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पंछी, नीड किधर है तेरा १
( श्री विजयकुमार चौधरी, साहित्यरत्न, साहित्यशास्त्री )
( १ )
अनन्तमें,
उड़ता है तू किस किसका तूने लक्ष्य बनाया ? जीवन के सूखे पतझड़ में, किसको नया वसन्त बनाया ? तिमिरावृत इस बीहड़ वनमें, किस तरुपर है किया वसेरा ?
( २ )
तूने अब तक समझ न पाया गतिका अन्त यहाँ नहि होगा !
मृग मरीचिका में कदापि क्यासुरभित नव वसन्त कहिं होगा ? स्वप्नोंकी भित्तीपर क्या कुछ कर सकता है चतुर चितेरा ?
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(8)
जीवनमें संघर्ष यहाँ है, तू अब तक क्या समझ न पाया ? सुखमें दुखका रूप छिपा है, दुखने सुख- श्रभास छिपाया । जीवनकी विषमयी विषमताका है यह स्वर्णाभ सबेरा ॥
( ३ )
तू बन उस पथका अनुगामी जिसपर चलकर घर पहुँचेगा ; जीवन, मृत्यु और द्विविधासे बचकर निज सुनीड़ पायेगा ! यहाँ न मोहित हो जाना तू, व्याधोंने है जाल बखेरा !
( ५ )
जहाँ नहीं जग आडम्बर है, मोहक अम्बर है। निस्तब्ध शान्तिमें कोलाहल है ।
ममताका
जीवनकी जहाँ न कोई उस अनन्तमें बसा स्त्रात्म
तेरा
( ६ )
उस अनन्तमें तू अनन्त बन - जिसमें सबका अन्त निहित है । तेरा ही तेरेमें सब कुछ, नहीं बाझका लेश निहित है । जहाँ न कर्म क्रिया कोई है, केवल ज्ञाताका ही डेरा ।
अपना नीड-बसेरा |
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