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________________ १८८ अनेकान्त [वर्ष १० - जैसे-जैसे इसका विकास जिस दिशामें होता जाता पड़ती है कि अव्यवस्थित वर्गणाओंको एक व्यवस्था है एवं इसकी योग्यता बढ़तो जाती है, श्रात्माकी में लावें और उनमें तारतम्यता उपस्थित करेंशक्तियोंका विकास एवं अभ्युदय भी उतना-उतना जितनी-जितनी यह व्यवस्था या सुचारु संगउस-उस दिशामें होता जाता है। हम सतत प्रयत्न, ठन होता जायगा उतना-उतना हमारी शक्ति अभ्यास या एकाग्र चेष्टाओं द्वारा इस शरीर एवं हमारा ज्ञान और कार्यक्षमता हर तरहकी मानसिक, अपनी इन्द्रियों को इस योग्य जब बना लेते है कि शारीरिक, आध्यात्मिक आदिका विकास और अभ्य. आत्माकी विकसित शक्तियोंका बोझ या भार वहन दय दीख पड़ेगा। मनुष्यजीवन भी सीमित कुछ करने में वे समर्थ हो सके तो वे शक्तियां स्वयं विक- वर्षों का ही है-नहीं तो यही यदि अनंत रहता तो सित होकर कार्यशील होती हुई दृष्टिगोचर होती एक जन्म या एक पर्याय या एक योनिमें ही सब कुछ हैं। जैसी बात शारीरिक शक्तियोंके साथ या उनके अनन्त शक्तियां इसे उपलब्ध हो जाती। ये शक्तियां विकास और अभ्युदयमें है, वही बात मानसिक या संयत जीवन व्यतीत करने पर एक जन्म या एक पर्याय दूसरी शक्तियोंके विकास या अभ्युदयमें भी है। मे दूसरे पर्यायमे बढ़ती जाती हैं। असंयम होनेसे हम अपनी धारणा एवं एकाग्र मनोबल द्वारा ध्यान भी इनकी आपसमें टक्कर होकर विनाश या हास पूर्वक कहीं दूर स्थित अमेरिकाके किसी परिचित हो जाता है। एक मामूली लोहे और चुम्बक लोहेमें व्यक्ति तक अपने मनकी बातें मात्र वर्गणाओं फर्क इतना ही है कि चुम्बक लोहेके अन्दरकी वर्गके निकलनेवाली क्रियाओं में तारतम्यता लाकर णाओं में एक मिसिला या तारतम्यता या संगठन चा सकते हैं अथवा जिधर या जिसका ध्यान रखता है. जबकि साधारण लोहेके अन्दरकी वर्गणाओं हम करते हैं उधर या उस तक वे अपने आप पहुँच में नहीं होनेसे उनकी शनियां आपसमें हो टकराकर जाती है। ऐसा प्रायः देखा जाता है कि दो निकट एक दसरको बेकार (Deutralise) कर देती है । पर सम्बन्धी बहत दर देशोंमें स्थित एक साथ एक समयमें ही एक दूसरेके बारेमें एक ही किस्मकी बातें जब वही चुम्बक द्वारा एक ही दिशाकी तरफ फेर दी सोचते हैं। यह इतनी दूरी तक कार्यशील शक्ति जाती है तो उस माधारण लोहेमें भी चम्बककी शक्ति हमारे आत्माकी अपनी शक्ति है, पर वह कार्य " दृष्टिगोचर होने लगती है । ऐसा नहीं कि यह आकशील या गतिशील केवल वर्गणाओं या पुद्गल पण और प्रत्याकर्षणको चुम्बकीय शक्ति उस लोहमें द्वारा हो होतो या दृष्टिगोचर होती हैं। आधुनिक कहीं बाहरसे आ जाती हो, यह तो उसकी वर्गणाओं विद्य त या विजलीमें अपार शक्तियां हैं, पर जब में हर समय निहित रहती है पर अव्यवस्था या उस कार्य के योग्य शक्तिशाली यन्त्र होता है तभी बेतरतीबी होनेस बेकार हुई रहती है । जब वही व्यवह कार्य करनेकी क्षमता रखती हुई या कार्य साधन वस्था और तरतीब हो जानेपर इकट्टा एक दिशामें करती हुई देखी जाती है । जैसे एक खास तरहके काम करने लगती है तो हमें सामने उसके कार्य खास काम करने वाले यन्त्रसे दूसरे तरहका कार्य (manifestations) दिखलाई देने लगते है। यही बगैर उस यन्त्रमें उपयुत्त हेर-फेर किए नहीं ले बात आत्मा और शरीरके संबंधमें भी है। शरीर सकते उसी तरह यह जीवधारियोंका भिन्न-भिन्न प्रात्माके वर्तमान रहनस गतिशील एवं चेतनमय है शरीर भी है। मानवशरीर सबसे अधिक क्षमता- और इस तरह पुद्गलकी रचनास सारा काम होता शाली है। पर इसकी भी योग्यताका सतत प्रयत्न है। हां, योग्यता और क्षमताकी शक्ति उसमें वर्ग(practice) और अभ्यास द्वारा विकास किए बिना णाओंमे उचित प्रयत्न द्वारा उचित रूपमें परिवर्तन कछ नहीं हो मकना। शिक्षाकी भी इसीलिए जरूरत पूर्वक लाना आवश्यक है।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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