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________________ अनेकान्त [ वर्ष १० विपरीत आचरण हैं। सभीके शरीरमें वे हीरस, धातु जितनी अधिक से अधिक संख्यामें लोग धर्म-लाभ या खून वगैरह हैं। शरीर तो जैसा एक पापीका कर उन्नति कर सके-अपनी मानसिक, नैतिक, वैसा ही प्रायः किसी मुनिका एक समान ही एवं आध्यात्मिक तरक्की कर सकें, उतनी ही अधिक अपवित्रताओंकी खान है। आत्मज्ञान द्वारा आत्मा सफलता इनके होने और रहनेकी कही जा सकती को उन्नति जितनी-जितनी होती जाय वही शुद्धता है। धर्मो और मतमतान्तरों की विभिन्नता एवं कही जासकती है। पर उसके मापनेका कोई बाहरी मान्यताओं या आचरणों में फर्क तो किसी-न-किसी मापदंड नहीं। इसलिये किसीको नीच या ऊंच रूपमें रहेगा ही उसे एकदम दूर करनेकी सोचना कहना, समझना या दूसरोंको भी ऐसा करनेके एकदम मिटा देनेके मंसूबे बॉधना गलत एवं लिये बहकाना या बाध्य करना जैनधर्म नहीं है। बहकी हई बात है। जरूरत ऐसी हालतमें यह है कि यहाँ तो "समतावाद"की ही प्रधानता एवं महत्ता हम बातकी अमलियतको समझे और आदर्श की हर तरफ आदर्श और व्यवहार दोनोंमे ही है । तरफ ध्यान रखते हुए जो कुछ समयानुकूल हमारे समाजके अग्रणी पण्डित, विद्वान, त्यागा, व्यावहारिक हो तथा एक-दूसरेको आगे बढ़ने में एवं समझदार सभी व्यक्तियोंको अहकारोंको सहयोग एव सद्भावना-पूर्वक संभव हो उसे ही छोड़कर स्थिर एवं शान्त चित्तसे ध्यान देकर ऐसे अपनावें तभी अपना भी और सभीका भला होगा। एकान्त मिथ्यात्वों या मिथ्या आचरणोंको शीघ्र आशा है हमारे समाजके प्रमुख व्यक्ति इसपर दूरकर सच्चे धर्मकी पुनः स्थापना करना कत्तव्य ध्यान देकर सच्चे अहिंसापूर्ण "श्रात्मधमक" है और ऐसा करके ही वे अहिंसाका पालन विस्तृत प्रचार एवं विस्तारमें सहायक होकर ससार सचमुच कर सकते हैं। अन्यथा सब कुछ हिंसा, हिसार में ज्ञानकी वृद्धि करेंगे और स्वयं उन्नति करते हुए अहंकार, एवं दूसरोंको नीचे गिराना या गिरोंको लोकका सच्चा कल्याण करनेमें सफलीभूत हाग ऊपर न उठने देनेकी जो अति निम्न प्रवृत्ति है जो हमारे मानव-जीवनका एकमात्र कर्तव्य, ध्येय वह सब जैनधर्म या जैनतत्त्वोंके एकदम विपरीत और असली पुरुषार्थ है। आचरण है जैनधर्म ही क्यों कोई भी धर्म संसारमें सच्चे ज्ञानका पुरुषार्थ एव निर्बाध विकास एकमात्र ऐसा करके ही सच्चा धर्म कहा जा सकता है जो आत्माको ठीक ठीक समझ गया ही हमारी मृढ़ताओंको दूर कर सारी बुराइयोंको पृथ्वीतलसे विकास मिटा सकनेमें समर्थ होगा। हो उसकी तो यह समतापूर्ण दृष्टि ही एकमात्र और ज्ञानका सुसंस्कृत चौमुखी विकास हर दृष्टिपहचान है। जहां यह या ऐसी बात अथवा विश्वास या आचरण न हो वहां आत्मधर्मकी कोणकी साधना या जानकारी द्वारा ही संभव है। तरफ सच्ची प्रवृत्तिका अभाव ही समझना चाहिये। हराएक धर्म, दर्शन या सिद्धान्त अलग-अलग दृष्टिजो कुछ बाहरसे इसके विपरीत कहा जाय या कोण उपस्थित करते है। इसलिए ज्ञानके पूर्ण विकास दिखलाया जाय वह तो फिर कोरा भ्रम. गलत और निमलताके लिये सभी दृष्टिकोणोका जानना मार्ग, ढोंग या मिथ्यात्वका आचरण ही ठहरा। आवश्यक है। इसीलिये खामखाहके वैर-विरोधों धर्म या धर्माचरणकी व्यवस्था और मंदिरों और रगड़े झगड़ोंको छोड़कर यदि हम सभी धर्मोकी एवं मूर्तियोंका निर्माण ही हश्रा है आत्माकी तरफ बातांको प्रम और मनोयोगपूर्वक समझे तभी हमारा झुकाव पैदा करने के लिए और मनुष्य की उन्नतिके ज्ञान परिष्कृत होगा और दृष्टि संकुचित न रहकर शुद्ध लिये साधन स्वरूप । पर यदि उमसे गिरे हुओंका तथा विकसित होगी। तभी हम सच्चे रूपमें कुछ लाभ न हो सके तो सब बेकार । इनके द्वारा आत्मलाभ कर आत्मकल्याण भी कर सकेंगे।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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