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________________ भट्टारकवादीभसिंहमूरि-विरचित नवपदार्थनिश्चय .00000... [गत वर्ष जब वादीभसिहसूरिके 'स्याद्वादसिद्धि प्रन्थका सम्पादन-कार्य कर रहा था, पण्डित परमानन्दजीद्वारा मुझे मालूम हुआ कि बाढीभतिहसूरिकी 'नवपदार्थनिश्चय' नामकी एक और रचना है और जो अभी अप्रकाशित है और इसलिये उसे भी 'स्याद्वादसिद्धि के साथ निबद्ध एवं प्रकाशित हो जाना चाहिए। मैंने उन्हें एक अभिनव ग्रन्थ-प्राप्तिके लिये अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुए उसे मंगानेको कहा और उसका पूरा परिचय प्राप्त करनेकी अपनी आकांक्षा व्यक्त की। उन्होंने पण्डित के० भुजबलिजी शास्त्री मृडबिद्रोको पत्र लिखा और शास्त्रीजोने शीघ्र जैनमठसे उक्त प्रन्थ भेज दिया, जिसके लिये दोनों विद्वान् धन्यवादके पात्र है । इस ग्रन्थको मैं बड़ी उत्सुकतासे आद्योपान्त देख गया। परन्तु यह उन्हीं वादीभसिंहसूरिकी कृति मालूम नहीं होती जिनकी स्याद्वादसिद्धि, गचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणि ये तीन महत्वपूर्ण एवं प्रौढ कृतियाँ है और जिनका समय जिनसेनस्वामी (E वीं शती) से पूर्ववर्ती है । ग्रन्थकी भाषा, विषय और वर्णन-शैली प्रायः उतनी प्रौढ नहीं हैं और न ग्रन्थका जैसा नाम है वैसा इसमें महत्वपूर्ण विवेचन है-साधारणतौरसे नवपदार्थो के मात्र लक्षणादि किये गये हैं। अन्तःपरीक्षणपरसे यह प्रसिद्ध और प्राचीन तके-काव्यग्रन्थकार वादोभसिंहसरिसे भिन्न और उत्तरवर्ती दसरे वादीभसिंहकी रचना जान पड़ती है। अन्तमें जो पुष्पिका-वाक्य पाया जाता है उसपरसे भी वह किसी 'वादीभसिंह' नामधारी भट्टारक विद्वानकी कृति ज्ञात होती है । वह पुष्पिकावाक्य निम्न प्रकार है: _ 'इति श्रीभट्टारकवादीभसिंहसूरिविरचितो नवपदार्थनिश्चयः' इसका सामान्य-परिचय नीचे दिया जाता है रचनाके प्रारम्भमें प्रथम पद्यद्वारा अजित जिनको नमस्कार करके तत्त्वोंको कहनेकी प्रतिज्ञा और प्रयोजन बतलाया है। दूसरे पद्यमें उन (सात) तत्वोंका नामोल्लेख किया गया है और तोसरेमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश इन पांचको अस्तिकाय बतलाया है। आगे इन्हींका कथन चाल हो गया है । ४ से ४३वे पद्यतक जीवतत्त्वका, ४४ से ४६ तक पुद्गलतत्वका, ५० से ५३ तक धर्म और अधर्म तत्त्वका, ५४ से ५५ तक दो पद्योंमें आकाशतत्त्वका, ५६ से ५७ तक दो श्लोकोंमें कालतत्त्वका वर्णन किया गया है और ५८ वें पद्यमें जीवको छोड़कर उक्त तत्त्वोंको ‘अजीव' निर्दिष्ट किया गया है । इसके बाद ५६ से ६१।। तक ३॥ पद्योंमें पुण्यके भावपुण्य और द्रव्यपुण्य ये दो भेद करके कारुण्यादिको भावपुण्य और सातादिको द्रव्यपुण्य बतलाकर द्रव्यपुण्यके धम्य, अधर्म्य और निरनुबधि ये तीन भेद किये गये है और धर्म्यद्रव्यपुण्यको सम्यग्दृष्टियोंमें, अधम्य द्रव्यपुण्यको मिथ्यादृष्टियोंमें तथा निरनुबन्धि द्रव्यपुण्यको चरमशरीरियोंमें कहा है । इसके आगे २॥ श्लोकोंमें पुण्यकी तरह पापके भी भावपाप और द्रव्यपाप ये दो भेद बतलाये है और उनका स्वरूपनिर्देश किया है । ६४ से लेकर ७२ तक ६ पद्योंमें आस्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोक्ष तथा मुक्तजीवका कथन किया है । अन्तिम ७३ वें पद्यमें उक्त पदार्थोंका उपस हार करते हुए उनको जाननेका फल केवलज्ञान बतलाया है। इस तरह
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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