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________________ किरण २] अपराध-क्षमा-स्तोत्र 'परके अपवाद अथवा निन्दास मुख सदोष (दोषी) है, 'चंचल नेत्रवाली स्त्रीके मुखको देखनेसे मानसमें परस्त्रीजनोंक देखनेसे नेत्र सदोष है और दूसरोंका बुरा जो थोड़ा-सा राग लगा है वह शुद्धि-सिद्धान्तके समुद्र में चिन्तन करनेसे मन सदोष है, तब हे विभो ! मैं कैसे धोनेपर भी नहीं गया, फिर पार उतरनेके लिये कौन कारण कृती-भाग्यशाली अथवा पुण्याधिकारी होसकूँगा ?- होगा ?-कैसे संसारसमुद्रसे पार हुश्रा जायगा ?, यह क्या किसी तरह होसकूँगा ? मुझे इसकी बड़ी चिन्ता है। बड़ी ही चिन्ताका विषय है।" विडम्बितं यत्स्मरय स्मराऽति अंगन चंग न गुणो गुणानां दशावशात्स्वं विषयान्धलेन । न निर्मल: कोऽपि कला-विलासः । प्रकाशितो यद्भवतो हियैव स्फुरप्रभा न प्रभुता च कोऽपि ____ सर्वज्ञ सर्व स्वयमेव वेसि ।।१०।। तथाऽप्यहंकार-कदर्थितोऽहम् ।।१४।। 'मुझ विषयान्धने कामदेवकी पीडा-दशाके यशसे 'अंग चगा नहीं, गुणोंमें कुछ सार नहीं, कोई भी अपनेको जैसा कुछ विडम्बित किया है उसे स्मरण कीजिये। कला-विलास निर्दोष नहीं, प्रभाकी स्फूर्ति नहीं और न आपके सामने लज्जाक साथ यह जो कछ प्रकाशित किया कोई प्रभुता ही है। फिर भी मैं अहंकारसे पीडित गया है उसे हे सवज्ञ श्राप पूर्णरूपमें स्वयं ही जानते है। होरहा हे!' ध्वस्तोऽन्य-मंत्रः परमेष्ठि-मत्रं आयुर्गलत्याशु न पाप-बुद्धि__कुशास्त्र-वाक्यैनिहताऽऽगमोक्तिः । गतं वयो नो विषयाऽभिलापः । कर्तुं वृथा कर्म कुदेव मंगा यत्नश्च भैपज्य-विधौ न धर्मे दवांचिही (१) नाथ मति-भ्रमो मे ॥१२॥ स्वामिन महामोहविडम्बना मे ॥१।। 'अन्यमंत्रोंका सेवन करके मैंने परमेष्ठिमंत्रको ध्वस्त 'श्रायु शीघ्र बीत रही है परन्तु पापबुद्धि नहीं जाती, किया है, कुशास्त्रोंक वाक्योंका श्राश्रय लेकर प्रागमकी अवस्था ढल रही है परन्तु विषयोंकी अभिलाषा नहीं उक्रिका घात किया है और कुदेवोंकी संगतिसे वृथा फर्म ढलप्ती, दवाइयोंकी विधि-व्यवस्थामें यस्न जारी है परन्तु करनेमें प्रवृत्त हुआ हूँ। यह सब हे नाथ ! मेरा मति-विभ्रम धममें नहीं; यह सब हे स्वामिन् ! मेरे महामोहको घिडअथवा बुद्धिका विकार है।' म्बना है-उसीके कारण मै ऐसी शोचनीय दशाको प्राप्त होरहा हूँ।' विमुच्य दकलक्ष्य-गनं भवन्तं ध्याता मया मूढ-धिया हृदन्तम् । नाऽऽस्मा न पुण्यं न भवो न पापं मया विटानां कटुगीरमेयम् । कटाक्ष-वक्षोज-गभीर नाभि अधारि कर्णे त्वयि केवलार्के कटी-तटीयासु दशा-विलासाः ।।१२।। परिस्फुटे मत्यपि देव धिग्माम् ।।१६।। 'मुझ मूढबुद्धिने दृष्टिपथमें प्राप्त हुए अापको छोडकर हे देव ! आपमें कंवलज्ञानरूप सूर्य के परिस्फुट होते हृदयमें कटाक्ष, कुच, गंभीरनाभि और कटी-तटीयोंमें होने- हा भी 'श्रात्मा नहीं. पुण्य नहीं, पाप नहीं और संसार वाले दृष्टिके विलासोंको ध्याया है।' कोई चीज़ नहीं' इसप्रकार धूर्तीकी बेहद कडवी बोलीको लोलेक्षणा-वक्तृ-निरीक्षणेन मैंने कानोंमें धारण किया है-सुना है-अतः मुझे यो मानसे राग-लवो विलग्नः । धिक्कार है! न शुद्धि-सिद्धान्त-पयोधि-मध्ये न देव-पूजा न च पात्र-पूजा धौतोऽप्यगात्तारण-कारणं किम् ॥१३।। न श्राद्ध-धर्मश्च न माधु-धर्मः ।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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