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________________ १५८ अनेकान्त [वर्ष १० नहीं हुआ-उनके दिलमे रत्ती भर भी कोच या रोपकी सत्यानुसरण मात्रा उदित नहीं हई। परिणाम यह हुआ कि कुछ ममय बाद उन औरतीन अपन किये पर बड़ा ___ पूज्य वर्णीजी वैष्णव कुलमें उत्पन्न हुए है, किंतु पश्चात्ताप किया और गलती महसूस की । आज उन्होंन अमढष्टि और परीक्षकबुद्धिम जैनधर्मको आत्मधर्म एवं मत्यधर्म मान कर उसे अपनाया है। फलत. मारे बुन्देलखण्डम बगतामे औरतोका उनका विवेक और श्रद्धा कितनी जागृत और सलझी जाना प्रायः सवथा बन्द होगया है। हुई है, यह बात एक निम्न घटनाम मालम होजाती अभी उस दिन कुछ गुमराह भाइयोंन एक परचा है। पिछले दिनों जब वर्णीजो महारनपुर पहुँचे ना निकाला और उसमे पज्य वीजीका प्रजातियांका वहां एक विशाल सार्वजनिक मभाम उपदंश करते हामी (समर्थक) बनलाया। जब यह बात वर्णीजी को मालम हुई तो व हमकर मौम्य भाषाम बोले हुए उनसे एक अजैन भाईन प्रश्न किया कि जिन विशे षताओंके कारण आपने जैनधर्म ग्रहण किया है क्या 'भइया । मै तो त्यागी है और त्यागका ही उपदेश व विशपता आपको हिन्द धर्ममे नहीं मिलीं।' देकर सबको त्यागी बनाता है। पूजीपतियास भी वर्गाजीन इम उत्तरमे कहा कि जितना मूक्ष्म और पृ'जीका त्याग कराना चाहता है और उन्हें त्यागी बनाना चाहता है । यह कितना मधुर और मात्विक विशद विचार तथा आचार हम जैनधर्ममे मिला है उत्तर उन भाइयों को दिया। वास्तवम वर्णीजीको क्या उतना पड्दर्शनामेम किमीम भी नहीं मिला।' यदि हो तो बनलायें, मै आज ही उम धमेको स्वीकार पूजीपति क्या अपूजीपति, क्या विद्वान क्या मख, करल। परन्तु मैंने सब दशक आचार-विचागेक्या स्त्री क्या पुरुप, क्या बालक क्या वृद्ध मभासे को गहराईम दवा और जाता है मुझे ना एक भी अपार वात्सल्य और धमानुगग है। वे सबका कल्याण चाहते है और समान भावस मबको उपदेश दर्शनमे जैनधर्ममें वर्णित अहिंसा और अपरिग्रहका दत है। गांधीजीके लिये विडला जैम व्यक्ति नह अद्वितीय एवं सक्ष्म आचार-विचार नहीं मिला इसीस मैन जनधर्म स्वीकार किया है। यदि मारी पात्र थे, तो इसका मतलब यह नहीं कि व गरीबाकी उपेक्षा करते थे, उनपर स्नेह नही करत थे । मच दुनिया जैनधर्म स्वीकार करले तो एक भी लड़ाईबात तो यह है कि उनका ममचा जीवन ही गरीबो झगड़ान हो । जितने भा लड़ाई-झगड़े हात है व हिमा की मवा और उनकी गरीबी दर करनम बीता है। और परिग्रहको लेकर ही हात है। समारमं मुख उन्हें अमीर और गरीब दोनोपर स्नेह और प्रेम था। और शान्ति तभी हो सकती है जब अहिमा और अप ग्ग्रिहका आचार-विचार मर्वत्र हाजाय।' यह है पृज्य यहा बात पज्य वर्णीजीम है । हमे बुन्दलग्बण्डका स्वय अनुभव है । वहा गरीबोंका जितना हित और वर्गीजीका विवक और श्रद्धापूर्वक किया गया मत्या नुसरण । म्वामी ममन्तभद्रन आनकी परीक्षा करक मेवा पृज्य वीजीन की है उतनी दृमगेन नहीं की। उन्होंने गरीब विद्यार्थियों, उयोगहीनों और निराश्रि उन्हें अपना उपाम्य माना है । वास्तवम परीक्षकम तोंकी मतन महायता की और कराई है। अब तो व दा गुण हात है. श्रद्धा गुणज्ञता (विवेक)। इन मारे भारतकी विभूति बन गये है। और प्राणिमात्र दोक बिना परीक्षक नहीं है। मकता है। पूज्य के कल्यागामे उद्यत है। उनका अपार वात्मल्यभाव वर्णीजीम हम दोनों गुण दग्वत है और इमलिय और मन्दकषायभाव अतुलनीय एवं अचिन्तनीय म बुद्ध के शब्दोंम उन्हे 'सत्यका अनुयायी' पात है । है। लोकापवादकी एमी-नी अनेक घटना उनपर अपार करुणा घटित हुई हैं पर व उनपर विजयी हुए और उनम पृज्य वर्णीजी कितने काणिक और पर-दुःग्य- . डरे नहीं। कातर है यह उनकी जीवनव्यापी अनेक घटना
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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