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________________ किरण ११-१२ ] मोहनजोदड़ोकी कला और श्रमण-संस्कृति ४३५ कह सकें अभी तक दृष्टिमे नही आसकी है; परन्तु हासिक दृष्टिसे प्राचीन और प्रामाणिक हैं; जैसे इतने मात्रसे यह नहीं कहा जा सकता कि उस युग. उड़ीसामें खण्डगिरिः संयुक्तप्रांतमें अहिच्छेत्र, में भारतीय जन देवालयोंका निर्माण न करते थे। मथुरा, कौशाम्बी, हस्तिनापुर, देहली; मालवामें, क्योंकि प्राप्त ध्वंसावशेषों में कुछ ऐसे भी हैं जो बड़बानी, सिद्धवरकूट, श्राब, ग्वालियर; काठियासाधारण रहन-सहनके घरोंसे कई अंशों में विल- वाड़मे गिरनार (रैवतक पर्वत) शत्रुञ्जयः दक्षिणमें क्षण है । हो सकता है कि वे माननीय देवताओंके श्रवणबेल्गोल, मूडबिद्री, कारकल, वेणूर, एलोरा, मदिर हों; परंतु इतने परसे तत्कालीन सभ्यताका बादामी, तेरापुर; विहार में सम्मेद शिखर, पावा, कोई पता नहीं लग सकता। उस युगकी धार्मिक राजगिरिः बुन्देखण्डमें देवगढ़, अहार, चंदेरी, सभ्यताका पता लगाने के लिए हमे अनिवार्य रूपसे बूढीच देरी, खजुराहा इत्यादि । इन सबमें भी प्रस्तुत उन आकृतियोंको ही अपनी खोजका आधार बनाना गवषणाके लिए मथुराके ककाली टीलेसे प्राप्त कुशानहोगा जिनक सैकड़ों नमूने मुद्राओं, मोहरों, टिकड़ों कालकी २००० बर्ष पुरानी जैनमूर्तियाँ अधिक उपवा मिट्टो, धातु और पाषाणकी मूर्तियोंके रूपमे वहांसे योगी सिद्ध होंगी। इसीलिये इस लेखम उन्हें जैनउपलब्ध हुए हैं। भारत और अन्य देशों के विद्वानोंने संस्कृतिके उपलब्ध प्राचीन उत्कृष्ट नमूने मानकर अपनी गवेषणामें इन आकृतियोंकी तुलना भारतकी उन्हींके साथ मोहनजोदड़ो और हडप्पा की आकृश्रमणसंस्कृतिकी शिव-सम्प्रदायवाली मूर्तियों, मान्य. तियों और मूर्तियोंकी तुलना करना निश्चित किया ताओं और साहित्यिक विवरणोंसे तो खूब की है; गया है। परंतु ग्वेद है कि डाक्टर प्राणनाथ, डा० रामप्रसाद मोहनजोदड़ो और मथुराकी जैनकलाकी तुलना चदा प्रभृति कुछ एक विद्वानोंको छोड़कर फिसीने करते हुए यदि इनके आदर्श और उद्देश्यपर, इनभी आज तक भारतीय श्रमण-संस्कृतिकी दूसरी की बनावट और शैलीपर ध्यान दिया जाय तो जैन सम्प्रदायवाली मूर्तियों, मान्यताओं, विधि- हृदयपटलपर यह बात अकित हए बिना नहीं रह विधानों और साहित्यिक विवरणोंसे इनकी तुलना सकती कि ये दोनों कलाएं एक ही प्रकारको श्रमणकरनेका परिश्रम नहीं किया ! इस अधूरे अध्ययनका संस्कृतिकी भावनाओंसे ओत-प्रोत है। ही यह दुष्परिणाम है कि, विद्वान लोग आकृतियोंके रहस्यको पूर्णतया समझने और उस युगकी दोनों कलाओंका आदर्शधार्मिक सभ्यताका स्पष्ट चित्र खींचनेमे आज तक इन दोनों कलाओंमें दिगम्बर वीतरागी ध्यानस्थ असफल रहे हैं। इस कमीको पूरा करने के लिये पुरुषको जीवनका परमादर्श माना गया है। दोनों में ध्यानके लिये पद्मासन व कायोत्सर्ग आसनको ही इस लेख में मोहनजोदड़ो और हडप्पासे प्राप्त प्रधानता दी गई है, इसके लिये निम्न प्रमाण देखें:आकृतियोंकी तुलना जैनमूर्तियोंसे की जानी निश्चित (9) Catalogue of the Archeological की गई है। ___Musuem at Mathura By J. Ph. Vogel, मोहनजोदडो और मथुराकी कलाओंकी तुलना- ph. D, Allahabad, 1910 यों तो भारतीय सभ्यताके पुराने और नये केंद्र जैन मूर्तियां नं० B. ६१-७४--ये तमाम कायोजैनकलाकी सैकड़ों पुरानी और नई रचनाओंसे मगे आसनधारी मूर्तियां हैं। भरे हुए हैं; परंतु प्रस्तुत गवेषणाके लिए हम उन्हीं जैन 'मूर्तियां नं० B १-२८, ७५-८०-ये सब स्थानोंकी जैनकलाको अधिक महत्व देंगे जो ऐति- पद्मासनधारी मर्तियां हैं।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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