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सम्पादकीय १ सेठ रामचन्द्रजी खिन्दुकाका वियोग- कारोबारके लिए दे दी जावेगी। अतः अन्यत्रका
विचार न रख कर महावीरजीका ही विचार रक्खा जयपुरके प्रसिद्ध समाज-सेवी सेठ रामचन्द्रजी
जावे तो अति उत्तम हो।' इसके बाद वे जयपुर में खिन्दुका मंत्री श्रीदिगम्बर जैन अतिशयक्षेत्र महा
कई वार मिले और गत फवरी मासमें वेदी प्रतिष्ठाके वीरजी, आज इस संसारमें नहीं है, उनका गत १३
अवसर पर श्रीमहावीरजी क्षेत्रमें चार दिन तक तो जलाईको आकस्मिक देहावसान हो गया है ! आ. उनके पास ही ठहरनेका अवसर मिला। अन्तिम कस्मिकका प्रथे किसी रेलवे, मोटर या हवाई
मिलना उनसे ता०१४ मईको हुआ था, जबकि उन्होंने विमानादिकी दुर्घटना से नहीं, बल्कि हृदयगतिक श्रीमहावीरजी और वीरसेवामन्दिर-सम्बन्धी मेरे रुकनेस है-आप जयपुर में हँसी-खुशी शामका
एक पत्रपर विचार करने के लिए मुझे जयपुर बुलाया भोजन करके मित्रों के साथ आनन्दपूर्वक बातचीत
था। इन सब अवसरोंपर उनसे मिलकर मुझे बड़ी कर रहे थे कि इस बीचमे आपका जी कुछ मच
प्रसन्नता हुई और उनकी सादगी, निरभिमानता लाया, उसी समय डाक्टरको बुलाया गया, डाक्टर
तथा कार्यकुशलता आदि कितने ही गुणोंका अच्छा ने रक्त चाप देखने के लिए यत्र लगाया ही था कि
परिचय मिला। साथ हो यह भावना उत्पन्न हुई कि इतनेमें ही आपका प्राण-पखेरू उड़ गया ! और
वीरसेवामन्दिरको यदि इन जैसे मंत्रीका सहयोग सब देखतेके देखते स्तब्धसे रह गये !! किसीकी
प्राप्त हो तो वह बहुत कुछ उन्नत हो सकता है। कुछ भी नहीं चली !! पहाड़सा हृष्ट-पुष्ट सुन्दर और
अतः उक्त दुःसमाचारको पाकर हृदयको एक नीरोग शरीर एक दम धरा-शायी हो गया !!! इससे
दम धक्का लगा और कुछ शोक उमड़ने लगा। उसो अधिक ससार की नश्वरता, क्षणभंगुरता और
समय चेत हुबा, 'इष्टवियोग-अनिष्टयोगमें सहनप्राणियोंकी बेबसीका और क्या प्रमाण हो सकता है?
॥६१ शीलता रखने की बात याद आई और श्रीपानन्दी खिन्दकाजोसे पत्रादि-द्वारा परोपक्षरिचयतो मेरा आचार्यका यह वाक्य सामने श्रा उपस्थित हमाकुछ पहलेसे था, परन्तु साक्षात् परिचय उनका गत यो नाऽत्र गोचरे मृत्योर्गतो याति न यास्यति । दिसम्बरमासके अन्तिम सप्ताहमें प्रथमवार उससमय स हि शोक मृते कुवेन शोभते नेतरो जनः ।। हा था जबकि मैं बा० छाटेलालजी कलकत्ता वालों- जो मृत्युके गोचर कभी हुआ नहीं है नहीं और के पास जयपुर गया हुआ था और वे उनसे तथा होगा नहीं, वही किसीके मरनेपर शोक करता हया मुझसे मिलनेके लिए सेठ वधीच'दजी सहित पधारे शोभाको प्राप्त होता है, अन्य कोई भी मनुष्य शोक थे और उन्होंने यह मालूम करके कि वीर-सेवा- करके शोभाको नहीं पा सकता। मंदिरको सरसावासे देहली या राजगृही भादि ले हम बहुतसे प्रणियोंको अपने सामने मरते जानेका विचार चल रहा है, बड़ी नम्रता प्रसन्नता हुए देखते हैं और असंख्य प्राणियोंकी मरणवार्ता
और उदारताके साथ यह प्रस्ताव रखा था कि को सुनते रहते हैं, फिर भी अपनेको अमर नही तो 'वीरसेवामन्दिरको यदि महावीरजी क्षेत्रपर स्थिर जरूर समझते हैं, और यह नहीं सोचते कि लाया जावे तो क्षेत्रकी ओरसे उसे एक हजार रु. हम निरनर कालके गालमें चले जा रहे हैं, प्राय मासिककी सहायता दी जा सकेगी और सेठ बधी- कायका कोई भरोसा नहीं, कल को हमारी भी यही चन्दजी-वाली धर्मशाला उसके निवास स्थान और गति होसकती है। यहसब मोह है और यहीं सबभूले