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________________ किरण ३ ] कि जैन समाजका ध्यान इधर नहीं है। मैं यह पहले बतला चुका हूं कि यह मूर्ति सं० १४६७ की है उस समय ग्वालियर मे तोमरवंशी राजा वीरमदेवका राज्य था । वीरमदेव कुशल राजनीतिज्ञ था । इनके राज्य में प्रजा सुखी थी, जैमवालवंशी कुशराज राजा वीरमदेव के मन्त्री थे, जो पृथ्वीके पालन करनेमें ममर्थ, और पृथ्वी के संरक्षण में सावधान और राजनीति भी कुशल थे । प्रस्तुत मुहानियां श्राजकल अतिशय क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध हैं, वहां मेला भी लगता है । और ना कोई सज्जन, जिनके नामकी मुझे इस समय स्मृति नहीं है, मंत्री है । ग्वालियर के किले का इतिहास और जैन पुरातत्व गूडर - यह स्थान भी प्राचीन है और १२वीं १३ af शताब्दी में प्रसिद्ध रहा है । यहॉपर जैनियोंके शांतिनाथ, कुथनाथ और अरहनाथकी वि. सं. १२०६ की मृतियों पाई जाती है । इन सबसे बड़ी मूर्ति फुट ऊँची है, जो बहुत ही सुन्दर, चित्ताकर्षक और कलापूर्ण है । कलाकी दृष्टि इस प्रकारकी मनोहर मूर्तियों कम ही पाई जाती है। इसकी कोमलता और विशालता चतुर शिल्पीकी श्रात्म-साधनाका सजीव - चित्रण हैं । दृष्टि पड़ते ही दर्शक उस मृर्तिकी ओर आकृष्ट हुए बिना नहीं रहता और वह कुछ समय के लिये अपनेको भूल जाता है । और अपने स्वरूप मे निमग्न होनेका प्रयत्न करता है। साथ ही ज्ञानी आत्मा चैतन्यजिन प्रतिमा बननेका अभ्यास भी करने लगता है । इस कालमे जैन मूर्तियों का निर्माण बहुत अधिक हुआ है । पन्तु वह सब स्थापत्यकलाकी दृष्टि प्रायः सर्वांग पूर्ण हुआ है । भीमपुर - मे नरवर के जजयेलवंशी आसलदेव राजा के अधिकारी जैनसिंहने एक जैनमंदिर बन - वाया था जिसका वि० सं० १३१६का ४० पंक्तियोंका एक शिलालेख भी उपलब्ध है जिसकी मूल छाप ग्वालियर पुरातत्त्व विभागकी कृपासे मुझे प्राप्त हुई । उसके पढ़ने का अभीतक अवकाश नहीं मिला, इससे उसे यहां नहीं दिया जारहा है । १०६ 1 पद्मावती - यह वही प्रसिद्ध नगरी है जिसका उल्लेख खजुराहे के वि० सं० २०५२ के शिलालेख' में किया गया है और बतलाया है कि नगरी ऊंचे-ऊंचे गगनचुम्बी भवनांस सुशोभित थी । उसके राजमागमं बड़े-बड़े तेज तुरंग दौड़ते थे और जिसकी चमकती हुई स्वच्छ एवं शुभ्र दीवारें आकाशसे बाते करती थीं। यह नागराजाओंकी राजधानी थी । पद्मावतीपुरवाल जातिके निकासका केन्द्र थी । कार्य रहधूके ग्रन्थों में उल्लिखित 'पोमा वड पुरवाडवस' वाक्य पद्मावती नगरीका ही वाचक है उसीसे पद्मावती-पुरवालका उदय हुआ है । विष्णुपुराणके कथनानुसार इस नगरी में नौ नाग राजाओंने राज्य किया है। पद्मपवाया (पद्मावती) से नौ नागराजाओ के सिक्के भी मिले हैं। ग्यारहवीं शताब्दी में रचित 'सरस्वतीकंठाभरण' में भी 'विशाला' पद्मावतीका वर्णन है । जोरा - जिला तोंवरघारसे दो दिगम्बर मूर्तियां प्राप्त हुई है जो बहुत ही सुन्दर एवं चित्ताकर्षक हैं । ये दोनों मूर्तियां लश्करके सरकारी म्यूजियम मे रक्खी हुई है २ । चंदेरी जि० नरवर - यह भी ाचीन स्थान है । इससे नौ मील बूढ़ी चंदेश है जो ध्वंशावशेषों का एक ढेर है । चंदेरीको चंदलवंशी राजाओं ने बसाया था. यह नगर तनजेब जैसे बारोक और सुन्दर कपड़ोंके बनाने में प्रसिद्ध था । किसी समय यह नगर श्रमण संस्कृति (जैन) के प्राचीन गौरवका केन्द्र बना हुआ था। इसके किलेके पास की खंडहर पहाड़ी पर उकेरी गई विशान जिन प्रतिमाएं उसका उज्ज्वल प्रमाण है । यहा जो मूर्तियां है और उनके साथ यक्ष-यक्षिणो आदिकीजो मूर्तियां उत्कीर्ण है, उनमे अङ्कित लेखोंस व तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्धकी प्रतीत होती है; क्योंकि 1 Epigrapha Indea V.LI.P. 149 २ देखो, ग्वालियर गजेटियर जिल्द 1 में प्रकाशित चित्र |
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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