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फिरण १]
आप्तकी श्रद्धाका फल
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के कारण अन्धा होकर निरन्तर ऐसे काम करता है “इति स्तुति देव ! विधाय दैन्यावरं न याचे स्वमुपेक्षकोऽसि । जिससे उसका दुख ही बढ़ता है। यह जीव अपने छाया तरु संश्रयत: स्वतः स्यात्करछायया याचितयात्मलाभः॥" हाथों अपने कंधेपर कुल्हाड़ी मार रहा है। यह हे देव ! आपका स्वतवन कर बदलेमे मै कुछ जितने भी काम करता है प्रतिकूल ही करता है। चाहता नहीं हूँ और चाहूँ भी तो आप दे क्या संसारकी जो दशा है, यदि चतुर्थकाल होता तो उसे सकते हैं। क्योंकि आप उपेक्षक है-आपके मनमें देखकर हजागें आदमी दीक्षा ले लेते । पर यहाँ कुछ यह विकल्प ही नहीं कि यह मेरा भक्त है इलिये परवाह नहीं है । चिकना घड़ा है जिसपर पानीकी इसे कुछ देना चाहिये । फिर भी यदि मेरा भाग्य बूद ठहरती ही नहीं। भैया! मोहको छोड़ो, रागादि- होगा तो मरी प्रार्थना और आपकी इच्छाके बिना भावोंको छोड़ो, यही तुम्हारे शत्र है, इनसे बचो। ही मुझे प्राप्त हो जायगा। छायादार वृक्षके नीचे वस्तुतत्त्वकी यथार्थताको समझो। श्रद्धाको दृढ पहुँचनपर छाया स्वयं प्राप्त होजाती है। आपके राखो। धनंजय सेठके लड़केको सांपने काट लिया, आश्रयमें जो आयेगा उसका कल्याण अवश्य होगा। वेसुध होगया। लोगोंने कहा वैद्य आदिको बुलाओ, आपके आश्रयसे अभिप्राय शुद्ध होता है और अभिउन्होंने कहा वैद्योंसे क्या होगा ? दवाओंसे क्या प्रायकी शुद्धतामे पापाम्रब रुककर शुभास्रव होन होगा ? मंत्र-तंत्रोंसे क्या होगा ? एक जिनेन्द्रका लगता है। वह शुभाम्रव ही कल्याणका कारण है। शरण ही ग्रहण करना चाहिये। मंदिरमें लड़केको
देखो ! छाया किसकी है ? आप कहोगे वृक्षकी, लेजाकर सेठ स्तुति करता है :
पर वृक्ष तो अपने ठिकानेपर है। वृक्षके निमित्तसे "विघापहारं मणिमपिधानि मन्त्र पहिश्य रसायनं च।
दृश्य रसायन च। सूर्यकी किरणे रुक गई, अतः पृथिवीमे वैसा परिणभ्राम्यन्यहो न त्वमिति स्मरन्ति पर्यायनामानि तवैव तानि ॥" मन होगया, इसी प्रकार कारणकूट मिलनेपर ___ इस श्लोकके पढ़ते ही लड़का अच्छा होगया। आत्माम रागादिभावरूप परिणमन होजाता है। लोग यह न समझने लगे कि धनंजयने किसी वस्तु- जिसप्रकार छायारूप होना आत्माका निजस्वभाव की आकाक्षासे स्तोत्र बनाया था, इसलिये वह स्तोत्र- नहीं है। यही श्रद्धान होना तो शुद्धात्मश्रद्धान के अन्तमे कहते है :
है-सम्यग्दशन है।
(मागर-चतुर्माम्पमें दिया गया वीजीका एक प्रवचन)