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किरण ३]
ग्वालियरके किलेका इतिहास और जैन पुरातत्व
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4-स्येतित्यभिविश्रतो भुवि स्वसज्ञया शंकरनाम मन् ४३७ का कुमारगुप्त प्रथमके समयका पाया शब्दितो विधान युक्तं यतिमार्गमस्थितः [1]
जाता है। यहां जैन श्रमण संस्कृतिके बहुतसे प्राचीन ७-स उत्तराणां शदृशे कुरूणां उदग्दिशा देशबरे प्रसूतः जैन स्मारक हैं। विक्रमकी दूसरी तीसरी शताब्दीके
-क्षयाय कारिगणस्य धीमान् यदत्र पुण्यं तदपास प्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्य समन्तभद्रने वाद-मेरी मर्ज [0] --फ्लीट गुप्त अभिलेख पृ० २५८ । बजाई थी। जैसा कि 'दशपुरनगरे भेरीमया साडिता'
इस लेखमें उल्लिखित आचार्य भद्र और उनके वाक्यसे प्रकट है । संस्कृत-हिन्दीभाषाके प्रसिद्ध अन्वयमें प्रसिद्ध मुनि गोशर्म, कहांके निवासी थे विद्वान पं० भागचन्द्रजी यहांके ही निवासी थे। और उनकी गुरु परम्परा क्या है ? यह कुछ मालुम यहां रहकर उन्होंने कई ग्रंथोंकी टीकाओंका निमोण नहीं हो सका।
किया है। आज भी यहां जैनमंदिर और शास्त्रबड़ोह-यह स्थान भी भेलसा जिले में है। यहां भंडार विद्यमान है और भावकगण अपने धर्मका एक प्राचीन जिन मन्दिर है, जो लगभग १०० ईस्वी यथेष्ट पालन करत है। का बना हुआ है। इस मंदिरमें १६ गर्भगृह है जिन- नरवर-सिपरी और सोनागिरके मध्यमें वसा में भगवान महावीर (वर्तमान), मलिनाथ, अजित- हुआ है। यहांपर नागराजा गणपतिके सिक प्राप्त नाथ, आदिनाथ पाश्वनाथ, भुजबली (बाहुबली) हुए हैं जिसका उल्लेख समुद्रगुप्तके इलाहाबादवाले
और शांतिनाथ आदि जैनतीर्थकरोंकी मूर्तियाँ अंकित लेखमें पाया जाता है । यह नगर भी अनेक राजा. है। यह मन्दिर भी दशनीय हैं।
ओंकी राजधानी रहा है। यहां एक किला भी है। बरो (बड़नगर)-जि० अमझेरामे बहुत प्राचान जिसमें विकमकी १२ वीं१३ वीं शताब्दीकी संगमरस्थान है । यह पुरातन समयमें बहुत ही मम्पन्न एवं मरकी अत्यंत सुन्दर कलापूर्ण जैन तीर्थकरोंकी मर्तिधन-जनसे परिपूर्ण रहा है, परन्तु वर्तमानमे वह यां पाई जाती है। जो उरवाही द्वारपर नवीन पक छोटे-से नगरके रूपमे दृष्टिगोचर हो रहा हैं। मन्दिरमें विराजमान हैं जिनपर वि० सं० १२१३, इसके आस-पास अनेक पुरातन वंसावशेष हैं जो १२०६, १३४० और १३४८ के मूर्तिलेख अंकित हैं। पथारी तक विस्तृत है। प्रस्तुत नगर गयानाथ पहाड़ किलेकी कितनी ही परातन मर्तियां खंडित कर दी की तलहटीमें वसा हुआ है, जो विन्ध्यका ही एक गई है। भाग जान पड़ता है । और वह भेलमाके उत्तर तक ग्यारमपुर--यह नगर भेलसास उत्तर-पूर्व २४ आता है। इस नगरके तालाबके किनारे हिन्दू और मीलकी दूरीपर वमा हुआ है। यह स्थान बहुत जैनोंके मन्दिर बने हुए हैं। उनमें एक विशाल जैन प्राचीन और प्रसिद्ध रहा है । यहांपर सबसे विश्रुत मंदिर भी है जिसमें १६ वेदियोंपर जैन तीर्थंकरोंकी मन्दिर अठखंभा है। इसकी बनावट कलापूर्ण तो बलात्मक सुन्दर मतियाँ विद्यमान है। मध्यमें किसी है ही, किन्तु उसके स्तम्भोंपर नक्काशीका कार्य बहुत मुनिका समाधिस्थान भी बना हुआ है । १७ वी ही मुन्दर है । और वह दर्शनीय भी है। एक खंभे शताब्दीमें पनाके राजा छत्रशालने इसे नष्ट किया पर सन १८२ (वि० सं० १०३६) का एक अभिलेम्व
किसी यात्रीका उत्कीर्ण है । यहां सबसे पुराना और मंदसौर-भारतीय संस्कृतिका अनुपम केन्द्र सुन्दर जैन मंदिर पहाड़ीकी नौकपर 'माता'के नामसे रहा है। इसका प्राचीन नाम 'दशपुर' है। नासिकसे प्रसिद्ध है, जो संभवतः नौमी, दशमी सदीका बनईस्वी सन्के प्रथमभागका क्षत्रपोंका एक अभिलेख वाया हआ होगा। इसमें वेदीपर एक बड़ी दिगम्बर. मिला है जिसमें उसका उल्लेख है। एक शिलालेख मन्दर जैन मूर्ति है और पाम में ३-४ मूर्तियां और
था।