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________________ १७६ अनेकान्त [वर्ष १० जीवाणु (cells) विद्यमान हैं उनमें असंख्योंका उस जीवकी और उसके शरीरके अन्दर जिनने विनाश और असंख्यों नयोंका उत्पाद उसी समय जीवाण हैं उनकी हत्या तो इकटठा करते ही हैं: साथ उनकी जगह पर होता है। यह प्रकम्पन जितना तीव्र ही साथ उस तरहका पदार्थ खानेस हमारे शरीरके होगा विनाश और उत्पादकी यह क्रिया उतनी ही अन्दर भी बड़ा ही तीव्र प्रकम्पन और हेर-फेर होता बहत्या बड़ी होगी। मनकी अपेक्षा वचन और उम- है जो पुन: अनंतानंत जीवाणुओंकी हत्याका भीतरी से भी अधिक कायके हलन-चलनसे उत्तरोत्तर इन एवं बाहरी कारण बनता है। इस तरह कोई भी जीवाणुओंकी हिंसा अधिकाधिक होती है। इतना मनुष्य मांस खानेमें हिमा करके कई गुना और ही नहीं हमारे अन्दर यह हलन-चलन या प्रकम्पन बहुतर्फी हिंसाका भागी होता है। मांस खानसे होनेसे हमारे शरीरसे निकलने वाले पुद्गलों की गति भावों में जो कलुपता आंतरिक वगणाओंमे हेर-फर एवं संख्यामें भी तीव्रता या बढ़ोतरी हो जाती है। होकर उत्पन्न हो जाती है वह आगेके लिये एक हमारे चारों तरफ वायुमण्डलमे अनंतानंत जीव ऐस स्थायी कारण हिसाका कायम कर देती है। इस भरे पड़े है जिन्हे. हम देख नहीं सकते-इस तरह -इस तरह तरह खान पानकी शद्धि भो आत्म-लाभ और अहिउनका बड़ा भारी नाश हमारे प्रकम्पनोंमे स्वयमेव साकी साधनाके लिए परम आवश्यक है होता रहता है । इसी लिए हम जितना जितना भी परिवर्तनादिके मूलकारणका कुछ स्पष्टीकरण:मन-वचन-कायकी क्रियाओंको कम करें हिंमा उतनी सांसारिक परिवर्तनादिक एवं व्यक्त या अव्यक्त ही कम होगी। और यही अहिंसाका परम आदर्श और दृश्य या अदृश्य क्रियाएँ जो जगतमें होती है। और चूकि ऐसा करके ही हम पुद्गलोंसे छुट रहती हैं उनका मूल कारण वर्गणाओंकी अन्दरूनी कारा पाकर परम निर्वाण या मोक्षका लाभ करसकते बनावट में हेर-फेरका होना है। पर हमें यहां गणित. हैं इसीलिए “अहिसा परमो धर्मः" कहा गया है । की सहायता लेकर यह देखने या जानने की यथाजिस समय हमारा मन इतना अधिक एकाग्र होजाय शक्ति चेष्टा करनी है कि आखिर यह सब होता कि कुछ देरके लिए भी यदि ये मानसिक या शारीरिक चेष्टावाले हलन-चलन एकदम विल्कुल बन्द । क्यों या कैसे है ? तथा क्या और कैसा होनेसे क्या हो जायँ तो यह पुद्गलोंका पुज आत्मामेस सहसा अमर पड़ता है ? विषय बहुत ही विशाल है पर यहां थोड़से छोटे मोटे दृष्टान्त देकर विषयक दृष्टिकोसारा-का-सारा अपने आप झड़ जाय और आत्मा णकी तरफ लोगोंका ध्यान आकृष्ट या मुखातिब तुरंत मोक्षका लाभ करले। यह अवस्था परम निवि. करने मात्रकी चेष्टा ही की जायगी। छोटेसे लेखकी कल्प दशामें होती है और परम निर्विकल्प दशा या । परमशांत दशाको लानेवाली है। इस परम निर्वि- कौन कहे बड़े-बड़े पोथोंमें कितने ही वो तक लिखते कल्पताका तभी लाभ होता है जब पूर्ण ज्ञान उत्पन्न रहने पर भी इस विषयका अंत नही हो सकता। होजाय और हम हर एक बात या कार्यका कारण इस लिए लेखको अंतिम न मान कर केवल मात्र और असर भूत,वर्तमान,भविष्यके बारेमें जान जांय विषयसे परिचय कराने का एक बहुत ही छोटा परतथा कोई भी मानसिक विकार किसी तरहका रह माणु बराबर प्रयास ही मानना चाहिए। साधारण ही न जाय और सुख-दुखकी भावना एकदम अपने मनुष्यका, ज्ञान अपूर्ण है इस लिए कोई बात ऐन आप गायब होजाय-यही वह परम निर्विकल्प अपूर्ण ज्ञानवाले मानवकी कही हुई पूर्ण तो कैम दशा है जब आत्मा मोक्ष प्राप्त कर लेता है। होसकती है? और फिर ऐसी हालत में गलतियोंका - भोजन-पानका भी हिंसा-अहिंसासे बड़ा संबंध होना भी असम्भव नहीं। किसी भी Theory या है। किसी जीवको मारकर मांस निकालने में हम सिद्धान्तको तर्क एवं बुद्धिकी कसौटीपर कसकर
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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