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किरण २]
मैं क्या हूँ?
सिर्फ मनमें ही हो, पर जो मनमें होता है उसीके तभी उसकी अोटमें दूसरे लोग उसकी दुकानदारी अनुसार तोमानव जीवनका निर्माण होता है। बाहरी चलाते है और वंचनाका खेल दिखाते हैं, मूलमें ही वस्तु तो मनमें श्रानेके लिये निमित्तमात्र है। बाहरी दूकानदारी नहीं होती। वस्तुळे बिना भी अगर कोई बात मनमें बस जाय तो
यद्यपि मनोवैज्ञानिक तत्त्वोंसे भी सारी समस्या जीवन निर्माण उसीके आधारसे होने लगता है। सुलझ नहीं गई, फिर भी फीसदी दस बीस आदमियों ... एक आदमी सोचता है कि जगतमें तीन ही तत्व
ने फायदा जरूर उठाया, और पूरा फायदा नहीं हैं--परमाणु, क्षेत्र और नियम । नियममें गुरुत्वाकर्षण,
__ तो चतुर्थाश अष्टमांश फायदा जरूर उठाया। हम रसायनाकर्षण, स्नेहाकर्षण आदि बहुतसे नियम है
इनकी तसल्ली, इनका सहारा क्यों छीने ? खासकर पर ऐसा कोई नियम नहीं है कि यदि मैं अपनी
उस हालतमें जब कि हम इन्हें बुद्धिवादी सहारा दे चतुराईसे दूसरोंको ठग लू, किसी तरह समाजकी
नहीं पाते हैं। आंखों में धूल झोंककर दूसरोंका हिस्सा हड़प जाऊं,
कहा जासकता है कि इनका काफी दुरुपयोग दूसरों की कम-से-कम पर्बाह कर अपना मतलब गांठ
होता है और काफी निष्फलता भी है। पर क्या लू तो वह नियम मुझे दंड दे या रोक सके । समाज
अनीश्वरवाद नैरात्म्यवादका दुरुपयोग न होगा ? और सरकारकी व्यवस्था जरूर है पर वे ऐसी नहीं
क्या इससे निरंकुशता उच्छंखलताका तांडव-नृत्य हैं जो मेरी गहरी चालोंको पकड़ सकें। अथवा उनका
न होगा ? क्या इस राह पर चलनेवाले सभी मार्क्स संचालन मेरे ही हाथमे आसकता है तब सत्ता
और बुद्ध बन जायँगे ? दुरुपयोग दोनोंका है इसके वंभव प्रचारके माधन हाथमे होनेसे मै ऐसी चाल
लिये दुरुपयोग रोकनेकी ही पूरी कोशिश करना चल सकता हूँ कि बद होकर भी बदनामीसे बचा रहूं,
चाहिये । दुरुपयोग हर-एक चीजका होता है पर स्वार्थी होकर भी परोपकारी कहलाऊँ, लूटकर भी
दुरुपयोगके डरसे उसके लाभको छोड़ा नहीं जा
सकता। नहीं तो आदमी आदमी न रहे। ईश्वरवादानी उदार कहलाऊँ । मुझे अपने मतलबसे मत
दका दुरुपयोग होता है इसलिये ईश्वरवाद छोड़िये, लब । दुनिया जहन्नुममें जाय मुझे क्या देना लेना।
अनीश्वरवादका दुरुपयोग होता है इसलिये अनीमैंने जो यह एक आदमीका चित्र खींचा है वह
श्वरवाद छोड़िये, फिर रखिये क्या ? आत्मवादकिसी आसाधारण दुर्जनका चित्र नहीं है, किन्तु प्रागै
का भी दुरुपयोग, अनात्मवादका भी दरुपयोग, इसतिहासिक कालसे लेकर आज तकके औसत आदमी
लिये दोनोंका त्याग, तब रहे क्या ? अगर दोनोंसे का चित्र है। तन मनकी शक्तिके असानुर प्रायः हर परे अनिर्वचनीयवाद, संशयवाद, शून्यवाद आदि एक आदमी इसी राहपर चलता रहा है। बुद्धि
निकाल जॉय तो उनका दुरुपयोग भी होगा इस. वादियोंके उक्त तीन तत्वोंसे उसकी चिकित्सा नहीं
लिये उनका भी त्याग किया जायगा तब जड़ बनने या होपाई है। उस चिकित्माके लिये ईश्वर आत्मा आदि पशु बननेके सिवाय श्रादमीको रास्ता ही न रहेगा। के मनोवैज्ञानिक तत्वोंकी खोज करना पड़ी है। जिस दिन ये खोजे गये उस दिन सिर्फ खोजनेवालोंने हां ! दुरुपयोग सदुपयोगका टोटल जरूर अपनी दूकानदारी खड़ी करनेके लिये नहीं खोजे, मिलाना चाहिये । दरुपयोग अधिक हो तो छोड़ मनुष्यकी चिकित्सा करनेके लिये खोजे। हां! पीछे- देना चाहिये। ईश्वरवाद आत्मवादका दरुपयोग से इनके नामपर दुकानदारी, और वंचना भी हुई। सदुपयोगसे कम ही है। और जो दुरुपयोग है वह चिकित्सा शास्त्र शुरूमें कुछ करामत दिखा देता है अनीश्वरवाद अनात्मवादमें भी कम नहीं है। इस
को