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________________ करण.] अपभ्रंश भाषा के दो महाकाव्य ३१७ जिणसेण जिणागम कमलसूरु। सारकी टीका अभी तक नहीं प्राप्त होसकी। रन वारायणु बग्णाविय वियट्ट , करएड श्रावकाचार एव वृहत्स्वयंभूस्तात्र और सिरिहरिम रायसेहरु गुणट्ट,। समाधितंत्रादि पर भी इनकी टोकाएं प्रकाशित हो असइंधु जए जयराम णामु, चुकी है ये नयनन्दीके गुरुभाई थे। यह भी जयदेउ जणमगाणंद कामु । विक्रमकी ११ वीं शताब्दोके उत्तराधके विद्वान हैं। पालित्तउ पाणिणि पवरसेणु. इन्हान सकल-विधि-विधान काव्यकी श्राद्य प्रशस्ति पायंर्जाल, पिंगलु वीरसेणु । मे प्रभाचन्द्रका उल्लेख किया है। सिरिसिंहणंदि गुणसिंह भद्द, कविवर नयनन्दी उक्त ग्रन्थका निमोणभी अव. गुणभद्द गुणिल्लु समंतभह । न्ति देशको उस सप्रसिद्ध धारा नगरीमें किया है अकलकोव समवाईम बिहादि, जो उस समय अवन्ती देशको राजधानी थी और कामद्द रुद्द गाविद'दंडि । जिसमें परमारवंशी राजा जयसिंह राज्य करता था मम्भुर भारहि भाहवि महंतु, जो 'भोज' इस नामसे लोकमें सर्वत्र विश्रत था। उस चउमुह सयभु कइ पुप्फयंतु । समय धाग नगरी जनधनसे संकीर्ण और कला. घत्ता-सिरिचंद पहाचंद वि विबुह कौशलमें अद्वितोय थी। धारा-नरेश जितना पराक्रमी गुण गणदि मणोहरु । और प्रतापी था उतना हो वह विद्या-व्यसनी कइ मिरिकमारु मरमइ कुमम, भी था। धारा उस समय संस्कृत विद्याका केन्द्र बनी कित्ति विलासिण सेहरु॥॥ हुई थी। वहां विद्यासदन अथवा सरस्वतीपाठइन विद्वानों में उल्लग्वित श्रीचंद्र और प्रभाचन्द्र शाला नामक एक विद्यापीठ था जिसमें सदर भी समकालीन विद्वान हैं उनमे श्रीचन्द्र वला देशोंके विद्या-रसिक अपनी ज्ञान पिपासा को शान्त कारगणके आचार्य श्रीननिके शिष्य थे जो लाल करने जाते थे । राजा भोजदेवकी अनेक उपाधियां बागर संघमें हुए हैं। इन्होंन मामरमेन मैद्धान्तिकसे थीं जिनमे कुछ उपाधियाँ उसके विद्याप्रेम. क्षात्रतेज महापुराणके विषम- पद्योंका विवरण जानकर और और दयालुता आदि सद्गणोंकी परिचायक हैं: मल टिप्पणका अवलोकन कर उत्तर पुराणके टिप्पण 'सरस्वतो कठाभरणदेव रणरंगमल्ल' तिहुवण की रचना सं० १०८०में की है। और पुराणसार भी तरायणभुवलभाण' परमेसर, और अत्थीजणणिहाल सं०१०८० या १०५ की रचना है: किन्तु पद्म-चरित इन उपाधियोंसे उसके महत्वका भी सहजमें ही भान टिप्पणको पंडित प्रवचनसनसे सनकर वि० सं० हो जाता है। राज भोज अपनी प्रजाका प्यारा शा१०८७ में बनाया है। सक था । धारा उज्जैन और अवन्ति देशके पासप्रभाचन्द्र उक्त मणिक्य नन्दीके शिष्य थे और पासका इलाका उस समय जैन साधुओंका विहारन्यायशास्त्रके महा पंडित थे । इन्होंने माणिक्यन स्थल बना हुआ था-वहां अनेक तपस्वी मुनिपुंगव न्दी के परीक्षामुखपर और अकलंक देवके लघीय आचाये और विद्वान् श्रात्मामें साधनाका अभ्यास स्त्रयपर विशाल टीकाओंका निर्माण किया है इनके करते हुए जगतके कल्याणकी निष्काम भावना अतिरिक्त और भी अनेक टीका ग्रन्थ लिखे हैं। श्रा से प्रेरित होकर उन्हें. सन्मार्गका उपदेश देते थे चाये कन्दकन्दके समयसारादि प्राभृतत्रय पर टीका और जैन संस्कृतिके प्राणभूत अनेक शास्त्रों की लिखी गई है जिनमें पंचास्ति काय और प्रवचनसार रचना भी करते थे। उस समय धारा में विशाल की टीकाएं तो मेरे देखने में आई हैं। परन्तु समय ज्ञान भंडार थे, जिन में धार्मिक माहित्य और
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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