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________________ किरण ५] जीवन और विश्वके परिवर्तनोंका रहस्य जा सकती है। यही निकलते रहें और उसी तरहके उन्हींके स्थानपर सब कुछ परिवतेन या पुराना विनाश और नया दूसरे आते जाय तो ऐसी वर्गणाओंमें फरक नहीं उत्पादन होते हुये भी मूलभूत सब कुछ ज्यों-का-त्यों पड़ सकता है और वस्तु प्रायः ज्यों-की-त्यों रहेगी स्थिर रहता है । अवस्थाएं ही बदलती है, वस्तुका बदलेगी नहीं बाह्यरूप उसका जैसा-का तैसा दिखेगा। न एकदम विनाश हो सकता है और न नई वस्तुएं पर यह आन्तरिक क्रिया-प्रक्रिया तो फिर भी सदाही एकदम 'कछ नहीं' से बनाई ही जा सकती। चलती रहेगी। नियम उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य नामक तत्वको पूर्ण रूपसे जहां पद्गलपरमाणु इस तरहके आवें कि वर्ग- प्रतिपादित करता है। अवस्थाओंके परिवतनको णाओंकी आन्तरिक बनावट ही बदल जाय तब ही जैनसिद्धान्तमें 'पर्याय' कहा गया है। हमारे रासायनिक (chemical) विज्ञानमें वर्णित प्रक्रि- शरीरके अन्दर भी हरएक 'वर्गणा' और 'मलसंघ' याओंद्वारा उस वस्तु (substance) में ही परिवर्तन बराबर कम्पायमान होते रहते हैं। यह कम्पन कई होकर वह पुरानी वस्तु न रहकर दूसरी वस्तु हो जाती तरह का होता है। एक तो प्राकृतिक, जो शरीरके है । जो बात रसायनमें होती है वही और उसी अन्दर शरीर पोषण वगैरहकी क्रियाए अपने आप तरहकी बात या क्रियाएं शरीरकी हरएक वगणा या होती रहती हैं उनके कारण कम्पन तरह तरह के होते मौलीक्यूल के माथ भी पूर्णरूपसे लागू है। और ही रहते है । दूसर, बाहरी वस्तुओं द्वारा जो क्तियां यह सब कुछ कम्पन-प्रकम्पन (हलका भारी म्थायी अपना प्रभाव डालती है उनके द्वारा दूसरे कम्पन क्षणिक इत्यादि जो भी हो) द्वारा ही होता है। रासा- अपने आप होते रहते हैं। तीसरे तरहका कम्पन यनिक प्रक्रियाओं में भी वे ही वस्तुएं आपसमें एक वह है जिसे हम अपनी चेष्टाओंसे उत्पन्न करते हैं। दसरे पर आक्रमण कर तीसरी वस्तुके उत्पन्न होने इसमें भी तीन भेद है। मन-दारा, वचन-द्वारा.एवं का कारण होती है जिनमें आपसी कुछ ऐमी क्रियाएं शारीरिक हलन चलन या गति-द्वारा। इन्हें ही जैन करके मिलमिलाकर तीसरी वस्तु उत्पन्न करने शास्त्रों में 'योग' कहा गया है। की स्वाभाविक(affinity) सम्मिलनशक्ति योग्यता जिम समय हम एक विषयको अपने मनमें या गुण होता है । इसी लिए पुदगलपरमाणुआका सोचते रहते हैं उस समय हमारा मानसिक प्रदेश इसी मिलने या न मिलनेके भेदोंके अनुसार कई कार्यशील रहता है या कम्पित होता रहता है । एक भेदोंमें विभाजित किया गया है। आधुनिक विज्ञान अपना सिद्धान्त कुछ ऐसा ही पेश करता है और विषय या एक भावसे दूसरे विषय या भावपर जिस समय मन बदलता या जाता है इन कम्पनों में एक जैनदर्शन भी कर्मोके वर्णनमें कुछ इसी तरहकी तीव्रता अधिक रूपसे आती है। एक ही विषयपर बात 'स्निग्ध' 'रूक्ष' करके कहता है । जैसे गंधकका तेजाब और जस्त (ainc) को एक जगह शामिल ध्यान लगाए रखनेसे ये कम्पन काफी कम या एक करनेसे जो तीसरी वस्तु उत्पन्न होगी वही हरसमय ही तरह के होनेस शांतताकी भावना या स्थिति बाह्य इन दोनों वस्तुओंके सम्मिलनसे सर्वत्र उत्पन्न होती रूपमें भी प्रदर्शित करते हैं। इसीलिये एकाग्रता या है, यही एक स्वयंसिद्ध नियम या स्थायित्व इन मारे - ध्यानकी महिमा बहुत बड़ी कही गई है। परिवर्तनोंमें एवं इनको नियमबद्ध कहने या करने में प्रकम्पनादिक ओर हिंसा-किसी एक जीवित अथवा मंसारके परिवर्तनोंमें नियमितता रखने में वस्तुका रूपपरिवतन होना या एक रूप नष्ट समर्थ है। यही बात संसारकी या संसार स्थित होकर दूसरा उत्पन्न होनेका नाम ही हिंमा (?) है। किसी भी वस्तु या नियमकी स्थिरता अथवा स्थाय- जब कभी भी हमारे अन्दर कोई विशेष कम्पन होता त्वका कारण है। है तो इस शरीरके अन्दर जो अनंतानंत परम सूक्ष्म
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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