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________________ अनेकान्त [ वर्ष १० इन आठ प्रकारके लोकोंसे भरपूर है)'। समस्त । परमात्मा पुरुषाकारलोकके अनुरूप ही पुरुषाकार है। विश्व उसके आश्रित है। यह मान्यता उसकी लोक-प्रसिद्ध सर्वज्ञातावाद का ___ इसके अतिरिक्त वैदिक साहित्य में जगह-जगह ही एक अनिवार्य निष्कर्ष है। उसका मत है कि जब जहां विराट् लोक रचनाका वर्णन आया है वहां उसे आत्मा मोहमायासे रहित हो, अपनी समस्त इच्छापुरुषाकार होने के कारण 'पुरुष' 'अधिपुरुष' सत्तासे ओं और कामनाओंको जीत लेता है,तो वह स्वराज्यही जनाया गया है। __ को प्राप्त कर लेता है, स्वराज्य प्राप्त करनेपर वह चूकि पुरुषका भकार ऐसे अद्भुत वृक्षके समान सर्वगत,सर्वभू , सर्ववित,सर्वज्ञ होजाता है-श्रर्थान् है जिसका शिर रूप मूल ऊपर की ओर है और हाथ- वह अपनेको जानता हुआ सबको जाननेवाला हो पांवरूप शाखायें नीचेकी ओर हैं, इस वास्ते जाता है । उसमें स्व और पर, ज्ञाता और ज्ञयका ब्राह्मण ऋषियोंने पुरुषाकार लोकके लिए उपयुक्त कोई विकल्प न रहने के कारण वह समस्त भूतोंमेंप्रकारके अश्वत्थ वृक्षकी भी उपमादी है: समस्त लोकों में व्याप्त हो जाता है। श्रात्मा ज्ञान(अ) ऊर्ध्वमूजोऽवाशाखा, एषो अश्वत्थः सनातनः। प्रमाण है, ज्ञान ज्ञय-प्रमाण है, ज्ञय लोकालोकतदेव शुक्र तद्ब्रह्म, तदेवामृतमुच्यते ॥ प्रमाण है इसलिए सम्पूर्ण ज्ञानी आत्मा अथात् -कठउप०६-१ परमात्मा अलोकाकाश-वेष्टित लोकप्रमाण है। लोक (श्रा) ऊर्ध्वमूलमधःशास्त्रमश्वत्थं प्राहुरम्ययम् । पुरुषाकार है इसलिए परमात्मा भी आकाशवेष्टित -गीता १५-१ पुरुषाकार है। अर्थात्-यह लोकवृक्ष जिसका शिर ऊपरकी इस पुरुषाकार परमात्मा की मान्यता तो इतनी और पर नीचेकी ओर हैं सनातन और अव्यय है। विश्वव्यापी है कि परमात्माको पुरुषाकार मूतिद्वारा इसका कभी नाश नहीं होता। संकेत करने की प्रथा केवल भारत देश तक ही लोककी यही मान्यता भारतके सभी तान्त्रिकों सीमित नहीं है बल्कि यह प्रथा बाहिरके देशों में को भी मान्य है । उनका मत है कि “यथा पिण्डे भी फैल कर जहां पश्चिमकी ओर उत्तरीय योरूपतथा ब्रह्माण्डे" के देशों तक पहुँची है वहां पूर्वकी ओर समस्त पुरुषाकार परमात्माकी मान्यता चीनमें भी व्यापक हुई है। इस पुरुषाकार लोककी मान्यताके साथ-साथ वैदिक संहिताएँ और उपनिषद् तो उक्त श्रमणसंस्कृति की यह भी प्राचीन मान्यता है कि, मान्यताके उदाहणोंसे भरपूर है । जिनके कुछ १..... 'अष्टौ वसव..... ॥२॥कतमे इति अग्निश्च नमूने इस प्रकार है:पृथ्वी च वायुश्वान्तरिक्षं चादित्यश्च योश्च चन्द्रमाश्च मोहमयाज्ज्ञानदर्शनाधरणान्तरायक्षयाच केवलम् । नक्षत्राणि चैते वसव एतपु हीदं वसु सर्व हितमिति -उमास्वतिकृत तत्वार्था धिगमसूत्र १०-१ तस्माद्वसव इति" -वृ० उप. ३, ६, ३ उप०३, ६,३ . २ (घ) श्रादा णाणपमाणं, णाणं णयप्पमाणमुट्ठि। २. (क) तस्माद्विराजायत विरजो अधिपुरुषः —णेय लोगालोगं तम्हा णाणं तु सम्वगयं ॥ -ऋग्वेद १०,१०,५ -कुन्दकुन्दाचार्यकृत प्रवचनसार, १-२३ (ख) स ईक्षतेमेनु लोकाः लोक पाखान्नु सजा इति ॥ (पा) पम्चाध्यायी २, ८३-८३८ सोऽदम्य एव पुरुष समुद्धत्यामूच्छयत् ॥ 3. Dr. Pran Nath-Indian Historical -एत. उप० १,१३, ४ Quarterly Vol. VIII June 1932— (ग) चरक संहिता, शरीरसंस्थान, अध्याय ५ The scrip of the Indus Valley ३. History of Indian literature Vol. Seals-p. 21. I. 1927, pp. 586-605 by Dr.Winternitz. "The cult of representing the Sup: ,
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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