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________________ ४३६ अनेकान्त (आ) Mohenjodaro And Indus Civilisation By John Marshall. [ वर्ष १० योगियोंकी लम्बी लम्बी जटाएँ दोनों ओर पड़ी हुई हैं। (आ) Ibid Catalogue of Mathura (वही ७६, इसमें जटाए बाएँ कन्धेपर पड़ी हैं। मथुरासंग्रहालय का मूर्तिसूचीपत्र) जैनमूर्ति न० B. (इ) Ibid Mohenjodaro ( वही मोहनजोदड़ो जि० १. जिल्द नं० १ फलक १२, टिकड़े १३, १४, १५, १८, १६, २२ में और जिल्द नं० ३ फलक ११६, टिकड़े १, और जिल्द नं० ३, फलक ११८, चित्र B. ४२६ में, जो मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुए हैं, दिगम्बर कायोत्सर्ग ध्यानस्थ योगियों की मूर्तियाँ अङ्कित हैं । जिल्द नं० १, फलक १० पर हड़प्पासे पाई हुई दिगम्बर कायोत्सर्ग पुरुषाकार पाषाण मूर्तिका चित्र दिया है, जिसका मुखमंडल, बाहू और जाँघोंसे नीचेका भाग टूटा हुआ है । (इ) The Jain Antiquary – June, 1937 पंक्ति में खड़े हैं। P. 17-18 उपर्युक्त हड़प्पासे प्राप्त मूर्तिख एडके समान ही ई० सन् १९३७ में पटना जंकशनसे एक मील की दूरीपर लोहिनपुर से दो दिगम्बर कायोत्सर्ग पुरुषाकार जैन मूर्तिखण्ड मिले हैं। यह डा० जायसवालके मत अनुसार ३०० ई० पूर्व प्रारंभिक मौर्य कालके बने हुए हैं, हड़प्पा मूर्तिखण्डसे बहुत कुछ समानता रखते है, और प्राचीन जैन कलाके बेहतरीन नमूने है । (ई) Archiological Survey of India, Annual report 1930 - 1931, published in 1936-Vol 1. I'. 30. (अ) Ibid Catalogue of Mathuraजैन प्रतिमाएं नं० B. ६६ - ७३, B. ६ -- इनमें जिल्द १, फलक १२, चित्र १८ मे दिगम्बर कायोत्सर्ग ध्यानस्थ मूर्ति दिखलाई गई है, इसके शिरपर त्रिशूल बना हुआ है। जटाएँ बाऍ कन्धेपर पड़ी हैं। नीचे की ओर सात उपासक जन एक जैन अनुश्रुति के अनुसार ये समस्त जटाधारी मूर्तियां आदिब्रह्मा वा आदितीर्थंकर ऋषभ भग वाकी हैं। I साकी आठवीं शताब्दीके जैनाचार्य श्रीरविषेणजीने अपने पद्मचरित पर्व ३ श्लोक २८७, २८८ में उनका वर्णन करते हुये लिखा है कि : ततो वर्षाद्ध मात्र सकायोत्सर्गेण निश्चलः । धराधरेन्द्रवत्तस्थौ कृतेन्द्रिय- समस्थितिः ॥ २८७ ॥ घो नटास्तस्य रेजुराकुलमूर्तयः । धूमाल्य इव सद्ध्यान- वह्निशक्तस्य कर्मणः ||२८८|| अर्थात् - वह अपनी समस्त इन्द्रियोंको सम मन्यारमठ राजगृहोसे जो २२ इंच लम्बी जैन- स्थित करके छह मास पर्यन्त कायोत्सर्ग-आसन से मूर्ति मिली है वह कायोत्सर्ग मुद्रा में है । दोनों कलाओं में जटाधारी योगियोंकी मूर्तियांदोनों कलाश्रमं कितनी ही ध्यानस्थ मूर्तियां ऐसी हैं, जो जटाधारी हैं- कुछमे ये जटाएँ दोनों ओर कन्धों पर पड़ी हुई हैं और कुछमें ये बाएँ कन्धे की ओर पड़ी हुई हैं। इनके लिये निम्न प्रमाण दर्शनीय हैं : --- सद्ध्यान खड़े होकर सुमेरुपर्वत के समान निश्चल हो गए। उस समय वायुवेगसे ऊपर की ओर उड़ती हुई उनकी जटाएँ ऐसी भासती थीं "जैसे अग्नि द्वारा भस्म किये हुए कर्मों का धुआं ही उड़ रहा हो ।" पुनः पद्मचरित्र पर्व ४ मे कहा है:समाहितः । स रेजे भगवान् दीर्घजटा - जाल - हृतांशुमान् ॥५॥ अर्थात् — जैसे सुमेरु पर्वत के शिखर सूर्यके किरण-जालसे घिरे हुए दैदीप्यमान है, वैसे ही मेरुकूटसमाकार - भासुरांश:
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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