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________________ प्राप्तपरीक्षाका प्राक्कथन (ले०-विद्वद्वर्य पं० कैलाशचन्द्रजी, शास्त्री) [वीरसेवामन्दिरसे जो हालमें 'प्राप्तपरोक्षा' का मया संस्करण प्रकाशित हुआ है उसी में विद्वान् लेखकने अपना यह विचारपूर्ण 'प्राक्कथन' लिखा है। यह प्राक्कथन तत्व-जिज्ञासुओं और इतिहास-प्रेमियों के लिए खास तौरसे पढ़ने योग्य है। इसमें संक्षेपमें कई उसके विषयोंपर अच्छा और समाधानकारक प्रकाश डाला गया है। हम अपने 'अनेकान्त' के प्रेमी पाठकोंक लिए भी उसे यहाँसे उद्धृत करके यहाँ दे रहे हैं। -सम्पादक] आपका अर्थ है-प्रामाणिक, सञ्चा, कभी धोखा अग्नि आदि देवताओंके स्थानमें ब्रह्माकी प्रतिष्ठा न देनेवाला, जो प्रामाणिक है, सच्चा है वही प्राप्त हुई । माण्डूक्य उपनिषदें लिखा है कि 'दो प्रकारहै। उमीका सब विश्वास करते है । लोकमें ऐसे की विद्याएँ अवश्य जाननी चाहिये-एक उच्च विद्या प्राप्त पुरुष सदा सर्वत्र पाये जाते है जो किसी एक और दूसरी नीची विद्या । नोची विद्या वह है जो खास विषयमें प्रामाणिक माने जाते है या व्यक्ति- वेदोंसे प्राप्त होती है और उच्च विद्या वह है जिससे विशेष, समाजविशेष और देशविशेषके प्रति प्रामा- अविनाशी ब्रह्म मिलता है। इस तरह जब वेदोंसे णिक होते हैं । किन्तु सब विषयों में खासकर उन वि. प्राप्त ज्ञानको नीचा माना जाने लगा और जिससे षयोंमें, जो हमारी इन्द्रियोंके अगोचर है, सदा मबक अविनाशी ब्रह्मकी प्राप्ति हो उसे उच्च विद्या माना प्रति जो प्रामाणिक हो ऐसा आप्त-व्यक्ति प्रथम तो होना जाने लगा तो उस उच्च विद्याको खोज होना स्वाही दुर्लभ है। और यदि वह हो भी तो उसको प्राप्तता- भाविक ही था । इसी प्रयत्नके फलस्वरूप उत्तरकाल की जांच करके उसे प्राप्त मान लेना कठिन है। में अनेक वैदिक दर्शनोंकी सृष्टि हुई, जो परस्परमें प्रस्तुत ग्रन्थके द्वारा प्राचार्य विद्यानन्दने उसी विरोधी मान्यताएँ रखते हुए भी वेदके प्रामाण्यको कठिन कार्यको सुगम करनेका सफल प्रयास स्वीकार करनेके कारण वैदिक दर्शन कहलाये।। किया है। सर्वज्ञताको लेकर श्रेणी-विभाग-वैदिक परवेदिक दर्शनोंकी उत्पत्ति-प्राचीनकालसे ही म्पराके अनुयायी दर्शनोंमे सर्वज्ञताको लेकर दो पक्ष भारतवर्ष दो विभिन्न संस्कृतियोंका संघर्षस्थल रहा है। मीमांसक किमी सर्वज्ञकी सत्ताको स्वीकार नहीं है। जिस समय वैदिक आर्य सप्तसिंधु देशमें निवास करता, शेष वैदिक दर्शन स्वीकार करते है। करते थे और उन्हें गंगा-यमुना और उनके पूर्वके किन्तु श्रमण-परम्पराके अनुयायी सांख्य, बौद्ध और देशोंका पता तक नहीं था तब भी यहाँ श्रमण संस्कृति जैन सवेज्ञताको स्वीकार करते हैं। इसी तरह श्रमण फैली हुई थी, जिसके संस्थापक भगवान ऋषभदेव परम्पराक अनयायी तीनों दर्शन अनीश्वरवादी हैं, थे । जब वैदिक आर्य पूरवकी ओर बढ़े तो उनका किन्तु वैदिक दर्शनोंमें मीमांसकके सिवा शेष सब श्रमणोंके साथ संघर्ष हश्रा । उसके फलस्वरूप ही ईश्वरवादी हैं। ईश्वरवादी ईश्वरको जगतकी उत्प. उपनिषदोंकी मृष्टि हुई और याज्ञिक क्रियाकाण्डका त्तिमें निमित्तकारण मानते हैं और चूंकि ईश्वर स्थान आत्मविद्यान लिया । तथा इन्द्र, वरुण, सूर्य, जगतकी रचना करता है इस लिये उसे समस्त
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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