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________________ अनेकान्त वर्ष १० पुद्गलका जो शरीर आत्माके साथ लगा हुआ से प्रायः अनाकर्षित, दूर तथा अपरिचित ही रहा। है उसके तीन विभाग है । एक तो सक्षम या परम संमारकी विचित्रताओंका भी कोई समुचित, तर्फसक्ष्म 'कार्माणशरीर' है जो 'कार्मण वर्गणओं- पूर्ण, बुद्धिगम्य, युत्तियुक्त एवं वैज्ञानिक द्वारा निर्मित है, दूसरा 'तेजस शरीर' है और वे व्याख्यान. विवेचन, उत्तर या वास्तविक कारणों दोनों अदृश्य हैं। तीसरा औहारिक शरीर है जिसे का निरूपण कहीं ऐसा नहीं मिलता जिससे सन्तोष हो हम अपने सामने प्रत्यक्ष देखते है । इनका विशद सके और इसलिये जिज्ञासु मानव धार्मिक तत्त्वोंकी विवरण जैन शास्त्रोंमें मिलता है। कर्मवर्गणाओका अन्त दृष्टिमे प्रायः वंचित ही रह जाता है या जन्मश्रात्मासे सम्बद्ध होना, बिछड़ना और उसमे जात आस्थाके न होनेमे उसपर विश्वास नहीं ला सर्वदा परिवर्तन होते रहनेके कारण जो कुछ असर पाता है । जन्मजात आस्था भी वस्तुके मुलरूप और इस शरीर धारीकं कार्यो' या मुख दुख वगैरह पर उसके परिवर्तनादिके कारण-भूत तत्त्वों या उपादानों पड़ता है उसे ही हम संसारावस्था कहते है । इन की क्रिया-प्रक्रियाको प्रत्यक्ष अनुभव करनेके उपरान्त मबका भी विशद व्यवस्थित वर्णन शास्त्रोंमें ज्ञानकी निर्मलतामें जितनी पूर्ण रूपसे सहायक एवं मिलता है । इन 'कर्मवर्गणाओं को ही सक्षपमे कार्यकारी होगी उतनी केवल वाणित परिणामोंकी "क" कहा गया है। इनमें परिवर्तन कैम कैसे विशद व्याख्या द्वारा नहीं हो सकती। क्रिया-प्रक्रिया होता है या हर एक परिवर्तनका क्या-क्या असर की साक्षात अन्तष्टि किसी भी विषयक ज्ञानको पड़ता है और जन्म, मरण, रोग शोक इत्यादि प्रत्यक्ष या एकदम निमल बना देती है। जहां शंकाजो कुछ भी जीवके साथ सामारिक अवस्थामें हर का एकदम अभाव हो जाता है। विद्वान केवल समय होता रहता है उसके उस रूपमे होनेका मूल मानकर ही नहीं चलता है, बल्कि समझकर या जान क्या है या मूलमें वह किस तरह संपादित होता है, कर मानता है और तब चलता है। इसके अतिरिक्त यही यहाँ दिग्दर्शन कगना मुख्य ध्येय इस लेखका जो जन्मजात जैनी नहीं वे क्यों इस तरहकी बातों है ( How tbese fahenomena take place को मानने लगे जिनका कोई सबूत ऐसा नहीं जिस actually) इनके कार्य कारणमें एक अन्त दृष्टि प्रान आजकलका वैज्ञानिक संसार अपनी मान्यताको उस करना ही हमारा खास मतलब है। शास्त्रोंमे वणित पर बड़ा करने या स्थिर करनेके लिये आधाररूपम व्याख्याए केवल फल (result or resultant मर्वप्रथम किसी नई बातकी जानकारीके लिए श्रावconclusions) या अन्तिमरूप ही वर्णन करती श्यक समझना हो। वह सब कुछ तर्कपूण, बद्धिगहै बतलाती है कि कौनसी 'कर्मवर्गणा" या कौनस म्य और युक्तियुक्त होते हुए भी साक्षात् देखना, 'कर्म' लगनेस अथवा बिछड़ने या उनमें परिवर्तन मिद्ध करना, जानना एवं अनुभव करना चाहता है। होनस क्या असर होता है। पर इन कर्मवर्गणाओं अन्यथा वह कोई भी एमी बात माननेको या स्वीमें यह जो परिवर्तन या आपसी प्रांतरिक क्रिया कार करनेको तैयार नहीं। इसी कठिनाईको दर प्रक्रिया (Internal action and reaction) होती करनेके लिये एवं संसारकी विचित्रताओंका एक रहती है वह क्यों और कैसे होती हैं तथा इनक ऐसा वैज्ञानिक ममाधान (solution) उपस्थित कर होनेका जो प्रभाव पड़ता है वह क्यों और कैंस सकनेक लिये जो वस्तुतः प्रत्यक्ष और प्रयोगात्मक एवं पड़ता है, यही दिखलाना यहां इष्ट या अपना सचमुच कार्यकारी (realistic & practical) हो, प्रतिपाद्य विषय है। अब तक जैन शास्त्रोंमे इसकी यह लेख लिखा गया है । इस तरहकी व्याख्याके म मिलनेसे आधुनिक हरक मुलधातु ( element ) का सबसे वैज्ञानिक समाज इस परम वैज्ञानिक धर्म सिद्धान्त- छोटा अदृश्य (Invisible) मूलरूप 'एटम'
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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