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________________ किरण ७-८1 भारतीय जनतंत्रका विशाल विधान ३०३ रहे और धामिक ग्रन्थोंका अभ्यास कर जैनधमके हे भगवति तेरे परमाद, मरणसमै मति होहु विषाद । तत्त्वोंका परिज्ञान प्राप्त किया। पंच परमगुरु पद करि ढोक, संयम सहित लहूँ परलोक" पंडितजीको जब अपनी इस अस्थायी पर्याय चुनाँचे पडितजीने अपने शिष्योंके सहयोगसे के छूटनेका आभास होने लगा, तब उसी अपने शरीर का परित्याग समाधिमरण पूर्वक समय सर्व संकल्प विकल्पोंका परित्याग कर समा- अजमेग्में संवत् १६२३में या १४२४ के प्रारंभमें धिमरण करानेकी भावना शिष्योंसे व्यक्त को। यद्यपि किया था। पर उमफी निश्चित तिथि का प्रामाणिक समाधिमरण करनेको उनकी यह भावना संबत उल्लेख न मिलनेसे उसे यहाँ नोट नहीं किया गया। १६०८ में समाप्त होने वाली भगवती आराधनाकी इस तरह पंडित सदासुखदासजीका समय वि० टीका प्रशस्तिके निम्न दोहों में पाई जाती है जिससे सम्वतको १६ वीं शताब्दो उत्तराधं और २० वीं यह सहजही जाना जाता है कि वे अपनी इस शताब्दी पूर्वाध है। क्योंकि पंडितजीने अपनी पहली अस्थायी पर्याय का परित्याग कषाय और शरीरकी टोकाका निर्माण सं० १९०६ मे ५४ वर्षको अवस्था कृशन-पूर्वक शांतिके साथ करना चाहते थे। और के लगभग शुरू किया था और उसे दो वर्षमें बनासंयमसहित परलोक पानेको उनको अपनी कामना थी। कर समाप्त किया था। आपको यह टीका प्रौढ़ाव "मेरा हित होनको और, दीखे नाहिं जगतमं ठौर। स्थामें लिखी गई है। और सब टीकाएं इसके बादकी यातैभगवति शरण जुगही, मरण अराधन पाऊं सही ही रचनाएं हैं। भारतीय जनतन्त्रका विशाल विधान (ले० विश्वम्भरसहाय प्रेमी) 000000000000 लगभग तीन वर्षके कठिन परिश्रमक उप- संचालनका काय आरम्भ करें। अपने इसी भाष. रान्त भारतीय विधान परिषदने २६ नवम्बर १९४६ मे अपने जनता-जनादेनके प्रति उचित सम्मान को भारतीय प्रजातन्त्रका विधान बनानेका दुस्तर प्रकट करते हुये भारतके ग्रामीण लोगोंमें अपना कार्य पूर्ण कर दिया। इस संविधानके द्वारा भारत विश्वास प्रकट किया था, जो वास्तवमें भारतको को सवाधिकारपूर्ण प्रजासत्तात्मक जनतन्त्र घोषित जान हैं, और नये मतदाताओं में जिनकी संख्या किया गया है। भारतीय संविधानके इस स्वरूपका सर्वाधिक है। निर्देश विधान परिषद के अध्यक्ष डा. राजेन्द्रप्रसाद अपने इस भाषणमें आगे चलकर डा० राजेन्द्रने अपने उस भाषणमें किया था, जो उन्होंने २६ प्रमादने यह भी कहा कि "भारत लोकतन्त्र प्रणानवम्बरको संविधानको अन्तिम स्वीकृति होत समय लीसे बहुत पुराने समयसे परिचित है, परन्तु यह दिया । आपने कहा था-"आइये, हम अपने विश्वा- लोकतन्त्र छोटा था । अब जिस ढंगका लोकतन्त्र सके साथ सत्य और अहिंसाके साथ, अपने भारतमें होने जा रहा है. वैसा पहिले कभी न थाहृदयमें साहम भर कर और अपने ऊपर परमात्मा यद्यपि तब और मुगलकालमें भी साम्राज्य था जो की छत्रछाया मानकर अपने इस स्वतन्त्र भारतके देशके बड़े भागमें फैला था। यह पहला ही अवसर
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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