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अनेकान्त
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परिभाषा की जाये कि — जो स्वयं धनवाले है तथा जिन्होंने धनवालोंके साथ सम्बन्ध किया है उनकी सन्तानको धनिक कहते हैं। इसे यूं कहा जाये सन्तान क्रमसे चले आये हुए धनको धनिक कहते हैं। इन दोनों वाक्यों में जितना अन्तर है उतना ही अन्तर उक्त दोनों लक्षणों में भी है। हां, यदि धवलाकारको मात्र व्यक्तिगत आचरण अभीष्ट होता और सन्तानका अर्थ कुल वंश वगैरह न करके पं० जाको अभीष्ट परम्परा अर्थ किया होता तो नेमिचन्द्राचार्यके लक्षणपर पं० जीकी आपत्ति तथा कल्पना उचित कही जा सकती थी । किन्त वीरसेन स्वामीको यह अभीष्ट नहीं है, जैसा कि ऊपर बतलाया है । सन्तान शब्दका अर्थ
सन्तान और परम्परामें बहुत अन्तर है । सन्तान उन्हीं की परम्पराको कहते है जिनमें कार्यकारणभाव होता है जैसे, बीज-वृक्षको सन्तान । अकलंकदेवने भी अष्टशती में सन्तानका यही लक्षण किया । यथा 'पूर्वापरकालभाविनोपि हेतुफलव्यपदेशभाजो रतिशयात्मनोरन्वयः सन्तानः । अर्थात् पूर्वापरकालभावी होते हुए भी जिनमें कार्यकारणभाव है उनकी परम्पराको सन्तान कहते हैं । किंतु परम्परा तो पूर्वापरकालभावी उन वस्तु
की भी होती है जिनमें कार्य कारणभाव नहीं है । पिता-पुत्र पूर्वापरकालभावी तो हैं हो किन्तु
में कार्यकारणभाव भी है। अतः उनकी परम्परा सन्तान कहलाती है। किन्तु कालक्रमसे होने वाले विभिन्न सन्तानी सदाचारी पुरुषोंके प्रवाहको परम्परा कहते हैं । अतः सन्तानका अर्थ मात्र परम्परा कग्ना भी ठीक नहीं है । सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थसूत्रकी श्राद्य टीका है । तत्त्वार्थसूत्र के छठे अध्यायमें प्रत्येक कर्मके आस्रव के कारण बतलाते हुए केवली. श्रुत, संघ, धर्म और देवोंके अवर्णवादको दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रवका कारण बतलाया है । सर्वार्थसिद्धि में प्रत्येक का अवर्णवाद उदाहरण देकर बतलाया है । संघका अवर्णवाद बतलाते हुए लिखा है'शुद्रत्वा शुचित्वायाविर्भावना संघावर्णवादः ।' इसका व्याख्यान राजवार्तिकमें अकलंकदेवने
[ वर्ष १०
इस प्रकार किया है—'ये श्रमण शूद्र है, स्नान न करने से इनका अंग मैलसे भरा है, ये गंदे हैं, निर्लज्ज दिगम्बर है। जब यहीं दुःख भोगते हैं तो परलोक में ये कैसे सुखी हो सकते हैं, इत्यादि कथन संघका अववाद है ।"
पं० फूलचन्दजी यह मानकर भी कि 'जो दोष जिसमें नहीं है उसका उसमें उद्भावन करना अववाद है' यह फलितार्थ निकालते हैं कि 'जैन मंघमें जो गृहस्थ अवस्था में शूद्र थे ऐसे मुनि भी पाये जाते थे तभी तो दूसरे लोग उन्हें उपहासमे शूद्र कहते होंगे।' जैन मुनियों को दूसरे लोग क्यों शूद्र कहते होंगे ये कलकदेव के वर्णनसे ही पता चल जाता है। जैनमुनि स्नान नहीं करते, उनका बदन मैला कुचैला रहता था, नंगे डोलते थे, बाह्य शुद्धिका मा महत्त्व उनकी दृष्टि में नहीं था जैसा दूसरे लोगों की दृष्टिमें था । अतः उन्हें शूद्र कहा जाता था । न कि शुद्रोंके मुनिपद ग्रहण करनेके कारण । यदि ऐसा माना जायेगा तो अन्य अवर्णवादों में भी अनुपपत्ति खड़ी हो जायेगी । उदाहरणकं लिये, मधु-मांस वगैरह का सेवन निर्दोष है इत्यादि कथनको श्रुतका अवर्णवाद बतलाया है तो इसपरसे आजके कोई युगका मांसप्रेमी यह भी निष्कर्ष निकाल सकेगा कि पहले श्रुतमें इन्हें निर्दोष बतलाया था तभी तो लोग ऐसा कहते थे | बादको समयके प्रभावके कारण इन चीजों को सदोष बतला दिया ।
किसी अंश में यह ठीक हो सकता है कि किन्हीं ग्रन्थकारों या टीकाकारोंपर समयका प्रभाव पड़ा हो, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे सामने है। किन्तु सभीको उस किश्तीमे सवार नहीं माना जासकता ।
पं० जी जैनसमाजके प्रसिद्ध टीकाकार हैं, श्राज भी वे सिद्धान्तमंथों की टीका कर रहे है और सर्वार्थसिद्धिकी उनकी टीका वर्गीप्रन्थमालासे छप रही है। यदि उनमें भी पं० जीने अपने इन नवीन मन्तव्योंको इसी प्रकार भरा होगा तो उससे जैनसिद्धाभ्तके मन्तव्योंको क्षति पहुँच सकती है, तथा व्यर्थका वितण्डावाद खड़ा हो सकता है इसी भावनासे यह लेख लिखा गया है ।