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किरण ५]
जीवन और विश्वपरिवर्तनोंका रहस्य
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कि "कर्मण्येवाधिकारस्ते" एकदम गलत हो जाता आत्मज्ञानी ही जान सकता है। बतलानेको तो है। मनुष्य कर्म करनेके लिए भी परम स्वतन्त्र या बहुत कुछ शास्त्रों में कथनोपकथन हो चुका है। पर स्वाधीन नहीं । जव स्वाधीनता नहीं तब फिर अधि- स्वच्छ सच्चा ज्ञान तो स्वय' दर्शन और अनुभव कार कैसा ? पर सांसारिक भाषामें ऐसा कथनोप. द्वारा ही होता है। कथन होता है और ऐसा न होनेसे फिर तो अज्ञानी संसारकी सारी व्यवस्थाए इसीलिए बनी हैं कि मानव बातोंको ठीक-ठीक नहीं समझनेके कारण कहीं व्यवधान न हो और सब काम ठीक-ठीक चुपचाप बैठ जाय, कुछ कर्म या क्रिया संसारमें न यथानुरूप और यथायोग्य एवं यथोचित होता करे यह गलत धारणा बनाकर कि जो कुछ होनेको जाय । मानव-जीवनका एकमात्र ध्येय ही है अविरल होगा वह तो अपने आप होगा ही। बात तो है सच- कर्म । संयमित कर्म, संयमित आचार-व्यवहार, मुच ऐसी ही पर इस अर्थमें नहीं जिस अर्थमें एक संयमित खानपान, संयमित बोलचाल वगैरह ही अनद्यमी, श्रमसे देह चुराने वाला या आलसी हमें मोक्षमार्गकी तरफ अग्रसर करते है। चुपचाप आदमी सोचकर या मानकर चुपचाप पड़े रहनेका बैठे रहना नहीं । जब कर्मवर्गणाओंमें परिवर्तन एक आसान बहाना निकाले-जैसे कि उसका जन्म होकर जरूरत मुताबिक शुद्धता आवेगी तभी कुछ संसारम व्यर्थ ही हो और उसके जन्मका कोई मत- हो सकता है और यह परिवर्तन वगैर कर्मके हो ही लब, ध्येय या अथे एकदम न हो, न उसका अपना नहीं सकता। और इसके अलावा भी भले ही कोई पार्ट (part) ही अदा करना हो । पर वह काम भ्रमपूर्वक मान ले कि वह कर्म नहीं कर रहा है या करे या न करे खाना-पीना भी तो एक काम ही है- ऐसा संभव है पर यह क्षणिक ऊपरी ही होगा न यह भी तो तब उसे छोड़ देना ठीक था-पर ऐसी स्थायी होगा न सचमुचका ही, न संभव ही है। बात नहीं है। संसार तो अग्रसरहोता ही जाता है- आज जो हम कर्म करते हैं उसकी प्रेरणाका बीज न
और उसमें उसे अपने भागका पाटे अदा करना हो जाने किस समय हुआ था-जिस वर्गणाके प्रभावपड़ेगा चाहे वह खुशीसे करे या दुखके साथ। में जो कर्म होता है न जाने किस भव या किस इत्यादि ।
जन्ममें-जो अनादिकालसे अब तक होता चला आत्मामें स्वयं अपना वीर्य ऐसा है कि जो उसे आया है-उसका गठन हुआ था-कौन जानता सतत विकास-द्वारा पुद्गलोंसे छुटकारा दिलानेमें है ? इत्यादि । सब कुछ अपने आप होते हुए भी समर्थ होता है। आत्माकी तर्क और बुद्धि द्वारा सबका सहयोग एवं सबका सहगमन अनिवार्य है। जितना जाना जा सकता है उतना शास्त्रों द्वारा हम बड़ी भारी विराट विश्व-मशीन या विराट हम जान पाते है बाकी तो स्वयं अनुभव द्वारा ही विश्व-शरीरके एक अंग या एक पुर्जामात्र हैं। अपनेजाना जा सकता है। जैसे साधारणतः मोटे तौर पर को अलग समझकर भ्रममागमें चलना नादानी, भी जिस चिड़ियाको हमने स्वयं आँखोंसे न देखा अज्ञानता या गलती ही है। हो उसके किसी दूसरे द्वारा जबानी वर्णनसे हम व्यक्तिकी कौन कहे, किसी देशका भाग्य भी ठीक-ठीक सच्चा अनमान नहीं लगा सकते या अंगूर सैकड़ों हजारों वर्षोंसे होते आए इतिहासका ही जिसने स्वयं न चखे हों उसके स्वादका अनुभव अन्तिम वर्तमान फल (resultant) होता है। किसी केवलमात्र दुसरेके वर्णनसे नहीं हो सकता । फिर धनीका लड़का अपने बाप-दादेका अर्जन किया धन
आत्मा तो वर्णनातीत ही है । केवल अनुभवगम्य जब प्राप्त करके मौजें उड़ाता है तो उसके इस तरहके है। तब आत्माका वह वीर्य क्या है जिसके कारण मनोभावों, आचार-व्यवहार एवं आचरण वगैरह वह पुद्गलोंसे छुटकारा पा जाता है यह बात तो की रूपरेखा बनानेमें वह उसके पुरुखाओं द्वारा