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________________ किरण ७-८) समझका फेरे सकता है । मैंने इन विषयों के समर्थनमें शास्त्रीय एक पर्यायमें गोत्र बदलता है इस तथ्यको प्रमाण भी दिये हैं। धवलाकारने स्पष्टतः स्वीकार किया है । सुख-दुखके पण्डितजी स्थितिपालक अतएव चालू रूढिके समान गोत्र जीवका परिणाम है। यह तब भी होता पोषक हैं फिर भी वे इस रायसे सहमत है और है जब जीव विग्रहगति में होता है। ब्रह्माण परंपरादूसरोंको भी ऐसी सलाह देते रहते हैं कि दिगम्बर में गोत्रकी प्राप्ति जहां माता पितासे होती है वहाँ जैन-साहित्यपर ब्राह्मण साहित्यकी और श्वेताम्बर जैन परम्परामें नवीन भवके प्रथम समयकी परिजैन साहित्यपर बौद्ध साहित्यकी छाप पडो है। एक णतिके अनुसार उसको प्राप्ति होती है और कर्मतरफ वे स्थितिपालक होनेके नाते उन तथ्योंसे भूमिमें चारित्रके निमित्तसे वह बदल भी जाता चिपके रहना चाहते है जो ब्राह्मण साहित्यकी देन है। इससे भी यही निष्कर्ष निकलता है कि गोत्रका है और दूसरी ओर व्यक्तिगत चर्चामें वे उदार भी अर्थ रक्तपरम्परासे नहीं है। बने रहना चाहते हैं। इसे समझका फेर नहीं तो हम समझते हैं कि इतने लिखनेसे पण्डितजी और क्या कहा जाय । उस तथ्यको सम्यक रीतिसे जान लेंगे जिसका प्रकृत लेखमें सर्व प्रथम पण्डितजीने मेरे द्वारा । निर्देश मैने ज्ञानोदयके ४-५ अंकमें किया है। शास्त्राधारसे सिद्ध किये गये गोत्रके लक्षणके दूसरी आपत्ति पण्डितजीने मेरे द्वारा किये गये प्रसंगस 'सन्तान' शब्दके अर्थपर आपत्ति को है। शूद्रत्वाशुचित्वाविभावना संघावणेवादः' के अर्थपर एक आर वे सन्तानका अथे पुत्र-पौत्रपरम्परा करना की है। यह वाक्य सवोथेसिद्धिका है। चाहते है और दूसरी ओर निष्कर्ष निकालते समय अकलंकदेवने राजवार्तिकमें उक्त वाक्यका वे यह भी स्वीकार करते है कि किन्तु कालक्रमसे जो व्याख्यान किया है वह पण्डितजीके शब्दोंमें होनेवाले विभिन्न सन्तानी सदाचारी पुरुषोंके प्रवाह- इस प्रकार है 'ये श्रमण शूद्र हैं, स्नान न करनेसे को परम्परा कहते है।' इनका अंग मैलसे भरा है, ये गन्दे हैं, निर्लज्ज हमने उनके समस्त कथनपर सावधानी-पूर्वक दिगम्बर हैं।' इस व्याख्यानमें 'शद्र है' स्वतन्त्र विचार किया है। हमारा तो ख्याल है कि वे ज्ञानो- पद है और 'स्नान न करनेसे इनका अंग मैलसे दयक ५वें अंकमें प्रकाशित धवलाके सब उद्ध. भरा है। आदि स्वतन्त्र पद है फिर भी वे रणोंको एक-साथ मिलाकर पढ़ते तो वे एकमात्र अकलंकदेवके वर्णनसे ऐसा निष्कर्ष निकालना यही निष्कर्ष निकालते कि गोत्रके प्रकरण में सन्तान चाहते है कि 'जैन मुनि स्नान नहीं करते, उनका शब्दका अर्थ कालक्रमस होने वाले अनेक सन्तानी वदन मैला कुचैला रहता है, नंगे डोलते थे, बाह्य सदाचारी पुरुषोंका प्रवाह लिया गया है। वे ब्राह्मण- शुद्धिका वैसा महत्त्व उनकी दृष्टिमें नहीं था। जैसा परम्पराके समान गोत्रका सम्बन्ध रक्त-परम्परासे दूसरोंकी दृष्टिमें था, अत: उन्हें शद्र कहा जाता था।' न जोड़ते। यहां पण्डितजीने लेखनकी जिस कुशलतासे यह तो पण्डितजी जानते ही है कि गोत्रका काम लिया है वह पाठकोंकी दृष्टिसे ओझल रहेगी, उदय केवल मनुष्य पर्यायमें ही नहीं होता। वहां ऐसा हम नहीं मानते। जहां ग्रन्थमें 'ये श्रमण शूद्र भी होता है जहां रक्तकी परम्परा नहीं चलती। हैं। ऐसा कहनेके बाद 'क्योंकि' पदकी सूचना नहीं • और वे यह भी जानते होंगे कि गोत्रका उदय माता ------ के गभेमें आनेके पहले ही हो जाता है। १.देखो ज्ञानोदय मंक ५ पृष्ठ ३६८।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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