SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 496
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ --- -- --- - किरण ११-१२ ] मोहनजोदड़ोकी कला और श्रमण-संस्कृति ४५५ यस्य भूमि कमान्तरिक्षमुतोदरम् । ___ इस सूक्तमें जिस ज्येष्ठ अथात् आदिब्रह्मको दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्य ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥३२॥ नमस्कार किया गया है वह जैनमान्यताके अनुसार यस्तु सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णवः । वृषभ-प्रतीकधारी आदितीर्थकर ऋषभ भगवान है। अग्नि यश्चक पास्यं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥३३॥ पुनः परमात्माका विराट स्वरूप वर्णन करते यस्य वात: प्राणापानौ चचुरक्षिरसोऽभवन् । हुए मुण्डक उपनिषद्म लिखा हैदिशो यश्चक प्रज्ञानीस्तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥३४॥ अग्निमूी चक्षुषी चन्द्रसूयौं दिशः यः श्रमात् तपसो जातो लोकान्त सर्वान्त समानशे । श्रोत्रे वाग्विवृताश्च घेदाः। सोमं यश्चके केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥३५॥ वायुः प्राणो हृदयं विश्वस्य पदयां -अथर्ववेद, काण्ड १० सूक्त ३६ पृथिवी यष सर्वमूतान्तरात्मा ।। अर्थात-जिसने भूमिको अपने चरण,अन्तरिक्ष -मुण्डक उप०२-१-४ लोकको अपना उदर, दिव्यलोकको अपना सिर अर्थात्-द्य लोक जिस पुरुषका शिर है, चन्द्र. बनाया है उम ज्येष्ठ ब्रह्मके लिए नमस्कार है ॥३२॥ मूर्य नेत्र है, दिशायें कान है, वाणी विस्तृत वेद जिसने सूर्य और चन्द्रमाको अपनी दोनों आखें बनाया है, वायु जिमके प्राण हैं, विश्व जिसका हृदय है, है , अग्निलोकको अपना मुख बनाया है, उस ज्येष्ठ पृथ्वी जिसके पांव है ऐसा पुरुष समस्त भूतोंमें ब्रह्मके लिए नमस्कार है ॥ ३३ ॥ वायुलोक जिसके व्यापक है, अर्थात् वह सबका ज्ञाता-दृष्टा है। प्राणापान समान है, अङ्गिरम जिसके चक्षुके समान हैं, जिसने दिशाओं को कान बनाया है, उस ज्येष्ठ संसारके उन सभी देशोंमें भी जहां यहूदी,ईसाई, ब्रह्मके लिए नमस्कार है ॥३४।। जिसने घोर तपस्या- अथवा इसलाम धर्म प्रचलित हैं परमात्माको पुरुद्वारा सर्वान्त लोकान्त अर्थात् सबके अन्तमें स्थित षाकार माना गया है । क्योंकि उनका कहना है कि लोकशिखिररूप सिद्धलोकको प्राप्त किया है और परमात्माने मनुष्य को अपने सदृश, अपनी आकतिजिसने केवल सोम अर्थात् सम्पूर्ण आनन्दको प्राप्त के अनुरूप पैदा किया है। किया है, उस ज्येष्ठ ब्रह्मके लिए नमस्कार है ॥३६।। इस प्रकार परमात्माकी मान्यताके प्राधारपर ही जैन यतियोंने पिण्डस्थ ध्यानका वर्णन करते reme God by the boneosign does not हुए लिखा है-ध्यानीको चाहिए कि वह अपनी appear to be confined to India. नाभिमें मेरुकी कल्पना करे, ग्रीवाम नव वेयिThis cult so widely spread that it कोंकी. ठोडीम पश्चअनुदिशोंकी, चेहरेमें पश्चानुत्तर appears to have reached the extreme की और ललाटमे मिटलोकमी का corner of Northern Europe on the जैन संस्कृतिके इस तात्त्विक विवेचनसे सिद्ध one side and a corner of Asia viz. China on the other." As for as १. Bible-old testament-Genesis.And Vedas and Upanishadas are concer God said-'Let us make God in one ned they abound in passages referr image after our likeness, 1-26 ing to the supreme being by words like पुरुष and अधिपुरुश etc." २. वसुनन्दि-श्रावकाचार ४६०-४६३.
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy