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अनेकान्त
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किया गया है । प्रन्थमें ५८ संधियां हैं। प्रन्थकी यह सं० १५८० की लिखी हुई है जो सुन्दर एवं सुवोध्य अक्षरों में लिखी गई है और जिमकी पत्र संख्या ३०४ है ग्रन्थ भट्टारक महेन्द्रकोति आमेरके ज्ञान भंडार में सुरक्षित है। इस ग्रंथकी आद्यप्रशस्ति बड़ी ही महत्वपूर्ण है, उसमें ग्रन्थरचना और गुरुपरम्परा के साथ अपने समसमयवर्ती तथा अपनेसे पूर्व वर्ती अनेक जैन जैनेतर कवियों का नामोल्लेख किया गया है जो ऐतिहासिक दृष्टिसे बड़े महत्वका है प्रन्थ इस समय सामने न होनेसे उसका विस्तृत परिचय देना संभव नहीं है, हां इतना कहने में कुछभी आपत्ति नहीं कि ग्रन्थ विशालकाय है उसमें विविध विवर्त्तित है और अपभ्रंशके रड्ढा आदि सौसे अधिकांसे अलंकृत हैं साथही ललितकाव्य ग्रंथों जैसी विशेषताएं उमको अपनी मौलिकता को निर्देशक हैं । कविकी प्रतिभाका ग्रन्थमें खूब उपयोग
है और उससे विकी चमत्कारिणी लेखनीका सहज ही में भान होजाता है। ग्रंथ कितना सरल और चित्ताकर्षक है यह उसके पढ़नेसे ही सम्बन्ध रखता है । प्रथके अंत में कोई प्रशस्ति नहीं है, यह निम्न पुष्पिका वाक्य हो उसकी समाप्तिका सूचक जान पड़ता है:
मुणिवर यदी सचिब पसिद्धे सयल विहिषिहाणे एत्थ कन्वे सुभव्वे । अरिह पमुह यत्त्वस्तुमाराहणा पण फुड संधी अट्ठावरण ममोति ।। ग्रन्थ अपने आपमें परिपूर्ण तो है ही उसकी महत्ता उसके अध्ययन और मननसे स्वतः ही ज्ञात हो जाती है और महाकाव्याँसे उसकी समता भले प्रकार की जा सकती है । इस अप्रकाशित ग्रन्थके प्रकाशन से जहां अपभ्रंश भाषा ज्ञान भंडारकी अभिवृद्धि होगी वहां हिन्दी भाषाक विकासपर भी काफी सामग्री संचितकी जा सकेगी। साथही यह भी मालूम हो सकेगा कि ११ वीं शताब्दी में हिन्दी भाषा का रूप किस अवस्था तक विकसित हो चुका था ।
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ग्रन्थरचना और समयादिका निर्देश
को रचनाका निर्देश करते हुए लिखा है कि बारा कविवर नयनन्दोने-सकल-विधि-विधान काव्य नगरी में नमि नामका एक ठाकुर था जो सव प्रकार से सम्पन्न था उसन त्रेलोक्य कोर्तिस्वरूप एक सुप्रसिद्ध सिंह मुनि निवास करते थे जो जिनशासनरूप विहार बनवाया था । उमो विहारमे आचार्य हरिनगर के तोरण, वाग्दवो रूपा तरंगो के लिये मगर मच्छ थे और जिनको तपः श्रा बहुतांका मन चुगतो थी । इन्होंके समाप मुनि नयनन्दोभी रहते थे जिनका वाणी कोमल था और जिनका चित्ताभिलाष प्रस्फुटित हारहा था। तब आचाय हरिसिंहने कहा कि निर्दोष काव्य की रचना करो | नयनन्दोने अपनो लघुता प्रकट करते हुए अपनो असमर्थता व्यक्तको और वह कि मुझे छंद अलंकार, काव्य करण और साहित्या दिका विशेष ज्ञान नहीं है तब आचाय श्राने हंसते हुए उत्तर दिया कि तुममे शीघ्रकविता करन की प्रति मा तो है अथात् आप जल्दो ही अच्छी कविता कर सकते है आचाय हरिसिंहकी प्रेरणासही इस काव्यप्रन्थको रचना हुई है ।
ग्रन्थ में पर- अपरवर्ती तथा समकालीन जिन विद्वानों का उल्लेख किया गया है उनके नाम इस प्रकार है: - वररुचि, वामन, कालिदास, कौतूहल, चा, मयूर, जिनसेन, वारायण श्राष, राजशे वर जसचन्द्र, जयराम, जयदेव पालित्त ( पादलिप्त १) पाणिनो प्रवरसेन, पातञ्जलि पिंगल, बोरसेन, सिंह नंदि, सिंहभद्र, गुणभद्र, समन्तभद्र, अकलक, रुद्र, गोविंद, दंडी भामह भारवि, भरह चउमुह, स्वयंभु पुष्पदन्त, श्रीचन्द्र, प्रभाचन्द्र, और श्रीकुमार, जिन्हें 'सरस्वती कुमार' भो सूचित किया है। जैसा कि उनक निम्न प्रशस्ति वाक्योंसे प्रकट है:भरणु जएगा वक् बम्मीय वासु, ares नाम कविकालियाम् । काऊहलु बाणु मऊरु सुरु,