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किरण ७८] प्राचार्य विद्यान्नन्दका समय और स्वामो वीरसेन ने विद्रोहका मा खड़ा कर दिया था । गोविन्दने का गुबो ताम्रपत्र भी गंगराज्यकी सीमाके भीतर ध्रवके विरुद्ध गंगनरेशसे सहायता मांगो। वगि, कां- हो लिखाया गया कहा जाता है। चूकि मारसिंहने ची.मालवमादि नरेशोंके साथ शिवमारने भी गो- ध्रवका विरोध नहीं किया था, अतः राष्टकटोंने उसे विन्दकी सहायता की। किन्तु ध्रवने इन सबको परा- शेष गंगवाडिपर अपना अधिकार स्थापित कर लेने स्त कर दिया, गोविन्दका भी संभवतया उस युद्ध में दिया और वह तलकांडमें राज्य करने लगा। शिव अन्त होगया और सन् ७७६ ई. में भ्रव धारार्ष मार अवश्य ही उससे रुष्ट था और अपने दसरे
भाई विजयादित्यको अपना स्थानापन्न तथा उत्तरानिरूपम श्रीवल्लभ राष्टक्ट मिहासनपर आरूढ़ हुआ। माम्यखेट उस समय राष्टकूटोंकी राजधानी नहीं थी, धिकार वनाना चाहता था (वह स्वयं निस्सन्तान था).
किन्तु शत्रके हाथों बन्दी रहनेके कारण उसकी एक उस नगरका तो उस समय अस्तित्व भी नहीं था।
न चलो। इधर मारसिंहने भी अपने आपको प्रकउस समय उनकी राजधानी संभवतया एलोराके
टतः पूर्णपसे राजा घोषित नहीं किया। अपने एक निकट सोलुभंजन थी और नासिकके निकट मयूरखं
अभिलेखमें तो अपने लिये युवराज शब्द ही प्रयुक्त डी नामक दुर्गमें ध्रवने अपनी प्रधान छावनी स्थापित
किया' । ७८४ के पश्चात् शिवमारका शेष अधिकांश की ' । उसने अपने सुयोग्य ज्येष्ठ पत्र जगत्तङ्ग गो
जीवन राष्ट्रकूटोंके बन्दीगृहमें ही बीता और कमसेकम विन्द तृतीय प्रभूतवर्षको युवराज पदपर विधिवत
८०० ई. तक मारसिंह ही गणराज्यका वस्ततः अभिषिक्त कर उसे राजधानीका. छावनीका तथा
स्वामी बना रहा। यह राजा भी जैनधर्मका परम राज्यका अन्य समस्त आन्तरिक कारभार सौंप दिया
भक्त था। तलवाडके अंजनेय नामक जिनालयको और स्वयं अपने पूर्व शत्रओंके, जिन्होंने कि उसके
प्रदत्त दानके लिये वह प्रसिद्ध है। इस दानपत्र में विरुद्ध गोविन्द द्वि० की सहायता की थी, दमनमें
कोई तिथि नहीं दी हुई है; किन्तु कुछ विद्वान् इसे तत्पर हुआ । अपने छोटेसे शासनकाल में इन समस्त
७६० के लगभगका और कुछ ६ वी शताब्दीके राजाओको भीषण युद्धोंमें उसने करारी हार दी। प्रारम्भका मानते हैं । वीरसेनके गुरु एलाचार्यका गंग शिवमार भी स्वभावत: उसका कोपभाजन
भी वह भक्त रहा था और उनकी मृत्यु संभवत: बना. अतः सन् ७८४ के लगभग ध्रवने शिवमारको उस समय हुई थी जब वह अपने पिताके शासनयद्ध में पराजित कर अपना बन्दी बना लिया । एक कालमें कोवलनादका शासक था। उसने और भी शिलालेखका कथन है कि 'ध्रुव घार धारावषे निरु- धर्मकार्य किये हैं। इसी गंग मारसिंहके एक अधीपम कलिवल्लभ उद्धतेजसने उस पराक्रमी उद्धत नस्थ सर श्रोविजय द्वारा मन् ७६७ में एक गंगनरेशको पराजितकर बन्दी बना लिया, जो पहले जिनालय निर्माणका भी उल्लेख मिलता है । अपने कभी किसी अन्य व्यक्तिके द्वारा विजित नहीं हुआ मन्ने ताम्रपत्र में जो सन ७७ का है, मारसिंह था। गंगराजधानो मान्यपुरपर राष्ट्रकूटांका अधि- अपने भाई शिवमारकी भी प्रशंसा करता है, उमे कार होगया और उसी समय सन् ७८४ में ध्रुवके गजाष्टकका कर्ता और पातञ्जलिके एक प्रकरण पुत्र जगत्तुग गोविन्द तृतीयने मान्यपरके जिनालयको -
मन्ने ता. प.-E.C.9 ml 60. जलमंगल नामक ग्राम प्रदान किया । ध्रुव धारावर्ष ।
२J.A.X|| P.b., M. A. R. 1932 १J. A.X12P.51.
P.250-41. इस जिनालयको संभवतया ७५०में गोव२J.A.-XII, P.35., जैन शिलालेख पय्यने बनवाया था। संग्रह पृ. ७६
३ Goianot-122 ३ Rice-mses. SR. B.G.-P.71.
.E.C.9 me 60 वास्तव में शिवमार भी परम .M.J.-P. 88.,J.AAI 22.36. जैन भक्त था उसने मन्दिर निर्माबादि भनेक धर्म कार्य किये
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