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________________ किरण २] जैनेन्द्रव्याकरणके विषयमें दो भूलें में 'वृषगण' शब्द पड़ा है (पृष्ठ ४०)। पाणिनिने भी माना है परन्तु इसपर सब सहमत हैं कि वह पूज्यगगादिगणमें वृषगण शब्दका पाठ किया है। अब पादसे प्राचीन है। चान्द्रव्याकरणमें भी एकशेष रही आग्निशर्मायण आदि पदोंकी सिद्धि। वह प्रकरण नहीं है अतः अनेकशेषब्याकरणकी भी पाणिनीय व्याकरणमें विद्यमान है। पाणिनिने उपज्ञा प्राचार्य पूज्यपादकी नहीं है। हमारे मतमें नडादिगण (४|१शहद) में "अग्निशर्मन् वृषगणे" तथा जैनेन्द्रव्याकरणकी विशेषता है संज्ञाका लाघव । "कृष्णरणी ब्राह्मणवाषिष्टयोः" दो गण सूत्र पढ़े है। यद्यपि पाणिनीय व्याकरणमें भी ट घु आदि लघु भेद केवल इतना ही है कि पाणिनिने ये गणमूत्र मंज्ञाएँ हैं तथापि उसमें सर्वनाम, सर्वनामस्थान पढ़े हैं और जैनेन्द्र और शाकटायन व्याकरणमें जैसी महती संज्ञाएँ भी विद्यमान हैं जैनेन्द्रव्याकइन्हे सूत्रमे सन्निविष्ट कर दिया है। रणमें काई भी महती संज्ञा नहीं है। वार्षगण्य इश्वरकृष्णका नाम लिखा है और वस्तुतः व्याकरणमेंसे एकशेष प्रकरणको हटाना उसके आधारपर जो जैनेन्द्र के कालनिणयका प्रयत्न आचार्य चन्दगोमीकी भी उपना नहीं है। उसने तो किया गया है वह भी ठीक नहीं । वागण्य सांख्यका अपने व्याकरणमें आँख मींचकर पातञ्जल महाएक अत्यन्त प्राचीन आचार्य है । महाभारतमें भाष्यका अनुसरण किया है। पतञ्जलिने पाणिनिइसका बहुधा वर्णन मिलता है । तथा पाणिनिके के जिन-जिन मत्रोंका जैसा-जैसा न्यासान्तर दशोया व्याकरणमें वार्षगण्यकी सिद्धि होना भी इसकी चन्द्रगोमीन वैमा ही न्यासान्तर अपने व्याकरणमें प्राचीनतामें प्रत्यक्ष प्रमाण है अत: इस प्रमाणके रख दिया और जिन सत्रोंका प्रत्याख्यान किया आधारपर जैनेन्द्रका कालनिर्णय करना ठीक नहीं। उनको व्याकरणमें नहीं रक्खा। पतञ्जलिने महा यह भूल डा० वेलवेल्कर ने भी की है देखो.... भाष्य रा२।६४ में "अभिधान पुनः स्वाभाविकं" कह..... पृष्ठ........ कर एकशेपका प्रत्याख्यान किया है। और आगे भी २-पृष्ठ १०२ पर लिखा है-"अभयनन्दि कृत प्रतिसूत्र 'श्रयं योगः शक्योऽवक्तुम्' लिखा है। महावृत्तिवाले सूत्रपाठमे एकशेपको अनावश्यक महाभाप्यसे भी प्राचीन माथुरी वृत्तिका एक बतलाया है-"स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैकशेषानारम्भः, उद्धरण पुरुषोत्तमदेवने भाषावृत्ति १२।५७ में दिया (१११६१)। और इसीलिये देवनन्दि या पूज्यपाद- है-" माथुयों तु वृत्ती अशिष्यग्रहणमापादमनुवर्तते ।। का व्याकरण 'अनेकशेष' कहलाता है। चन्द्रिका इस उद्धरणके अनुसार एकशेपकी अशिष्यता स्वयं टीकाके कर्ता स्वयं ही 'श्रादावुपज्ञोपक्रमम्' ( १९१४) सूत्रकार पाणिनिने का सत्रकार पाणिनिने दर्शाई है ऐसा सिद्ध होता है। सूत्रकी टीकामें उदाहरण देते हैं-"देवोपज्ञमनेकशेष- ऐसी अवस्थामें उपलब्ध व्याकरणोंमें जैनेन्द्र व्याकरणम् ।" यह उदाहरण अभयनन्दिकृत महा- व्याकरण ही अनेकशेष व्याकरण है और अनेकवृत्तिमें भी दिया गया है। शेष व्याकरणकी उपज्ञा प्राचार्य पूज्यपादकी है यह पुनः पृष्ट १०३ पर लिखा है-"पाठकोंको स्म- ठीक नहीं। रण रखना चाहिये कि उपलब्ध ब्याकरणों में "अने- इस विषयपर हमने अपने "संस्कृत व्याकरणकशेष" व्याकरण केवल देवनन्दिकृत ही है दूसरा शास्त्रका इतिहास" प्रन्थमें विस्तारसे लिखा है। नहीं।" यह ग्रन्थ छप रहा है। यह लेख भी ठीक नहीं है। चान्द्रव्याकरणका आशा है विद्वान् महानुभाव इसपर विचार समय यद्यपि ऐतिहासिकोंने बहधा भिन्न-भिन्न करेंगे।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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