखाती है तब इस राज्यके भारको कौन संभालेगा ? अन्तमें मन्दालसाने कहा बताते है कि 'अबकी बार जो पुत्र होगा उसे ऐसी ही शिक्षा दी जायेगी जिससे वह राज्यके भारको संभालेगा' और बैसाही हुआ। इससे शुद्वान्तःकरण-द्वारा
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३८६ अनेकान्त
। बष १० डाले हुए संस्कारोंका कोमल तथा निविकारहृदय बच्चों पर क्या और कितना असर होता है उसे सहृदय पाठक सहज ही अनुभव कर सकते हैं। अस्तु, स्तोत्र बड़ा सुन्दर, ललित एवं अध्यात्म-रससे परिपूर्ण है। प्रारंभिक अष्टकके प्रत्येक पद्यमें मन्दालसा अपने पुत्रको सम्बोधन करके उसे उसके शुद्धस्वरूपका बोध कराती हुई उसको अन्तरात्माको जगाती है और फिर मान-मायादिकके त्यागकी प्रेरणा करती हुई कहती है कि 'हे पुत्र मन्दालसाके वाक्य की उपासना करो अर्थात् मेरे कहे को पूर्णतः मानो' । आशा है अने. कान्तके पाठकों को यह स्तोत्र रुचिकर होगा। -सम्पादक
(उपजात्यादि वृत्त) सिद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि संसार-माया परिजितोऽसि । शरीर-भिन्नम्त्यज मर्वचेयां मन्दालसा-वाक्यमुपासि पुत्र ।।१।। जाताऽमि दृष्टाऽमि पगमम्पोऽग्ट एडम्वरूपोऽमि गगाालयोऽमि । जिनेन्द्रियस्त्वं त्यज मान-मदा मन्दालमा-वाक्यमुपासि पुत्र ॥२॥ शान्तोऽसिदान्तोऽमि विनाशहीन: मिद्धस्वरूपोऽमि क्लङ्गमुक्तः। ज्योतिस्वरूपोऽमि विमुञ्च मायां मन्दालमा-वाक्यमपासि पुत्र | | एकोऽसि मुक्तोऽसि चिदात्मकोऽसि चिद्रपभावोऽमि चिन्तनोऽमि । अलक्षभावो जहि देह-मोहं मन्दालसा-वाक्यमुपामि पुत्र || नि:काम-धामाऽमि विकर्मरूपो रत्नत्रयात्माऽमि पपवित्रः। वेत्ताऽसि चेताऽसि विमुकच कामं मन्दालमा-वाक्यमुपामि पुत्र ॥॥ प्रमाद-मुक्तोऽमि सुनिर्मलोऽसि अनन्तबोधादिचतुष्टयोऽसि । ब्रह्माऽमि रक्ष म्वचिदात्मरूपं मन्दालसा-वाक्यमुपासि पुत्र ॥६॥ कैवल्यभावोऽसि निवृत्त-योगो निरामयो ज्ञात-समस्त तत्वः । परात्मवृत्ति म्मर चित्स्वरूपं मन्दालसा-वाक्यमुपासि पुत्र ॥७॥ चैतन्यरूपोऽसि विमुक्त-मारो भावादिकर्माऽनि समग्र-वेदी। ध्याय प्रकामं परमात्मरूपं मन्दालसा-वाक्यमुमासि पुत्र || इत्यष्टकर्या पुरतस्तनूजान् विबोध्य नाथं नरनाथ-पूज्य म । प्राव्राज्य भीता भव-भोग-भावात स्वकैः सदा सा सुगति प्रपेदे ॥६॥ इत्यष्टकं पापपराङ्मुखो यो मन्दालमाया भणति प्रमोदात् । स सद्गति श्रीशुभचन्द्रभासि समाप्य निर्वाण-पदं प्रगच्छेत् ॥१०॥
इति मन्दालसा-स्तवनम
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ऐलक-पद-कल्पना
(११ वी प्रतिमाका इतिहास)
। सम्पादकीय ] दिगम्बर जैनसमाजमें श्रावकोंकी ११ वी प्रतिमा- (चारित्रप्राभृत) ग्रन्थमें यद्यपि एक गाथा द्वारा के आजकल दो भेद कहे जाते हैं, एक 'क्षुल्लक' और ग्यारह प्रतिमाओं के नाम पाये जाते हैं परन्तु उनके दुसरा 'ऐलक' । ऐलक सर्वोत्कृष्ट समझा जाता है स्वरूपादिकका कोई वर्णन उक्त ग्रन्थमें नहीं है और
और उसके साथ ही श्रावकधर्मकी परिपूर्णता न आचार्यमहोदयके किसो दूसरे उपलब्ध ग्रन्थमें मानी जाती है। ऐलक' पदका प्रयोग भी अब दिनों ही इन प्रतिमाओंके स्वरूपका निर्देश है। हॉ, दिन बढ़ता जाता है । यह शब्द प्रायः जैनियोंको सुत्तपाहुड (सूत्रप्राभूत ) प्रन्थमें एक गाथा इस जबान पर चढ़ा हुआ है और जैनसमाचारपत्रों में प्रकारसे जरूर पाई जातो हैभी इसका खूब व्यवहार होता है। परन्तु उत्कृष्ट दहयं च वलिंगं उक्किटठ अवरसावयाणं च । श्रावकके लिए 'ऐलक' ऐसा नाम निर्देश कौनसे भिक्ख' भमेइ पत्तो समिदीभासेण मोणेण ॥२१॥ आचार्य महाराजने किया है, कब किया है, किस
इसमें मुनिके बाद दूसरा उत्कृष्ट लिंग उत्कृष्ट भाषाका यह शब्द है और इसका क्या अर्थ होता श्रावकका-गृहत्यागी या अगृहस्थ श्रावककाहै, इत्यादि बातोंका परामर्श करनेपर भी कहीं कुछ बतलाया गया है और उसके स्वरूपका निर्देश इस पता नहीं चलता। विक्रमकी १७ वीं शताब्दीसे प्रकारसे किया गया है कि, वह पात्र हाथमें पूर्वके बने संस्कृत और प्राकृनके सभी प्राचीन ग्रन्थ लेकर समिति-सहित मौनपूर्वक मिताके लिए भ्रमण इस विषयमें मौन जान पड़ते हैं। किसीमें 'ऐलक' करता है। यह उत्कृष्ट श्रावक ११ वी प्रतिमाके शब्दका नामोल्लेख तक नहीं मिलता । संस्कृत और धारकके सिवा दूसरा कोई मालूम नहीं होता, और प्राकृत भाषाका यह कोई ऐसा शब्द भी मालूम नहीं इसलिए यह स्वरूप उसीका जान पड़ता है। परन्तु होता, जिसका व्युत्पत्तिपूर्वक कुछ प्रकृत अर्थ किया इस सब कथनसे ११ वी प्रतिमावालेके लिए जाय । वास्तव में, खोज करनेसे, ऐलक-पदकी उद्दिष्टविरत' और 'उत्कृष्ट श्रावक के सिवाय दूसरे कल्पना बहुत पीछे की और बहुत कुछ आधुनिक किसी नामकी उपलब्धि नहीं होती। जान पड़ती है। अतः आज मैं इसी विषयके अपने
(२) स्वामी समन्तभद्राचार्यने अपने रत्नकरअनुसंधानका अपन पाठका सामन रखता हू एडक नामके उपासकाध्ययन (श्रावकाचार )म, आशा है कि विज पाठक इसपर भले प्रकार विचार करेंगे। और साथ ही,११ वी प्रतिमाके स्वरूपमें
8 वह गाथा इस प्रकार है
दंसणवयसामाहय पोसह सच्चित्तरायभत्तेयं । समय-समयपर जो फेरफार हुआ है, अथवा
बंभारंभपरिग्गह अणुमण उद्दिट्टदेसविरदेदे ॥२१॥ आचार्य-आचार्यके मतानुसार उसमें जो कुछ
यही गाथा घसुनन्दिश्रावकाचारके शुरूमें नम्बर ५ विभिन्नता पाई जाती है उसे भी ध्यानमें रक्खेंगे।
पर पाई जाती है और गोम्मटसारके संयममार्गणाधिकार(१) भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य के चारित्त पाहुड में भी यही गाथा दी हुई है ।
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३८८ अनेकान्त
[वर्ष १० श्रावकके ग्यारह पदों ( प्रतिमाओं) का वर्णन करते
-पर्व ३६ श्लो० ७७ हुए, ११ वी प्रतिमाके धारक श्रावकका जो स्वरूप
___ इसके सिवाय, श्रादिपुराणमें, उन विद्याशिल्पोवर्णन किया है, वह इस प्रकार है
पजीवी मनुष्योंके लिए, जो अदीक्षा ( मुनिदीक्षाके
अयोग्य ) कुलमें उत्पन्न हुए हैं, उपनीति आदि गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकंठे व्रतानि परिगृह्य।
संस्कारोंका निषेध करते हुए, जिस उचित लिंगका भैयाशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥४७॥
विधान किया है वह एकशाटक-धारी' होना है अर्थात् - घाको छोड़कर मुनि-बनमें जाकर
और उसका संकेत ११ वी प्रतिमाके आचरण की और गुरूके निकट ब्रतों को ग्रहण करके, जो तपस्या
तरफ ही पाया जाता है, यथाकरता हुआ भिक्षा-भोजन करता है और खण्ड
अदीक्षा कुले जाता विद्याशिल्पोपजीविनः । वस्त्रका धारक है वह उत्कृष्ट श्रावक है।
एतेषामुपनीत्यादि-सस्कारो नाभिसम्मतः ।। इसमें ११ वी प्रतिमावाले श्रावकको 'उत्कृष्ट
तेषां स्यादुचितं लिंग स्वयोग्यव्रतधारिणां । श्रावक'के नामसे निर्दिष्ट किया है। चेलखण्डधारी
एक्शाटकधारित्वं संन्यासमरणावधि ।। या खण्डवस्त्रधारी नामकी भी कुछ उपलब्धि होती
-पर्व ४० श्लो० ७०,७१। है, और उसके लिए १ घर छोड़कर मुनिवन (तपोवन ) को जाना, २ वहाँ गुरुक निकट व्रतोंका है कि ११ वी प्रतिमाके आचरणका अनुष्ठान करनेग्रहमा करना,३ भिक्षाभोजन करना,४ तपस्या वालेको उस समय---वोंशताब्दीम-'एकशाटककरना और ५ खण्ड वस्त्र रखना, ये पाँच बात धारी' या एक वस्त्रधारी भी कहते थे-वह इस नामजरूरी बतलाई है।
से संलक्षित होता था । स्वामी समन्तभद्रने उसे ही (३) भगवजिनसेनप्रणीत आदिपराणमें. 'चेजखण्डवारी' लिखा है। यद्यपि, कहीं भी ग्यारह प्रतिमाओं का कथन नहीं
कथन नहा (४) स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें ११ वी प्रतिमा है परन्तु उसमें गभीन्वय और दीक्षान्वय का स्वरूप इस प्रकारसे पाया जाता हैनामकी क्रियानों में 'गृहत्याग' क्रियाके बाद और जो गावकोडिविसुद्ध भिक्खायरणेगण भुजदे भोजं जिनपन' फिपासे पहले 'दोक्षाद्य' नामकी जो जायणरहियं जोगा उहिटठाहारविरो मो॥३०॥ क्रिया वर्णन को है उसका अभिप्राय ११ वी प्रतिमा- अथात-जो श्रावक नवकोटिविशुद्ध (मनके पाचरणम ही जान पड़ता है। उसमें भी घर वचन-काय और कृतकारित-अनुमोदनाक दोष से छोइन के बाद तपोवरको जाना लिम्बा है और ऐसे रहित ऐसे शुद्ध) और योग्य आहारको बिना किमी तपस्वीके लिए एक शाटक (वस्त्र ) धारी होनेका याचनाके मिज्ञा-द्वारा ग्रहण करता है वह 'उद्दिष्टाविधान किया है। भिक्षा-भोजनादिकका शेष कथन हारविरत' नामका श्रावक है। उमके स्वरूपसे ही आ जाता है यथात्यनागारस्य सदृष्टः प्रशांतस्य गृहीशिन: ब० शीतलप्रसादने अपने 'गृहस्थधर्म' में स्वामि प्राग्दीक्षोपयिकाकालादेकरााटकधारिण: ॥ कातिकेयानुप्रेक्षाकी काका, जो कि शुभचन्द्र भट्टारकद्वारा यत्पुरश्चरणं दीक्षाग्रहण प्रतिधार्यते। वि० स० १६१३ में बनकर समाप्त हुई है, एक अश दोक्षाय नाम तज्ज्ञेयं क्रियाजातं द्विजन्मनः ॥ उद्धत किया है और वह अंश इसी गाथा टोका-रूपसे
-पर्व ३८ श्लो० १५८,१५६ है। उसके अन्तमें दो पद्य निम्न प्रकारसे दिये हैंत्यक्तागारस्य तस्यांतस्तपोवनमुपेयुषः ।
एका दशके स्थाने ह्य त्कृष्ठः श्रावको भवेद्विविधः । एकशाटकधारित्वं प्राग्वदीक्षामिष्यते ।। वस्त्र कधरः प्रथमः कोपीनपरिग्रहोऽन्यस्तु ॥
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किरण ११-१२ ]
यहां मिवाभाजनके तोन खास विशेषण दिये गये हैं - १ नवकोटि-विशुद्ध, २ याचनारहित और ३ योग्य, जो समन्तभद्र - प्रतिपादित स्वरूप में नहीं पाये जाते । यद्यपि 'योग्य' त्रिशेषणका वहां स्वरूपसे समावेश हो जाता है, परन्तु 'नवकोटिविशुद्ध' और ' याचनारहित' ये दो विशेषण ऐसे हैं जो ख़ास तौर से उल्लेख किये जानेपर हो समझ में आ सकते हैं । और इसलिए इन दो विशेषणों का यहां खास तौर से उल्लेख हुआ है, यह कहना होगा । साथ हो, इस प्रतिमा के धारक का 'उद्दिष्टाहार विरत' नामसे उल्लेख किया गया है और उसके लिए खण्डवस्त्र या एक-दो वस्त्र रखने आदिका कोई नियम नहीं दिया गया ।
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ऐलक-पद- कल्पना
(५) चारित्रसार ग्रन्थ में, श्रीमन्वामुण्डराय, जो कि वि० की ११ वीं शताब्दी के विद्वान् हैं, इस प्रतिमा के धारकको 'उद्दिष्टविनिवृत्त' नामसे उल्लेख करते है और उसका स्वरूप इस प्रकार देते हैं
"उद्दिविनिवृत्तः स्वोद्दिष्ट विंडो पधिशयनवसता देर्विरतः सन्नेकशाटकघरो भिक्षाशनः पाणिपात्रपुटेनोपविश्यभोजी रात्रिप्रतिमादितपःसमुद्या आतानादियोगरहितो भवति ।"
अर्थात् जो अपने निमित्त तय्यार किये हुए भोजन, उपधि, शयन और वस्त्रादिकसे विरक्त रहता है - उन्हें ग्रहण नहीं करता एक वस्त्र रखता है, भिक्षाभोजन करता है, कर पात्र में आहार लेता है, बैठकर भोजन करता है, रात्रिप्रतिमादि तपश्चरण में उद्यमी रहता है और आतापनादि योगसे वर्जित होता है, वह 'उद्दि-विनिवृत्त' नामका श्रावक कहलाता है।
कौनीऽसौ रात्रिप्रतिमा-योगं करोति नियमेन । लोच पिच्छ धृत्वा भुंक्ते ह्य् पविश्य पाणिपुटे || इन पद्यों में जो कथन किया गया है वह मूल गाथाके कथनसे अतिरिक्त है और उते टीकाकारने दूसरे विद्वानोंके कथनानुसार लिखा है ऐसा समझना चाहिए। इसी तरह पर टीकामें कुछ और भी विशेष पाया जाता है ।
३८६
इस स्त्ररूपमें, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी अपेक्षा, उद्दिष्टाहार के साथ १ उद्दिष्ट उपधि, २ उद्दिष्ट शयन और उद्दिष्ट वस्त्रादिकके त्यागका विधान अधिक किया गया है और शायद इसीसे इस पदवी ( प्रतिमा ) धारकका नाम 'उद्दिष्टाहारविरत' न रखकर 'उद्दिष्टविनिवृत्त' रक्खा गया है । भिक्षाशनको छोड़कर और सब विशेषण भी यहां स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षासे अधिक निर्दिष्ट हुए हैं । परन्तु उनमें एक वस्त्रधारी होना और रात्रिप्रतिमादि तपश्चरण में उद्यमी रहना, ये दो विशेषण स्वामिसमन्तभद्र- प्रतिपादित 'चेलखंडवर' 'और 'तपस्यन्' विशेषणोंके साथ मिलते जुलते हैं। हाँ, इतना जरूर है कि स्वामी समन्तभद्राचार्यने जिस तपश्चरणका सामान्यरूपसे उल्लेख किया है, उसके यहाँ दो भेद दिये गये हैं- एक रात्रिरतिमादिरूप और दूसरा आतापनादि-योगरूप | पहले का विधान और दूसरेका निषेव किया गया है। एक बात यहाँ और भ बतला देनेके योग्य है और वह यह है कि इतने अधिक विशेषणों का प्रयोग करनेपर भी भिक्षाभोजन के साथ स्वामिकार्निकयके 'याचनारहित' विशेषणका उल्लेख यहां नहीं किया गया है । सम्भव है कि ग्रन्थकनोको इस प्रतिमाधारीके लिए यह विशेषण इष्ट न हो। आगे भी कितने हो आचार्यों तथा विद्वानों को यह विशेषण इष्ट नहीं रहा है, और उन्होंने साफ तौरसे इस प्रतिमांधारीके लिए याचनाका विधान किया है ।
(६) श्री अमितगति आचार्य अपने सुभाषितरत्नसंदोह' नामक ग्रन्थमें, जो कि वि० सं १०५० में बनकर समाप्त हुआ है, लिखते हैं किस्वनिमित्तं त्रिधा येन कारितोऽनुमतः कृतः । नाहारो गृह्यते पुंसा त्यक्तोद्दिष्टः स भव्यते ॥ ८३ ॥
अर्थात् - जो मनुष्य मन-वचन-कायद्वारा अपने निमित्त किये हुए, कराये हुए या अनुमोदन किये हुए, भोजनको ग्रहण नहीं करता है ( नवकोटि-विशुद्ध भोजन लेता है) वह
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३६० अनेकान्त
वर्ष १० 'त्यक्तोदिष्' नामका श्रावक कहलाता है।
'याचनारहित' विशेषण और श्रीकुदकुंदाचार्यके 'उपासकाचार में भी आपने प्रायः ऐसा ही स्वरूप 'मोनपूर्वक' विशेषणके साथ कोई मेल नहीं रखती.. वर्णन किया है। साथ ही, एक स्थानपर उसे प्रतिकूल मालूम होती है। और भिक्षापात्र में अनेक 'उत्कृष्ट श्रावक' लिखकर उसके कुछ विशेष कर्तव्यों- घरोंसे भिक्षा एकत्र करके उसे एक स्थानपर बैठकर का भी उल्लेख किया है, जो सामायिकादि पडाव. खाने का जो विधान यहां किया गया है वह चामुण्डश्यक क्रियाभोंके अतिरिक्त निम्न प्रकार हैं- रायके 'करपात्रभोजो' विशेषण के विरुद्ध पड़ता है।
वैराग्यस्य परां भूमि संयमस्य निकेतन। चामुण्डायके कथनसे उनका ऐसा आशय जान उत्कृष्ट: कारयत्येव मुण्डनं तुण्डमुण्डयोः ॥७३।। पड़ता है
पड़ता है कि वे इस प्रतिमाधारीको भिक्षाके लिये केवलं वा सवस्त्र' वा कौपीनं स्वीकरोत्यसौ।
घर घर फिगना नहीं चाहते, बल्कि एक ही घरपर
घर घर फिगना नहा चाहत, बा एकस्थानान्नपानीयो निन्दागोपरायणः ७ मुनिकी तरह कर-पात्रमें आहार करादेनेके पक्ष में सधमेलाभशब्देन प्रतिवेश्म सुधोपमां ।
है। हाँ, इतना जरूर है कि मुनि खड़े होकर आहार सपात्रो याचते भिक्षा जरामरणसूदनीम् ।।७।।
लेते हैं और इस प्रतिमाधारीके लिए चामुडरायने
बैठकर भोजन करमेका विधान किया है। अस्तु; कछ -परि०
भी हो, परन्तु यह बात श्रीकुदकदाचार्य के 'भिक्रखं इन कर्त्तव्योंमें पहला कर्त्तव्य है मुख और सिर- भमेड पत्तो' (पात्र हाथमें लेकर भिक्षाके लिये के बालोंका मुण्डन कराना (क्षौर कराना, लौच करना भ्रमण करता है) इस विशेषणके विरुद्ध नहीं नहीं) दुसरा, केवल कौपीन ( लंगोट) या वस्त्र- पडतो। इन सब बातोंके सिवा यहां मुख और सहित कौपीनका धारण करना, तीसरा एक स्थान मस्तकके केशोंका मण्डन कराने की बात खास तौरपर ( बैठकर ) अन्न जल ग्रहण करना (भोजन में कही गई है और कल कोपोन रखने या वस्त्रकरना ), चौथा अपनी निन्दा-गहोसे युक्त रहना सहित कौपीन रखनेका कथन विकल्परूपसे किया और पाँचवां कर्तव्य है पात्र हाथमें लेकर प्रत्येक घर
पक घर गया है। उसकी वजहसे प्रतिमाके दो भेद नहीं किये से 'धर्म-लाम' शब्दके साथ भिक्षा मांगना। गये. यह बात खास तौरसे ध्यानमें रक्खे जानक
अमितगतिके इस मम्पूर्ण कथनमे ११ वी प्रतिमा. योग्य है। बाकी उद्दिष्ट उपधि-शयन-वस्त्रादिकक वालेके लिए 'त्यक्तोद्दिष्ट' 'उद्दिष्टवर्जी' और 'उत्कृष्ट श्रा- त्याग आदि कितने ही विशेषणोंका यहां उल्लेख वक' इन नामोंकी उपलब्धि होती है । और साथ ही नहीं किया गया, यह स्पष्ट ही है। यह मालूम होता है कि इस स्वरूप-कथनमें नवकोटिविशुद्ध भोजनका लेकी स्वामिकातिकेयके कथानान. (७) श्रीनन्दनन्द्याचायके शिष्य श्रीगुरु. कुल है । परन्तु भिक्षाके लिए याचना करना और दासाचायका बनाया हुआ 'प्रायश्चित्त'धर्मलाभ' शब्द कहना, ये बातें स्वामिकार्तिकेयके समुच्चय' नामका एक प्राचीन ग्रन्थ है, जिसपर श्री* यो बंधुराबंधुरनुल्यचित्तो गृहाति भोज्यं नवकोरिश नंदिगुरुने एक संस्कृत टीका भी लिखी है और इसलिए उद्दिष्टवर्जी गुणिभिः स गीतो विभीलुकः संसृतिजातधान्याः जो विक्रमकी ११ वी शताब्दीसे पहिलेका बना हुआ
-परि० श्लो.७७ है। इस ग्रन्थ की चूमिकामें, श्रावक-प्रायश्चित्तका + श्वेताम्बरोंके यहां ११ वी प्रतिमावाले के वास्ते इस वर्णन करते हुए, उत्कृष्ठ श्रावकके लिए (११ वी शब्दके साथ भिक्षा मांगनेका निषेध है ऐसा योगशास्त्रको प्रतिमाधारीके वास्ते) 'क्षुल्लक' शब्द का ही प्रयोग गुजराती टीकासे मालूम होता है।
किया गया है, 'ऐलक' का नहीं; और उसके स्वरूप
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किरण ११-१२ ]
का कुछ निदर्शन भी इस प्रकारसे किया है— चुल्लवेकं वस्त्रं नान्यत्स्थितभोजनं । आतापनादियोगोऽपि तेषां शस्वन्निषिध्यते || १५५ || क्षौरं कुर्याच्च लोचं वा पाणौ भुक्तोऽथ भाजने । कौपीन मात्रतन्त्रोऽमौ चुल्लकः परिकीर्तितः ॥ ४५६||
अर्थात्-तुल्ल कोंके लिए एक वस्त्रका ही विधान है, दूसरेका नहीं। खड़े होव र भोजन करनेका विधान नहीं है और प्रतापनादि योगका अनुछान उनके लिए सदा निषिद्ध है । वे क्षौर कराओ ( हजामत बनवाओ ) या लौंच करो, हाथमें भोजन करो या वर्तन ( पात्र) मे और चाहे कौपीन मात्र रक्खो, उन्हें 'क्षुल्लक' कहते हैं ।
ऐलक-पद-कल्पना
यहाँ यह बात बहुत स्पष्ट शब्दों में बतलाई गई है कि उस उत्कृट श्रावकको भी 'क्षुल्लक' ही कहते हैं जो १ लौंच करता है, २ करभोजा है और २ कौपोन मात्र रखता है। उसके लिए क्षौर करानेवाले, पात्रभाजी और एकवस्त्र धारक उत्कृष्ट श्रावकसे भिन्न किसी दूसरे नामकी कोइ जुदी कल्पना नहीं हैं। और इसलिए आजकल प्रायः इन्हीं तीन गुणों के कारण 'ऐलक' नामकी जो जुदी कल्पना की जाती है, वह पीछे की कल्पना जरूर है। कितने पीछे की, यह आगे चलकर मालूम होगा | यहांपर इतना और बतला देना जरूरी है कि श्रीगुरुदासाचार्य के मतानुसार तुल्लक या तो एक वस्त्रक। धारक होता है और या कोरोन मात्र रखता है । परन्तु वस्त्रसहित कौपोन अर्थात् दोनों चीजें नहीं रख सकता । और यह बात श्रमितगतिके कथन के विरुद्ध पड़ती है । वे वस्त्रसहित कौपीनका भी विधान करते है; और कौनरहित खाली एक वस्त्रका वा विधान ही नहीं करते । इसी तरह लौच करने और करभोजी होनेका कथन भी उनके कथन के साथ सामंजस्य नहीं रखता ।
यहां तक के इस संपूर्ण कथनसे इस बातका पता चलता है कि उत्कृष्ट श्रावक, खंडवस्त्रधारी. एकवस्त्रधारी, कौपीनमात्रधारी, उद्दिष्टाहार विरत,
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उद्दिष्टविनिवृत्त और व्यक्तोद्दिष्ट, इन सबका श्राशय एक क्षुल्लकसे ही है---तुल्लक पदके ही ये सब नामान्तर है । यह दूसरी बात है कि इस पदकी कुछ क्रिया श्रांमें आचार्यों में परस्पर मतभेद पाया जाता है; परन्तु उन सबका अभिप्राय इसी एक पदके निदर्शन करनेका जान पड़ा है । साथ ही यह भी मालुम होता है कि कुछ वैकल्पिक ( Optional ) आचरणों की वजहसे उस समय तक इस पदके ( प्रतिमाके) दो भेद नहीं हो गये थे । परन्तु अब आगे के उल्लेखोंसे पाठकोंको यह म लूम होगा कि बादको अथवा कुछ पहले किसी अज्ञात नामा आचार्यके द्वारा इस प्रतिमाके साफ तौ से दो भेद कर दिये गये हैं और उन भेदों मे उक्त वैकल्पिक आचरणोंको बांटा गया है।
(८) विक्रमकी प्राय: बारहवीं शताब्दी के विद्वान श्रीवसुनन्दी आचार्य, अपने उपासकाध्यायनमें, ११ वीं प्रतिमाके धारक को 'उत्कृष्ट श्रावक' बतलाते हुए उसके दो भेद करते हैं, प्रथम और द्वितीय । आपके मतानुसार प्रथमोत्कृष्ट श्रावक एक वस्त्र रखता है और द्वितीय कौपीनमात्र; पहला कैंची या उत्तरेसे बालों को कटाता है और दूसरा नियमपूर्वक लीव करता है अर्थात् उन्हें हाथसे उखड़ता है; स्थान। दिकके प्रतिलेखनका कार्य पहला (वस्त्रादिक) मृदु उपकरणसे लेता है, परन्तु दूसरा उसके लिए नियमसे ( मुनिवत्) पिच्छी रखता है । प्रथमत्कृष्ट के लिये इस बात का कोई नियम नहीं है कि वह पात्र में ही भोजन करे या हाथमें, वह अपने इच्छानुसार चाहे जिसमें भोजन कर सकता है । परन्तु द्विसीयोत्कृष्ट के लिये कर पात्रमें अर्थात् हाथमें ही भोजन करनेका नियम है। इसके सिवाय, बैठकर भोजन करना, भिक्षाके लिये श्रावक के घर जाना और वहाँ आँगन में स्थित होकर 'धर्मलाभ'
8. देखो 'बसुनन्दीश्रावकाचार' नामसे जैनसिद्धान्त प्रचारक मण्डली देवबन्दकी तरफ से सं० १६६६ की छपी प्रति ।
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अनेका
शब्द के साथ स्वयं भिक्षा मांगना, भिक्षाके मिलने या न मिलनेपर दोनवदन होकर शीघ्र वहांसे निक ना और फिर दूसरे घर में जाकर मौनपूर्वक अपने आशयको प्रगट करना, इत्यादि नियम दोनों के लिये समान है। साथ ही दिनमें प्रतिमा-योग धरना, वीरचया करना, त्रिकालयोग (आतापनादिक) का अनुष्ठान करना, इत्यादि बातोंका आपने दोनों को ही अनधिकारी बतलाया है। इस सब आशयकी गाथायें इस प्रकार हैं
यारसम्म ठाणे किट्टो सावओ हवे दुविहो । त्येक पढमोकोवीए परिगाहो विदिश्रो ||३०१|| धमिलाणं चयणं करेइ कचरिछुरेण वा पढमो । ठाणासु पडिलेहs मिवयरणेण पयडप्पा ||३०२|| भुजे पाणिपत्तम भायणे वा सुई समुइट्ठो । उवासं पुणणियमा चरन्विहं कुरणइ पव्वेसु || ३०३ पखालिऊण पत्त' पविसइ चरियाय पंगणे ठिच्चा । भणिऊण धम्मलाहं जायद भिक्खं सयं चेव ||३०४ सिग्धं लाहालाहे अदीणवयलो णिउयत्ति ऊण व अण्णामि गिहे वच्च दरिसइ मौणेण कार्य वा३०५ + एवं भेओ होई णवर विसेसो कुणिज्ज नियमेण । लोचं धरिज्ज पिच्छ भुजिज्जो पाणिपत्तम्मि ||३११|| दिएपडिम वारचयां वियालजोगेसु णत्थि अहियारो सिद्धतरहस्याणवि अभय देसविरदा ||३१२||
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[ वर्ष १० उद्दिष्ट शयन और उद्दिष्ट वस्त्रादिकसे विरक्त होना शायद इष्ट नहीं । पिंड (आहार) के लिए नवकोटि-विशुद्ध होने का भी आपने कोई विधान नहीं किया । अस्तु, वह गाथा इस प्रकार हैtfsfar दुवियप्पो साबो समासेण पयारसम्म ठाणे भणिश्रो सुत्तगु सारेण ॥ ३५३ ॥
यहां पर इतनी बात और बतला देनेके योग्य हैं कि वसुनन्दि आचार्यने इस प्रतिमाके दो भेद करनेपर भी उन भेदोंके लिये चल्लक, ऐलक जैसे जुदा जुड़ा कोई दा खाम नामोंका निर्देश नहीं किया, बल्कि उनका यह भेद करना एक कक्षाके कोर्सको दो सालों में विभाजित करनेके तौर पर है। और इसीसे प्रथमादि शब्दों के साथ, वे दोनों के लिये 'उत्कृष्ट श्रावक' और 'उद्दिष्ट पिंड विरत' नामों का हो व्यवहार करते हैं। 'उद्दिष्टपिंडविरत' नाम आपने इस प्रकरण की निम्नलिखित अन्तिम गाथा में दिया है; और उससे यह ध्वनि निकलती है कि आपको इस प्रतिमाधारी के लिए उद्दिष्ट - उपधि,
इस गाथा में ऊपरका सच कथन सूत्रानुसार कहा गया है, ऐमा सूचित किया है । परन्तु कौनसे सूत्र के अनुसार यह सब कथन है, ऐस कुछ मालूम नहीं होता, क्योंकि वसुनन्दीसे पहले के आचार्योंका इस विषयका जो कथन हैं, वह इस लेख में ऊपर दिखलाया गया है। उसमें और इस कथनमें बहुत कुछ अन्तर है । यहां उस आचरणको दो भेदों के शिकंजे में जकड़ कर निश्चित रूप दिया गया है जिसे किसी किसी आचार्यने विकल्परूपसे कथन किया था, और उसका अनु ठान ( संभवत: अभ्यासादिको दृष्टि से, इस प्रतिमाधारीकी इच्छापर छोड़ा था । संभव है कि श्राचार्यों के पारस्परिक मतभेदका सामंजस्य स्थापित करनेके लिए यह सब चेष्टा की गई हो और यह भी संभव है कि जब वैकल्पिक (Optional आचरण रूढ़ हो गये और अधिक संख्यामे चल्लक लोग उनका जुदा जुदा अनुष्ठान करके अपनेको बड़ा छोटा मानने लगे, तब किसी आचार्यने जरूरत समझ कर, इस प्रतिमाको दो भागों में विभा जित कर दिया हो और उन्होंके कथननुसार आचार्यवसुनन्दीजीका यह सब कथन हो । परन्तु कुछ भा हो, इसमें संदेह नहीं कि उक्त पूर्वाचार्यों के कथन में भेद जरूर है और दोनोंका कथन किसी एक सूत्रप्रथके अनुसार नहीं हो सकता ।
(६) तेरहवीं शताब्दी के विद्वान् प० आशाधरजीने, अपने सागारधर्मामृत में, इस प्रतिमाका जो स्वरूप निर्देष्ट किया है वह प्रायः वसुनन्दी आचार्य के कथनसे मिलता जुनता है। हां, इतना विशेष जरूर है कि आशाधर जीने
(क) उद्दिष्टपिंड के साथ 'अनि' शब्द लगाक
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किरण ११-१२] ऐलक-पद-करूपना
३६३ उपधिशयनासनादिके भी त्यागका संग्रह किया है, तकमे प्रयुक्त किया है। यथाजिसे वसुनन्दीजी छोड़ गये थे, और स्वोपज्ञ टीकामें
..."ममार्य देयाः शिवतातिमुच्चै।" उसका स्पष्टीकरण भो कर दिया है।
"स्त्वमार्यनक्त दिवमप्रमत्तवान्""" (ख) प्रथमोत्कृष् श्रावकके लिये कोपोन और ""त्वया स्वतृष्णासरिदार्य शोषिता।" उत्तरीय वस्त्र ऐसे दो पटोका विधान किया है और
-स्वयम्भूस्तोत्र उनका रंग सफेद दिया है, जब कि वसुनन्दि आचार्य
अमि, मसि और कृषि आदि कर्म करनेवालों को ने उसके लिए एक वस्त्रका ही विधान किया था और भी 'आर्य' कहते है। ऐसी हालतमें इस संज्ञासे उसका कोई रंग नियत नहीं किया था।
यद्यपि यहां कोई खास विशेषत्व मालूम नहीं होता (ग) वा मौनेन दर्शयित्वांगं' शब्दोंक द्वारा और न यह संज्ञा इस प्रतिमाधारी पुरुषके लिए कुछ विकल्पसे मौनपूर्वक स्वशरीर दिखलाकर भिक्षा रूढ ही पाई जाती है, तो भी स्त्रीलिंगमें 'प्रायो लेनेका भी विधान किया है, और इस तरह पर (या पार्यिका) शब्द एक साध-वेषधारिणी स्त्रीके श्रीकदकुदाचार्य और स्वामिकार्तिकेयके कथनाका लिए रूढ जरूर है। संभव है कि उसी परसे और मच्चिय किया है, जिसे वसुनन्दी यथेष्ट रूपमें नहीं उसी दृष्टिको लेकर यहां पुल्लिंगमें इस संज्ञाका प्रयोग कर पाये थे।
किया गया हो। परन्तु कुछभी हो, इन सब विकल्पों(घ) प्रथमोत्कृष्ट श्रावकके दो भेद किये हैं- को छोड़कर यह तो स्पष्ट ही है कि पं० भाशाधर
भिनानियम और २ अनेकभिक्षानियम । एक जीने इस द्वितीयोत्कृष्ट श्रावकको 'आर्य' नामसे पर संबंधिनी भिक्षाका जिसके नियम है वह एक नामांकित किया है, 'ऐलक' नामसे नहीं। अस्त: ५० भिक्षानियम नामका श्रावक है । उसके लिए मुनिमार्ग- श्राशाधरजीके वे सब पद्य, जो इस विषय में वसुनन्दी के अनुसार दातारके घरमें जाकर भोजन करने, परम जाकर माजन करना आचार्यको ऊपर उद्धत की हुई गाथाओंके साथ
आचार्यकी ऊपर उदधत भोजन न मिलने पर नियमसे उपवास करने और समानता या असमानता रखते हैं, इस प्रकार हैगुरुशुश्रषा तथा तपश्चरणादिकको करते हुए हमेशा
तत्तव्रतास्त्रनिर्भिन्नश्वसनमोहमहाभटः। मुनिवनमें रहने का विधान किया है। और अनेक
__ उद्दिष्टं पिंडमप्युज्झदुत्कृष्टः श्रावकोऽन्तिमः। ॥३७ भिक्षानियम नामके श्रावकके वास्ते अनेक घरोंसे उस
स द्वधा प्रथमः श्मश्रमूर्ध्वजानपनाययेत् ।। वक्त तक भिक्षाकी याचना करते रहनेका विधान
सितकौपीनसंध्यानः कतैयाँ वा चरेण वा ॥३८॥ किया है जब तक कि स्वोदर-पूर्तिके योग्य भिक्षा
स्थानादिषु प्रतिलिखेत् मृदूपकरणेन सः । एकत्र न हो जाय।
कुर्यादेव चतुष्पामुपवास चतुर्विधम् ॥४६॥ (ङ) द्वितीयोत्कृष्ट श्रावकको संज्ञा 'आय'दी स्वयं समुपविष्टोऽद्यात्पाणिपात्रेऽथ भाजने । है, जब कि वसुनन्दी प्राचार्य ने इस श्रावकके लिए स श्रावकगृहगत्वा पात्रपाणिस्तदाङ्गणे॥४॥ किसी खास संज्ञाका निर्देश नहीं किया और न स्थित्वा भिक्षां धर्मलाभ भरिणत्वा प्रार्थयेत वा। दसरे ही किसी पवोचायने. जिनका कथन ऊपर मौनेन दर्शयित्वांगं लामालाभे समोऽचिरात्।।४१ दिया गया है,५१ वी प्रतिमाधानी श्रावकके लिए निर्गत्यान्यद्गृहं गच्छेद्भिक्षोध क्तस्तु केनचित् । इस संज्ञाका कोई विधान किया है, बल्कि पज्य भोजनायाथितोऽद्यात्तद्भकवा यद्भिक्षितं मनाक ॥४२ प्रतिष्ठितादि अर्थकी वाचक यह सामान्य संज्ञा अनेक प्राथेयेतान्यथा भिक्षां यावरवादरपूरणीम्।। प्राचार्यों द्वारा अनेक प्रकारके व्यक्तियोंके लिए लभेत प्रासु यत्राम्भस्तत्र संशोध्य तां चरेत् ॥४३॥ व्यवहत हुई पाई जाती है। श्रीसमंतभद्राचार्य ने तो x इसे जिनेंद्र भगवान्को-तीर्थकरोंको सम्बोधन करने यस्त्वेकभिक्षानियमो गत्वाऽद्याइनुमुन्यसौ।
निगम
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भुक्त्यभावे पुनः कुर्यादुपवासमवश्यकम् ||४६ | सेन्मुनिवने नित्यं शुश्रूषते गुरू ंश्चरेत् । तपो द्विद्यापि दशधा वैयावृत्यं विशेषतः ॥ ४७|| तद्वद्वितीय.किःत्वायसंज्ञो लुञ्चत्यसौ कच'न् । कौपोनमात्र युग्धत्ते यतिवत्प्रतिलेखनम् ॥ ४८ ॥ स्वपाणिपात्र एवत्ति संशोध्यान्येन योजितम् । इच्छाकारं समाचारं मिथः सर्वे तु कुर्वते ||४६ ॥ श्रावको वीरचर्यादः प्रतिमातापनादिषु । स्यान्नाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्यययनऽपि च ॥५०॥
अनेकान्त
-सागा० ध० अ० ७
(१०) धर्मसंग्रहश्रावकाचार में पं० मेघावीन, जो कि विक्रमकी ५६ वीं शताब्दी के विद्वान् हैं, इस प्रतिमाका स्वरूप पं० आशावरजीके ही कथनानुसार द्विभेद अथवा त्रिभेदरूप दिया है। इतना ही नहीं बल्कि उनके शब्दका प्रायः अनुमरण भी किया हैं। सिर्फ दो एक जगह कुछ विशेष पाया जाता है; जैसा कि (२) उद्दिष्टपिडके साथमें आपने 'अति' शब्द को छोड़ दिया है, जिससे ऐसा मालूम होता हे कि शायद आपको उद्दिष्ट उपधि-शयनासनादिकका त्याग इष्ट नहीं था; (२) विकल्पसे मौनपूर्वक भिक्षा के कथनको न दे कर उसके स्थानमें वही वसुनन्दी जैसा कथन रक्खा है, और (३) द्वितीयो - त्कृष्ट श्रावकके लिए रक्त कौपीनका विधान किया हं । इस ग्रन्थके सिर्फ दो चार पद्य नमृनेके तौर पर नीचे दिये जाते हैं -
दशधा धर्मास्त्रसंभिन्न श्वसन्मोह मृगाधिपः । पिंडमु'द्दष्टमुज्झम्स्यादुत्कृष्टः श्रावको ऽन्तिमः ॥ ५६ ॥ ॥ उत्कृष्टोऽसौ द्विधा ज्ञेयः प्रथमो द्वितीयस्तथा । प्रथमस्य स्वरूपं तु वच्म्यहं त्वं निशामय || ६०|| श्वकपटकौपीनो वस्त्रादिप्रतिलेखनः । कर्तर्या वा तुरेणाऽसौ कारयेत्केश मुण्डनम् | ६१ ॥ लाभालाभे ततस्तुल्यो निर्गत्यैत्यान्य मंदिर म् । पात्रं प्रदर्श्य मौनेन तिष्ठेत्तत्र क्षणं स्थिरः ॥ ६५|| प्रार्थयेर्याद दाता तं स्वामिन्नत्रैव भुक्वहि ।
[ वर्ष १०
तदा निजाशनं भुक्त्वा पश्चात्तस्य मनेद्रुचौ । ६६॥ यस्त्वेकभिक्षो भुजीत गत्वाऽसावनुमुन्यतः । तदलाभे विदध्यात्स उपवासमवश्यकम् ॥ ७० ॥ तथा द्वितीयः किन्त्वार्य नामोत्पाटयेत्कचान् । रक्तकौपीनसंग्राही धत्ते पिच्छं तपस्विवत् । ७२ ॥ - धर्मसं० श्रा० अ० ८ (११) भाव संग्रहमे पं० वानदेव भी, जिनका अस्तित्व समय विक्रमकी १६ वीं शताब्दी पाया जाता है, इस प्रतिमाघारीके दो भेद करते है - एक 'ग्रन्थसंयुक्त' और दूसरा 'कौपीनधारक' । पहले के लिये आपने एक वस्त्रका विधान किया है, परन्तु श्राशाधरादिककी तरह साथम कौपीनका नहीं । वह क्षौर बराता है, गुरुके निकट पढ़ता है और पांच घरोंके भिक्षा- भोजनको ग्रहण करता है । दूसरा केशलौच करता है, कौपीन, शौचोपकरण. कमंडलु) और पिच्छीको छोड़कर उसके पास दूसरा कोई परिग्रह नहीं होता, वह मुनियोंके अनुमार्गसे चयो की जाता है और बैठकर कर पात्र में आहार करता है । शेष त्रिकालयोगादिकके निषेधका कथन उसके लिए साधारण है और उसमें वीरचर्याके न होनेका कारण आपने खडवस्त्र (कौपीन) का परिग्रह बतलाया है । यथा
नोटि..... (सेवते) भिक्षामुद्दिविरतो गृही । द्वं धैको ग्रंथसंयुक्तस्त्वन्यः कौपीनधारकः || २४५|| आद्यो विदधते क्षौरं प्रावृणोत्येक त्रास मं । पंचभिक्षाशनं भुङ्क्ते पठते गुरुसन्निधौ ॥५४६|| अन्यः कौपीनसंयुक्तः कुरुते कंशलुञ्चनं । शौचोपकरणं पिच्छं मुक्त्व न्यमथवर्जितः ||५४७|| मुनीनामनुमार्गेण चर्या सुप्रगच्छति । उपविश्य चरेद् भिक्षां करपात्रेऽङ्गसवृतः ||५४८|| नास्ति त्रिकालयोगोऽस्य प्रतिमाचा कसम्मुखा । रहस्यग्रन्थनिद्धान्तश्रवणे नाधिकारिता ॥ ५४६ ॥ arrant न तस्यास्ति वस्त्रखण्डपरिग्रहात् । एवमेकादशो गेही सोत्कृष्टः प्रभवत्यसौ ||५५०||
यहाँ पंचभिक्षाशनके नियमका जो खास विधान * इलखित ग्रन्थ देहलीके नये मन्दिरमें मौजूद है।
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किरण ११-१२]
किया गया है वह वसुनंदी आदिके कथनॉमे अविक और विशिष्ट है । इस विधानसे और द्विष्टश्रा के लिए जो मुनियोंके अनुमार्ग मे चर्याको जानेका विधान है उसमे ऐसी ध्वनि निकलती है कि पं० वामदेवने प्रथमोत्कृष्ट श्रावकके एक भिक्षा नियम और अनेक भिक्षा नियम नामके दो भेद नहीं किये; बल्कि प्रथमोत्कृष्ट श्रावकको अनेक भिक्षा-नियम और द्वितीयोकृष्ट श्रावकको एक भिक्षा-नियम में रक्खा है। साथ ही, इस प्रतिमा धारीको रहस्य और सिद्धान्तमथोंके अध्ययनका अधिकारी न बतलाकर उनके सुनने ( तक ) का अनधिकारी बतलाया हैं, यह विशिष्टता है ।
(१०) ब्रह्मनेमिदत्त, जिन्होंने वि० सं० १५-५ मे श्रीपाल चरित्रकी रचना की है, अपने 'धर्मोपदेश पीयूपवर्ष' नामके श्रावकाचारमं, इस प्रतिमाके दाभेद करते हुए लिखते है कि
तस्य भेदद्वयं प्राहुरेकवस्त्रधरः सुवोः । प्रथमोऽमौ द्वितीयस्तु यती कौपीनमात्र भाक् || २७०|| यः कौपीनधरो गत्रिप्रतिमायोगमुत्तमं । करोति नियमेनोच्चैः सदासौ धीरमानसः || २७१ ।। लोच विच्छच सत्ते भुक्तेऽसौ चोपविश्य वै । पाणिपात्रेण पूतात्मा ब्रह्मचारी स चोत्तमः || २७२|| कृतकारितं परित्यज्य श्रावकानां गृहे सुधी. । उद्दण्डमिक्षया भुक्ते चैकवारं संयुक्तितः ॥ २७३॥ त्रिकालयोगे नियमो वीरचर्या च सर्वथा । सिद्धान्ताध्ययनं सूर्यप्रतिमा नान्ति तम्य वे ॥ २७४ ॥
अर्थात् - इस प्रतिमा के दो भेद इस प्रकार है— पहला एक वस्त्रका धारक, जिले 'सुवी' कहते हैं, दूसरा कोपीन मात्रका धारक, जिसे 'यती' कहते है । जो कौपीन मात्रका धारक है वह धीरमानस, पवित्रात्मा, नियमसे उत्तम रात्रिप्रतिमायोग किया करता केशलोंच करता है, पिच्छी रखता है, बैठकर करपात्र में आहार करता है और उत्तम ब्रह्मचारी होता है । और 'सुधी' नामका श्रावक * यह हस्तलिखित प्रथ देवली के नये मंदिरके भंडार में मौजूद हैं।
ऐलक-पद-कक्षपना
३६५
कृतकारित दोषको छोड़कर उद्दढ भिक्षाके द्वारा, श्रावकों के घरपर, एक बार युक्तिपूर्वक भोजन किया करता है। उसके त्रिकालयोगका नियम नहीं और वीरचर्या, सिद्धान्ताध्ययन तथा सूर्य प्रतिमा का सर्वथा निषेध है ।
यहाँ इस प्रतिमाधारीके दो भेद करके उन भेदोंक जो 'सुधी' और 'यती' दो नाम दिये गये हैं, वे ऊपरके सभी विद्वानोंके कथनोंसे विभिन्न है । और सुधी ( प्रथमोत्कृष्ट ) श्रावकके लिए कृतकारित दोपको टालनेका जो विधान किया गया है, वह इस बातको सूचित करता है कि ब्रह्मनेभिदत्तक मतानुसार उसका भोजन स्वामिकार्तिकेय तथा अमितगत्यादिके अनुसार नवकोटिविशुद्ध होता है । अस्तु, ब्रह्मनेमिदत्तने इस प्रतिमाधारीके लिए 'सुवी' और 'यती' नामके दो नये नामका विधान करनेपर भी 'ऐलक' नामका कोई निर्देश नहीं किया. यह स्पष्ट है। साथ ही यह बात भी किसीसे छिपी नहीं है कि 'यति' अथवा 'यती' नाम जैन समाजमें, महाव्रती के लिए रूढ है और इस यतिपदकी प्राप्ति ग्यारहवीं प्रतिमाका उल्लंघन कर जानेके बाद होती है। श्रीसोमदेवसूरिके निम्न वाक्यसे भी यही पाया जाता है
पडत्र गृहिणो ज्ञेयास्त्रयः स्युत्रह्मचारिणः । भिक्षुकौ द्वौ तु निर्दिष्ट ततः स्यात्पर्वतो यति ॥ - यशस्तिलक इस वाक्य में यह बतलाया गया है कि श्रावककी ११ प्रतिमाओं में से पहले छह 'गृहस्थ' मध्यके तीन 'ब्रह्मचारी' और अन्तके दो 'भिक्षुक' कहलाते हैं और इसके बाद 'यति' संज्ञा होती है। यह दूसरी बात है कि श्रावकको 'देशयनि' भो कहते हैं । परन्तु यह संज्ञा सभी दर्जे के श्रावकों के लिये व्यवहृन होतो है । खालिस 'यति' संज्ञाका प्रयोग श्राम तौरसे महात्रती साधुओं के लिए हो पाया जाता है।
ॐ यह यतिन् शब्दकी प्रथमा विभक्ति एकवचनका रूप है।
★ यथा - "तथ्य देशयतीनां द्विधं मृलोत्तरगुणाभ्रयणात्" - यशस्तिलकः ।
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अनेकान्त
३६६
फिर भी यहाँ देशव्रतीके लिए 'यती' संज्ञाका व्यवहार किया गया है, यह एक खास बात है, और इसमें कोई गुप्त रहस्य जरूर है । संभव श्वेताम्बर यतियोंके पदस्थको लक्ष्य करके ही यहाँ इस संज्ञाका प्रयोग किया गया हो ।
कि
(१३) श्रीसोमदेव सूरि के ऊपर उद्धृत किये हुए atree पाठकों को यह भी मालूम होगा कि इस ११ वीं प्रतिमाधारीको 'भिक्षुक' भी कहते हैं । यद्यपि जैनधर्ममें 'भिक्षुक' नामका एक जुदा हो आश्रम माना गया है । जो कि अन्तिम आश्रम है और जिसे सन्यस्त आश्रम भी कहते है । और इस लिए 'भिक्षुक' एक मुनिकी या महात्रती साधुकी संज्ञा है; परन्तु सोमदेवसूरिने ११ वीं प्रतिमाधारी को भी इस नामसे उल्लेखित किया है और साथ ही १०वीं प्रतिमावालेके लिए भी इसी संज्ञाका प्रयोग किया है ।
ऐसी हालत में यह एक प्रकार की सामान्य संज्ञा होजाती है और उससे ११ वीं प्रतिमावाले का ही खास तौर से कुछ बोध नहीं हो सकता । परन्तु खास तौर से बोध होसके या न होसके इतना जरूर मानना पड़ेगा कि शास्त्रमें ११ वीं प्रतिमावाले के लिए 'भिक्षुक' संज्ञा भी बहुत पहलेसे चली आती है, क्योंकि यशस्तिलक ग्रंथ शक सं० ८८१ (वि० सं० २०१६) में बनकर समाप्त हुआ है और उसमें उक्त संज्ञाका निर्देश है।
+ यथा - ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः । इत्याश्रमास्तु जैनानामुत्तरोत्तरोत्तरशुद्धितः ॥
- श्रादिपुराणे श्रीजिनसेनः ।
+ पं० श्राशावर और पं० मेधावीने भी इस विषय में सोमदेवसूरिका अनुसरण किया है और १० वीं तथा ११ थीं दोनों ही प्रतिमावालोंको 'भिक्षुक' लिखा है। यथाअनुमतिविरतोद्दिष्टविरतावुभौ भिक्षुको प्रकृष्टौ च ।
- सागारधर्मामृत
"उत्कृष्टौ भिक्षुको परौ" - धर्मसंप्रहश्रावकाचारः
[ वर्ष १० यहाँ पर हमारे कितने ही पाठक यह जानने के लिए जरूर उत्कण्ठित होंगे कि श्रीसोमदेव सूरिने ११ वीं प्रतिमा का क्या स्वरूप वर्णन किया है। परन्त हमें खेद के साथ लिखना पड़ता है कि यशस्तिक नामके आपके प्रधान प्रथमें, जिसमें उपासकाध्ययनक
बहुत कुछ लम्बा चौड़ा वर्णन है, हमें इस प्रतिमाका कोई खास स्वरूप उपलब्ध नहीं हो सका । हाँ, एक स्थानपर ११ प्रतिमाओंके नाम जरूर मिले हैं। परन्तु नाम कितने ही अंशों में इतने विलक्षण है। और उनका क्रन भी इतना विभिन्न है कि वे दोनों ( नाम और क्रम ) ऊपर उल्लेख किये हुए आचार्यों तथा विद्वानोंके कथनसे मेल नहीं खाते । यथा
मूलव्रतं व्रतान्यर्चा पर्व मी कृषिक्रिया । दिवा नवविधं ब्रह्म सचित्तस्य विवजेनम् ॥ परिग्रहपरित्यागो भुक्तिमात्रानुमान्यता | तद्धानौ च वदन्त्येतान्येकादश यथाक्रमं । अवधित्रतमारोहेत्पूर्वपूर्व व्रतस्थितः । सर्वत्रापि समाः प्रोक्ता ज्ञानदर्शनभावनाः ॥ - आश्वास नं० ८
इन पर्थो में १ मुलवत, २ बतानि, ३ अर्चा, ४ पर्वकर्म, ५ अकृषि क्रिया. ६ दिवाब्रह्म, ७ नवविधत्रह्म ८ सचित्तविवर्जन, ६ परिग्रह-परित्याग, १० भुक्तिमात्राहानि और ११ अनुमान्यवाहानि, ऐसी ग्यारह प्रतिमाओंके नाम दिये हैं और उनका यही क्रम निर्दिष्ट किया है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि इन सभी प्रतिमाओं मे ज्ञानदर्शनकी भावनाएं समान हैं और पूर्व पूर्व व्रतस्थित (प्रतिमाधारी) को चाहिये कि वह अवधिव्रतको आरोहण करे । परन्तु अवधिव्रतको आरोहण करना क्या है, यह कुछ समझमें नहीं आता। संभव है कि जिस प्रकार श्वेताम्बरों के
* ऊपर उदूष्टय किये हुए षत्रगृहियो' इत्यादि श्लोकसे पहले ।
देखो, यशस्तिलक उत्तरखण्ड पृ० ४१०, नियय सागर प्रेस बन्बई द्वारा सन् १६०३ का छपा हुआ । ।
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किाण ११-१२
एलकपद-कल्पना यहां पहली प्रतिमा एक महीने तक, दूसरी दो महीने म्भवजन, और हवी प्रतिमा भतकप्रष्यारम्भवर्जन तक और तीसरी तीन महीने तक, इस प्रकार क्रमशः मानी है। बाको दर्शन, व्रत, सामायिक और अवधिको बढाते हए अगली अगली प्रतिमाओंके प्रोषध नामक पहनी चार प्रतिमाएं उनके यहां भी पालनका विधान है उसी तरहका अभिप्राय उन्ही नामों के साथ पाई जाती हैं जिन नामोंसे भगयहां 'अवधिवत' से सोमदेवरिका हो; अथवा वत्कुन्दकुन्दाचार्यने अपने 'चारित्त पाहुड' ग्रन्थमें इसका कुछ दूसरा ही प्राशय हो । परन्तु कुछ भी उनका उल्लेख किया है। यथाहो, इसमे सन्देह नहीं कि प्रतिमाओंका यह सब
दसण-वय-सामाइय-पोसहपडिमा अबम्भ सचित्त। कथन दूसरे दिगम्बर प्राचार्यों तथा विद्वानों के ग्रंथों
. प्रारंभ-पेस-उदिवज्जए समणभूए य॥शा से, जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है, नहीं । मिलता। यहां ग्यारहवीं प्रतिमावालेको उदिष्ट
-उपासकदशा के त्यागी नहीं बतलाया बल्कि अनुमान्यताकी हानि
(१४) पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, पद्मनन्दिश्रावकाचार, करनेवाला अथवा उसका त्यागी ठहराया है, जिसका
पूज्यपाद-उपासकाचार, रत्नमाला, पचाध्यायी (उपअभिप्राय पूर्वाचार्यों के कथनानुसार, दसवी प्रतिमा
लब्ध अंश), तत्वार्थसूत्र, तत्वार्थसार, सर्वार्थसिद्धि, (अनुमतित्याग) के विषयसे हो सकता है। दसवी
राजवातिक, श्लोकवार्तिक, धर्मशर्माभ्युदय आदिक प्रतिमावालेको यहाँ भोजनकी मात्राका घटाने वाला
बहुतसे प्रन्थों में ११ प्रतिमाओंका कथन ही नहीं है
और न उनमें किसी दूसरी तरह पर 'ऐलक' नामका लिखा है; परिग्रहत्यागसे पहिले 'आरम्भत्याग'
उल्लेख पाया जाता है । गोम्मटसारके संयममार्गनामकी प्रतिमाका कोई उल्लेख नहीं. सचित्तत्याग
णाधिकारमें ११ प्रतिमाओंके नाम जरूर हैं और नामकी प्रतिमाको पांचवीं प्रतिमा करार न देकर पाठवीं प्रतिमा करार दिया है । 'अकृषिक्रिया' नाम
उनकी सूचक वही गाथा दी हैं जो भगवत्कन्दकुन्द के की एक नई प्रतिमा पांचवें नम्बरपर दी है और
चारित्तपाहुड प्रन्थमें पाई जाती है। परन्तु उन
प्रतिमानोंका वहाँ कोई स्वरूप निर्देश नहीं किया तीसरी प्रतिमा 'सामायिक' की जगह 'अर्चा' (पूजा)
गया, इसलिए वहांसे भी इस विषयमें कोई सहालिखी है। इससे पाठक सोमदेवसरिके प्रतिमा
यता नहीं मिलती। विषयक विभिन्न शासनका बहुत कुछ अनभव कर सकते हैं। यह शासन प्रतिमाओं के नाम, विषय इस तरह पर संस्कृत-प्राकृतके प्रायः उन सभी
और उनके क्रमकी अपेक्षा श्वेताम्बरोंके शासनसे प्रासद्ध प्रासद्ध ग्रन्थाका टटोलनेपर जिनमे प्रतिमा. भी भिन्न है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें दसवी प्रति- अकि कथनकी संभावना थी, हमें किसी भी प्रन्थमें मावालेको 'उद्दिष्टत्यागी' माना है और ग्यारहवीं 'ऐलक'नामकी उपलब्धि नहीं हुई। हाँ 'क्षल्लक' पद
वीका उल्लेख बहुतसे ग्रन्थों में जरूर पाया जाता है। प्रतिमाकी संज्ञा 'श्रमणभूत' दी है। इसके सिवाय उन्होंने ५वीं प्रतिमा 'कायोत्सर्ग' (प्रतिमा',६ठीअब्रह्म- उदाहरण के लिए यहाँ उनमेंसे कुछका परिचय दे देना वजेन, ७ वीं सचित्ताहारवर्जन, ८वीं स्वयमार• काफी होगा
(क) श्री जिनसेनाचार्य-प्रणीत 'हरिवंशपुराण'
में जो कि शक सं०७०५ में बनकर समाप्त हुमा है, देखो योगशास्त्रको गजाराती टीका निर्णयसागर -
देखो 'उपासकदशाका अभयदेवकृत विवरण । प्रेस बम्बईमें संवत् १९५५ की छपी हुई, पृष्ठ १३७, और
देखोहोनले (A. F. Rudolf Hoernle) उपासकदशा' का अभयदेव कृत विवरण, होनले साहब का, सन् १८८५ में छपाया हुअा, पृ. २६से२६ । का सस्करण सन् १८८५ का छपा हुमापृ. १६७ ।
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३६८ अनेकान्त
[वर्ष १० विष्णुकुमार मुनि और प्रद्य म्नकी कथाओंमे चल्लक ( ) वादिचन्द्र सरि अपने 'यशोवरचरित. पदवीधारक श्रावकका उल्लेख है I
में, जिसका निमाण-काल वि० संवत् १६५७ है. (ख) विष्णकुमार मुनिकी कथामें, प्रभाचन्द्राचाये पहले शिक्षा (११ प्रतिमा) फिर दीक्षा (मनिदीना और ब्रह्मनेमिदत्तने भी शल्लक पदका उल्लेख किया और फिर भिक्षाका विधान करते हुए, एक स्थानपर और उस चल्लक श्रावकका नाम. जो विष्णुकुमार लिखते है कि वह संसारसे भयभीत राजा अपने पनि पास अकम्पनाचार्यादि मुनियों के उपसगेका गुरुकी दी हुई शिक्षाको ग्रहण करक और अपने सर्व
चार लेकर गया था, पुष्पदन्त' दिया है। साम्राज्यका छाड़कर उस वक्त 'क्षुल्लक' हो गया
(ग विक्रमकी १० वीं शताब्दीके विद्वान् श्रा. और उसने गुरुकी आज्ञासे कौपीन, एक वस्त्र भिक्षा. देवसेनाचार्य, अपने 'दर्शनसार' ग्रन्थमें, कुमारसेन- पात्र, औरकमडलु धारण कर लिया। यथाद्वारा वि० सं० ७५३ में काष्ठासंघकी उत्पत्ति बतलाते
शिक्षां श्रित्वा गुरोदत्ता संसारभयभीलुकः। हुए, लिखते हैं कि कुमारसेनने 'क्षुल्लक' लोगोंक
हित्वाहि सर्वसाम्राज्यमभवत्क्षुल्लकस्तदा ॥३०॥ लिए 'वीरचर्या' का विधान किया है।
भिक्षापात्रं च कौपीनमेक स्त्रं कमडलु। इत्थीणं पुण दिक्खा खुल्लयलोयस्म वीरचरियतं ।
अधारि वचसा साधो दयांगिक्षमया सह।।३०।। (पूरा प्रकरण देखो-गाथा नं०३३ से ३६ तक)
-मगे १७ दर्शनसारके इस प्रकरणसे साफ जाहिर है कि
इन सब अवतरणोंको ध्यानमे रखते हुए, और वि० संवत ७१३ से भी पाहल से तुलजक पदका प्रायश्चित्तसमुच्चयकी चालकाके उस अवतरण अस्तित्व है और उस समय मूल संघर्म वल्लकोंके
पर खास तौरसे लक्ष्य देत हुए जो ऊपर नं. ७ में लिए वीरचर्याका निषेध था।
उद्धृत किया गया है और जिसमें साफ तौरसे (घ) यशस्तिल कमें श्रीनोमदेवसरिमी 'क्षल्लक' तुल्जकका स्वरूप बतलाया गया है यही मालम पद का उल्लेख करते है और लिखते है कि पोल्लकों होता है. इस समूची ११ वी प्रतिमाके धारका के लिए परस्पर 'इच्छाकार' वचनके व्यवहारका सुप्रसिद्ध और रूढ़ नाम 'क्षल्लक है। बाकी विधान है। यथा
'उत्कृष्ट श्रावक' यह श्रेणी (दर्जे) की अपेक्षा नाम . अहंदरूपे नमोस्तु स्यादविरतौ विनय-क्रिया। है: उद्दिष्टाहारविरत ( उद्दिष्टपिंडविरत ), उहि
टावनिवृत्त (त्यनोद्दिष्ट, उद्दिष्टवर्जी लि अन्योन्यक्षल्केष्वहमिच्छाकारवचः सदा
. -आश्वास-पृ०४०७ त्यागी), एक वस्त्रधारी, खंडवस्त्रधारी, कोपोनमात्र
धारी, भिक्षक इत्यादि नाम उसके गुण प्रत्यय नाम मल्लकापुष्पदन्तस्तं क्व नाथेति संभ्रम प्रमाक्षीद् २०-२७ हैं। और हमारे इम क्थनका समर्थन धर्मसंग्रह "विकृत्य क्षोल्लकं वेष मातृमोदकक्षिणा।" ४७..१।।
श्रावकाचारकी प्रशस्तके निम्न पद्यसे भी होता हैदेखो उक्त विद्वानोंके बनाये हुए 'श्राराधनामार
यः कक्षापटमात्रवस्त्रमाल धत्ते च पिच्छं लघः कथा' और 'पाराधनाकथाकोश' नामके प्रय । ब्रह्म नेमिदतके आराधनाकयाकोशका एक पद्य इस प्रकार है
लोचं कारयते सकृत्करपुटे भुक्तेचतुर्थादिभिः ।। इति प्राह तदाकार्य पृष्टोऽसौ तुल्लकेन च ।
दीक्षां श्रौतमुनीं बभार नितरां सानुल्लक: साधकः पुष्पदन्तेन भो देव कुत्र केषां गजगी ।। ६२॥ आर्यो दीपद पाख्ययात्र भुवनेऽसौदीप्यतां दीपवत
यह 'वीरचर्या' वही है जिसका कितने ही प्राचायों इस पद्यमें 'दीपद' नामके एक शल्लकको तथा विद्वानोंने ११ वी प्रतिमाधारक उत्कृष्ट श्रावक के आशीवाद दिया गया है जिसने श्रतानसे दीक्षा जिए निषेध किया है।
ली थी, और उसके सम्बन्ध में यह लिखा है कि वह
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किरण ११-१२
मात्र वस्त्रका धारक था, हलकी पिच्छी रखता था, लौंच किया करता था और कर-पात्रमें दूसरे तीसरे दिन एक बार भोजन किया करता था । यद्यपि इन लक्षणों से वह साफ तौरपर द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक जान पड़ता है, जिसके लिए पं० भाशावरजी और उक्त धर्म संग्रहश्रावकाचार के कर्ता पं० मेघावीने, अपने अपने ग्रन्थों में 'आर्य' संज्ञाका प्रयोग किया हैं, तो भी यहां उसके लिए 'आर्य' विशेषण न देकर इस बात को और भी बिलकुल साफ कर दिया है कि जिसे हम 'द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक' अथवा 'आर्य' कहते है, वह 'क्षुल्लक' ही है-उससे भिन्न दूसरा म नहीं है। और गुरुदासाचार्यने तो, अपने प्रायश्चित्तसमुच्चयकी चूलिकायें, तुल्लकों के लिए यह साफ लिखा ही हैं किं वे क्षौर कराओ या लोच करो, हाथमें भोजन करो या वर्तनमे और कौपीन मात्र रक्खो या एक वस्त्र, परन्तु उन्हें 'क्षुल्लक' कहते
2*1
ऐलक-पद- कल्पना
उनके इस कथनमें ११ वीं प्रतिमा के दोनों भेदों का, चाहे वे पहिले से हों या पोछेसे कल्पित किये गये हों, समावेश हो जाता हैं। और इसलिए यह कहना चाहिए कि आगम में उक्त दोनों प्रकारके श्रावकों के लिए 'क्षुल्लक' संज्ञाका समान रूपसे विधान पाया जाता है ।
जो लोग प्रथम भेदको ही क्षुल्लक मानते हैं और दूसरेको चल्लक स्वीकार नहीं करते बल्कि उसके लिए 'ऐलक' नामकी एक संज्ञाका व्यवहार करते हैं, उनका यह श्रचरण जैनागमके कहाँ तक अनुकूल है उसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं ।
यहां पर मैं इतना और बताला देना चाहता हूँ कि धर्मसंह श्रावकाचार वि० संवत् १५४१ में बनकर समाप्त हुआ है और उस वक्त 'दीपद' नामका उक्त taraक मौजूद था। चूंकि स्वरूपकी दृष्टिसे इस
देखो इस लेखका नं ०७ पृष्ठ ३६१
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तुल्लक और आज कल के 'ऐलक' में परस्पर कोई भेद नहीं पाया जाता, इसलिए धर्मसंग्रहश्रावकाचारके उपर्युक्त उल्लेखसे यह नतीजा निकलता है कि जिसे हम आज 'ऐलक' कहते हैं, उसे विक्रमकी १६ वीं शताब्दी में भी क्षुल्लक कहते थे ।
(१५) अब देखना यह है कि पिछले साहित्य में 'लिक' नामको उपलब्धि कहींसे होती है या कि नहीं- अर्थात् विक्रमको १६ वीं शताब्दीसे बाद के किसी संस्कृत या प्राकृत ग्रन्थ में 'ऐलक' पदका होगा कि हां, 'लाटी संहिता' नामका एक संकृतमंथ ऐसा क्या कोई उल्लेख पाया जाना है ? उत्तरमें कहना जरूर है जिसमें 'ऐलक' पदका उल्लेख ही नहीं मिलता बल्कि ११ वीं प्रतिमा के द्वितीय भेदवर्ती उत्कृश्रावककी संज्ञा के लिये उसका स्पष्ट विधान किया गया है। यह ग्रंथ पंचाध्यायी आदि ग्रन्थोंके रचियता कवि राजमल्जकी कृति है और इसकी रचन विक्रम संवत् १६४१ में आश्विन शुक्ला दशमीको हुई है। इसके ७वें सगमें, 'प्रनुद्दिष्टभोजन' नामकी ११ वीं प्रतिमा का वर्णन करते हुए, उत्कृष्टश्रावकके दो भेद करके उनके क्रमश. 'तुल्लक' और 'ऐलक' ऐसे दो नाम दिये गये हैं। साथ ही 'उक्तंच' रूपसे एक गाथां प्रमाण में उद्धृत की गई है । यथा:
उत्कृष्टः श्रावको द्वधा चुल्लकश्चलकस्तथा । एकादशतस्थौ द्वौ स्त द्वौ निर्जरको क्रमात् ॥ ५६ ॥
उक्त च-
एयार [स] म्मि ठाणे उक्किट्ठो साव ओहवे दुविहो
त्थे पढमो कोवोपरिग्गहो विदिओ५७ रथों के ये नम्बर देहलीके पंचारती तथा नयामन्दिर की हस्तलिखित प्रतियों में दिये हुए है। मुद्रित प्रतिमें प्रथम पथका ११ नम्बर दिया हुआ है, और दूसरे पर कोई नम्बर ही नहीं दिया जब कि इस सर्गके प्रारंभिक दो पद्योंपर १--१ नम्बर दो बार दिया है। और इससे हस्तलिखित प्रतिकायह नम्बर कपड़ी ठोक जान पड़ता है ।
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अनेकान्त
[वर्ष १० यहां जिस गाथाको समर्थनमें उद्धृत किया गया ईषत् (अल्प) अर्थ करके और कौपीनमात्र वस्त्रधारी
वमनन्दिश्रावकाचारकी वही गाथा है जिसे को 'अचेलक मानकर चकारका लोप करते हुए उपर नं०८ में वसुनन्दी प्राचाय के विचारका 'ऐलक' (अ+एलक =ऐलक) पदकी यह कल्पना को
तेहए दिया जा चुका है। इसमें ११ वी गई हो । परन्तु कुछ भी हो, उपलब्ध जैन साहित्यकी प्रतिमाके दो भेदोंका उल्लेख जरूर है परन्तु उनके दृष्टिसे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं होता कि लिए 'क्षुल्लक' और 'ऐलक' ऐसे दो नामोंका के
'ऐलक पदकी कल्पना विक्रमकी ५७ वीं शताब्दीसे विधान नहीं है, और इसजिये इस गाथापरसे ११ पूर्वको नहीं वी प्रतिमाके केवल दो भेदोंका हो समर्थन होता है उनके नामोंका नहीं। भेदोंका यह नामकरण यदि यहाँ पर में इतना और भी प्रकट कर देना इससे पहिले किसी आचायेके द्वारा हुआ होता तो चाहता हूँ कि कविराजमल्लने ११ वी प्रतिमा संहिताकार कविराजमल्लजी उसे इस अवसरपर भेदोंका जो अपार निर्दिष्ट किया है , यहाँ जरूर देते, न देनेसे साफ जाना जाता है कि आचार्यके कथनसे जहाँ बहुत कुछ मिलता जनता यह नामकरण पालेका न होकर उन्हींका किया हुआ है वहां कितने ही अंशोंमें उससे विभिन्न भी पाया है और इसलिये जबतक इससे पूर्वका कोई दूसरा जाता है; जैसे प्रथमोत्कृष्ट श्रावकके लिये वसनी स्पष्ट प्रमाण सामने न आजाए तब तक यहो मानना एक ही वस्त्रका विधान करते हैं तब ग समुचित होगा कि ११ वी प्रतिमाके वसुनन्दिकृत
उसके साथ 'एक वस्त्र सकौपीनं' कहकर कौपीन दो भेदोंका 'क्षुल्लक' और 'ऐजक' के रूप में यह और जोड़ते हैं, वसुनन्दीने उसके जिये विकल्परूपसे नामकरण कवि राजमल्लजीका किया हुमा है। करपात्रमें भी आहारका विधान किया जो कि
द्वितीयोत्कृष्ट श्रावकका नियमित प्राचार है, परन्तु उन्होंने द्वितीयोत्कृष्ट श्रावकके लिए 'ऐलक' नाम किस
राजमल्ल वेसा विधान न करके उसको द्वितीयोत्कृष्टदृष्टिको लेकर दिया है यह बात अभी विचारणीय
के लिये हो निधारित करते हैं-उनके मतसे प्रथमोहै। द्वितीयोत्कृष्ट श्रावकके लिये कौपीन मात्र वस्त्रका
स्कृष्टश्रावक काँसी अथवा लोहेका पात्र रखता है विधान किया गया है और यह वस्त्र बहुत अल्प होता है जबकि निम्रन्थ दिगम्बर साधु इसे भी नहीं
उसीमें भोजन करता है और अपनी पांच घरोंसे रखते और इसीसे 'अचेलक' अथवा 'आचेलक्य व्रत भ्रामरीवृत्तिद्वारा संचित भिक्षामेंसे यथावसर दसरे के अनष्ठाता' कहलाते हैं। द्वितीयोत्कृष्टश्रावक उन्हींके किसी अतिथिको गृहस्थके समान दान भी देता है मार्गका अनुगामी तथा अभ्यासी होता है। तथा दानके अनन्तर यदि कुछ भिक्षा पात्रमें अव. पिनी-कमण्डल-धारणादिके साथ साथ वह केशोंका लाटीसहिताके ७ ये सगमें एक पद्य निम्न प्रकार लौच करता और करपात्रमें आहार करता है। से दिया हुआ हैहो सकता है कि 'अचेलक' पदमें प्रयुक्त हुए 'अ' को कौपीनोपधिमात्रत्वाद् विना वाचं यििक्रया।
विद्यते चैलकस्यास्य दुर्द्धर व्रतधारणम् ॥६०॥ तलक: स गृहणाति वस्त्र कौपीनमात्रकम् ।
इसमें 'चैलकस्य पदका रूप यदि 'चेलकस्य' हो तो खोचं स्मशिरोलोम्नां पिच्छिकां च कमण्डलुम् ५८
'विद्यतेऽचेलकस्य' इन दो पदोंकी उपलब्धि स्पष्ट हो + +
जाती है और तब यह सहज ही कहा जा सकता है कि ईर्यासमितिसंशुद्धः पय टेद गृहसंख्यया ।
ग्रन्थकारने ऐलकको स्वयं अचेलक रूपसे उल्लेखित भी द्वाभ्यां पात्रस्थानीयाभ्यां हस्ताभ्यां परमश्नुयात् ॥६३॥ किया है।
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किरण ११-१२ ।
ऐलक पद-कल्पना
शिष्ट रहती है तो उसासे अपनो सदरपूर्ति करता है तपविधान भागमअभ्यास,शक्तिसमान करै गरुपाम।।
और नहीं रहती तो स्वयं उस दिन उपवास करता यह छुल्लक श्रावककी रीत,दूजो ऐलक अधिक पनीत । है, जब कि वसुनन्दी आचार्यका ऐसा कोई विधान जाके एक कमर कौपीन, हाथ कमडल पोछी लीन ।। नहीं है। वसनन्दीने दोनों ही श्रावकोंके लिये 'धर्म- विधिसे खड़ा लेहि आहार, पानिपात्र आगमअनुसार लाभ' कहकर भिक्षा मांगने तथा बैठकर भोजन करें केशलुचन अतिधीर, शीतघाम तन सहै शरीर । करनेका विधान किया है और साथ ही उनके लिये पानपात्र आहार, करै जलांजलि जोर मनि । दिनमें प्रतिमायोग-धारण, वीर-चर्या, त्रिकाल योग खड़ो रहै तिहि बार, भक्तिरहित भोजन तजै ॥२०॥ (आतापनादिक) और सिद्धान्त तथा रहस्य ग्रन्थोंके एक हाथ पै ग्रास धर, एक हाथसे लेय । अध्ययनका निषेध किया है, जब कि कवि राजमल्ल• श्रावकके घर पायके, ऐलक अशन करेय ॥२०॥" जोने वैसा कोई प्रतिबन्ध नहीं रक्खा है । प्रथमके
-अधिकार वां लिए और दसरेके लिये लोंच आदिके विधानमें दोनों
पं० भूधरदासजीका यह सब कथन प्राय: लाटीही प्रायः ममान हैं।
सीहताके अनुकूल है। उन्होंने जो यह लिखा है कि (१६) कवि राजमल्लजी एक बहुत बड़ प्रतिभा सिद्धान्तमें इस प्रतिमा के 'क्षल्लक' और 'ऐलक' ये
। एवं सम्मान्य विद्वान थे और इसलिए उनक दो भेद किये है, उसका अभिप्राय भी लाटीसंहिताद्वारा किया गया ११वीं प्रतिमाके दोनों भदकिा से ही जान पड़ता है, लाटीमंहिताकारने स्वयं ही यह नामकरण क्रमशः प्रचारमें आया तथा रूढ हुआ प्रशस्तिमें अपनी इस संहिताको 'तावत्सिद्धान्तमेतजान पड़ता है। चुनॉचे पं० भूधरदास जीने अपने जयतु' इस वाक्यके द्वारा 'सिद्धान्त' नामसे उल्ल. पार्श्वपुराणमे, जा त्रि० सवत १७८६ की रचना है, खित किया है। 'सिद्धान्त' शब्द सामान्यतः शास्त्रखुले रूपसे इस अपनाया है। इस पुराणमें ११ वीं
मात्रका भी वाचक है, उस अर्थमें भी भूधरदासजीके प्रतिमाका जो वणेन दिया है वह इस प्रकार है- 'सिद्धान्त' शब्दको ले सकते है और उसमे भी
"अब एकादशमी सुनो, उत्तम प्रतिमा सोय। लाटीसंहिताका समावेश हो जाता है। इसके सिवाय
ताके भेद सिद्धान्तमे, छुल्लक ऐलक दोय ।।१६४। दूसरा काई प्राचीन सिद्धान्तशास्त्र या आगमग्रन्थ जो गुरुनिकट जाय ब्रत गहे, घर तज मठमंडपमे रहै। ऐसा नहीं है जिसमे ११ वी प्रतिमाके 'क्षल्लक' और एक वसन तन पीछी साथ,काटकोपीन कमंडल हाथ।। 'एलक' एसे दो भेद किये गये हो, यह बात हम भिक्षाभाजन राखै पास, चारों परब करै उपवास! ऊपर भले प्रकार देख चुके हैं। ले उदण्ड भोजन निर्दोष, लाभ अलाभ राग ना रोष।।
उपसंहार उचित काल उतरावै केश, डाढो मोछ न राखै लेश।
ऊपरके इन सब अनुसन्धानों परसे ११ वीं * यथानिर्दिष्टकाले स भोजनार्थ च पर्यटेत ।।
प्रतिमाका इतिहास बहुत कुछ सामने आ जाता है पात्र भिक्षां समादाय पंचागारादिहालिवत् ॥६॥ तम्राप्यन्यतमे गेहे दृष्टवा प्रासुकमम्बुकम् ।
और यह साफ मालूम होता है कि यह प्रतिमा मूलक्षणं चातिथिमागाय संप्रेच्याध्व च भोजयेत् ॥६॥
में एक ही भेदरूप थी, इसका नाम उद्दिष्टविरत' था, देवात् पात्रं समासाद्य दद्यादानं गृहस्थवत् ।
जो बादको 'उहिष्टाहारविरत' हुआ और उससे उसके तच्छेषं यत्स्वय भुक्ते नो चेत्कुर्यादपोषितम ॥७॥ मुख्य विषयकी सीमा उहिष्टभोजनके त्याग तक
' - सर्ग ७ वां सोमित हुई । श्रीचामुण्डरायने 'उद्दिष्टविनिवृत्त' नाम
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४०२
अनेकान्त
[ वर्ष १०
देकर और उद्दिष्ट पिंडके साथ साथ उद्दिष्ट उपधि- जैसे एक नामसे ही उपलक्षित होतेरहे, जैसाकि प्रायशयन-वसनादिको भी शामिल करके उसके विषयको श्चितत्तसमुच्चय चूलिकामे श्रीगुरुदासाचार्यके दिये हुए फिरसे बढ़ाया और पं० आशाधरजी आदिने दबे 'क्षल्लक'क लक्षणसे प्रकट है। और यह 'शल्लक' शब्दों में उसका समर्थन भी किया, परन्तु वह बात नामकरण निग्रन्थ साधुओंके नीचे दर्जे का साधु चली नहीं और अन्तको उद्दिष्टभोजन के त्यागका हो होने के कारण किया गया जान पड़ता है, जिसे कन्दविधान स्थिर रहा-चाहे प्रतिमाका नाम 'उद्दिष्टविरत' कुन्दाचार्य ने सुत्तपाहुडमे मुनियों के बाद द्वितीयलिङ्ग जैसा कुछ भी क्यों न हो।
धारी बतलाया है। जब ये वैकल्पिक आचरण
अधिक रूढ हो गये और उनके अनुष्ठाताओं में बड़ेइस प्रतिमाधारीके लिये एक वस्त्रका नियम था मोदी
छोटेकी भावनाएं घर करने लगी तब वसुनन्दी और वह प्रायः ऐसा खण्डवस्त्र होता था जिससे पूरा आचार्यने इस प्रतिमाके दो भेद कर दिये और उनमें शरीर न ढक सके-सिर आदि ढके गये तो पैर इनके माचारको बॉट दिया, परन्तु दोनोंक लिये स्खल गये और पैर आदि ढके गये तो सिर खुल कोई अलग अलग नाम निर्दिष्ट नहीं किया। पं. गया। किसी किसी बलवान् भात्माने उस वस्त्रका प्राशाधरजोने प्रथमभेदके दो भेद किये, द्वितीय संकोच किया और उसे अपने लिये लंगोटी तक के लिये 'आर्य' नाम दिया, पं. मेधावीन उनका सीमित किया और कोई २ वस्त्रके अतिरिक्त लंगोटी अनुसरण किया और ब्रह्मनेमिदत्तन प्रथम भी धारण करने लगे। इस तरह वस्त्रके विषयमें भेदवके लिये 'सधी'और द्वियक लिये 'यती' नाम विकल्प उत्पन्न हुए । केश कटानेके विषयमें भी दिया; परन्तु ये सब नाम कछ चले अथवा प्रचलित बिकल्पोंने इसी प्रकार जन्म लिया-कोई केंचीसे नहीं हो पाये । इस प्रतिमाधारोक लिये चल्लक बटाने लगे तो कोई उस्तरेसे और जिन्हें जल्दी हो नामका अखण्ड प्रयोग १६ वी शताब्दी तक बराबर मुनिमागे पर चलना इष्ट हुश्रा अथवा दूसरी कोई चलता ही रहा । ५७ वी शताब्दीमे विद्वद्वर पं० अन्य परिस्थिति सनके सामने आई तो वे केशका राजमल्लजीने प्रथम भेदके लिये 'क्षुल्लक' और द्वितीय लौंच करन लगे अर्थात् उन्हें अपने हाथसे उखाड़कर के लिये ऐलक' नाम दिया और तबसे ये नाम इन फेंकने लगे। पात्र-विषयक विकल्पका भी ऐसा ही दा भेदोंके लिये रूढ चले आते है। इससे स्पष्ट है हाल है । इस प्रतिमाका धारी गृहत्यागी होता था कि 'ऐलक' पदकी यह कल्पना कितनी आधुनिक
और इसलिये उसका भोजन भिक्षापर निर्भर था। तथा अवोचोन है । प्रचोन दृष्ठिमे इस पदका धारक भिक्षा भ्रामरीवृत्ति-द्वारा भनेक घरोंसे ली जाती थी, क्षल्लक साधस अधिक और कछ नहीं है--श्रोकन्दजिससे किसी भी दाताको कष्ट न हो और न व्यथके कुन्दाचार्य उस द्वितीय लिङ्गधारीके अतिरिक्त कोई भाडम्बरको अवसर मिले, अतः भिक्षापात्रका तीसरा लिङ्गवारी नहीं बतलाते है। रखना आवश्यक था, उसे लेकर ही भिक्षाके लिये
जुगलकिशार मुख्तार जाना होता था। उस पात्रकी धातु आदिके विषयमें विकल्प उत्पन्न हुए। और कुछने भिक्षापात्रकी झझट- यह लेख उस लेखका कुछ संशोधित तथा परिवर्धित को छोड़कर मुनियोंकी तरह करपात्रमे ही आहार रूप है जो भाजते कोई २६ वर्ष पहले ता०१३ सितम्बर करना प्रारम्भ कर दिया। इन सब वैकल्पिक आच. सन १६ का लिखा गया था और उसी समय लेखकरणोंके होते हुए भी प्रतिमामें कोई भेद नहीं किया द्वारा सम्पादित 'जैनहितंकी मासिक भाग १५के सयुक्ता गया। प्रतिमाके धारक सभो उस्कृष्टश्रावक 'तुल्लक' नं. ९-१० में प्रकाशित हुआ था।
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आर्योंसे पहलेकी संस्कृति
( लेखक-गुलाबचन्द चौधरी एम०ए०, व्याकरणाचार्य) जबसे सिन्धु घाटोकी खुदाई हुई है और शाखाओंकी पहचान की गई है । इस अध्ययनसे पुरातत्व विभागले एक विशिष्ट मभ्यताकी सामग्री यह निष्कर्ष निकला है कि भाज ही नहीं बल्कि मपस्थित की है, तबसे हम भार्सेक बागमनसे सदर अतीत में भारतकी जातियोंका निर्माण अनेपूर्वकी भारतीय स्थिति जाननकी परम जिज्ञासा क मानव शाखाओंके मंमिश्रणसे हुआ है। यह उत्पन्न हुई है और लगभग चार पीढ़ियोंसे विद्वान संमिश्रण बेदकालसे ही नहीं बल्कि सिन्धु घाटीउस सदर अतीतको जान्नेके लिए प्रयत्नशील हैं। की सभ्यतासे भी प्राचीन कालसे है। २ भाषाविभारतीय इतिहामका वैज्ञानिक अध्ययन जब ज्ञानने भाषाके अंगोंके विकासके अध्ययनके शिशु-प्रवस्थामें था, तभी विद्वानोंने इमके साथ विविध संस्कृतियोंके प्रतिनिधि स्वरूप शब्दों. विवेचनका कुछ गलत तरीका अपना लिया था। को खोज निकाला है और इन संस्कृतियों के आदान व धरातल पर डाविनके प्राणि-विकासवादके अनु- प्रदान तथा संमिश्रण के इतिहास जाननेकी भूमिका सार बन्दरम मनुष्य की उत्पत्ति बता, भारतवर्षमे उपस्थित की है । भाषाविज्ञानसे तत्कालीन समाज. आदि सभ्यताका दर्शन वेदकालसे मानते थे। यह की विचारधारा तथा मानसिक स्थितिका भी पता सच था कि तब उनके पास इतिहास जाननेक चला है। ३ पुरातत्व सामग्रो इतिहासका एक प्रबल साधन ही कम थे तथा विश्वके सर्व प्रथम साहित्य- आधार है, जहाँ अन्य ऐतिहासिक साधन मौन रह के रूपमे वेद ही उनके सामने था। आज भारत- जाते हैं वहाँ इस पुगतत्वकी गति है । इस पुरातत्ववपके वेदकालीन और उसके पश्चातयुगक सां- की प्रेरणासे हम भारतीय संस्कृतिके मातर स्कृतिक इतिहासको जानने के लिए :चर लिखित आधारोंको खोजने में समर्थ हए हैं। साहित्य ही नहीं बल्कि विशाल पुरातत्त्व सामग्री
वेद और आर्य उपलब्ध है, तथा आर्योसे आने के पहले प्राग्वैदिक भारतीय इतिहामको जब हम विश्व इतिहाससंस्कृतिके ज्ञानके लिये भी विद्वानोंने साधन जुटा का एक भाग मान कर अध्ययन करते है तथा लिये हैं।
विशेषकर निकटपूर्व ( Near Fast) से सम्बतीन साधन
न्धित कर वेदका अध्ययन करते है तो मानव आज विद्वान लोग जिन साधनों का प्राश्रय ले इतिहासकी अनेक समस्या सहजमें सलम उस सुदूर अतीतका चित्र सपस्थित करते है वे जाती है। वेदों में वर्णित घटनामोंका मतलब मुख्यतः तोन हैं-१ मानववश विज्ञान (Anthro. निकट पूर्व ( Near Fast ) की घटनाओंसे मालूम pology) २ भाषा विज्ञान (Philology) तथा ६ होता है । इन घटनाओंमे विद्वानोंने मिद्ध किया कि पुरातत्व (Archeology) । १ मानववंश-विज्ञान- आये लोग भारतमें बाहरसे आए हैं उन्हें बाहरसे द्वारा मनुष्यके शरीरका निर्माण तथा विशेषकर पाने में दो प्रकारके शत्रोंमे सामना करना पड़ा, चेहरेके निर्माणका अध्ययन कर विविध मानव. एक तो प्रात्य कहलाते थे जो कि सभ्य जातिके थे
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अनेकान्त
विष १०
दुसरेथे दास और दस्यु जो कि आर्येतर जातिके थे। है । इमलिये वैदिक कालकी तिथिके निण्यके ये नगरोंमें रहने वाले लोग थे। वेदों में इनके बड़े लिये हमारे पास सुरक्षित पक्ष भाषा विज्ञान और बड़े नगरों ( पुरों) का उल्लेख है। इनमेंसे जो पुरातत्व ही है। कुछ विद्वान श्रा का भारत में व्यापारी थे वे परिण कहलाते थे; जिनसे आर्योको आना नहीं मानते। वे इन्हें यहींका निवासी मानते अनेक अवसरोंपर युद्ध करना पड़ा था। ऋग्वेद हैं। पर उनका यह कथन आनुमानिक है। माववंशमें दिवोदास और पुरुकुत्सका उन पुरोंके स्वामियोंविज्ञान और भाषाविज्ञानके अध्ययनसे उनका से युद्धका वर्णन है। ऋग्वेद में ७-१८ में दिवो- यह मत पृष्ट नहीं होता। दासके पौत्र सुदासद्वारा एक शत्रदलके पराजय.
पार्यो से पूर्वके भारतीय का वर्णन है। उसमें निम्न लिखित जातियोंका उल्लेख है- तुर्वसु, मत्स्य, भृगु, द्रा, पक्थ,
आर्योके बाहरसे आनेकी घटना कोई कल्पित मलानस, अलिनस, शिव, विषाणिन, वैकणे
नहीं है तथा उसका उल्लेख भी वेदों तक ही सीमित अनु, अज, शिघ्र और यनु । इन जातियों के
नहीं। वह ऐसी घटना है जिसकी ध्वनि बाद के सम्बन्धमें विद्वानोंको बहत कम मालूम है। श्री
साहित्य में भी मिलती है । संस्कृन पराणों में असुरों
की उन्नत भौतिक सभ्यताका तथा बड़े-बड़े प्रासाद हरितकृष्ण देवने इनमें से बहुत कुछ जातियों
और नगर बनानेकी कलाका उल्लेख है। ब्राह्मण की पहचान मिश्रदेशी रिकार्डोसे की है उनके
उपनिषद और महाभारत अति परवर्ती साहित्यकथनानुसार ये १२ वीं ई० पूर्व-की मध्य एशिया
में इन असुरोंकी अनेक जातियोंका उल्लेख है जैसे की जातियाँ है तथा कुछ द्रविड़ोंकी सजातीय तथा
कालेय, नाग आदि । ये सारे भारतमें फैले थे। कछ आर्योंकी सजातीय हैं।
इनके अनेक स्थानोंपर बड़े २ किले थे। युधिष्ठिरके वेदरचनाकी पूर्ववर्ती तिथि यदि इन घटनाओं- राजसूय यज्ञका मण्डप इसी असुर जातिके मय के भासपास मानी जाय तथा उत्तरवर्ती तिथि नामक व्यक्तिने बनाया था। महाभारत और पुगअवेस्ताके प्राचीन भागोंकी रचना ७ वी ई. पूर्व णोंमें ब्राह्मण क्षत्रियोंके साथ अनार्य नाग और व अखेमनियन राजाओंक प्राचीन फारसी- दासोंकी शादीके अनेक उल्लेख मिलते है। ये मे लिखे गये अभिभलेखोंकी तिथि ई० पूर्व शान्तिप्रिय, उन्नतिशील तथा व्यापारी थे। अपन -जिनसे वैदिक भाषाका बहुत कुछ मिलान होता इन उपायोंसे ये भौतिक सभ्यतामें बड़े चढ़े थे। है-मानी जाय तो हम वेदरचनाका समय १० वीं इसा पर्व कह सकते है। इसी समय आर्य लोग मम आयं श्रार अनार्य संस्कृतियोका संमिश्रण होंमें भारत आये थे। मिश्र और चाल्डियाक इनपर भौतिक सभ्यतासे पिछड़ी पर युद्धप्रिय प्रागितिहास और इतिहासकी घटनाकी तुलना- एवं उद्यमशील तथा समृद्ध भाषासे सम्पन्न आर्य में आर्योंके आनेकी घटना कोई बहुत प्राचीन नहीं जातिने आक्रमण किया। उन्हें भौतिक सभ्यता के वैठती। कछ विद्वान आकि मांगमनकी बात वैभव सखमे पली सकुमार अनार्य जातिको जीतना ज्योतिष गणनाके अनुसार बहुत सुदूर प्राचीन कठिन मालूम नहीं हुआ और बड़ी सरलतासे उसे कालमें ले जाते हैं पर यदि उस ज्योतिष गणनाकी उन्होंने वशमें कर लिया। आयोंके भारतमें दो व्याख्या वैज्ञानिक अनुसंधानोंके आधारपर की प्रवल आक्रमण हुए, ऐसा विद्वानोंका कहना है। जाय तो प्रायोंके मानेका समय बहत बाद बैठता आर्य लोग प्रायः झडों (ग्रामों) मे आये थे तथा
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किरण ११-१२1
आर्यों से पहिलेकी संस्कृति
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अपने साथ बड़ा पशुधन तथा आशुगामी घोड़ोंके जब आर्य बे घरबारके लुटेरे थे तब अनार्य बड़े. रथ लाये थे। वे प्रकृतिपूजक थे तथा उन्हें होमयज्ञके बड़े नगरों में रहते थे। भारतीय धर्म और संस्कृति रूपमें पशुबलि,यव. दूध, मक्खन और सोम चढ़ाते की अनेक परम्पराए' रीति रिवाज प्राचीन पुराण थ। वे अपनी पवेनिवासभूमि-लघु एशिया और इतिहास अनार्योसे आर्य भापामे अनूदित ( Asia minor ) और असीरिया बाबुलसे कुछ किये है क्योंकि आर्य भाषा ऐसी थी जो सर्वत्र छा धार्मिक मान्यनाऐं, कुछ कथा इतिहास ( प्रलय गई थी। तथापि उसकी शुद्धि कायम न रह सकी कालीन जलप्लावन ) श्रादि भी साथमें लाये क्योंकि उसमें अनेक आनाय शब्द मिल गए।" थे। उनका जातीय देवता इन्द्र था जो कि बाबुल
ये अनार्य कौन हैं ? के देवता मदु कसे मिलता जुलता है। उन्होंने अपनी समद्ध भापासे अनार्योको विशेष
मानववश-विज्ञानके अध्ययनसे भारतके प्रभावित किया।
धरातल पर जिस अनार्य जातिका पता लगा है वह श्रायाने यहां बस कर यहाँके निवासियोंको
है कृष्णांग ( Negrito ) । बन्दरसे विकसित ही अपनेमे परिवर्तित नहीं किया बल्कि स्वय
हो उत्पन्न होने वाली किसी जातिका यहां पता
नहीं चला। कृष्णांगोंकी सन्तान आज भी अन्दमान बहुत हद तक उनमें परिवर्तित हो गये। आर्य संस्कृतिक निर्माणमें आर्योंकी अपेक्षा अनार्यों
द्वीपोंमे पाइ जाती है। उनको भापाका विश्वकी का बड़ा भाग है । जब अनार्य, आर्योंमे सम्मिलित
किमी भाषा शाखासे सम्बद्ध नहीं । पहले ये अरब हुए तो उस जातिकं समृद्ध कवियोंने आर्यभाषा
सागरसे चीन तक रहते थे पर अब वे या तो खतम में अपने भी भाव व्यक्त किये, पद रचना की।
कर दिये गये या दूसरी मानव शाखाक लोगोंने उन्होंने अपने दार्शनिक, धामिक, सांस्कृतिक
उन्हें अपनेम पचा लिया। शेष वचे हुए लोगोंसे ऐतिहासिक कथानक, आख्यान आदि सामग्राको
उनकी सुदूर अतीतकी सस्कृतिका अनुमान लगाना आयभाषामें प्रकट करना शुरू किया जैसे कि
संभव नहीं। कहा जाता है कि उनके उत्तराधिकारी आजका भारतीय अपने साहित्यको अंग्रेजीमे
बलोचिस्तानम पाये जाते हैं तथा दक्षिण भारतकी
मुख्य जंगली जातियोंम उनका जातिय गुण मिलता प्रकट करता है। इससे आर्य साहित्य में अनाय
है । तिब्बत, बमाकी नागा जातिके रूपमें भी संस्कृतिका बहुत बड़ा भाग आ गया। अनार्य
उनका अस्तित्व है। चकि यह जाति बहुत प्राचीन साहित्यिकोंने पार्योंकी भापाको भी सुधारा। दो
युग की है इसलिये वादको सभ्यतामें इसकी क्या प्रबल संस्कृतियोंके संघप का परिणाम ही यह होता
देन रही है, यह कहना बड़ा कठिन है । यह जाति डा. समीति कुमार चटर्जीका कहना है
अपने पीछे आने वाली शक्तिशालिनी मानव
शाखाओंसे अपनी संस्कृतिको बहुत कम बचा "आजकी नतन सामग्री और नवीन उद्धार काय
सकी। अजन्ताके एक चित्र में कृष्णांग जातिका वतलात है कि भारतीय सभ्यताके निर्माणमें न
चिन्ह मिलता है। केवल आयोंको श्रेय है बल्कि उनसे पहले रहने । वाले अनार्योंको भी है। अनार्यो का इस सभ्यता कृष्णांग जातिके बाद पूर्वकी ओरसे माग्नेय के निर्माणमें बहुत बड़ा हिस्सा है। अनार्याक (Austric) जाति आई। इनकी भाषा धर्म और पास आर्यों से बहत बढी चढ़ी भौतिक सभ्यता थी। मंस्कृतिका रूप हिन्दचीनमे मिलता है। इस जाति
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४०६
अनेकान्त
[ वर्षे १० की सन्ताने और भाषा प्रशान्त महासागरके द्वोपपुजों अपनी होमविधिके मुकाबले में उनकी पूजाविधि में मिलती है। ये आसामसे भारत भूमिपराए और अपनाई।" यहां आकर कछतो कृष्णाङ्गजातिमें मिल गए और कुछ
ईसाके हजारों वष पर्व, आर्योंके आनेसे भारतके समृद्ध प्रदेशोंमें अपनेमे पीछे आने वाला अवश्य ही बहुत प्राचीन कालमें पश्चिम भारतसे जातियोंद्वारा पचालिए गए। इस जातिका अविशेषरूप
द्रविड़ लोग पाए। यह जाति आजकल दक्षिण खामी, कोल,मुएडा, सन्थाल,मुन्दरी, कक और शबर भारतके बद्ध
भारतके बहु भागमें है पर आधुनिक खोजोंसे आदि जातियां हैं। एक समय था जब कि इस जा. सिद्ध है कि द्रविड़ोंका मूल निवासस्थान पूर्वी तिके लोग सारे उत्तर भारत,पंजाब और मध्यभारत भूमध्य सागरके प्रदेश है। लघु एशिया के अभिलेखतक फैल गये थे तथा दक्षिण भारतमे भी घुस गये
मे वहां की जातिका नाम "मिल्ली" लिखा है जो थे । उत्तर भारत, के विशाल नदियों के कछारों में
तामिल और त्रमिल्लीका पर्वरूप माल हाता है बस जाने में इन्हें बड़ो सुविधा हुई। गंगा शब्दका
द्राविडोंका पुराना नाम द्रामिल भो है जो तामिल उत्पत्ति आग्नेयभाषाके खाग काग श्रादि नदी
और मिल्लोका मूल रूप है। ये नगर सभ्यता वाचक शब्दोंसे कही जाती है। आर्योंकी पद-रचना वाले लोग है। इनको प्राचीन सभ्यताके अवशेष ध्वनि और मुहावरोंपर इनकी भाषाका बड़ा दजला फुरात नदियों की घाटोसे सिन्धु घाटी तक प्रभाव है। पार्योन इनके सम्पर्कमें पाकर अपनी मिलते हैं। द्रविड़ लोग व्यापारमें ममृद्ध थे तथा भाषाके रूपको वदला है।ये भौतिक सभ्यतामें आदान प्रदानकी वस्तुओंका ोिण करते थे। जो, बहुत बढ़ पर थे। इनकी संस्कृति के अनेक स्तर र कपासको खेती करते थे, कताई और है। जो भध्यभारत की उच्च विषम भूमियोंमे बनाईकी कलाका विकास चरम सोमापर था। हाथी, रहते थे या जो आर्योंके दबावक फल स्वरूप भागे ऊट. बैल और भैंसको रखते थे। वे घोड़े की सवारी थ व अब भी भविकसित हालतमे ह पर जो उत्तर जानते थे पर वाहनक रूपमें घोड़ेके रथकी जगह भारतकं मैदानमे रहते थे उनकी सस्कृतिका अवशेष बैलगाडीका विशेष प्रयाग करते थे। उपलब्ध मिट्टी परिवर्तित भास्करण के रूपमें अब भी विद्यमान के खिलौने और मूर्तियोंसे मालूम होता है कि उस है। आर्यसस्कृति और आग्नेय संस्कृतिका आदान ममय दुर्गा, शिव और लिंगकी पूजा-प्रचलित थी, प्रदान विशेषतः भारतके पूर्वीय प्रान्तों में हमा है। कितनी ही कायोत्सर्ग जैन मूर्तियां भी उस कालका आर्योने इनसे चावल की खेती करना सीखा । पुरातत्व सामग्रोसे निकजी हैं। वे अपने देवताको नारियल, केला, ताम्बूल, सुपाड़ी,हलदो, अदरक, पूजा- फन, फून चन्दन आदिम करते थे। बलि बैंगन, लोको, आदिका उपयोग आग्नेयोंकी देन है नही चढ़ाते थे। कोरो अथात् बीसीकी गणना तथा चन्द्रमासे तिथि जब कि आये बड़ी बड़ी संख्यामें आकर की गणना आग्नेय है। वे अपने मृतकोंकी पाषाण पंजाबमें व्यवस्थित हो रहे थे तब द्रविड़ समाधि बनात थे । उनके यहां परलोककी मान्यता भारतमें छोटे बड़े राज्यों में विभक्त थे । थी तथा वे विश्वास करते थे कि आत्मा अनेक अग्नेयोंको पराक्रान्त कर इन्होंने मगध और कामरूप पर्यायोंमें जाती है। उनकी इस विचारधारा से में राज्य जमाये तथा दक्षिण में कलिंग, केरल, चोल आर्यो को पुनजन्मका सिद्धान्त मिला। डा. सुनीति और पाण्ड्य देशोंमें। द्रविड़ोंने बहुत पहले अपने कुमार चटर्जी लिखते हैं कि आर्यो ने अनार्यो से कर्म जहाजी बेड़ेका विकास किया था तथा दक्षिण भारत, सिद्धान्त, पुनर्जन्म और योगाभ्यासकी नकल की लंका और हिन्द द्वीपजोंमें उपनिवेश बनाने वाले
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हर्षकोत्तरि और उनके ग्रन्थ
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ट्रों में
महाप्रति
इविड ही थे। सिन्धु घाटीकी खुदाईसे जिस सस्कृति-श्रमण संस्कृतिको धक्का दिया। श्रमण सभ्यताके अवशेष मिले हैं उसके विधाता द्रविड़ और याज्ञिक संस्कृतिक संघर्षके प्रकीर्णक उल्लेख थे, ऐसा विद्वानों का मत है।
ब्राह्मण और उपनिषद प्रन्थों में मिलते हैं। श्रमण पार्योसे ठीक पहलेकी जाति होनेसे वेदोंमें संस्कृतिक सूचक अहन, श्रमण मुनयः वातवसनाः इनकी विविध जातियों का उल्लेख मिलता है सो व्रात्य महाव्रात्य आदि शब्द वैदिक साहित्यमें पाये कह चुके हैं। इनसे ही मोधे सघर्ष होने की घटनाएं जाते हैं। श्रमणोंके प्रतिनिधि ऋपभदेव, अजितनाथ, वेद और पश्चात् कालीन माहित्यमें है। आर्योंन अरिष्टनेमिका उल्लेख भो वेदोंमें है। मालम होता वेदोंमे दस्यु, अनास, मृध्रवाक् अयज्वन्, अकर्मन्, है कि इस श्रमण संस्कृति के उपासक द्रविड जाति अन्यत्रत वादि घृणा पूण शब्दोंसे इन्ही अनार्या का और उसके पर्वको जातिके लोग रहे हैं जिनकी उल्लेख किया है। आर्यो ने इन से पथक बने रहनेके पूजा उपासना' दाशनिक मान्यता कमसिद्धान्त, लिए 'वभेद' बनाया।
पुनर्जन्म आत्माकी पयोयें होना सभ्यता आदि
श्रमण सस्कृतिके अनुरूप ही है। यह संस्कृति ___एक सुझाव
चारों तरफ भारतमें फैली थी। तामिल भाषाके वैदिक साहित्य सारे भारतके सांस्कृतिक प्राचीन साहित्य इससे प्रभावित थे। अब तक उस इतिहासका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, क्यों संस्कृतिकी परिचायक पुरातत्वादि सामग्रीका ठीक कि वह एकदेशीय अर्थात् विशेषकर पंजाब, देहली अनुसन्धान नहीं हुआ । सिन्धु घाटोको के आस पासका साहित्य है। तथा वह उस याज्ञिक खुदाई से जो कुछ प्रकाश पड़ा है तथा गंगाघाटी की मस्कृतिके उपासकोंको कृति है जो दूसरी संस्कृति खुदाईसे जो प्रकाश पड़ेगा, ये दोनों अवश्य ही के उत्कर्षके प्रति अति असहिष्ण थे। उन्होंने भारत भाग्नय द्रविड़ आदि द्वारा उपास्य श्रमण संस्कृतिके मध्यभाग और पूर्वभागमें प्रचलित अहिंसक पर प्रकाश डालेंगे।
(श्रमण)
हर्षकीर्तिसरि और उनके ग्रन्थ
(ले०-श्री अगरचन्द नाहटा) दिगम्बर कविराजमल्लने 'छन्दो विद्या' नामक भारमल्लक गुरु श्रीक सम्बन्धमें ग्रन्थकार राजमल्ल छन्द विषयक ग्रन्थ श्वे. राजा भारमल्लक लिये ने मंगलाचरण के पश्चात् तीसरे पद्यमें ही प्रकाश बनाया था जिसकी एक मात्र प्रति देहलीके दिग- डाला है। उक्त पद्य इस प्रकार है:म्बर सरस्वती भंडारमे उपलब्ध हुई है। अनेकान्तके
श्रासीनागपुरीयपट्टनिरतः साक्षात्तपागच्छमान, सम्पादक श्री जगलकिशोरजी मख्तारने उसका विस्तृत परिचय कई वर्ष पूर्व अनेकान्तमें एवं तद
सरिः श्री--प्रभुचन्द्रकीतिरवनी मूर्द्धाऽभिपेको गणी। नन्तर 'अध्यात्मकमलमार्तण्ड' की महत्वपर्ण तत्पट्ट विह मानसूरिर भवत्तस्यापि पट्टेधुना, प्रस्तावनामें प्रकाशित किया है। उक्त प्रन्थमें राजा संसम्रादिव राजते सुरगुरुः श्रीहर्षकीर्तिमहान् ॥
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अनेकान्त
जैसा कि हपेकीत्तिसरिके उपलब्ध प्रन्थोंसे प्रतीत होता है कि वे १७वा शतीके उल्लेखनीय ग्रन्थकार थे । व्याकरण कोश, छन्द, वैद्यक, ज्योतिष आदि छन्दोविद्याका रचना काल मुख्तार सा० ने विषयोंके आप विद्वान् एवं अन्य टाकाकार थे । सं० १६४१ से पूर्वका अनुमानित किया है' । बोकानेरके जैन ज्ञान-भंडारोंका अवलोकन करते समय आपके अनेक ग्रन्थ अवलोकनमें आये तभी से आपके सम्बन्धमें एक लेख प्रकाशित करनेकी इच्छा हुई थी जिसे छन्दोविद्याके उक्त पद्यने और भी बलवती किया । पर अन्य कार्यों में लगे रहने से अभी तक उसकी पूर्ति नहीं हो सकी, नागपुरीय तपागच्छ ( जो पाछेसे पार्श्वनाथगच्छ के नामसे विशेष प्रसिद्धि में आया है ) के श्री पूज्यजीकी गद्दा बीकानेर मे है एवं नागौर में भी इस गच्छका उपाश्रय है अतः इन दानों स्थानोंके ज्ञान भंडार अव लोकन करने पर संभव है कुछ ज्ञातव्य मिल जाय, इस आशान भी अपने विचारको कायरूप में परिपत करनेमें विलम्ब कर दिया पर बोकानेर के श्री पज्यजी स्वर्गवासी हो गये और उनका भंडार अभी श्रावकों की देख रेख में है जिन्हें इस विषय में तनिक भी रस नहीं, अतः अनेकों बार कहने परभी उसके
श्रथात्-नागपुरीय तपागच्छीय 'चन्द्रकीर्तिसूरिके पट्टधर मान (कीर्त्ति ) * मूरिके पट्टपर अभी हम कीर्तिवराज रहे हैं।
५- कई लोग नागपुरीय तपागच्छको सुप्रसिद्ध तपागच्छको एक शाखा मानते हैं। पर वास्तव में वह सही नहीं प्रतीत होता | नागपुरीय तपागच्छकी प्रसिद्धि चन्द्रकीर्ति श्रादिके उल्लेखानुसार ११७४ में हुई है जबकि तपागच्छक सं० १२८५ में जगचंद सूरिद्वारा | areer नागपुरीय तपागच्छीय श्राचार्यों की सीधी परम्परामे भी नही धाते ।
२. प्रशस्तियोंसे इनका श्राचार्य पदका काल सं १६२६ से १६४० तकका प्रतीत होता है । इनके शिष्य श्रमरकीर्त्तितसरि संबोध सतरी वृत्ति बीकानेरके वृहत् ज्ञान भडारमें उपलब्ध दें। श्रमरकीर्त्ति सूरिका नाम सं० १६४४ के वंराटके प्रतिष्ठा लेखमें हर्ष कीर्त्तिसूरि के साथ आता है | संबोधसतरीकी वृत्ति इन्होंन हर्षकार्त्तिके राज्य में बनाने का उल्लेख किया है अतः ये उनकी श्राज्ञानुवर्त्ती श्रेव सं० १६४४ के पूर्व आचार्य पद प्राप्त कर चुके सिद्ध होता है । प्रस्तुत सबोधसतरीके रचयिताका नाम जिनरत्नकाश में रत्नशेखर लिखा हैं जो सही नहीं प्रतीत होता ।
२ कलकत्तेके जैन श्वेताम्बर मन्दिर में एक धात प्रतिमा पर सं १६४२ का लेख उत्कीर्णित है जिसमें मानकीर्तिद्वारा उक्त प्रतिमाकं प्रतिष्ठा होने का व उनके साथ २ हषकीतिका उल्लेख है इससे ही मं० १६४२ तक
कीर्तिपुरको प्राचार्य पद नहीं मिला यह निश्चित हैं। छन्दोविद्या में हर्षकार्तिजोको सृरि लिखा होनेसे सं० १६४२ के पश्चात् ही उसकी रचना होनो चाहिये । हघकीर्तिसुरके लिखे और रथे ग्रन्थोंसे सं० १६४४ में उन्हे सूरि पद प्राप्त हो गया था, सिद्ध हैं । श्रत: छन्दो विद्याका रचना काल स० १६४२ से १६४४ के बीचका निश्चित होता है। सं० १६४४ में राजा भारमल्ल के पुत्र
इन्द्रराजकारित वैराटके श्वे० जैनमन्दिरकी प्रतिष्ठा हुई थी । छन्दाविद्यामें उसका उल्लेख न होने से भी उसकी रचना सं० १६४४ से पूर्व निश्चित होती है । छन्दोविद्या का रचना काल सं० १६४२ मान लेने पर भी मुख्तार मा० को राजमल्लके नागौरमे वैराट आकर लाटा सहिताको रचना करने की मान्यता बदल देनी पड़ती है ।
४ - सोलहवीं शताब्दीक उत्तरार्द्ध एव सत्रहवींक पूर्वार्द्ध में दमी में पाश्चचन्द्रसूरि नामक विद्वान हो गये है जिनका रचित विशाल साहित्य उपलब्ध है । थापका जीवनचरित्र एवं रचनाओं के संग्रह ग्रन्थ भी प्रकाशित हो चुके हैं। इनके नामसे ही नागपुरीय तपागच्छ नाम गौण होकर पार्श्वचन्द्र गच्छके नामसे इस परम्पराकी प्रसिद्धि हो गई है ।
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किरण ११-१२]
हर्षकोत्तिसूरि और उनके प्रन्थ
४०४
भलो भॉति अवलोकन करनेका सुयोग प्राप्त न हो यिता प्रा० मुनि चन्द्रसूरिके शिष्य देवसूरि हो गये सका श्रोपज्यजीके भंडारकी भनेकों प्रतियाँ स्वर्गीय है जिन्होंने पाटणमें सिद्धराजको सभामे कमचन्द देवचंद्रसूरिजी के गुरुश्रीके समयमें ही इतस्ततः हो जीसे शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की थी तबसे आपकी गई थी फिर भी कुछ सामग्री मिलनेकी संभावनाहै। प्रमिद्धि वादो देवसूरिके नामसे हुई। स्यावाद रला. पर उसका उपयोग करनेमे अद्यावधि सफलता करादिग्रन्थ आपके महान पांडित्यके परिचायक प्राप्त नहीं हुई, प्रयत्न तो अब भी चाल है ही। हैं। गणधरसाद्धेशतक बृवृत्ति के अनुसार विक्रमइसी प्रकार नागौरका पाश्वनाथ गच्छीय भंडार भी पुरका देवधर श्रावक अजमेरमें स्थित जिनदत्तसरि उस गच्छके यतिजीके अधिकारमें है । वहांके जीके वन्दनार्थ जा रहा था तब नागौरके चैत्य में देव भी अधिकांश प्रन्थ अब नहीं रहे, जानने में भाय। सूरिजोसे बातचीत हुई थी। नागपुरीय तपागच्छ. है, जो कुछ बच पाये हे उनक दखनके लिये नागौर की पट्टावलिके अनुसार वादी दवारके शिष्य जानेपर दो बार प्रयत्न किया पर अभी तक वह पद्मप्रभसूरिको नागौरमें तपश्चर्या करने के कारण राजासुअवसर नहीं मिल सका। अत: प्राप्त सामग्रीके की ओरस सं०११४७में नागपुरीय तपागच्छ विरूद
आधारसे हर्षकीतिसूरि व उनके ग्रन्थोंका संक्षिप्त मिला था । सारस्वतदीपिकामें इसकी प्रसिद्धिका परिचय प्रस्तुत लेखमें प्रकाशित किया जा रहा है। समय सं० ११७४ बतलाया है जो अन्य प्रमाणा___ छन्दोविद्याके उपयुक्त पद्यम हकीतिको से समर्थित है। पट्टावलिमें १९७७ बतलाया है जो नागपुरीय तपागच्छका बतलाया हुआ है अतः सर्व अब्धि २ शब्दसे ७ प्रहण करने के कारण भ्रमपूर्ण प्रथम वह गच्छ कबसे व किस आचार्यसे प्रमिद्धिमें प्रतीत होता है। उक्त सारस्वत दीपिकानुमार हर्प. भाया एवं आपकी गुरुपरम्पराकी नामावलिपर कीर्तिसूरि तककी परम्पराकी नामावलि इस प्रकाश डाला जाता है।
प्रकार है:विक्रमकी बारहवीं शतीमें अनेक ग्रन्थोंके रच- वादिदेवसूरि पद्मप्रभमूरि' -गुणममुद्रसूरि जय
- शेखरमूरि"- वनसेनमूरि-हेमतिलकसूरि-रत्नशेखर'. १. ये संस्कृत काव्यादिके बड़े प्रेमी एवं अच्छे सूरि-पूर्णचन्द्र मूरि-हेमहंसमूरि-हेमसमुद्रमूरि-सोमरत्नविद्वान थे। भापकी विद्यमानतामें ही मैंने अापके ज्ञान- ------ भंडारकी सूची एवं कतिपय प्रतियां दखी थीं । श्रापक 1. देखो हमारा युगप्रधान जिनदासरि प्रन्थ । परम्परागत संग्रहको बहुतसी प्रतियों की आपके गुरु श्रीहेम- २. अन्धि-समद शब्दाक और ४ दोनों अकोंका चन्द्रसरिके समयमें बिक्री हो गई थी । भापक स्वर्ग- सूचक है, किसीने समद ४ माने हैं किसीने ॥ वासानन्तर उपाश्रयमें जो व्यक्ति रहता था उसने बहुतमे ३. अापके सम्बन्धमें एक ऐतिहासिक काय भी महत्त्वपूण मद्वित अन्य कन्दोइयोंको रहीके भाव बेच दिये उपलब्ध है जिसकी अपूणे प्रति हमारे संपाहमें है। प्राप्त जिनका पता लगनेपर कुछको वापिस लाया गया। अब अंशका ऐतिहासिक संक्षिप्तमार जैनसत्यप्रकाश वर्ष ५
आपके पुस्तकालयके समस्त मुद्रित प्रन्थ श्रीरामचन्द्रसूरि अक ८ में प्रकाशित है। पुस्तकालयमें लाये गये हैं । हस्तलिखित प्रतियोंकी कई ४. भुवन दीपक नामक सुप्रसिद्ध ज्योतिष प्रन्धके वर्षों से मार संभाल नहीं हुई जिसका होना अत्यन्त रचयिता। पावश्यक है। हम आपके गच्छके अनुयायी भावकोंसे ५. संबोध सतरी आदिके रचयिता । साग्रह अनुरोध करते हैं कि वे अतिशीघ्र उनकी उचित ६. पन्द्रहवीं शतीके सुप्रसिद्ध ग्रन्यकार हैं। इनके व्यवस्था करें।
रचित श्रीपाल चारुदत्ता ग्रन्थ प्राप्त है।
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अनेकान्त
[वर्ष १०
सूरि(गुरुभ्राता हेमरत्नसूरि ) प्रोसवालवंशीय गज- देकर सम्मानित किया था । इनके शिष्वरत्नशेखर रत्नसूरि चन्द्रकीर्तिसूरि-हपकीत्ति ।
सूरिको पेरोजशाहने वस्त्रपरिधापन किया था । उपा. हर्षकीतिने अपनी धातुपाठवृत्तिकी प्रशस्तिमें ध्याय हंसकीर्तिको दिल्ली में सिकदर वादशाहने और जयशेखरसू रसे अपने गुरु चन्द्रकीर्तिसूरि तकका आनन्दरामका हुमायूने राय पदबी देकर एवं चन्द्रजो ऐतिहासिक वृत्तान्त दिया है, महत्वपूर्ण होनेसे कीत्तिको सलेमशाहिने सन्मानित किया था इसी उस प्रशस्तिके पद्य यहां उद्धृत किये जा रहे हैं- गच्छके उपाध्याय पद्मसुन्दरने सम्राट अकबरको गच्छे यत्रप विचित्राऽवनितले हम्मीरदेवाचितः सभामें किसी महापण्डिनको जीताथा इससे सम्राट ने सूरिः श्रीजयशेखरः सुचिरतः श्रीशेखरः सद्गुणः। वस्त्र, ग्राम एव सुखासनादद्वा
वस्त्र, ग्राम एव सुखासनादिद्वारा उनको सन्मान
दिया था। जोधपुरके प्रतापी नरेश मालदेव भी इन रूणायां पुरि सीहडस्य वचनादल्लावदो भूभुजः।
को आदर देता था। इसी गच्छके चन्द्रकीर्तिसूरिके सद्वासः फुरमानदानमहित: श्री वनसेनोगुरुः ॥१॥
शिष्य हर्षकीर्तिने धातुपाठकी वृत्तिसहित रचनाकी। सूरिः श्रोप्रभुरत्नशेखरगुरूविद्यानिधियों मुदा
प्रस्तुत ग्रन्थ टुकके खडेलवाल ज्ञातीय वासक्षोमैः किल पर्यधाप यदरं पराजमाहिः प्रभुः । कलीवाल गोत्रके (सांवला पाश्वनाथ प्रसादके श्रीमत्साहिसिकंदरस्य पुरतो जातः प्रतापाधिकोः निर्माता ) नेदामके पुत्र शाह जइताक पुत्र गेहाके ढिल्यां नागपुरीयपाठकवरः श्रोहंसकीयाहयः॥२॥ पुत्र हेमसिंहकी अभ्यथेनासे रचा गया था जैसा
आनन्दं जनयन् सदामुनिजने स्वानदरामःस्मभूत् कि प्रशस्तिके अन्तिम श्लोक व उसकी वृत्तिसे ज्ञात प्रादाद्यस्य चिराय रायपदवीं श्रीमान हमाय'नृपः। होता है। ऐतिहासिक होनेसे उसे भी यहां उद्धृत श्रीमत्साहिसलेममिपतिना संमानितः सादर। कर दिया जाता है। सूरिः सन्निकलिंदिका कलितची: चंद्रकीत्तिः प्रभुः।३।
खडेलवालसद्वश हेममिहाभिधः सुधीः । साहे संसदि पद्मसुन्दरणिजित्वा महापंडितम् ।।
___तस्याभ्यर्थनया ह्यष, निमिता नंद ताच्चिर ॥१॥ क्षोमग्रामसुखासनाद्यकवरश्रीसाहितो लग्यवान् ।।
टीका-नवर खंडेलवालज्ञातै वाकलीवालगोत्रेण हिन्दुप्राधिपमालदेवनृपतेः मान्यो वदान्योधिकम् टु कनगरे सांवलापाश्वनाथप्रसादकारकनेदास श्रीमज्जोधपुरे सुरेसिप्तबचः पव्वापद्मा ह्वयः पाठकः४ तद्गच्छा मलमंडनं सुविहितः श्रीचंद्र कीर्तिप्रभोः।
१-उ० पद्मसन्दरके सम्बन्धमें अनेकान्त वर्ष ४ अङ्क
८, ववर्ष १० अङ्क १ में प्रकाशित मेरा लेख देखना चाहिये शिष्य. सूरिवरः स्फुरदय तिभरः श्रीहषकीर्ति:सुधीः तेनेय रचितात्म निर्माणशु श्री धातु पाठस्य सद् ।
२-उपयुक्त पद्मसुन्दरने दि० रायमल्लकी अभ्यर्थना
से रायमल्लाभ्युद काव्यका निर्माण किया था और हर्षकीर्तिवृत्तिःसूत्ति मियचु थावदितः श्री पुष्कदन्तावसौ।।५।।
ने हेमसिंहकी अभ्यर्थनासे धातुपाठकी रचनाकी । इधर अर्थात-नागपुरीय तपागच्छके जयशेखरसूरि
राजमलने श्वे. राजाभारभल्लके लिये छंदो विद्या बनाई को हम्मीरदेव नपति आदर देता था। अल्लावदीन
इससे उस समय दि० श्वे. श्रावक व विद्वान लोग कितने ने वनसेनसूरिको रुणमें सीहडके बचनसे फरमान
उदार विचारके थे यह प्रतीत होता है। १. सारस्वतदीपिका के अतिरिक्त श्रापके रचित टोंकके कासलीवाल हेमसिंह व उनके पूर्वजके निर्माप्राकृत छन्दकोश वृत्ति व सिद्धचक्र यंत्रोद्धार टिप्पन प्राप्त थित सांवला पार्श्वनाथ जिनालयके सम्बन्धमें विशेष है बीकानेरके दान सागर भंडारमें आपके रचित संग्रहणो ज्ञातम्ब अपेक्षित है। प्राशा है टोकके कोई सज्जन अनुटवाकी प्रति भी उपलब्ध है
संधान कर इस पर प्रकाश गलनेकी कृपा करेंगे।
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किरण ११-१२]
हर्षकीतिसूरि और उनके ग्रन्थ
४११
पुत्रसाहश्रीजइता तत्पुत्र सा. गेहा तस्यात्मजसाह विवरणका रचना काल सं० १६६३ है अतः अन्त हेमसिंहाभ्यर्थः नयाग्रहेणऽ धातुपाठः कृतः।
दीर्घायु थे । सं० १६६५ के लगभग ही आपका हर्षकीतिकी गुरुपरम्पराका आवश्यक परिचय स्वर्गवास हुआ सम्भव है। देकर अब आपके जोवन पवं प्रन्थोंके सम्बध ज्ञात हर्षसरिचित ग्रंथपरिचय दिया जारहा है
___ जैसाकि पूर्व लिखा जा चुका है आपकी जन्म एव दीक्षा
प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। व्याकरण कोष, छन्द, हर्षकीर्तिसूरिके जन्मस्थान, समय व वश माता काव्य, वैदिक एवं ज्योतिष सब विषयों में पिता के नामादके सम्बध में जानकारी प्राप्त करने आपको अच्छी गति थो जिसका परिचय आपके का काई साधन उपलब्ध नहीं है। पर आपकी रचित साहित्यसे भली भॉति मिल जाता है। जैन लिखित प्रतियोंमेंसे सं.१६१३ में लिखित सप्तपदाथी साहित्यको सक्षिप्त इतिहास ग्रन्थमें आपकी ८ रचउपलब्ध है अतः उस समय आपकी आयु २० वर्ष नाओंका उल्लेख है। यथाके लगभगकी माने तो आपका जन्म सं०१५६० से
(१) वृहत् शांति टीका (२) कल्याण मन्दिर वृत्ति ६५ के वीच एवं दीक्षा १६०५-७ के लगभग होना
(३) सिदर प्रकर टीका (४) सेटअनिटकारिकासंभव है।
विवरण (५)धातुपाठ-तरंगिणी (६)शारदीय नाम उपाध्यायपदआपकी लिखित प्रतियों में सं. १६१३ को प्रतिमें तो
माला (७) श्रतबोघवृत्ति (5) योगचिन्तामणि । मुनि एवं सं० १६.६ की प्रतिमें उपाध्याय विशेषण
इनके अतरिक्त सारस्वत दीपिका एवं वैद्यक पाया जाता है इसमे सं०१६१३ से २६ के मध्य हो
मारोद्धारका नाम दिया है पर सारस्वत दीपिका तो आपकी योग्यताके अनुरूप उपाध्याय पद प्राप्त हुआ
आपके गुरु चंद्रकोतिरिरचित ही है और वैद्यक प्रतीत होता है। सं० १६६२ की लिखित एक प्रति सारोद्धार उपयुक्त योगचितामणिम अभिन्न है। में आपको महोपाध्याय लिखा गया है अतः उस श्री देशाईद्वारा उल्लखित उपयुक्त ग्रन्थों के समय पाप गच्छमे उपाध्याय पदकी पर्यायकी अतिरिक्त मेरे अन्वेषण से लगभग एक दर्जन अपेक्षा सबसे बड़े सिद्ध होते है।
ग्रन्थोंका और पता चला है। अत: यहाँ विषय सृरिपद
वर्गीकरण करके आपके ज्ञान समस्त प्रन्थों की सूची सं०१६४० की लिखित प्रतिमे आपका पद उपाध्याय
दी जाती हैमिलता है और सं०४४ के ग्रन्थानुसार उस समय
व्याकरणसूरि (आचाय) पदपर प्रतिष्ठ थे अत: आपको (१) धातुपाठ-धातुतरंगिनीवत्ति सहित-- आचार्य पद सं१६४२ के लगभग मिला संभव है। व्याकरणविषयक आपका सबसे बड़ा प्रन्थ यही यद्यपि शिष्य तो आप चंद्रकीर्तिसूरिके थे पर है। जैसाकि उपयुक्त प्रशस्तिसे स्पष्ट है, इहकी छन्दोविद्याके पद्यसे स्पष्ट है कि उनके पदपर रछना टोकके हमसिंह वाकलीवालकी अभ्यर्थनामानकीर्तिसूरि प्रतिष्ठित हुए थे और हर्षकीर्ति से की गई थी। बीकानेरकी अनूप संस्कृत सूरि मानकीतिसूरिके पट्ट पर थे।
लारबेरी व महिमाभक्ति भंडारमें इसकी प्रतियाँ स्वर्गवास
उपलब्ध हैं। आपकी लिखाई हुई प्रति सबत १६६० को (२) सेटअनिटकारिका विवरण, र० सं०१६६३ उपलब्ध है एवं आपके रचित सेट अनिटकारिका जेसुक हमारे संग्रह में
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भनेकान्त
[वर्ष १०
४१२
(३) संस्थानिर्णय
(१२) अजितशांतिविवरण-प्रति भा०६० प्रना। कोश
(१३) लघुाँ तिशवृत्ति-मानदेवके लघु शाँति वृत्ति(४) शारदीय नामभाला-इसकी सं० १६४०. स्तोत्रपर वृत्ति है ग्रन्थ १५० । प्रति हमारे सँग्रहमें है। ४८ की लिखित प्रतियाँ उपलव्य होनेसे रचना पूर्व- , (१४) भक्तामरवृत्ति'-उ. देवसुन्दर की अभ्य वती सिद्ध है । अनूप संस्कृत लाइब्रेरीमें है।
र्थनासे रचित, प्रति दानमागर भंडार (१) मनोरमानाममाला-इसकी प्रति हमारे संग्रहमें (१५) वृहत्शांति-सं०१६५६ पत्र ४. मोतोच.
जो खजानचीके संग्रह में । छन्द
(१६) कल्याणमन्दिरवृति--र.देवसुन्दरकी अभ्य (8) छन्दशतक (प्रा०)-बीकानेरके उ० जय र्थनासे रचित, प्र.५.५ प्रतिमा भक्ति भंडार । चन्द्रजोक भडारमें इसकी पत्रकी प्रति है।
(१७) संसारदावास्तुतिटोका-हमारे संग्रहम। (७) अ तबोधवृत्ति-यह महाकविकालिदासके
जैनेतरस्तोत्रश्रतबोधपर टोका है, जिसकी प्राचीन प्रति
(१८) माहम्नस्तोत्रवृत्ति-सुप्रसिद्ध पुष्पदंतके थनूप संस्कृत लाइब्रेरीमें है।
शिवल्तोत्रपर टीका है। प्रति भां०६० पूनामें है। काव्य-स्तोत्र वृत्ति
(१०)सिंदरप्रकर टोका-सुप्रसिद्ध मोमप्रमसूरिके () नमस्कार ( नवकार) स्तोत्र-वृत्ति सूक्तिकाव्यपर टीका है। प्रति बारे संग्रह में है। ह) उवसग्गहर , , प्र०अनेकार्थरत्नमंजूषाम मौलिक रचनाएं(१०) नमिऊण (भयहर)स्तोत्रवृत्ति-हमारे
(२०) शारदास्तोत्र (सं.) संग्रहमें
लोकभाषाकाव्य(११) तिजयपहुतस्तोत्रवृत्ति-प्र० २३३, हमारे संग्रहमें
(२१) विजयसेठ विजया सेठाणी समाय गा.
२६, हमारे संग्रहमें? १.न.८ से १४ तकके स्तोत्र समस्मरण कहे जाते
(२२) परम्परा वत्तोसी बद्ध मानभण्डार बीकानेर हैं। इनके क्रमादिमें अन्तर पाया जाता है। हर्षकीर्भिसरि (२३) अठारह दृषण सज्झाय गा०२१ ने भक्तामरतो ७ वां स्तोत्र माना है। 'सप्तस्मरणे, टीका
वैद्यककुर्वे भक्तामरस्तवे सप्रस्मरणवृत्ति को (संयुक्त) प्रतिभा०
(२४) योगचिन्तामणि-वैद्यक-विषयक प्रसिद्ध इ. पुने में सं० १६१० लिखित होने से रचना पूर्ववर्ती
प्रन्थ है। अपनी उपयोगिताके कारण जनेतर विद्वानां सप्तस्मरण खरतरगच्छ एवं तयागच्छ में भिन्न भिन्न
के अनवादके साथ प्रकाशित हो चुका है। प्राचीन स्तोत्र माने जाते हैं।
भाषा टोकापोंमें खरतरगच्छीय नरसिंहरचित २. इन्ही देवसुन्दरकी अर्थना से अमरप्रभसरि
वालावबोध वोकानेरके वृहद् ज्ञान भण्डारमे उप. रचित भक्तामर टीकाका समय प्रो हीरालाल रसिकलाल
लब्ध है। इसका अपर नाम वैद्यकसारोद्धार भी है। कापाडिया ने भक्तामरादि स्तोत्रत्रयमकी प्रस्तावनामें १५
ज्योतिषवीं शती बताया है जो ठीक नहीं है।
१-प्रो कापडियाने भक्तमरादि स्तोत्रकी प्रस्तावना (२५) जन्मपत्रिपद्धति-सं० १७२८ की लिखित इसका रचनाकाल सं० १६६५ बतलाया है जो सही नहीं ४३ पत्रको प्रति मुनि जिनविजयजींके संग्रहमें है। प्रतीत होता । संभवतः वह प्रति लेखकका समय है।
(शेष अन्यत्र)
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भद्रबाहु-निमित्त-शास्त्र
नववाँ अध्याय
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08
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि वातलक्षणमुत्तमम् । प्रशस्तमप्रशस्तं च यथावदनुपूर्वशः ॥१॥
अर्थ- यहांसे अब मैं वायुका उत्तम लक्षण कहूँगा । जो प्रशस्त, अप्रशस्तके भेदसे दो प्रकारका है और वह ठीक पूर्वाचार्योंके अनुसार होगा ॥१॥ वर्ष भयं तथा क्षेमं राज्ञो जय-पराजयम् । मारुतः कुरुते लोके जन्तूनां पाप-पुण्यजम् ॥२॥
अर्थ-वायु संसारी प्राणियोंके पुण्य एवं पापसे उत्पन्न होने वाले वर्षण, भय, क्षेम और राजाके जय-पराजयको सूचित करता है ॥२॥ आदानाच्चैव पाताच्च पचनाच्च विसर्जनात् । मारुतः सर्वगर्भाणां बलवान्नायकश्च सः॥३॥
अथ-सब जलगोंके आदान, पातन, पचन और विसर्जनका कारण होनेसे मारुत बलवान होता है और वह सर्व गोंका नायक कहा जाता है ।।३॥ दक्षिणस्यां दिशि यदा वायुदक्षिणकाष्ठिकः । समुद्रानुशयो नाम स गर्भाणां तु सम्भवः ॥४॥
अर्थ-दक्षिण दिशाका वायु जब दक्षिण दिशामें बहता है तब वह 'समुद्रानुशय' नामका वायु कहलाता है और गर्भोका उत्पन्न करने वाला कहलाता है ॥४॥ तेन संजनितं गर्भ वायुदक्षिणकाष्ठिकः । धारयेद्धारणे मासे पाचयेत् पाचने तथा ॥ ५ ॥
अर्थ-उस 'समुद्रानुशय' वायसे उत्पन्न गर्भको दक्षिण दिशाका वायु धारण मासमें धारण करता है तथा पाचन मासमें पकाता है ॥५॥ धारितं पाचितं गर्भ वायुरुत्तरकाष्ठिकः । प्रमुञ्चति यतस्तायं वर्ष तं मरुतोच्यते ॥६॥
प्रथे-उस धारण किए तथा पाकको प्राप्त हुए मेघगर्भको चूकि उत्तर दिशाका वायु विसर्जित करता है अतएव उस वर्षा करने वाले वायुको 'मरुत' कहते हैं ।। ६॥
आषाढी पूर्णिमाके वायु-निमित्तसे शुभाशुभ-परिज्ञान आषाढीपूर्णिमायान्तु पूर्ववातो यदा भवेत् । प्रवाति दिवसं सर्व सुवृष्टिः सषमा तदा ॥ ७॥
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४१४
अनेकान्त
| वर्ष १० अर्थ-प्राषाढ़ मासकी पूणिमाके दिन व दिशाका वाय-पुरवाई हवा–यदि सारे दिन चले तो (वर्षाकालमें) अच्छी वर्षा होती है, वर्ष अच्छा बोतता है ।। ७ ।। वाप्यानि सर्वबीजानि जायन्ते निरुपद्रवम् । शूद्राणामुपघाताय साऽत्र लोके परत्र च ॥८॥
__अथे--उस समय बोये गये सम्पूर्ण बीज उपद्रव (ईतिभीति) रहित होकर उत्तम रीतिसे उत्पन्न होते हैं । परन्तु शद्रोंके लिये वह वाय इसलोक और परलोकमें उपघातका कारण होता है। दिवसाधं यदा वाति पूर्वमासौ तु सोदकी । चतुर्भागेण मासस्तु शेषं ज्ञयं यथाक्रमम् ॥॥
अर्थ-यदि आषाढ़ी पूर्णिमाके आधे दिन ( सूर्योदयसे दोपहर तक ) पूर्व दिशाका वायु चले तो पहिले दो महीने अच्छी वर्षा के समझने चाहिये और यदि चौथाइ दिन ( एक पहर ) वह वायु चले तो एक महीना अच्छी वर्षाका समझना चाहिये। इसी तरह वायु तथा वर्षाका शेष हिसाब जानना चाहिये ॥४॥ पूर्वाद्ध दिवसो ज्ञेयो पूर्वमासो तु सोदकौ । पश्चिमे पश्चिमा मासो ज्ञेयो द्वावपि सोदको ॥ १० ॥
अर्थ-यहां इतना विशेष जानना चाहिये कि उस दिन यदि पूर्वाधमें पूर्ववायु चले तो पहले दो महीने वर्षाके और उत्तराद्ध में चले तो पिछले दो महीने अच्छी वर्षाके समझने चाहिये । १०॥ हित्वा पूर्व तु दिवसं मध्याह्न यदि वाति चेत् । वायुमध्यममासात्त तदा देवो न वर्षति ॥ ११ ॥
अर्थ-यदि दिनके पूर्वभागको छोड़ कर मध्याह्नमें उस दिन वायु चले तो मध्यम मासस मेघ नहीं वर्षगा ऐसा जानना चाहिए ॥ ११ ।। ।
आषाढीपूर्णिमायान्तु दक्षिणो मारुता यदि । न तदा वापयत्किचिद् ब्रह्मक्षत्रौंच पीडयेत् ॥ १२ ॥ धनधान्यं न विक्रेयं बलवन्तं च संश्रयेत् । दुर्मिन मरणं व्याधिस्त्रासं मासं प्रवर्तते ॥ १३ ॥
अर्थ-आषाढी पूर्णिमाको ( दैवयोगसे ) यदि दक्षिण दिशाका वायु चले तो उस समय (बोवनीके समय ) कुछ न बोना चाहिए । वह वायु ब्रह्मक्षेत्रको-ब्राह्मण प्रदेशदे लिये--पीडाकारी होता है। उस समय धनधान्यका विक्रय नहीं करना चाहिए एवं किसी बलवान राजादिका श्राश्रय ग्रहण करना चाहिए क्योंकि एक मासमें ही दुर्भिक्ष, मरण, व्याधि और त्रास उपस्थित होने लगता है। १२, १३ ॥
आषाढीपूर्णिमायान्तु पश्चिमो यदि मारुतः । मध्यमं वर्णणं शस्यं धान्यार्थो मध्यमस्तथा ॥१४॥ उद्विजन्ति च राजानो वैराणि च प्रकरते । परस्परापघाताय स्वराष्ट्रपरराष्ट्रयोः। १५॥
अथ-आषाढ़ी पूणिमाको यदि पश्चिमवायु चले तो मध्यम प्रकारकी वर्षा होती है । शस्यकी तथा धान्यके अर्थ(मूल्य) की स्थिति मध्यम होती है । राजा लोग उद्विग्न हो उठते हैं और अपने तथा दूसरोंके राष्टको परस्पर में घात करने के लिए वैर-भाव धारण करते है ।। १४, १५ ।।
आषाढीपूर्णिमायान्तु वाय: स्यादुत्तरो यदि । वापयत्सर्वबीजानि शस्य ज्येष्टं प्रबद्ध ते ॥ १६॥ क्षेम सुभिक्षमारोग्यं प्रशान्ताः पार्थिवास्तथा । बहूदकास्तदा मेघा मही धर्मोत्सवाकुला ॥ १७ ॥
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किरण ११-१२ ।
भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र
४१५
अथ-आषाढको पूणिमाको यदि उत्तर दिशाका बाय चले तो उस समय (बोवनीके ममय) सब रनोंको बो देना चाहिए, क्योंकि उस समय बोये गये बीज बहुप्तायतसे उत्पन्न होते हैं । सथा तेम (कशलता), सुभिक्ष, (सुकाल) एवं प्रारोग्य (तन्दुरुस्ती) की वृद्धि होती है और राजा युद्धके उद्यमसे सदा शान्त रहत है-प्रजाके साथ उत्तम व्यवहार करते है-मेघ बहुत जल बर्षाते है और पृथ्वी धर्मोत्सवोंमे व्याप्त होती है ।। १६, १७ ।।
आषाढीपणंमायां तु वायुः स्यात्पूर्वदक्षिणः । राजमृत्युर्विजानीयाच्चित्र शस्यं तथा जलम् ॥१८॥ क्वचिनिष्पद्यते शस्यं क्वचिच्चापि विपद्यते । धान्यार्थो मध्यमो ज्ञेयस्तदाऽग्नेश्च भयं नणाम्।।१६।।
अर्थ-आपाढी पूणिमाको यदि पूर्व और दक्षिण के बीचकी अथान् अग्निकोण की वाय चले तो राजाकी मत्य होती है। शस्य तथा जलकी स्थिति चित्र-विचित्र होती है। धान्यकी उत्पत्ति कहीं होती है और कहीं उमपर आपत्नि आ जाती है। मनुष्यको धान्यका लाभ मध्यम होता है और अग्निमय बना रहता है ।। १८, १६ ॥
आपाढीपणिमायान्तु वायुः स्यादक्षिणापरः । शस्यानामुपघाताय चौराणां तु विवृद्धये ॥२०॥ भम्म पांशु-रजाकीर्णा तदा भवति मंदिनी। सर्वत्यागं तदा कृत्वा कर्तव्यो धान्यसंग्रहः ॥२१॥ विद्रवन्ति च राष्ट्राणि क्षीयन्ते नगराणि च । खेतास्थि मंदिनी ज्ञेया मांम-शोणित-कर्दमा ॥२२॥
अर्थ-आषाढो पुणिमाको यदि (देवयागमे ) दक्षिण और पश्चिमके वीचकी दिशा-नैऋत्य कोमाकी वायु चले तो वह धान्योंके घात एवं चोरोंकी वृद्धिके लिये होता है। उस समय पृथ्वी भस्म, धूलि एव रज: कणोंसे भर जाती है अथात् अनावृष्टसे पृथ्वीपर धूलि, मिट्टी उड़ा करतो है । उस समय
और सब चीनको छोड़कर धान्य का संग्रह करना चाहिए । उस समय राष्ट्रोंमे उपद्रव पैदा होते हैं नगगेका क्षय होता है। पृथ्वी श्वेत हडियोसे भर जाती है और मांस तथा वृनके कीचर से स. रहती है। ।। २०, २१, २२ ।।
आपाडीपणिमायान्तु वायुः स्यादुतरापरः । मक्षिका दंरामराका जायन्ते प्रकलास्तदा ॥ २३ ॥ मध्यमं क्वचिदुत्कृष्ट वर्ष शम्यं च जायते । नूनं च मध्यमं किञ्चिद्धान्यार्थतत्र निर्दिशेन ॥२४॥
अर्थ-आषाढी पणिमाको यदि वायु उत्तर पश्चिम (वायव्य) कोएकी चले तो मक्खो डांस और भच्छा प्रचल हो उठते है। वो और धान्योत्पत्ति कहीं मध्यम और कहीं उत्तम होती है और कुछ धान्योंका मूल्य अथवा लाभ निश्चित रूपसे मध्यम ममझना चाहिर ।। २३, २४ ॥
आपाढीपुणिमायान्तु वायुः पूर्वोत्तरा यदा । वापयेत्सर्वबीजानि तदा चौगश्व घातयेत् ॥२५॥ स्थलप्वपि च यद्वीजमुप्यते तत्समृद्धति । क्षम व मुभिक्षच भद्रवाहुवचा यथा ॥२६॥ वहूदका शस्यवती यत्रोत्सवसमाकुला । प्रशान्तडिम्भडमरा च शुभा भवति मेदिनी ॥ २७ ।।
अर्थ-आपादकी पूणिमाको यदि पूर्व और उत्तर दिशाके बीचका-ईशान कोणका-वायु चले उससे चोरोंका घात होता है अथोत चोरोंका उपद्रव कम होता है। उससमय सब पोज बोने चाहिए, स्थलों
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४१६
भनेकान्त
[वर्ष १०
पर भी बोया हुआ बीज उगता तथा समृद्धिको प्राप्त होता है। सर्वत्र क्षेम और सुभिक्ष होता है।
हुका वचन है। साथ ही पृथ्वी बहुत जल और धान्यसे सम्पन्न होती है. यज्ञोत्सवा प्रतिष्ठादि महोत्सवोंसे परिपूर्ण होती है और सब विडम्बनाऐं दूर होकर प्रशान्त वातावरणको लिए हुए मङ्गलमय हो जाती है ।। २५, २६, २७ ॥ पूर्वो वातः स्मृतः श्रेष्ठस्तथा चाप्युत्तरो भवेत् । उत्तमस्तु तथैशानो मध्यमस्त्वपरोत्तरः ॥२८॥ अपरस्तु तथा न्यूनः शिष्टो वातः प्रकीर्तितः । पापे नक्षत्र-करणे मुहूर्ते च तथा भशम् ॥ २६ ॥
__ अर्थ-पर्वका वायु श्रेष्ठ होता है। उसी प्रकार उत्तरका वायु भी श्रेष्ठ कहा गया है । ईशान दिशाक वायु उत्तम होता है । वायव्यकोणका तथा पश्चिमका वायु मध्यम होता है। शेष (दक्षिण दिशा तथ अग्नि और नैऋत्य कोणका) वाय अधम कहा गया है उस समय नक्षत्र, करण, तथा मुहूर्त यदि पापी हो-अशुभ हो-तो वायु और भी अधिक अधम होता है ।। २८, २६ ॥ पूर्ववातं यदा हन्यादुदीर्णो दक्षिणोऽनिलः । न तत्र वापयेद्धान्यं कुर्यात संचयमेव च ॥३०॥ दुर्भिक्ष चाप्यवृष्टिं च शस्त्र रोगं जनक्षयम् । कुरुते सोऽनिलो घोरं आषाढाभ्यन्तरं परम्॥३१॥
अर्थ-आषाढी पूर्णिमाके दिन पूर्वके चलते हुए वायुको यदि दक्षिणका उठा हुआ वायु परास्त करके नष्ट कर दे तो उस समय धान्यको नहीं बोना चाहिए किन्तु संचय ही करना चाहिये। क्योंकि वह वायु दुर्भिक्ष, अनावृष्टि, शस्त्रसंचार (यद्ध) और जनक्षयका कारण होता है-उनके होनेको सूचित करता है । ३०, ३१ ।। पापघाते तु वाताना श्रेष्ट सर्वत्र चादिशेत् । श्रेष्ठानपि यदा हन्युः पापा: पापं तदादिशेत् ॥३२॥
अर्थ-श्रेष्ठ वायुओं में से किसीके द्वारा पाप वायुका यदि घात हो तो उसका फल सर्वत्र श्रेष्ठ कहना चाहिये और पाप (दुष्ठ) वायुऐं श्रेष्ठ वायु ओंका यदि घात करें तो उसका फल अशुभ होता है ।। ३२ ॥ यदा तु वाताश्चत्वारो भृशं वान्त्यपसव्यतः । अल्पादकं शस्यघातं भयं व्याधि च कुर्वते ॥३३॥
अर्थ-यदि पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तरके चारों पवन अपसव्य मार्गसे (दाहिनी ओरस) तेजीके साथ चलें तो वे अल्पवो, धान्यनाश भय और व्याधिको करने वाले होते हैं ।। ३३ ।। प्रदक्षिणं यदा वान्ति त एव सुखशीतलाः । क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं राजवृद्धि जयं तथा ॥ ३४ ॥
अर्थ-वे ही चारों पवन यदि प्रदक्षिणा करते हुए चलते हैं तो सुख एवं शोतलताको प्रदान करने वाले होते हैं । तथा लोगोंको क्षेम, सुभिक्ष, आरोग्य, राजवृद्धि और विजयकी सूचना देने वाले होते हैं ।। ३४ ॥ समन्ततो यदा वान्ति परस्परविघातिनः । शस्त्रं जनक्षयं रोगं शस्थघातं च कुर्वते ॥ ३५ ॥
अर्थ-चारों पवन यदि सब ओरसे एक दूसरेका परस्पर घात करते हुए चले तो शस्त्रमय (युद्ध), जननाश, रोग और धान्यघात करने वाले होते हैं ॥ ३५ ॥ एवं विज्ञाय वातानां संयताः भैत्यवतिनः । प्रशस्तान्यत्र पश्यन्ति वसेयुस्तत्र निश्चितम् ।। ३६ ॥
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किरण ११-१२]
भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र
४१७
अर्थ-इस प्रकार पवनों और उनके शुभाशुभ फलको जान कर भिक्षावृत्तिवाले साधुओंको चाहिए कि वे जहां बाधारहित प्रशस्त स्थान देखे वहीं निश्चितरूपसे निवास करें॥ ३६ ॥ आहारस्थितयः सर्वे जङ्गमाः स्थावरास्तथा । जलसंभवं च सर्व तस्यापि जनकोऽनिलः ॥ ३७ ॥
अर्थ-जंगम और स्थावर सब जीवोंकी स्थिति आहारपर निर्भर है-सबका आधार आहार है-वह सब आहार जलसे उत्पन्न होता है और उस जलको भी उत्पन्न करनेवाला वायु है ॥ ३७ ।।
सार्वकालिक वायुका लक्षण
सर्वकालं प्रवक्ष्यामि वातानां लक्षणं परम् । आपाढीवत्तत्साध्यं यत्पूर्व सम्प्रकीर्तितम् ॥३८॥
____ अर्थ-अब पवनोंका सार्वकालिक उत्तम लक्षण कहूँगा, उसे पूर्वमें कहे हुए प्राषाढी पूर्णिमाके समान सिद्ध करना चाहिए ॥ ३८ ॥ पूर्ववातो यदा तूर्ण सप्ताहं वाति कर्कशः । स्वस्थाने नाऽभिवत् महदुत्पद्यते भयम् ॥३६॥ प्राकार-परिखानां च शस्त्राणां च समन्ततः । निवेदयति राष्ट्राणां विनाशं तादृशोऽनिलः ॥४०॥
___ अर्थ-पूर्व दिशाका पवन यदि कर्कशरूप धारण करके अतिशीघ्र गतिसे चले तो वह स्वस्थानमें वाके न होनेकी सूचना देता है और उससे अत्यन्त भय उत्पन्न होता है उस प्रकारका पवन कोट-खाइयों, शस्त्रों और राष्ट्रोंका सब ओरसे विनाश सूचित करता है ॥ ३६, ४०॥ सप्तरात्र दिनाञ्च यः कश्चिद्वाति मारुतः । महद्भयं हि विज्ञ यं वर्ष वाऽथ महद्भवेत् ॥४१॥
___ अर्थ-किसी भी दिशाका वायु यदि साढ़े सात दिन तक लगातार चले तो उसे महान भयका सूचक जानना चाहिए अथवा उसके कारण अतिवृष्टि होती है ॥४१॥ पूर्वसंध्यां यदा वायुरपसव्यं प्रवर्तते । पुरावरीधं कुरुते यायिनां तु जयावहम् ॥ ४२ ॥
अथ-यदि वायु अपसव्यमार्गसे पूर्वसंध्याको वातान्वित करता है तो वह पुरके अवरोधकाघेरेमें पड़ जानेका-सूचक है । उस समय यायियों-युद्धयात्रियों की विजय होती है ॥ ४२ ॥ पूर्वसंध्यां यदा वायुः सम्प्रवाति प्रदक्षिणः । नागराणां जयं कुर्यात्सुभिक्ष यायिविद्रवम् ॥४३॥
अर्थ-यदि वह वायु प्रदक्षिणा करता हुआ पूर्वसंध्याको व्याप्त करे तो उससे नागरिकों (स्थायी) की विजय होती है, सुभिक्ष होता है और चढ़कर आनेवाले यद्धयात्रियोंको लेनेके देने पड़ जाते हैं अथात् उन्हें भागना पड़ता है ।। ४३ ॥ मध्याह चार्द्धरात्रे वा तथा वास्तमनोदये । वायस्तुणं यदा वाति तदाऽवृष्टिभयं रुजम् ॥ ४४ ।।
अर्थ-यदि वायु मध्याह्नमें, अर्धरात्रिमें तथा सूर्यके अस्त भौर उदयके समय शीघ्र गतिसे चले तो अनावृष्टिका भय और रोग उत्पन्न होते हैं ॥४४॥
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४१८
अनेकान्त
[वर्ष १०
यदा राज्ञः प्रयातस्य प्रतिलोमोऽनिलो भवेत् । अपसव्यो समार्गस्थस्तदा सेनावधं विदुः ॥४शा
अर्थ--राजाक प्रयाण के समय वायु यदि प्रतिलोम (उल्टा) बहे अर्थात् उस दिशाको न चलकर जिधर प्रयाण किया जारहा है उस दिशाको चले जिधरसे प्रयाण हो रहा है और वह अपसव्य (दाहिनी
ओरका) माग अंगीकार करे अथवा सेनाके मार्ग स्थित हो जाए तो उससे राजाकी सेनाका बध होगा ऐसा समझना चाहिए ॥ ४५ ॥ अनुलोमो यदा स्निग्धः सम्प्रवाति प्रदक्षिणः । नागराणां जयं कुर्यात्सुभिक्षच प्रदीपयेत॥४६॥
___ अथे-यदि वायु स्निग्ध (सचिक्कण) हो और प्रदक्षिणा करता हुआ अनुलोमरूपसे बहे - उसी दिशाको चले जिधरको प्रयाण होरहा है तो उससे नगरवासियोंकी विजय होती है और सुभिक्षको सूचना मिलती है ।। ४६ ॥ दशाहं द्वादशाहं वा पापवाता यदा भवेत् । अनुबन्धं तदा विन्द्याद्राजमन्यु जनक्षयम् ॥१७॥
___ अर्थ-यदि पापवायु दश दिन तक या बारह दिन तक लगातार चले तो उससे सनादिकका बन्धन, राजाकी मृत्यु और मनुष्योंका क्षय होता है, ऐसा समझना चाहिए । ४७ ।। यदाऽभ्रवर्जितो वाति वायुस्तृणमकालजः । पाशुभस्मसमाकीणः शस्थधाता भयावहः॥४८॥
अर्थ-जब मेघरहित अकालमें उत्पन्न हुआ वायु धूलि और भस्मसे भरा हुप्रा चलता है तब वह शस्य ( धान्य ) घातक एवं महाभयंकर होता है ॥ ४ ॥ सविध त्सरजो वायुरूवंगा वायुभिः सह । प्रवाति पक्षिशब्देन क्रूरेण स भयावहः ॥ ४६ ॥
अर्थ-यदि विजली और धूलिसे युक्त वायु अन्य वायुओं के साथ ऊध्र्वगामो हो और करपक्षोके समान शब्द करता हुआ चले तो वह भयंकर होता है ॥४६॥ प्रवान्ति सर्वता वाता: यदा तूर्ण मुहुमुहुः । यता यतोऽभिगच्छन्ति तत्र देशं निहन्ति ते ॥५०॥
अथे-यदि पवनें सब ओरस बार बार शीघ्रगतिसेचले तो जिस जिस देशको तरफ गमन करती है उस उस देशका घात करता है-उसे हानि पहुँचाता है। ॥ ५० ॥ अनुलोमो यदानोके सुगन्धा वाति मारुतः । अयत्नतस्तता राजा जयमाप्नोति सर्वदा ॥५१॥
अर्थ-यदि राजाकी सेनामें सुगन्धित अनुलोम (प्रयाणकी दिशामें ही प्रगतिशील पवन चले तो बिना यत्नके ही वह राजा सदा विजयको प्राप्त होता है ।। ५१ ।। प्रतिलोमा यदानीके दुर्गन्धा वाति मारुतः । तदा यत्नेन साध्यन्ते वीरकोनिसुलब्धयः ॥ ५२ ।।
अर्थ-यदि राजाकी सेनामे दुर्गन्धित प्रतिलोम (प्रयाण-दिशा-प्रतिपक्षी ) पवन चले तो उस समय वीर-कीर्तिकी उपलब्धियाँ बड़ी ही प्रयत्न-साध्य होती हैं-वीरोंको यशका मिलना दर्धर होजाता है ।। ५२ ।।
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किरण ११-१२]
भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र
४१४
युद्धस्थलीय-वायु-विषयक निमित्तज्ञान यदा सपरिघा सन्ध्या पूर्वो वात्यनिलो भृशम् । पूर्वस्मिन्नेव दिग्भागे पश्चिमा वध्यते चमः।।५३।।
___ अथ-यदि प्रात: अथवा सायंकालकी सध्या परिघ - सहित हो-सूर्यको लॉघती हुई मेघोंकी पंक्तिसे युक्त हो-और उस समय पूर्वका वायु अतिवंगसे चलता हो तो पूर्व दिशामे ही पश्चिम दिशाका सेनाका वध होता है ।। ५३ ।। यदा सपरिघा संध्या पश्चिमा वाति मारुतः । अपरस्मिन् दिशो भागे पूर्वा सा बध्यते चमः।५४/
अर्थ- यदि संध्या सपरिघा हो-सूर्यको लॉघती हुई मेघ पंक्तिसे युक्त हो-और उस समय पश्चिम पवन चले ता पूर्व दिशा में स्थित सेनाका पश्चिमदिशामे बध होता है ।। ५४ ॥ यदा सपरिघा सध्या दक्षिणा वाति मारुतः । अपरस्मिन्दिशो भागे उत्तरा वध्यते चमूः॥ ५५ ।।
अर्थ-यदि संध्या सपरिघा हो-सूर्यको लॉघती हुई मेघपंक्तिसे युक्त हो और उस समय दक्षिण का वायु चलता हो तो उत्तरकी सेनाका दक्षिण दिशामें बध होता है ।। ५५ ।। यदा सपरिघा संध्या उत्तरो वाति मारुतः । अपरिस्मन् दिशा भागे दक्षिणा वध्यते चमूः ॥५६॥
___ अर्थ-यदि संध्या परिघ-सहितहो-सूर्यको लांघती हुई मेघपंक्तिसे युक्त हो और उस समय उत्तरका पयन चले तो दक्षिणकी सेनाका उत्तर दिशामें वध होता है ।। ५६ ॥ प्रशस्तस्तु यदा वातः प्रतिलोमोऽनुपद्रवः । तदा यान् प्रार्थयेकामांस्तान प्राप्नोति नराधिपः॥५७ ।
अर्थ-जब प्रतिलोम वायु प्रशस्त और उपद्रवरहित हो तो राजा जिन कार्योंको चाहता है वे उसे प्राप्त होते है अर्थात् राजाको उसके अभीष्टको सिद्धि होती है ॥ ५७ ॥ यप्रशस्ता यदा वायुर्नाऽभिपश्यत्युपद्रवम् । प्रयातस्य नरेन्द्रस्य चमूः हारयते सदा ॥५८ ॥
अर्थ-यदि वायु अप्रशस्त हो और उस समय कोई उपद्रव दिखाई न पड़ता हो तो युद्ध के लिये प्रयाण करनेवाले राजाकी सेना सदा पराजित होती है ॥ ५ ॥ तिथीनां करणानां च मुहुर्तानां च ज्योतिपाम् । मारुतो बलवान्नेता तस्माद्यत्रैव मारुतः ॥५६॥
अर्थ-तिथियों, करणों, मुहूर्तो' और ज्योतिषियों ( ग्रह - नक्षत्रादिकों ) का बलवान नेता वायु है अत: जहां वायु है वहीं उनका बल समझना चाहिए ।। ५६ ॥ वायमानेऽनिले पूर्व (३) मेघास्तत्र समादिशेत् । उत्तरे वायमाने तु जलं तत्र समादिशेत् ॥६०॥
अर्थ-यदि पूर्वदिशामें पवन चले तो उस दिशामें मेघोंका होना कहना चाहिये और यदि उत्तर दिशामें पवन चले तो उस दिशामें जलका होना कहना चाहिए ।। ६०॥
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अनेकान्त
[ वर्ष १०
ईशाने वर्षणं ज्ञेयं श्राग्नेये नैऋतेऽपि च । याम्ये च विग्रहं न याद्भद्रबाहुवचो यथा ॥ ६१ ॥
अर्थ-यदि ईशान कोण में पवन चले तो वर्षाका होना जानना चाहिये और यदि नैऋत्य तथा दक्षिण दिशा में पवन चले तो विग्रह ( युद्ध ) का होना कहना चाहिए ॥ ६१ ॥
सुगन्धेषु प्रशान्तेषु स्निग्धेषु मार्दवेषु च । वायमानेषु वातेषु सुभिक्षं क्षेममेव च ॥ ६२ ॥
अर्थ-यदि चलने वाले पवन सुगन्धित, प्रशान्त (शान्तिमय), स्निग्ध (सचिक्कण ) तथा कोमल हों तो सुभिक्ष तथा क्षेमका ही होना कहना चाहिये ॥ ६२ ॥
महतोपि समुद्भ ूतान्सतडित्साऽभिगर्जितान् । मेघान्विहनते वायुः नैऋत्यो दक्षिणाग्निजः ||६३||
४२०
अर्थ - नैऋत्यकोण, अग्निकोण तथा दक्षिण दिशाका पवन उन बड़े मेघों को भी नष्ट कर देता है - बरसने नहीं देता--जो चमचमाती बिजली और भारी गर्जनासे युक्त हों और उसके द्वारा ऐसा भाव दर्शाते हों कि अभी बरसनेवाले हैं ॥ ६३ ॥
सर्वलक्षणसंपन्नाः मेघमुख्याः जलावहाः । मुहूर्तादुत्थितो वायुर्हन्यात् सर्वोऽपि नैऋतः ॥ ६४ ॥
अर्थ-स्वर्व लक्षणोंसे सम्पन्न जलको धारण करने वाले जो मुख्य मेघ हैं उन्हें भी नैऋत्य दिशाका उठा हुआ पूर्ण पवन एक मुहूर्तमें नष्ट कर देता है ॥ ६४ ॥
सर्वथा बलवान् वायुः स्वचक्रे निरभिग्रहः । करणादिभिः संयुक्तो विशेषेण शुभाशुभः ||६५ || - अभिग्रह से (बन्धन तथा परके आक्रमण से ) रहित वायु स्वचक्र में सर्वथा बलवान होता है और यदि करणादिकसे संयुक्त हो तो विशेषरूपसे शुभ अशुभ होता है अर्थात् शुभकरणादिकके योग
से
शुभ फलका और अशुभ करणादिकके योगसे अशुभ फलका दाता होता है ॥ ६५ ॥
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मूलमें मूल
(ले०-बा० अनन्तप्रसाद जैन B. Sc. Eng.) संसारमें सभी सुख चाहते है-सुखी होना कि वह इधर देखे भी-इधर ध्यानको फेरे भी । चाहते हैं । पर दुखसे छुटकारा कैसे मिलेगा इस- वह तो एक Absolute बेबसीकी हालतमें चलता हो पर बहुत कम लोग ध्यान देते है। दुख क्या है, जाता है, रुकने का उसे अवकाश हो कहां ! वह है क्यों होता है तथा उसे दूर करने का क्या उपायहै ? साथमें 'पेट', 'बालबच्चे', 'कुटुम्ब परिवार' और इसपर लोग यदि ध्यान दें तो अधिक लाभ हो सबके ऊपर 'मांसारिक प्रतिबन्धन' । धनीको धनसे सकता है। दुख और सुख क्या है, उनके होने का फुर्सत नहीं और गरीबको गरीबोसे,दोनों ही बेसुध ! elementary प्रारंभिक प्रधान कारण क्या है तथा जब मर्ज बहुत काफी बढ़ जाता है और बदोश्तसे एकको दर करके दसरेको केसे प्राप्त किया जासकता बाहर हो जाता है या उसके कारण कार्यो में बाधा है ? यह सब एक प्रारम्भिक प्रश्न है । पर इधर पहुँचने लगती है तब व्यक्तिका ध्यान डाक्टर वैद्यध्यान ही कौन देता है ? एक दुख या बीमारीको की तरफ जाता है। पर अधिकतर डाक्टर और वैद्य बहत दिनोंसे भोगते भोगते कोई भी उससे होने वाले भी इस सांसारिक बीमारीके वैसे ही शिकार है। दखोंका या तकलीफों का आदी हो जाता है । उसके जिन्हें खदको भी ठीक सुब नहीं वे क्या दवा लिये उसमें कोई नयापन नहीं रह जाता। वह उस करेंगे। नतीजा यह होता है कि 'मर्ज बढ़ता गया तकलोफको महता हुआ एक आवश्यक भारसा ज्यों ज्यों दवा की फिर तो दवामें विश्वास ही उठवहन करता हु पा-भूना हुपासा संसारके और जाता है। वह ईश्वरको पुकारता है, पर वहां ईश्वर काम करता रहता है। और धीरे धीरे यह सब कुछ कहां। वह तो एक काल्पनिक वस्त है, जिसे विद्वानों स्वभावमें हो परिणत हो जाता है। फिर तो वह ने दखी मानवके संतोषके लिये रख दिया है, ताकि तकलीफ या दुग्ख उपके जीवनका ही एक (essenti- वह भला रहे । पर उसीपर हर तरहसे निर्भर होकर al part) आवश्यक अंग सा होजाता है जिसके यह विश्वास कर लेना कि अपने आपसे पैदा किये हटने में ही नयापन पैदा हो जाय-या नित्यप्रतिके सारे दुखों और जंजालोंको वह क्षणमात्रमें छू मन्त्रके नित्यनैमित्तिक (routine) कार्यों में खलल पैदा हो। जोरसे उड़ा देगा, नादानी नहीं तो और क्या है ? अन्यथा जो चलता रहता है चलता ही रहता है। यह नादानी ऐसो है कि सभी जन इसमें मुबतिला इसी तरह दुनिया चली जारही है-अपना मर्ज अपना हैं और इसोमें वाहवाही समझते हैं। फिर दवा कोढ़, अपनी बीमारी अपने आपपर लादे हुये, क्या-पाय क्या ? आखिर इनसे कैसे छुटकारा ढोतहए भुगतते हुए। हां, कभी कभी जब पीड़ा बढ़ मिले या मिल सकता है? क्या कभी कोई ठोक जाती है, नई खुजली पैदा होती है या कुछ नई तक- डाक्टर या वैद्य हुआ ही नहीं या होगा ही नहीं ? लीफ होने लगती है तब भान होता है कि जैसे कोई सो भी बात नहीं है । रोगको ठोक जानने पहचानने बोमारी है या बहुत दिनोंसे हो रही है और मनुष्य और ठोक निदान बतानेवाले डाक्टर भी हुये हैं और उसके प्रतिकारका कुछ उपाय करता है-कुछ हुआ होंगे भी, पर दुःखोंके बोझसे दबा हुमा मानव तो हुआ, नहीं तो रोज के 'नून तेल लकड़ी' के जब एक बार उन दुःखोंको स्वभावमें दाखिल चक्करमें धीरे धीरे वह नई खुजली भी पुरानीमें करलेता है तब वह बाकी सारी बातोंसे प्रायः परिणत हो जाती है और खुजलाता खुजलाना उसकी बेखबरसा ही हो जाता है। अन्धा बहरा गूगा हो टीसके मजे लेता और दुखसे 'सी सी' करता करता जाता है। चाहे कितना ही ढोल पीटा जाय, उसे चेत आगे बढ़ता चला जाता है । उसे फुरसत ही कहां है नहीं होता। एक बार बहक जानेपर किसीको फिर
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४२२ अनेकान्त
[वषे १० ठोक रास्तेपर लाना जब मुशकिल है तब यह तो न या अकड़को सबसे पहले दूर करना होगा। जब हम जाने किस अनादि कालसे भटकता चला आ रहा है। अच्छे डाक्टरकी बात ही नहीं सुनेंगे तो हम उसका यही कारण है कि हमारा स्वभाव अब ऐसा हो गया कहना ही कैस समझेगे फिर तो जो कुछ वह कहता है कि हम दुःखोंको और उनके कारणोंको ही अपने है उसे मानना और भी अधिक दूर की बात है । इस मे चिपकाए हुए-भूले हुए और उन्हें अपना एक लिए सबसे पहले यह आवश्यक है कि उचित शिक्षा अनिवार्य आवश्यक अंग समझते हुए वहन करते एव प्रचारके द्वारा यह गलत भावना संहारक लोगोंचलने जाते है और जो कोई उन्हें फेंकने या छोड़ के दिमागसे दूर को जाय कि जो कछ अब तक वह देनेको कहता है तो उलटे उमीपर बिगड़ते हैं, अपना समझता आया है वही ठीक है, बाकी सब उसको गालियां देते हैं, पागल कहते है और उसकी गलत । अथवा उसका एक डाक्टर जो कहता है या बातों को नहीं मानते अथवा सुनी अनसुनी कर देते कह गया है वही ठीक है और बाकी दुनियांके जितने हैं, इत्यादि । कहाँ तक कहा जाय इस तरह हमारा दुसरे डाक्टर कहते हैं या कह गए हैं वह सब गलतो मर्ज आज ला-दवासा (असाध्य-जैसा) हो रहा है। है, इत्यादि । जब तक यह अज्ञानपूणे कूढ़मग्जी
बात यह नहीं कि दवाइयां नहीं। होनेको तो लोगोंमें बनी रहेगो तब तक न वे किसीकी ठोक तरह. "संजीवनी बूटी" और "अमृत" भी है । असली से सुनेगे ओर न उनका रोग दूर होगा। जब लोग एक
और नकली तथा असली से समानता रखती हुई दूसरेकी सुनने लगेंगे और समझने को काशिश करके बहत सी दसरी भी दवाइया' है जो अपना कम-बेश समझने लगेगे तब सब कुछ अपने आप हो ठोक हो फायदा दिखलाती है। पर जब हम उधर ध्यान दे हो जायगा। तब तो। और बीचमें झूठे दवाफरोश, जो चारों अभी नो हालत ऐसी है कि एक धर्म मानने वाला नाम अपनो अग्नी दवाओंका इश्तहार करते- दसरे धर्मको एक दम गलत, झूठा और बहकी हुई विज्ञापन करते घूम रहे हैं, वे भी तो हमें असली बात समझना है। यह कभी नहीं सोचता या ख्याल "संजीवनी' तक पहुंचने नहीं देते-हम बीचमें ही करता कि सभव है उसके गुरुने हो कोई गलतो की उनकी भूठी लुभावनी बातोंमें पड़ कर भटक जाते है हो-जरा ममालोचनात्मक रूपसे उन बातोंकी जांच और नकली दवाओंको ही असली समझकर अपना तो को जाय कि जिन्हें वह अब तक मानता या ठोक लेते हैं। यदि उनसे थोड़ा बहुत आराम मिला तब तो समझता आया है उनमें कहां तक सत्यता है या पूछना ही क्या ? हम उसे ही अमृत समझने लगते
विवेचनात्मक तकपूर्ण रूपसे उनमे तथ्य कितना है। है और उस झूठे ढोंगी-विज्ञापन-बाजीके जारपर इत्यादि । ऐसा होनेसे ही सत्य तक कोई भी व्यक्ति अपना रोजगार फैलाए रखने वाले वैद्यको ही अपना कभी न कभी पहुंच सकता है। और यदि मत्य उसके रक्षक एवं गुरु या देवता मान लेते हैं।
पास ही हो तब तो वह उसे पूर्ण रूपसे जांच कर, अाखिर यह सब होता क्यों हैं और इन दुःखों- परीक्षा कर उसमे और भी दृढ़ता प्राप्त कर सकेगा, का कोई उपाय भी है या नहीं? यह सब कुछ होता है और यह और भी अच्छा होगा। पर संसारमें अज्ञानसे तथा नासमझीस। और इन दुःखोंको इतना मिथ्याभाव सत्य कह कर या सत्यके रूपदर करनेका उपाय भी है.पर उसके लिए सबसे पहने में प्रचलित हो गया है कि बड़े बड़े विद्वान भी नासमझी और अज्ञान तथा जिदको दूर करना सर्व- भ्रममें ही पड़े हैं, पड़ जाते हैं और निकलने की प्रथम काम है। हम अपनी जिद और अकड़में अपनी कोशिश करनेपर बजाय छुटकारा पानेके और पकड़को ही ठीक समझते हुए किसी दूसरेकी सुनने अधिकाधिक उलझते जाते हैं और घपले में पड़ जाते को तैयार नहीं। अतः इस गलत एवं भ्रमपूर्ण जिद हैं। फिर अपनी विद्वत्ताके झूठे मान और सांसारिक
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किरण ११-१२]
मूल में भून अहंकारको दृढ़ रखने या पुष्ट करनेके लिए तरह मान्यताओंको प्रचलित किया । इतना ही नहीं, कुछ तरह की चेष्टाओंसे, तों और गढ़े गए सिद्धान्तों बहुत प्रभावशाली नरेशोने तो अपनी किसी का सहारा लेकर, उन्हीं बातोंका प्रतिपादन करने कमजोरी गलती या गुनाह(अपराध)को छिपाने, उसे लग जाते है। यही सारे खुराफातोंकी जड़ है। न्यायसंगत (Justify) करने या जनतास पर जब एक दूसरेको बोलने-कहनेका मौका अनुमोदित (Approve) कराने की नीयतसे प्रभाव. दिया जाय, नसे सुना जाय और मनन करके शाली विद्वानों-द्वारा तरह तरह के उपायों द्वारा समझा जाय तो ऐसी बात कमसे कम होगी। और अपनी प्रशंसाके ऐसे प्रचार उस समयके समाज में यह तभी होगा जब धार्मिक कदरता कम हो और कराए है कि उन्हें लोग देवता या ईश्वरका हम यह न समझ कि दसरे धर्मोके गुरू या प्रति अवतार समझे और यह समझे कि जो कुछ गलतपादक एकदम ही मूर्ख थे और स्वप्नमें उन्होंने सही उन्होंने किया वही सब ठोक उचित और न्यायकोई धर्म चला दिया । सभी धर्मों के चालकोंमें पूणे था, इत्यादि। ऐसी हालतमे उन नरेशोंके विद्वत्ता तो थी ही या रही ही होगी इतना कमसे कम व्यक्तित्व, प्रभाव और शक्तिने प्रचारके जोरपर मानना बहुत जरूरी है ।हां विद्वत्ताका उचित या समाजमे न जाने कितने अधर्मो को धर्म और अनुचित उपयोग हो सकता है पर तों में कुछ न कितनी अनीतियों को नोतिका रूप देकर उनका कुछ सार या मतलब तो अवश्य ही होगा। इस प्रचलन करा दिया, जिसका कोई हद्दो हिसाब, इं. तरह सभी तों एवं तत्त्वोंको इकटठा करके यदि तहा (अन्त) या गिनती नहीं ? इस तरह समय कोई एक निश्चित अपना तत्त्व निकाला जाय तो समयपर ऐसा होता रहा है, जिससे असल वस्तुफिर झगड़ा ही न रह जाय ।
तत्त्व एक दम छिप गया और रंगीन आवरणमय सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि साधारण मनुष्य
गलत भावनाओंका प्रचार एवं प्रसार सत्यके भी अपनेको सबसे बड़ा, सबसे अधिक जामी और
नामपर और सत्यके रूपमें संसारमें चारों तरफ
फैल गया । समयने इसपर अपनी सील-मुहर जानकार कहता तथा समझता है-पर इसका ज्ञान ।
करके इसे और पक्का कर दिया। फिर तो बादमें बड़ा ही सीमित और अल्प है। सभी कुछ पर्णरूप
जिन लोगोंको इसका मजा मिल गया-शराब के से समझ जाना किसी बिरले का ही काम हो मकता
पीनेवाले शराबियोंकी तरह-उसके नशेमें है। पर वे सभी लोग जो कुछ समझने, बझने या कहने लग जाते है और जिनका कुछ प्रभाव इस
उन्होंने और भी कितनी ही रंगोनियां उसमें लादी संसारमे कहीं किन्हीं लोगोंपर कायम हो जाता है और बराबर लाते गए जिससे सत्यका असली उस प्रभाव या बड़प्पनको बनाए रखने लिए भव्य सीधा सादा उज्वल स्वरूप पाना कठिन ही फिर वे स्वयं या उनके प्रशंसक बादमे तरह नहीं असंभव-जैसा हो गया। यदि कहीं किसीने तरह के तर्को या नरीकोंको काममें लाने लग जाते कुछ विरोधी प्रवृत्ति जाहिर की भो तो जैसे है । मानवसमाज अपनी विवशतामें एवं अज्ञान- शराबियोंकी जमाअतमें, जो गहरे शराबके नशे में की हालतमें जो कोई भी प्रभावशाली ढंगस जो मदमत्त हा, जाकर एक आदमो शराब छोड़नेकी कुछ कह देता है तथा गलत-सहो तों से या किसी शिक्षा देने लगे, तो उसकी जो हालत या गति उन भी तरह उसके दिमागमें कोई बात बैठा देता है शराबियोंके हाथों होनेकी कल्पना की जा सकती उसे ही ठीक सही, सत्य और मान्य मानने लगता है। है वैसी ही बात यहां भी हुई और होती रही है। बहतसे धर्माचार्या ने तो बड़े बड़े प्रभावशाली धर्मके नामपर और ईश्वरकी दुहाई देकर राजाओंकी बलशक्तिद्वारा अपनी अपनी धार्मिक जितनी खून खराबी, पाप और अत्याचार संसारमें
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४२४
भनेकान्त
वर्ष १० हुए हैं उतने और किसी तरहसे भी नहीं । यही कोही ठोक नहीं जान पाते हैं तो उनके ऊपर निर्भर संसारका इतिहास कहता है और यही बात सभी (आधारित) या उनसे ही बननेवाली दसरी जो जगह जाहिर है-मले ही इसे हम समझ कर भी न बाते (Theories)तथ्य या सिद्धान्त कही जायंगी वे समझे या जान बूझ कर भी अनजानो करदें, यह कैसे ठीक हो सकती हैं। जितना जितना हम तत्वों दूसरी बात है । पर बात है यही और सभी समझ (elements)को ठीक ठोक जानते जायेंगेहमारी बातें, दार इसे जानते और मानते है।
जिन्हें हम ननपर निर्धारित सिद्धान्तों ( Theories) पर जब हजारों वर्षोंसे ऐसा ही होता आया है के रूपमें कहेंगे, उतनो ही अधिकाधिक ठाक होती और इसने काफी जड़ पकड़ रखी है तब आखिर जायगी। जिसममय हमें तत्त्वों(elements)काएकदम इसे दूर भी कैसे किगा जा सकता है ? यह एक टेढा ठीक ठीक सच्चा एवं पक्का बोध हो जाय उस सबाल है, जिसे हल करना आसान नहीं। कोरे समय उन पर निधारित जो Theory या बात कही आदशवादके रूपमे ( Theoratically ) तो हम जायगी वह एक दम ठीक होगी। अतः सबसे पहले सब कुछ कह लेते हैं या कह सकते है पर व्यवहारतः यह जरूरी है कि हम जान लें कि संसार क्या है { practically) कैसे और कहां तक और कैसे बना है अथवा इसकी बनावटमें वस्तुतः संभव है यही उपाय खोजना जरूरी है। हमारे किन किन वस्तुओं (elements ) का संयोग है। धार्मिक शिक्षकोंका अपना श्राचरण इतना ऊँचा उन वस्तुओंका असल स्वरूप जानना सबसे पहले रहा कि कभी उनका ख्याल नीचे नहीं गया। लोग परम आवश्यक है। तभी आगे कुछ हो सकता है। स्वयं ही सनसे प्रभावित होकर उनके पीछे चलने और तभी आगे जो कुछ इस विषयमें कहा जायगा लगे और दूसरोंको भी चलाने लगे। अधिकतर ठीक होगा । अन्यथा नहीं। धर्मों में यही तथा ऐसा ही हुआ है। और इमी अधिकतर धर्मा में यही प्रारम्भिक गलती की कारण बादमें चलकर विकार धीरे धीरे बढ़ते बढ़ते गई है, जो सारे अनर्थोंको जड़ है। लोगोंने जो काफी बढ़ गये। और फिर अंतमें उनको दूर करना दृश्य जगतमे आंखोंके सामने देखा उसे ही असल या एक दम हटाना असंभव सा ही हो गया। कुछ या मूलभत (elementery ) मान लिया, बगैर कुछ सुधारक कभी कभी हर धर्म में बादको भी समय उसकी गहराई में गए अथवा उसकी खोद-कुरद समयपर हुए है और होते रहे हैं पर परिस्थिति-वश (analysis ) किए हो । यही सारी गलत भाववे भी कुछ कान्तिपर्ण सुधार नहीं करसके । सधारमे नाओंका मृल-कारण ( Root cause ) है। इसे कुछ गति हुई भी तो फिर धीरे धीरे समय के बढ़ावेके ठीक करना होगा। और यह तभी ठीक हो सकता साथ रफ़्तार बेढंगी होते होते वहीं पहुँच गई और है जब हम तथा हमारे विद्वान लोग हठधर्मी (bias) सारे सधार लुप्त होगए या सुधार ही विकारमें छोड़ कर तथा अपने ज्ञान-द्वारको सब ओरसे खला परिणत होकर हानिप्रद बन गये, इत्यादि । अाखिर रखें और हर बात पर खुले दिजसे अनेकान्तात्मक इन सब अव्यवस्थाओंका प्रधान कारण क्या ? विवचन करें। और तभी हम किसी
इनका प्रधान कारण है संसारके कारणभूत पहुँच सकेंगे और संसारको अव्यवस्थाओंका उचित या मुलभत तत्त्वों ( elements )का ठीक ठाक रीतिसे समाधान एवं निराकरण कर सकने में ज्ञान नहीं होना । जब हम तत्त्वों ( elements | समर्थ होंगें ।
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जेसलमेरके मण्डारकी छानबीन
मुनिश्री पुण्यविजयजीकी भारी साहित्य-सेवा । जेसलमेर में जैनियोंका एक बहुत बड़ा शास्त्र-भंडार है, जिसमें बहुतसे जैन ग्रन्थोंको ही नहीं किन्तु कितने हो अजैन ग्रन्थोंकी भी प्राचीन प्रतियां मौजूद है। कुछ असा हा मुनिश्री पुण्यविजयजी. जो श्रागमादि ग्रन्थोंके संशोधन-कायमें बदी तत्परताके साथ सलग्न हैं, वहां कुछ विद्वानों तथा सुलेखकोंको साथ लेकर पहुंचे हुए है। श्रापने सारे कर हारकी छानबीन करते हुए जो पत्र पं० सुखलालजी और मुनिश्री जम्वृविजयजी श्रादिको लिखे है वे अधिकांशत: जैन पत्रो में प्रकाशित हो रहे है और उनसे यह जाना जाता है कि भंडार कितनी अव्यघस्थाका शिकार हुआ है और उसके कारण अनेक ताड़पत्रादिके अलभ्य ग्रन्थ टूट टाट कर अस्त-व्यस्त अथवा नष्टभ्रष्ट हो गए है। माजीने बडे परिश्रम के साथ दो महीनेमे भडारको सभाला है और उसकी एक व्यवस्थित सूची तैयार की है, जो रिपोर्ट के साथ छपने जा रही है। यहांपर हाल में मनिश्री जम्वविजयको लिखे गए पत्रके वे खास अश अनुवादरूपमें प्रकट किए जाते है जो गुजराती 'जैन' पत्रके ६ वीं जुलाई के अंक नं० २७में प्रकट हुए है और जिनसे कितनी ही महत्वको बातोंका पता चलता है। साथ ही, यह भी मालूम होता है कि मुनिश्री पुण्यविजयजी कितना परिश्रम उठा रहे है और कितनी भारी साहित्य सेवाका कार्य कर रहे हैं । निःसन्देह उनका यह मेवाकार्य बहुत ही प्रशंसनीय है । उनके इस सत्कार्य में एक हो सज्जनने फिलहाल २५ हजारको निजी सहायता मेज दी है। दिगम्बर जैन साधुनों, शुल्लकों-गल्लको और ब्रह्मचारियों आदिका इस पवित्र साहित्य-सेवाको
और कुछ भी लक्ष्य नहीं है, यह बड़े ही खेदका विषय है ! उन्हे इस पत्र परसे कुछ पदार्थपाठ लेकर नष्ट-भ्रष्ट होती हुई जिनवाणीकी भी सधि लेनी चाहिए भार उसके प्रति अपना कर्तव्य बजाना चाहिए । दिगम्बर श्रीमानोंका भी ध्यान इस महत्वपूर्ण कार्यकी और जाना चाहिए और उन्हें अपने आर्थिक सहयोग-द्वारा कुछ विद्वानोंको भएडारों की जांच-पढनाल, सुव्यवस्था और सूची श्रादिके काममें लगाना चाहिए । कितने ही शास्त्र-नंडारोंकी बुरी हालत है और अनेक बहुमुल्य ग्रन्थप्रतियां दिनपर दिन चूहों दीमकों तथा सील श्रादिका शिकार होकर नष्ट-भ्रष्ट हो रही हैं। प्रति दिन जिनवाणी माताको अर्ध चड़ा कर ही सन्तुष्ट हो रहनेवालोंको शीघ्र चतना चाहिए और एक प्रत्यदर्शीकी इस दर्दभरी उक्ति पर ध्यान देना चाहिए"फटे हालों माता गिनत दिन कारागृह पड़ी ! बने मौनो बैठे युवक हम लज्जा धिक् बड़ी !! -सम्पादक |
'आप यह जानकर प्रसन्न होंगे कि यहाके हागी, इस दृष्टिमे स्वयं ही कापी को जा रहीहै। इस भंडारके पत्र पत्र खोज लिये हैं। प्रत्येक ग्रन्थको सरम के सिवाय सांख्यसप्ततिकाक ऊपर दो नवीन टीका सीलिसे व्यवस्थित कर दिया है, और पूरी सूची मदितसे भिन्न भी मिल रही है। उनकी नकलें भी रिपोर्टके रूपमे तैयार हो चुकी है। आज ही पर्ण होगी, उनमें एक प्रति ११७५ की लिखी हुई है, और हाई है। पुस्तकों की व्यवस्था और लिस्टमें दो महीने दूसरी भी इतनी ही प्राचीन है। टीकाकारोंके नाम का समय लगा है। अब दूसरा काम शुरू करू'गा। लिखे नहीं है, एकमे नाम था वह जाता रहा है सिर्फ
भंडारमें आचार्य पादलिप्तकी ज्योतिष्करगडक- एक 'म' अक्षर ही रह गया है, उसके पीछेके तीन की टीका मिली है, 'सर्वसिद्धान्तप्रवेश' नामका अक्षर नष्ट हो गये हैं। 'माठर' तो नहीं हैं। क्योंकि प्रन्थ 'पडूदर्शन से मिलता है । यहां उसकी दो नकलें यह वृत्ति माठर वृत्तिसे जुदी और मोटी है। माठर(प्रतियां) हैं, उसकी कापी कर रहा हूँ, एक दो दिन- वृत्ति तो छप गई है। उसके साथमे मुकाबला में पूर्ण हो जायगी। 'प्रमाणान्तर्भाव' नामके जैन (मिलान) कर लिया है । दूमरीमें तोनाम है ही नहीं। अन्धकी कापी भी कर लेना है, अपनेको उपयोगी दोनोंकी नकलें करा ली जायेगी।
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४२६ अनेकान्त
[वर्ष १० आगमोंकी कितनी ही प्रतियां तो बहुत प्राचीन सम्मत पाठ कौन है इत्यादिका बोध होता है। आप और सरस हैं। यदि मैं यहां न पाया होता तो यह इन टुकड़ोंको देखेंगे तो खुश हो जायगे। और काम अधूरा एवं अपूर्ण हो रहता । दशवैकालिक यह मालम होता है कि हम नसीबवान है। चणि छप गई है उसकी प्राचीन प्रतियां पाटणमें विविध सामग्रो मिलती रहती है। द्वादशारकी भा है उससे मिलानेके लिये मै अपनो प्रति यहाँ पोथी तथा अन्य कोई यहां नहों। बौद्ध ग्रंथ भी ल पाया हूँ । यहाँको प्राचीन प्रतिके साथ मिलाया खास यहां नहीं है, दो चार हैं। न्याय-विन्दु तब भवाड़ा (गड़बड़घुटाला) असा लगा । आप टीका आदि अमुक ग्रन्थ है। यह जान कर आश्चर्य करेंगे कि मुद्रित और अपने
यहां जितने नथ प्राचीन है उनके आदि-अन्तके भंडारकी प्राचीन प्रतियोंक अन्तभागमें एक ताड
तार पत्रोंके फोटो जरूर लिए जाने चाहिए, जिससे पत्रीयपत्र-जितना पाठ हो नहीं है। यहांको पाथी- विवाहित प्राधिका
चिह्नों तथा लिपि आदिका परिचय सहज हो जाय । में यह सब हो पाठ है। ग्रन्थकार-चूर्णिकार स्थविर में यहां भांदकमे आने को निकला उस बीच में के नामकी प्रशस्ति वगैरह सब है। इस तरहसे यवतमाल जिला आता है। वहा यवतमालम अपने लिए अपूर्व वस्तु मिली हुई समझना चाहिए। एक प्रखर सशोधक ब्राह्मण वकान श्री यशवन्त मैंने तो वास्तवमें यहांकी प्रतियोंसे ही प्रतिलिपि खशाल देशपांडे (M. A, LL. B., D. Litt.) कार्य करानेका निश्चय किया है। और दूसरी रहता है। भारतके ऐतिहासकोंमें वह नामांकित प्राचीन प्रति है उसके साथ मिलान कर लिया जायगा। है। उसके साथ मेरी धनी बातचीत हुई थी। यहां कितने ही प्रथोंकी ऐसी प्रतियां है कि ग्रथ- बात-बातमे उसने कहा है कि "यवतमाल जिलेके रचनाके पोछे तुरन्त ही अथवा कुछ ही बादकी लिखी पांढरखवड़ा ग्रामसे ईशान कोणमें नजदीक ही हुई है। धर्मविधि, कमग्र'थकी टोकाएँ, भवभावना 'वाई' नामका एक बड़ा यात्रास्थल वैदिकोंका है। सटीक पंचाशक आदि अनेक ग्रंथ इमी कोटिक है वहाँ मैं गया था। उस गांवके अन्दर तथा बाहर हमने बहत मिला लिए हैं और दूसरे मिला लूंगा। एकदा मीलके परिसरमें मैने बड़ी बड़ी उत्तम मन्मतितर्क का एक खण्ड यहां अधूरा है, दूसरा कोटिकी १०-१२ जैन प्रतिमाएँ अभी तक अखड है ही नहीं। परन्तु यहॉसकड़ ताडपत्रके टुकडे पड़े स्थितिमें देखी थी और उनका फाट लिया है। है। इन टुकड़ांको मैने अनेक वार देख डाला है, जब मूतियाँको नागपुरक म्यूजियममें ले जानक लिये जब देखता हूं तब तब अपूर्व वस्त मिल ही जाती
र गावक लागास बात की गई। उन्होंने उस वक्त ता है। इस तरह सन्मति'के पत्रका टुकड़ा मिल गया मजूर भी कर लिया था परन्तु बाद का “तियोंक है, उसमे पुष्पिकाका अंश मिला है, जिसमें ऊपर तिलक करके तथा फूल चढ़ार हम ता इन्हें 'तत्वबोधविधायिन्यां मन्मतिटी' ये अक्षर हैं, रोज पूजना चाहिये इसलिये नहीं दना" ऐना कह इसमे 'सन्मति' नामका उल्लख मिलता है, यह कर इन्कार कर दिया। महत्वकी वस्त है। टुकड़ा बिल्कुल छोटा है परन्तु इससे यह जाना जाता है कि यहां भूतकाल में इस दृष्टिसे महत्वका है। ऐसे मैंने अनेक टुकड़ घनो ही मोटी जैन संस्कृति की जाहाजलाली थी, इम का है। अनयोगद्वारसूत्रकी प्रतिके टुकड़े टुकड़े समय यवतमाल जिलामे मोटा भाग तो मन्दिरोंहो गये । इन टुकड़ोको मैने टुकड़ोंमेसे का ही बना हुअा है । वहाँ भी ऐसे प्राचीन अलग बीन कर काढा है। ये इतने महत्वके है कि अवशेष है यह एक बड़ी गौरव लेने जैसी बात है। आज अपने को जिस तरह के पाठभेद वगैरहकी यवतमालके पासके चाँदा जिलाके भांदकमेंसे खोज करनी है, योग्य पाठ कौन है और टीकाकार- तो हमारी मूर्तियोंके वेगनके वेगन भरकर सग्रह
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किरण ११-१२]
जेसलमेरके भण्डारकी छानबीन स्थानमे लेजाए जा चुके है।
होता । विवेक ग्रन्थ जैन है और वह जिसके ऊपर है ___ मैं इन मतियों के फोटो प्राप्त करने वाला हूँ। वह ग्रन्थ भी जैन होना चाहिये, पर वह प्रन्थ कौन ये दिगम्बर है या श्वेताम्बर, इसकी चिकित्सा है यह खबर अभी लगी नहीं। अमरचंदकी 'कविमैन की नहीं, और करना चाहता भी नहीं। सच्चा कल्पलता यह नहीं है क्योंकि विवेकची प्रति सं० बात कहिये तो प्राचीन प्रतिमानों में दिगम्बर श्व- १०५ में लिखी गई है। अमरचंद १३ वीं शताब्दीके ताम्बरका कोई चिह्न मिलता हो नहीं, दिगम्बर उत्तरार्धका विद्वान है। कविकल्पलता मिली नहीं, जैनके तौर पर उदारता करनी ही चाहिये। अन्यसब विवेकका प्रारम्भ इस प्रकार हैकी जाने वलो चिकित्सा निरर्थक है। सचित्र प्रतियों यत्पल्जवेन विवृतं दुर्बोध मन्दबुद्धिभिश्चापि । के फोटो भी मै लगा तथा महत्वके ग्रन्थोंके क्रियत कल्पलतायां तस्य विवकोऽयमतिसुगमः ।।शा फोटो लॅगा। एक बात बतलाता हूँ- द्वादशारकी सयाचन्दमसावति । "खद्योत पोतको यत्र सयापाथीमें पुष्पिकाके अन्तमे जो २ का अक जैसा चन्द्रमसावपि" इति पाठे, इत्यादि है।
आता था वह क्या ? ऐमा प्रश्न हा था श्राप इससे कल्पलता मूल ग्रन्थहै, जिसके उपर 'पल्लव जानो कि वह दंड मात्र ही है। प्राचीन बारहवीं और दोनोंक ऊपर 'विवेक' है। विवेकका दूसरा सदोको प्रतिमें ऐसे हा दड-पर्ण विराम आत है। नाम 'पल्लवशेष' भी है। इस समय तो कापी २२या इममें मिलते ही ये दंड है। आदि-अन्तम तय्यार हो गई है। आनवालो आकृतियों आदिक फोटो जरुर लेन है। हमें तो इस समय सब विशिष्ट संचय करते
हमारा काम कितना बाका है, इसक उत्तरम रहना चाहिये । बादको सब कुछ होजायगा। श्रीधरआप जानेगे कि हमें यहाँ आगामी माघ-फाल्गण की न्यायकंदलो क्या आपके संग्रहमें है। हो तो तक रहना चाहिये,तब और सतत काम करूगा तब मिलानके काम आवे। मेरे पास नहीं है तथा काम पूर्ण होगा। यहां प्राचीन प्रतियां एसी है कि मिला मिलतीनही । हो तो अवसरपर भेजेग । 'प्रमालक्षण' लेनके सिवा चलता ही नहीं और हमें दूसरे स्थान भी असल प्रति । उस भी मिला लगा। जहां तक पर वैसे प्रत्यन्तर मिलेंगे नहीं। अतः यहाँ जो हा बन सकंगा वह सब काम कर लूंगासोजानना । खास या है उसका काम यहीं कर लेना, जिसस अपना सूचनाके योग्य हो ता बतलाना । मार्ग सरल बन जाय ।
ओनियक्ति-द्रोणवृत्ति मं०१११७ की लिखी _हमारे यहा सामान्य गरमी है । लू वगैरह कुछ हुई है। इसी तरह दूसरे प्रथ है। ये ग्रंथ मिलाय नहीं, तथैव हमे एक स्थानपर स्थायी होकर बैठना
बिना कैस रहना । हमने यहां से तीसरे वर्ष गजरात है अतः गरमी हमें सतावे ऐसा नहीं। जैसलमेरमे
पहुंचनेका निर्धारण किया है। और आगमका बारह महीनेक घामको नक्की करके हीाना चाहिये।
काम वेगवान चले वैसा सकल्प । द्वादशार (नयचक्र) भडारको सक्षित करूंगा, पुस्तकोंका संशोधन
भी उस अर्सेमे छपजाय वह इष्ट है। बराबर करूगा, उसके बाद ही निकलूगा ।न्यायक
विशेष फिर लिम्वगा। हमारे जिस भाइने यहांदली वगैरह बहुत बहत ग्रन्थोंकी प्राचीन प्रतियां
के खर्च के लिपे २५०००) घर खर्च खाते लिखकर यहाँ है । तत्त्वसग्रहकी प्रति यहाँ बारहवीं शताब्दो दिवेआगये है, वे भी देखने सनने की इंतजारीको है, इस भी हम मिला लेवेंगे।
से आये है। काव्य-कल्पना-विवेककी प्रति यहाँ पर है। यह विवेक किस ग्रन्थकं ऊपर है यह मालूम नहीं
मुनि पुण्यविजय
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कलकत्ताके जैनोपवनमें वृक्षारोपण-समारोह गत रविवार ता0 ६ जुलाई सन् १६५० ई० को गुत्थियोंपर अच्छा प्रकाश डाला गया है। भोग - साय ३ बजेसे श्री पाश्वनाथदिगम्बर जैनन्दिर- भूमिमें क्या और कम भूमि में क्या, सदा ही वृक्षोंउपवनमें अखिल भारतवर्षीय वृक्षारोपण-योजना- का विशेष उपयोग मनुष्यजातिन किया है और आज के अनुसार बड़े समारोह के साथ कलकत्ताकी समस्त तो भारतवर्षमे वृक्षारोपण की विशेष आवश्यकता जैन समाजकी ओरसे किया गया। समाराहक है; क्योंकि दशके जल वायु,वर्षा नदियोंकी बाढ तथा सभापति कलकत्ता विश्वविद्यलयाके सुविख्यात उपजाऊ मिट्टीके कट कर नदियों में बह जानेपर प्रोफेसर डा० कालीदास नाग थे और वृक्षारोपण वृक्षोंका विशेष प्रभाव होता है। दण्डियन बोटेनिकल गार्डेन के अध्यक्ष डा०के० पी० श्री टी. एन रामचन्द्रन, सुपरिटेंडेन्ट. Archeoविश्वासकी अध्यक्षतामें हुआ।
logical Deptt. ने अपने भाषणमें दाक्षायक्षोंके सर्व प्रथम डा. विश्वासने ३ बजे से४ बजे तक महत्वपर बहुत प्रकाश डाला। उनके लेखको दूरवीक्षण यंत्रद्वारा बिना छने पानीमे कितनी शीघ्र ही प्रकाशित करने का आयोजन होरहा है। प्रकारके जोव होते हैं यह उपस्थित जैन तथा प्रजन अन्त में डा. कालीदास नागने अपने संक्षिप्त महिलाओं को दिखलाया,जिसका बहुत अच्छा प्रभाव भाषणमें मन्दिर-उपवनमें वृक्षारोपणका महत्व बताते पड़ा। महिलाओंका संख्या अधिक होनेके कारण हये डा० के० पी० विश्वाससे प्रार्थनकी कि वह पुरुषों को दिखलाने का अवसर नहीं मिल सका। दीक्षा-वृक्ष लगाने की कार्यवाही शुरू करें ।
बजेसे वृक्षारोपणकी कार्यवाही शुरू हुई। श्री रत्नलालजी भांभरी ने प्रतिष्ठाचार्य का कार्य कन्याओंद्वारा मङ्गलाचरण के बाद सभापति-वरण शास्त्रोक्तगतिसे मन्त्रोच्चारण-पवेक भूमिशोधन तथा तथा आसनग्रहण हुआ।
तीर्थकरपाठ कराया और निम्न वृक्ष लगाये गयेसमारोहके संयोजक तथा स्थानीय दि. जैन
दीक्षावृत तीर्थ करका नाम आरोपण कत्ता मन्दिरके ट्रस्टो श्रा बा. छाटेलाल जो जैन ने उद्देश
डा००पी०विश्वास वतलात हय पहले टस्टीयांकी ओरमे इस बातकी -
की वकुल(मौलश्रा) नमिनाथ डा० कालीदास नाग क्षमा माँगी कि बिना छने जलम जीव दिखलानेका यी
श्रोटी०एनरामचंद्रन आयोजन पर्दपर नहीं किया जा सका जिसस
बेल (बिल्व) शीतलनाथ श्रीमती विश्वास बहुत स उपस्थित सज्जन देखनेसे वचति रह गये ।
संभवनाथ, सन्होंने यह भी बतलाया कि मन्दिर- उपवनमें
अभिनन्दन, महावीर, जी. सा. शिवाराम सर्व साधारण के लाभके लिये दृष्टोगण दूरवोक्षण नाग
चन्द्रप्रभ) श्री दयाचन्द्रपारख यंत्रका प्रबंध कर रहे हैं।
पुष्पदन्त ) (ट्रस्टी श्वेव्जैनमंदिर) वृक्षारोपणका महत्व बतलाते हये आपने बत- बट
आदिनाथ वलदेवदास सरावगी लाया कि आज जो वृक्ष लगाये जावेंगे वे अपने
(ट्रस्टी दि०जैन मदिर) पूज्य तीर्थकरोंक दीक्षा-वृक्ष है।
पीपल, आम्र, जामुन, आम्लक, नामके ४ दीक्षा डा. के० पी० विश्वासने अपने भाषण में वृक्ष उपवनमें पहलेसे ही मौजूद है। बतलाया कि श्री छोटेलालजीने एक लेख मुझे
सभापति आदिको धन्यवाद के पश्चात् समारोह वनस्पतिक विषयमे अनाचायों की धारणाके ऊपर समाप्त हुआ। प्रतिष्ठित महानुमावोंको अं छोटेलाल लिख कर दिया था, जिसे पढ़ कर मैं स्तंभित रह जी जैन तथा बाबू नन्दलाजजी की ओरसे चाय गया। जैन धर्ममें वनस्पतिके विषय में बहत सी पार्टी दी गई।
-तुलसीराम जैन
साज
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प्रमेयरत्नमालाका पुरातन टिप्पणा
(ले०-श्री पं० हीरालाल जैन सिद्धान्त शास्त्री) आजसे ठीक ३० वर्ष पहले, जब कि मैंने स्वयं उन्होंने 'परीक्षामुखपंजिका' नामसे उल्लिखित श्रीमान् स्वर्गीय पं० घनश्यामदास जी जैन न्यायतीथे- किया है। से प्रमेयरत्नमालाका पढ़ना प्रारम्भ किया था, तब वे मूलग्रन्थके एक-एक पदके अर्थका व्याख्यान ललितपरके बड़े मन्दिरसे प्रमेयरत्नमालाकी एक हस्त- करने वाली रचना पंजिका कहलाती है। यह परीक्षालिखित प्रति लाए थे और उस प्रतिपरसे हो हम मुग्वपंजिका 'प्रमेयरत्नमाला' नामसे प्रसिद्ध है। लोगोंको पढाया करते थे। उक्त प्रति सोलहवीं इनकी रचना अत्यन्त प्रसन्न एवं प्राञ्जल भाषामें हुई शताब्दीकी लिखी हुई एवं अत्यन्त शुद्ध थी। उस है। फिर भी न्यायके कतिपय गूढ़, और दुरूह प्रतिमें हासियोंपर किसी अज्ञात नाम आचार्यका पारिभाषिक शब्दों के अर्थ-स्पष्टीकरणकी आवश्य. एक अलब्धपूर्व टिप्पण भी लिखा हुआ था। कता अनुभव करके किसी अज्ञात नामके विद्वानने स्वर्गीय पडितजीकी प्रेरणानसार मैंने पढ़नेके साथ लगभग मूलग्रन्थके बराबर ही एक टिप्पण लिखा ही मुद्रित पुस्तकपर नम्बर देकर कापियोंपर उसे जिसमें टीकाके और मूलसूत्रों के प्रायः प्रत्येक पदका पृथक लिख लिया था। इन दिनों जब वीरसेवा- अत्यन्त सरल भाषामें अथे स्पष्ट किया गया है। मन्दिरसे टिप्पण न्यायदीपिका और आप्तपरीक्षा- यहां पर नमनेके तौरपर उक्त टिप्पणके कल के हिन्दी अनुवाद-सहित संस्करण प्रगट हुए, तब अंश उद्धृत किए जाते है, जिससे उसके महत्व और मेरा ध्यान प्रमेयरत्नमालाकी ओर गया और वर्षो वैशिष्ट्यको पाठकगण जान सकें। टिप्पण के प्रारम्भ तक दृष्टिसे ओझल रहे उस टिप्पणको मैंने निकाला। में एक लम्बा गद्यभाग है, जिससे कई नवीन बातों
श्री भट्टाकलङ्कदेवके न्यायके ग्रन्थों का अवगाहन पर प्रकाश पड़ता है और जिसकी रचना-शैलीको कर श्री माणिक्यनन्दि आचाय ने परीक्षामुख देखकर ऐसी कल्पना करनेको जी होता है कि कहीं नामक एक सूत्रग्रन्थ रचा' । यह सूत्रग्रन्थ तत्वाथ- यह टिप्पण भी अष्टसहस्रीके टिप्पणकार लघसमन्तसूत्रके समान ही विद्वानोंद्वारा अत्यन्त समाहत भद्रका न हो । उक्त गद्यभाग इस प्रकार हैं:हुधा और तत्त्वार्थसूत्रके समान ही इसपर टीका इह हि पुरा स्वकीय-निरवद्य-विद्यासंयमसंपदा
और भाष्यप्रन्थ रचे गये । आचार्य प्रभाचन्द्रने गणधर-प्रत्येकबुद्ध-श्रुतकेवलि-सूत्रकृन्महर्षीणां महि. सोलह हजार श्लोक-प्रमाण 'प्रमेयकमलमाण्ड, मानमात्मसाकुर्वन्तोऽमन्दता निरवद्यस्यावाद विद्यानामसे विस्तृत भाष्य लिखा । उक्त भाष्यके अत्यन्त नत्तकीनाट्याचार्यकप्रवीणा: सकल तार्किकचचटा. विशाल और गम्भीर होनेके कारण मध्यम रुचि मणिमरीचिमेचकितचरणनवकिरणा:, कवि. वाले शिष्योंके हितार्थ श्री हीरपके अनुरोधसे शान्ति- वादि-वाग्मित्वलक्षणचतुर्विधपाण्डित्यजिज्ञानपिपापेणके लिए श्री अनन्तवीर्य आचार्य ने-जो अपने को साजिहासया विनयविनतविनेयजनसाहनिजानलघु अनन्तवीर्य लिखते है लगभग ढाईहजार श्लोक भवाः श्रीमदकलङ्कदेवाः प्रादुरासन् । तेश्व सप्त प्रमाण 'प्रमेयरत्नमाला' नामकी टीका रची, जिसे प्रकरणानि विरचितानि । कानि तानीति चेदच्यत 1-अकलङ्कवचोऽम्भोधेरुद्धं येन धीमता।
-वैजेयप्रिय पुत्रस्य होरपस्योपरोधतः । न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ।
शान्तिषणार्थमारब्धा परीक्षामुख पञ्जिका ॥ २-प्रभेन्दुवचनोदार चन्द्रिकारप्रसरे सति ।
२-कारिका स्वल्पवृत्तिस्तु सूत्र सूचनकं स्मृतम । मादृशाः कनु गण्यन्ते ज्योतिरिङ्गणसन्निभाः ॥३॥ टीका निरन्तरं व्याख्या पंजिका पदजिक टि.
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४३० अनेकान्त
[वर्ष १० बहत्त्रयं लघुत्रय चूलिकाप्रकरणं चेसि । तेषा- नोपपद्यते तथा प्रमाणस्यापि प्रत्यक्षतामन्तरेण
तत्प्रतिभासिनोऽथस्य प्रत्यक्षता न स्यात् । करणमनिविषमत्वान्मन्दधियानगन्तुमशक्यत्वात्तद् बुद्ध्यु..
वादित्येतावति साधने अदृष्टन व्यभिचारः, त्पादनाथे तदर्थ मुद्धृत्य धागनगरीवासनिवासिनः अज उक्त गुणत्वं सति अदृष्टानुयायोति । तथापि श्रीमन्माणिक्यनन्दिभट्टोरकदेवाः परीक्षामुग्याख्य
सति सन्निकर्षण व्यभिचारः, अतः उक्त प्रत्यक्षार्थे प्रकरणमारचयाम्बभवः । तद्विवरीतमिच्छवश्रामल्ल
इति । अथान्तरानपेक्ष', इत्येतावति साध्ये घटाध्वनन्तवीर्यदेवास्तदादो नास्तिकत्वपरिहार-शिष्टा- दिभिः सिद्धसाध्यता स्यात्, तत उक्त सजातीयेति । चारपरिपालन-पुण्यावाप्ति-निष्प्रत्यूहशास्त्रव्युत्पत्त्या तस्मिन्नपि उच्यमाने पुरुषान्तरविज्ञानेन सिद्धसाध्यता दिलक्षणं चतुर्विधफलमभिलषन्तो नतामरत्यादि स्यात्' तनिषेधार्थ स्वातिरिक्त । सजातीयाथान्तराश्लोकमेकं रचयन्ति स्म ।
नपेक्षग्रहणेपराथोनुभवनेन सिद्ध माधनता प्रतिपद्यते, उक्त सन्दभसं कई महत्वपूर्ण बातोपर प्रकाश तत्परिहाराथें स्वाभावसनग्रहणं साध्य। करणत्वापड़ता है। यथा-जिस प्रकार स्वामी समन्तभद्रके दिति साधने उच्यमान कुठारादिना व्यभिचारः.तत्परिलिए कांब, गमक, वादी और वाग्मी ए चार विशे. हाराथे प्रत्यक्षार्थगुणत्व सति इत्युच्यते । तावत्युच्यषा प्रसिद्ध थे. वे ही चारों श्रीभटाकलदेवके लिए मान अहण्टेन शक्तिना व्यभिचारः, तत्परिहारार्थ भा प्रयुक्त होते थे। श्रीअकल देवने मातमलप्रकरण अदृष्टानुयायिकरण त्वादित्युच्यत । अस्मिन्नपि उच्यरचे थे। श्री माणिक्यनन्दि आचाय धारानगरोके
मान चक्षुरादिना व्यभिचारः, तत्परिहारा प्रत्यक्षार्थनिवामो थे आदि । जहां तक मैं जानता है कि अभी गुणत्व सति इत्युच्यते ।' नक इतना स्पष्ट उल्लेख अन्यत्र नहीं मिला है जिसमें पाठक देखेंगे कि किस प्रकार एक-एक पदकी श्री माणिक्यनन्दिके धारानिवासी हानका स्पष्ट सार्थकता बताई गई है। विना इतने स्पष्टोकरगाके कथन हो।
मूलग्रन्थकी पक्तिका प्राशय ही समझम नहीं प्रमेयरत्नमालाका यह टिप्पण अष्टसहस्रीके आसकता है। समान ही प्रत्येक पदका अर्थ अत्यन्त सरल शब्दों (२)तोसर समुद्दश्यक ६०वं सत्रके 'रसादेकसाके द्वारा स्पष्ट करने वाला है और ग्रन्थगत अनेक मध्यनमानेन' इस पद पर टिप्पण निम्न प्रकार है:गृढ ग्रन्थियोंके अर्थका प्रकट करने वाला है। जिस 'अन्धकारावगुठित प्रदशे आस्वाद्यमानो रसो के २-१ नमन नीचे दिये जाते है:
धर्मी स्वसमानसमयकारण कार्यो भवति, एवंविध()प्रमेयरत्नमालामें 'प्रदोपवत्' समु०१, सूत्र
रसत्वात्साम्प्रतिकरसवत्, इति रूपरसयोः एकसाम१२ की टोकामे लिग्बा हे कि "इद मत्र तात्पर्यम्
प्रयनुमानं इदानी रूपानुमानं विवादापम्ने मातुज्ञानं स्वावभासने स्वातिरिक्तसजातोयाथोन्तरापेक्ष
लिंग रससमकालीनं रूपमस्ति एकसामग्रयधीन
स्वात्संप्रतिपन्नरसवत् पूवरूपक्षणसजातीयमुत्तर प्रत्यक्षार्थगुणत्वे सति अदृष्टानुयायिकरणत्वात्प्रदीप- वार भासुराकारवत् ।” इस पर जो टिप्पण है, वह इस रूपक्षण जनयन्नव विजातोयमुत्तररसक्षणं जनयति
कारण क्षणत्वात, अनुभूतरसक्षणवत्, आस्वाद्यमानो प्रकार है:
रसः स्वसमानकालीनपूर्वरूपक्षणसहकृत-समन्तररस'प्रदीपवत' इत्युक्त प्रदीपरय द्रव्यत्वेनागुणत्वात् क्षणजन्यः कार्यक्षणत्वात अनुभूयमानरसक्षणवत् ।' साधविकलो दृष्टान्तः, अतः उक्त भासुराका- (३) 'आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः' यह वत । यथैव हि प्रदीपस्य प्रत्यक्षता प्रकाशतां वा तीसरे समुद्देश्यका ६६ वां सूत्र है। इसके ऊपर विना तत्प्रतिभासिनोऽर्थस्य प्रकाशता प्रत्यक्षता वा टिप्पण इस प्रकार है:
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चिट्ठा हिसाब 'अनेकान्त' दशम वर्ष
___ (जून सन् १६४६ से अगस्त सन् १८५० तक) अनेकान्तके इस १० वे वर्ष-सम्बन्धी आय-व्ययके हिसाबका चिट्ठा निम्न प्रकार है। पाठक देखेंगे कि इस वर्ष अनेकान्तको कितना अधिक घाटा उठाना पड़ा है और उसपरसे सहज ही यह अनुमान लगा सकेंगे कि साहित्य और इतिहासकी ठोस सेवा करनेवाले ऐसे पत्रोंके प्रति समाजको कितनी रुचि है। और ऐसी स्थितिमें कोई पत्र कितने समय तक जीवित रह सकता है। __ आय (जमा)
व्यय (नाम) १२६७१) ग्राहक खाते जमा, जिसमें वो० पी०से प्राप्त ७१४)।। कागज खाते नाम इस प्रकार:__ हुआ पोष्टेज भी शामिल है।
३°३।।-)॥ धूमीमल धर्मदास कागजीको २६८/-) सहायता खाते जमा, जिसमें अकेली
२० रिम २०४३० साइजके २४ २००) की सहायता सेठ सोहनलाल जो
पौडी कागज बाबत दिये।। जैन कलकत्तासे प्राप्त हुई है । इस सहायता २३६)। भारतीय ज्ञानपीठ काशी को से प्रायः ५० लायबेरियों तथा जैनेतर
उसके पिछले वर्षके बचे हुए कागज विद्वानोंको अनेकान्त फ्री भेजा गया है।
४। रिम कवर पेपर, १ रिम रैपर ११- फुटकर किरणोंकी विक्री खाते जमा।
आदिकी बाबत दिए । २-)| रद्दी विक्री खाते जमा, जो प्रायः दैनिक
६८) दलीपसिंह रतनलाल कागजीको पत्रकी रद्दी बेचनेसे प्राप्त हए।
२० रिम कागजको बाबत । कागज खात जमा, बाबत सवा रिम कवरपे
३११-) प० दरवारीलाल कोठियाको दो परके, जो खच होनेसे बचा हुआ है।
रिम कागजकी बावत ।
३०॥-) पर पेपर १ रिम खरीदा १६१०॥)
१४)। २४७३॥) घाटेकी लगभग रकम, जो अनेकान्त पत्र
१६४५) छपाई वधाई खाते खचे जिसमें रैपरकी को देनी है।
छपाई भी शामिल है:४०.७/-||
१८४।) अकलक प्रेसको दिये। (४३०वें पृष्ठका शेषांश)
१००) राजहंस को अर्थज्ञानमित्येतावति उच्यमाने प्रत्यक्षादा
१६४५) वतिव्याप्ति:,अत उक्त वाक्यनिबन्धनमिति वाक्य निबन्धनमर्थज्ञानमित्युच्यमानेऽपि यादृच्छिक संवा- त्यभियुक्त वचनात् । तत प्राप्तवचनादिनिधनदिप प्रलंभकसंवादिप विप्रलभकवाक्यजनेष सुप्तो- मर्थज्ञानमित्युक्तमागमलक्षण निदोषमेव । न्मत्तादिवाक्यजनेषु वा नदीतीरे फलसंसगोदि- इस प्रकार सारा टिप्पण मलप्रथके सभी कठिन ज्ञानेष्वतिव्याप्तिः, अत उक्तं आप्तेति । प्राप्त- स्थलों और विषम पदोंका सरल शब्दोंमें रहस्योवचनिबन्धनज्ञानमित्युच्यमाने आप्तवाक्यकमके द्घाटन एवं अर्थ-स्पटोकरण करता है। इस टिप्पणश्रावण प्रत्यक्ष तिव्याप्ति:,अत उक्तं अर्थति। के प्रकाशमे आनेपर न्यायशास्त्रके अध्येताओं को अर्थस्तात्पयरूढ़ इति यावत , तात्पर्यमेव वचसी- बहुत सुविधा और सहायता प्राप्त होगी।
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४३२
अनेकान्त
[वष १०
८४७१/-) वेतन खाते खचं, इस प्रकार :
२१०) ५० परमानन्द को ८३८) बा० शशिकान्त शर्मा को ४०) कान्त बाबू को ५१४||-) विजय कुमारको
८४७|||-) १३३)। पोष्टेज खाते खर्च
७७1) मार्ग व्यय खाते खचे ३शा-)। स्टेशनरी खातेखच, जिसमें २३॥) उन २५.
२५ डुप्लीकेट शीटवाली ४० रसीद बुककी बाबतहै जोधूमीमल धर्मदासको बिलनं०
८७७के अनुसार दिये गये। २४) समाचारपत्र खाते खर्च, हिन्दुस्तान आदि
दैनिक पत्रों की खरीदमे दिये गये १२)। स्फुट (मुतफरक) खाते खचे 2) बट्ट खाते खचे, जो ज्ञानपीठकाकाशी हिसाब
बेबाक करनेके लिये वट्टा किये गये।
३००)
३७७'-) संयुक्त किरण ११-१२ की छपाई-बधाई, ब्लाक बनबाई, चित्रोंकी छपाई, आर्ट पेपर और पोष्टेज आदिको बाबतमें जो अदाजन और खर्च करना तथा देना बाकी है।
४०६७/-)॥
जुगलकिशोर मुख्तार अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर'
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मोहनजोदड़ोकी कला और श्रमण-संस्कृति
(लेखक-श्री बा० जयभगवानजी, एडवोकेट )
जैनसंस्कृतिके वास्तविक जन्मदाता- घट, २० कच्छप, २१ उत्पल, २२ शंख, २३ सर्प, भारतको प्राचीन सभ्यता और संस्कृतिकी २४ तह.
उपयुक्त प्रतीकोंके अतिरिक्त प्राचीन चित्रजांच करने के लिये जैनियोंकी मूर्ति और चित्रकला
लिपिके अनुसार तीर्थकरोको उन वृक्षों-द्वारा भी का महत्व कितना अधिक है, इसका कुछ परिचय
दशाने की प्रथा प्रचलित है जिनकी छायामे वृषभ लेखकने वीरसेवामंदिर सरसावाके मासिक पत्र
आदि चौबीस तीर्थंकरोंने दीक्षा धारण की थी या ध्या'अनेकांत' वर्ष ५ किरण १-२ के पृष्ठ १-१२ पर
नस्थ होकर केवलज्ञान प्राप्त किया था और जो "जैनकला और उसका महत्व" शीर्षक लेखमें
जैन साहित्य में चैत्यवृक्ष व दीक्षावृक्षके नामसे प्रसिद्ध दिया है। इस परिचय-द्वारा बतलाया गया है कि
हैं। ये वृक्ष तीर्थंकरोंके क्रमसे निम्नप्रकार हैं:भारतीय श्रमणमंस्कृतिकी शैवशाखाकी तरह जैन
१न्यग्रोध (बड़),२ सप्तपर्ण (देवदारु),३ साल, संस्कृतिके वास्तविक जन्मदाता वैदिक आर्य नहीं
४ प्रियालु (खिरनीका वृक्ष), ५ प्रियंगु (एक प्रकारबल्कि भारतके मूलवासी यक्ष, गंधर्व, नाग और
की लता), ६ ध्वजवृक्ष, ७ सिरस, ८ नाग, मालती, राक्षस आदि द्राविड लोग हैं। उन्हींकी यंत्रों-मंत्रों
१० पिलखन, ११ टिंबरू, १२ पाटल, १३ जम्बू वाली दृष्टिमेसे अध्यात्मवादकी सृष्टि हुई है।
(जामुन), १४ पीपल, १५ दधिपर्ण, १६ नन्दीवृक्ष, उन्हींके अणिमा,महिमा, गरिमा भादि अनेक
१७ तिलक, १८ श्राम, १६ अशोक, २० चम्पा, २१ अलौकिक ऋद्धि-सिद्धि-साधक कायक्लेशवाले
बकुल ( मौलसिरि ), २२ वेनस ( बांस ), २३ धवा, साधनों व ध्यान-आसनवाले अनुष्ठानोंमसे योग
२४ साल। साधनाकी उत्पत्ति हुई है। उन्हीं की पितृश्रद्धा और
इसी प्रकार स्वस्तिक, धर्मचक्र और त्रिशंकु भारवीर-पूर्वजोंकी उपासनावाली वृत्तिमेसे अर्हन्तोंकी
तीय श्रमण-सस्कृतिकी आध्यात्मिक मान्यताओं के उपासना, उनके चैत्य और स्तूप, उनकी मूर्तियां
प्रतीक है, इसलिए भारतमें इन चिन्हों को सदा मन्दिर बनानेकी कलाका विकास हुआ है। उन्हींकी
मंगलकारी माना जाता रहा है और भारतके प्राचीन प्राचीन लिपिके नियमानुसार जैनियों में आजतक
कलाकारोंने अपनी कलाओंको इन चिन्हों-द्वारा अपने माननीय चौबीस तीर्थकरोंको निम्नलिखित
खुब सुशोभित किया है। शुभ अवसरोंपर जैनी २४ प्रतीकों-द्वारा दशाये जाने की प्रथा प्रचलित है
- लोग आज तक इन प्रतीकोंका प्रयोग करते आ __१ वृषभ, २ हाथी, ३ घोड़ा, ४ बंदर, ५ चकवा, रहे है। . ६ कमल, ७ स्वस्तिक, ८ चन्द्रमा, ६ मच्छ, १० वृक्ष, उपयुक्त लेखमें यह भी बतलाया गया है कि जैन ११ गैंदा, १२ भैंसा, १३ बराह, १४ सेही ( श्येन) साहित्य और संस्कृति में, जैनकला और पाख्यानों१५ वत्र, १६ हिरण, १७ बकरा, १८ मछली, १६ मे जो महत्वपूर्ण स्थान नाग, सुपर्ण, किन्नर, गंधर्व,
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अनेकान्त
४३४
[ वर्ष १० यक्ष आदि भारतकी मौलिक जातियों श्री, हो, धृति, वाली यक्षिणियोंको क्रमश: तीर्थकारोंकी शासनबुद्धि, कीति, लक्ष्मी, काली, दुगो, पार्वती. कुष्मांडिनी देवियां कहा गया है। गौरी, पद्मावती, चक्रेश्वरी आदि अनार्य देवियों जिनशासनके रक्षक देवी-देवता होनेके कारण
और कुबेर गणेश, कार्तिकेय, वरुण, वैश्रमण, यम, ही जैनागम, पूजापाठ और प्रतिष्ठा-ग्रन्धों में श्रर्हत. धरणेन्द्र और रुद्रको हासिल (प्राप्त) है वह वैदिक बिम्ब-प्रतिष्ठा एवं महाअभिषेक आदि उत्सवोंके पार्योके माननीय देवता इन्द्र, वायु, अग्नि, ब्रह्मा समय इन यक्ष-यक्षणियों; श्री, ही भादि देवियों आदि देवताभोंको हासिल नहीं है।
वरुण, कुबेर, आदि दशों दिशाओंके क्षेत्रपालोंकी नाग-नागनियों और उनके अधिपति धरणेन्द्र पूजा-आराधना करनेका भी विधान किया गया है अथवा फणोन्द्रको सदा अईन्तोंका परम उपासक माना तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ बनाते समय इनकी मूर्तियाँ गया है। जब कभी अर्हन्तों और उनके शासनपर बनानेका उल्लेख है। प्राचीन जिनभगवानकी कोई उपसर्ग हाहै तो धरणेन्द्र सदा उनका सहा
प्रतिभाओं में जगह-जगह दायें-बायें यक्ष और यक्षयक हुआ है। सातवें तीर्थ कर सुपार्श्वनाथ और णियोंकी आकृतियां बनी हुई मिलती हैं। २३ वें तीर्थंकर पाश्वनाथकी मूर्तियोंके शिरोपर मोहनजोदडोकी साक्षीबहुधा जो सपेफण बने हुए मिलत हवे इस बातके इस परिचयसे भली-भांति सिद्ध है कि जैनप्रमाण है कि वे नागजातिके महापुरुष थे। इसके संस्कृतिका यच, गधर्व, नाग आदि भारतकी प्राचीअलावा अन्य जैन मूर्तियोंके दायें बायें भी सर्पफण
नतम जायिोंसे बहुत घनिष्ठ सम्बध रहा है। इस धारी नाग लोग खड़े हुए मिलते हैं, जिससे स्पष्टतया
परसे स्वभावतः यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि सिद्ध है कि नागलोग अर्हन्तोंके उपासक थे।
उपयुक्त जातियों की सभ्यताके कोई प्रागैतिहासिक गोमख, २ महायक्ष, ३ त्रिमुख, ४ यक्षेश्वर, केन्द पुरातात्विक खोज-द्वारा प्रकाशमें लाये ५ तुम्बर, ६ पुष्ष, ७ वरनंदि, ८ श्याम, अजित,
गये, तो उनमें जैन संस्कृतिक चिह्न अवश्य ही मिलने १० ब्रह्म, ११ ईश्वर, १२ कुमार, १३ कार्तिकेय
चाहिये । इस तथ्य की जाँच करने के लिये आइये सिंध (चतुमुख), १४ पाताल, १५किन्नर, १६ किंपुरुष,
काएठे के मोहनजोदड़ो और रावी-काएठेके हडप्पाके (गरुड), १७ गंधर्व, १८ खगेन्द्र, १६ कुबेर, २०
पुराने नगरोंकी ओर चलें, जिनके ५००० वर्ष पुराने वरुण, २१ भ्रकुटि, २२ सर्ववाहन (गोमेद), धरणेंद्र
ध्वंसावशेष भारतीय सरकारके पुरातत्त्व-विभागऔर २४ मातंग नामवाले यक्षोंको क्रमशः ऋषभ
द्वारा सन् १९२२-२६ में भूगर्भसे निकालकर प्रकाश आदि चौवीस तीर्थ करोंका शासन-देवता माना
में लाये गये हैं और जिनकी सोई हुई सभ्यताका गया है। और १ चक्र श्वरी,२ रोहिणी, ३ प्रज्ञप्ति, ४
श्रीजॉनमार्शल डायरेक्टर-जनरल भारतीय पुरावाखला, ५ पुरुषदत्ता, ६ मनोवेगा (मोहिनी), ७ काली. ८ ज्वालामालिनी, महाकाली (भ्रकुटि),
तत्त्व-विभागने 'Mohenjodaro and Indus १० मानवी (चामुडा), ११ गौरी, (गोमेदिका) १२
civilisation' नामक तीन बृहन् पुस्तकों में सवि. गांधारी (विद्य मालिनी), १३ वैरोटी, १४ अनन्त- स्तार दिग्दर्शन कराकर संसारके इतिहासज्ञोंका मती (विज भिणी), १५ मानसी. १६ महामानसी. ध्यान भारतकी प्राचीनतम प्रागैतिहासिक सभ्यता१७ जया (विजया), १८ अजिता (तारादेवी), ११ की ओर श्राकर्षित किया है। अपराजिता, २० बहुरूपिणी, २१ चामुडा, २२ यथपि दुर्भाग्यवश उपर्युक्त नगरों में कोई कमांडिनी,२३ पद्मावती और २४ सिद्धायिका नाम- ऐसी बिल्डिंग जिसे हम असंदिग्धरूपसे देवालय
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किरण ११-१२ ] मोहनजोदड़ोकी कला और श्रमण-संस्कृति
४३५ कह सकें अभी तक दृष्टिमे नही आसकी है; परन्तु हासिक दृष्टिसे प्राचीन और प्रामाणिक हैं; जैसे इतने मात्रसे यह नहीं कहा जा सकता कि उस युग. उड़ीसामें खण्डगिरिः संयुक्तप्रांतमें अहिच्छेत्र, में भारतीय जन देवालयोंका निर्माण न करते थे। मथुरा, कौशाम्बी, हस्तिनापुर, देहली; मालवामें, क्योंकि प्राप्त ध्वंसावशेषों में कुछ ऐसे भी हैं जो बड़बानी, सिद्धवरकूट, श्राब, ग्वालियर; काठियासाधारण रहन-सहनके घरोंसे कई अंशों में विल- वाड़मे गिरनार (रैवतक पर्वत) शत्रुञ्जयः दक्षिणमें क्षण है । हो सकता है कि वे माननीय देवताओंके श्रवणबेल्गोल, मूडबिद्री, कारकल, वेणूर, एलोरा, मदिर हों; परंतु इतने परसे तत्कालीन सभ्यताका बादामी, तेरापुर; विहार में सम्मेद शिखर, पावा, कोई पता नहीं लग सकता। उस युगकी धार्मिक राजगिरिः बुन्देखण्डमें देवगढ़, अहार, चंदेरी, सभ्यताका पता लगाने के लिए हमे अनिवार्य रूपसे बूढीच देरी, खजुराहा इत्यादि । इन सबमें भी प्रस्तुत उन आकृतियोंको ही अपनी खोजका आधार बनाना गवषणाके लिए मथुराके ककाली टीलेसे प्राप्त कुशानहोगा जिनक सैकड़ों नमूने मुद्राओं, मोहरों, टिकड़ों कालकी २००० बर्ष पुरानी जैनमूर्तियाँ अधिक उपवा मिट्टो, धातु और पाषाणकी मूर्तियोंके रूपमे वहांसे योगी सिद्ध होंगी। इसीलिये इस लेखम उन्हें जैनउपलब्ध हुए हैं। भारत और अन्य देशों के विद्वानोंने संस्कृतिके उपलब्ध प्राचीन उत्कृष्ट नमूने मानकर अपनी गवेषणामें इन आकृतियोंकी तुलना भारतकी उन्हींके साथ मोहनजोदड़ो और हडप्पा की आकृश्रमणसंस्कृतिकी शिव-सम्प्रदायवाली मूर्तियों, मान्य. तियों और मूर्तियोंकी तुलना करना निश्चित किया ताओं और साहित्यिक विवरणोंसे तो खूब की है; गया है। परंतु ग्वेद है कि डाक्टर प्राणनाथ, डा० रामप्रसाद मोहनजोदड़ो और मथुराकी जैनकलाकी तुलना चदा प्रभृति कुछ एक विद्वानोंको छोड़कर फिसीने करते हुए यदि इनके आदर्श और उद्देश्यपर, इनभी आज तक भारतीय श्रमण-संस्कृतिकी दूसरी की बनावट और शैलीपर ध्यान दिया जाय तो जैन सम्प्रदायवाली मूर्तियों, मान्यताओं, विधि- हृदयपटलपर यह बात अकित हए बिना नहीं रह विधानों और साहित्यिक विवरणोंसे इनकी तुलना सकती कि ये दोनों कलाएं एक ही प्रकारको श्रमणकरनेका परिश्रम नहीं किया ! इस अधूरे अध्ययनका संस्कृतिकी भावनाओंसे ओत-प्रोत है। ही यह दुष्परिणाम है कि, विद्वान लोग आकृतियोंके रहस्यको पूर्णतया समझने और उस युगकी
दोनों कलाओंका आदर्शधार्मिक सभ्यताका स्पष्ट चित्र खींचनेमे आज तक
इन दोनों कलाओंमें दिगम्बर वीतरागी ध्यानस्थ असफल रहे हैं। इस कमीको पूरा करने के लिये
पुरुषको जीवनका परमादर्श माना गया है। दोनों में
ध्यानके लिये पद्मासन व कायोत्सर्ग आसनको ही इस लेख में मोहनजोदड़ो और हडप्पासे प्राप्त
प्रधानता दी गई है, इसके लिये निम्न प्रमाण देखें:आकृतियोंकी तुलना जैनमूर्तियोंसे की जानी निश्चित
(9) Catalogue of the Archeological की गई है।
___Musuem at Mathura By J. Ph. Vogel, मोहनजोदडो और मथुराकी कलाओंकी तुलना- ph. D, Allahabad, 1910
यों तो भारतीय सभ्यताके पुराने और नये केंद्र जैन मूर्तियां नं० B. ६१-७४--ये तमाम कायोजैनकलाकी सैकड़ों पुरानी और नई रचनाओंसे मगे आसनधारी मूर्तियां हैं। भरे हुए हैं; परंतु प्रस्तुत गवेषणाके लिए हम उन्हीं जैन 'मूर्तियां नं० B १-२८, ७५-८०-ये सब स्थानोंकी जैनकलाको अधिक महत्व देंगे जो ऐति- पद्मासनधारी मर्तियां हैं।
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४३६
अनेकान्त
(आ) Mohenjodaro And Indus Civilisation By John Marshall.
[ वर्ष १० योगियोंकी लम्बी लम्बी जटाएँ दोनों ओर पड़ी हुई हैं।
(आ) Ibid Catalogue of Mathura (वही ७६, इसमें जटाए बाएँ कन्धेपर पड़ी हैं। मथुरासंग्रहालय का मूर्तिसूचीपत्र) जैनमूर्ति न० B.
(इ) Ibid Mohenjodaro ( वही मोहनजोदड़ो जि० १.
जिल्द नं० १ फलक १२, टिकड़े १३, १४, १५, १८, १६, २२ में और जिल्द नं० ३ फलक ११६, टिकड़े १, और जिल्द नं० ३, फलक ११८, चित्र B. ४२६ में, जो मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुए हैं, दिगम्बर कायोत्सर्ग ध्यानस्थ योगियों की मूर्तियाँ अङ्कित हैं ।
जिल्द नं० १, फलक १० पर हड़प्पासे पाई हुई दिगम्बर कायोत्सर्ग पुरुषाकार पाषाण मूर्तिका चित्र दिया है, जिसका मुखमंडल, बाहू और जाँघोंसे नीचेका भाग टूटा हुआ है ।
(इ) The Jain Antiquary – June, 1937 पंक्ति में खड़े हैं। P. 17-18
उपर्युक्त हड़प्पासे प्राप्त मूर्तिख एडके समान ही ई० सन् १९३७ में पटना जंकशनसे एक मील की दूरीपर लोहिनपुर से दो दिगम्बर कायोत्सर्ग पुरुषाकार जैन मूर्तिखण्ड मिले हैं। यह डा० जायसवालके मत अनुसार ३०० ई० पूर्व प्रारंभिक मौर्य कालके बने हुए हैं, हड़प्पा मूर्तिखण्डसे बहुत कुछ समानता रखते है, और प्राचीन जैन कलाके बेहतरीन नमूने है ।
(ई) Archiological Survey of India, Annual report 1930 - 1931, published in 1936-Vol 1. I'. 30.
(अ) Ibid Catalogue of Mathuraजैन प्रतिमाएं नं० B. ६६ - ७३, B. ६ -- इनमें
जिल्द १, फलक १२, चित्र १८ मे दिगम्बर कायोत्सर्ग ध्यानस्थ मूर्ति दिखलाई गई है, इसके शिरपर त्रिशूल बना हुआ है। जटाएँ बाऍ कन्धेपर पड़ी हैं। नीचे की ओर सात उपासक जन एक
जैन अनुश्रुति के अनुसार ये समस्त जटाधारी मूर्तियां आदिब्रह्मा वा आदितीर्थंकर ऋषभ भग
वाकी हैं।
I
साकी आठवीं शताब्दीके जैनाचार्य श्रीरविषेणजीने अपने पद्मचरित पर्व ३ श्लोक २८७, २८८ में उनका वर्णन करते हुये लिखा है कि :
ततो वर्षाद्ध मात्र सकायोत्सर्गेण निश्चलः । धराधरेन्द्रवत्तस्थौ कृतेन्द्रिय- समस्थितिः ॥ २८७ ॥ घो नटास्तस्य रेजुराकुलमूर्तयः । धूमाल्य इव सद्ध्यान- वह्निशक्तस्य कर्मणः ||२८८|| अर्थात् - वह अपनी समस्त इन्द्रियोंको सम
मन्यारमठ राजगृहोसे जो २२ इंच लम्बी जैन- स्थित करके छह मास पर्यन्त कायोत्सर्ग-आसन से मूर्ति मिली है वह कायोत्सर्ग मुद्रा में है । दोनों कलाओं में जटाधारी योगियोंकी मूर्तियांदोनों कलाश्रमं कितनी ही ध्यानस्थ मूर्तियां ऐसी हैं, जो जटाधारी हैं- कुछमे ये जटाएँ दोनों ओर कन्धों पर पड़ी हुई हैं और कुछमें ये बाएँ कन्धे की ओर पड़ी हुई हैं। इनके लिये निम्न प्रमाण दर्शनीय हैं :
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सद्ध्यान
खड़े होकर सुमेरुपर्वत के समान निश्चल हो गए। उस समय वायुवेगसे ऊपर की ओर उड़ती हुई उनकी जटाएँ ऐसी भासती थीं "जैसे अग्नि द्वारा भस्म किये हुए कर्मों का धुआं ही उड़ रहा हो ।" पुनः पद्मचरित्र पर्व ४ मे कहा है:समाहितः । स रेजे भगवान् दीर्घजटा - जाल - हृतांशुमान् ॥५॥ अर्थात् — जैसे सुमेरु पर्वत के शिखर सूर्यके किरण-जालसे घिरे हुए दैदीप्यमान है, वैसे ही
मेरुकूटसमाकार - भासुरांश:
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किरण ११-१२] मोहनजोदडोकी कला और श्रमण-संस्कृति
४३७ भगवान् अपनी लम्बी लम्बी जटाओंके जालसे घिरे (अ) Ibad Mohenjodaro-जिल्द १, हुए शोभायमान हैं।
फलक १२, टिकड़े १३, १८, २२ में मूर्तियों के शिरोंचौथी ईस्वी शताब्दीके जैन ज्योतिषज्ञ यति. पर यह त्रिशूल बने हैं। वृषभने भी अपने प्रन्थ 'तिलोयपणत्ती'के ४थे अधि. (आ) The Jaina Stupa and other कारमें गंगोत्री आदि के निकट कहीं हिमाचल प्रदेशमें Antiquities of Mathura By V.A. Smith, स्थित आदिजिनेन्द्रकी मूर्तिका उल्लेख करते हुए 1901कहा है :
____ फलक ६-इसके बीचके भागमें कमलसे श्राधाश्रादिजिणप्पडिमायो तायो जड-म उढमेहरिलायो। रित एक सुन्दर त्रिशूल बना हुआ है, जिसपर पढिमोवरिम्मि गंगा अभिसित्तमणा व सा पडदि ॥२३॥ धर्मचक्र रक्खा हुआ है। इस त्रिशूल और धर्मचक्र
अर्थात-वे आदिजिनेन्द्रकी प्रतिमाएँ जटा- की ओर तीन स्त्रियां और एक बालिका हाथों में मुकटरूप शेखरसे सहित हैं। इन प्रतिमाओंके कमल लिये उपासिकाके रूपमें खड़ी हैं। इनसे ऊपर वह गंगानदी मानों मनमें 'अभिषेककी भाव. दायीं ओर एक वृहत्काय सिंहकी आकृति बनी नाको रखकर ही गिरती है।
है, जो स्पष्टतया भगवान महावीरका चिन्ह है। आज भी भारतके बहुतसे जैन मन्दिरोंमें ऋषभ फलक ७, ९, १० और ११ में केन्द्रीय पद्मासन भगवान्की प्राचीन मूर्तियाँ जटाधारी रूपमें मौजूद अर्हन्तदेवकी मूर्ति के चारों ओर बहुत ही सुन्दर है। इसके लिये राजगृहीकी प्राचीन ऋषभ भग. और अलकृत चार चार त्रिशूल बने हुए हैं। वानकी मूर्ति, जिसका फोटो बनारससे प्रकाशित (इ) वही, मथुरा संग्रहालयका सूचीपत्रहोने वाली मासिक पत्रिका 'ज्ञानोदय' जुलाई जैन मूर्ति नं० B. ५-हस मूर्तिके श्रासनपर १६४६ मे छपा है, दर्शनीय है।
त्रिशूल बना हुआ। है, जिसपर धर्मचक्र रक्खा हुआ ____ हिन्दुओंके भागवत पुराण स्कंध ५,अध्याय २-६ है। इस मूर्तिकी छह श्रमण एक ही पंक्तिमें खड़े मे भी इसी ऋषभ भगवानका बहुत सुन्दर सविस्तर वन्दना कर रहे हैं। वर्णन दिया गया है, उस वर्णनके अनुसार भी श्री जॉ। मार्शलने मिन्धुदेशकी इन आकृतियोंके भगवान ऋषभका जटाधारी रूपमें ही विचरना शिरोपर स्थित त्रिशूलोंको सींग कहा है। परन्तु उनकी सिद्ध होता है।
यह धारणा भारतकी किमीभी धार्मिक मान्यतासे सु__इससे यह प्रमाणित होता है कि मोहनजोदड़ो- संगत नहीं है-बिल्कुल निराधार है। भारतकी आध्यावाली जटाधारी मूर्तियां भी ऋषभ भगवानकी त्मिक मान्यताओंसे अनभिज्ञता ही उनकी इस कल्पना.
का एक मात्र कारण है । एक भारतीय विद्वानके लिये दोनों कलाओंमें त्रिशूलकी महत्ता
तो उसमें त्रिशूलकी पहिचान कर लेना बहुत ही दोनों कलाओं में त्रिशूलके चिहको विशेष सरल है । यहां कौन नहीं जानता कि त्रिशलका महत्व दिया गया है। सिन्धुदेशको मूर्तियोंमे यह चिन्ह त्रिगुप्ति अथवा त्रिदण्ड अर्थात् मन-वचनत्रिशूल ध्यानी पुरुषों के शिरोपर रक्खे हुए दिख- कायरूप त्रियोगोंको वशमें रखनेकी आध्यात्मिक लाए गए हैं और मथुराकी जैनमूर्तियोंमें यह भावनाका प्रतीक है। चूकि योगीजनके जीवनकी त्रिशूल ध्यानी पुरुष के चारों ओर रक्खे हुए हैं या विशेषता ही उनकी त्रिगुप्ति वा त्रिदण्ड है, इसलिये मूर्तिके नीचेकी ओर बने हुए हैं, जिनपर धर्मचक्र कलाकारों के लिये योगीश्वरोंकी मूर्तियोंको त्रिशूलके रक्खे हुए हैं। इनके लिये निम्न प्रमाण देखें:- चिह्नसहित बनाना स्वाभाविक ही है। शिवमर्तिके
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श्रनेकान्त
[ वर्ष १०
दोनों कलाओं में धर्मचक्रादिकी महत्तादोनों कलाभों में धर्मचक्रोंकी बड़ी मान्यता है । यह चक्र सम्भों व दण्डों पर रक्खे हु हैं। इन्हें कितने ही पुरुष, स्त्री तथा बालकजन वंदना करते हुए दिखलाये गए हैं। इसके लिये निम्न प्रमाण पर्याप्त हैं :
४३८
साथ तो आज-कल भी त्रिशूलका चिन्ह जोड़ा जाता है । परन्तु अन्त मूर्तियोंके साथ आज-कल उसकी योजना नहीं की जाती, जब कि बहुप्राचीन समय मे की जाती थी और उसका कारण यह है कि अन्तका रूप त्रिशूलधारी भी लिखा है, जैसा कि धवल सिद्धान्त ग्रन्थके प्रथम खण्ड ( पृ० ४५) में उद्घृत निम्न प्राचीन गाथासे प्रकट हैतिरयण - तिसूल - धारिय मोहंधासुर-कबंध विंद-हरा । सिद्ध-सयलप्परूवा श्ररहता दुरणय कयंता ॥२५॥ त्रिशूल त्रिदण्डका प्रतीक है
पापों से बचने और निर्वाण प्राप्ति के लिये, जैन संस्कृतिमें त्रिदण्ड अथवा त्रिगुप्तिपर बहुत जोर दिया गया है ।
भगवान बुद्ध मज्झिमनिकाय के ५६ वें उपाली सुत्तमें निम्रन्थ ज्ञातृपुत्र ( भगवान महावीर ) के आचार-मार्गका बग्यान करते हुए कहते हैं :
'आस गौतम ! धर्म कर्मका विधान करना निन्थ ज्ञातृपुत्रका श्राचरण नहीं है। श्रावुस गौतम ! दण्ड विधान करना निगंठ नातपुत्तका नियम है । .. आवस गौतम ! पाप कर्मके हटानेके लिये निगंठ नात्तपुत्त तीन दण्डों का विधान करते हैं - जैसे कायदण्ड, वचनदण्ड, मनदण्ड । ईसाकी प्रथम शताब्दी के महान् जैनाचार्य श्री उमास्वातिने भी भगवान महावीर द्वारा बत लाए हुए मोक्षमार्गका वर्णन करते हुए बतलाया है :
नवीन कर्मोंका निरोध संवरसे होता है । वह संवर त्रिगुप्ति करने, पंच समिति रखने, दश धर्म पालने, द्वादश भावना भाने, बाइस परीषद् सहन करने और पंचप्रकारके चारित्रका पालन करनेसे होता है । मन, वचन और कायको भली प्रकार वश में करना गुप्ति है ।
१ श्रास्रव निरोधः संवरः ॥१॥ स गुप्ति-समितिधर्मानुप्रेक्षा- परीषद्दजय-चारित्रैः ॥ २॥ नपसा निर्जरा च ॥ ३ ॥ सम्यग्योगनिप्रहो गुप्तिः ||४|| - तत्वार्थ सूत्र श्र० १ ।
(अ) वही, मथुरा सग्रहालयका सूचीपत्र - जैन मूर्ति नं० B.
(आ) वही, मथुरा - संग्रहालय का सूची पत्र - जैन मूर्ति नं० B-8, B-१२, B - १४, B - १५, B- १७ । इन मूर्तियों के आसनोंपर धर्मचक्र स्तम्भोंपर रक्खे हुए हैं ।
(इ) The Jana stupa and other Antr quities of Mathura. By V. A Smith, 1901 - फलक ६, फलक ७, फलक ८, फलक ११ ।
इनमें से फलक ६ मे धर्मचक्र त्रिशूलपर रक्खा हुआ है, फलक ७ और फलक ११ में वे बहुत सुन्दर स्तम्भोंपर रक्खे हुए हैं और फलक ८ में तो धर्मचक्र आयागपटकी केन्द्रीय वस्तु है, जिसके चारों ओर एक परिधि मे आठ अप्सराएँ हावभाव सहित नृत्य करती हुई घूम रही है ।
(ई) वही मोहनजोदड़ो - जिल्द नं० १, फलक १२- टिकड़े नं० २३, फलक १३ टिकड़े नं० १६, २० - इनमें केवल दण्डों र लगे हुए धर्मचक्र दिखलाए गए हैं।
फलक १०३ टिकड़े नं० १८- इसमें धर्मचक्रदण्ड के साथ घोड़े (unicorn) का भी चित्र अंकित है ।
फलक ११६ - मोहर ५, ६ । इनमें धर्मचक्र दण्डोंको वृषभ (बैल) की मूर्तिके साथ-साथ जलूसों में ले जाता हुआ दिखलाया गया है । यह ध्यान रहे कि जैन अनुश्रुति के अनुसार घोड़ा शंभवनाथ तीसरे जैन तीर्थकर का चिन्ह है और वृषभ वृषभनाथ प्रथम जैन तीर्थंकर का चिन्ह है ।
मथुराकी कला में अङ्कित धर्मचक्रका रूप
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किरण ११-१२ ] मोहनजोदड़ोकी कला और श्रमण-संस्कृति
४३६ भशोक-कालीन धर्मचक्र के समान स्पष्टतया नाभि, रात, शुक्ल पक्ष कृष्णपक्ष, उत्तरायण और दक्षिणानेमि और आरोंसे युक्त चक्राकार है। परन्तु यन, उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीमय द्वैततापूर्णकालसिन्धुदेशसे प्राप्त दण्डोके चित्रोंमे उक्त प्रकारके चक्र के साथ विकास और हासको प्राप्त होता हुआ, धर्मचक्र देखने में नहीं आते। इनमें से प्रत्येकमें नित नई हालतोंमेंसे गुजरता हुआ, नितनये रूप और एक दूसरेके ऊपर थोड़ासा फासला देकर दो दो सौन्दर्यको पसारता हुआ, और व्यवस्थाके साथ भाजनोंकी आकृतियां बनी हुई हैं। इनमेसे नीचका अक्षय चक्रके समान नृत्य करता हुआ निरन्तर भाजन तो स्पष्टतया अर्धगोलाकार प्यालेके रूपका चला जारहा है, इसका कभी विच्छेद नहीं । जगकी है, जिसके नीचे के भागमे घंटियों सरीखीं चीजें लगी इस अक्षरण गतिको देखकर ही अमणतत्त्वज्ञों हुई है। परन्तु ऊपरवाला भाजन विलक्षण प्रकार ने "धर्म" द्रव्यकी और वैदिक ऋषियोंने "ऋत" का है। फलक १०३ टिकड़ा १८ में यह खड़ी और की धारणा की हैं । इसी तात्त्विक भावनाको साहित्य पड़ी घंटियोंमे बनी हुई एक चौकोर वस्तु है कारोंने धर्मचक्रकी संज्ञा दी है। और कलाकारोंने
और फलक १३, टिकड़ा २० मे यह अर्द्ध गोलाकार घुमनेवाली वस्तुओंसे इसका निर्देश किया है। उल्टे प्याले के समान है। ये दण्ड तो आज कल के घूमने वाली वस्तुओं में गाड़ोका पहिया सबसे सहज जमाने में जैन उत्सवोंके साथ जैन तीर्थंकरोंकी उदाहरण है, इसलिये शिल्पकारोंने मौर्यकाल और मृतियोंके आगे आगे चलनेवाले धर्मचक्रदण्डोंसे कुशानकालमे जहां तहां नाभि, नेमि और श्रारोंसे बहुत अधिक समानता रखते है। आजकल प्रयोग- युक्त गाडीके पहियेसे ही इस धर्मचक्रका प्रदर्शन में आनेवाले जैन धर्मचद कदण्डोंमे सिन्धुदेशके किया है। परन्तु उत्सवोंमे चलनेवाले दण्डाकार धर्मसमान ही अनेक झालरों, घटियों और झंडियोंसे चक्रको पहिये का रूप देने में शिल्पकारों को कठिनाई अलंकृत प्यालेके समान अधगोलाकार व थालीके पड़ती है। इसलिये उक्त उद्देश्यसे बनाये गए प्राचीन आकारवाले कितने ही चक्र थोड़े-थोड़े फासलेपर अथवा आधुनिक दण्डाकार धर्मचकोंमे पहिये के एक दूसरके उपर लगे हुए होते हैं।
बदले आमानीसे लग जानेवाले अर्द्ध गोलाकार
अथवा चाकके समान सपाट श्राकार वाले चक्र धर्मचक्र नियमबद्धगतिशील संसारका प्रतीक
लगाये गये है। यह आवश्यक विभिन्नता होते इतना विवरण दिये जाने पर पूछा जा सकता हुए भी मथुरा-कालीन स्तम्भोंपर स्थित, और है कि सिन्धुदेशकी दण्ड-कृतियोंमें मथुराकलाके मोहनजोदड़ो कालीन दण्डोंपर स्थित चक्रों में धर्मचक्रों जैसी कोई भी सदृशता न होने पर भी मौलिक समानता बनी हुई हैं और वह यह कि दोनों उन्हें धर्मचक्रकी संज्ञा क्यों दी गई है ? इसका में घूमने की गनिका प्रदर्शन है। श्रीजॉन मार्शलका यह उत्तर पाने के लिये हमें उस तात्त्विक भावनापर मत कि दण्डोंपर लगे हुए भाजन घूपघट हैं बिल्कुल विचार करना होगा जिसका कि प्रतीक धर्मचक्र है। निराधार है। मोहनजोदड़ोके दण्डाका र धर्मचक्रोंभारतीय श्रमण-तत्त्वज्ञोंकी यह एक सनातन धारणा को ध्यानपूर्वक देखनेसे प्रकट है कि दण्डोंपर लगे रही है कि यह संसार, जिसमे जीव अनादिकालसे हुए भाजन, वे किसी भी प्राकृतिक क्यों न हों, घूमने ८४ लाख विभिन्न पर्यायोंवाली योनियों में परि• वाले हैं और घूमने के भावके ही वे द्योतक है। घमने भ्रमण करता हा निरन्तर अपने वास्तविक हित- वाले भाजनोंको धूपघट की तरह उपयुक्त करना की तलाशमें घूम रहा है. स्वतः सिद्ध अनादिनिधन सामान्यबुद्धिसे बाहर है। दूसरे धूपघट आज भी है-आदि और अन्त रहित है। यह दिन और और प्राचीनकालमे भी देवालयों और मन्दिरोंमें
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अनेकान्त
[ वर्ष १० प्रयुक्त होते आए हैं। परन्तु उनका यह रूप-ढंगनहीं समय उसने अपने विशेष पराक्रमसे बड़ी कीर्ति जो दण्डस्थित भाजनोंका है। और न कभी उन्हें पाई थी। दण्डोंपर चढ़ाकर उत्सवोंमें ले जानेका विधान है। ई० पू० शताब्दीकी शिशुनागवंशीय भज,
सिन्धुदेशमें उपर्युक्त टिकड़ोंसे, जैमा कि श्री जान. उदयी, नन्दिवर्धन और अजातशत्र प्रभृति राजाओंमार्शलने स्वयं माना है, यह बात तो सिद्ध है कि की प्रतिमाओंसे भी उपर्युक्त मतकी ही पुष्टि होती है । प्राचीन सिन्धुदेशमें ध्यानी ज्ञानी योगीश्वरोंकी प्रसिद्ध कवि भासके नाटकोंमें उल्लिखित मूर्तियों के उत्सव निकलते थे और आधुनिक जैन प्रमाणोंपरसे अथवा नाना घाटकी गफाकी शातउत्सवोंके समान उन मूर्तियों के आगे आगे धर्म- वाहन राजाओंकी प्रतिमाओंपरसे डा० जायसचक्रदण्डोंको ले जाया जाता था।
वालने तो यह मत स्थिर किया है कि देवमूर्तियोंभारतवर्षमे अर्हन्तोंकी ही नहीं, प्रत्युत भन्य- के समान भारतके राजवंशोंमें अपने पूर्वजोंकी वीरपुरुषोंकी भी मूर्तियां बनाने, मन्दिर निर्माण मूर्तियां बनाने, उनके मन्दिर निर्माण करने और करने, उनके उत्सव मनाने और जलूस निकालने उनके वार्षिक उत्सव मनाने की प्रथा प्राचीनकालसे की प्रथा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इसके चली आ रही है। लिये पर्याप्त उदाहरण विद्यमान हैं।
वैदिककालमें रथोत्सवमूर्तियोंके उत्सव मनानेकी प्रथा बहुत प्राचीन- ऋग्वेद ८-६९, ५-६ से भी विदित है कि ऋग्वे
मौर्य सम्राट सम्प्रतिके राज्यकालमें. दिक कालमें भी भारतीय आर्यजन अपने वीरजैसा कि साहित्यिक प्रमाणसे विदित है. उज्जैन
बलिष्ठ नेता शचिपति, वत्रपाणि, मघवन इन्द्रकी वासी जीवन्धरको मूर्तिका रथोत्सव निकाला करते
मतिको स्वर्णरथमे बिठाकर उसका उत्सव निकाला थे। यह जीवन्धर भगवान महावीरके समकालीन
करते थे।चूंकि इन्द्र वैदिक आर्यजनके लिये लोकहेमानन्ददेश के एक धीर-वीर राजा थे। इसने अपने
में सबसे उत्कृष्ट नेता था। उसने हजारों दासोंको मार राज्य के विद्रोही मन्त्रीका दमन करके पुनः अपने
कर', हजारोंको बन्दी बनाकर, सैंकडों दासनगरोंका राज्य की स्थापना की थी। यह अंतिम कालमे राज
विध्वंस करके, नच और शम्बर नामके पाट छोड़ महावीर स्वामीसे जिनदीक्षा ले अहन्त हो त्रशासकोंको मारकर सप्तसिन्धु देशको शत्र हीन गये थे। इनकी कीर्तिके वर्णनमें जैन साहित्यमें
किया था। उसको दास लोगोंके आधिपत्य से मुक्त कितने ही उत्तम काव्यग्रन्थ लिखे हुए हैं।
३ जनरल विहार पोड़ीसा रिसर्च सोसाइटी-दिसम्बर कलिङ्गाधिपति सम्राट् खारवेलके जमाने में भी १९२७, सम्राट खारवेलका हाथी गुफाका शिलालेख । कलिङ्गवासी अपने वीरशिरोमणि केतुभद्र की नीम ४ जयचन्द विद्यालंकार-भारतीय इतिहासकी रूपरेखा लकड़ीकी बनी हुई मूर्तिका उत्सव निकाला करते जिल्द पृ.१०१-१०४ । थे। यह केतुभद्र कलिङ्गदेशके राजवंशका मूल ५ A.C.Das-Rigvedic culture 1925-P.146 संस्थापक था और सम्राट खारवेलसे १३०० वर्ष ६ नाकिरिन्द्र स्वदुत्तरो रु ज्यायां अस्ति वृत्रहनं, नकिरेवा पूर्व अर्थात् ई० पू० १४६० में महाभारत युद्धके यथास्वम् ॥ ऋग्वेद ५-३०.१ 1(अ) आदिपुराण पर्व २२
७ ऋग्वेद ४-३०-२१ । (घा),तिलोयपएणत्ती ४-८॥
८. ऋग २-१३।। २ प्राचार्य हेमचन्द्र-परिशिष्ट पर्व १२५
६ऋग् २-११-६, २-१४-६ ।
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अनेकान्त
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PARTYHITRA
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किरण ११-१२ ] मोहनजोदड़ोकी कला और श्रमण-संस्कृति
४४१ कराकर आर्यजनके वसने योग्य बनाया था',३ उसने है कि तीर्थकरोंके पचकल्याणकके उत्सव उक्त दासोंके धनको लूट कर आर्यजनमें उसे वितरण प्रकार बड़े समारोहके साथ मनाए जाते थे। किया था। वह इस तरह आर्यजनके लिये सकल
ल दोनों कलाओंके पशु और वृक्षकामोंकी सिद्धि के लिए एक मात्र ईश्वर था। वह अपने उपरोक्त पराक्रमके ही कारण महाराजामहेन्द्र,
दोनों कलाओंमें विभिन्न अन्तिोंको सविशेष
पहिचाननेके लिए उनकी मूर्तियों के नीचे अथवा विश्वकर्मा आदि उपाधियोंसे भी विख्यात हुआ
आसपासमें उनके प्रानुसंज्ञिक पशु-पक्षियोंके चिह्न था' । यदि यह जानना हो कि इन उत्सवों में इसके
अक्ति किये गये है। इस स्थलपर यह बता देना अतिरिक्त क्या कुछ होता था तो हमे मथुराकी
आवश्यक है कि कुशानकाल और गुप्त कालमें पुरानी कलाकी ओर ही निहारना चाहिए। इससे
मूर्तियों के आसनोपर इन चिह्नोंको अङ्कित करनेको विदित होगा कि जिस प्रकार आजकलके जैन
प्रथा कुछ कम हो गई थी परन्तु फिर भी कुशानकाल रथोत्सवोंमे मूर्ति के साथ-साथ अनेक हाथी, घोड़े,
की बहुतसी जैन-मूर्तियां मौजूद हैं जिनपर ये चिन्ह रथ, पालकी, चन्दोये, झण्ड़े, धर्मचक्र चलते हैं और .
अंकित हैं। मध्यकालीन और आधुनिक कालको अनेक नृत्य और गायन करने वाले रहते है, वैसे
मूर्तियों में तो ये चिह्न सभीमे मौजूद हैं। इनके लिये ही आजसे २००० वर्ष पूर्व जैन मूर्तियोंके उत्सवोंमें
निम्न प्रमाण पर्याप्त हैं :अनेक हाथी, घोड़े, रथ, पालकी, चन्दोये, झण्ड, धर्मचक्र आदि शामिल होते थे और अनेक आभू- (अ) वही मोहनजोदड़ो-जिल्द १ फलक १२ पण-अलङ्कारोंसे युक्त चन्दोयेक नीचे हाव-भाव- टिकड़े १७ की ध्यानस्थ बैठी मूर्ति के नीचे हिरण का सहित नाचगान करती हुई बहुतसी नर्तिकाए' चिन्ह बना हुआ है और इसके आस-पाममें हाथी साथ-साथ चलती थीं। जैन साहित्यसे भी विदित शेर, गेंडा और भैसेके चित्र बनाए गए है।
जिल्द नं. १ फलक १३ टिकड़े १८ पर १ ऋग् ४-१६-८; २-१२-३;५-३०-२
. ध्यानस्थ खड़ी मूर्ति के सामने एक पशुका चिह्न १-३२-११; २-१२-११, २-१३-२; इन्द्रो या चक्र यात्मनेनमिगा शचीपति:- अथर्व १२.-१-१०,
बना है।
(आ) वही, मथुरासंग्रहालयका सूचीपत्र-मति २ ऋग १-१००-७-८; २-१३-४ ।
_B ७६ के सिंहासनपर चिह्न बना है और मत्ति B
७७ में आसनपर सर्पका चिह्न बना है।। वा. ४-२२ ४(अ) वहो जैनस्तूप भादि वो.ए.स्मिथ १६०१
(इ)Archeological Survey of India फलक १४, १५, २०।
Vol XX 1901. फलक १६-इसमें सिंहासनपर (श्रा) Epigraphica Indica Vol. II Part
दो वर्षभोंके चिह्न बने है। फलक ६१, फलक १३, XIV March 1894-Specimen of jain
फलक ६४ में सिंहासनपर सिंहके चिह्न बने हैं। Sculpture from Mathura by A. Buhler ५)व्याख्याप्रज्ञप्ति १३-६ पृ० ३१६-३२१ फलक ३।
(श्रा) प्राचारांगसूत्र २-२४, ७-३७ (इ) Impearl Gazeteer Puri District, (इ) आदिपुराण पर्व १२, १३, १७, २२, ४६ 1908, P, 88
(६) पं० भाशा घरकृत प्रतिष्ठासारोबार १, (ई) प्राचीन जैन स्मारक बंगाल बिहार और श्रोडी.
८६-१०० सा, प्र. शीतलप्रसाद-लिखित, पृ. ८६ ।
(उ) श्रीजयसेनकृत प्रतिष्ठापाठ ७२४-७६८
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४४२
अनेकान्त
[वप १० । दोनों कलाओंमें कई अरहन्त-मूर्तियां ऐसी भी हैं जिससे यह लुप्त-प्राय एक विशेष जातिका घोड़ा जिनमें उक्त प्रकारके पशु-पक्षियोंके अतिरिक्त सिद्ध होता है। उनके दायें बायें उनके आनुसंगिक चैत्यवक्ष भी जिल्द ३ फलक ११४ टिकड़े ५०० से ५१५ तक बनाए गये हैं। इसके लिए निम्न प्रमाण देखें:- स्वस्तिक अङ्कित है। (अ) बही मोहनजोदड़ो
जिल्द १, फलक १२ टिकड़े १६, २०, २१, २५, जिल्द १, फलक १२ टिकड़ा'१८ २६ पर वृक्ष अङ्कित है। जिल्द ३, फलक ११६, टिकड़ा १
जिल्द ३ फलक १११ टिकड़े ३४१ से ३४७ तक जिल्द ३, फलक ११८, ताम्रपत्र B ४२६। पर गेंडा अङ्कित है। (आ) वही Epigraphica Indica, फलक १० जिल्द ३ फलक ११० टिकड़े ३०४-३०६ तक
कहीं कहीं यह चैत्य वृक्ष मूर्तिके शिरके ऊपर पर भैंसा अङ्कित है। छत्राकाररूपमें अथवा सघन पत्तोंवाली शाखाओं- जिल्द ३ फलक ११२ टिकड़े ३५५ पर हिरण के रूपमें दिखलाये गये हैं। इसके लिये देखेंवही जैन स्तूप आदि-वी० ए० स्मिथ १६०१ ।
जिल्द ३ फलक ११४ टिकड़े ४८०-४८४, ४८६ फलक १४-इसमें चैत्य वृक्ष मतिके शिरपर पर मछली अङ्कित है।। फैला हुश्रा छत्राकार दिखलाया गया है।
जिल्द ३ फलक ११०, १११, ११५, टिकड़े ३१०
से ३२६ तक और ५३६ पर बकरेका चित्र अदित __ फलक ११-इसमें दायें हाथवाली मूर्तिके
है। इस बकरेका धड़ कुहानरहित बैलके समान है। शिरपर चैत्यवृक्ष लटकी हुई सघन शाखाओंके रूप में दिखलाया गया है।
इसकी दुम बैल के समान लम्बी है, इसका शिर
बकरेके समान है, शिरपर दो सींग हैं। श्रीजान. दोनों क्लाओंमें बैल, हाथी, घोड़ा, स्वस्तिक,
मार्शलने इसे (Bison) बतलाया है। यह लुप्तप्राय वृक्ष, गड़ा, महिष, हिरण, मत्स्य, बकरा, मच्छ, किसी विशेष जातिका बकरा सिद्ध होता है। आदि चित्रोंको बहुत महत्व दिया गया है।
जिल्द ३ फलक १११ टिकड़े ३५१ से ३६१ तक, मोहनजोदडोकी कलामें तो ये चित्र ध्यानस्थ फलक ११६ टिकड़े नं०२०, फलक ११८ ताम्रपत्र नग्न मतियों के सम्पर्कके अतिरिक्त भी टिकड़ों और १७ पर मच्छके चित्र अङ्कित हैं। मोहरोंपर अङ्कित हुए बहुत बड़ी संख्यामें मिलते ये चिट्ठ तीर्थङ्करोंके प्रतीक हैंहैं। इसके लिए देखें
जैन जनश्रतिके अनुसार ये समस्त चिह्न निम्न १ Ibid Mohanjodaro
तीर्थङ्करोंके हैं। जिल्द ३ फलक १११ टिकड़े २७३ से ३४० तक
१ बैल-प्रथमतीर्थकर वृषभनाथ । पर वृषभ चित्र अङ्कित है।
२ हाथी-द्वितीय तीर्थ कर अजितनाथ । जिल्द ३ फलक ११२ टिकड़े ३६५ से ३७३ तक
३ घोड़ा-तृतीय तीर्थंकर शम्भवनाथ । पर हाथी चित्र अङ्कित है।
४ स्वस्तिक =सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ । जिल्द ३ फलक ११३, ११४, ११५ टिकड़े १ से ५ वृक्ष-दशवें तीर्थ कर शीतलनाथ । ३०१ तक, ५३७ से ५४१ तक, ५४३, ५४४. ५४६, ६गड़ा-ग्यारहवे ताथंकर श्रयासनाथ । ५४८, ५५७ पर छोड़ा (unicorn) अङ्कित है। इस महिष(भैंसा)- बारहवेतीर्थकर वासुपूज्य जानवरकी पीठपर सवारीके लिए गरी लगी हुई है, हिरण-सोलहवें तीथकर शान्तिनाथ ।
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किरण ११-१२ ] मोहनजोदड़ोकी कला और श्रमण-संस्कृति
४४३ १ मत्स्य = अठारहवें तीर्थ कर अरहनाथ । बनी हैं जिसके दायें-बायें चमर धारी यक्ष-यक्षिणी १० बकरा-सत्रहवें तीर्थ कर कुन्थुनाथ । खड़े हैं। छतके एक कोनेमें एक सुन्दर राजहस्तीकी ११ मारनवें तीर्थ कर पुष्पदन्त ।
है, जिसके दायें चायें सएडोंमें कमलइन चिन्होंकी मोहरोंके मिलने और शेष तीर्थ- कलिका और फूल लिए दो हाथी खड़े हैं । छतके करोंके चिन्होंकी मोहरें न मिलनेसे विदित होता दूसरे कोने में नवग्रह सूर्य चन्द्रमा और राहकी है कि मोहनजोदड़ो और हडप्पाकी खुदाईसे जो मूर्तियां बनी हैं। तीसरे कोने में लक्ष्मीकी मूर्ति है स्तर निकले हैं वे उसी युगकी संस्कृतिके द्योतक हैं, और चौथे कोनेमें बाड़के भीतर खड़ा हुआ जब केवल १८ तीर्थकर ही अवतरित हुए थे पोपलका चैत्यवृक्ष बना है, जिसके दायें-बायें अर्थात् यह युग महाभारतयुद्धकालसे ही पुराना हाथोंमें फूलमालायें और जलकलश लिये स्त्रियां नहीं है बल्कि सूर्यवंशी राम-राज्य कालसे भी खड़ी हैं। इनमें राजहस्तीकी केन्द्रीय मूर्ति द्वितीय पहलेका है।
तीर्थकर अजितनाथकी प्रतीक हैं और नन्दीपर ये चिह्न तीर्थङ्करोंके प्रतीक होनेसे विनयकी वस्तु आदितीर्थक्कर वृषभ भगवानके प्रतीकरूप बैलके
खुरका चिह्न है। माने जाते थे
इसी प्रकार हाथीगुफा नामकी गुफामें जैन जैसा कि लेखकने 'जैन कला और उसका
सम्राट् खारवेलका जो प्रसिद्ध लेख उत्कीर्ण है महत्व' शीर्षक लेखमें बतलाया है,' ये चिह्न जैन उसकी प्रारम्भिक पांच पंक्तियोंपर वृद्ध मंगल कलामें केवल तीर्थकरोंके आसनोंपर ही अङ्कित स्वस्तिक और नन्दीपद और १७वीं पंक्तिके अन्त में हुए नहीं मिलते बल्कि यह चिह्न विना तीर्थ कर
चैत्य वृक्षके चिह्न बने हुए हैं।
व मूर्तियोंके भी स्तूपोंकी बाहों, तोरणद्वारों, स्तम्भों, (२) अभी हाल में अग्रोहेकी खुदाई मेंसे जो मन्दिरोंकी दीवारों, ताम्रपत्रों और झण्डोंपर भी तांबेके ५२ चौखूटे सिक्के प्राप्त हुए हैं, उनके अङ्कित हुए मिलते हैं। ऐतिहासिक युगमे भी ये सामने की ओर वृषभ और पीछेकी ओर सिंह या चिह्न विना तीर्थकरमूर्तियोंके विनय वस्तुके चैत्य वृक्षकी मर्तियां बनी हुई हैं। ये सिक्के तौरपर उपयुक्त होते रहे हैं, जैसा कि निम्न उद्ध- निःसंदेह दिवाकर-राज्यकालके हैं। दिवाकरके रणोंसे सिद्ध है:
सम्बन्धमें डा. सत्यकेतुका मत है कि दिवाकर (१) कलिङ्गदेश ( उड़ीसा प्रान्त) के प्रसिद्ध श्रीनाथका पुत्र था। इसने पुराने परम्परा गत खण्डगिरि पर्वतपर लगभग ईसा पूर्व पहिली सदीके धर्मको छोडकर जैन धर्मकी दीक्षा ली थी। जैन जैन सम्राट महामेघवाहन खारवेल तथा उसकी अग्रवालोंमें यह अनुश्रति प्रसिद्ध है कि, लोहाचार्य रानियों और उत्तराधिकारी वंशजोंद्वारा बनी हुई स्वामी अग्रोहा गए और वहां उन्होंने बहुतसे जो अनेक गुफायें मौजूद हैं उनमें अनन्तनाथकी
अप्रवालोंको जैन धर्मकी दीक्षा दी। जैनोंके गुफाके बिशालभवनकी पिछली दीवारपर त्रिशूल,
१. Archeological Survey of Indiaस्वस्तिक. धर्मचक्र और नन्दीपदके मालिक
Vol LI Bihar and Orissa 1931-p 273. चिह्न बने हुए हैं। स्वस्तिक और धर्मचक्रके नीचेकी '
अग्रोहेकी खुदाई-वासुदेवशरणअग्रवाल, "प्राची तरफ एक प्रालयमें खड़ेयोग तीथेकर की मूति भारत' प्रथमवर्ष सम्बत् १११० प्रथम संख्या पृ. ५४
१ देखें 'अनेकान्त' वर्ष ५ किरण । और २, ३. अप्रवाल जातिका प्राचीन इतिहास ११३८ पृ. प०-१२
११६-११८ रा. सत्यकेतु विद्यालकार ।
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४४४
अनेकान्त
[ वर्ष १० कथन अनुसार उस समय अग्रोहामें राजा दिखा- दसरी ओर सिंहके प्रतीक अङ्कित है। हाथीके ऊपर कर राज्य करते थे। वे श्रीलोहाचार्य के शिष्य होगए चैत्यका आकार बना हुआ है और सिंहके ऊपरकी थे। उनके अनुकरण में अन्य बहुतसे अग्रोहा निवा- ओर स्वस्तिक और सामने की ओर चन्द्रसहित सियोंने जैनधर्म स्वीकार किया । अप्रवाहोंमें चैत्यके आकार बने हैं। बहुतसे लोग जैनधर्मके अनुयायी हैं,ये सब श्रीलोहाचार्यको अपना गुरु मानते हैं। श्रीविहारीलाल जैनने
__ चन्द्रसहित चैत्याकार सम्राट चन्द्रगुप्त
मौर्यका राजचिह्न है,जो आकार पीछेके सभी मौर्यवंशी भी अपने "अग्रवालइतिहास" में 'जैनप्रन्थों के आधार पर उक्त मतकी पुष्टि की है।
राजाओंका राजचिह्न हो गया था। तक्षशिलासे प्राप्त
एक सिक्केपर, जिसे श्री कनिंघमने अपनी 'भारतके जैन पट्टावलियोंके अनुसार लोहाचार्य नामके
प्राचीन सिक्के' नामक पुस्तकमें प्रकाशित किया, दो आचार्य होगए हैं। इनमें प्रथम लोहाचार्य अपर
चन्द्रसहित चैत्यकी आकृतिके नीचे स्वस्तिकका नाम सुधर्माचार्यश्रीगौतम गणधरके बाद वीरनिर्वाण
चिह्न भी बना हुआ है। इस सिक्केकी एक ओर सम्बत् २८ में जैनसंघके आचार्य हुए; दूसरे प्राचार्य भद्रबाहु द्वितीयके शिष्य थे जिनको वोर निर्वाण सं०
Ho 'साम्प्रदि और दूसरी ओर "मौर्यो' शब्द उल्लि६८३ वषे बाद १५६ ई० सन्में स्वर्गवास हआ था। बित है। डा० जायसवाल के मतअनुमार । यह ये दक्षिणदेशस्थ भद्दलपुरसे विहार करते हुए सिक्का स्पष्टतया सम्राट अशोक के पौत्र साम्प्रतिका अग्रोहा आये थे और दिवाकरको जैन धर्मकी दीक्षा सिक्का है । इस कथन से पूर्णतया सिद्ध है कि तक्षदी थी।
शिलाका उपयुक्त सिक्का भी-जिसपर चन्द्रसहित ___ 'अप्रवैश्य वंशानुकीर्तनम्' का भी राजा दिवा.
चैत्य और स्वस्तिकके साथ-साथ हाथी और सिंहरकका उल्लेख करना और उसे जैन बनाना सूचित
के चिन्ह भी अङ्कित हैं-मौर्यवंशी राजाओंके सिक्के
हैं। सम्भवतः ये सम्राट् साम्प्रति अथवा उत्तरा करता है कि जैन अग्रवालोंमें प्रचलित अनुश्रति
धिकारियोंके सिक्के हैं। यह बात भली भांति प्रमाऐतिहासिक तथ्यपर आश्रित है।
णिन है कि मौर्यवंशी राजाओंका कुल धर्म सम्राट इस तरह उक्त सिक्के दिवाकरराज्यकालीन इ० अशोकके अन्तिम जीवनके कुछ वर्षे छोड़कर शुरू सनकी दूसरी शताब्दोके हैं, जिनपर प्राचीन जैन से आखिर तक जैनधर्म रहा है। जैनधर्म-प्रचार संस्कृति की मान्यता अनुसार वृषभ, सिंह भौर त्य वृक्षके चिह्न अङ्कित किए गये हैं।
४. The coins of India by Brown,
फलक १ सिक्का नं०५ (३) इसीप्रकार तक्षशिलासे प्राप्त हुए सिक्कों में
* Ancient Coins of India by Cunninकई सिक्के ऐसे हैं जिनकी एक बार हाथी और gham Plate II Coin no.२०
१. अग्रवाल इतिहास विहारीलाल जैन पृ.११, १२. ६. Modern Review-June 1934 P.647 २. (अ) षटखण्डागम, धवला,टीका प्रथम पुस्तक ७. (अ) Jainism an early faith of
प्रस्तावना प्रो. हीरालाल अमरावती १६३७ पृ० Ashokaby G. E. Thomas, P. 23६४.-७१.
टामसाहबने लिखा है कि चन्द्रगुप्तके समान उसके (श्रा ) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ( देखें जैनसाहित्य संशो
पुत्र बिन्दुसार और पौत्र प्रशोक भी जैनधर्मावलम्बी
थे। इसके लिये उन्होंने मुद्राराक्षस, राजतरंगिणी धक खण्ड १ अंक ४, वीरनि० सं० २४४६ पृष्ठ १४६)
और श्राईने अकबरीके प्रमाण दिये हैं। ३. अमवालजातिका प्रचीनइतिहास (सत्यकेतु) पृ.११७ (भा) अशोकके अभिलेख ।
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किरण ११-१२ ] मोहनजोदड़ोकी कला और श्रमण-संस्कृति
४४५ के कारण सम्राट सम्प्रतिका जैन इतिहास में वही चिह्न वैसा ही है जैसा कि मौर्यवंशी राजाओंकी स्थानहै जो सम्राट अशोकका बौद्ध इतिहास मे हैं। मुद्राओंपर मिलता है । इन बातोंके अतिरिक्त यह इसके लिए हेमचन्द्राचार्यकृत परिशिष्ट पर्व विशेष बात भी ध्यानमें रखने योग्य है कि उक्त स्तम्भोंपरदर्शनीय है। इन हालात में स्वभावत: यही सिद्ध की पैलकी मूर्तियां मोहनजोदड़ो वाली मोहरों और होता है कि उक्त सिक्कोंपर जो हाथी और सिंह टिकड़ोंपर उत्कीर्ण बैलकी तरह खड़े आकारकी के चिह्न बने हुए है वे अवश्यमेव जैनसंस्कृतिसे घनिष्ठ हैं। यह शिवके प्रसिद्ध नन्दी चैलको तरह बैठे सम्बन्धित हैं। जैसा कि पीछे कई स्थलोंपर बत- आकारकी नहीं हैं। अपभ भगवानका चिन्ह, जैसा लाया जा चुकाहै, हाथी दूसरे तीर्थ कर अजितनाथका कि उसकी समस्त प्राचीन और नवीन मूर्तियोंसे चिह्न है और सिंह अन्तिम तीर्थ कर महावीरका सिद्ध है, प्रायः खड़े आकार बैलका चिन्ह है। चिह्न है।
(५) सारनाथका Lion Capital चौवीस ___(४) बिहार प्रांत के चम्पारन जिलेके रामपूर्वा आरों वाला धर्मचक्र वृषभ और घोड़े के चित्र। लौरिया, नन्दनगढ़ और मुजफ्फरपुर जिले के कोल्हु.. इन जन्तुओंके टिकड़े जिस बड़ी संख्यामें
आ स्थानोंमें मौर्य राजवंशियोंद्वारा स्थापित किए मोहनजोदड़ोके सभी गृह क्षेत्रोंसे मिले हैं उनसे हए जो २३०० वर्ष पुराने पचास पचास फुट ऊचे यह निभ्रान्ततया सिद्ध है कि जैसे जैन संसारमें एक पाषाणीय स्तम्भ खड़े हुए मिले हैं उनपर वृषभ तीर्थङ्करोंके प्रतीकरूप पशु अथवा वृक्ष आदि
और सिंहकी बड़ी-बड़ी मनोज्ञ मूर्तियां रक्खी हुई चिह्न दीघ संसर्गके कारण मूर्तियोंके समान ही हैं ? यद्यपि इन मूर्तियों अथवा स्तम्भोंपर किसी विनय और भक्तिकी वस्तु बनगए हैं वैसे ही मोहनप्रकारके कोई लेख अङ्कित नही है, तो भी इस जोदड़ोके टिकड़ोंपर उत्कीर्ण जन्तु ओंके चित्र बात को ध्यानमें रखते हुए कि मौर्यवंशका कुलधर्म योगी महापुरुषोंके प्रतीक होने के कारण प्राचीन जैन धर्म था. यह बात निर्विवाद रूपसे कही जा भारतमें विनय और भक्ति की वस्तु थे और श्रद्धाल सकती है कि ये स्तम्भ आदि और अन्तिम जैन गृहस्थी जन इन्हें अपनेको अनिष्ट कर घटनाओंसे तीर्थकर वृषभनाथ और महावीरकी हो शुभ स्मृति बचाने के लिए मन्त्रोंकी तरह प्रयोगमें लाते थे । में खड़े किए गए है, क्योंकि वल वृषभनाथ भगवान श्री जॉन मार्शलने भी इन टिकड़ोंपर उत्कीर्ण जन्तु
और सिंह महावीर भगवानके प्रसिद्ध चिह्न है। ओंके सम्बन्धमें अपना मन्तव्य देते हुए उपयुक्त इसके अतिरिक्त कोल्हुश्रा प्राम, जहांपर एक सिंह- मतकी ही पुष्टि की है। स्तम्भ खड़ा हुआ मिला है, भगवान महावीरस दाक्टर प्राणनाथ-नागरी प्रचारिणी पत्रिका, विशेषतया सम्बन्धित है। पूवकालमे यह प्राचीन
___ भाग १६, अंक १, पृ० ११४, वैशाली नगरकी एक निकटवर्ती वस्ती थी-जहां
२"No other hyoPthesisaccounts for भगवान महावीर का जन्म हुआ था। रामपूवा वाल the numerous specimens of these aniसिंह-स्तम्भपर वृषभ और तीन महराबवाले mals seals found distribution over चैत्यक चिह्न भी बने हुए है । यह चैत्य- almost every building on tine site as
compared with the small number of clay १ परिशिष्टपर्व-हेमचन्द्राचार्य श्लोक ६६-१०२।।
sealings, not does any other hypothesis Archeological Survey of India- accounts for the religious character of New Imperial Series Vol LI-Bihar many of the devices engraved on them and Orissa 1931.pp5-29.
..... we are forced to the conclusion
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अनेकान्त
[ वर्ष १० दोनों कलाभोंमें उपासक जन
इन चित्रों में निश्चयसे पास बैठ वन्दना करने जिस तरह आजके भारतमें साधारण जनमें वाला पुरुष अपने वंशका नायक प्रतीत होता है भक्ति मार्गकी प्रधानता है, और अनेक धनी सम्पति. और अन्य खड़े हुए उपासकजन उसके परिवारशाली भक्त लोग पूजा बन्दनार्थ अपने-अपने इष्ट के आदमी है। देवोंकी मूर्तियां बनवाने, मन्दिर निर्माण करने में (आ) वही मथुरा संग्रहालयका सूचीपत्र-जैन अपना अहोभाग्य मानते हैं वैसे ही २०० वर्ष पूर्व मूर्ति नं० B. ४, B. ५, B. १२-से १८ तक, B. प्रस्तुत मथुरा-कलाके कालमें और ५००० वर्ष पूर्व ६६ से ७३ तक। मोहनजोदडोके कालमें यहांके भक्त-जन इष्ट देवों- इनमें मूर्तियोंके आसनोंपर उपासक जन पंक्ति में की भर्तियां और मंदिर बनवाने में अपने जीवनकी खड़े हुए हैं। इनमें नरनारी और बालक सब ही सफलता मानते थे और अपने जीवनको कृतार्थ शामिल हैं। इन उपासकोंकी संख्या प्रत्येक मूर्तिमें करने के लिये इन मूतियोंके आसनोंपर या दायें भिन्न भिन्न है; किसी में दो, किसी में तीन, किसीमें ७ बारें अपनी और अपने परिवारवालोंकी पाकृ और किसी में पाठ उपासक जन खड़े है। इनमेसे तियाँ बनवाते थे, इसलिये प्रस्तुत दोनों कलाओंमें कुछ खड़े हुए हाथ जोड़ बन्दना कर रहे हैं और कुछ योगियोंकी मूर्तियोंके आसनोंपर इनके प्रतिष्ठापक घुटनोंके बल बैठे हाथ जोड़ नमस्कार कर रहे है। और निर्माता महानुभावोंके सपरिवार चित्र भी
दोनों कलाओंमें नाग उपासकरहे हैं, इसके लिये देखें(अ) वही मोहनजोदड़ो,जिल्द १ फलक १२ पर
दोनों कलाओं में इन योगीश्वरोंके प्रधान उपाचित्र १८-इसमें सात भक्त जन मूर्तिके नीचे खड़े हैं सक यक्ष और नागोको दिखलाया गया है इसके और एक मर्तिके समक्ष घुटनोंके बल बैठा हुआ हाथ
लिये देखें:जोड़ बन्दना कर रहा है, बराबरमें एक पशुका
(अ) वही मोहनजोदड़ो-फलक ११६ चित्र चित्र बना हुआ है।
२६, फलक ११८ चित्र ११ । जिल्द ३ फलक ११६ चित्र १-इसमें छह उपा. इन चित्रों में योगियोंके दोनों ओर घटनोंके बल सक जन मूर्तिके ऊपरवाले भागमें खड़े हैं, मर्तिके बैठकर दोनों हाथोंसे नमस्कार करते हुए नागोंको सामने एक पशुका चित्र है, उसके पीछे एक पुरुष दिखलाया गया है। घुटनोंके बल बैठा हाथ जोड़ बन्दना कर रहा है। (आ) वही मथुरासंग्रहालयका सूचीपत्र-जैन
जिल्द ३ फलक ११८ ताम्रपत्रचित्र नं० B४२६- मूर्ति ने. १५-इस मूर्तिके दोनों ओर नागफण इसमें भी छह उपासक जन मूर्ति के ऊपरवाले भागमें धारी उपासक वन्दना कर रहे हैं। खड़े हैं । मति के सामने एक पशुका चित्र बना है, (इ) वही Epigraphica Mathura-पृ० ३६६ इसके पीछे एक पुरुष घुटनों के बल बैठा हाथ जोड़ फलक २ चित्र A-इसमें एक स्तूपका चित्र दिया बन्दना कर रहा है।
गया है, इसके दोनों ओर वृक्ष खड़े हैं । इस स्तूपको that the majority if not all of the an1- दो सुपणे,जिनकाशरीर बाधा पक्षीका और आधा mals portrayed on these seals whether मनुष्याकार है,और पांच किन्नर, जिनका शरीराधा mythical or real had some sacred or घोडेका और आधा मनुष्योंकार है, पुष्पमालाएं magical import in the eye of the own
- और कलश हाथों में लिये पूजार्थ भेंट कर रहे हैं। Ibid Mohenjodaro vol. I, P.66-74 (ई) Archeological Survey of India
ers..
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किरण ११-१२ ]
मोहनजोदडोकी कला और श्रमण-संस्कृति वार्षिक रिपोर्ट १६३०-१९३४, प्रकाशित १६३६ सिन्ध देशकी प्राचीन धार्मिक सभ्यताजिल्द १ पृष्ठ ३०-इसमें राजगृहके मन्यारमठके अब देखना यह है कि ५००० वर्ष पूर्व सिन्ध ऊपरी तीन स्तरोंकी खुदाईसे जैन कलाकी जो वस्तुएं
देशमें रहनेवाले लोग किस प्रकारको धार्मिक संस्कृति
में प्राप्त हुई हैं उनमे निम्न चीजें भी शामिल है- के अनुयायी थे। यह जाननेके लिए हमारे पास
टूटी हुई जैन मूर्तियों के दो शिर और एक धड़, उस पुरातात्विक सामग्रीके अतिरिक्त जो मोहनलाल पत्थरका टूटा हुआ एक शिलाखएढ जिसपर जोदड़ों और हड़प्पाकी खुदाईसे मिली है और कोई इसाकी दसरी शताब्दीके एक अभिलेख-सहित साधन आज पर्याप्त नहीं है। इस सामग्रीपरसे विपुलाचलपर बैठे हुए महाराज श्रेणिककी एक मूर्ति निस्संदेह यह निष्कर्ष निकता है कि पुराने जमाने बनी है । एक और घड़ा हुआ शिलाखण्ड जिसपर में सिन्धवासी लोग लघु एशियाके देशों में बसने ईसाकी तीसरी सदीके अभिलेख सहित एक ओर वाली पुरानी जातियों की तरह धरती माताको महाआठ नागफणधारी पुरुषोंकी मूर्तियां हैं और दूसरी देवी जगदम्बा मानते थे। वे अपने पूर्व पुरुषों और ओर तीन खड़े पुरुषोंकी मूर्तियां हैं। यह खण्ड माताओंके उपासक थे। वे उन्हीं को अपनी वस्तियों किसी जैन मर्तिका टूटा हुआ निचला खण्ड मालूम के संरक्षक मानकर देव-देवियोंके रूपमें उनकी उपाहोता है, जिसपर मूर्ति के प्रतिष्ठापक उपासकोंकी सना करते थे । उनका मत था कि यह चराचर आकृतियां अङ्कित है।
सृष्टि पुरुष स्त्रीरूप आकाश-पृथ्विीके सम्मेलसे दोनों युगके कलाकारोंने अर्हन्तोंके प्रति यक्ष-यक्ष
उत्पन्न हुई है। इस आशयसे वे लिङ्ग और योनिको णियों की अनुपम भक्ति दर्शाने के लिए उनकी अनेक
भी पूजते थे। परन्तु इतने विवेचन मात्रसे हमारा
अन्वेषणकार्य खतम नहीं हो जाता। हमें देखना सुन्दर अलंकृत मूर्तियां निर्माण की हैं। इनमेंसे कितनी ही स्तूपों और देवालयोंके स्तम्भोंपर उत्कीर्ण यह है कि क्या उस जमानेके लोगोंका दार्शनिक की गई हैं । हस के लिये देखें
विकास यहांतक उठकर ही रहगया था या उन्होंने
इससे भी भागे बढ़कर किसी आध्यात्म-संस्कृतिको (अ) वही Epigraphica India पृ० ३१२
भी अपनाया था। इसका समाधान इधर-उधरकी इसपर एक आयागपट्टका चित्र दिया हुआ है।
कल्पनाओंसे न करके स्वयं टिकड़ोंपर उत्कीर्ण इसमें एक एक स्तूपके सामने दो नाचती हुई यक्ष
योगीजनकी मूर्तियोंसे ही करना अधिक प्रामाणिक णियों को दिखलाया गया है।
और लाभदायक होगा। (आ) वही Epigraphica Indicaपृ० ३१६,३२१ फलक ३-इसमें अर्हन्तोंके उत्सवों में नाचती गाती
इन योगियोंकी मूर्तियोंको यदि ध्यानसे मध्यहुई यक्षणियोंको दिखाया गया है।
यन किया जाये तो पता चलेगा कि इनमें निम्न
र लक्षण विद्यमान हैं:(इ) वही जैन स्तूप आदि वी० ए० स्मिथ १६०१ लप फलक १२, फलक ६०, फलक ६१, फलक ६२, फलक १. पुरुषाकार,२. शान्त तरुण मुद्रा,३. ध्यानारूढ़, ६३-इनमें तोरणद्वारों और स्तम्भोंपर अनेक सुन्दर ४. नासादृष्टि, ५. कायोत्सर्ग भासन-दोनों हाथ यक्षणियोंको दिखाया गया है।
घुटनों तक सीधे लटकते हुए। ६.दिगम्बर वेश(ई) वही मोहनजोदड़ो, जिल्द १ फलक ११- निष्परिमहीपस्त्र-शस्त्रहित भृकुटिक्षेप-रहित । इसपर हड़प्पासे प्राप्त एक नाचते हुए यक्षको मूर्ति इन उपर्युक्त लक्षणोंसे स्पष्टतया विदित हैं कि । दिखलाई गई है।
वे लोग निरे शाक्तवाद या पितृवादको ही मानने
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अनेकान्त
[ वर्ष १० वलो नहीं थे, वे शिश्न और योनिकी ही उपासना अनेक हाव-भाव-सहित रची जाती हैं। परन्तु करनेवाले नहीं थे, प्रत्युत अध्यात्मवाद, त्यागमार्ग मोहनजोदड़ो और हड़प्पाको कार्योत्सर्ग प्रतिमाओं. संन्यासमार्ग, योगसाधना, ध्यानमुद्रारूप किसी का आदर्श ऐहिक वांछाओंका त्याग है । इसलिये श्रमणसंस्कृतिको भी माननेवाले थे।
उनकी तुलनाके लिये हमें भारतकी श्रमण-शाखाअभी यह निर्णय करना है कि जिस अध्यात्म- ओंकी मूर्तियों की ओर ही देखना होगा । भारतमें संस्कृतिको उन्होंने अपनाया था वह संस्कृति भाज तीन सम्प्रदाय ऐसे हैं जो पुरानी श्रमण-संस्कृतिके बिल्कुल खतम होचुकी हैं या वह भाज भी पूर्ववत् अनुयायी हैं- शैव, बौद्ध और जैन । प्रचलित है,यदि वह प्रचलित है तो उसकी सादृश्य- शिव-मृतियोंसे तुलनाता कहां पर है, उसका प्रतिनिधित्व आज कौन कर
ए
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इनमे शैव और बौद्ध सम्प्रदायोंकी देवालयों में रहा है। इस गुत्थीको सुलझानेके लिए हमें निश्चय जितनी शिव और बद्धकी मर्तियां पुराने सांस्कृतिक
मोगा कि संसारके किन लोगोने उपयुक्त वंभावशेषोंसे प्राप्त हुई है उन परसे यह निविवाद लक्षणोंवाली मूर्तियोंकी रचना की, कौन उनके उपा
कहा जा सकता है कि, मोहनजोदड़ोकी उपयुक्त सक बने रहे और कौन उन जैसी जीवन-चर्या को
का मूर्तियाँ अपनी बनावट और शैलीमें भिन्न अपनाते रहे हैं।
प्रकार की हैं। ___ जहां तक भारतसे बाहरवाले देशोंका सवाल शिवकी कितनीही मूर्तियाँ तो दक्षिणकी नटराज है, बहुतसी पुरातात्त्विक खोज होनेपर भी वहां मूर्तियोंके समान ताण्डव नृत्य करती हुई हैं । और किसी ऐसी संस्कृतिका पता नहीं लगा, जिसमें कितनी ही ध्यानी मतियाँ, जैसे कि मथराके कंकाली वीतरागता, नग्नता, निष्परिग्रहता, योगसाधना, टीलेसे प्राप्त हुई हैं, चतुर्भुजी हैंध्यानलीनता आदि जीवनचयोका समावेश हो। वे अपने एक हाथमें त्रिशूल, दूसरेमें डमरू इसलिये उपयुक्त प्रश्नका उत्तर भारतको सीमामे तीसरेमें चक्र, चौथेम रूद्राक्षमाला थामे हुए है। ही दढना होगा। भारतमे भी,जहां तक साधारण उसके शिरके बाल सावेष्टित जटाजूट बँधे है, हिन्द मूर्तियोंकी निमोणकलाका प्रश्न है, शिव- सर्प ही उसके गलेका हार है, भुजोंपर बाजूबन्द मर्तियों को छोड़कर शेष समस्त देवी-देवताओंकी है और कानों में कराडल हैं। माथेपर तीसरी आख मतियाँ-चाहे वे ब्रह्माकी हों, चाहे विष्णु और बीईई और मस्तक पर अर्धचन्द्र खिला है। विष्णु-अवतारोंकी हों, चाहे सरस्वती, लक्ष्मी, ईसाकी छठी शताब्दीके प्रसिद्ध गणितज्ञ और दर्गा आदि देवियों की हों-प्रायः भारतक प्राचीन ज्योतिषज्ञ श्रीवराहमिहिरने अपनी बृहत्संहिप्रागैतिहासिक शासक नाग अथवा यक्ष यक्षणि- तामें 'प्रतिमालक्षण' नामका जो ५८वां अध्याय योंकी मूर्तियों के अनुरूप ही रची गई हैं। उनका लिखा है, उसमें भी शिव-प्रतिमाका लक्षण निम्न
आदर्श त्यागी तपस्वी विश्वभूतपति नहीं है, प्रकार दिया है:बल्कि उनका आदर्श पराक्रमी वैभवशाली ऐश्वर्य
शंभोः शिरसीन्दुकला वृषध्वजोऽपि च तृतीयमूर्धम् । सम्पन्न एक इह लौकिक भूपति है । इसीलिये।
शूलं धनुःपिनाकं वामाधे वा गिरिसुतार्धम् ॥४३॥ वे सभी वस्त्रभूषण तथा शरत्र-अस्त्र-सहित अथवा
अर्थात् शिवमूर्तिके मस्तकपर चन्द्रकला, ध्वजमें १ -The development of Hindu Icno- - . - graphy by J.N.Banerjee Ph.D.Calcutta, १. वही मथुरा संग्रहालय का सूचीपत्र, मूर्ति नं. 1941 p113.
D. 41, D. 43, D.441
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किरण ११-१२ ] मोहनजोदड़ोकी कला और श्रमण-संस्कृति
४४४ वृषका चिह्न, ललाट में तीसरा नेत्र, एक हाथमे और दुर्धर ध्यान-साधनावाले मार्गका भी विरोध त्रिशूल, दूसरे हाथमें पिनाक नामक धनुष, वामअर्ध किया है। इस तरह चर्या की दृष्टिसे यह अतिशयभागमें पार्वतीका वाम अर्ध भाग होता है।
युक्त प्रवृत्ति और निवृत्तिवाले मार्गोंके बीचका एक इसमें सन्देह नहीं, कि शिवकी उक्त प्रतिमाएँ माध्यमिक मार्ग है। इस संस्कृतिका प्रवर्तन आजअनेक तात्त्विक और आध्यात्मिक भावनाओंको से ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध के द्वारा हुआ दर्शानेवाली और कविताके समान कनापूर्ण हैं; परन्तु है। भगवान बुद्धने इस संस्कृतिके प्रवर्तनमें अपनेइस स्थानपर शिव-प्रतिमाओंको उक्त विवक्षापर से पूर्ववर्ती किसी महापुरुषको अपना आदर्श नहीं विचार करना हमारे लिये अनावश्यक है। इस बताया । जैसा कि उन्होंने कहा है कि 'वे इसके एक स्थलपर हमें केवल यही देखना है कि यह मोहन- स्वतंत्र प्रवर्तक है। इसलिये मोहनजोदडोके युगमें जोदड़ो और मथुराकी कायोत्सर्ग-प्रतिमाओंकी शैली- बौद्ध संस्कृतिके चिह्न ढूढ़ना एक निरर्थक परिश्रम है । का अनुसरण नहीं करती और न उनकी तरह ऐति- इसके अतिरिक्त भगवान बुद्ध की सभी मूर्तियां हासिक योगी पुरुषोंकी वास्तविक प्रतिमाएँ ही हैं। परिधान-सहित हैं। वे कुछ भूमिस्पर्श मुद्राधारी हैं,
वास्तव में योगियोंकी अलंकारिक (Symbohc) परन्तु अधिकांश अभय-मुद्रा धारी हैं। भूमिसर्शमर्तियाँ बनाने की कलाका विकास प्राचीन भारतमें मुद्रामें बुद्धदेव पद्मासन बैठे रहते है, और उनका नहीं हुआ था। यह शैली ऐतिहासिक युगकी ही दाहिना हाथ नीचे की ओर लटकता रहता है। हाथकी सृष्टि है। Mohenjodaro Vol-I, Plate 12 : 17 हथेली भी भूमिकी ओर खुली होती है। अभयमुद्राकी मूर्ति जिसको Sir John Maishal ने शिवकी में अभय प्रदान करती हुई दाहिने हाथवी अंगुलियाँ प्रारंभिक मति बतलाई है वह भी उक्त प्रकारकी ऊपरकी ओर सीधी खड़ी रहती हैं। और हथेली शिवमूर्तियोंसे भिन्न शैलीकी है। वह त्रिनेत्रीकी बाहरकी ओर दिखाई देती है । भगवान बुद्ध की कुछ बजाय त्रिमुखी है। उसमे त्रिशूल हाथमें न होकर मूर्तियां व्याख्यान-मुद्रामे भी पाई जाती हैं। इनमें शिरपर अङ्कित है। उसमे छाती और हाथोंपर बुद्ध भगवान् शिक्षा देते हुए दिखलाए गए हैं। उनमें सर्प न होकर आभूषण अङ्कित है।
मूर्ति पद्मासन लगाए बैठी रहती है, दाहिने हाथकी ___ इन सब बातोंसे सिद्ध है कि मोहनजोदडोकी तर्जनी अंगूठेको छूती हुई बनाई जाती है, जिससे कायोत्सर्ग-मूर्तियाँ शैव मूर्तियाँ नहीं हैं।
एक वृत्त-सा बन जाता है। बुद्ध भगवानकी इस बौद्धमूर्तियोंसे तुलना
प्रकार व्याख्यान करनेवाली मर्तिया उनके धर्मचक्र
प्रवर्तनार्थ सारनाथमें पांच भिक्षोंको बौद्ध धर्मका जहाँ तक बौद्ध संस्कृतिका सबाल है, इसमें सन्देह
उपदेश व्यक्त करने के भावको लिये हुए है । वर-मुद्रानहीं कि, वह प्राचीन श्रमणसंस्कृतिके मूलमसे ही फूटी में भगवान बुद्ध खड़ेयोग आशीष या वर देते हुए हुई एक शाखा है। सांसारिक जीवन दुखमय है, दिखलाए गए हैं । अवास्तविक है, हेय है। इस तात्त्विक भावनामेंसे - वराहमिहिर ने भी अपनी संहिता (अ० ५८) में ही इसका जन्म हुआ है। इच्छा प्रोंके त्यागको ही मूर्तियों के लक्षण देते हुए बुद्धमूर्तिका जो लक्षण दिया बुद्धने दुःख-निवृत्तिका मार्ग बतलाया है; परन्तु इस है उसमें बतलाया है किदुःखनिवृत्ति के लिये उसने जहां विषय-वासना और 'बुद्ध भगवान्की प्रतिमाके हाथ, पैर, कमल रेखाभोग-विलासवाले लौकिक मार्गका तथा देवता मानकरी वादियोंके याज्ञिक क्रियाकाण्डी मागेका विरोध 1. श्री वासुदेव उपाध्याय M. A. 'भारतीय प्रस्तरकता किया है, वहां उसने श्रमणोंके लिष्ट कायक्लेश और योग'-कल्याणका योगाङ्क' १९३५,१०७३४-७३६,
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४५०
अनेकान्त
[ वर्ष १० ओर झुके हों, पन्नासनके ऊपर वैठे हों, और ऐसी अथ बिम्ब जिनेन्द्रस्य कर्तव्य जपणान्वितम् । बुद्ध प्रतिमा हो, मानों जगतका साक्षात् पिता है।' ऋज्वायतसुसस्थानं तरुणाम दिगम्बरम् ॥
श्रीवत्सभूषितोरस्कं जानुप्राप्तकराग्रजम् । जैनमूर्तियोंसे तुलना
निजांगुलिप्रमाणेन साष्टांगुल............ ॥ इस तरह बुद्धमूर्तियों के लक्षण भी मोहनजोदड़ो कहादिरोमहीनांश श्मश्रशेषविर्जितम् । वाली कायोत्सर्ग मूर्तियोंसे मेल नहीं खाते। केवल
अर्धप्रलम्बकं दत्वा समाप्येत च धारयेत् ॥ जैन अर्हन्तोंकी मूर्तियां ही ऐसी हैं-चाहे वे आधु
जैन अनुश्रुतिकेअनुसार वर्तमान २५ तीर्थक्करोंमेंनिक कालकी हों या मध्यकालवी, गुप्तकालीन हों
से ऋषभदेव, नेमिनाथ और महावीरको छोड़कर या कुशानकालकी अथवा मौर्य कालवर्ती-जो मोहन
शेष २१ तीर्थङ्करोंने कायोत्सर्ग आसनसे ही निर्वाण जोदडोवाली मूर्तियोंके लक्षणोंमे पूर्ण समानता
प्राप्त किया है। रखती हैं।
__ मौर्य-कालीन, कुषान-कालीन, और पश्चात्का___ इसके अतिरिक्त भारतीय साहित्य में जहाँ कहीं
लीन हजारों कायोत्सर्ग जैन मूर्तियों के अतिरिक्त अन्तिमूतियोंका वर्णन भाया है वह मोहनजोदड़ो
ऐतिहासिक युगकी गोम्मटेश्वर (बाहुबलि ) संबंधी वाली उक्त मूर्तियोंके ही अनुरूप है ।श्री वराहमिहिर
। जैनकलाकी लोकप्रसिद्ध मूर्तियां भी मैसूर और ने वृहत्संहितामें कहा है :
हैदराबाद रियामतोंमें, श्रवणवेलगोल, कारकल, अाजानुलम्बबाहुः श्रीवरसः प्रशान्तमूर्तिश्च ।
वेणूर आदि स्थानों में पहाड़ी चट्टानोंको काटकर दिग्बासस्तरुणो रूपवांश्च कार्योऽईतां देव ॥१८-४॥
५६, ४२ अथवा ८२ फुट ऊंची बनी हुई है, वे सब अर्थात्-जानु तक लम्बी भुजाओंसे युक्त, श्री. मोहनजोदड़ोके समान हैं। ग्वालियर किलेकी ५६ फुट वत्स-चिह्नसे सुशोभित, शान्तस्वरूप, दिगम्बर, तरुण ऋषभनाथकी प्रतिमा, इन्दौरके निकट बडऔर उत्तमरूपसहित अन्तिदेवकी प्रतिमा बनावे। वानीकी ऋषभनाथ भगवान्की ८४ फुट ऊंची
जैनसाहित्यमें भी जहां कहीं अर्हन्त-मूर्तियों के प्रतिमा और टीकमगढ़ रियासतमें अहार क्षेत्रकी १८ वन मिलने से भी उपक मतको फुट ऊंची भगवान शान्तिनाथकी और ११ फुट करते है । यथाः
ऊंची भगवान् कुन्थुनाथको मूर्तियां भी कायोत्सर्ग शान्तं नाशाग्रष्टि विमल गुणगणेभ्राजमान प्रशस्तं
मुद्रावाली हैं। इनमेंसे श्रवणवेलगोलवाली मूर्ति मानोन्मानं च वामे विकृतवरकरं नामपद्मासनस्थम । गगवंशी राजा राचमल्लके मन्त्री श्रीचामुण्डराय ब्युस्सगोलविपाणिस्थलिनहितपदाम्भोजमानम्रकम्बुम् द्वारा ह८३ ई० के लगभग निर्मित हुई है और अहार ध्यानारुटं विदैन्यं भजत मुनिजनानन्दकं जेनबिम्बम् ॥७०॥ क्षेत्रकी मर्तियां वि० सं० १२३७ मे उत्कीर्ण हुई है।
-श्रीजयमेनाचार्य-कृत प्रतिष्ठापाठ अर्थात्-शान्तमुद्राधारी, नासाग्रदृष्टि, विमल ध्यान, योग ओर आसनकी पुरानी सभ्यतागुणोंसे शोभायमान, मानोन्मानसे प्रशस्त, बायें हाथ- भारतके योगीजन सदासे अपनी मानसिक एकापर दायां हाय धारण किए हुए पद्मासनमें स्थित, प्रता, चिन्तानिरोध और योग-समाधिके लिए विविध अथवा कायोत्सर्ग में स्थित दोनों हाथ सीधे जानुओं प्रकार के आसनोंका आश्रय लेते रहे हैं। बिना योगतक लटके हुए और दोनों चरण किश्चित् अन्तरसे आसन ग्रहण किये ध्यान नहीं लग सकता, इसभूमिपर टिकेहुए, प्रीवा किञ्चित् झुकी हुई, ध्याना- लिए भारतके शिष्टजन श्रासनको सदा उपासनाका रूढ, दीनतारहित मुनिजनोंको आनन्द देनेवाली एक जरूरी अंग मानते रहे हैं। इन आसनोंमें वे ऐसी जैन मूर्ति भजनी चाहिए।
___ चाहे बैठेयोग हों या खड़ेयोग, शरीरको स्थिर और इमीप्रकार वसुनन्दिप्रतिष्ठासंग्रहमें कहा गया है- सीधा रक्खा जाता है और इन्द्रियोंको विषयबास
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किरण ११-१२] मोहनजोदड़ोकी कला और श्रमण-संस्कृति
४५१ नाओंसे विरक्त करके समतामें लय किया जाता है। अर्थात्-मोक्ष चाहनेवाले योगीको चहिए कि शेताश्व उपनिषद् में कहा है
वह गम्भीर हो, स्तम्भ-समान निश्चलमूर्ति हो, बिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं दीन्द्रियाणि मनसा निवेश्य पर्यवासनसे विराजमान हो, आँखें न अधिक खुली ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि ॥ हों न अधिक बन्द हों, ऊपरके दांत नीचे के दांतों
अर्थात-छाती. ग्रीवो और शिर तीनों अङ्गोंको पर रक्खे हुए हों, समस्त इन्द्रियां वशीभूतहीं, सीधा ऊचा करके, शरीरको सम निश्चल बनाकर शास्त्रका पारगामी हो, मन्द मन्द चलते हुए श्वास और एकाग्रचिन्ताद्वारा इन्द्रियोंको हृदयमें सम्यक
श्वाससहित हो, मनोवृत्ति नाभिके ऊपर, मस्तक रूप लय करके ज्ञानीको भय उत्पादक समस्त स्रोतों- हृदय, वा ललाट में स्थापित हो, ऐसा होकर उसे धर्म को आत्मध्यानकी नौकाद्वारा तर जाना चाहिए। और शुक्ल ध्यानोंकी आराधना करनी चाहिए। इसी प्रकार कण्ठोपनिषद में कहा है
कायोत्सर्ग आसन जैनश्रमणोंकी विशेषता है-- तं योगमिति मन्यन्ते स्थिरमिन्द्रियधारणम् ।
इस स्थल पर यह बतला देना आवश्यक प्रतीत अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवत्यसौ ॥६-११॥
होता है कि कायोत्सर्ग, जो मोहनजोदड़ोंके योगी
जोवनका एक विशेष लक्षण है, जैन अर्हन्तोंकी ही अर्थात्-इंद्रियोंको स्थिर बनाकर रखना ही
विशेषता है । जैन प्रन्थकारोंके अतिरिक्त अन्य योग है। जब मनमें संकल्प-विकल्प पैदा और
प्रन्धकारोंने जहाँ कहीं भी अष्टाङ्गयोगका वर्णन विलय हाने बन्द हो जाते है तब अप्रमत्त प्रमादरहित) करते हए श्रासनके भेद-प्रभेदोंका विवरण दिया है। दशाकी प्राप्ति होती है।
उसमे कायोत्सर्ग आसनका कोई उल्लेख नहीं है । इसीप्रकार भगवद्गीता ६, ११-१४ में कहा इसके विपरीत जैन आचार्योन स्थल-स्थल पर जैनगया है कि योगीको कमरके ऊपरका घड़, गर्दन, मनि आचार का वर्णन करते हुए उनके ध्यानके लिए
और मस्तक एक सीधमे अचल रखकर इधर-उधर पद्मासन और कायोत्सर्ग श्रासनपर विशेष जोर दिया न देखता हुआ नासिकाके अग्रभागपर अपनी दृष्टि
ष्टि है। उसके कुछ नमूने यहां उद्धृत किये जाते हैं:जमाकर ध्यान करना चाहिए।
(अ) धीर वीर पुरुष समाधिकी सिद्धिके आदिपुराण (जैनपुराण ) पर्व २७ में, ध्यान
लिए काष्टके तखतेपर तथा शिलापर अथवा भूमिध्याता-ध्येय-सम्बन्धी विस्तृत विवेचन देते हुए, श्री
पर वा बालू रेतके स्थान में भले प्रकार स्थिर श्रासन जिनमेन आचार्य न २१-६२ मे, ध्यानीकी आँखोंकी
करे। ये श्रासन कितने ही प्रकार है-पर्यत हालत के लिए कहा है -
श्रासन, अधपयेक आसन, वासन, वीरासन, 'नात्युन्मिषन् न चात्यन्तं निमिषन्'
सुखासन, कमलासन, कायोत्सर्गश्रामन, ये सब अर्थात-ध्यानीकी भांखें न तो बिल्कुल खुली आसन ध्यानके योग्य माने गये हैं। जिस जिस ही होनी चाहिएँ और न बिल्कुल बन्द ही।
आसनसे सुखरूप उपविष्ट मुनि अपने मनको इसीतरह हरिवंशपुराण (जैनपुराण) पर्व ५६ में
निश्चल कर सके वही सुन्दर श्रासन मुनियाको कहा गया है
ग्रहण करना चाहिए तथा इस समय-काल दोषसे गम्भीरः स्तम्भमूर्तिः सन् पर्यङ्कासनबन्धनः ।
जीवोंके सामर्थ्य की हीनता है, इस कारण कई नास्युन्मीजनिमीलश्च दत्तदंत्तापदन्तकः ॥३२।।
आचार्योने पर्यकासन (पद्मासन) और कायोत्सर्ग निवृत्त करणग्रामव्यापारः श्रतपारगः। मंद मंदं प्रवृत्तान्तः प्राणापानादिसंघरः॥३३॥
देखें, पातम्जन यागदर्शन, महर्षि वेदव्यास-कृत नाभेरूद्धर्व मनोवृत्ति मूर्ध्नि चाहदि बालके । भाष्य और विज्ञानभि-कृत वार्तिक-सहित, साधनपाद मुमुचुः प्राणिधायासं ध्यायेद् ध्यानद्वषं हितम् ||३॥ सूत्र ४६।
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४५२ अनेकान्त
[वर्ष १० ये दो ही आसन प्रशस्त कहे हैं।
तप किया कि भूमिमे उग उगकर जंगलकी लताएँ (आ) जिसका मन चंचल है, वह कैसे इसके शरीरपर चढ़ गई, सांपों और दीमकोंने ध्यानस्थ हो सकता है। इसलिए ध्यानके लिए इसके पदस्थल में अपनी बम्बियां बना लीं, जंगलके कायोत्सर्ग और पर्यङ्कासन, जो सुखासन हैं मृग उसे निर्जीव ठूठ जानकर इसके शरीर से अपना वाञ्छनीय हैं। अन्य श्रासन ध्यानके लिए शरीर खुजलाने लगे। इनके तपके प्रभावसे इनके विषम होनेसे आश्रय लेने योग्य नहीं हैं। निकटमे रहनेवाले सिंह, बाघ, चीता, रोछ, आदि
(इ) जिसमें दोनों भुजाएँ लम्बी की गई हो, कर जन्तु भी करताको छोड़कर सौम्य हो गये । चार अंगुलके अन्तरसे पांव स्थित हों, सब जब इस प्रकार योग साधन करते हए एक वर्ष अङ्गोपाङ्ग निश्चल हों वह शुद्ध कायोत्सर्ग है पूरा होनपर पाया परन्तु उन्हें कैवल्य प्राप्त न हुआ ॥६५॥ कायोत्सर्ग मोक्षमार्गका उपकारी है। तब भरत चक्रवर्ती और देबोंने उनके पास आकर घातिया कर्मोका नाशक है. मैं उसको स्वीकार प्रार्थना की कि भगवन् 'प्रसन्न हजिये, शल्यको दर करना चाहता हूँ। क्योंकि जिन भगवानने इसका
कीजिये और इस घोर साधनाको समाप्त कीजिये। सेवन किया है, और उसका उपदेश किया है इसपर बाहुबलि निःशल्य हो, कैवल्य पदको प्राप्त ॥ ६५२ ॥ कषायोंके कारण जो त्रिगप्तिमें हुए। देवोंने उनकी पूजा की और उनके बैठने के उल्लंघन हाहो, व्रतोंमें जो अतीचार हा लिये गन्ध कुटी बनाई। हो, पटकायके जीवोंकी अविराधनामे जो अपनी इस दीर्घ और कठोर तपस्याके कारण अतिचार हुआ हो, सात प्रकारके भय और बाहुबली सदाके लिये तपस्वियोंके वास्ते एक आदर्श आठ प्रकारके मदोंके कारण जो अतिचार हा बन गये । यह उनकी इस महिमाका ही फल है हो, ब्रह्मचर्यमें जो अतिचार लगा हो; इन समस्त कि तीर्थङ्कर न होते हुए भी जैनसाहित्य उनकी दोषोंके नाशके लिए मैं कायोत्सर्ग आसनका गौरव-गाथाओंसे और जैन प्रस्तर-कला उनकी
आश्रय लेता हूँ ॥ ६५३, ६५४ ॥ जो कुछ देव- मूर्तियों से भरपूर है।। मनुष्य-तिर्यच कृत व अचेतनकृत उपसर्ग हैं, उन्हें अथर्ववेदके व्रात्यकाएड १५-१ (३) में एक मैं कायोत्सर्गमे स्थित हुधा सहन करता
व्रात्यकी विस्मयकारी तपस्याके सम्बन्धमे यह कायोत्सर्ग एक वर्षका उत्कृष्ट और अन्तमुहूर्त
उल्लेख मिलता है
"स सवत्सरमूव तिष्ठतेत देवा अब वन् व्रात्य का जघन्य होता है।॥ ६५६॥
कि नु तिष्ठसीति ॥१॥ सोऽववीदासन्दी मे संभरनिस्वति उक्त विवेचन में जो एक सालके उत्कृष्ट कायो- ॥२॥ तस्मै व्रात्यायासन्दी समभरत ॥३॥".... " त्सर्गका जिक्र किया गया है उसका संकेत स्पष्टतया
अथोन-वह वर्ष भर तक सीधा खड़ा रहा, उस महातपस्वी बाहुबलीकी भोर है जो आदिब्रह्मा तब देवनि कहा-व्रात्य ! तू क्यों खड़ा है। वह ऋषभ भगवानका पुत्र और आदिचक्रवर्ती भरत,
बोला मेरे लिये आसन्दी (बैठनकी चौकी) ले आओ, जिसके नामपर हमारा देश आजतक 'भारत'
वे उस व्रात्य के लिये प्रासन्दी ले आये। कहलाता है, का छोटा भाई था। जैन अनुभति
ति- इसका संकेत, जैसा कि श्री रामप्रसाद चन्दाने के अनुसार इसने एक साल तक एक स्थानमें कहा है', स्पष्टतया एक जैन श्रमणकी ओर तो है ही. कायोत्सर्ग आसनसे सीधे खड़ा रहकर ऐसा घोराटि
B. लोक .. १ ज्ञानर्णव -श्रीशुभचन्द्राचार्य कृत, २८-६-१२ । २. Ramprasad chanda-Memoris of २ श्रादिपुराण-श्रीजिनसेनाचार्यकृत, २१.७१। the Archeclogical Survey of India, No. ३ मूलाचार-श्रीबहकेर प्राचार्यकृत, ६१०.६५६। 41-1929, P.31.
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किरण ११-१२] मोहनजोदडोकी कला और श्रमण-संस्कृति
४५३
----- - परन्तु उपर्युक्त अनुभूतिके अनुसार यह संकेत लोक सात नरकोंवाला अधोलोक स्थित है। इसकी नाभिख्याति-प्राप्त बाहूबलीको ओर ही मालूम होता है। में मेरु पर्वत है। इसके कटितट-भागमें जम्बूद्वीप
जैनसंस्कृतिकी मान्यता अनुसार कायोत्सर्ग- आदि अनेक द्वीप-समुद्रोंवाला मध्यलोक स्थित है। पासनकी जो महिमा, उसके जो आदर्श और उद्देश्य इसकी नाभिसे ऊपर और कन्धोंसे नीचेवाले ईस्वी काल की दूसरी सदीके जैन आचार्य वट्टकेरने मध्यभागमें १४ स्वर्गलोक स्थित हैं, कन्धों में ऊपर बयान किए हैं, जैन साधुओंके कायोत्सर्गका आरण,अच्युत नामके दो स्वर्ग स्थित हैं, ग्रीवामें नव वही वर्णन बुद्ध भगवानने मज्झिमनिकायके १४वें प्रवेयिक, ठोडोमें पञ्चअनुदिश, चेहरेमें पञ्च सुत्तमें दिया है।
अनुत्तरस्वर्ग स्थित हैं और सर्वोच्च ललाट-भागमें उपयुक्त मान्यता कारण कायोत्सर्ग आसनकी सिद्धलोक स्थित है। प्रथा आजकल भी ज्योंकी त्यों जैनियों में प्रचलित श्रमणोंकी जो मान्यता ऊपर जैन हरिवंश है। प्रतिक्रमण और सामायिक के समय आज भी पुराणसे उद्धृत की गई है वही मान्यता भागवत जैन त्यागी और श्रावक लोग प्रायः कायोत्सर्ग पुगण में दी हुई है। आसनसे ही खड़े होकर ध्यान लगाते हैं।
विद्वान पुरुप विराट् पुरुषके अङ्गों में ही समस्त उक्त प्रकार के सभी प्रमाणोंको ध्यान में लेकर लोक और उसमे रहनेवाली वस्तुओं की कल्पना करते श्री वी. सी. भट्टाचार्य M.A. ने तथा श्री रामप्रसाद हैं। उसकी कमरसे नीचेके अङ्गोंमे सातों पाताल है, चन्दाने यही मत निर्धारित किया है कि कायोत्सर्ग उससे ऊपर के अङ्गों में सातों स्वर्ग हैं, पैरोंसे लेकर श्रामन जैनधर्मकी ही विशेषता है।
कटि पर्यन्त सातों पाताल और भूलोककी कल्पनाकायोत्सर्ग आसनका तात्त्विक आधार- की गई है। नाभिमें भुव लोककी, हृदयमे स्वर्ग लोक इस स्थल पर यह बतला देना भी जरूरी है कि
की, वक्षस्थलमे महः लोककी, दोनों स्तनोंमे तपलोक इन श्रमणोंने कायोत्सर्ग आसनको जो अपनी ध्यान
की, गले में जललोककी, और मस्तकमें ब्रह्माके नित्य साधनाके लिए विशेषतया अपनाया है उसका एक
स्थान सत्यलोककी कल्पना की गई है। विशेष कारण है और वह है उनकी एक प्राचीन
वैदिक साहित्य के अध्ययनसे पता लगता है कि तात्त्विक धारणा। इरा धारणाके अनुसार यह
अधिकांश वैदिक ऋषियोंको भी लोक-सम्बन्धी उपलोक आदि-अन्त रहित, अनादि-निधन) स्वतः सिद्ध युक्त मान्यत अकृत्रिम है, जीव-जीव द्रव्योंसे भरपूर है और
"अन्तरितोदरः कोशो भूमि बुध्नो न जीर्यति दिशो ह्यस्य पुरुषाकार है। अधः मध्य और ऊर्ध्व लोकोंकी सक्स्यो चोरस्योत्तरं बिजम्; स एष कोपो षसुधानः । अपेक्षा अथवा भूः भुवः स्वः की अपेक्षा यह तीन
को
तस्मिन् विश्वमिदं श्रितम् ।" प्रकारका है।
-छान्दोग्य उप० ३, १५-१ ____ इस अपौरपेय पुरुषाकार लोककी उरु-जंघामें अर्थात् - वह कोष (शरीरलोक) जिसका १. इसके लिए देखें इसी लेखका अन्तिम भाग।
उदर अन्तरिक्ष है, चरण भूमि है, द्यौ उत्तर बिल २. (A) The India Iconography By BC. (शिर) है, दिशाएं कान है-कभी जीर्ण नहीं होता. ___Bhattacharya M. A, 1939P. 185. वह वसुनिधि है (अथोत्-वह अग्नि, पृथ्वी. (B) The Modern Review 1932- वायु, अन्तरिक्ष, धौ, श्रादित्य, चन्द्रमा और नक्षत्र
Sindh five thousand years ago.
pp. 150, by Ramprasad chanda. .. (जनी) हरिवंशपुराण ५, २६-३२ ३. तिलोयपण्यात्ती ०,१३३-११८, त्रिलोकसार ३-६। २. भागवतपुराण, स्कन्ध २, अध्याय १,३२-१२
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अनेकान्त
[ वर्ष १० इन आठ प्रकारके लोकोंसे भरपूर है)'। समस्त । परमात्मा पुरुषाकारलोकके अनुरूप ही पुरुषाकार है। विश्व उसके आश्रित है।
यह मान्यता उसकी लोक-प्रसिद्ध सर्वज्ञातावाद का ___ इसके अतिरिक्त वैदिक साहित्य में जगह-जगह ही एक अनिवार्य निष्कर्ष है। उसका मत है कि जब जहां विराट् लोक रचनाका वर्णन आया है वहां उसे आत्मा मोहमायासे रहित हो, अपनी समस्त इच्छापुरुषाकार होने के कारण 'पुरुष' 'अधिपुरुष' सत्तासे ओं और कामनाओंको जीत लेता है,तो वह स्वराज्यही जनाया गया है।
__ को प्राप्त कर लेता है, स्वराज्य प्राप्त करनेपर वह चूकि पुरुषका भकार ऐसे अद्भुत वृक्षके समान सर्वगत,सर्वभू , सर्ववित,सर्वज्ञ होजाता है-श्रर्थान् है जिसका शिर रूप मूल ऊपर की ओर है और हाथ- वह अपनेको जानता हुआ सबको जाननेवाला हो पांवरूप शाखायें नीचेकी ओर हैं, इस वास्ते जाता है । उसमें स्व और पर, ज्ञाता और ज्ञयका ब्राह्मण ऋषियोंने पुरुषाकार लोकके लिए उपयुक्त कोई विकल्प न रहने के कारण वह समस्त भूतोंमेंप्रकारके अश्वत्थ वृक्षकी भी उपमादी है:
समस्त लोकों में व्याप्त हो जाता है। श्रात्मा ज्ञान(अ) ऊर्ध्वमूजोऽवाशाखा, एषो अश्वत्थः सनातनः। प्रमाण है, ज्ञान ज्ञय-प्रमाण है, ज्ञय लोकालोकतदेव शुक्र तद्ब्रह्म, तदेवामृतमुच्यते ॥ प्रमाण है इसलिए सम्पूर्ण ज्ञानी आत्मा अथात्
-कठउप०६-१ परमात्मा अलोकाकाश-वेष्टित लोकप्रमाण है। लोक (श्रा) ऊर्ध्वमूलमधःशास्त्रमश्वत्थं प्राहुरम्ययम् । पुरुषाकार है इसलिए परमात्मा भी आकाशवेष्टित
-गीता १५-१ पुरुषाकार है। अर्थात्-यह लोकवृक्ष जिसका शिर ऊपरकी इस पुरुषाकार परमात्मा की मान्यता तो इतनी और पर नीचेकी ओर हैं सनातन और अव्यय है। विश्वव्यापी है कि परमात्माको पुरुषाकार मूतिद्वारा इसका कभी नाश नहीं होता।
संकेत करने की प्रथा केवल भारत देश तक ही लोककी यही मान्यता भारतके सभी तान्त्रिकों सीमित नहीं है बल्कि यह प्रथा बाहिरके देशों में को भी मान्य है । उनका मत है कि “यथा पिण्डे भी फैल कर जहां पश्चिमकी ओर उत्तरीय योरूपतथा ब्रह्माण्डे"
के देशों तक पहुँची है वहां पूर्वकी ओर समस्त पुरुषाकार परमात्माकी मान्यता
चीनमें भी व्यापक हुई है। इस पुरुषाकार लोककी मान्यताके साथ-साथ वैदिक संहिताएँ और उपनिषद् तो उक्त श्रमणसंस्कृति की यह भी प्राचीन मान्यता है कि, मान्यताके उदाहणोंसे भरपूर है । जिनके कुछ
१..... 'अष्टौ वसव..... ॥२॥कतमे इति अग्निश्च नमूने इस प्रकार है:पृथ्वी च वायुश्वान्तरिक्षं चादित्यश्च योश्च चन्द्रमाश्च
मोहमयाज्ज्ञानदर्शनाधरणान्तरायक्षयाच केवलम् । नक्षत्राणि चैते वसव एतपु हीदं वसु सर्व हितमिति
-उमास्वतिकृत तत्वार्था धिगमसूत्र १०-१ तस्माद्वसव इति"
-वृ० उप. ३, ६, ३ उप०३, ६,३
.
२ (घ) श्रादा णाणपमाणं, णाणं णयप्पमाणमुट्ठि। २. (क) तस्माद्विराजायत विरजो अधिपुरुषः
—णेय लोगालोगं तम्हा णाणं तु सम्वगयं ॥ -ऋग्वेद १०,१०,५
-कुन्दकुन्दाचार्यकृत प्रवचनसार, १-२३ (ख) स ईक्षतेमेनु लोकाः लोक पाखान्नु सजा इति ॥ (पा) पम्चाध्यायी २, ८३-८३८ सोऽदम्य एव पुरुष समुद्धत्यामूच्छयत् ॥ 3. Dr. Pran Nath-Indian Historical
-एत. उप० १,१३, ४ Quarterly Vol. VIII June 1932— (ग) चरक संहिता, शरीरसंस्थान, अध्याय ५
The scrip of the Indus Valley ३. History of Indian literature Vol. Seals-p. 21. I. 1927, pp. 586-605 by Dr.Winternitz. "The cult of representing the Sup: ,
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किरण ११-१२ ] मोहनजोदड़ोकी कला और श्रमण-संस्कृति
४५५ यस्य भूमि कमान्तरिक्षमुतोदरम् ।
___ इस सूक्तमें जिस ज्येष्ठ अथात् आदिब्रह्मको दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्य ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥३२॥ नमस्कार किया गया है वह जैनमान्यताके अनुसार यस्तु सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णवः ।
वृषभ-प्रतीकधारी आदितीर्थकर ऋषभ भगवान है। अग्नि यश्चक पास्यं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥३३॥ पुनः परमात्माका विराट स्वरूप वर्णन करते यस्य वात: प्राणापानौ चचुरक्षिरसोऽभवन् ।
हुए मुण्डक उपनिषद्म लिखा हैदिशो यश्चक प्रज्ञानीस्तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥३४॥
अग्निमूी चक्षुषी चन्द्रसूयौं दिशः यः श्रमात् तपसो जातो लोकान्त सर्वान्त समानशे ।
श्रोत्रे वाग्विवृताश्च घेदाः। सोमं यश्चके केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥३५॥
वायुः प्राणो हृदयं विश्वस्य पदयां -अथर्ववेद, काण्ड १० सूक्त ३६
पृथिवी यष सर्वमूतान्तरात्मा ।। अर्थात-जिसने भूमिको अपने चरण,अन्तरिक्ष
-मुण्डक उप०२-१-४ लोकको अपना उदर, दिव्यलोकको अपना सिर अर्थात्-द्य लोक जिस पुरुषका शिर है, चन्द्र. बनाया है उम ज्येष्ठ ब्रह्मके लिए नमस्कार है ॥३२॥ मूर्य नेत्र है, दिशायें कान है, वाणी विस्तृत वेद जिसने सूर्य और चन्द्रमाको अपनी दोनों आखें बनाया है, वायु जिमके प्राण हैं, विश्व जिसका हृदय है, है , अग्निलोकको अपना मुख बनाया है, उस ज्येष्ठ पृथ्वी जिसके पांव है
ऐसा पुरुष समस्त भूतोंमें ब्रह्मके लिए नमस्कार है ॥ ३३ ॥ वायुलोक जिसके व्यापक है, अर्थात् वह सबका ज्ञाता-दृष्टा है। प्राणापान समान है, अङ्गिरम जिसके चक्षुके समान हैं, जिसने दिशाओं को कान बनाया है, उस ज्येष्ठ संसारके उन सभी देशोंमें भी जहां यहूदी,ईसाई, ब्रह्मके लिए नमस्कार है ॥३४।। जिसने घोर तपस्या- अथवा इसलाम धर्म प्रचलित हैं परमात्माको पुरुद्वारा सर्वान्त लोकान्त अर्थात् सबके अन्तमें स्थित षाकार माना गया है । क्योंकि उनका कहना है कि लोकशिखिररूप सिद्धलोकको प्राप्त किया है और परमात्माने मनुष्य को अपने सदृश, अपनी आकतिजिसने केवल सोम अर्थात् सम्पूर्ण आनन्दको प्राप्त के अनुरूप पैदा किया है। किया है, उस ज्येष्ठ ब्रह्मके लिए नमस्कार है ॥३६।।
इस प्रकार परमात्माकी मान्यताके प्राधारपर
ही जैन यतियोंने पिण्डस्थ ध्यानका वर्णन करते reme God by the boneosign does not हुए लिखा है-ध्यानीको चाहिए कि वह अपनी appear to be confined to India. नाभिमें मेरुकी कल्पना करे, ग्रीवाम नव वेयिThis cult so widely spread that it कोंकी. ठोडीम पश्चअनुदिशोंकी, चेहरेमें पश्चानुत्तर appears to have reached the extreme की और ललाटमे मिटलोकमी का corner of Northern Europe on the
जैन संस्कृतिके इस तात्त्विक विवेचनसे सिद्ध one side and a corner of Asia viz. China on the other." As for as
१. Bible-old testament-Genesis.And Vedas and Upanishadas are concer
God said-'Let us make God in one ned they abound in passages referr
image after our likeness, 1-26 ing to the supreme being by words like पुरुष and अधिपुरुश etc."
२. वसुनन्दि-श्रावकाचार ४६०-४६३.
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अनेकान्त
[ वर्ष १० है कि कायोत्सर्गरूप ध्यानमुद्रा पुरुषाकार परमात्मा भी मौजूद हैं। उनपर बहुतसा परिश्रम करनेपर भी अथवा परब्रह्मका साक्षात् स्वरूपहै। अतः पर- दुनियाके प्राचीन लिपि-भाषा-विशेषज्ञ अभी तक मात्मपद की सिद्धि के लिए श्रमणों-द्वारा कायोत्सर्ग- पूर्णरूपसे सफल-मनोरथ नहीं हो पाए हैं। इन अभि रूप ध्यान लगाना स्वाभाविक ही है।
लेखोंके पढ़े जानेपर विवाद-ग्रस्त विषयपर बहुत उक्त तात्त्विक मान्यताओंके श्राधारपर ही
प्रकाश पढ़ने की सम्भावना है। अब तक इस क्षेत्रमें
विशेषज्ञोंने जो गवेषणायें की हैं वे किसी तरह भी उप. डा० प्राणनाथने निश्चित किया है कि मोहनजोदड़ो. की लिखतमें जहाँ कहीं पुरुषाकार-चिह्न उप
युक्त मतकी विरोधी नहीं हैं ; बल्कि यदि डा० प्राण
नाथका मत स्वीकार किया जावे तो इन टिकड़ों और युक्त हुए हैं वे सब परमात्मस्वरूप भाव के प्रतीक हैं।
मोहरोंपर उत्कीर्ण चिह्नों और लेखोंसे सिद्ध है कि वे किसी विशेष मनुष्य जातिको प्रगट नहीं करते'। जैनधर्म, शाक्त, पाशुपत और शैव आदि पुराने निष्कर्ष
तान्त्रिक धर्मों का सिन्धदेशकी पुरानी सस्कृतिके __ इस प्रकार उपर्युक्त विवेचनसे यह निष्कर्ष ८
साथ गहरा सम्बन्ध है । डा. प्राणनाथका तो यह भी
कहना है कि इनमेंसे कितने ही टिकड़ोंपर 'जिनेशः' निकालना अनिवार्य हो जाता है कि मोहनजोदड़ोकी
वा 'जिनेश्वर' शब्द स्पष्टरूपसे लिखे हुए हैं।' योगी मूर्तियां जैन अर्हन्तोंकी मूर्तियां हैं। यह मानकर ही हम इन मूर्तियोंके शिरोंपर रक्खे १. Indian Historical Ouarterly Vol. हुए त्रिशूलोंका, कन्धोंपर पड़ी हुई जटाओंका, उनके VIII N. 2, June 1932" The Scirpts निकट खड़े हुए वृक्ष और जन्तुओंका, उनकी उपा
on the Indus Valley Seals" by Dr. सना करते हुए नाग यक्ष और मनुष्योंका, उनपर
Pran Nathअङ्कित हुए धर्मचक्रदण्डोंका, बहुत बड़ी संख्या टिकड़ोंपर उत्कीर्ण हुए जन्तुओंका एक ऐसा सुसं.
"The names and symbols on plates गत और बुद्धिगम्य विवेचन कर सकते हैं जो पुरा
annexed would appear to disclose तत्त्व, शिलालेखों और साहित्यसे प्रमाणित है। a connection between the religious साथ ही तात्त्विक मान्यताओं, धार्मिक भावनाओं
cults of the Hindus and Jainas with और ऐतिहासिक अनुश्रुतियोंसे आधारित है।
those of the Indus people. P. 27."
* It may also be noted that the insइन टिकड़ों और मोहरोंमेंसे अनेकपर अभिलेख
cription on the Indus seal No. 449 १. डा. प्राणनाथ-वही Indian Historical reads according to my decipherments Quarterly p. 21
"Jinesvar" or "Jinesah"
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सम्पादकीय १ सेठ रामचन्द्रजी खिन्दुकाका वियोग- कारोबारके लिए दे दी जावेगी। अतः अन्यत्रका
विचार न रख कर महावीरजीका ही विचार रक्खा जयपुरके प्रसिद्ध समाज-सेवी सेठ रामचन्द्रजी
जावे तो अति उत्तम हो।' इसके बाद वे जयपुर में खिन्दुका मंत्री श्रीदिगम्बर जैन अतिशयक्षेत्र महा
कई वार मिले और गत फवरी मासमें वेदी प्रतिष्ठाके वीरजी, आज इस संसारमें नहीं है, उनका गत १३
अवसर पर श्रीमहावीरजी क्षेत्रमें चार दिन तक तो जलाईको आकस्मिक देहावसान हो गया है ! आ. उनके पास ही ठहरनेका अवसर मिला। अन्तिम कस्मिकका प्रथे किसी रेलवे, मोटर या हवाई
मिलना उनसे ता०१४ मईको हुआ था, जबकि उन्होंने विमानादिकी दुर्घटना से नहीं, बल्कि हृदयगतिक श्रीमहावीरजी और वीरसेवामन्दिर-सम्बन्धी मेरे रुकनेस है-आप जयपुर में हँसी-खुशी शामका
एक पत्रपर विचार करने के लिए मुझे जयपुर बुलाया भोजन करके मित्रों के साथ आनन्दपूर्वक बातचीत
था। इन सब अवसरोंपर उनसे मिलकर मुझे बड़ी कर रहे थे कि इस बीचमे आपका जी कुछ मच
प्रसन्नता हुई और उनकी सादगी, निरभिमानता लाया, उसी समय डाक्टरको बुलाया गया, डाक्टर
तथा कार्यकुशलता आदि कितने ही गुणोंका अच्छा ने रक्त चाप देखने के लिए यत्र लगाया ही था कि
परिचय मिला। साथ हो यह भावना उत्पन्न हुई कि इतनेमें ही आपका प्राण-पखेरू उड़ गया ! और
वीरसेवामन्दिरको यदि इन जैसे मंत्रीका सहयोग सब देखतेके देखते स्तब्धसे रह गये !! किसीकी
प्राप्त हो तो वह बहुत कुछ उन्नत हो सकता है। कुछ भी नहीं चली !! पहाड़सा हृष्ट-पुष्ट सुन्दर और
अतः उक्त दुःसमाचारको पाकर हृदयको एक नीरोग शरीर एक दम धरा-शायी हो गया !!! इससे
दम धक्का लगा और कुछ शोक उमड़ने लगा। उसो अधिक ससार की नश्वरता, क्षणभंगुरता और
समय चेत हुबा, 'इष्टवियोग-अनिष्टयोगमें सहनप्राणियोंकी बेबसीका और क्या प्रमाण हो सकता है?
॥६१ शीलता रखने की बात याद आई और श्रीपानन्दी खिन्दकाजोसे पत्रादि-द्वारा परोपक्षरिचयतो मेरा आचार्यका यह वाक्य सामने श्रा उपस्थित हमाकुछ पहलेसे था, परन्तु साक्षात् परिचय उनका गत यो नाऽत्र गोचरे मृत्योर्गतो याति न यास्यति । दिसम्बरमासके अन्तिम सप्ताहमें प्रथमवार उससमय स हि शोक मृते कुवेन शोभते नेतरो जनः ।। हा था जबकि मैं बा० छाटेलालजी कलकत्ता वालों- जो मृत्युके गोचर कभी हुआ नहीं है नहीं और के पास जयपुर गया हुआ था और वे उनसे तथा होगा नहीं, वही किसीके मरनेपर शोक करता हया मुझसे मिलनेके लिए सेठ वधीच'दजी सहित पधारे शोभाको प्राप्त होता है, अन्य कोई भी मनुष्य शोक थे और उन्होंने यह मालूम करके कि वीर-सेवा- करके शोभाको नहीं पा सकता। मंदिरको सरसावासे देहली या राजगृही भादि ले हम बहुतसे प्रणियोंको अपने सामने मरते जानेका विचार चल रहा है, बड़ी नम्रता प्रसन्नता हुए देखते हैं और असंख्य प्राणियोंकी मरणवार्ता
और उदारताके साथ यह प्रस्ताव रखा था कि को सुनते रहते हैं, फिर भी अपनेको अमर नही तो 'वीरसेवामन्दिरको यदि महावीरजी क्षेत्रपर स्थिर जरूर समझते हैं, और यह नहीं सोचते कि लाया जावे तो क्षेत्रकी ओरसे उसे एक हजार रु. हम निरनर कालके गालमें चले जा रहे हैं, प्राय मासिककी सहायता दी जा सकेगी और सेठ बधी- कायका कोई भरोसा नहीं, कल को हमारी भी यही चन्दजी-वाली धर्मशाला उसके निवास स्थान और गति होसकती है। यहसब मोह है और यहीं सबभूले
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१५८
अनेकान्त
[बर्ष १०
हए है-प्रायः साग संसार इसी भूल के चक्कर में से पदार्थ-पाठ लेकर आत्महितकी साधनामे पड़ा हुआ है । एक मनुष्य दूसरेके मरणकी तो अधिक सावधान होना, यह उससे भी ऊपर तथा चिन्ता करता है, उसपर शोक प्रस्ताव पाम करता अधिक आवश्यक है ।। है परन्तु अपना मरण जो निकट आ रहा है, उसका बिन्दका जी अपने मरणके पीछे जो पदाथेपाठ तरफ कोई ध्यान नहीं देता ! यही बजह है कि मनुष्य छोड़ गये है वह संक्षेपमें इस प्रकार है:की आत्म-हितकी ओर प्रवृत्ति प्रायः नहीं हो पाती।
किसीको भी अपनी जवानी, तन्दुरुस्ती, वह उसे भूले रहता है,अथवा उसके लिये समयादिकी बाट जोहता रहता है और इस बातको भल शक्ति और सम्पत्ति के ऊपर भले नहीं रहना चाहिए. जाता है कि कालकी दृष्टि में बच्चा, बढा और उनक गिरत दर नहीं लगती और मौत के वक्त उनमें जवान अथवा रोगी-नीरोगी, निर्बल और बलबान से कोई भी चीज काम नहीं पाती। सब समान है-वह विना किसी भेद भाव के सभी (२) समाज सेवाके कार्यों में बराबर तत्परताके को अपना ग्रास बना लेता है। मनुष्य अपनी इस
साथ भाग लेना चाहिए, जिससे समाज तथा देशके भूल को यदि समझे और मरण घटनाओंसे पदाथ प्रति अपना कर्तव्य पूरा हो और बादको गौरवके लेकर अपने आत्माका भी कुछ हित साधन करने
साथ नाम लिया जासके। में प्रवृत्ति करें तो संसारका बहुत बड़ा कल्याण हो सकता है। खिन्दुकाजीको पहलेसे यदि यह (३) दूसरोंके कामोमें इतना अधिक संलग्न न मालम होता कि उनका मरण १३ जुलाईको होने- रहना चाहिए, जिससे आत्महित गौण हो जाए, वाला है तो इसमें सन्देह नहीं कि वे एसे पुरुषार्थी थे उसे भुला दिया जाय अथवा अवसर ही न दिया कि अपने आत्महितकी साधनाका प्रयत्न जरूर
जाय। दूसरोंकी सेवा करते हए आत्म-सेवाका भी करते । परन्तु अपनी मौतका हाल पहलेसे तो किसी
ध्यान रखना चाहिए-आत्माको अधिकाधिकरूपमे को भी प्रायः मालम होना नहीं है, तब श्रेयस्कर पहिचाननेका यत्न करत हुए राग, द्वेष काम क्रोधयही है कि हम अपने नित्यके जीवन में खाने-पीने मान-माया-लोभादिक शत्रओं के उपद्रवसं उस
आदिके समान आत्महित (धर्म) की भी नियमित बचाना चाहिये । और मौतसे कभी गाफिल नही रूपसे साधना करते रहें-उसे अनिश्चित भविष्य रहना चाहिये, वह जब चाहे आ सकती है, उसके के ऊपर न छोड़े रक्खं, जिससे अन्त समयमे पश्चा.
स्वागतके लिए सदा तय्यार रहना चाहिये । अन्यथा त्तापके लिए कोई अवसर न रहे और हम मौत पछताना होगा-मौत के समय कुछ भी नहीं बन का पैगाम आते ही अपनेको तैय्यार पाएँ । किसी भी समाज-संवक के निधन पर शोक-सभाओंका अन्तमे विन्दुकाजीके पुत्रों और अन्य कुटुम्बोलक्ष्य केवल शोक प्रकाशित करके एक रुढिका
जनके इस वियोगजन्य दुःखमें समवेदना व्यक्त पालन करना ही न होना चाहिये, बल्कि उपकारीके उपकारोंका स्मरण करते हुए उसके प्रति अपना जो
करता हुआ मैं आशा करता हूं कि वे विन्दुकाजीके
पद-चिन्होंपर चलते हुए उन्हें भुला देगे और कर्तव्य है तथा उसके स्थानकी पूर्ति के लिए-समाज
अपने जीवनको अधिक सावधान एवं सतर्क रखनेमें वैसा ही सेवक उत्पन्न करने के वास्ते-समाज
में समर्थ होंगे। का जो उत्तरदायित्व है उसे परा करने के लिए गहरे विचार के साथ कोई ठोस कदम उठाना चाहिये। साथ ही, आत्म-निरीक्षण करना तथा मरण-घटना
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किरण ११-१.] सम्पादकीय
४५६ २. अनेकान्तकी वर्षे-समाप्ति और अगला वर्ष- प्रयत्नसे १०० और दूसरे विद्वानने २०० नये ग्राहक ___ इस संयुक्त किरण(५१-५०)के साथ अनेकान्तका
बनानेका दृढ़ संकल्प करके प्रोत्साहित किया । १०वाँ वर्ष समाप्तहो रहा है। इस बर्पमे अनेकान्त उधर गुण-ग्राहक प्रेमी पाठकोंसे यह आशा की गई पाठकोंकी कितनी सेवा की, कितने महत्वके लेख
कि वे अनेकान्तको अनेक मागोंसे सहायता भेजकर प्रस्तुत किए, कितनी नई खोजें सामने रक्खीं, क्या तथा भिजवाकर उसी प्रकारसे अपना हादिक सहकुछ विचार जागृति उत्पन्न की. और समाजके राग- सहयोग प्रदान करेंगे जिस प्रकार कि वे अनेकान्तके द्वेषसे कितना अलग रहकर यह ठोस संवा-कार्य थे, ५वें वर्षोमे करते रहे हैं और जिन वर्षोंमें करता रहा, इन सब बातोंके बतलातेकी यहां जरू. अनेशन्तको घाटा न रहकर कछ बचत ही रही थी। रत नहीं-नित्य पाठक उनसे भली भॉति परि- इन सब बातोंके भरोसेपर और इन्हें भी उक्त चित है और जो परिचत न हों वे वार्षिक विषय- सम्पादकीयमे व्यक्त करते हुए १०वें वर्ष का प्रारम्भ सची आदिको देखकर उसका क्तिना ही आभास किया गया था। साथ हो, डा. वासुदेवशरणजी प्राप्त कर सकते है । परन्तु इस वर्षकी कुछ किरणें अग्रवाल के इस सुन्दर कथनको भी दिया गया था, समय पर नहीं निकल सकी और यह संयुक्त कि देवमूर्ति तथा देवालय के निर्माण तथा प्रतिष्ठादि किरण दो महीने के विलम्ब प्रकाशित हो रही है, कार्योंमे जिस प्रकार आर्थिक दृष्टिको लक्ष्य में नहीं इसका मुझे खेद है। इसकी अधिकांश जिम्मेदारी रक्खा जाता-अर्थोपार्जन उसका ध्येय नहीं होताअकलक प्रेमके ऊपर है जिसने पत्रको लेते समय उसी प्रकार सरस्वतीदेवीकी मूति जो साहित्य है उसको ममयपर छापकर देनका पुख्ता वादा किया उसके निर्माणादि कार्योंमे भी आर्थिक दृष्टिकोलक्ष्य में था और जो प्रत्येक किरणको एक सप्ताहमे छापकर नहीं रखना चाहिए। प्रयोजन यह कि अनेकान्तको देनेके लिए वचनबद्ध हुआ था, परन्तु उसने एक शद्ध साहित्यिक तथा ऐतिहासिक पत्र बनाना किरणके साथ भी अपना वचन पूग नहीं किया चाहिए और उसमें महत्वके प्राचीन ग्रन्थों को भी और पिछली किरणोंक साथ तो बहुत ही लापवाही. प्रकाशित करते रहना चाहिए। जैन समाजमें साहिका बताव किया है, जिससे मै भी तंग आगया। त्यिक मचि कम होनेसे यदि पत्रकी ग्राहकसंख्या ऐसी स्थितिम पाठकोंको जो प्रतीक्षा-जन्य कष्ट उठाना कम रहे और उससं घाटा उठाना पड़े तो उसकी पड़ा है उसके लिये मै उनसे क्षमा चाहता हूं चिन्ता न करनी चाहिए-वह घाटा उन सज्जनोंके
पिछले वर्षके घाटेको देखते हए, जिस माह द्वारा पूरा होना चाहिए जो सरस्वती अथवा जिनशान्तिप्रसादजी अथवा उनकी संस्था भारतीय वाणा माताकी पूजा-उपासना किया करते है और ज्ञानपीठ काशीने उठाया था, मुझ इस वर्ष पत्रको
देव-गुरु-सरस्वतीको समान दृष्टिस देखत हैं । ऐसा निकालने का साहस नहीं होता था, चनाँचे वषारम्भ
होनेपर जनसमाजमें साहित्यिक रुचि भी वृद्धिको के “सम्पादकीय'मे मैने उसे व्यक्त भी कर दिया था
प्राप्त होगी, जिससे पत्रको फिर घाटा नहीं रहेगा परन्तु अनेक मज्जनोंका यह अनरोध हा कि और लोकका जो अनन्त उपकार होगा उसका मूल्य अनेकान्तको बन्द नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसके
नहीं आंका जा सकता-स्थायी माहित्यसे होने द्वारा कितने ही महत्वके साहित्यका गहरी छान. वाला लाभ दवत्तियों आदिसे होने वाले लाभसे बीनके साथ नव-निमोण और प्राचीन साहित्यका कुछ भी कम नहीं है। और इसपर जैनसमाजको सम्पादन होकर प्रकाशन होता है, जो बन्द होनपर खास तौरसे ध्यान देकर अनेकान्त की सहायतामे रुक जायगा और उससे समाजको भारी हानि सविशेषरूपसे सावधान होने की प्रेरणा भी की गई पहुँचेगी। इधर वीरसेवामंदिरके एक विद्वानने निजी थी, जिसमें अनेकान्त घाटेकी चिन्तासे मुक्त रहकर
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४६० अनेकान्त
[वर्ष १० प्राचीन साहित्यके उद्वार और समयोपयोगी नव- उल्लेख-योग्य एक रकम सेठ सोहनलालजी कलकत्ता साहित्यके निर्माणादि कार्यो में पूर्णतः दत्तचित्त रहे वालोंकी है-शेष ६/-) सारे समाजसे प्राप्त हुए और इस तरह समाज तथा देशकी ठीक ठीक सेवा समझने चाहिए। ऐसी स्थिति में 'अनेकान्त'को अगले कर सके।
वर्ष कैसे चाल रक्खा जाय, यह एक विकट समस्या
है। जब तक इस वर्षके घाटेकी पूत्ति नहीं हो जाती ___ परन्तु खेदके साथ लिखना पड़ता है कि किसी
तब तक आगेके लिए कोई विचार ही नहीं किया ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया और न वीरसेवा
जा सकता । अतः अनेकान्तके प्रेमी पाठकभी कुछ मन्दिरके दोनों विद्वानोंने ही अपने वचनको पूरा
समयके लिए धैर्य रक्खें, जब कोई व्यवस्था ठोक हो किया है। नतीजा इस सबका वही 'घाटा' हुआ
जायगी तब उन्हें सूचित किया जायगा। हां, अने. जिसके भयसे पत्रको निकालनेका साहस नहीं होता
कान्तकी इस घाटा-पुत्ति में यदि वे स्वयं कुछ सहथा। इस वर्ष के आय-व्ययका चिट्ठ। इसी किरण
योग देना तथा दूमरोंसे दिलाना उचित समझे तो में अन्यत्र दिया गया है, उसपरसे पाठक देखेंगे कि
उसके लिए जरूर प्रयत्न करें। साथ ही, अनेकान्तके १५ महीनेके इस अर्सेमें पत्रको ढाई हजारके करीब
दो दो नये ग्राहक बनाकर उनकी सूचना भी का घाटा रहा है। समाजसे सहायतामें कल २६८||12) की रकम प्राप्त हई, जिसमें २००) रु० की अनेकान्त-कार्यालयको देनेकी कृपा करें।
(४१२ वें पृष्ठ का शेषांश) अनूप संस्कृत लायब्रेरीमें आपकी लिखित एवं (२६) ज्योतिष सारोद्धार-इसको प्रति अनूप- लिखाई हुई अनेकों प्रतियां हैं । हमारे संग्रहमें एवं संस्कृत लाइब्रेरीमें है।
बीकानेरके अन्य भण्डारोंमें भी आपको लिखित (२७) विवाहपटल-इसकी प्रति आचाये कई प्रतियां प्राप्त हैं भण्डारमें है। (२८) पाशाकेवली-इसकी प्रति उ0 जयचन्द्र
शिष्य-परम्पराजीके भण्डारमें मोतीचन्द्रजी खजानचीके संग्रह में है।
हर्षकीर्तिसूरिके समरसिंहनामक शिष्य थे, अधिक खोज करनेपर आपकी अन्य कई
जनका दीक्षानाम समरकीर्ति था। सं० १६६७ से रचनामोंका पता लगाना सम्भव है।
१६७४ की लिखित प्रतियोंकी पुष्पिकाभोंमें इनका आपकी लिखित प्रतियां
नाम पाया जाता है। उनके शिष्य यशःकीर्तिके हर्षकीर्तिसूरिकी स्वयं लिखित प्रतियें प्रचुर रचित वृत्तरत्नाकरकी वृत्ति अमृपसंस्कृत लायब्रेरीमें प्रमाणमें पाई जाती है। आपके हस्ताक्षर सुवाच्य थे, प्राप्त है।
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DOOOOOOOOOGoo
के ॐ अहम् *
अनेकान्त
सत्य, शान्ति और लोक-हितके सन्देशका पत्र
नीति-विज्ञान-दर्शन-इतिहास-साहित्य-कला और समाजशास्त्रके प्रौढ विचारोंसे परिपूर्ण मासिक
DOOOOOOOOD
00000000000000000000000
सम्पादक जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' अधिष्ठाता ‘वीरसेवामन्दिर' (समन्तभद्राश्रम )
सरसावा जिला सहारनपुर
सहायक सम्पादक ५० दरबारीलाल काठिया, न्यायाचार्य
(फर्वरी १६५० तक)
श्रावणसे
दशम वर्ष आषाढ वीरनि० सं० २४७४-७६, विक्रम सं० २००६-७]
जलाई १६४६ से जून १९५०
प्रकाशक परमानन्द जैन शास्त्री
वीरसेवामन्दिर प्रकाशन-स्थान-७/३३, दरियागंज, देहनी
RESHEREMIERRETIMATM
WERESOMEN MisthW
एक किरणका मूल्य
वार्षिक मूल्य
पाँच रुपये NEHANNEL
अगस्त सन् १६५०
पाठ पाने HONEYPREENAMEENAMEYAWMMMANtwan EMAINM RAEBAREATMENTMATH
331 DARSHAN
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अनेकान्तके दशके वर्षकी विषय-सूची
पृष्ट
विषय और लेखक
विषय और लेखक अनेकान्तरसलहरी-[ जुगलकिशोर मुख्तार ३ ऐतिहासिक भारत की श्राद्य मूर्तियाअनेकान्तवाद और पं० अम्बादास शास्त्री
[श्री बालचन्द्र जैन M.A. ११४ [श्रीक्ष० गणेशप्रसादवर्णी १२२
ऐलक-पद-कल्पना (११ वी प्रतिमाका इतिहास) अन्यत्र अप्राप्त अजितप्रभुचरित्र
-[श्री जुगलकिशोर मुख्तार ३८७ [श्रीअगर चन्द्र नाहटा ३३१
कतिपय प्रकाशित ग्रन्थोंकी अप्रकाशित अपभ्रंश भाषाके दो महाकाव्य और कवि
प्रशस्तियां- [श्री अगरचन्द नाहटा- ३३१
कलकत्ताके जैनीपवनमें वृक्षारोपण-समारोहनयनन्दो-[५० परमानन्द शास्त्री ३१३
[तुलसीरामजैन ४८ अपराध-क्षमा-स्तोत्र (रत्नाकर)-[सम्पादक ४१ पिसत्रकी एक प्राचीन लेखक-प्रशस्तिअर्थका अनथ-[श्री प० कलाशचन्द्र शास्त्रा १२६
। डा. वासुदेवशरण अग्रवाल २२ अर्हन्तुतिमाला ( माघनन्दी)-[ सम्पादक ३५३ कवि पद्मसुन्दर और दि० श्रावक रायमल्लअष्टसहस्रीकी एक प्रशस्ति-[सम्पादक ७३
श्री अगरचन्द्र नाहटा अहार क्षेत्रके प्राचीन मूर्ति-लेख-[पं० गोविन्ददास कवि बनारसीदास-[ कुमार वीरेन्द्रप्रसाद ६६
___ न्यायतीर्थ २४, ६६, ७, १५३ किसके विषय में मैं क्या जानता हूं-- अहिंसा और सत्याग्रह-बा० अनन्तप्रसाद जैन
[ला० जुगल किशोर कागजी २० आखिर यह सब झगड़ा क्यों ?-[बाबू
गुणचन्द्र मुनि कौन हैं?-[पं० दरबारीलाल २५६ अनन्तप्रसाद जैन B. Sc. Eng. १
ग्वालियर किलेका इतिहास और जैनपुरातत्वआचार्य विद्यानन्दका समय और स्वामी
[पं०परमानन्द शास्त्री १०१ वीरसेन-बा० ज्योतिप्रसाद जैन एम.ए. २७४ चिट्ठा हिसाब 'अनेकान्त' दशम वर्ष ४३१ मा० विद्यानन्दके समयपर नवीन प्रकाश- चेकोस्लोवेकिया-[बा० माई दयाल जैन B.A. ३७२
[न्या० ५० दरबारीलाल 'कोठिया' ११ जीवन और विश्वके परिवर्तनोंका रहस्यप्रात्मा और पुद्गलका अनादि सम्बन्ध-
[श्री अनन्तप्रसाद जैन B. Sc. Eng. १६७ [ श्री 'लोकपाल' ५५ जेसलमेरके भण्डारकी छानबीन-[सम्पादक ४२५ आत्मा, कर्म, मृष्टि और मुक्ति
जैनगुहा-मन्दिर-[श्री बालचन्द्र जैन M.A. १२६ श्री 'लोकपाल' ८७
जैन धातु-मूर्तियोंकी प्राचीनताआपकी श्रद्धाका फल-[च. गणेशप्रसाद वर्णी ३५
[श्री अगरचन्द्र नाहटा प्राप्तपरीक्षाका प्राक्कथन
जैनेन्द्र व्याकरणके विषय में दो भूलें-- । ५० कैलाशचन्द्र शास्त्री २१३
युधिष्ठिर मीमांसक आर्योसे पहलेकी संस्कृति
डा. अम्बेडकर और उनके दार्शनिक विचार[श्री० गुलाबचन्द्र चौधरी M.A. ४०३ [पं० दरबारीलाल जैन कोठिया १६५ इटावाजिलेका संक्षिप्त इतिहास
डा० कालीदास नागका देहलीमें भाषण[ श्रीगिरीशचन्द्र त्रिपाठी २६५ [आदीश्वरलाल जैन एम० ए०
२२४
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[ ३ ] विषय और लेखक
घिषय और लेखक देहलीमें वीरशासन-जयन्तीका अपूर्वसमारोह- मेरा शैशव भी ऐसा था (कविता)
(पं० परमानन्द शास्त्री कि.१ टा. पृ.३ [श्रीविजयकुमार चौधरी' द्वासप्तति तीर्थ करजयमाल (ब्र. महेशो
मेरे मनुष्यजन्मका फल[पं० दरबारीलाल 'कोठिया' १६४ ला० जुगलकिशोर कागजी नवपदार्थ निश्चय (वादीभसिंह)
मैं क्या हूँ-[पं० दरबारीलाल ‘सत्यभक्त' [श्री पं० दरबारीलाल 'कोठिया' १४७ मोहनजोदड़ोकी कला और जैन संस्कृतिपतित-पावन जैनधर्म
श्री बा० जयभगवान एडवोकेट [क्षु० गणेशप्रसाद वर्णी ३४३ मौर्य साम्राज्यका संक्षिप्त इतिहासपछो नीड किधर है तेरा ? (कविता)
[श्री बालचन्द्र जैन M A. [विजय कुमार चौधरी
२६० ज्यशोधरचरितके कतो पद्मनाभ कायस्थप. दौलतरामजी और उनकी रचनाएँ
- [पं० परमानन्द शास्त्री [पं० परमानन्द शास्त्री १ युक्तिका परिग्रहपं० सदासुखदासजी-[पं० परमानन्द शाम्त्री २६६ [श्रीवासुदेवशरण अग्रवाल बाँडे रूपचन्द और उनका साहित्य-
राष्ट्रकूट गोविन्द तृतीयका शासन-कालपिं० परमानन्द शास्त्री
७५
श्री एम. गोविन्द पै पुरातन जैन शिल्प-कलाका संक्षिप्त परिचय- वडली-स्तम्भ-खण्ड-लेखश्री बालचन्द्र जैन M. A.
388 [श्री बालचन्द्र जैन MA, पज्य वर्णीका पत्र-[पं० परमानन्द ३४८ वर्णीजी और उनकी जयन्तीप्रकाश- [ला०जगलकिशोर कागजी ३२३ [पं० दरबारीलाल 'कोठिया' प्रमेयरत्नमालाका पुरातन टिप्पण ४२६ वर्णी-वाप (कविता)-सौ० चमेली देवी ११६ ब्रह्मचर्य (प्रवचन)-क्षक गणेशप्रसाद वर्णी २२० विद्यानन्द-प्रशस्ति-[सम्पादक
१६६ भगवान महावीर-[डा० गोपीचन्द्र भागव ३४७ वीर-वन्दना (कविता)- युगवीर भगवान महावीर, जैनधर्म और भारत
वीरशासन-जयन्ती-[ला०जिनेश्वरप्रसाद जैन ३४ [श्री 'लोकपाल' ____२६ शम्भ-स्तोत्र (मुनिरत्न कोति)-[सम्पादक ३११ भद्रवाहुनिमित्तशास्त्र- [वैद्य जवाहरलाल शान्ति जिन-स्तवन (मुनि पद्मनन्दी)२३५, २११ ३३५, ,४१३
[सम्पादक
२४७ भारतीय जनतन्त्रकी स्थापना
शौचधर्म (प्रवचन)-श्री गणेशप्रसादवर्णी ८३ [श्री विजय कुमार 'चौधरी' २८६ श्रीअगरचन्द नाहटाके लेखपर नोट
[पं० परमानन्द शास्त्री ३५१ मथुरा-संग्रहालयकी तीर्थकर-मति
[श्री कृष्णदत्त वाजपेयी २६१ श्रीपाश्वनाथाष्टक (राजसेन)-[सम्पादक २ मन्दालसा-स्तोत्र (शुभचन्द्र)-[सम्पादक ३८५ श्रीवीर-स्तवन (अमरकीर्ति)-[सम्पादक १ महाकवि रइधू-[पं परमानन्द शास्त्री ३७७ सच्ची भावनाका फल (प्रवचन)मलमें भूल-[बा० अनन्तप्रसाद जैन B. Sc. ४२१ [श्र तु० गणेशप्रसादवर्णी २५४
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[ ४ ] समझका फेर -[पं० फूलचन्द सिशास्त्री २५६ संजद पदका बहिष्कारसम्पादकीय ४०, २२८, ४५७
[डा० हीरालाल जैन ३४१, ३६० सम्राट अशोकके शिलालेखोंकी अमरवाणी- संजद शब्द का निष्कासन
[श्री निन्द ... ३०८ [पं० परमानन्द शास्त्रो साहित्य-परिचय और समालोचन-३८,८०,१२०, संयम (प्रवचन)- ० गणेशप्रसाद वर्णी १५७
१६३,२३०, ३१० हरिजन-मन्दिर-प्रवेशके सम्बन्धमें मेरा साधु-महिमा-[स्व० कवि द्यानत राय
स्पष्टीकरण-[१० गणेशप्रसाद वर्णी ३५५ सिद्धिसेन-दृष्टि प्रबोध-द्वात्रिंशिका
___हषेकीर्तिरि और उनके ग्रन्थश्रीसिद्धसेनाचार्य-कृत
२००
श्रीअगरचन्द्र नाहटा । ४०७ सोनागिरिकी वर्तमान भट्टारक-गहीका
हिन्दी जनसाहित्यके कछ अज्ञात कविइतिहास-[श्री बालचन्दजैन M.A.३६१ वा० ज्योतीप्रसाद जैन M A. ३७२ /सोलहवीं शताब्दीके दो अपभ्रश काव्य
कोड बिल[पं० परमानन्द शास्त्री १६० [बा० माई दयाल जैन B.A. २६३
अनेकान्त की फाइलें अनेकान्तकी १० वर्षकी फाइलों में से प्रथम तीन वर्षकी फाइलें तो समाप्त हो चुकी हैं । शेष वर्षोंकी फाइलोंमेंसे कुछ फाइलें अवशिष्ट हैं, जिनका मूल्य फाइल क्रमसे नीचे दिया जाता है । जिन सज्जनोंको इनमेंसे किसी भी फाइलकी आवश्यकता हो उन्हें उसको शीघ्र ही मॅगा लेना चाहिये, फिर ये फाइल भी अप्राप्य हो जाएँगो । अनेकान्तकी इन फाइलोंमें कैसे कैसे महत्व के खोज पूर्ण और बार बार पढ़ने तथा अनन्धानानादि कार्यों के लिए उपयोगमें लाने योग्य लेख प्रकाशित हुए है उसे बतन्नानेकी जरूरत नहीं है.विज्ञ तथा सहदय पाठक उनसे भले प्रकार परिचित है:फाइन और
मल्य चतुर्थ वर्षकी फाइल
४)
पाँचवें छठे
, ,
" "
सातवें पाठवें
नववें
दसवें , " पोष्टज खर्च मल्यसे अलग होगा।
व्यवस्थाक 'अनेकान्त'
सरसावा जि० सहारनपुर नोट-फाइलोंके अतिरिक्त कुछ फुटकर किरणभी अभी मिलती हैं, जिनमें प्रथम तीन वर्ष की भी कुछ किरणें शामिल हैं। प्रत्येक किरणका मूल्य जो उसपर दर्ज है वही लिया जायगा।
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वीरसेवामन्दिरको प्राप्त सहायता अनेकान्तको प्राप्त सहायता
गत हवी किरण में प्रकाशित सहायताके बाद वीरसेवामन्दिरको जो महायता प्राप्त हुई है वह
गत छठी किरणमें प्रकाशित सहायताके बाद क्रमशः निम्र प्रकार है और उसके लिये दातार महा
'अनेकान्त' पत्रको जो सहायता प्राप्त हुई है वह
क्रमशः निम्न प्रकार है और उसके लिये दातार नुभाव धन्यवाद के पात्र है:११) ना० अरहदासजी जैन, सहारनपुर (पा महानभाव धन्यवादके पात्र हैं:
चि. देवकुमारके विवाहोपलक्षमें) १) ला० मुन्नालालजी जगाधरी बा. विश्वम्भरदास ५) बा० जिनवरप्रसाद वकील व बा० अनन्त- जी खतौली (चि०मलता और चि०महेशचन्द्र
प्रसादजैन B.Sc Eng. पटना (पिता श्री के विवाहोपलक्षमें)। ला.श्यामलालजीके देहावसानके अवसर
३) बा. मंगतराय और ला० गैदनलाल जी जैन पर निकाले हुए दानमेंसे)।
बुलन्दशहर (पोती और पुत्र के विवाहोयलक्षमें) ११) ला. ज्ञानचन्दजी जैन खिन्दुका, जय. पुर (पिता श्री सेठ रामचन्दजी खिन्दुका
मार्फत आजाद टूडिंग कम्पनी, बुलन्द शहर, क स्वर्गवासके अवसर पर निकाले हुए
५) बा. जिनवरप्रसाद वकील व बा. अनन्तदानमें से)।
प्रसाद जैन B.Sc.Eng. (पिताश्रीके २७)
देहावसान पर निकाले हुए दानमेंसे)। 'अधिष्ठाता वीरसेवामन्दिर
४)ला. रिखवदास गंका रामनगर, वधो जयपुरमें शोक-सभा
(बहन सूरजमुखीके विवाहोपलक्षमें)। तारीख १४ जोलाई १९५० को सायंकाल | बजे ११) ला. ज्ञानचन्दजी खिन्दुका, जयपुर (पिता जयपुर जैन समाजके प्रमुख सेवक श्री सेठरामचन्द्र
श्री सेठ रामचन्दजी खिन्दकाके स्वर्गवासके जी खिन्दुका, मन्त्री श्रीदिगंबर जैन अतिशय
अवसर पर निकाले हुए दानमेंसे)। क्षेत्र श्री महावीरजीके आकस्मिक निधन पर बडे
रक्षा) दीवानजीके मन्दिरमें एक शाक-मभाका प्रायोजन किया गया । सभाके सभापति श्रीमान श्रद्धय
व्यवस्थापक 'अनेकान्त' पं० चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ, अध्यक्ष श्रीदिगम्बर जैन संस्कृत कालेज थे । शोकाकुल स्त्री-पुरुषांसे लालजी छावडा वकील आदि उल्लेखनीय है। अन्नमन्दिर खचाखच भरा हुआ था। श्रीखिन्दुकाजीके
में सभापति महोदयने श्री खिन्दुकाजीके जीवन जीवन पर प्रकाश डालने वाले वक्ताथमि श्रीकनेल की विविध प्रवृत्तियों पर विस्तृत प्रकाश डाला और राजमलजी कासलीवाल, डी० एम० एप्त० राजस्थान, कहा कि ये हरफनमौला और हरदिल अज़ीन थे। मालीलाज जी कासलीवाल दीवान, मु०सूर्यनारायण शोक-प्रस्ताव पास करनेके पश्चात् सबने खड़े हो जी सेठी वकील, पं. भंवरलाल जी न्यायतीथे कर दिवंगत आत्माको श्रद्धांजलि अर्पित की। श्रीरूपचन्द जी सौगाणी, मास्टर माणिकचन्दजी एम० ए० बी०टी०, केवल चन्दजो ठोलिया, ___कस्तूरचन्द कासलीवाल एम० ए० श्री अनूपचन्द जी न्यायतीर्थ साहित्यरल, गैन्दी
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Regd. No: D, 397
स्वाध्याय और शानदानका शुभयोग
मादा भाम लिये मूल्यम मार्ग रियायत
श्रीबीरशासनजयन्ती और दशलवणपर्वकै उपलपमें पीरसेवामन्दिरने सर्वसाधारणको स्वाध्याय और शास्त्रदानका उत्तम अवसर प्रदान करनेके लिये अपने द्वारा प्रकाशित निम्न प्रन्योंका मूल्य भादों मासके लिये पौना कर दिया है। जो सज्जन इन सब प्रन्योंका पूरा सेट एक साथ खरीदना चाहेंगे उनके लिये और भी रियायवकी गई है. उन्हें १५) ० के ये सब अन्य १०) १० में ही दे दिये जाएंगे। प्रतः स्वाध्याय-प्रेमियों और शास्त्रदानके हकोंको इस शुभयोगसे शीघ्र ही लाभ उठाना चाहिये, और प्रचारादिके लिये अधिक संख्यामें ग्रन्थ मंगाकर संस्थाको दूसरे। उत्तम प्रन्योंके प्रकाशनका अवसर देना चाहिये:..आप्तपरीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्यको अपूर्व कृति, स्वोपशटीका, हिन्दीअनुवाद, प्रस्तावनादिसहित सजिल्द ) ..स्तुदिविद्या-स्वामी समन्तमद्रकी अनोखी कृति, पापोंको जोतनेकी कला, सटीक, सानुवाद और
श्री जुगलकिशोर मुख्तारकी महत्वको प्रस्तावनासे भलकृत, सुन्दर जिल्द-सहित । । अध्यात्म कमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लको सुन्दर रचना, हिन्दी अनुवादसहित प्रोस
मुख्तार श्री जुगलकिशोरकी विस्तृत प्रस्तावमासे भूषित । ५. स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारतीका अपूर्व प्रन्थ मुख्तारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद, छन्द-परिचय
और महत्वको प्रस्तावनासे सुशोभित । १. श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्रा०धियानन्दरचित, हिन्दी अनुवादादिसहित । ६. शासनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकोतिको सुन्दर रचना, हिन्दी अनुवादादिसहित सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ-श्रीवीरवर्द्धमान और उनके बादके २१ महान चाचार्यों के १३७ पुण्य
स्मरणोंका महत्वपूर्ण संग्रह, मुख्नारश्रीके हिन्दी अनुवादादि सहित । विवाह-समुद्दश्य- मुख्तारभीका लिखा हुआ विवाहका सप्रमाण मार्मिक और तात्विक विवेचन | अनेकान्त-रस-बहरी-अनेकान्त जैसे गूढ-गंभीर-विषयको अतोष सरखतासे समझने-समझानेको कुम्जी,
मुख्तारधी जुगलकिशोर-लिखित । .. अनित्य-भावना - श्रापभनन्दी प्राचार्यको महत्वकी रचना, मुख्तारश्रीके हिन्दी पणानुवाद और भावार्थसहित)। 1. तत्त्वार्थसूत्र (पभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्रीके हिन्दी अनुवाद तथा ग्यख्यासे युक्त ।
ग्याप३. बाग्मेवामन्दिा प्रमाला
नोट-स्वयम्भूस्तोत्रको छोड़कर, जिसको प्रस्तावना छपनो अभी बाकी है, और सब प्रन्थ तय्यार हैं। सेटके खरीददारोंको स्वयम्भूस्तोत्र बाउको भेजा जायगा । जो उसे न लेना चाहें ये सेटके अन्य सब प्रन्थ ) में ले सकेंगे।
प्रकाशक-परमानन्द जैन शास्त्री, वीरसेवा मन्दिर ७/३३ दरियागंज देहली, मुद्रक-अजितकुमार जैन शास्त्री,
अकलक प्रेम, सदरबाजार, देहली।
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