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जैनेन्द्रव्याकरण के विषय में दो भूलें
(युधिष्ठिर मीमांसक)
- *सन् १६४२ में श्री० पं० नाथूरामजी प्रेमीके श्रीमान् मा० पण्डितजीकी आज्ञानुसार उन दो विविध विद्वत्ता एवं अन्वेषणपूर्ण लेखोंका संग्रह भूलोंपर यह लेख प्रकाशित कर रहा हूं। आशा है 'जैन साहित्य और इतिहास' नामक ग्रन्थ प्रका- इससे अनेक महानुभावों को लाभ होगा। शित हुआ । उसमें आचार्य देवनन्दि-विरचित १-डा० काशीनाथ बापूजी पाठकके प्रमाण जैनेन्द्रब्याकरणपर एक लेख छपा है। उसमें दो उदधत करते हए श्री० पण्डितजी ने लिखा हैभले है। उनकी ओर गत अगस्त मासमें श्री० मान- "पाणिनीय व्याकरणका सत्र है-'शरद्वच्छनकनीय पण्डितजीका ध्यान आकर्षित किया गया।
आकर्षित किया गया। दर्भाद् भृगुवत्सामायणेसु' (४।१।१०२)। इसके स्थानमें उन्होंने मेरे पत्रका उत्तर देते हुए लिखा
जैनेन्द्रका सूत्र इस प्रकार है-'शरद्वच्छनकदर्भाग्नि"आपने मेरे जैनेन्द्रव्याकरण सम्बन्धी लेखमें शर्मकृष्णरणात् भृगुवत्सारायणवृषगणब्राह्मणवसिष्ठे'जो दो न्यनताएं बतलाई है उनपर मैने विचार (३।१।१३४)। किया। आपने जो प्रमाण दिये हैं वे बिलकुल ठीक इसीका अनुकरणकारीसूत्र शाकटायनमें इस हैं। इनके लिये मैं आपका कृतज्ञ हूं।........ तरहका है-'शरदच्छुनकरणाग्निशमकृष्णदर्भाद् भृगु
आपने जो न्यनताएं बतलाई है उन्हें एक लेखके वत्सवसिष्ठवषगणब्राह्मणग्रायणे ।' २।४।३६॥ रूपमें यदि आप 'अनेकान्त' या 'जैनसिद्धान्त
इस सूत्रकी अमोघा वृत्तिमे "श्राग्निशर्मायणो भास्कर' में प्रकाशित करदें तो ज्यादा अच्छा हो " वाषगण्यः। श्राग्निशमिरन्यः" इस तरह व्याख्या की है।
इन सूत्रोंसे यह बात मालूम होती है कि कर्मसिद्धान्त(Kar.na-Philosophy)को ठीक-ठीक पाणिनिमें 'वार्षगण्य' शब्द सिद्ध नहीं किया गया। तरह समझ लिया जाय एवं ऊपर लिग्वे मुताबिक जबकि जैनेन्द्र में किया गया है। वार्षगण्य' सांख्य
आत्मा और पुद्गलोंके मंयोगकी जो व्याख्या दी कारिकाके कर्ता ईश्वरकृष्णका दूसरा नाम है।" गई है उसे स्वीकार कर लिया जाय तो फिर किसी (पष्ठ ११८) भी धर्ममें कोई झगड़ा न तो सिद्धान्तोंका रह जाता इस लेख में दो बातें दर्शाई हैं। एक-जैनेन्द्र है न मान्यताका । हाँ, व्यवहार या आचरण देश, व्याकरणके उपर्युक्त सूत्रमें 'चार्षगण्य' की सिद्धि काल, परिस्थिति एवं स्थान या आवश्यकतानुसार दर्शाई है। दसरी-पाणिनिमें वागण्यकी सिद्धि भिन्न भिन्न हो सकता है और होगा ही। क्या हमारे नहीं है। ये दोनों बातें ठीक नहीं हैं । जैनेन्द्र और धार्मिक नेतागण एवं Philosophers दर्शनके जान- शाकटायनके जो सूत्र ऊपर उद्धृत किये गये हैं उनमें कार इधर ध्यान देकर इस चिरकालसे चले आते वार्पगण्य गोत्र होने पर "श्राग्निशर्मायण" की सिद्धि हुए विवादको दूर करेंगे ? यदि ऐसा होजाय तो दर्शाई है न कि वार्षगण्यकी । वार्षगण्यकी सिद्धि फिर संसारमें स्थायी शान्ति और फलस्वरूप सच्चा जैनेन्द्र व्याकरणके "गर्गादेर्यन " (३।१।६४)(पृष्ठ ३६) सुख सचमुच स्थापित होजाय ।
से यत्रप्रत्यय होकर होती है । गगोदिगण (४|११०५)