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भी हैं । तथा कमरे के अन्दर और भी बहुत-सी जैन मूर्तियाँ विराजमान हैं। इन सब मूर्तियों पर अंकित अभिलेखों का संकलन करना बहुत आवश्यक है ।
अनेकान्त
सुहानियाँ - यह स्थान पुरातन कालमें जैन संस्कृतिका केन्द्र रहा है और वह ग्वालियरसे उत्तरकी
र २४ मील, तथा कवरमे १४ मील उत्तर-पूर्व है । और हसिन नदीके उत्तरीय तटपर स्थिति है । कहा जाता है कि यह नगर पहले बहुत समृद्ध था और १२ काश जितने वितृत मैदानमे आवाद था । इसके चार फाटक थे, जिनके चिन्ह आज भी उपलब्ध होते है । सुना जाता है कि इस नगरको राजा मूरसेनके पूर्वजोंने बसाया था । कनिंघम साहबको यहां वि० मं० १०२३, १०३४, और १४६७ के मृतिलेख प्राप्त हुए थे। जिनमे मे प्रथममे बतलाया है कि “वि० सं० १०१३ ( ६५६ A D ) मे माधव के पुत्र महेन्द्रचन्द्रने, जो संभवतः ग्वालियरका राजा था एक जैन मूर्ति मुहम्य (Subamya जो ग्वालियरके समीप है ) मे अर्पण की ।" और दूसरे लेखसे स्पष्ट है कि वि० सं० १०३४ ( ६६७ A. 1)) में कच्छपघट या कछवाहा वंशके राजा वज्रदामनने उक्त संवत् के वैशाख वदा पंचमीको मूर्ति प्रतिष्ठित कराई थी । तृतीय लेख जैनियोंके १६ वें तीर्थंकर भगवान् शान्तिनाथकी १५ फुट ऊँची खडगासन मूर्ति जो चेतननाथकं नामसे प्रसिद्ध है यह स्थान भीमकी लासे करीब एक मील दूर हैं। इस मूर्तिके बगल मे दो खड्गामन मूर्तियां और भी है। इस के शिरके पास १४ पंक्तिका एक लेख है जो पूरा पढ़ने में नहीं आता किंतु 'सिद्धिस्तु १४६७ वैशाखसुदी
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१ सं० १०५३ माधवसुतेन महिचन्द्रकन भी[ खो ?] दिता ।
२ "संवत् १०३४
इमालवदि पार्श्वमि "
शांतिनाथ की यह दिव्य मूर्ति और बगलवाली दोनों मूर्तियां अखण्डित है । शिरके पास भामण्डलका - चिन्ह भी उत्कीर्ण है और मिहमुख सिंहासनपर कमल बना हुआ है जिसपर वह मातिशय प्रशांत कलाभिव्यजक मूर्ति स्थित है उसके बगल में यक्ष-यक्षरिणयौकी मूर्तियां भी अंकित है । इनके समीप ही दो पद्मासन मूर्तियाँ अष्ट प्रातिहार्य और यक्ष-यक्षणियों सहित भगवान नेमिनाथ और पार्श्वनाथकी है । इस मूर्तिके आस-पास बहुत-सी खण्डित मूर्तियां पड़ी हुई हैं। जिसमे मालूम होता है कि इस स्थानकं दो-तीन मील इदे-गिर्द जैनियों के पुरातत्त्व की महत्वपूर्ण सामग्री यत्र तत्र विखरी हुई पड़ी है और कुछ –देखो, जनरल थाफ दी एशियाटिक सोसाइटी अभी भूगर्भ में भी दबी हुई है जिसको निकालकर प्रकाश लाने की बड़ी आवश्यकता
बंगाल भाग xxx । P. ४६० ४५६ सन् १८६२
| पर खेद है
[ वर्ष १०
११ रवौ” पढ़ा जाता है । इस ग्रामके पश्चिममें एक तम्भ है जिसे भीमकी लाट कहा जाता है। दक्षिणकी और कई दि० जैन मूर्तियां है। इस नगरको कन्नौज के राजा विजयचन्दने सन् ११७० में अपने अधिकारमें ले लिया था । श्राजकल यह स्थान अतिशय क्षेत्रके नामसे प्रसिद्ध है । इस सम्बन्धमें एक दिलचस्प घटना घटित हुई, जो इस प्रकार सुननेमें आई है । कुछ समय पहले बाबा गुमानीलालजीको रात्रिम एक स्वप्न हुआ, कि एक मूर्ति तेलीके घरकी देहरीक नीचे गड़ी है तुम जाकर ग्वोद लाओ । बाबाजीनं ती उस मूर्ति सम्बन्धमें कहा तो उसने इंकार कर दिया तब बाबाजीने गांवके अन्य लोगों को सब हाल बताकर आप शांतिनाथ भगवानकी उस मूर्ति के सामने आहारादिके त्यागका नियमकर कार्यात्सर्गम स्थित हो गए। और कुछ समय बाद उसी मूर्ति के समक्ष ध्यानस्थ बैठे रहे। दो दिनके पश्चात् महमा ग्राममें पत्थर वर्षा होने लगी जिसमे गांव के लोग दुखी हुए और उन्होंने तलोके घरमे खोदकर वह मूर्ति बाबाजीको लाकर देदी। तबसे बाबाजीका प्रभाव उस गांव पर हो गया है और शांतिनाथकी उस मूर्तिपर अधिक श्रद्धा हो गई है।
श्रीदाममहाराजाधिराज
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