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________________ २१२ अनेकान्त विर्ष १० - - - - - सात प्रकारके प्रश्न होसकते हैं अत: उनके उत्तर भी सप्तभङ्गीन्यायको बालकी खाल निकालनेके भी सात प्रकारके ही होते हैं। समान आवश्यकतासे अधिक बारीकीमें जाना सम___ दर्शनदिग्दर्शनमें श्रीराहुलजीने पाँचवें, छठवें झते हैं। पर सप्तभङ्गीको आजसे अढाई हजार वर्ष और सातवें भंगको जिस भ्रष्ट तरीकेसे तोड़ा मरोहा पहले के वातावरणमें देखनेपर वे स्वयं उसे समयकी है यह उनकी अपनी निरी कल्पना और अतिसा- मांग कहे बिना नहीं रह सकते। अढाई हजार वर्ष हस है। जब वे दर्शनोंको व्यापक. नई और वैज्ञा- पहले आबालगोपाल प्रत्येक प्रश्नको सहज तरीकसे निक दृष्टि से देखना चाहते हैं तो किसी भी दशनकी 'सत् असत् उभय और अनुभय' इन चार कोटियोंसमीक्षा उसके स्वरूपको ठीक समझ कर ही करनी में गूंथकर ही उपस्थित करते थे और उस समयके चाहिए। वे प्रवक्तव्य नामक धर्मको, जो कि सत्के भारतीय आचार्य उत्तर भी चतुष्कोटिका हो, हाँ या साथ स्वतंत्रभावसे द्विसंयोगी हुपा है, तोड़कर ना में देते थे तब जैन तीर्थकर महावीरने मल तीन श्रवक्तव्य करके संजयके 'नहीं' के साथ मेल बैठा भंगोके गणितके नियमानुसार अधिक-से-अधिक सात प्रश्न बनाकर उनका समाधान सप्तभनीद्वारा देते हैं और संजयके घोर अनिश्चयवादको हो अनेकान्तवाद कह देते है ! 'किमाश्चर्यमतः परम्' ? किया जो निश्चितरूपसे वस्तकी सीमाके भीतर ही रही है। अनेकान्तवादने जगतके वास्तविक अनेक श्रीसम्पूर्णानन्दजी 'जैनधर्म' पुस्तककी प्रस्तावना सत्का अपलाप नहीं किया और न वह केवल (पृ० ३) में अनेकान्तवादकी ग्राह्यता स्वीकार करके कल्पनाके क्षेत्रमें विचरा है। जैन कथा-प्रथोंमे महावीरके बालजीवनकी एक मेरा उन दार्शनिकोंसे निवेदन है कि भारतीयघटनाका वर्णन भाता है कि 'संजय और विजय नामके दो परम्परामें जो सत्यकी धारा है उसे दर्शनग्रन्थ लिखत साधुओंका सशय महावीरको देखते ही नष्ट हो गया था, समय भी कायम रखें और समीक्षाका स्तम्भ तो इस लिये इनका नाम सन्मति रक्खा गया था। संभव है बहुत सावधानी और उत्तरदायित्वके साथ लिखयह संजय-विजय संजय वेलठिपुत्त ही हों और इसीके नेकी कृपा करें जिससे दर्शन केवल विवाद और संशय या अनिश्चयका नाश महावीरके सप्तभंगीन्यायसे भ्रान्त परम्पराओंका अजायबघर न बने । वह जीवहुना हो और वेलटिपुत्त विशेषण ही भ्रष्ट होकर विजय नमें संवाद लावे और दर्शनप्रणेताओंको समुचित नामका दूसरा साधु बन गया हो। न्याय दे सके।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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