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फणिसूतमतका परिज्ञाता कहता है । उसे विपत्तियों से ग्रस्त बताता है जोकि उसके बन्दी जीवनका सूचक है। किन्तु साथ ही उसके द्वारा वल्लभेन्द्रके साथ हैहय चालुक्य मित्र संघपर विजय प्राप्त करनेका उल्लेख भी करता । ऐसा मालूम होता है कि उस समय राष्ट्रकूटोंका वेंगिके साथ युद्धारम्भ हो जानेसे गोविन्द ने उसे अस्थायी रूपसे मुक्त कर अपनी सेनाओंके साथ शत्रुओं के विरुद्ध युद्ध मे भेजा हो जिसमे कि शिवमारने अद्भुत पराक्रम दिखला या हो । तथापि जैसा कि मारसिंहके गंजम ताम्रपत्र से' प्रकट हैं जिसे राइस साहब ८०० ई० का मानते है ८०० ई० तक तो शिवमार अपना राज्य पुनः प्राप्त कर नहीं सका था । उसके कुछ काल पश्चात् ही शिवमारकी पूर्व सहायता से प्रसन्न गोविन्द तृतीयने पल्लवराजकी सिफारिशपर उसे मुक्त कर दिया और उसका राज्य भी वापस लौटा दिया। जगत्तुंग के कदम्ब ताम्रपत्रका कथन है कि शिवमार राष्ट्रकूटों और पल्लवों द्वारा पुनः अपने सिंहासनपर बैठाया गया था। इस समय पूर्वी चालुक्य विजयादित्य द्वितीय भीम (७६६ ८४३ ) के साथ गोविन्दका द्वादश वर्षीय युद्ध आरम्भ हो गया था। यह युद्ध भी शिव मारकी इस मुक्ति निमित्त कारण हुआ, गोविन्द को अब गंगों की सहायताकी बड़ी आवश्यकता थी । क्योंकि गोविन्द के भाई स्तम्भ द्वारा मन्ने ताम्रपत्र ८०२ मे लिखाया गया था और क्योंकि यह द्वादश वर्षीय राष्ट्रकूट चालुक्ययुद्ध अमोघवर्षके समय तक (८१५ ई० तक चलता रहा था । अतः शिवमारने ८०३ ई० के लगभग अपना राज्य पुनः प्राप्त किया । इस बार शिवमारको राष्ट्रकूटों और पल्लवांकी भी सहायता प्राप्त होनेसे मारसिंहको उसका विरोध करने का साहस नहीं हुआ । उसने तलकार को खाली कर गंगराराज्यके उत्तरीपूर्वी भाग- कोलर प्रदेश में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया और वहीं
अनेकान्त
| वर्ष १० आगेसे वह तथा उसके वंशज पृथ्वीपति अपराजित आदि सन् ६५० के लगभग तक तलकाडके मूल गंगवंशसे पृथक् एवं स्वतंत्र रहकर राज्य करते रहे । अपनी स्वयंकी परेशानियोंमें उलझा हुआ होने के कारण शिवमारने भी इसपर विशेष ध्यान नहीं दिया। राष्ट्रकूटों के प्रतिशोध की अग्नि उसके हृदयको जला रही थी, वह चैनसे न बैठ सका और गोविन्द की सहायता करनेके बजाय उसके विरुद्ध ही उसने युद्ध छेड़ दिया । इस विश्वासघात से गोविन्द चिढ़ गया और उसने गंगराज्यपर आक्रमण कर शिवमारको पराजित करके फिरसे बन्दा बना लिया। यह घटना ८०५-६ को है, क्योंकि चामराजनगर से प्राप्त ८०७ ई० के ताम्रपत्र के अनुसार गोविन्द तृ० के भाई एव प्रतिनिधि रावलोक कम्ब्बराजने जो तालवन नगरमे अपनी विजयी संनाकी छावनी डाले पड़ा था, अपने पुत्र शंकर गणको प्रार्थना पर उक्त तालवनपुर (गंगराजधानी) की श्रीविजय वसदिक लिये कुन्दकुन्दान्वय के कुमारनन्दी भट्टारककं प्रशिष्य और गुरुएलाचार्य के शिष्य वर्धमान गुरुको वदनगुप्प नामक ग्राम प्रदान किया था । ऐसा प्रतीत होता है कि अबकी बार शिवमारका शेष जीवन राष्ट्रकूट बन्दीगृहमें ही बीता, किन्तु अपने इस २-३ वर्षके अल्प मुक्तिकाल ही इस दुर्घटनाकी आशंका उसअपने दूसरे भाई विजयादित्य रणविक्रमको अपना उत्तराधिकारी एवं स्थानापन्न पहिले से ही नियुक्त कर दिया था । गल्लियादपुर ताम्रपत्र र काभी यही कथन है कि शिवमारने अपने अनुज विजयादित्यको गद्दी पर बैठा दिया था। इससे स्पष्ट है कि शिवमार उस समय बन्दी था और विजयादित्य अपने गये हुए गंगवाड़ि राज्यको राष्ट्रकूटोंसे पुनः प्राप्त करने में प्रयत्नशील रहा । किन्तु अपने जीवन में उसे राज्य प्राप्त करने और गंगनरेश बननेका अवसर न मिल सका। इस बार राष्ट्रकूटोंने एक अन्य गंगसदार
E.C IV SR. 161 P. 143. M.J.P-36-37, E.C. IX nu 61 P. 43, इसमें गोविन्द तृ० द्वारा १२ प्रसिद्ध नरेशोंको परा
M.A.R.-13 P. 3., J. A.XII 2 P.5 E.C. 12 NG. 129.